प्रविष्टि क्र. 74 नन्हा शिल्पकार नीतू मुकुल “ जब वह इस दुनिया में आया,” तो उसकी माँ बेहद गरीब थी, न उसके पास पहनने को कपड़े और न ही ढंग से ख...
प्रविष्टि क्र. 74
नन्हा शिल्पकार
नीतू मुकुल
“जब वह इस दुनिया में आया,” तो उसकी माँ बेहद गरीब थी, न उसके पास पहनने को कपड़े और न ही ढंग से खाने को खाना था और गर्भवती होने के कुछ ही महीने में उसके पति का इंतकाल हो गया था। परिवार के नाम पर कोई भी न था। न बाप, न खानदान, न गोत्र के लोग, न जात।
उसके माँ-बाप अपनी शादी के एक-दूसरे के बारे में कुछ न जानते थे। बस दोनों की एक मेले में मुलाकात हुयी, फिर प्यार, फिर शादी। किसी तरह खेतों में काम करके और गुजर बसर करते। न चाहते हुए भी वो इस दुनिया में आ गया। दुनिया में आने से पहले ही बाप का साया सर से उठ गया “बस फिर क्या था,” लोगों ने “मनहूस”, “पनौती” जैसे न जाने कितने नामों से उसे नवाज दिया।
आखिर नौ महीने का लंबा सफ़र तय करने के बाद वो अपनी मिचमिची छोटी-छोटी आँखों में ढेर सारे सपने लिए आ गया। जब पैदा हुआ तो इतना कमजोर था कि लोगों ने कहा कि ये दो घंटे भी जी जाए तो बहुत है। साँसे इतनी मुश्किल से ले रहा था कि सोहर में बैठी माँ भी अपने बेटे की “साँसें” बंद होने का इंतज़ार कर रही थी। गाँव की सारी औरतें इकठ्ठा हो गयीं, उनमें से कुछ बोली जल्दी से इसका नामकरण कर दो, कहीं ऐसा न हो कि बिना नाम का ही मर जाये, तो इसकी आत्मा प्रेत बन कर भटकती रहेगी। कम-से-कम नाम मिल जाने पर पूजा पाठ करवा कर इसकी आत्मा को शांति मिलेगी। बहरहाल जल्दी से पंडित बुलाया गया। पंडित ने मंत्रोचार करते हुए बालक का नाम “अहुना” रख दिया और इसके बाद उस पर गंगा जल छिड़ककर उसकी आत्मा की शान्ति के लिए पूजा भी कर दी।
आखिर ये सब तो ठीक, वो बालक तीन वर्ष का हो गया। लेकिन आज भी सांस बड़ी मुश्किल से ले पाता। रोता तो ऐसा लगता कोई बिल्ली मिमिया रही हो, छटांक भर की दूरी में भी उसकी आवाज नहीं सुनायी देती, भूख लगती तो घर पर खाने को भी न रहता, रसोईं में जाकर इधर उधर बर्तन पलटता तो भी थोड़ा सा खाने को न मिलता। बेचारा मन मार कर रह जाता। एक तो पहले ही कमजोर पैदा हुआ, ऊपर से इस भुखमरी ने उसके शरीर को और कमजोर कर दिया। कोई उसे देखता तो ऐसा लगता कि कंकाल पर सूखी खाल का कपड़ा चढ़ा हो।
देखते देखते वो अब दस वर्ष का हो गया। माँ से प्यार कम, डांट और मार ज्यादा मिलती। माँ को वह फूटी आँख न सोहाता था। माँ को लगता ये बेटा उसके पैर की जंजीर बन गया है, जिसकी वजह से उसे अपने उगते सपनों पर रोक लगानी पड़ रही थी। वो थी भी बेहद खूबसूरत और उसे ये डर हमेशा सताता रहता कि कहीं उसकी यह ख़ूबसूरती धरी न रह जाए।
बात उस समय की है जब उसकी शादी के कुछ महीने ही हुए थे तभी गाँव के पास पहाड़ी में विज्ञापन की शूटिंग करने वाले आये। और उन्हें एक सीन के लिए गाँव की एक खूबसूरत लड़की चाहिए थी। किसी ने अहुना की माँ का नाम सुझा दिया था। जब उसको शूटिंग के लिए तैयार किया गया तो गरीबी का नूर दमक उठा। एक बार तो साथ सीन कर रही हेरोइन को भी कोफ़्त हो गयी। सारी यूनिट ने उसकी सुन्दरता के कसीदे पढ़े, लेकिन ये सब तो एक हवा के झोंके की तरह आया और पलभर में सब गायब हो गया। लेकिन अहुना की माँ की जिन्दगी में हलचल पैदा कर गया। जब तक पति ज़िंदा था, तब तक वो उसके डर से अपने ख़्वाबों को अकेले में शीशे के सामने उतारती, करती भी क्या ? एक तो गरीबी से उसका बचपन से ही चोली दामन का साथ था, मरती क्या न करती, अपने अरमानों को अपने काजल के साथ बहने देती थी और जब से ये कमजोर मरियल सा बच्चा पैदा जना तो .......|
अहुना की माँ उसे एक मिनट भी बर्दाश्त न करती थी, हर समय झिड़कती रहती, पर वो बेचारा माँ के पास ही रहना चाहता था। ऐसे ही एक बार अहुना को लेकर काम पर जा रही थी तो एक जगह पानी पीने रुक गयी, उसी समय अहुना ने उस दुकान में बिस्कुट रखे देखे तो जिद्द करने लगा ..
“अम्मा .. ये बिस्कुट खाना है।”
“अरे कहां से लाये, हमारे पास पैसे नहीं है।”
“हम घर नहीं जाएंगे, पहले बिस्कुट लाओ।”
कनपटी पर जोर का पड़ा।
“समझ नहीं आता तुमको, पैसा नहीं है।”
तभी पास बैठे दो सज्जन बोले “अरे भैय्या इसे जितने बिस्कुट चाहिए दे दो।”
दुकान वाले ने उसके सामने जार खोल कर रख दिया। अहुना ने चार बिस्कुट उठा लिए और मासूमियत के साथ अपनी माँ के आंचल में छुप गया।
“क्यों मार रही हो ?, बच्चे तो मांगेंगे ही।”
“अरे बाबू आप जो कह रहे है वो सही है, पर हम इसकी जिद्द कहां से पूरी करें। सारा दिन काम करती हूँ तब कहीं जाकर बड़ी मुश्किल से दो जून की रोटी का इंतजाम हो पाता है।” उनमें से एक बोला ..
“मेरा नाम माखन है। मेरी पहुँच काफी ऊपर तक है। तुम आकर मिलना, मैं तुम्हारे मुताबिक अच्छा काम दिलवा सकता हूँ, बाकी तुम्हारी मर्जी।”
“आपकी मदद का मेरे ऊपर बड़ा एहसान होगा।” अहुना की माँ बोली।
बस यहीं से शुरू होता है अहुना के जीवन का वो अंधियारा सफ़र।
धीरे-धीरे अहुना की माँ और माखन की दोस्ती हो गयी और शुरू हो गया वो अधूरा सफ़र जो वो पीछे छोड़ आयी थी। उसके सपने दुबारा उगने शुरू हो गए। इन सब के बीच अहुना पिसता रहा। वो उसे अपने से हर समय दूर रखने लगी। खैर अहुना तो बच्चा था जिसने ज़िंदा रहने की लड़ाई पैदा होते ही शुरू कर दी थी।
बहरहाल उसने माँ के साथ रहने की जुगत निकाल ही ली। अब अहुना रोजमर्रा के छोटे-मोटे कामों में अपनी माँ का हाथ बटाने लगा। मसलन गाय के बाड़े से गोबर समेटना, फिर उन्हें ले जाकर माँ के साथ कंडे थापना, गाय को चारा पानी देना, माँ सब्जी काटे तो आलू छीलना, माँ आंटा गूंथे तो उस आटे की गोल-मटोल लोईयाँ बनाना और खाना खा कर माँ के साथ बर्तन भी मांजना। इस तरह वो ज्यादा से ज्यादा माँ के पास रहने लगा। उसके इस तरह की मदद से माँ को भी अपने बच्चे पर प्यार आ जाता।
उधर अहुना को बच्चे अपने साथ न खेलने देते थे क्योंकि अहुना शरीर और जाति दोनों से कमजोर था। हाँ .. बस इस बात के लिए अहुना को जरूर याद किया जाता था जब गिल्ली डंडा खेलते समय गिल्ली नाली में गिर जाती या किसी दूसरे घर के बखरी में गेंद चली जाती, तो अहुना को ही मजबूरी में निकालना पड़ता। बस इतना ही बच्चों की टोली का साथ था, इसलिए उसका मन उन सब के साथ खेलने का न होता।
आज कल उसे एक नया खेल मिल गया था, कंडे थापने में उसे बहुत मजा आने लगा था। वो उस गोबर को नए-नए आकार देने लगा था। कभी बिल्ली, कभी शेर, कभी फूल, पता नहीं कितनी तरह की आकृति बनाने लगा था। जो भी उसके थोपे कंडे देखता दंग रह जाता, हर देखने वाला उसके हुनर की तारीफ़ करे बिना नहीं रह पाता। एक दिन परात मांजते मांजते कंडे की काली राख के लेप के बाद परात की पीठ पर जब वो अपने नन्ही नन्ही उँगलियों को घुमाता तो लेप की परत के नीचे से पीतल की सतह स्वर्ण रेखाओं सी चमकने लगती, उन आकृतियों से जो कुछ बनता वह नया और अप्रत्याशित होता, जिसे देख कर अहुना आनंद के अतिरेक से भर जाता। कंडे और राख से होते हुए उसकी चित्रकारी का कैनवास बड़ा होने लगा। अक्सर वो गाँव के बाहर जंगल की तरफ निकल जाता और कुदरत द्वारा की गयी चित्रकारी को देख उसमें मन ही मन रंग भरने की नाकाम कोशिश करता।
पड़ोस में रहने वाली मालती काकी की बेटी की शादी थी। गाँव में शादी की समय दीवालों पर तरह तरह की कलाकृति मढ़ाने का रिवाज था। मालती काकी ने अहुना की चित्रकारी को देखा हुआ था सो ये काम उसे दे दिया। अब अहुना की तो बल्ले-बल्ले हो गयी।
“अहुना..! मिट्टी लाने में मेरी मदद कर बेटा।”
“आया .. माँ।”
भागकर गया, मिट्टी लाया, माँ के साथ उसे पहले दीवारों पर पोता फिर खड़िया से पुताई की इसके बाद उसमें हरे नीले पीले रंग से सुंदर सुंदर फूल-पत्ती,मोर-मोरनी, दुल्हा-दुल्हन का जोड़ा ऐसे उकेरा कि वो सजीव सी प्रतीत होने लगी थी। जिसने भी उस दस साल के बच्चे की कलाकारी देखी दांतों तले उंगली दबा ली। अहुना, चारों तरफ अपनी चमक रही शान से बहुत खुश था। अब उन माँ बेटे को आमदनी भी ठीक-ठाक होने लगी थी, पहले की तरह घर में खाने का अकाल न रहता। ये चित्रकारी उसके जीवन में खुशियों के रंग भर रही थी।
बहरहाल अब अहुना भीत पर गोबर और गुलतेवड़ी के फूलों की पंखुरियों से संजाबाई की लोक कथा के पात्र जाड़ी-जसोदा, पातली-प्रेमा के चित्रों को ऐसा उकेरा कि घर-घर से देखने को औरतें और लड़कियां आयीं और संजाबाई की लोक कथा के पात्रों को देखने की मनुहार करने लगीं।
लेकिन इसके बाद एक ऐसा हादसा घटा जिससे अहुना के जीवन को नयी रफ़्तार मिल गयी। कुछ दिन बाद गणेश चतुर्थी का पूजन था। गाँव के मंदिरों में शिल्पकार बुलाये जाते और गणेश प्रतिमा बनवाई जाती पर मंदिरों में दलितों को पूजा अर्चना में शामिल नहीं किया जाता था। इस बार अहुना को देख सबके मन में ख्याल आया कि क्यूं न इसी बच्चे से मिट्टी के गणेश जी बनवा दिए जाएँ और क्यों न हम सब अपने टीले पर गणेश पूजा का आयोजन रखें ?
“अहुना ...ओ अहुना ...|” पुकारते हुए भेदुआ कुम्हार की अम्मा अंदर आयी।
“गोड़ लागूं दादी ..।” कहते हुए अहुना ने उनके पैर छुए।
“बेटा ... का तुम मिट्टी के छोटे से गणेश जी बनाओगे ?”
वो तुम्हार मूर्ति बनाये वाले काका गाँव से बाहर गए हैं, तीन चार महिनवा बाद लौटिहें, कुछ दिन मा गणेश पूजन है, वो तुम्हरा नाम सुझाय गएँ हैं।” अहुना खुशी के मारे उनसे लिपट गया।
“जरूर दादी ..|”
अब उसको एक नया काम मिल गया। पीछे आँगन में प्रतिमा को आकार देने लगा। इस दौरान न उसे भूख की फिक्र न सोने की। रात हो या दिन मूर्ति को आकार देने में लगा रहता। उसके हिसाब से मूर्ति में कोई कसर रह जाती तो तो रात में ठीक हो जाती। उसे लगता जरूर भगवान उससे प्रसन्न है। तभी ऐसा हो रहा है। वो बेचारा जानता भी न था। उसकी माँ बच्चे के उत्साह को देख कर रात में चुपचाप उठकर मूर्ति ठीक कर देती थी। खैर किसी तरह मूर्ति ने आकार ले लिया, अब रंग भरने के लिए मूर्ति को कुछ दिन के लिए सूखना था। गाँव के शिल्पकार छाग्ग्न काका ने उसको वचन दिया था कि अगर तुमने ये गणेश जी की मूर्ति अच्छी बना ली तभी मैं तुम्हें शिल्पकारी सिखाऊँगा। अहुना बेसब्री से सूखने का इंतज़ार करता कि कब उसमें रंग भरे जाएँ और उसे मूर्ति-शिल्पकार के रूप में जाना जाये।
एक दिन वो चांदनी रात में खाट डाले सो रहा था। खड़ाक.... के साथ आवाज हुयी, उसकी नींद टूट गयी, उनींदी आँखों से उसने माखन चाचा को देखा और सो गया।
“अरे कहां हो ? इतने दिनों से मिलने क्यों नहीं आयी ?”
“अरे जरा धीरे बोलो किसी ने सुन लिया तो ..!”
“हम डरते है क्या किसी से ....|” और उसे अपनी बांहों में खींच लिया। अहुना की माँ छोड़ने का नाटक करती हुयी बोली ..
“हमार हेरोइन बनने का क्या हुआ ?”
“सब काम हो गया है बस एक दो महीने में रहने का इंतजाम हो जाएगा तो हम अपनी रानी को लेकर बम्बई चले जायेंगे, पर हां तब तक तुम अपने लौंडे के रहने का इंतजाम कर दो। इसे लेकर जाओगी तो तुम्हें कोई हीरोइन का काम नहीं देगा।” बेचारी थोड़ा उदास हो गयी। माखन ने उसका चेहरा अपने हाथों में लेकर बोला ..
“उदास क्यों होती हो ? जब तुम सेटेल हो जाओगी तब अहुना को बुला लेंगे।”
“हुम्म्म्म....” और उसके सीने पर सर रख कर लेट गयी। माखन की पूरी देह झनझना सी गयी, आँखें निंदिया सी गयी, अंदर की पूरी ताकत बाहर आने लगी, वह उसमें उलझता फंसता नीचे आ गिरा। तेज़ आंधी का झोंका, ऊंचे नीचे रास्ते उसमे गिरता फिसलता माखन और उसे थामती अहुना की माँ......| घंटे भर बाद बाहर निकला तो उजाला हो चुका था।
यह मूर्ति अहुना की पहली प्रेक्षक कला थी जो पूरा होने के पहले ही ढह गयी। सुबह जब अहुना जागा तो उसने अपनी बनाई प्रतिमा को जमीन में खंडित पाया। उसने गुस्से में माँ को आवाज लगाई ..
“माँ... माँ ..अरे माँ ..जरा जल्दी इधर आना देख तो सही किसी ने मेरी मूर्ति तोड़ दी अब दो-तीन दिन बाद ही तो गणेश चतुर्थी है इतनी जल्दी दूसरी मूर्ति कैसे बनाउंगा ? अब मैं कभी शिल्पकार नहीं बन पाउँगा। मूर्ति नहीं बनाऊंगा तो काका मुझे मूर्ति बनाना नहीं सिखायेंगे। माँ ने समझाने का बहुत प्रयास किया लेकिन अहुना ने सारा घर रो-रो कर सर पर उठा लिया। उसे बार बार लगता कि जैसे दुष्ट हिरण्यकश्यप को मारने के लिए भगवान खम्बा तोड़कर बाहर आ गए थे ऐसे, मूर्ति फोड़कर गणेश जी क्यों नहीं निकलकर माखन चाचा को द्मीच-द्मीच कर मार डालते।
बालमन की कल्पनाओं पर कौन रोक लगा सकता है। उसने पास पड़े गोबर को उठाया और उसमें माखन चाचा की आकृति बनाई फिर उसे धूप में सूखने रख दिया, जब शाम को माँ रोटी सेंकने बैठी तो उस पुतले को चूल्हे की आग में झोंक दिया वो पुतला तेज़ी से जलने लगा।
“अहुना का डाले हो चूल्हे में ?”
“माखन चाचा का पुतला डाला है उन्होंने हमारी मूर्ति तोड़ी थी ना...., उसके हम सजा दिए हैं।” आँखों में आक्रोश भर कर बोला।
माँ ने अविलम्ब उसे चिमटा से खींच कर बाहर निकाला और पानी डालकर ठंडा किया शायद वो अनहोनी आशंकाओं से घबरा गयी थी पहली बार बिना लताड़े बस इतना ही कहा ..
“ अहुना .. ऐसे काम करनो कोई अच्छी बात नी है .”
अहुना बिना कुछ कहे पास ही जंगल की ओर चला गया। वहां जाकर देखा कि बकरियां चराने आये गाँव के लड़के आपस में गेंद से खेल रहे थे अहुना को तो वैसे भी कोई पसंद नहीं करता था क्योंकि और बच्चों से उसकी दुनिया अलग थी। वो चाक, कोयला, गोबर जो भी मिलता उनसे कुदरत के रंग बिखेरता रहता था। उसे भगवान् की रची हर एक चीज में कला नजर आती। कुछ गुस्सा कुछ डर से देर रात घर पहुंचा तो माँ ने बताया कि पूजा के लिए काका ने मूर्ति बना ली है इस बार हम सब भी मंदिर की तरह गणेश जी की पूजा करेंगे और फिर ग्यारहवें दिन उनका विसर्जन करने गंगा मैय्या के किनारे चलेंगे। इस सब में तुमको बड़ा मजा आएगा।
माँ की बात सुन वो निश्चिंत हो गया, दूसरे दिन से पंडाल में पूजा की तैय्यारी शुरू हो गयी। भजन कीर्तन होते, आरती होती, प्रसाद चढ़ता और इन सब के बाद ही उसे अन्दर कुछ कचोटता रहता। एक दिन पूजा के फूल लेने बच्चों की टोली के साथ गया, फूल काफी ऊंचाई में थे सो दुबला पतला होने के कारण अहुना को पेड़ के ऊपर चढ़ा दिया गया। बाकी बच्चे नीचे गमछा बिछाकर फूल बटोरने लगे। तभी अहुना की नजर मन्दिर के अहाते में गयी, वहां मिट्टी की गणेश प्रतिमा रखी थी, शायद अभी तक पूरी बन कर तैयार नहीं हुई थी।, सूंड़ बनना शेष रह गया था। उसने देखा कि पास ही गीली मिट्टी पड़ी है, वो समझ गया कि मूर्तिकार बाहर खाना खाने गया है। वो फटाक से कूदा और दीवाल लांघ कर अंदर जाने का प्रयास करने लगा, तभी उसके साथियों ने उसे रोका ..
“अहुना..! मत जा वो गाँव के पुरोहित का अहाता है, वो शायद अपने लिए अलग से मूर्ति बनवा रहे है। तू नहीं जानता क्या कि हम लोग मंदिर के अंदर नहीं जा सकते और मूर्ति छूना तो बहुत दूर की बात है।”
लेकिन अहुना न माना और चुपचाप से अंदर चला गया। मिट्टी की प्रतिमा एक बड़ा शिल्पकार कैसे ढालता है ये उसका पहला अनुभव था। उसने मूर्ति को खूब छू-छू कर देखा, फिर पास पड़ी मिट्टी से सूंड़ को आकार देने लगा। तभी किसी के आने की आहट सुन वो तुरंत वहां से हट गया। आज उसे बेहद सुखद अनुभव हुआ था। शिल्पकार के आते ही छुपकर उसके हाथों को देखता कैसे सूंड़ को आकार दे रहा है। प्रायः वो रोज ही समय पर पहुँच जाता, फिर शिल्पकार के जाते ही अपने नन्हे-नन्हे हाथों से आकार देने लगता। इसी तरह दो-तीन दिन बीत गए। उस दिन भी रोज की तरह मूर्ति को आकार दे रहा था। सहसा क़दमों की आहट सुन वहां से तेजी से हटा तो उसका पैर मूर्ति से टकरा गया और मूर्ति पूरी तरह न सूखने के कारण गिर कर खंडित हो गयी, अहुना डर गया और भागकर वहीं एक पेड़ के पीछे छुप कर खड़ा हो गया। उधर शिल्पकार ने आवाज लगाकर सबको इकठ्ठा कर लिया और उस चोर को ढूँढने लगे। सहसा उनमें से एक की नजर अहुना पर पड़ गयी। खींच कर उसे बाहर ले गया। उसे देखते ही पुरोहित भड़क गया ..
“साला .. तू तो ऊ टीले पर रहने वाले लोगों का लौंडा है। तोहार में इतनी हिम्मत कहां से आ गयी हमार अहाते में घुसने की। मारो ..!!! साले चोर को”
अहुना घबराया हुआ बोला..
“हम चोरी नहीं कर रहे थे, बस मूर्ति को आकार देने की कोशिश कर रहे थे तभी शिल्पकार जी आ गए तो हम घबराकर भागे तो मूर्ति में हमार पाँव लग गया।”
“राम-राम ! तेरा पैर भगवान् जी को लग गया। तू तो नरक में जाएगा।”
तभी शिल्पकार बोला “तबहीं हमका लागत रहे हमरे जाने के बाद जरूर कौवनो आवत है। तूने मूर्ति खंडित की है तुझे जरूर सजा मिलेगी।”
“अरे ओ समपत्वा ! लगा साले के चार-छः लात-घूँसा।”
उस घर के बच्चों और बड़ों सब ने उस पर लात घूंसों की बरसात कर दी। अहुना के कई जगह चोट लगी, खून भी बहने लगा।
तभी पुरोहित ने जोरदार लात बेचारे की पीठ पर मारी ..
“भाग साले यहाँ से”
शोर सुनकर वहां भीड़ इकट्ठा हो गयी, पर किसी ने उस कमजोर को बचाने का प्रयास नहीं किया। हाँ .... मूक दर्शक बन तमाशा जरूर देखते रहे।
तभी भीड़ को चीरती उसकी माँ आ गयी।
“काहे पुरोहित...! हमरे अहुना को काहे मारत हो।”
“अरे ई साला... काम ही ऐसा किये है, गणेश जी की मूर्ति तोड़ दिए है।”
“गलती हो गयी, बच्चा है.., का काउनो बच्चे को ऐसे मारत है ?”
फिर तीन चार लोगों की मदद से उसे घर लाया गया। अहुना फिर कभी चल न सका। उस मार के बाद तो बिस्तर ही पकड़ लिया। न खेलता, न हँसता, न किसी से कुछ कहता, चित्रकारी तो बस सपनों में करता। मजाल है जो जागते हुए पेंसिल या चाक को हाथ लगाता, लगाता भी कैसे ? माँ की सख्त हिदायत थी कि चित्रकारी का भूत अपने सर से उतार लो, नहीं तो ये बड़े लोग हमको यहाँ रहने नहीं देंगे।
सामने आँगन में धूप चढ़ आयी थी, अहुना वहीं किनारे खाट पर लेटा था।
“अम्मा अब अंदर चलो, यहाँ पर धूप लग रही है|”
कितनी बार माँ से बोल चुका था, पर अम्मा आती, जहां पर छाया होती खाट सरका चली जाती, पर आज अहुना को माँ की इस हरकत पर हमेशा की तरह गुस्सा नहीं आ रहा था। वो आँखें मूँद अपनी दुनिया में खोया था। तभी माखन चाचा ने सर को झुकाते हुए आंगन में प्रवेश किया, फिर भी दरवाजा काफी छोटा होने के कारण सर से टकरा गया, सर मलते हुए अहुना की माँ को आवाज लगायी, कमर में पल्लू खोंसे, अस्त व्यस्त बाल और हालत देख कोई भी कह सकता था कि बेचारी कई दिनों से सोई नहीं है। कमर का पल्लू खोल हाथ पोंछते हुए आयी और बोली
“बहुत दिनों बाद आये हो।”
“क्या करें ...! तुम सारा समय इस अपाहिज की सेवा में लगी रहती हो।” पास पड़ी तिपाई पर बैठती हुयी बोली “न करूंगी तो समाज क्या कहेगा ?”
“ये सब मैं नहीं जानता, मैं तुम्हें खुशखबरी देने आया था, हमारे रहने का इंतजाम हो गया है, अब तुम्हारे हेरोइन बनने का सपना जरूर पूरा हो जाएगा, बस अब जल्दी से इस लौंडे का कहीं इंतजाम कर दो। नहीं तो अपनी शक्ल आईने में देखो, ऐसे तो बन गयी हेरोइन। कुछ सोचा है इसका क्या करना है ?”
“करना क्या है पड़ोस में काकी से बात की है वो इसे खाना-पानी दे देंगी और इसका ख्याल भी रख लेंगी बाक़ी हम उनको यहाँ का हम सब कुछ काकी को सौंप देंगे। इसी लालच में वो इसकी देखभाल कर लेंगी। फिर कुछ दिनों में जब हम हेरोइन बन जायेंगे तब अपने साथ ले जायेंगे।”
“तू एकदम सही बोली।” और माखन रहस्मय मुस्कान में मुस्कुराने लगा।
रात जब माँ खाना लेकर आयी तो अहुना ने इनकार कर दिया, और बोला
“क्या माँ मैं तुम्हारी गोद में थोड़ी देर सर रख सकता हूँ ?”
माँ खाट पर बैठ गयी और उसका सर गोद में रख कर धीरे-धीरे सहलाने लगी। उसने कातर निगाहों से माँ की तरफ देखा
“माँ ..! मैं तुम्हें बहुत परेशान करता हूँ ?”
“किसने कहा तुझसे ?” माँ बोली।
“माँ मैंने दोपहर में चाचा और तुम्हारी बातें सुन ली थी। आप मेरी चिंता मत करो मैं बड़ा हो गया हूँ। देखो माँ हल्की हल्की मूंछें भी उग रही हैं। अब मैं अपना ख्याल रख सकता हूँ।” और अचानक तेज सांसें लेने लगा। उसे सांस लेने में तकलीफ हो रही थी, फिर भी बोले जा रहा था ...
“माँ, जब भी कुछ करने की कोशिश करता हूँ उस रंग के ऊपर पुराना रंग स्याह बन के फ़ैल जाता है और तस्वीर स्लेटी पर्त की हो जाती है। जब भी मैं कुछ मूर्ति बनाने की सोचता तो कोई भयानक सा दैत्य आ जाता है और मेरी बनी मूर्ति को अपने विशालकाय पंजों से नोच घसीट डालता।”
तभी अचानक जैसे कुछ याद आ जाता है। बड़ी मायूसी के साथ माँ से पूछता है ..
“माँ मैंने जो गणेश मूर्ति तोड़ी थी उसका क्या हुआ ?”
“कुछ नहीं बेटा गंगा जी में विसर्जित कर दी गयीं।”
“वहीं क्यों ? पूजा में रखी सारी मूर्तियां गंगा जी में प्रवाहित कर दी गयीं है।”
सहसा उसकी आँखों में चमक आ गयी।
“माँ इसका मतलब गंगा जी में ढेर सारी मिट्टी की मूर्तियाँ होंगी।”
“हाँ .. मेरे बच्चा।”
“तब में वहां जाकर मूर्तियाँ बना सकता हूँ, कोई मुझे मारेगा तो नहीं ? माँ मैं बिना डर के उन मूर्तियों को हाथ भी लगा सकता हूँ।”
बेटे का माथा चूमते हुए माँ बोली
“मेरे बच्चे कोई नहीं मारेगा।”
“तब तो माँ तुम मुझे गंगा मैय्या में डालकर चली जाओ और वहां पर मैं मूर्तियां बनाउंगा।”
ये कहते हुए उसके चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ गयी। चेहरे पर आत्मसंतोष झलक रहा था। धीरे धीरे उसने अपने आँखें बंद कर ली और कभी न उठने वाली चिर निंद्रा में हमेशा के लिए सो गया। वो ऐसी दुनिया में चला गया जहां कुछ खोने का डर न था। माँ की आँखों की कोर से दो बूँद आँसू लुढ़क कर उस “नन्हे-शिल्पकार” के गाल पर गिर गए। पर वो इससे बेखबर कुदरत की सजायी दुनिया में शिल्पकारी करने जा चुका था।
परिचय
1. रचनाकार का पूरा नाम -- नीतू मुकुल
2. पिता का नाम-- श्री प्रभु दयाल खरे
3. माता का नाम-- श्रीमती कमला खरे
4. पति का नाम-- डॉ श्रीपति वर्मा
5. वर्तमान / स्थायी पता--
209 , मुक्तानंद नगर , पूजा टावर के सामने ,गोपालपुरा बाईपास पुलिस चौकी के पास, जयपुर , (राज.)
6. ई-मेल-- neetumukul2015@gmail.com
7. शिक्षा / व्यवसाय-- एम्.ए ( राज नीति शास्त्र ) ,/----
8. प्रकाशन विवरण-– लगभग दो दर्जन कहानियां प्रकाशित
I. भारत-भारती ( ऑस्ट्रेलिया ) --- लघु कथा “बिना छाँव का दरख्त” अंक जुलाई 2017
II. साहित्य-कुञ्ज (कनाडा)--- कहानी “उसके मुकम्मल रिश्ते” अंक – अप्रैल 2017
III. कादम्बनी ---- कविता का प्रकाशन , अंक – मार्च 2017
IV. गृहलक्ष्मी --- कहानी “ज़ज्बा” का प्रकाशन , अंक –
V. गृहशोभा ..... कहानी “कोख का मुआवजा”, अंक – जून (द्वितीय ) 2017
VI. वनिता ..... लघु कथा “ साहस,श्रद्धा और समर्पण” अंक –मई-2017
VII. सरस सलिल ... कहानी “किसना” अंक-अप्रैल 2017
VIII. होम मेकर .... कहानी “किराए की बेटी” अंक – जुलाई 2016
IX. आह जिन्दगी .... “आखिर कसूर क्या था” अंक – नवम्बर 2017
X. सरिता ... लेख अंक .
अन्य उपलब्धियां ...... एक कहानी संग्रह “ऐसा प्यार कहां” प्रकाशित
आकाशवाणी इंदौर, जयपुर से कहानियों का प्रसारण.
राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं में लगभग दो दर्ज़न से अधिक कहानियों का प्रकाशन.
मध्य प्रदेश के दैनिक अखबारों में लघु कथाओं का प्रकाशन.
अभिरुचि... स्त्री विमर्श और स्त्री चेतना के सन्दर्भ में चिन्तन एवं लेखन तथा संगीत गायन
नीतू मुकुल
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