प्रविष्टि क्र. 72 तीन सौ चौबीस आम मीना चंदेल मैं और मेरे चाचा की बेटी अनीता बहनें तो थी ही साथ में बड़ी अच्छी दोस्त थी। परिवार में चाहे किसी ...
प्रविष्टि क्र. 72
तीन सौ चौबीस आम
मीना चंदेल
मैं और मेरे चाचा की बेटी अनीता बहनें तो थी ही साथ में बड़ी अच्छी दोस्त थी। परिवार में चाहे किसी का किसी से कोई मनमुटाव हो पर हमारी दोस्ती में उससे कोई फर्क नहीं पड़ता था। एक ही स्कूल, एक ही क्लास और एक जैसी सोच तो शरारतें भी एक जैसी रहती थी। बुद्धि के पेंच भगवान ने कुछ ऐसे फिट किए थे कि दोनों की सोच एक ही होती काम चाहे उल्टा होता या सीधा। मेरे गांव की भौगोलिक स्थिति बहुत सुंदर है चारों तरफ से पहाड़ियां और बीच में बहुत सुंदर सा गांव , हरियाली से भरा-पूरा और गर्मियों में तो आम के पेड़ों का नजारा बड़ा शोभनीय होता था। पचासों पेड़ आमों से लदे होते थे। आम खाने का खूब मजा आता था।
हम सुबह जल्दी उठकर सारी रात के गिरे पके आमों को चुन कर लाते और सारा दिन खाते थे। ये सिर्फ हमारा ही काम नहीं था, गांव के सभी बच्चे अपने नजदीक पड़ने वाले आम के पेड़ से आम चुन कर लाते थे। हमारे घर के नजदीक दो आम के पेड़ थे एक को गिल्डू का आम कहते और दूसरे को स्यार का आम। वो घर से लगभग ढाई सौ मीटर की दूरी और ऊँची पहाड़ी पर थे। एक दिन हम दोनों में शर्त लगी कि कौन हम दोनों में से सुबह जल्दी उठकर आम बिन कर लायेगा। बस फिर क्या दोनों के दिमाग में अपनी-अपनी विजय पक्की थी। शर्त लगाकर दोनों सोने चली गई। शर्त जीतनी थी तो नींद कहाँ आये, दो घड़ी आँख लगे फिर खुल जाये घड़ी देखी तो अभी तो ग्यारह ही बज रहे थे।
प्लानिंग दिमाग में चल रही थी, कैसे और कितने बजे उठकर बस सारे आम मैंने ही लेने है नींद पता नहीं फिर कब पड़ गई ,पर जब आँख खुली तो आनन-फानन में घड़ी में समय देखा तो घड़ी में तो सवा पांच हो रहे थे। मन में सोचा ओ हो ! साढ़े चार बजे आँख क्यों नहीं खुली ? अब तक तो अनीता आम के पेड़ के पास पहुँच भी गई होगी। फिर क्या फटाफट थैला उठाया जुते पहने जिनका बंदोबस्त रात को ही हो गया था और दौड़ पड़ी आम के पेड़ की तरफ। मुझे आज भी याद है वो चाँदनी रात मानो चंदा मामा ने अपनी वोल्टेज हमारी शर्त के चलते ही बढाई थी। उस वक्त तो न मन में कोई डर था न चढ़ाई चढ़ने में कोई थकावट आखिर शर्त जीतनी थी। मैं हवा के वेग की तरह वहां पहुंच गई , मेरे सिवा वहां कोई नहीं था तो चलो मन को ये तसल्ली हुई कि अनीता से हारुंगी तो नहीं।
आम के पेड़ के नीचे बहुत सारे आम पड़े थे। मौसम भी कुछ बारिश वाला था जिसके चलते ठंडी-ठंडी हवा चल रही थी जिससे खूब सारे आम गिर रहे थे। ये आम आकार में तो छोटा था पर मिठास का कोई तोड़ नहीं था। आम चुन-चुन कर मेरा थैला भर गया अभी भी बहुत आम गिर रहे थे पर अनीता अभी भी नहीं पहुंची थी। ये देखकर ख़ुशी तो हो ही रही थी पर हैरानी भी। आम इकठा करते-करते एक दो तीन जगह मैने ढेरियाँ लगा दी पर न ही अनीता आई और न ही सुबह हो रही थी। मुझे आए घंटे से ऊपर हो गया था पर अब तक तो सुबह हो जानी चाहिए थी। गांव का भी कोई बुजुर्ग या महिला खेतों में गोबर फेंकने नहीं आ रहे थे, जो कई लोगों का नित्यकर्म था। मौसम और ख़राब हो गया बिजली कड़कने लगी और चांदनी अँधेरे में बदल गई। मैं ऊँची पहाड़ी पर थी जैसे ही बिजली चमकती उस चमक में मुझे पूरा गांव दिखाई देता तो अभी किसी घर में बिजली नहीं जली थी। हैरान तो थी पर खुद को ये तसल्ली दे दी कि बिजली ही नहीं होगी।
थोड़ी-थोड़ी बारिश शुरु हो गई साथ में बिजली की गडगडाहट उस पर उल्लू का बोलना मेरा मन अब डरने लगा। मैं एक पत्थर पर बैठ गई और ‘संकट कटे मिटे सब पीर जो सुमिरे हनुमत बलबीरा’ जपने लगी। धीरे-धीरे मेरा डर बढ़ता गया और आँखों से आँसू बह गए। पछता रही थी शर्त क्यों लगाई ? और साथ ही अनीता को गलियां भी दे रही थी उसके न आने पर। हवा से आम गिर रहे थे। मैं डर बेशक रही थी पर आम इकट्ठा करने के लिए हिम्मत करके उठ जाती फिर उसी पत्थर पर बैठ जाती। अब तो इतने आम हो गए थे कि मैं आधे गांव में बाँट देती। वो रात मैं भूल नहीं पाती हूँ क्या जुनून शर्त जीतने का और फिर वो डरावना समय जो मैंने अकेले काटा। न आम छोड़कर घर आया जा रहा था और वहां मेरा डर-डर के बुरा हाल हो गया और हैरानी ये कि सुबह क्यों नहीं हो रही।
काफी देर बाद मुझे किसी के आने की आहट सुनाई दी , देखा तो वो हमारे गांव के एक बुजुर्ग थे जो सबसे पहले अपने जानवरों का काम निपटाकर गोबर फेंकने आते थे। वो भी मुझे देख कर हैरान हो गए कि कैसे इतनी सी बच्ची इतनी सवेरे , इतनी दूर पहुंच गई आम के लिए ,पर मेरी मजबूरी और व्यथा तो कोई नहीं जनता था। उजाला भी हो चला था और अनीता भी मुझे आती दिखाई दे गई थी। वो इतने आम देखकर हैरान हो गई और अब वो जान चुकी थी कि वो शर्त हार चुकी है पर मेरे चेहरे पर कम से कम उस वक्त तो शर्त जीतने की कोई ख़ुशी नहीं थी और सुबह इतनी देरी से होने का राज अभी भी मेरी छोटी बुद्धि में नहीं आ रहा था।
हमने सारे आम अनीता के बोरे में भरे और घर आ गए। मैं अपने कमरे में गई और घडी देखी तो साढ़े पाँच बज रहे थे मतलब मैंने शर्त जीतने की उत्सुकता में समय ही गलत देखा था। उस समय तीन बजकर पचीस मिनट हुए थे जिसे मैं सवा पाँच समझ कर आम चुनने चली गई थी , पर मैंने उस राज को किसी पर उजागर नहीं किया। जो हो गया सो हो गया पर मैं अनीता के आगे ये साबित कर चुकी थी कि मैं उससे बेह्तर हूँ और शायद वो जिन्दगी भर मेरे आगे अपनी डींगें अब नहीं मार सकती थी , जो मैं कर सकती थी। इसके बाद मैंने और अनीता ने वो आम धोए और गिनना शुरु किए तो वो तीन सौ चौबीस थे। आज भी ये वाकया मुझे अंदर तक रोमांचित कर देता है।
- मीना चंदेल
- गांव- बेरी दरोलन
- डाकखाना- बेहना जट्टां
- बिलासपुर [हिमाचल प्रदेश ] १७४०२४
nice
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