प्रविष्टि क्र. 69 सागर का सम्मोहन: लक्षद्वीप मुकुल कुमारी अमलास नोबेल पुरस्कार विजेता स्पेनिश कवि पाब्लो नेरुदा की यह कविता जीवन के दर्शन क...
प्रविष्टि क्र. 69
सागर का सम्मोहन: लक्षद्वीप
मुकुल कुमारी अमलास
नोबेल पुरस्कार विजेता स्पेनिश कवि पाब्लो नेरुदा की यह कविता जीवन के दर्शन का सही निचोड़ है ----
आप धीरे-धीरे मरने लगते हैं,
अगर आप करते नहीं कोई यात्रा,
अगर आप पढ़ते नहीं कोई किताब,
अगर आप सुनते नहीं जीवन की ध्वनियाँ,
अगर आप करते नहीं किसी की तारीफ़।
बहुत दिनों से एक ही जगह पर रहते-रहते और एक सी दिनचर्या बिताते हुये मुझे भी लग रहा था कि मैं मर रही हूँ। जीवन में जैसे कोई रस नहीं रह गया था। सबकुछ जैसे बर्फ सा जमा हुआ, स्थिर और निर्जीव सा। ऐसे में यात्रा ही इस हिमखंड को तोड़ सकती थी। जल्द ही मौका मिला।
केरल के थिरुअनन्तपुरम में दक्षिण भारतीय शादी देखने का मौका और साथ में लक्षद्वीप की सैर यानि एक पंथ दो काज। पर मन में उत्साह की कमी है। सच पूछो तो तन और मन दोनों थके हैं काम के बोझ से। हाल की अखिल भारतीय माध्यमिक विद्यालय परीक्षा के दस दिनों के मूल्यांकन कार्य ने तो जैसे आँख और कमर की गत बना कर रख दी है । ऊपर से घर का झंझट जो कभी पीछा ही नहीं छोड़ता। सोच लिया था अब घर से निकलना ही है चाहे जैसे भी हो। हम जैसी शिक्षिकाओं के लिये ग्रीष्मावकाश से बेहतर समय और क्या हो सकता है! समुद्र तट मेरी कमजोरी रही है अतः इस बार कहीं और नहीं, चल मेरे मन सागर तीरे। याद आता है कई बरस पहले की हुई गोवा के समुद्र तट की यात्रा। मेरे पास स्नान करने केलिए कोई कपड़ा नहीं था पर सागर को सामने देख मैं खुद को रोक नहीं पाई और साड़ी में ही सागर में उतर गई , बाद में पतिदेव का शर्ट पहन अपनी साड़ी सुखाती रही थी। बस सागर का यही एक अनुभव मेरे साथ था। लक्षद्वीप आने की इच्छा बहुत दिनों से थी पर अवसर नहीं मिल पा रहा था। कुछ बरस पहले भी जब अपने बच्चों के साथ केरल आई थी तब भी मानसून की बरसा शुरू हो जाने के कारण लक्षद्वीप नहीं जा पाई थी । सोच लिया इस बार जाना ही है । टिकट और लक्षद्वीप घूमने के लिए प्रशासनिक अनुमति लेने आदि का काम पतिदेव ने संभाल लिया था । ऐन मौके पर कई समस्याएं आईं लेकिन अंततः प्रोग्राम बन ही गया। उत्साह का न होना एक नकारात्मक बिंदु है पर सोचती हूँ यह परखने का मौका मिलेगा कि सचमुच समुद्री-यात्रा में कुछ हीलिंग पॉवर होती है या नहीं ? यह मेरे उत्साही स्वभाव को फिर से वापस ला सकता है या नहीं ? लक्षद्वीप तुम मुझे शिद्दत से बुलाओ तो सही कि क्लांत तन-मन में आवेग आ जाये और मैं दौड़ पडूँ तुमसे मिलने के लिये ।
मिल जाऊँगा दरिया से तो हो जाऊँगा दरिया
सिर्फ़ इसलिए क़तरा हूँ कि दरिया से जुदा हूँ।
सुना है यहाँ का समुद्र जीवित है और जगहों की तरह केवल रेत और पानी नहीं ।ओ सागर देखना चाहती हूँ तुम्हारी उस जीवंतता को, किनारे पर चलते जीवों और पानी में समाये प्रवालों को। बच्चों की भाँति अपनी फ्रॉक की झोली बना चुनना चाहती हूँ किनारे में फैले सीपों और शंखियों को। तुम्हारे किनारे किसी पेड़ की छाया में बैठ लिखना चाहती हूँ कविता अंबर और अवनी के प्रेम की, एक छोटी बच्ची बन दौड़ना चाहती हूँ ठंडी-ठंडी रेत पर, एक छोटी सी नौका ले निकल जाना चाहती हूँ बिल्कुल ही किसी निर्जन द्वीप पर और महसूसना चाहती हूँ उसकी निर्जनता। शायद मेरे मन-सागर में फैली निर्जनता वहाँ की निर्जनता से मिल फिर से आबाद हो सके, फिर से कुछ दिन जीने की इच्छा जग जाये। जयशंकर प्रसाद की कविता याद आती है -
ले चल वहाँ भुलावा दे कर मेरे नाविक! धीरे-धीरे
जिस निर्जन में सागर लहरी,
अम्बर के कानों में गहरी,
निश्छल प्रेम-कथा कहती हो-
तज कोलाहल की अवनी रे।
केरल की शादी सादी पर सुरुचिपूर्ण लगी। उत्तरी भारत के ताम-झाम और गहमा-गहमी का अभाव, मेरे थके तन-मन को बहुत सकूनदायी लगा। सबसे अच्छा लगा शादी का प्रभात बेला में संपन्न होते देखना। मंगलाचरण का पाठ बहुत प्रभावी था। शादी के उपरांत केले के पत्तल पर केरालाई व्यंजनों का स्वाद न भूलने वाला अनुभव था। शादी के उपरांत सुबह का नाश्ता और उसके तुरंत बाद पद्मनाभ स्वामी मंदिर जाने का मौका मिला। एक घंटे लाईन में रहने के बाद दर्शन का सौभाग्य। क्षीरसागर में शेषनाग पर लेटे विष्णु भगवान को देख सोचती रही कहाँ है यह सागर। अरब सागर, हिन्दमहासागर से कुछ संबंध है इसका? अरब सागर में जा रही हूँ ढूँढूँगी भगवान को, मिलेंगे क्या? पर भगवान क्या इतनी आसानी से मिलते हैं? फिरभी सागर बुला तो रहा है, वरना इतनी बाधाओं के बाद भी जा पा रही हूँ, लगता तो नहीं था जा पाऊंगी। शाम का समय है केरल की हरियाली मन को मोह रही है। सुनहरे आसमान के बैकग्राउंड में नारियल के पेड़ों का झुरमुट और बैकवाटर का खुबसूरत दृश्य सचमुच सुन्दर है। थिरुअनंतपुरम से एर्नाकुलम, रेल से सफर लगभग तीन घंटे का, केरल को अंदर से देखने का मौका देता है। साफसुथरे रेलवे स्टेशन , संभ्रान्त लोग। केरल यूं ही भारत का सबसे विकसित राज्य नहीं कहा जाता। ट्रेन में सारे लोग चुप अपने में खोए हुए, हाथों में मोबाइल, कानों में ईअर फोन, बिल्कुल पिछले साल की गई यूरोप यात्रा की याद ताजा हो आई। कोई बहसबाजी नहीं कोई राजनीति की चर्चा नहीं। रात को एर्नाकुलम में रुकने के बाद कल सुबह एअर इंडिया की फ्लाईट से हमलोग अगत्ती पहुंचेंगे। सोच रही हूँ कैसा होगा लक्षद्वीप? इसका नाम लक्षद्वीप क्यों पड़ा? क्या सचमुच सौ हजार द्वीप रहे होंगे पहले यहाँ? अभी तो सिर्फ 36 द्वीप हैं जिसमें से सिर्फ सात में लोग निवास करते हैं। देखें कितनों को देख पाती हूँ! यूँ तो लक्षद्वीप जाने का सबसे अच्छा मौसम सितंबर से मार्च माह के दौरान माना जाता है पर अपनी छुट्टी तो गर्मी में ही होती है अतः बिना कुछ सोचे निकल पड़ी हूँ। कोच्ची हवाई अड्डे पर जब आई तो कुछ बातों को लेकर मन बहुत भारी था। डबडबाई आँखों से प्लेन में बैठी। नीचे पानी का नीलापन था ऊपर आकाश का। धरती और आकाश सब मिल से गये थे और मैं जैसे उसके केंद्र में बने भंवर में डूब-उतर रही थी। अजीब संवेगों, उद्वेगों, ग्लानि, क्रोध, आक्रोश न जाने किन भावों, मनोभावों में डूबी। आँखों के सामने रह-रह कर सारा दृश्य धुंधला हो रहा था। लाख कोशिश करने पर भी आँसू रुक नहीं रहे थे। सबकुछ अस्तित्व पर छोड़कर आँखें बंद कर लेती हूँ।
सुना है आज समंदर को बड़ा गुमान आया है
उधर ही ले चलो कश्ती जिधर तूफ़ान आया है।
प्लेन नीचे उतरने लगा सागर का नीलापन हरेपन में बदलने लगा। अगत्ती द्वीप के पास सागर का जल कितना स्वच्छ और पानी का रंग हरेपन की आभा के साथ कितना आकर्षक। अगर मन में उत्साह होता तो इस सुंदर द्वीप को जो ऊपर से अरब सागर के गले का हार सा चमक रहा था, को देख कर मैं ख़ुशी से पागल सी हो जाती पर अभी तो बस शरीर चल रहा है, सभी भाव सुषुप्तावस्था में हैं । छोटा सा एअरपोर्ट सबका सामान एक जगह रख दिया गया और वहीं से उठा कर सब चल दिए। संभवतः दुनियां का सबसे छोटा हवाई अड्डा। हमें लेने के लिए कार आई हुई थी। जहाँ पर हमें ठहराया गया था वह स्थान देखकर मन को थोड़ा सकून मिला। समुद्र के किनारे छोटे-छोटे हटमेंट्स, बाहर टेबल-कुर्सी और पेड़ों में टंगे झूले। सामने दूर-दूर तक लहराता सागर। आसपास आबादी का कोई नामोनिशान नहीं। बस इसी निर्जनता की मुझे तलाश थी। अब कुछ समय खुद के और प्रकृति के साथ बिता सकूँगी। वहाँ पहुंचते ही सबद (हमारा केयरटेकर) नारियल का पानी ला कर पिलाता है, रूह को अजीब सी शान्ति मिलती है। नारियल के पेड़ यहाँ-वहाँ छतरी की भाँति खड़े हैं उसके नीचे आरामकुर्सी लगी है बस उस पर बैठ आँख बंद करने की जरुरत है कानों में समुन्दर का संगीत गूँजने लगता है। निश्चय ही यहाँ आने का निर्णय लेकर मैंने सही किया। हर समय लहरों का मधुर संगीत मन की बेचैनी को शांत करता जा रहा है । सागर की तरफ देखती हूँ तो वह जैसे इशारे से मुझे पास बुलाता सा महसूस हुआ। दोपहर का समय था और सागर में ज्वार सा आया था पर मैं चल पड़ी उसकी ओर। सागर का भी अज़ीब सम्मोहन है, वह पास बुलाता भी है और पास आने पर अपने लहरों से प्रबल प्रहार कर गिराता भी है। पत्थरों के बीच पानी में जा बैठी। उसके शीतल जल का स्पर्श मिलते ही जैसे मैं जी उठी। पूरा शरीर झंकृत हो उठा। रोम-रोम पानी में डूब जाना चाह रहा था। वहीं पत्थरों और रेतों के बीच पालथी मार कर बैठ गई पर दूसरे ही क्षण जोरों की एक लहर आ कर मुझे पटक गई। संभलते-संभलते मुझे सागर की शक्ति का एहसास हुआ। फिर तो मुझे वह चुनौती सा देता लगा, मुझे ललचाता सा जैसे कह रहा हो -और आओ मेरे पास । मैंने इस चुनौती को स्वीकारा और एक ऐसी जगह खोजी जो चारों ओर पत्थरों से घिरा था और बीच में रेत भरा था। सोचा यहाँ बैठ थोड़ी देर आँख बंद कर 'सागर ध्यान' करुँगी। लहरों से ये चट्टानें मुझे बचा लेंगी, ऐसा सोचना था कि एक जोड़ की लहर आई और मुझे पत्थरों के बीच बुरी तरह झकझोर कर चली गई। मुझे खुद को संभालने में काफी समय लग गया, उँगलियों में जोर की चोट लगी और ये समझ आया प्रकृति की शक्तियों से कभी खिलवाड़ नहीं करते न उसे चुनौती देते हैं। फिर तो मैं ने महासागर को नमन किया और आराम से खुद को उसकी गोद में छोड़ दिया। जब भी लहरें आती थोड़ा झुक कर अपने को उसके हवाले करती और शरीर को तनाव मुक्त रखती, धीरे-धीरे उसे जाने देती। थोड़ी ही देर में मेरे पैरों की जलन गायब हो गई शरीर तरो-ताज़ा हो गया। दोपहर का समय था धूप तीखी थी पर पानी से निकलने का मन नहीं कर रहा था। आँखों में जब खारा पानी जाता जलन सी होती, ओठों पर उसका स्वाद आंसूओं सा नमकीन लगता। इस सबके बाबजूद सागर के जल की छुअन उद्वेगों के बवंडर से धराशायी मेरे तन-मन के एक-एक ऊतक को सहेजता रहा। जल से निकलने की इच्छा ही नहीं हो रही थी। ऐसे ही निर्जन स्थान की मुझे दरकार थी। यहाँ दूर-दूर तक कोई नहीं था। केअर टेकर सबद भी खाना लाने गया है। अगर गिर कर लहरों के साथ बह जाऊँ तो न कोई मेरी आवाज़ सुन सकेगा न मुझे बचाने आयेगा। धरती पर अब भी कुछ ऐसे एकांत जगह बचे हैं जो लोगों की भीड़भाड़ से दूषित नहीं हुये हैं, जीवन में पहली बार इसकी झलक मिली। काश महीने भर के लिए यहीं रह पाती, यह मेरा कुंभ हो जाता। शरीर और आत्मा दोनों की शुद्धी हो जाती। शरीर और आत्मा दोनों ही दुनियां के जंजाल में रह कर इतने दूषित हो गये हैं कि चार-पाँच दिन का समय बहुत कम है उसकी गँदगी साफ करने के लिये। अभी तक ऐसा महसूस हो रहा है कि जैसे किसी दलदल में फंसी हूँ, कीचड़ में लस्त-पस्त उससे निकलने के लिये बेदम हो रही हूँ। सागर का स्वच्छ जल शायद मुझे निर्भार कर सके।
शाम को पतिदेव ने घुमने चलने को कहा पर कहीं जाने की इच्छा नहीं हो रही थी, उँगली में चोट भी लगी थी अतः कहीं नहीं गई और एक नारियल पेड़ के नीचे आराम कुर्सी लगा कर सागर किनारे बैठ गई लहरों और सागर को निहारते। जीवन में पहली बार प्रकृति के इतने नजदीक हूँ मेरा रोम-रोम ईश्वर के प्रति अहोभाव से भरा है। एक-एक क्षण जो बीत रहा है अमूल्य है मेरे जीवन का फिर कहाँ यह पल छीन। मेरा रोम-रोम जैसे आँखों में बदल गया हो जो एक-एक सुन्दर दृश्य का रस पान कर लेना चाहता हो। ऐसी खूबसूरती जीवन में पहली बार देखी है। समुन्दर रह-रह कर रंग बदलता है। कभी हल्का नीला दिखता है तो कभी गहरा नीला, कभी फिरोजी कभी हरा। शाम जैसे-जैसे गहराती है वैसे-वैसे वह काले रंग में तब्दील हो जाता है । दोपहर में तो वह ऐसे विशाल चमकीले आईने सा दिख रहा था जिसमें रह-रह कर लहरें उठ रही हों। कितना स्वच्छ, कितना पारदर्शी बिल्कुल हीरे सा दमकता हुआ। आंखें जुड़ा गईं प्रकृति का यह रूप देख कर।
सबद रात के डिनर के लिए पूछने आता है क्या खायेंगे आपलोग? उसे कहती हूँ यहाँ का लोकल फिश खिलाओ। रात को बहुत स्वादिष्ट मछ्ली, चावल, रोटी, सलाद और वहाँ का स्पेशल पापड़ खिलाता है।| हम छक कर खाते हैं। जाते-जाते कल का मेन्यू भी पूछता जाता है। जैसा हम बताते हैं उसी हिसाब से वह हमें भोजन कराता है स्वादिष्ट और भरपूर। कहीं और जाने और कुछ खाने की जरुरत नहीं। शाम और सुबह की चाय भी वही ले आता है। तीसरे पहर नारियल पानी भी पिलाता है, अतः किसी रेस्तोरेंट आदि में जाने की हमें जरुरत ही नहीं पड़ी।
रात को पतिदेव जब सो जाते हैं मैं बरांडे में निकल आती हूँ। दूर-दूर तक कहीं आँखों में नींद नहीं है। मन का तनाव अभी पूरी तरह गया नहीं है। वहीं कुर्सी पर बैठ सामने लगे मेज का सहारा ले पैर फैला लेती हूँ और सुनती रहती हूँ समुद्र का हाहाकार एक संवाद सा चलता है हमारे बीच-
हे सागर
तेरा जल कितना खारा
कुछ ऐसा ही स्वाद मिला है
मुझे मेरी आँसूओं में भी
मेरी आँखों में भी एक सागर लहराता है
कभी-कभी किनारा तोड़ बह जाता है
आँसूओं की बूँदें क्षुद्र और छोटी
पर इतने बहाये हैं
कि गर इकट्ठा कर पाती
तो शायद उस में डूब जाता
मेरा ही पूरा अस्तित्व
इसका खारापन मेरे अणु-अणु को गला चुका होता
गलती हुई उसका हिसाब नहीं रखा
अब आई हूँ तेरे शरण में
तो वह स्वाद फिर से उभर आया है यादों में
क्या तुम भी किसी की आँसूओं का जखीरा हो
कौन है वह
निश्चय ही उसका दुःख मेरे दुःख से बड़ा होगा
काश मैं मिल पाती उससे
अपना दुःख आपस में बाँट
एक-दूसरे को ढ़ाढ़स बंधा
हम सहेलियाँ बन जातीं
सागर किनारे बंद आँखों से
सुनती हूँ उसका रुदन
तेरी लहरों का हाहाकार
जैसे वह छाती पीट-पीट कर रो रही है
सागर का कोलाहल जैसे
उसी दुखियारी के दुःखों का प्रक्षेपण
हे अपार, हे विस्तृत, हे अगम्य
क्यों होता है ऐसा –
जब कोई स्वंय दुःखी हो
प्रकृति की समस्त सुंदरता ओझल हो जाती है
हवा पानी धरती आकाश दसों दिशाएं
दुखियारी लगती है।
बहुत रात गए न जाने ऐसे ही किन विचारों में खोई हुई बिछावन पर आती हूँ और सो जाती हूँ | नींद खुलती है सबद की आवाज से, वह चाय ले आया है और हमें दस बजे तक तैयार हो जाने को कह रहा है। आज एक वोट हमें बंगाराम द्वीप लेकर जाने वाला है। मैं चाय पी कर फिर सागर में नहाने निकल जाती हूँ जल को छूते ही महसूस हुआ सच ही कहा है - जीवन का प्रादुर्भाव जल से ही हुआ है। जल में डूबते ही लगा माँ की गोद में आ गई हूँ। कितने अरसे बाद माँ की गोद का सुख मिला। बिल्कुल वैसा ही एहसास। जैसे मैं माँ के गर्भ में हूँ और एक शिशु बन उसके गर्भ-जल में तैर रही हूँ। कितना निर्मल, पवित्र, स्निग्ध एहसास। लगभग एक घंटे तक जी भर कर स्नान के बाद आई तो सबद, हमारा केयरटेकर, नास्ता लगा कर हमारा इंतजार कर रहा था। इडली, प्लेन डोसा, सांभर, नारियल चटनी शुद्ध दक्षिण भारतीय नाश्ता जो मेरी कमजोरी रही है, देख कर मुँह में पानी भर आया। नाश्ता के बाद हमें जल्दी तैयार होना था। थोड़ी देर में हम और हमारे पड़ोसी टूरिस्ट परिवार बड़े से मोटर बोट पर सवार थे हमारे साथ दो नाविक भी थे। सबद ने लंच पैकेट और पानी बोतल भी साथ में रख दिया था। जैसे-जैसे हम किनारे से दूर हो रहे थे अगत्ती द्वीप की खुबसूरती हमें विमुग्ध कर रही थी। यह द्वीप चौड़ाई में काफी छोटा पर अपने लंबाई में लगभग सात किलो मीटर तक फैला हुआ है । द्वीप के एक छोर पर हवाई अड्डा है जिसे कल देखा था और दूसरे छोर को आज देख रही थी, जो एक सुंदर बीच है। दूर से ही सफेद रेत चमक रहे थे। समुद्र में दूर निकलते ही समुद्र का रंग मुझे विस्मित कर रहा था, फिरोजी रंग का सागर चारों ओर स्फटिक सा चमक रहा था अपने पूर्ण शुद्ध और स्वच्छ रूप में। लोग दूसरे देशों में जाते हैं समुद्र का आंनद उठाने। मुझे विश्वास नहीं होता क्या दुनियां के किसी भी कोने में इससे स्वच्छ और सुंदर सागर लहराता होगा! मैं खुशनसीब हूँ की यह सब देख पा रही हूँ। समुद्र के अंदर बीच-बीच में काले-काले धब्बे सा कुछ उभरा हुआ था मुझे लगा शायद चट्टानें हैं पर नाविक ने बताया ये कोरल्स हैं। लगभग 45 मिनट के सफर के बाद हम दूसरे द्वीप के नजदीक थे। दो-तीन द्वीप आसपास ही जिसमें से सबसे बड़ा बंगाराम है उसके बाजू में तिनाकार, परली1, परली2 और पारली3 । हम पहले तिनाकारा गये। वोट से उतरते ही हमारे सामने था एक छोटा द्वीप जहाँ लक्षद्वीप सरकार के 20-25 कर्मियों के अलावा कोई नहीं रहता। इन्हीं कर्मियों की बातों से पता चला स्पोर्ट्स (सोसाइटी फॉर प्रमोशन ऑफ़ नेचर टूरिस्म एंड स्पोर्ट्स) वालों ने टूरिस्टों के लिये कुछ टेंट लगा रखे हैं पर उसका रेंट काफी ज्यादा है। नारियल के पेड़ों का जंगल, इधर- उधर गिरे हुए नारियल, एक पॉवर हाऊस, कुछ हटमेन्ट टाइप घर एक-दो स्पोर्ट्स के कर्मी और लहराता, घहराता समुद्र यही नज़ारा था वहाँ का। थोड़ी देर घूम कर देखने के बाद हम एक मचाननुमा चीज पर बैठ गये। यहीं कुछ स्पोर्ट्स कर्मी मिले उनसे बातें होती रही। उन्होंने बताया यहाँ कुल 26 कर्मी रहते हैं उनके लिये एक कॉमन किचन है दो शेफ़ हैं कभी-कभी कोई टूरिस्ट यहाँ रहने आ जाता है इसके अलावा यहाँ कोई नहीं रहता। मैं ने दो मीटर लंबा और दो मीटर चौड़ा एक गढ्ढा देखा जिसमें पानी भरा था लेकिन यह पानी गुलाबी रंग का था अतः मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ उसके रंग को देख कर। उन लोगों से जिज्ञासावश पूछा यह गुलाबी क्यों है? उन्होंने बताया इस पानी में हम नहाते हैं क्यूंकि यह कम खारा है और बार-बार साबुन इस्तेमाल करने की वज़ह से यह गुलाबी हो गया है। महसूस हुआ पर्यटन के लिए तो ठीक है पर स्थायी रूप से यहाँ रहना आसान नहीं। मुझे प्यास लग आई थी हमारा नाविक कहीं से नारियल का घौद उठा लाया और फिर उसने हमें ख़ूब नारियल पानी पिलाया। इन द्वीप समूहों में पीने का पानी भी कठिनाई से उपलब्ध होता है अतः प्रकृति ने इस रेडीमेड पानी की व्यवस्था कर दी है। बीच पर थोड़ा समय बिताने के बाद हमलोगों ने बंगाराम के लिये प्रस्थान किया।
बंगाराम और द्वीपों के बनिस्पत अधिक साफ-सुथरा और व्यवस्थित है। यहाँ स्पोर्ट्स कर्मी काफी सक्रिय दिखे। बीच के किनारे-किनारे लाईन से खड़ी छोटी-छोटी ख़ुबसूरत झोपड़ियाँ, सामने लगे झूले, लहराते नारियल के पेड़, बीच के सामने लगी टेबुल कुर्सियाँ और आर्मचेयर-कम-बेड। बीच की साफ-सफाई का काफी घ्यान रखा गया था। हर तरह के वाटर स्पोर्ट्स जैसे कयाकिंग, कैनोइंग, स्नोर्कलिंग, याटिंग, विंड सर्फिंग, वाटर स्कीइंग, स्कूबा डाइविंग की सुविधा। अब भूख लग आई थी अतः एक टेबल कुर्सी पर नारियल की छाँव में हम बैठ गये और सबद का दिया लंच पैकेट निकाला। स्वादिष्ट फीस-बिरयानी खा कर मजा आ गया। सामान समेट ही रही थी कि एक आदमी आकर कहने लगा कृपया सारे पैकेट्स वहाँ रखे डस्टबीन में डाल दें। उनकी तत्परता देख अच्छा लगा। पाँच बजे तक का हमारे पास समय था अतः हमने एक ग्लास बोट लेकर कोरल्स देखने का मन बनाया। धूप काफी तेज हो गई थी लेकिन बोट में बैठ जैसे ही हम समुद्र में उतरे सागर की शीतलता ने गर्मी का एहसास कम कर दिया, और थोड़ी देर बाद किताबों में पढ़ी चीजों को ग्लासबोट से सामने देख हम रोमांचित थे। रंग-बिरंगे विभिन्न क़िस्म के कोरल्स जीवन में पहली बार देख रही थी मैं। काफी देर तक समुद्र की इस सैर के बाद हम किनारे लौट आये। थोड़ी देर आराम करने के बाद हमने सोचा इस द्वीप के बीच में स्थित झील को देखा जाये। लगभग आधे घंटे तक हम उसकी खोज करते रहे पर वह नहीं दिखा बाद में पता चला हमने गलत रास्ता पकड़ लिया था। अब इतना समय नहीं था कि फिर से कोशिश की जाये, अतः हम लौट चले। अँधेरा होने से पहले हमें अगत्ती पहुँचाना था। हमसभी अपने बोट में आ बैठे लगभग एक घंटे का अभी समुद्री सफ़र बाकी था। सूरज मद्धम हो चला था आसमान में लालिमा फैलने लगी थी सूर्यास्त का नज़ारा देखते बनता था। वापस अगत्ती पहुँच चाय पीती हूँ और झूले पर लेट जाती हूँ। अँधेरा हो चला है अब सागर नहीं दिखता पर उसकी लहरों का शोर कानों में निरंतर पड़ रहा है।
अगले दिन कबरत्ति जाने के लिये तय था पर पता चला वहाँ कोई बड़े नेता आ रहे हैं अतः परमिट मिलने की संभावना कम है। जिसका डर था वही हुआ परमिट नहीं मिला और जाना न हो सका। लगा आज का दिन तो बेकार गया पर नाश्ता के बाद ही जमालुद्दीन जी (जिनके हम अतिथि थे) ने अपने भाई कमरुद्दीन को भेज दिया जो यहाँ स्कूबा ड्राइविंग का सेंटर चलाते हैं। तय हुआ कि वहाँ चला जाये और स्कूबा डाइविंग किया जाय। मुझे तो भरोसा नहीं था कि मैं कुछ कर पाउंगी पर सोचा कोशिश करने में क्या हर्ज़ है। कमरुद्दीन ने सबसे पहले 15 मिनट का क्लास लिया हमारा, सारे ऑपरेटर्स के साथ फिर ड्रेस पहनाया और सागर में उतारा। दिन के 10 बज रहे होंगे थोड़ी देर फिर पानी में ट्रेनिंग चली और जब हम मुँह से साँस लेना सीख गये तो फिर सबसे पहले पुरुषोत्तम जी(मेरे पति) को वह पानी के अंदर ले गया । लोग कहते थे की जिनको तैरना नहीं आता वह स्कूबा डाइविंग नहीं कर सकते पर ऐसा बिल्कुल नहीं है। हर समय एक इंस्ट्रक्टर साथ रहता है अतः कोई दिक्कत नहीं होती। पुरुषोत्तम जी जबतक लौट कर नहीं आये मैं किनारे पर ही हाथ-पाँव मारती रही। जब वो लौट कर आये उनके चेहरे पर खुशी थी और बातों में खनक, अब मेरी बारी थी। पहले तो लगा जा ही नहीं पाउंगी पर कमरुद्दीन ने कहा- ‘ इट्स ऐन ऑपॅट्यूनिटि डोंट मिस इट मैम’ पुरुषोत्तम जी ने भी बढ़ावा दिया तो थोड़े से अभ्यास से सब नार्मल हो गया और थोड़ी ही देर में मैं एक अदभुत, और अनोखी दुनियां में पहुँच गई। समुद्र के अंदर की अभूतपूर्व दुनियां, विस्मित थी मैं उन प्रवालों, समुद्री सफेद-नीले फूलों, सुन्दर-सुन्दर मछलियों और समुद्री जीवों को देख कर। कुछ मछलियों के साथ तो खेलती रही मैं, कुछ पास आते ही भाग जाती थीं कुछ ढीठ सी हटती नहीं थीं, न डरती थीं। एक से बढ़ कर एक रंग की सुन्दर -सुन्दर मछलियां। एक बार सर को थोड़ा ऊपर उठाया तो सर के ऊपर छोटी-छोटी मछलियों का झुंड देख विस्मित हो गई। जीवित पॉलिप्स छुते ही हाथ में कुछ चिपकने सा एहसास होता था लसलसा सा। बिल्कुल रोमांच हो आया। फिर तो मैं दूर-दूर तक इस दुनियाँ में तैरती रही, अकल्पनीय था सबकुछ। कभी-कभी कान में थोड़ा दर्द सा महसूस होता था पर उससे बचने का तरीका इंस्ट्रक्टर ने बता रखा था अतः छोटी-छोटी समस्याओं पर जल्द ही मैं ने विजय पा ली और लगभग चालीस मिनट तक डाइव करती रही। अनेक तरह के प्लांट बड़े-बड़े कोरल रीफ़ सबके बिल्कुल पास मैं तैरती पहुँचती जाती थी। इंस्ट्रक्टर लगातार मेरे साथ था और रह रह कर इशारे से पूछ लेता आप ठीक तो हैं? थोड़ी ही देर में मैं समुद्र के तल की दुनियां को देखने में ऐसी खोई की सब भूल गयी न कोई थकावट थी न कोई ग़म बस एक विस्मय कि इस दुनियां से हम कितने अपरिचित हैं। इंसानों की दुनियां से अलग भी एक दुनियां है यह पहली बार देखा मैं ने अपने शुद्धतम रूप में। लौटी तो साथ था एक अविस्मरणीय अनुभव और इस दुनियां को कुछ और बेहतर समझ पाने का एक बोध। ईश्वर के प्रति अहोभाव से भरी नतमस्तक थी मैं। इस धरती के दो-तिहाई हिस्से में पानी है तो धरती का लगभग सत्तर प्रतिशत जीव भी समुद्र में ही निवास करते हैं। समुद्र के तल में पहुँच कर इसका आभास भी हुआ। निश्चित रूप से लक्षद्वीप विश्व के अदभूत प्राकृतिक विरासत स्थल में से एक है।
शाम में फिर सागर किनारे आ गई हूँ नारियल के पेड़ों की झुरमुठ में सामने असीम सागर लहरा रहा है उसके जल को स्पर्श कर आती ठंडी हवाएं मेरे तन-मन को अपने आगोश में ले चुकी है, मैं आँख बंद कर इसकी छुअन को महसूस कर रही हूँ लगता है मैं जल में हूँ शीतल, ठन्डे जल में। इस आवोहवा की तासीर ऐसी है कि मेरे सारे रंजो-गम काफ़ूर हो गए हैं मेरे मन में जो तनाव था और रेशे-रेशे में जो दर्द न जाने कहाँ चले गये हैं। मानती हूँ इस आबोहवा में हीलिंग पॉवर है, पुनर्जीवित कर दिया है इसने मुझे एक बार फिर से जैसे जीने का कारण और मक़सद मिल गया हो।
सागर किनारे बैठी
निहारती हूँ क्षितिज को
अभी-अभी सूर्यास्त हुआ है
उसकी लाली अभी भी
आसमान में फैली है
सागर की लहरें
निरंतर किनारे पर आती हैं
खुद को बिखेर लौट जाती है
लहरों के आने और जाने में
एक ताल है लय है
उससे निःसृत एक मधुर संगीत
बिना रुके निरंतर प्रवाहमान
जीवन का संदेश देता आह्वान
नारियल के पेड़ के पत्तों की सरसराहट
लहरों के साथ जैसे चल रही हो जुगलबंदी
कितनी कर्णप्रिय रागनी
सागर समीर मद्धिम चाल से चल
रोम-रोम को पुलकित कर रहा
नारियल के दो पेड़ो में बंधा झूला
अपनी आँखें बंद किये लेटी मैं
महसूस करती हूँ
अस्तित्व को
अपने विशाल हाथ से मुझे थामे
मैं एक शिशु की भांति उसके आग़ोश में पड़ी
निश्छल, निर्द्वन्द
आसमान में टिमटिमाते तारे
ऊपर से आशीर्वाद बरसाते से
नारियल के पेड़ों के पत्ते
छतरी की भांति फैले हुये
उस पेड़ पर बैठी न जाने कौन सी चिड़िया
रह-रह कर किर-किर की एक टेर सा छेड़ती
प्रकृति में कितना रिद्दम है
हम इंसान क्यूँ नहीं सुन पाते उसे
हर शय एक-दूसरे में लय
क्या स्वर्ग इससे इतर होता होगा ?
अगले दिन अगत्ती के छोटे से म्यूजियम में गई तो बहुत कुछ जानने को मिला इस द्वीप के बारे में। वैसे तो लक्षद्वीप के इतिहास के बारे में बहुत कम जानकारी है पर इसे खंगालने की कोशिश में पता चला कि समय के साथ संभवतः इसके कई द्वीप बनते-बिगड़ते रहे हैं। इस द्वीपसमूह की चर्चा सबसे पहले संगम साहित्य में मिलती है जिससे पता चलता है कि यहाँ के कुछ द्वीपों पर चेर राजवंश का आधिपत्य था। एक किंवदंती के अनुसार क्रांगानोर के हिंदू राजा चेरामन पेरूमल इस्लाम धर्म कबूल कर क्रांगानोर से मक्का की ओर रवाना हुए, किंतु समुद्री तूफान से दिग्भ्रमित होकर बंगारम द्वीप पहुंच गए। बंगारम से वह अगत्ती पहुंचे। देश वापसी पर उन्होंने लाव लश्कर भेजा। उनमें सभी हिंदू थे। शायद इसलिए यहाँ अधिसंख्य जनसंख्या के मुस्लिम होने के वाबजूद हिंदू प्रभाव देखने को मिलते हैं। समय के साथ अगत्ती तथा अन्य द्वीपों की खोज हुई। किंवदंती है कि सातवीं शताब्दी में जद्दा मुस्लिम फकीर उबेदुल्ला को स्वप्न में मोहम्मद साहब ने आदेश दिया कि वे सुदूर देशों में जाकर इस्लाम का प्रचार करें। इस यात्रा में उनका जहाज एक द्वीप के समीप छूट गया तो वह अमीनी द्वीप पर पहुंचे। यहां शुरू में तो उनका विरोध हुआ, पर बाद में वह अपने धर्म के प्रचार में सफल हो गए। आंद्रेते में उनकी दरगाह पवित्र मुस्लिम तीर्थ है। कहा जाता है मोरक्कोवासी महान यात्री इब्न बतूता ने भी लक्षद्वीप की यात्रा की थी और अपनी पुस्तक किताब-उल-रेहला में विस्तार से इन द्वीपों का वर्णन किया है। समय बीतने के साथ इन द्वीपों के लिए भी सत्ता के संघर्ष हुए। 16वीं सदी में पुर्तगाली यहां आए, पर कुछ वर्षो बाद अराकन के मुस्लिम बादशाह के हाथ में यहां की सत्ता वापस आ गई। 1783 में टीपू सुल्तान का कब्जा हुआ। टीपू की मौत के बाद 1885 में द्वीप पर ईस्ट इंडिया कंपनी का कब्जा हो गया। 1947 में भारत के मूल भूखंड के साथ इसका विलय हुआ। 1956 तक यह मद्रास का अंग बना रहा। इसके बाद केंद्रशासित राज्य बना। भारत का सबसे छोटा पर सबसे सुंदर केंद्रशासित प्रदेश।
अगली सुबह कमरुद्दीन जी ने हमें रीफ टॉप वॉकिंग का निमंत्रण दिया था, अतः हम जल्दी उठ कर तैयार हो गये। अगत्ती द्वीप के दूसरे तरफ समुद्री किनारे पर बने लैगून तथा समुद्री जीवों को देखने का यह एक बड़ा ही सौभाग्यशाली अवसर था। कोरल टॉप पर लगभग एक फ़ीट तक फैले गहरे पानी में छोटे-छोटे घास उगे हुये थे और स्वच्छ पानी में तरह-तरह के समुद्री जीव दिख रहे थे। स्टार फिश, लॉयन फिश, सी कुकुंबर, जील आदि अपने सामने देख मैं हतप्रभ थी। इसे कहते हैं जीवंत सागर आज सबकुछ मेरे सामने था। सीप, शंखों से मुझे बहुत प्रेम है उसके कलेक्शन का शौक़ है पर जब उन्हें अपने सामने रेंगते देखा तो मैं रोमाचित हो गई और मैंने उसे उठाना छोड़ दिया। कछुए दूर से ही पानी में तैरते से दिखे पास आते ही वे भाग जाते थे पर कमरुद्दीन ने एक को पकड़ ही लिया फिर हम सब उसके पास गये और उसे क़रीब से देखा। उसकी बड़ी-बड़ी आँखें थी, काफी वजनी था वह लगभग तीस किलो का। उसे देख अति उत्साहित हो गई मैं। उसे छूकर देखा वह अपने दो डैने को बार-बार फैला रहा था। मैं ने उसे डिस्टर्ब करने के लिए माफ़ी माँगी, उससे हाथ मिलाया, फोटो खिंचा और उसे जाने दिया। जीवन का अदभूत अनुभव था वह।
नाश्ता के बाद थोड़ा आराम और फिर स्नान के लिये जल में। लगभग एक-ड़ेढ घंटे हम जल-क्रीड़ा करते रहे। तैरने का थोड़ा अभ्यास किया तो हाथ-पाँव के कल-पुर्ज़ों में जैसे जान आ गई। महसूस हुआ इससे अच्छा और मज़ेदार व्यायाम कुछ हो ही नहीं सकता। आज के इस डेढ़ घंटे की तैराकी से यह समझ में आ गया कि पानी मनुष्य को तरोताजा क्यों बना देता है, क्योंकि पानी के अंदर जाते ही हमारा शरीर हल्का हो जाता है अतः यह वेटलेसनेस की फ़ीलिंग ही हमें आनंद देता है, साथ ही पानी की शीतलता सारी थकान दूर कर देती है। जीवन का यह अदभुत आनंद है जो अब हर जगह उपलब्ध नहीं है। नदियाँ गंदी हो चुकी हैं, तालाब भथ कर मर चुके हैं, झीलें कचरों से भरी हैं यहाँ तक की समुद्र भी हर जगह साफ नहीं है। मुंबई में तो समुद्र की गँदगी देखी नहीं जाती। लक्षद्वीप में अरब सागर की स्वच्छता, उसका गहरा नीला-हरा रंग आह्लादित करनेवाला है। और ऐसा शायद इसलिए क्योंकि यहाँ पर्यटन काफी हद तक प्रतिबंधित है। सबको यहाँ आने की इजाज़त मिलती नहीं। खुद हमें भी यहाँ आने के लिये परमिट बनवाने में काफी जद्दोजहद करनी पड़ी थी। संभवतः भारत सरकार की यह नीति देश की सुरक्षा को दृष्टि में रख कर बनाई गई है। अगर इन द्वीपों पर दुश्मनों का कब्ज़ा हो जाये तो निश्चित रूप से भारत की सुरक्षा खतरे में पर सकती है। अगत्ती द्वीप की पुरी आबादी लगभग साढ़े सात हजार के आसपास है और सारी जनसंख्या मुस्लिम हैं। सात किलोमीटर की लंबाई में फैले इस द्वीप में लोगों के घर, तीन-चार छोटे-छोटे मस्ज़िद, कुछ छोटी-छोटी दूकानें, एक सरकारी गेस्ट हाउस, एक हॉस्पिटल, एक स्कूल, एक एक्वेरियम शाम की सैर में मुझे यही सब दिखे। जहाँ हम रुके थे शाम में वहाँ कुछ महिलायें आ गईं, उन्होंने इशारा से मुझे बुलाया, मैं उनके पास गई। सब मलयालम बोल रही थीं और हिंदी, अंग्रेजी के कुछ शब्द भर, जैसे मेरे ड्रेस को देखकर उन्होंने कहा –‘सुपर’। उनमें से एक बोली- ‘नो इंग्लिश नो हिंदी ओनली मलयालम’। जब मैं ने मोबाइल निकाला तो एक लड़की गाने लगी –‘तू खिंच मेरी फोटो, तू खिंच मेरी फोटो’। तब मुझे समझ में आया कि हिंदी सिनेमा के गीत देश के हर कोने में कितने लोकप्रिय हैं और कैसे संपूर्ण देश को एकता के सूत्र में बाँधे हुये है। फिर सबने मेरे साथ फोटो खिंचवाये, थोड़ी देर टूटी-फूटी हिंदी-इंग्लिश में बातें की और चली गईं।
गोधूलि बेला में सागर किनारे बैठ सागर की उठती-गिरती लहरों का संगीत सुनना अब मेरा सबसे मनपसंद शगल बन गया है और आज दिमाग में घूम रही हैं ये पंक्तियाँ -
सागर किनारे बैठ
दिखता मुझे सामने
साक्षात
आँखों देखा झूठ
मिलन धरती आसमान का
कितना बड़ा धोखा
कितना बड़ा भ्रम
हमेशा आँखों से देखा
सच नहीं होता
आँखें भी हमें छल जाती हैं
क्षितिज है कितना बड़ा
छलावा
अगले दिन एक छोटे से वोट पे सवार हो हम कलपिट्टी द्वीप देखने गए। अगत्ती के सबसे पास स्थित द्वीपों में से यह एक है| कहा तो यह भी जाता है कि यह अगत्ती एटोल का ही एक हिस्सा है, यद्यपि देखने में ऐसा नहीं प्रतीत होता और यह द्वीप अपना अलग अस्तित्व रखता है | यह पूर्णतः निर्जन द्वीप है किसी भी तरह का कनस्ट्रक्शन वर्क वहाँ नहीं सिवाय एक स्तंभ के जिसमें भारत का राष्ट्रीय चिन्ह उकेरा हुआ है और जिसमें यह लिखा है कि यह द्वीप भारत का एक अभिन्न अंग है। वहीं जा कर पता लगा कि भारत सरकार की योजना यहाँ से अगत्ती तक एक रनवे बनाने की थी ताकि वहाँ जेट विमान उतारा जा सके पर पर्यावरणविदों ने इसकी इजाजत नहीं दी| अगर यह रनवे बन जाता तो अगत्ती रनवे का विस्तार कलपिट्टी तक होता और यह दोनों द्वीपों के बीच स्थित कछुओं की बस्ती और प्रवालों को बरबाद कर देता। निश्चय ही यह एक बहुत अच्छा निर्णय था। पूर्णतः निर्जन इस द्वीप की सुंदरता मन को मुग्ध कर रही थी। यहाँ प्रकृति अपने शुद्धतम रुप में दिखाई देती है। मैं ने कान लगा कर उस निर्जनता की आवाज और समुद्र का गर्जन दोनों को सुनने की कोशिश की। सोचती रही क्या प्रचीन काल में ऐसे ही निर्जन द्वीपों में अपराधियों को निर्वासित करने की सजा दी जाती थी? लेकिन मैं इसे निर्जन क्यों कह रही हूँ सिर्फ एक इंसान नहीं है यहाँ वरना वनस्पतियों और समुद्री जीव-जंतुओं का तो यह स्वर्ग है, जिसे परेशान करने, छेड़ने, आहत करने वाला वहाँ दूर-दूर तक कोई नहीं। समुची धरती पर तो मनुष्यों ने अपना आधिपत्य जमा ही रखा है ऐसे ही कुछ क्षेत्र बच गए हैं जो मनुष्य के चंगुल से मुक्त हैं। यहाँ भी हम जैसे कुछ लोग आ ही जाते हैं उन्हें परेशान करने यद्धपि मेरी पूरी कोशिश थी कि मुझसे उन्हें कोई नुकसान न पहुँचे और कोई जीव मेरे पैरों तले न कुचल जाए। समुद्र के किनारे चलते और तरह-तरह के जीव-जंतुओं को यूँ निर्द्वंद रेंगते और दौड़ते देखना अपने आप में एक ऐसा सुख था जिसका वर्णन करना मेरे बस में नहीं बस इतना ही कह सकती हूँ कि रोम-रोम सिहर से उठे थे मेरे, पूरे शरीर में रोमांच हो आया था | थोड़ी देर इन जीवों के पीछे-पीछे चलती रही फिर अपनी टोली में लौट आई | किनारे पर कुछ नारियल के पेड़ ऐसे टेढ़े खड़े थे कि उनकी जड़ें तो द्वीप में गड़े थे पर पूरा तना समुद्र के पानी के ऊपर फैला था , थोड़ा रिस्क उठा उस पर बैठ एक सुंदर सा फोटो लेने का लालच नहीं संवर कर पाती हूँ | फोटो लेने के बाद हम थोड़ी देर उस द्वीप में घूमते रहे और फिर लौट आए | शाम हो
चली है, सागर किनारा फिर बुला रहा है, आराम कुर्सी पर बैठ गुनगुनाती हूँ--
मैं दरिया भी किसी गैर के हाथों से न लूँ
एक कतरा भी समंदर है अगर तू दे दे ।
आज लक्षद्वीप यात्रा का अंतिम दिन है, सुबह की सैर को हमदोनों निकल पड़ते हैं-
सूर्योदय का समय
सूरज अभी-अभी जल से निकल
आसमान में चढ़ रहा
सुनहरी किरणों का एक पुल सा बना है
जल के ऊपर
इशारा करता
पास बुलाता सा
सोने का सेतु
जैसे हो वह स्वर्ग तक जाने का मार्ग
इच्छा होती है दौड़ परूँ मैं
पानी के ऊपर चलते हुये
इस सेतु के सहारे
इस दुनियां के रंजो-गम से दूर
सूरज की सुनहरी दुनियां में
रोशनी ही रोशनी हो जहाँ
अंधकार का नामोनिशान न हो जहाँ
बस कुछ ऐसे ही विचार, कुछ पंक्तियाँ मन मस्तिष्क में उभरती हैं और छाती जाती हैं। अलविदा लक्षद्वीप | तुम मेरी यादों के झरोखे में सदा रहोगे। अब शायद फिर कभी ऐसी सुंदरता, प्रदूषणमुक्त वातावरण, नीले सागर का सफेद जल, उसमें तैरती असंख्य रंग-बिरंगी मछलियां, मूंगा-मोती का अक्षय भंडार, नारियल के पेड़, सफेद बालुका राशि तथा शांत द्वीपवासी देखने को मिलें न मिले। पर मेरे मन पर तूने जो अमिट छाप छोड़ा है वह तो कभी न मिटेगा। सोचती हूँ प्रकृति बिन बोले कितना कुछ बोल जाती है। जैसे यह समुद्र मुझसे बोलता रहा पूरी यात्रा के दौरान। कितना सबक़ सीखा देती है, कितना पाठ पढ़ा देती है। लाखों पुस्तक मिल कर भी यह काम न कर पाए। आज इस यात्रा का अंतिम दिन है,इन चार दिनों को क्षण-क्षण जीया मैं ने, लक्षद्वीप तुम्हें भूल नहीं पाउंगी, फिर-फिर बुलाना मुझे। तेरे सागर के जल ने माँ की गोद का आंनद दिया, आँखों को शीतल कर देने वाले दृश्य दिये, कानों को निरंतर सागर का घहराता, लहराता संगीत दिया, तेरी आबोहवा ने मेरे सारे दुःख छीन लिये, तनावमुक्त कर दिया मुझे, तुझे जितना भी धन्यवाद दूँ कम है। तेरे पास आकर अवकाश के आंनद को वास्तविक अर्थों में जाना मैं ने, महसूसा मैं ने। तुम्हारी खुबसूरती मेरे मन के मंजूषे में सदैव सजी रहेगी और यादों में महकती रहेगी। सफ़र के अंत में बस कुछ ऐसे ही भाव उठ रहे थे मन में जैसा कि इन पंक्तियों में सुमित्रानंदन पंत ने कहा है-
सागर की लहर लहर में
है हास स्वर्ण किरणों का,
सागर के अंतस्तल में
अवसाद अवाक् कणों का!
जग जीवन में हैं सुख-दुख,
सुख-दुख में है जग जीवन;
हैं बँधे बिछोह-मिलन दो
देकर चिर स्नेहालिंगन।
जीवन की लहर-लहर से
हँस खेल-खेल रे नाविक!
जीवन के अंतस्तल में
नित बूड़-बूड़ रे भाविक!
सुबह के नाश्ते से पहले एक अंतिम बार हम सागर में स्नान करने जाते हैं और पूरी तरह इस स्नान का आनंद ले थक कर चूर हो लौटते हैं | सबद अंतिम बार हमें प्रेम से नाश्ता कराता है और बताता है कि थोड़ी देर में आपको ले जाने के लिए गाड़ी आएगी। मैं सामान बाँधती हूँ और बड़े प्रेम से उन सूखे कोरल्स को सहेजती हूँ जो हमें सागर किनारे यहाँ वहाँ मिले और जो कमरुद्दीन जी ने हमें उपहार स्वरूप दिया। पर तब बेहद दुःखी हो जाती हूँ जब सबद बताता है कि यह सब मत ले जाईए यहाँ से कोरल्स ले जाने पर प्रतिबंध है, हवाईअड्डा पर पकड़े जाने पर बहुत दंड भरना पड़ेगा। लाचार हो सब छोड़ना पड़ता है। भरी आँखों से बाहर निकल एक अंतिम बार सागर को निहारती हूँ और गाड़ी में बैठ जाती हूँ हवाई अड्डा जाने के लिए। और यूँ खत्म होता है लक्षद्वीप का सफर। सच कहती हूँ आज भी जब मैं थकी,उदास या अकेली होती हूँ तो बॉलकनी में आरामकुर्सी पर बैठ आँख बंद कर लेती हूँ और कल्पना में डूब जाती हूँ कि मैं लक्षद्वीप में हूँ उसी समुद्र के किनारे उसी आराम कुर्सी पर बैठी, अभी-अभी सूर्य समुद्र में डूबा है, उसकी लाली आसमान में फैली है, नारियल के पत्ते हवा में डोल रहे हैं, समुद्र का रंग धीरे-धीरे गहरा होता जा रहा है। फिर मेरे विचार थम से जाते हैं, कोई हलचल नहीं, शरीर और चित्त दोनों स्थिर हो जाते हैं, मैं नितांत स्व में थिर हो जाती हूँ, रह जाता है सिर्फ साक्षी भाव। प्रकृति और मैं जैसे एक लय हो जाते हैं। इस यात्रा का असर मेरे ऊपर इतना जबर्दस्त पड़ा है कि यह यात्रा मेरे लिए एक ध्यान बन गई है। अक्सर ही एकांत में बैठ मैं उसी जगत में पहुँच जाती हूँ, सारा दृश्य कल्पनालोक में सजीव हो उठता है और मैं कुछ देर के लिए फिर से अपने मानस जगत में उसकी सैर कर आती हूँ। यह अंतर्यात्रा मुझे ताजगी और उत्साह से भर देती है।
मुकुल कुमारी अमलास
नागपुर (महाराष्ट्र)
संपर्क: mkosho83@gmail.com
वाह , अत्यंत सजीव चित्रण , ऐसा लगा मैं भी घूम रही हूँ आपके साथ-साथ
जवाब देंहटाएंआपके प्रसंशा भरे शब्द बहुत प्रोत्साहित करने वाले हैं, धन्यवाद अर्चना जी।
हटाएंसुन्दर रचना हेतु बधाई मुकुल जी,
जवाब देंहटाएंमेरे हिन्दी ब्लॉग "हिन्दी कविता मंच" पर "अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस" के नए पोस्ट "मजदूर - https://hindikavitamanch.blogspot.in/2018/05/world-labor-day.html " पर भी पधारे और अपने विचार प्रकट करें|
बहुत-बहुत धन्यवाद शुक्ला जी। आपके ब्लॉग को जरुर देखूँगी।
हटाएंसच मे मैम आपने इतना सजीव चित्रण किया हैं, ऐसा लग रहा मानो सागर मुझे बुला रहा हैं।अलौकिक,अप्रतिम।
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