संस्मरण लेखन पुरस्कार आयोजन - प्रविष्टि क्र. 67 : संस्मरणात्मक कहानी - “हिज़डा कौन..यह, या वह ?” दिनेश चन्द्र पुरोहित

SHARE:

प्रविष्टि क्र. 67 “ हिज़डा कौन .. यह , या वह ?”   दिनेश चन्द्र पुरोहित अहमदाबाद-मेहसाना लोकल गाड़ी तेज़ रफ़्तार से पटरियों पर दौड़ रही थी, उस गा...

प्रविष्टि क्र. 67

हिज़डा कौन..यह, या वह ?”

  दिनेश चन्द्र पुरोहित


अहमदाबाद-मेहसाना लोकल गाड़ी तेज़ रफ़्तार से पटरियों पर दौड़ रही थी, उस गाड़ी के शयनान डब्बे में रशीद भाई अपने मित्र सावंतजी और ठोकसिंगजी के साथ बैठे रोज़ की तरह पाली जाने की यात्रा कर रहे थे। इन मित्रों की गुफ़्तगू चल रही थी, उस दौरान रशीद अख़बार पढ़ते हुए कहने लगे “देखों भाईयों, ख़ुदा जाने कैसा ज़माना आ गया है..? आज़ इज्ज़तदार आदमी को आँखें नीची कर के इन असामाजिक-तत्वों के सामने से गुज़रना पड़ता है। क्या करें, जनाब..? किस गली या चौराये पर, अपनी नज़र डाले..? हर जगह, ये गुंडे-बदमाश खड़े दिखाई देते हैं।”

“अरे भाई, खां साहब। इनके खिलाफ़ पुलिस कोई क़दम उठाती नहीं, इधर इन गुंडो का सीधा सम्बन्ध इन सत्ता-लोलुप्त नेताओं से बना रहता है। अब, किस-किस आदमी के चरित्र का बखान करें..? सब के सब हमाम में नंगे हैं, बस अब तो रामसा पीर बचाएं, इन शातिरों से।” सावंतजी कह बैठे।

“अरे भाई साहब, क्या कहें..? आज़ घर की औरतें नौकरी करने नहीं जा सकती बेचारी, इन औरतों की इज़्ज़त लूटने वाले..ये काले और सफ़ेदपोश गुंडे, हर दफ़्तर में मौज़ूद..! घर की बहू-बेटी जब तक सलामती से घर नहीं आ जाती..ख़ुदा रहम, ज़ब्हा पर फ़िक्र की रेखाएं छाई रहती है।” रशीद भाई, फिक्रमंद होकर कहा।

“हाँ यार, रशीद भाई। इन इज़्ज़त लूटने वाले गुंडों का काला मुंह हो। इनके कारनामें सुनकर, मेरा मुंह का स्वाद कसेला हो जाता है। इधर मेरी आँखें, भभकते अंगारों की तरह लाल-सुर्ख हो जाती है। गुस्सा इतना आता है, इन हरामज़ादों का क़त्ल कर बैठूं..मगर करूँ क्या...? ये सब असामाजिक-तत्व, इन राजनेताओं के आशीर्वाद से महफूज़ है। बस, कोई काण्ड हो जाये समाज में, हम कुछ कर नहीं पाते....बस पानी की मछली बन गए है, जो पानी नहीं मिलने से तड़फती हुई अपने प्राण छोड़ देती है।” सावंतजी ने दुखी होकर कहा।

“कुछ भी बात आप बताना चाहो, तो आप खुलकर बोला करो..यह क्या है..भभकते अंगारे, बिना पानी की मछली..? अरे जनाब, मुहावरों से पेट नहीं भरा जाता...बात साफ़-साफ़ बताया करो। आख़िर, कहना क्या चाहते हैं, आप..?” ठोकसिंगजी बोले।

“बात आख़िर यह है, यार। पाली-शहर की सिन्धु नगर कोलोनी में एक सात साल की बालिका के साथ किसी हरामी ने बलात्कार करके, उसकी ज़िंदगी ख़राब कर डाली। बस इसी घटना के तख़ालुफ़ में पूरी सिन्धी न्यात आन्दोलन पर आ खड़ी हुई, शहर की सारी दुकानें बंद करवा दी गयी। अब आप यह समझो, यह होती है न्यात की एकता।” रशीद भाई बोले।

“पुरानी बात का मंथन काहे करते जा रहे हो, रशीद भाई..? कुछ नवीनतम ख़बर रखा करो अपने इस बूढ़े दिमाग़ में। लो, सुनो। नयी ख़बर मैं बताता हूं, आपको। पाली की महावीर नगर कोलोनी में एक शादी के मंडप में, बाहर से आयी हुई एक ११ साल की बालिका को कोई कुकर्मी बहला-फुसलाकर जंगल में लेकर आ गया। वंहा उसे लिटाकर कुकर्म कर डाला, उसने।” ठोकसिंगजी बोले।

“फिर क्या हुआ, जनाब..?” रशीद भाई अपनी जिज्ञासा दिखलाते हुए कहा।

“अरे जनाब, यह महावीर नगर वही है.. जहाँ पाली के धनाढ्य जैन रहा करते हैं। मैं जानता हूँ, अब यह दुष्कर्मी किसी हालत में बच नहीं सकता है। इसी समाज के सांसद जनाब गुमान मल लोढ़ा और विधान-सभा सदस्य सुश्री पुष्पा जैन दोनों इसके पीछे लग जायेंगे...अब, इसे छोड़ने वाले नहीं। इसके आगे, और क्या कहूं आपको..? ये धनाढ्य लोग पैसा पानी की तरह बहाते हुए, सभी राजनैतिक दबाव काम में ले लेंगे। यह है, न्यात की एकता। इस पाली शहर में न्यात की एकता देखनी है तो देखिये, इन जैनियों की, या फिर है इस मुस्लिम-समाज की एकता।” इतना कहकर, ठोकसिंगजी चुप हो गए। बस, ख़ुदा जाने वे आगे क्यों नहीं बोल पाए..?

“वाह, यार ठोकसिंगजी..चुप कैसे हो गए, बिल्ली की तरह..? अभी तो जनाब की, बे-लगाम घोड़े की तरह ज़बान चल रही थी ? अरे भाई मैं तो यहीं कहूँगा, के आप भी फुठरमलसा की तरह भाष...भाषण..” आगे बेचारे रशीद भाई, क्या बोल पाते..? उनको इस केबिन में, न मालूम कौन आता हुआ दिख गया..? वे ख़ुद, आगे बोल नहीं पाए।

बस, अब उन्हें समझ में आ गया..आख़िर किसने यहाँ आकर, ठोकसिंगसा के मुंह पर अलीगढ़ का ताला जड़ दिया..? उनको चुप पाकर रशीद भाई धीरे से कहने लगे “ठोकसिंगसा, मालिक आपको भी दीदार हो गए किसी के...वाह, जी वाह। जनाब की ज़बान, तालू पर चिपक गयी...?”

“क्या बोलूँ, रशीद भाई..? क्या, आपको आस-पास का नज़ारा दिखाई नहीं देता..? आपके मेहमान अज़ीज़ समधीजी जनाबे आली नाज़र-ए-आज़म “रशीदा जान” तशरीफ़ रख रहें हैं, तालियाँ बजाते हुए ...” बस इतना ही बोले, ठोकसिंगजी। आगे बोलने की जुरअत कर नहीं पाए, बेचारे। क्योंकि रशीदा जान काफ़ी नज़दीक आ चुका था, उन्होंने तो यही समझ लिया के शायद इस रशीदा जान ने उनकी कही बात सुनी न हो...तो, अच्छा रहेगा ? फिर क्या..? चुप-चाप बैठ गए, मौनी बाबा की तरह।

ताली बजाता हुआ रशीदा जान उनके पास आकर खड़ा हो गया, और उनके गालों को सहलाते हुए कहने लगा “क्या बोल रहे थे, ठोकसिंगसा..? अब सुनो, मेरी बात। हमारे समधीसा रशीद भाई है ना, मैं उनकी मेहमान बन जाऊंगी। मगर खर्चा करेंगे, मेरे सेठ ठोकसिंगसा। क्या सेठ साहब, मंजूर है ? काहे मुंह बना रहे हो जी, खर्च का नाम सुनकर..?” इतना कहकर रशीदा जान जाकर, रशीद भाई के पास जाकर बैठ गया। फिर उनका अख़बार दूर करता हुआ, वह कहने लगा “समधीसा, मुंह मत छिपाओ जी। कहीं अख़बार में छपी ख़बरों को पढ़कर, आपको शर्म आ रही है..?”

यह सुनते ही, रशीद भाई भोला मुंह बनाकर कहने लगे “यह बात नहीं हैं। मैं तो बस यही सोच रहा था, पहले लोग किस तरह औरतों की इज़्ज़त बचाने के लिए अपना सर कटा लिया करते थे..मगर आज़ ये लोग..” आगे कुछ नहीं बोलकर, निग़ाहें झुकाकर बैठ गए।

“अरे रशीद भाई, आप किन मर्दों की बात कर रहे हो...? ये आज़ के मर्द तो मर्द रहे ही नहीं, क्योंकि अपनी आँखों के सामने औरतों की इज़्ज़त लुटते हुए देख रहे हैं और ये कुछ कर नहीं पाते। मैं तो इन लोगों को, हिज़डा भी नहीं कह सकती..” बेचारा रशीदा जान इतना ही बोला था, और उसकी बात काटकर रशीद भाई बोल उठे “ऐसी क्या बात है, रशीदा बाई..? ऐसे लोगों को फिर हिज़डा ही कहेंगे, और क्या कहेंगे..?”

रशीद भाई की यह बात सुनते ही, रशीदा जान के चेहरे की रंगत बदलने लगी। फिर क्या..? वह भड़कते सांड की तरह, लाल-सुर्ख आँखें करके ताली बजा बैठा। उसकी ताली की आवाज़ सुनकर, पड़ोस के केबीन में खड़े किन्नर ने उसके जवाब में ताली बजा डाली। फिर वह ताली बजाता हुआ, इधर इस केबीन में आता हुआ दिखायी देने लगा।

रशीदा जान के समीप आकर, उस हिज़ड़े ने ताली बजाकर कहा “अरे उस्ताद, आप तो यहाँ बिराज़मान हैं..? हाय अल्लाह, मैंने आपको कहाँ-कहाँ नहीं ढूँढ़ा...” कहते-कहते उसकी निग़ाह रशीद भाई पर जा गिरी, फिर ख़ुदा के फज़ल से न जाने यह क्या हो गया उसे..? उस नाज़र ने घबराकर, अपनी निग़ाहें झुका दी। ऐसा लगने लगा, के अब तक चल रही कैंची की तरह उसकी ज़बान पर, अनायास अलीगढ का ताला जड़ दिया गया..?

अब नज़र गढ़ाकर, रशीद भाई उसका चेहरा अच्छी तरह से देखने लगे। उसका चेहरा कुछ जाना-पहचाना लगा, मगर गौर से देखने के बाद भी वे उसे पहचान नहीं सके। उन्हें इस तरह देखते पाकर, रशीदा जान मुस्करा कर उन्हें कहने लगा “रशीद भाई, क्या आपको हमारी सरदारी बाई पसंद आ गयी क्या..?” इतना कहकर, रशीदा जान ठहाके लगाकर हंसने लगा। रशीदा जान की हंसी सुनकर, सरदारी बाई शर्मसार हो उठा। वह अपने दिल में सोचने लगा, के “अभी धरती-कंप हो जाय, तो वह झट उसमें समा जाय।” इधर किसी तरह अपनी हंसी दबाकर, रशीदा जान उससे कहने लगा “सरदारी बाई, आप नीचे क्यों देख रही हैं..? नीचे लाल [बारुड़ी] चींटियां नहीं चल रही है, जो आपको काट जाएगी..? अब आप आगे चलो, बस, मैं आ ही रही हूँ। यहाँ तो हमारे समधीजी बैठे हैं, इनसे हम रुपये-पैसे लेंगे नहीं। इसलिए आप किसी दूसरे केबीन में जाकर कमाई करो, यहाँ कुछ मिलने वाला नहीं।”

इतना सुनते ही, सरदारी बाई झट वहां से चला गया। उसके जाने के उपरान्त, रशीदा जान वापस ठहाके लगाकर हंसने लगा। हंसते-हंसते उसके पेट में दर्द होने लगा। आख़िर, पेट दबाकर उसने रशीद भाई से कहा “अरे समधीसा, अभी तक आपने इस सरदारी बाई को पहचाना नहीं..? जनाब, ज़रा अपने दिमाग़ पर ज़ोर देकर सोचिये...कहीं इसको, आपने कहीं देखा हो..?” मगर, रशीद भाई ने झट दो किलो की घांटकी हिलाकर जतला दिया के “उसे कहीं नहीं देखा है।” अब रशीदा जान कहने लगा “आख़िर बता ही देती हूँ कि, ‘यह है, कौन..?’ ये हैं आपके ससुरजी मज़ीद भाई के दोस्त, गुलाब खां साहब के ख़ास शागिर्द सुलतान खां है। ये आपके इलाक़े के नामी गुंडे रहे हैं, जिन्होंने मोहल्ले की कई बहू-बेटियों की इज़्ज़त लूटी है।” इतना सुनते ही, रशीद भाई मुंह में अंगुली डालकर कह बैठे “वाकई यह तो वही सुल्तानिया है, जिसने गुलाम खां साहब की बेटी नसीबा के साथ...” उनकी बात काटकर रशीदा जान बोला “जी हां, यह वही शैतान है। याद करो, एक दिन यह दुष्ट यतीमखाने के पीछे वाली सूनी गली में बेहोश पाया गया। पुलिस आयी वहां, और इसे ले जाकर अस्पताल में एडमिट करवाकर चली गयी। बाद में पुलिस ने बताया, के “इसको किसी ने, बधिया कर दिया है। अब यह आदमी, नपुंशक हो चुका है।” अब बोलो, रशीद भाई..इस शैतान को यह सज़ा देने वाला आख़िर था, कौन..?”

बेचारे रशीद भाई कुछ समझ नहीं पा रहे थे, इस रहस्य का उज़ागर कैसे हुआ..? बस अब वे इतना ही बोल पाए, के “रशीदा बाई मुझे कुछ समझ में नहीं आया, अब आप ही समझा दीजिये।” रशीद भाई की बात सुनकर, रशीदा जान इस रहस्य को उज़ागर करता हुआ कहने लगा “उस पापी सुलतान खां को सज़ा देने वाला कौन है..? किसी मर्द ने उसको सज़ा नहीं दी है, उसको सज़ा देने वाला है, एक हिज़डा। वह है, रशीदा जान। तुम सब, एक हिज़ड़े से गए-बीते इंसान हो। मर्दानगी तुम लोगों में रही नहीं, तुम लोग क्या हिज़ड़े की बराबरी करोगे..? जब उस पापी को सज़ा देनी थी, तब तुम सब बैठ गए चूड़ियाँ पहन कर अपने घर में। तुम लोगों की इन गुंडों से डरने की आदत के कारण ही, सरे-आम कई मज़लूम नारियों की मासूम की ज़िंदगी बरबाद हुई है और होती जा रही है। आज़ तुम में से कोई एक भी मर्द उसका तखालुफ़ करने की हिम्मत दिखाता, तो आज़ यह गुलाम खां साहब की बच्ची नसीबा उसका शिकार नहीं बनती।” इतना कहने के बाद, रशीदा जान अपने पर्स से एक चांदी की डिबिया निकाली, फिर उसमें से एक पान की गिलोरी निकालकर अपने मुंह में ठूंस दी। उसके बाद, अपने एक-एक लब्ज़ पर ज़ोर देता हुआ उसने कहा “लीजिये, आपको पूरा किस्सा ही बयान कर दूँ..आख़िर हुआ क्या..? फिर, आपको हो जायेगी तसल्ली। सुनने के बाद आप ख़ुद कहोगे, के “आज़ के मर्द, हिज़ड़े से गए बीते हैं। जो अपनी आँखों के सामने नारियों की इज़्ज़त लुटती हुई वे देख सकते हैं, मगर उनकी इज़्ज़त बचाने के लिए वे एक क़दम आगे नहीं बढ़ा पाते।” इतना कहने के बाद, रशीदा जान किस्सा बयान करने लगा। अब वह घटना, चल-चित्र की तरह सबकी आँखों के सामने छाने लगी।

माणक चौक के पास ही, पुराने रईस लोगों के मोहल्ले आये हुए हैं। जिसमें एक है, “लायकांन मोहल्ला”। इस मोहल्ले में इन पुराने रईसों की ऊँची-ऊँची हवेलियां नज़र आती है। देश की आज़ादी के बाद इन हवेलियों में रहने वाले रईस, राजकीय साहयता नहीं मिलने से धीरे-धीरे ग़रीब होते गए। कारण यह रहा, के “पुराने वक़्त राजा-महाराजों को संगीत और नाच-गाना देखने का बहुत शौक होता था, इस कारण उस दौरान इन्हें मदद मिला करती थी..! मगर देश की आज़ादी के बाद, इन राजा-महाराजों के पास सत्ता रही नहीं..इस कारण इन्हें आर्थिक-साहयता मिलनी बंद हो गयी।”

ये पुराने रईस अपने खर्चो पर लगाम लगा नहीं पाए, और रफ़्त:-रफ़्त: इनका संचित धन भी समाप्त हो गया। अब बेचारों को कहीं पैसों की आमद दिखायी नहीं दी, तब इन्होंने कहीं और कैसी भी नौकरी करना मंजूर कर लिया। मगर यह नौकरी कोई पेड़ पर लगे अनार तो है नहीं, जो जाकर तोड़कर खा लिए जाय..? उसके लिए भी जुगत लड़ानी, पड़ती है। आख़िर, राजमहलों के रब्त को काम में लेकर किसी तरह इन्होंने....सरकारी या गैर-सरकारी दफ़्तर में, चपरासी या चौकीदार की नौकरी हासिल कर ली। इससे ऊँची पोस्ट इन लोगों को मिलने से रही, क्योंकि इन लोगों को तो केवल तबला-पेटी, सारंगी आदि की संगत करनी आती, या नाचना। इन सबका, दफ़्तर में क्या काम..? इस आधुनिक वक़्त में पैसों को पूछा जाता है, और पैसे कमाए जाते हैं..कल-कारख़ानों से। इन कल-कारख़ानों में काम करने के लिए तालीम चाहिए, मशीनों को चलाने की और साथ में चाहिए उनका तकनीकी इल्म। इस तुजुर्बे से मरहूम रहने से, इन लोगों की कोई क़दर नहीं रही इस युग में। इस तरह कम तनख्वाह से, किसी तरह गुज़ारा करने के लिए ये बेचारे ये पुराने रईस मज़बूर हो गए...फिर वक़्त-वक़्त पर, इन हवेलियों की मरम्मत कराने की हिम्मत जुटा नहीं पाए..! बगल में पुरानी धन-दौलत तो रही नहीं, जिसे ये लोग अपने पुराने नाच-गाने के शौक में ख़त्म कर चुके थे। इस कारण, इन हवेलियों को खँडहर होते देखना इनका नसीब बन गया।

इस मोहल्ले में, पुराने रईस गुलाम खां साहब रहते हैं। उनके वालिद उस्ताद अब्दुल अली साहब का निकाह, उस्ताद मुख्तार अब्बास साहब की बेटी नूरजहां के साथ हुआ था। मुख्तार साहब उस रजवाड़ा काल में किशनगढ़ महाराजा के दरबार में नामी ख्याति-प्राप्त तबलची थे। मुख्तार अब्बास साहब के ख़ास शागिर्द थे, लचका महाराज..! मुख्तार साहब ने, लचका महाराज और अपनी बेटी नूरजहां को साथ-साथ तालीम दी थी। इस वजह गुरु बहन होने के नाते, लचका महाराज ने नूरजहां के साथ धर्म-बहन का रिश्ता जोड़ लिया..! नूरजहां इस रिश्ते में बंधकर, वह हर साल राखी के त्यौंहार पर उन्हें राखी बांधा करती थी।

जवाहरखाने की हवेली में, इन किन्नर-मंडलियों को नाच-गाने की तालीम दी जाती थी। वहां लचका महाराज इन किन्नरों को नाच-गाने की तालीम दिया करते थे। इसी जवाहरखाने में, रशीदा जान इनसे नाच-गाने की तालीम लिया करता था। वह लचका महाराज को पिता-तुल्य माना करता, इसलिए कई बार वह इनके साथ इनकी गुरु-बहन नूरजहां से मिलने चला जाया करता। इस तरह इसने भी, नूरजहां के परिवार के साथ अपना रिश्ता जोड़ लिया। वह नूरजहां को अपनी मां, और उनके बेटे गुलाम खां साहब को अपना भाई बना लिया। इस तरह, इस हवेली से रशीदा जान का रिश्ता हमेशा के लिए जुड़ गया।

कालांतर लचका महाराज श्रीजी शरण हो गए, मगर इस रशीदा जान ने इस हवेली के रिश्ते को बकरार रखा। जब कभी वह धंधे के लिए किन्नर-मंडली के साथ इस लायकांन मोहल्ले में आता, तब वह कभी भी गुलाम खां साहब की हवेली की तरफ़ नेग लेने हेतु अपने क़दम नहीं बढाता। क्योंकि उसके दिल में, लचका महाराज और नूरजहां के रिश्ते का बहुत सम्मान था...!

अब ये दोनों भाई-बहन इस ख़िलक़त में रहे नहीं, मगर वह इस रिश्ते को बराबर निभाता आ रहा है। इस लायकांन मोहल्ले में यह बात जग-चावी हो गयी, के “रशीदा जान का, गुलाम खां साहब की हवेली से गहरा रब्त है।” कई दफ़े इस मोहल्ले वाले कह दिया करते, के “ओ रशीदा बाई, इतना ज़्यादा नेग मत मांगो, कुछ तो आप अपनी गुरु-बहन की हवेली का ख़्याल रखो।” बस इतनी सी गुज़ारिश करते ही, वह झट नेग के रुपये कम कर देता..! एक दिन का जिक्र है, हसन अली रंगरेज़ के पोते होने पर, रशीदा जान इसी मोहल्ले में नेग लेने के लिए मंडली के साथ आया। उनके घर के बाहर वह रंग जमाने लगा, कई मोहल्ले वाले और राहगीर वहां तमाशबीन बनकर वहां खड़े हो गए। अब रशीदा जान का शागिर्द मोत्या, जो बीस साल का युवक था...ज़ोर-ज़ोर से ढोलकी पर थाप देने लगा। उसकी थाप पर सभी किन्नर घूमर लेकर नाचने लगे। रशीदा जान नाचता भी जा रहा था, और साथ में गीत गाता भी जा रहा था। उसके गीत के बोल थे “हमारे अंगने में तुम्हारा क्या काम है..!”

image

नाच-गाने से मची हुड़दंग की आवाज़ सुनकर, हसन अली रंगरेज़ की बीबी नुसरत बेग़म अपने पोते को गोदी में उठाये हुए बाहर आ गयी। उसके पीछे उसका पूरा परिवार, इन किन्नरों का नाच देखने के लिए बाहर आ गया। नुसरत बेग़म और उनके पोते को देखते ही, रशीदा जान नाचता हुआ उनके पास जा पहुंचा। फिर बच्चे को गोद में उठाकर, उसकी बलैयां लेने लगा। नुसरत बेग़म ने झट कमर में खसोली हुई थैली से ५०० रुपये निकालकर, बच्चे के ऊपर वारे...फिर उसके हाथ में, थमा दिए। फिर बच्चे को वापस अपनी गोदी में उठाकर, नुसरत बेग़म कहने लगी “रशीदा बाई, आपको क्या मालुम..? आपकी गुरु-बहन के पोते का ब्याव हो गया है, ब्याव के वक़्त आप कहाँ थी..? आपको तो हमने, कहीं देखा नहीं..क्या आप, गुलाम भाईसाहब से नाराज़ हैं..? या आपको बुलाया नहीं, आपके गुलाम भाईसाहब ने..?” यह सुनते ही, रशीदा जान के दिल के एक कोने ख़ुशी हुई, के “छोरे का घर मंड गया” मगर, दूसरी तरफ़ उसे दुःख होने लगा के “इस ख़ुशी के मौक़े पर गुलाम खां साहब ने उसको याद क्यों नहीं किया..?” उसके दुःख की कोई सीमा नहीं रही, वह समझ नहीं पा रहा था..आख़िर, उसका भाई कूंकू-पत्री तो भेज सकता था..आख़िर, उसने कूँकूँ-पत्री क्यों नहीं भेजी..?” बस यह दर्द, रशीदा जान के लिए नाक़ाबिले बर्दाश्त हो गया। अब वह कैसे, अपने इस शिखिस्ता-दिल को समझाएं..? जो सरल नहीं रहा, वह तो बस अब एक ही बात सोचने लगा के “अब तो वहां जाकर, खाली उलाहने देना ही बाकी रहा।” बस, फिर क्या..? झट अपनी मंडली के साथ, जा पहुंचा..गुलाम खां साहब की हवेली। हवेली में जाकर, इनकी मंडली सीधी चली गयी चौक में। चौक में पहुंचकर, सारे किन्नर तालियाँ पीटने लगे। तालियाँ पीटते हुए, रशीदा जान ज़ोर-ज़ोर से कहने लगा ”हाय हाय, छोरे को परणा दिया..यह कोई मज़ाक नहीं। हाय हाय, हमको तो सगुन चाहिए, हाय हाय.. नेग लाओ। दो हज़ार रिपिया का नेग चाल रिया है, आज़कल..? अरे ओ भाभीजान, साड़ी-ब्लाउज़ ला दो। साथ में, मिठाई-विठाई लाना भूलना मत। धान तौ, आपको देना ही पड़ेगा। ओय ओय, यह कोई मज़ाक नहीं है।” उसके बोल सुनते ही, गुलाम खां साहब घबरा गए, झट अपने परिवार के साथ बाहर निकलकर चौक में आ गए। आकर, रशीदा जान से कहने लगे “अरे मेरी बहन रशीदा तू तो जानती है, मेरी स्थिति। अभी-अभी बच्चे की शादी की है, हज़ारों रुपये ख़र्च हो चुके हैं इस शादी में। क़र्ज़ के नीचे, दब चुका हूँ। अब ज़्यादा मांगकर, मेरी शान भिष्ट मत कर..तू तो..” आगे वे कहना चाहते थे, मगर रशीदा जान ने एक भी उनकी नहीं सुनी। बेचारे गुलाम खां साहब अपनी लाचारगी दीवारों को सुनाते रहे, मगर वह रशीदा जान टस से मस नहीं हुआ...वह तो दो हज़ार रुपये नेग के लेने के लिए अड़ गया।

यहाँ तो यह रशीदा जान हर त्यौहार पर, इस मोहल्ले में आकर मोहल्ले वालों से नेग लिया करता है। चाहे वह मीठी-ईद हो, या बकर-ईद। उस वक़्त हमेशा की तरह, यह छोरा मोत्या इसके साथ रहता है। उस दौरान यह मोत्या, इसका साथ छोड़कर कहीं नहीं जाता।

कई सालों पहले इस मोहल्ले में एक हाफ-माइंड औरत ने आकर मोहल्ले की साळ में अपना बसेरा बना डाला। मोहल्ले के कई रहम-दिल इंसान उस औरत का ख़्याल रखते हुए, इसके खाने-पीने व वस्त्र आदि की ज़रूरत पूरी कर देते।

कुछ महीनों बाद, मोहल्ले में ख़बर फ़ैल गयी के “किसी निर्लज्ज आदमी ने अपनी हवस मिटाकर, इस बेचारी की ज़िंदगी मुश्की बना डाली। अब इस पागल औरत का पेट उभरकर ऊपर आ जाने से, मोहल्ले की औरतों को इसके गर्भवती होने की ख़बर हाथ लग गयी। बस, फिर क्या..? उस साळ से गुज़रते वक़्त ये औरतें एक-दूसरे को सुनाती जाती के “वह कमबख्त कैसा निर्लज्ज इंसान था, जिसने इस औरत के साथ खोटे कर्म करके इसे गर्भवती बना डाला।” कोई औरत उस पागल औरत की सूरत देखती हुई, कह बैठती “हाय अल्लाह, वह कैसा गंदा बदबूदार इंसान रहा होगा, जो इस बदबू आती हुई इस औरत के साथ हम-बिस्तर हो गया..? मै तो यही कहूँगी, ख़ुदा की कसम वह सौ-फ़ीसदी सूअर से भी ज़्यादा बदबूदार रहा होगा।” आख़िर किसी तरह, नौ महीने पूरे होने पर इस औरत ने एक ख़ूबसूरत लड़के को जन्म दिया। बच्चे के जन्म लेते ही वह पागल औरत उस बच्चे को बिलख़ता छोड़कर मर गयी, अब मोहल्ले वालों के सामने यह समस्या आ गयी के ‘अब इस बच्चे के पालन-पोषण की जिम्मेवारी अब कौन लेगा..?’ इस तरह, यह हर्ज़ बुर्ज़ मोहल्ले वालो के सामने आकर खड़ी हो गयी। clip_image004

बच्चे की ख़ूबसूरती का, इस मोहल्ले वालों को कोई लेना-देना नहीं। जिस बच्चे को “हराम का बच्चा” होने का खिताब मां के पेट में में ही मिल चुका था, अब उसकी ख़ूबसूरती का क्या मोल..? यतीम बच्चे को अपनाने का कलेज़ा रखने वाला इंसान ही रहम-दिल और बहादुर इंसान कहला सकता है। मगर यह हिम्मत, इस मोहल्ले के किसी इंसान में कैसे हो सकती है..? बस, यहाँ तो इन लोगों से सामजिक-सुधार मुद्दे पर बोलने को कह दिया जाय, तो ये मुअज्ज़म बहुत बड़ा व्याख्यान दे जायेंगे। मगर ऐसे बच्चे को अपनाने के लिए, कोई आगे आया नहीं करता। सभी जानते हैं, के “अपनाने का अर्थ क्या होता है..?” अपनाने का अर्थ है, इस नाज़ायज़ बच्चे को अपना नाम देना..अपने खानदान का वारिस घोषित करना। वह इतना सरल नहीं, क्योंकि हर किसी की जुबान से कहे अवांछनीय जुमलों को सुनने की ताकत, हर किसी के जिस्म में नहीं। मोहल्ले के लोगों को कितना वक़्त लगता है, किसी इज़्ज़तदार आदमी की पगड़ी उछालने में..? बस मुंह में पड़ी लापा-लप करती हुई ज़बान को, बाहर निकालना और क्या..? जहां कहीं इन लोगों को हफ्वात करने का मसाला नज़र आया, और ये निक्कमें झट उसे बाहर निकालकर अपनी बहादुरी दिखा देंगे। फिर वे ही हंसी के ठहाके, कुटिल हांस्य-विनोद और क्या..? मगर यह ज़बान कभी किसी के आंसूं पोंछने के लिए बाहर नहीं निकलेगी, और न अल्लाह की इबादत करने के लिए। क्योंकि अल्लाहताला की इबादत करने से इनके घुटने छिल जाते हैं, चांदी चखनी पड़ती है..फिर ऐसा काम, जिससे इनके बदन को कोई तकलीफ़ होती हो..ऐसा काम, ये लोग क्यों करेंगे..? जहां हफ्वात करने में क्या खर्च होता है..? बस खाली, लपा-लप करती हुई ज़बान को बाहर निकालना...जिससे इनका वक़्त भी, आराम से कट जाय..?

इस वक़्त लचका महाराज जिंदा थे, और ये आजीवन कुवांरे रहे। इस किन्नर-मंडली को ही, वे अपना परिवार मानते आये थे। जैसे ही उन्होंने इस बच्चे के बारे में सुना, सुनते ही उनके दिल में दया का सागर उमड़ पड़ा। वे झट उस मोहल्ले में जाकर, उस बच्चे को ले आये। और इस बच्चे को अपना बेटा घोषित कर दिया। अब वह बच्चा इस किन्नर-मंडली के हाथों पलने लगा। इस बच्चे को गोद लेने के थोड़े समय बाद, लचका महाराज चल बसे। अब यह किन्नर-मंडली ही उस बच्चे का परिवार थी, जिनकी देख-रेख में यह बच्चा बड़ा होने लगा। इन किन्नरों ने उस बालक को, नाच-गाने में पारंगत कर दिया। रशीदा जान तो इस बच्चे को अपना बेटा मानने लग गया, वह इस बालक को ढोलक बजाने की तालीम देने लगा। कुछ समय बाद यह बच्चा उस्ताद रशीदा जान और उस्ताद लचका महाराज के समान ढोलक बजाने में पारंगत हो गया। लचका महाराज ने इस बच्चे का नाम “मोती” रखा था, मगर यह किन्नर-मंडली इसे प्यार से “मोत्या” नाम से पुकारती रही।

अब इस वक़्त, यही मोत्या गुलाम खां साहब की हवेली में ढोलकी पर थाप दे रहा था, जिसकी थाप पर किन्नर मंडली नाच रही थी। अब रशीदा जान नाचते-नाचते गीत गाने लगा, गाने में उसका साथ सभी किन्नर देने लगे। रशीदा जान की मधुर आवाज़ में गीत के ये बोल सुनायी देने लगे “गुमाना हालीजी म्हारी मानौ मस्ताना हालीजी। रात अंधारी झुक रहीजी, कहां रे धरिया नाङा, जेवङा, हां रे हालीजी। कहां रे धरिया छै दांता-फ़ास, गुमाना हालीजी। म्हारी मानौ मस्ताना हालीजी, रात अंधारी आभा झुक रहीजी।!”

अब गुलाम खां की बर्दाश्त करने की हिम्मत ने ज़वाब दे दिया, दुखी होकर वे कहने लगे “मेरी बहन रशीदा, मुझे क्यों तंग कर रही है..? तेरे दिल की बात ज़ाहिर कर दे, इस तरह नाराज़ होकर यहाँ खेल मत कर, मेरी बहन। इस भाई पर, थोड़ा रहम खा।” अब रशीदा जान को गुलाम खां साहब की आवाज़ सुनायी दी, झट उसने नाच-गाना बंद कर सबको शांत रहने का इशारा किया। मोत्या ने ढोलकी पर थाप देनी बंद कर दी, सभी किन्नरों के नाच-गाने बंद हो गए। चारों तरफ़, शांतिपूर्ण वातावरण बन गया।

शान्ति छा जाने के बाद, गुलाम खां साहब कहने लगे “देख रशीदा, दो हज़ार बहुत ज़्यादा है। मेरी हैसियत तू अच्छी तरह जानती है, फिर तू मेरी हैसियत के अनुसार ही रुपये मांग।” रुपये कम हो या ज़्यादा..? इस बारे में सुनने की, रशीदा जान को आशा ही नहीं थी, यह तो एक भाई और बहन के रिश्ते से उलझा हुआ सवाल था..मगर यह कोदन इस बात को समझ ही नहीं रहा है..? मै इतने सालों से इस रिश्ते को निभाती आ रही हूँ, और यह नादान इस बात को समझ क्यों नहीं पा रहा है..? फिर, क्या..? उसका गुस्सा उबल पड़ा..और वह कटु लफ़्ज़ों में उनको सुना बैठा के “देखो गुलाम खां साहब, जितने रुपये हम अन्य लोगों से लेते हैं, उतने रुपये ही आपसे मांगे थे। अब रुपये कम करने का तो, सवाल ही पैदा नहीं होता।” इतना कहकर, रशीदा जान गुलाम खां साहब का चेहरा देखने लगा। उनका उतरा हुआ मुंह देखकर, रशीदा जान आगे सुनाने लगा के “लचका महाराज जब तक जीवित रहे थे, तब तक उन्होंने कभी इस हवेली की और नेग लेने के लिए क़दम नहीं बढाए..वे अम्मीजान को अपनी बहन मानते थे! यही कारण है, मैं भी इसी रिश्ते के कारण आपको भाई मानती आ रही हूँ। और, आज़ मैं रिश्ते को कैसे भूल गयी...? क्या गुलाम भाईजान, आप यही बात ज़ाहिर करना चाहते थे..?” इतना सुनकर, गुलाम खां साहब अपनी निग़ाहें झुकाकर कहने लगे “यह रिश्ता तो बहन रशीदा, तूझे निभाना चाहिए था।”

अब रिश्ता निभाने की, बात आ गयी..? सुनते ही, रशीदा जान भड़कते सांड की तरह बोल उठा, के “आप अभी तक रिश्ता निभाते आ रहे हो, क्या..? मेरे भतीजे की शादी हो गयी, और मुझे बुलाया भी नहीं..? आज़ अम्मीजान होती, तो शादी में...मुझे बुलाना कभी नहीं भूलती। मगर आप ने तो हद कर दी, बुलाना तो दूर...हाय अल्लाह, कूंकूं-पत्री भी नहीं भेजी..? इसलिए, अब तो आपको भुगतना ही पड़ेगा।”

अब बेचारे गुलाम खां साहब बुरे फंसे, उनको कोई ज़वाब नहीं सूझ रहा..? फिर, क्या..? पिंड छुडाने के लिए कह दिया के “परसों आ जाना, उस दिन दुल्हन के पीहर वाले आयेंगे पग-फेरे की रस्म करने। उन लोगों से, रुपये दिला दूंगा।” सुनते ही रशीदा जान को बहुत बुरा लगा, उसे अभी भी समझ में नहीं आ रहा था के “यह क्यों नहीं समझ रहा है, मेरी बात..? यह इंसान धान खा रहा है, या घास..?” आख़िर, खीज़ता हुआ कहने लगा के “हम लोग दुल्हन के पीहर वालों से नेग के रुपये लेते नहीं, हमारे समाज के भी कुछ क़ायदे होते हैं। यह भी मत भूलो, गुलाम खां साहब..के आपके छोरे का निकाह हुआ है, ना कि दुल्हन के भाई का..!”

आख़िर, लाचारगी से गुलाम खां साहब कहने लगे के “बहन रशीदा, हमसे ग़लती हो गयी, और अब मैं कसम खाकर कहता हूँ के अब कभी भी घर में अच्छा काम हो या बुरा तुम्हें बुलाना कभी नहीं भूलेंगे।” इतना कहकर गुलाम खां साहब ने रशीदा जान से मुआफ़ी मांग ली, फिर क्या ? झट उसने दुल्हन को अपने नज़दीक बुलाया, और उसकी खूब बलैयां ली। बाद में बोसा लेते हुए, खूब दुआएं दी और उसके हाथ में इक्यावन रुपये मुंह दिखायी के दिए। तभी पास खड़ी गुलाम खां साहब की जवान बेटी उसे दिखाई दी, उसे पास बुलाकर बोसा लेते हुए कहने लगा के “बाईसा, आपका नाम क्या है..?” वह शर्माती हुई कहने लगी, के “नसीबा...”

यह सुनते ही उसने दूसरा सवाल दाग दिया, के “आप कोलेज में पढ़ते हो, नसीबा बाईसा..?” उस शर्मीली युवती को कहां आशा थी, के कोई अगला सवाल पूछेगा..? बस झट चेहरे पर मुस्कान छोड़ती हुई, भागकर अपने कमरे में चली गयी।

इस वाकये को बीते, दो महीने हो गए। अब अगस्त का महिना आ गया, इन दिनों मानसून ज़ोरों पर था। सबाह-शाम या दोपहर, कभी भी बारिश हो जाती थी। एक दिन सबाह से बारिश की झड़ी लग गयी, रुकने का कोई नाम नहीं। सिंझ्या की वेला कुछ बरसात रुकी, तभी सायरी बाई नाम का किन्नर हड़बड़ाता हुआ हिंज़ड़ो की हवेली में घुसा। आते ही उसने रशीदा जान से कहने लगा, के “रशीदा बाई..रशीदा बाई, कुछ सुना आपने...?”

“पहले आप आराम से बैठ जाओ, सायरी बाई। सांस ले लो, फिर तसल्ली से बात करना।” रशीदा जान शीरी ज़बान में बोला।

शान्ति धारण करके आराम से सायरी बाई, घुटने से घुटना अड़ाकर राशीदा जान के पास बैठ गया...! जितने में मोत्या ठंडा पानी से भरा ग्लास ले आया, और अब पानी पीने के बाद सायरी बाई कहने लगा के “मैं गुलाम खां साहब के मोहल्ले से आ रही हूँ, वहां मैं यह सुनकर आयी हूँ के “आज़ दिन के उज़ाले में गुलाम खां साहब की छोरी नसीबा के साथ किसी दुष्ट आदमी ने गलत काम किया है।”

सायरी बाई की यह बात सुनते ही, मोत्या घबरा गया। वह धूज़ता-धूज़ता कहने लगा, के “दोपहर के ढाई बजे नसीबा को, यतीमखाने के पीछे वाली गली में घुसते देखा मैंने। उसके पीछे-पीछे दिलावर का भतीजा सुल्तानिया उस गली में घुस गया। मैं उस वक़्त अकेला था, क्या कर सकता था..?” यह सुनते ही, रशीदा जान का क्रोध आसमान को छूने लगा। झट उसने मोत्ये का गिरेबान पकड़कर, कहने लगा के “बता, और तूने क्या देखा..?” मोत्या घबराकर कहने लगा, के “कुछ नहीं, मैं तो उल्टे पाँव हवेली लौट आया।” अब ऐसी बात सुनते ही रशीदा जान के गुस्से का कोई पार नहीं, बस उसने तो एक झन्नाटे-दार थप्पड़ उसके रुख़सारों पर मारते हुए उसे कह बैठा के “अरे हिज़डा, तू तो सफ़ा-सफ़ कायर निकला..? जानता नहीं, गुलाम खां साहब की हवेली से हमारे किस तरह के रिश्ते हैं...? नसीबा हम सभी किन्नरों की भतीजी है, भूल गया तू..? अरे हितंगिया, उस सुल्तानिया के पीछे-पीछे जाता तो यह दुष्कर्म नहीं होता।” फिर सायरी बाई की तरफ मुंह करके, कहने लगा के “गुलाम खां साहब समझदार है, मुझे भरोसा है...उन्होंने ज़रूर पुलिस-थाने में सुल्तानिया के खिलाफ़ रिपोर्ट लिखा दी होगी। अब ज़रूर, यह सुल्तानिया मरेगा।”

“बीबी, मै यही बात आपको बताना ज़्यादा ज़रूरी समझती हूँ के गुलाम खां साहब ने अभी-तक पुलिस-थाने में रिपोर्ट नहीं लिखवाई है।” ग़मगीन होकर, सायरी बाई रोनी आवाज़ में बोला।

सायरी बाई की बात सुनते ही, रशीदा जान को बहुत रंज हुआ। झट मोत्या का हाथ पकड़कर जा पहुंचा गुलाम खां साहब की हवेली। वहां गुलाम खां साहब ग़मगीन हालत में, अपने परिवार के साथ हवेली के चौक में बैठे थे। उनके निकट ही, नसीबा घुटनों में मुंह डाली हुई रुदन करती हुई दिखायी दे रही थी। रशीदा जान नसीबा के पास आकर बैठ गया, और उसका सर सहलाते हुए सात्वना देने लगा। वह कहने लगा, के “नसीबा बेटी, सब ठीक हो जाएगा। तू तो बेटी यह बता, के यह पापी असल में सुल्तानिया ही था ना..?”

image

यह सुनते ही नसीबा झट हुँकारा भरती हुई, अपनी घांटकी हिला दी। मगर उसे वापस वही गुज़रा वाकया याद आते ही, वह वापस दहाड़े मारकर रोने लगी। किसी तरह रशीदा जान ने उसे समझा-बुझाकर शांत किया। उसके तिफ्लेअश्क को अपनी ओढ़ने से साफ़ करता हुआ रशीदा जान, गुलाम खां साहब से कहने लगा, के “भाईजान, नसीबा को लेकर पुलिस-थाने चलो। सुल्तानिया के खिलाफ़ रिपोर्ट लिखाकर आ जायें, ज़रूरत पड़ी तो यह मोत्या सुल्तानिया के खिलाफ़ गवाही दे देगा।”

मगर, गुलाम खां साहब एक शब्द नहीं बोले। इस तरह उन्हें कायरों की तरह चुप-चाप बैठे देखकर, रशीदा जान का गुस्सा उबाल खाने लगा। गुलाम खां साहब बेचारे लाचार-मज़बूर इंसान की तरह अपने “ज़ख्म खाए दिल” को समझा नहीं पा रहे थे, बस आँखों से तिफ्ले-अश्क गिराते हुए अपनी बेबसी ज़ाहिर करने लगे। थोड़ी देर बाद, रोते-रोते रुन्दते गले से कहने लगे के “देख रशीदा बहन, जो होना था वह हो गया..अब तो अल्लाहताला भी चाहे, तो भी इस छोरी को पहले जैसी बना नहीं सकता..! फिर तू तो जानती है, इस सुल्तानिया को..? यह है, गुंडा नंबर एक। इसका हम लोग, कुछ नहीं बिगाड़ सकते। फिर मेरी बहन, तू क्यों मेरी जग-हंसाई कराना चाहती है अब ? पुलिस-थाने में रिपोर्ट लिखवा दी, तो कई अख़बारों की सुर्खियाँ बन जायेगी नसीबा..क्या, तू ऐसा ही चाहती है...?”

रशीदा जान काफ़ी देर तक, गुलाम खां साहब को समझाता रहा, मगर कुछ फ़र्क नहीं पड़ा। फिर क्या..? गुलाम खां साहब तो टस से मस नहीं हुए, आख़िर पाँव पटकता हुआ रशीदा जान मोत्या का हाथ पकड़कर वापस चला गया। इस घटना को बीते, पांच रोज़ हो गए। छठे दिन सिंझ्या की वेला, यतीमखाने की पीछे वाली गली में लोगों को सुल्तानिया बेहोश पड़ा दिखायी दिया। थोड़ी देर बाद, वहां पुलिस आयी तहकीकात करने। तहकीकात करके, पुलिस ने उस सुल्तानिया को अस्पताल में भर्ती करवा दिया।

अच्छी ख़बरें तो लोगों को अकसर मालुम होती नहीं, मगर ऐसी सनसनी-खेज़ ख़बरें जिसमें किसी आदमी की कमी, कमजोरी, या उसकी कोई बुराई उज़ागर होती हो....बहुत जल्दी फैलती है। इस कारण सुल्तानिया के बधिया होने की ख़बर, इस इलाक़े में बहुत जल्दी फ़ैल गयी...के, किसी ने इस पापी को बधिया करके, यतीमखाने की पिछली गली में फेंक आया। बस अब तो यह ख़बर, चारों और फ़ैल गयी। इस तरह, इस पापी का दबदबा स्वत: ख़त्म हो गया। थोड़े दिन बाद, सुल्तानिया अस्पताल से छुट्टी पाकर बाहर आ गया। अब लोगों ने, इस पापी को परिहास करने का साधन बना डाला। अब ये लोग उस पापी को उसके ख़ुद के सामने ही, हिंज़ड़ो..हिंज़ड़ो कहकर चिढ़ाने लगे। इस तरह इस पापी की इतने सालों से जमाई गयी साख़, ख़ाक में मिल गयी। अब तो बात सफा-सफ़ उल्टी हो गयी, पहले लोग इस पापी से डरा करते थे..मगर, अब यह पापी इन लोगों से डरने लगा। फिर क्या..? यह सुल्तानिया कहीं से भी गुज़रता, लोग इसके सामने ही इसको चिढ़ाने लिए कोई न कोई व्यंग-भरा जुमला बोल देते। कोई कह देता के “यह देखिये जनाब, कल के केसरी सिंह नाहर और आज़ बन गए हैं सियार..? वाह क्या चाल है, इनकी..?” तभी पास बैठा कोई बकवादी बोल उठता, के “अरे जनाब, क्या चल रहे हैं, हिज़ड़े की तरह..? वाह, भाई वाह। क्या चाल है, इनकी..?” जैसे ही ये जनाब निग़ाहें ऊपर उठाते, तभी कोई बोल देता के “भाईयों इससे दूर रहना, यह तो पागल कुत्ता है...अभी आकर काट खायेगा, हाय अल्लाह कहीं आपको पेट में इंजेक्शन खाने की नोबत न आ जायें ?” पास बैठने वाला तमाशबीन काहे चुप बैठता, वह झट अपनी चोंच खोल देता..कहता के “अरे भाईजान यह पागल कुत्ता नहीं है, यह तो है..खूबसूरत नाज़र। बुला देना इसे, अपनी बेटे की शादी में..नाच-नाच कर, आपका दिल खुश कर देगा..!” बेचारे सुल्तानिया को तब ज़्यादा दुःख होता, जब कोई उसका ख़ुद का शागिर्द या चमचा ताना मार देता...तब जनाब को ऐसा लगता, जैसे किसी ने उसकी कलेजी पर छुरी चला दी हो ? फिर, क्या..? बेचारे मियाँ लाचारगी से, नीची निग़ाहें झुकाये वहां से गुज़र जाते।

इस तरह मोहल्ले वाले रोज़ इसको चिढ़ाते रहते, बेचारे की स्थिति बड़ी नाज़ुक हो गयी। अब बेचारा, किस व्यक्ति से बात करे...? यहाँ तो हर कोई उसकी मज़ाक उड़ाता जा रहा था, बच्चे, बूढ़े, जवान कोई इसको पसंद करता नहीं। अब उसकी स्थिति एक समाज से निष्कासित इंसान की तरह बन गयी, इस मोहल्ले में रहते हुए उसको अपना कोई हमदर्द दिखायी नहीं दे रहा था। आख़िर बधिया होने के चार रोज़ बाद, उसने हिंज़ड़ों की हवेली की तरफ़ अपने क़दम बढ़ा दिए। आख़िर यह सच्च है, कोई इंसान बिना समाज के ज़िंदा नहीं रह सकता। दूसरे दिन ही मोहल्ले में यह ख़बर फ़ैल गयी, के “सुल्तान मियां नाम का नामी गुंडा, अब असल ज़िंदगी में हिज़डा बन गया है। और उसका गुरु बना है, रशीदा जान। इस तरह अब सुल्तानिया, “सरदारी बाई” के नाम से, पहचाना जाने लगा है।”

गाड़ी पटरियों पर तेज़ रफ़्तार से दौड़ती दिखायी दी, जिसके शयनयान केबीन में बैठा रशीदा जान किस्सा ख़त्म करके अब लम्बी-लम्बी साँसे लेने लगा। थोड़ा विश्राम करने के बाद, रशीदा जान बोला के समधीसा, यह बात आप अच्छी तरह से समझ लो...के, अब संवेदना और तख़ालुफ़ करने की करने की हिम्मत अब उन इंसानों में रही है, जिनको ख़ुदा ने आधा-अधूरा बनाकर ही इस ख़िलक़त में भेजा है। जो बेचारे अपना पेट भरने के लिए, नाच-गाना करते हुए आप लोगों का मनोरंजन करते आयें हैं। सत्य बात यह है, के वास्तव में ये समाज के सम्मानित आदमी इन गुंडो और बदमाशों से डरते जा रहे हैं, अनजाने में इन असामाजिक-तत्वों को बढ़ावा भी देते आ रहे हैं। जिसका परिणाम, बहुत बुरा होता है..इनके बढ़ावा देने से भुगतना पड़ता है, इनकी बहू-बेटियों को। अब बोलिये समधीसा, हिज़डा कौन..यह, या वह ?”

इतना कहकर, रशीदा जान ताली बजाता हुआ वहां से चला गया। थोड़ी देर बाद, दूसरे कबीन में उसकी तालियाँ बजाने की आवाज़ सुनाई देने लगी। इस केबीन में, सन्नाटां छा गया। और इधर, रशीद भाई, ठोकसिंगजी और सावंतजी इस सवाल का जवाब सोचने के लिए मज़बूर हो गए.. के, हिज़डा कौन..यह, या वह ?”

--

कठिन शब्द -: [] तख़ालुफ़ = विरोध जताना [] शीरी ज़बान = मघुर आवाज़ [] रुख़सार = गाल [] तिफ़्लेअश्क = आंसुओं की झड़ी लगना

लेखक की बात रशीद भाई को, यह रशीदा जान समधीसाकहकर क्यों बतलाता है ? इसका उत्तर मिलेगा आपको हास्य-नाटक गाड़ी के मुसाफ़िरके खंडमरद सूं औरतमें। इसलिए, आप ज़रूर पढ़ें हास्य-नाटक गाड़ी के मुसाफ़िर

COMMENTS

BLOGGER
नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: संस्मरण लेखन पुरस्कार आयोजन - प्रविष्टि क्र. 67 : संस्मरणात्मक कहानी - “हिज़डा कौन..यह, या वह ?” दिनेश चन्द्र पुरोहित
संस्मरण लेखन पुरस्कार आयोजन - प्रविष्टि क्र. 67 : संस्मरणात्मक कहानी - “हिज़डा कौन..यह, या वह ?” दिनेश चन्द्र पुरोहित
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh7Ujw8Sic2MO75qDOHPxbmCf58CRLZwit7rxnfT7TKWqJB8QCaLWWBB6sIRlnmF6EHylq_QGdoiUfZ4kxQD1l2IJtfD8RwSJ-lCdhIAxcdHR4P9cFVX8NcxUO-VsI5PfIWsOEw/?imgmax=800
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh7Ujw8Sic2MO75qDOHPxbmCf58CRLZwit7rxnfT7TKWqJB8QCaLWWBB6sIRlnmF6EHylq_QGdoiUfZ4kxQD1l2IJtfD8RwSJ-lCdhIAxcdHR4P9cFVX8NcxUO-VsI5PfIWsOEw/s72-c/?imgmax=800
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2018/03/67.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2018/03/67.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content