संस्मरण लेखन पुरस्कार आयोजन - प्रविष्टि क्र. : 63 - कुश्ती और कबड्डी वाला बचपन // अर्चना चतुर्वेदी

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प्रविष्टि क्र. : 63 कुश्ती और कबड्डी वाला बचपन अर्चना चतुर्वेदी बचपन की बात करते ही उम्र के उस पायदान पर पहुँच जाती हूँ जहाँ लड़के और लड़की क...

प्रविष्टि क्र. : 63

कुश्ती और कबड्डी वाला बचपन

अर्चना चतुर्वेदी

बचपन की बात करते ही उम्र के उस पायदान पर पहुँच जाती हूँ जहाँ लड़के और लड़की के बीच भेदभाव की शुरुआत नहीं हुई थी. कोरा कागज फिल्म देखकर माँ ने बड़े चाव से नाम रखा अर्चना जो मेरी पर्सनालिटी पर कतई फिट नहीं होता था.

तीन भाई और तीन बुआ के बेटों संग वो खेल खेले जाते जिन्हें लडकों के खेल कहते थे. छुट्टियों में बाबू यानी हमारे बाबा और पापाजी हमें बगीची ले जाते जहाँ अखाड़े में उतर कर हम कुश्ती खेलते और पूरे सिर में मिट्टी भर लेते तंग आकर माँ ने लम्बे लम्बे बाल कटवा दिए और हमें छोड़ दिया स्वच्छन्द मस्ती के लिए. उस समय हमें पता ही नहीं था कि हम भाइयों से कुछ अलग हैं कबड्डी ,क्रिकेट, गिल्ली डंडा जो भी खेल भाई खेलते वही हम खेलते. बड़े भाई के छोटे हुए कपडे और कटे हुए बालों में सब हमें लड़का ही समझते. रही सही कसर हमारी भाषा पूरी कर देती थी जो भाइयों की तरह ही बोली जाती. कोई हमें लड़की कहता तो हमें अपनी तौहीन सी महसूस होती क्योंकि हम तो खुद को लड़का ही समझते थे. एक बार किसी त्यौहार पर माँ ने बड़े ही प्यार से चूडियाँ पहनाई ...कूदते फांदते जैसे ही मैं घर पहुंची छोटे भाइयों ने छेड़ा ‘तू तो छोरी है, मैं चिल्लाई “नहीं मैं छोरा हूँ” ...... “चूड़ी तो छोरियां पहनती हैं” बड़ा भाई बोला. बस फिर क्या था तुरंत चूडियाँ उतारी और नाली के हवाले कर दी गयीं. बाद में जमकर धुनाई हुई पर कोई हमें छोरी कहे ये कतई गवारा नहीं था. माँ मेरी हरकतों से परेशान रहती थी पर पापाजी बड़े खुश रहते और सपोर्ट करते. लड़कियों संग खेलना या लड़कियों की तरह व्यवहार करना मुझे कभी नहीं भाया. ना तो कभी लड़कियों वाले खेल खेले ना ही उनकी तरह साज श्रृंगार में रूचि हुई.

छुट्टी वाले दिन सुबह जल्दी उठकर पापाजी के साथ पल्लीपार यानी यमुना के उस पार खुले मैदान में खेलने चले जाते जिस उम्र में हमारी उम्र की लड़कियां घर घर खेलती और गुड्डा गुडिया की शादी रचाती हम चौके छक्के लगाते या हुतू तू तू करते क्योंकि क्रिकेट और कबड्डी हमारा पसंदीदा खेल था. खेल कूद और पढ़ने में नाम करने का सपना मेरी आँखों में पता नहीं कब पलने लगा स्कूल में भी बास्केट बाल कबड्डी जैसे खेलों में भाग लेने लगी लेकिन जैसे ही कुछ बड़ी हुई हर बात पर रोक टोक लगनी शुरू हो गयी कैसे उठाना बैठना है, कैसे चलना है, कैसे कपडे पहनने है हर अदब सिखाया जाने लगा. जो हमें सबसे बुरा लगता पर क्या करते लड़का तो हम सिर्फ सोच से ही थे.

जैसे जैसे बड़ी हुई अंकुश लगने शुरू हुए तब पता लगा कि हम असल में हम लड़की हैं लड़का नहीं

माँ और दादी हमें पूरी तरह लड़की बनाने पर तुली थी और हमारे अन्दर का लड़का हमें ऐसा करने से हमेशा रोकता रहा कपड़ों से भले ही लड़की बनी पर सोच और बोलचाल सुधरने में बहुत वक्त लगा शायद अभी भी असर बाकी है. खेलकूद में आगे निकलने के सपने को तो बुरी तरह कुचल ही दिया गया. पढ़ लिख कर कुछ बनने का सपना अब भी आँखों में पल रहा था ये वो दौर था जब हमारे समाज लोगों को पढ़ाई की अहमियत खास पता नहीं थी. और लड़कियों को सिर्फ जरुरत भर का पढाया जाता था लड़की पैदा होते ही एक ही टारगेट होता कि लड़की के हाथ पीले करो और जिम्मेदारी से मुक्त हो जाओ ऐसे में हमारा अफसर बनने का सपना सबके लिए अजूबा ही था.

वैसे भी बेचारी लड़कियों की बड़ी मुसीबत थी चूँकि उस ज़माने में छोटी छोटी लड़कियों के विवाह हो जाते थे और गौने के लिए उनकी उम्र और पढाई दोनों के बढ़ने का इंतजार होता था। सो बेचारी पढाई के साथ साथ हर त्यौहार पर सासरे जाने का कार्यक्रम भी निपटाती थी। पढाई में वैसे भी किसी की खास रूचि होती नहीं थी क्योंकि ना तो उन्हें किसी ने पढाई की अहमियत समझाई थी ना ही कोई पढ़ने से खुश था। घर के काम काज आना ज्यादा जरुरी था सो पढाई तो किसी बोझ से कम ना थी। उस पर बेचारियों को डर और होता था, कही फेल ना हो जावें, नहीं तो सासरे वाले क्या कहेंगे ? सो पास होने के लिए तरह तरह के हथकंडे अपनाये जाते।

ये लड़किया नक़ल के नए नए तरीके खोजती और तो और घरवाले भी नक़ल में मदद करते किसी का भाई किसी का देवर अपने दोस्तों को लेकर नक़ल करवाने आता। पूरा पेपर सोल्व करके दिया जाता। कोई लड़की सलवार पर उत्तर लिख कर लाती और मौका देखकर कुर्ता हटाकर नक़ल कर लेती,कोई लड़की अपनी कलाई पर लिख लाती और बहुत सारी चूडियाँ पहन लेती। कुछ कागज के फर्रे बना लाती और पकड़े जाने का का डर होता तो चबा जाती। और इन सब से भी बात नहीं बनती दिखाई देती तो मास्साब या मास्टरनी जी के नाम पत्र लिखा जाता जो इस प्रकार होता “ मास्साब/मास्टरनी जी जे रामजी की, जे पढाई मेरी समझ से बाहर है। में आपके हाथ जोडूं, पैर पकडूं मुझे पास कर दो। में फेल हो गई तो मेरे सासरे वाले मेरा मजाक बनाएँगे और हो सके मेरा गौना भी ना करे। मुझे पास कर दो -------- आपकी शिष्या

हम कुछ भीड़ से अलग थे, यानि पढ़ने में मन लगता था और कक्षा में प्रथम आती थी सो हमें तो ऐसे देखा जाता मानो हम इंसान नहीं सर्कस के कोई नए जानवर हों। लड़कियां मुझसे पूछती “क्यों री तू सचमुच पढ़े ? तेरी समझ में जे पढाई आ जाये ? फिर कहती, “अरी पगली क्यों अपनी आंखन ए फोर रही है, पढ-लिख कर भी तो घर का काम काज ही करनो है। हम कहते ‘देखना हम नौकरी करेंगे’ तब तो सब ऐसे हंसती मानो हमने अमेरिका का राष्ट्रपति बनने का सपना देख लिया हो।

यदि में उन्हें पढाई की अहमियत समझाने का प्रयास करती तो तुरंत कहती, “तू कौन सी पढ़ लिख कर मास्टरनी बन जायेगी, पढ़ लिख कर भी तो ब्याह ही करनो है,चूल्हों भूजनो है,बच्चा पालने हैं, हमारे बस की नहीं है कि किताबन में अपनी आँखे फोडें।”

हम पर किसी की बातों का कोई असर नहीं था। हम तो पढ़ लिख कर अपने पैरों पर खड़े होना चाहते थे। सो हम हाईस्कूल में प्रथम आये, एक तो हम अपने खानदान की पहली लड़की जो हाईस्कूल तक पहुंची और दूसरे प्रथम सो हम तो “अन्धो में काने राजा” हो गये थे। हमें बड़ी इज्जत मिलती सब रिश्तेदार कहते कि हम भी अब अपनी छोरी को तुम्हारी तरह पढायेंगे। खैर हम इंटर में भी प्रथम दर्जे से पास हुए और हमारी इज्जत दुगुनी हो चुकी थी। हमारे पिताजी ने पूरे महल्ले में मिठाई बंटबाई ,जहाँ जाते हमारा स्वागत होता हमारे स्कूल वालों ने भी स्वागत समारोह रखा जिसमे जिले के कलट्टर ने प्रथम आने वाले बच्चों का सम्मान किया। अब तो हमारे पैर जमीन पर नहीं टिक रहे थे। हम भी कलट्टर बनने का सपना देखने लगे और पापाजी ने भी हाँ कर दी। हमने बीए में दाखिला ले लिया और कोलेज जाने लगे। अभी पढाई शुरू ही हुई कि हमारे ऊपर वज्रपात हुआ यानी हमारी सगाई हो गई और फिर चट पट शादी कर दी गई। वो दिन और आज का दिन है, हम दिन भर चूल्हे चौके और बच्चों में व्यस्त हैं।

रोज रात को सपने में कभी कलट्टर बनते हैं, तो कभी खेल में स्वर्ण पदक जीतते हैं और सुबह उठते ही

फिर वही चूल्हा चौका हमारा इन्तजार कर रहा होता है.

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