प्रविष्टि क्र. 62 संस्मरण सुभाष चंदर अर्चना चतुर्वेदी बचपन में सुनते थे गुदडी में लाल या छुपा रुस्तम इन वाक्यों के असली अर्थ सुभाष जी से म...
प्रविष्टि क्र. 62
संस्मरण सुभाष चंदर
अर्चना चतुर्वेदी
बचपन में सुनते थे गुदडी में लाल या छुपा रुस्तम इन वाक्यों के असली अर्थ सुभाष जी से मिलकर ही पता लगा। मैं किसी व्यंग्य संग्रह की तलाश करते करते सर तक पहुंची. मेरा सुभाष जी से पहला परिचय लालित्य ललित जी ने करवाया था जो मेरे फेसबुक मित्र थे. एकदम साधारण बल्कि अजीब लापरवाह से दिखने वाले उस इन्सान को देखकर लगता ही नहीं कि वो लेखक और आलोचक भी हो सकते हैं। वैसे इनका पहनावा और बोलचाल किसी को भी दिग्भ्रमित करने के लिए काफी है क्योंकि हमारे दिमाग में कहीं न कहीं ये फिट होता है कि बड़ा लेखक मतलब अच्छा पहनावा और स्वभाव में थोडा रौब पर सुभाष जी एकदम साधारण से इन्सान हैं, कोई नखरे कोई घमंड इनको छू कर भी नहीं निकल सकता और रही टिप टॉप रहने की बात तो वो तो छोड़ ही दी जाए ऐसे इंसान जो दोस्तों में ऐसे रम जाएँ कि घर जाने का होश ही ना रहे और अगले दिन दोस्त की शर्ट या कुरता पहन कर कार्यक्रम में शामिल हो जाएँ। बिना किसी तैयारी के दूसरे शहर चल दें, बाजार से एक जोड़ी कपडे खरीदें और कार्यक्रम में पहुँच जाए। वैसे मित्रता निभाने के मामले में भी इनका जबाब नहीं मित्र कितनी भी गड़बड़ी करे ये महाशय उसका साथ नहीं छोड़ सकते भले ही गालियाँ खा लें पर मित्रता निभाना जरुरी है।
जब व्यंग्य की अनेकों किताबें उनके लेखक और प्रकाशक के नाम सहित धाराप्रवाह बताना शुरू करते हैं तो किसी को भी चक्कर आ जाएँ। व्यंग्य की जानकारी के मामले में चलते फिरते कंप्यूटर लगते हैं। यहाँ तक कि व्यंग्य से मेरा परिचय सर ने ही कराया, मेरे जैसे और भी बहुत से व्यंग्यकार होंगे जिन्हें सुभाष जी से मार्गदर्शन प्राप्त हुआ होगा। मुझे व्यंग्य पढ़ने और लिखने के लिए प्रेरित किया। ज्ञान चतुर्वेदी जी के बाद यदि किसी के व्यंग्य दिलोदिमाग को छूते हैं तो वो सुभाष सर के ही व्यंग्य हैं।
व्यंग्य के क्षेत्र में बहुत लोग हैं जो व्यंग्य लिखते हैं पर मेरा अपना नजरिया ये है की सुभाष जी व्यंग्य को जीते हैं,व्यंग्य उनके अन्दर बसा हुआ है यदि ऐसा नहीं होता तो “हिंदी व्यंग्य का इतिहास” नहीं रचा जाता। व्यंग्य का चलता फिरता शब्दकोश हैं सर। उनकी सबसे बड़ी खासियत है उनका मिलनसार और मस्तमौला और चुम्बकीय व्यक्तित्व। इस महान आत्मा में वैसे तो अनेक खूबियाँ हैं पर इनकी खूबियों को देखकर कभी कभी तो लगता है सुभाष जी के अन्दर कई और सुभाष जी हैं। एक वो गंभीर और ज्ञानी सुभाष चंदर जो मंच पर बोलना शुरू करता है तो अच्छे अच्छों की बोलती बंद कर देता है। एक हैं कल्लू मामा जो अपनी शरारती पोस्टों और व्यंग्यों से बच्चे, जवान, बूढ़े सबके दिलों पर राज करते हैं। एक तरफ जहाँ हास्य कहानियों और शरारती व्यंग्यों से जाने जाते हैं,
वहीँ यदि गंभीर व्यंग्य की बात आये तो भी सुभाष जी से कोई टक्कर नहीं ले सकता ‘कबूतर की घर वापिसी’ और ‘थाने में बयान’ जैसी रचनाएँ आपको इनका मुरीद बना सकती हैं। इनकी पानी की तरह बहती हुई भाषा और एकदम चमत्कृत करता हुआ शिल्प शायद ही किसी और के पास हो।
इन सब खूबियों के बावजूद एक वो सुभाष जी भी हैं जो कभी किसी से कोई प्रतिस्पर्धा नहीं रखते युवाओं को खुले दिल से सबको व्यंग्य के बारे में समझाते हैं ..व्यंग्य पर अपनी बेबाक राय देते हैं। और भी कुछ अलग खूबियाँ हैं जो इनके करीबी समझते हैं जैसे लापरवाही और आलस का भण्डार है आलसी तो इत्ते हैं की ये लिखने से इतने दूर भागते हैं कि एक समीक्षा लिखवाने में आपकी चप्पल घिस जाएँ और लापरवाह इतने की लिखा हुआ रखकर भूल जाते हैं। मूडी इतने कि लिखने पर आये तो नौ दिन में अक्कड़ बक्कड़ जैसा उपन्यास लिख डालता है. वो लापरवाही छोड़ दें तो क्या नहीं कर सकते ? कलाकार इतने हैं कि जब लिखते हैं तब इतना धमाकेदार लिखते हैं कि अपनी भाषा और शिल्प से विरोधियों तक मुहं से कहलवा देते हैं “कमबख्त लिखता अच्छा है”। इनके व्यक्तित्व की एक और खासियत रही है जो शायद अब कंट्रोल में है, वो है सर का दुर्वासा रूप .. गुस्सा इन महाशय की नाक पर होता था गलत बात इन्हें बर्दाश्त नहीं होती कुछ भी गलत हो तो इतने बिफर जाते कि गालियों की बौछार शुरू कर दे और रुकने का नाम ना लें ...जिन्होंने उस रूप का सामना किया होगा वो जिन्दगी भर ना तो भुला पाए ना माफ़ कर पाए बल्कि समय समय पर उनकी उसी कमजोरी को भुना आगे बढ़ने का कोई मौका नहीं चूकते।
सुभाष जी की सबसे बड़ी खासियत है उनका सरल व्यक्तित्व जिसकी वजह से बहुत से मित्र हैं और उससे भी बड़ी बात है उनका बड़ा सा दिल कोई कितना भी उनके साथ खेल खेले उन्हें नीचा दिखने की कोशिश करे, वो उसे भी अपना दुश्मन नहीं मानते। और एक बात सर अच्छे लेखन के मुरीद हैं जहाँ ज्यादातर वरिष्ठ अपनी ईगो लिए रहते हैं खुद के अलावा किसी की तारीफ़ में दो शब्द नहीं कहते वहां सर लेखक को फोन करके बाकायदा उसकी रचना की तारीफ करते हैं और हौसला बढ़ाते हैं।
ज्यादातर लेखक या थोड़े से प्रसिद्ध होते व्यक्ति अपने पहनावे और भावभंगिमाओं पर विशेष रूप से ध्यान देते हैं वहां ये महाशय किसी फक्कड़ साधू टाइप घूमते हैं,एक स्वेटर में पूरी सर्दी निकाल देते हैं बाल ना रंगने पड़ें उसके लिए टोपी पहन लेते हैं।
खाली खड़े हुए या मंच पर बैठ कर ऐसे ऐसे मुहं बनाते हैं कि मिस्टर बीन को भी पीछे छोड़ दें। मैं दावे के साथ कह सकती हूँ कि बड़े से बड़ा कैमरा मेन भी इनकी एक ढंग की फोटो नहीं खींच सकता। मेरा बेटा बहुत ही बढ़िया फोटोग्राफर है उसने कम से कम पचास फोटो खींचे और हारकर बोला खाली बैठे बैठे भी अजीबोगरीब टेड़े मेढे मुहं बनाना अंकल से सीखे कोई।
एक बात और समझ नहीं आती इतनी अजीबोगरीब बेतरतीब से व्यक्ति में ऐसा क्या खास है ? कि ये हरदम महिलाओं से घिरे नजर आते हैं ये सवाल वैसे मेरा नहीं इनके हमउम्र और स्मार्ट दिखने वाले लोगों के मन में उठता होगा..पर जवाब किसी के पास नहीं ...तलाश जारी है ..अरे भाई उसी जवाब की ..
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