प्रविष्टि क्र 50 तुम्हारी माँ - डॉ रानू मुखर्जी आजकल मुझे उनकी कमी बहुत महसूस होती है। काश कुछ दिन और जीती तो शायद वो देखती, नारी को जिस मुक...
प्रविष्टि क्र 50
तुम्हारी माँ
- डॉ रानू मुखर्जी
आजकल मुझे उनकी कमी बहुत महसूस होती है। काश कुछ दिन और जीती तो शायद वो देखती, नारी को जिस मुकाम पर वो देखना चाहती थी। उसी राह पर आज वो बढ़ने लगी है।
जब भी बाग में पीले, गुलाबी, सफेद, गुलदाउदी दिखते उन फूलों के आसपास मुझे तुम्हारी मां नजर आती। आंखों से फूलों को सहलाती-दुलारती हुई। अधखिले बेला की कलियाँ से महकते बगीचे में घूमती हुई। आज भी वो मेरे आसपास है।
तुम्हारी माँ ने ही मुझ जैसी दब्बू को खडे होना सिखाया, नहीं तो मैं बस डरी-डरी-सी अपने चारों ओर से त्रस्त वक्त के मजबूत झोंके से इधर-उधर लुढ़कती रहती।
एक कमजोर लता-सी मैं तुम्हारी वधू बनकर आई थी। मेरे सामने सब अपने हुनर को लेकर व्यस्त थे। बस एक तुम्हारी मां थी, जिसने मेरे दब्बूपन को, डरपोकपन को पहचाना था। सब कुछ देखती हुई भी कुछ कह और कर पाने में असमर्थ लगी थी मैं उनको, तब पीठ पर हाथ रखकर तुम्हारी मां ने कहा था, ‘डरो नहीं, ये तुम्हारा ही घर है। अच्छा-बुरा कुछ भी हो, मुझसे कह सकती हो। हम सब तुम्हारे अपने हैं।’
जीवन में पहली बार सुना कि मैं कुछ कह सकती हूं पर मेरे लिए यह इतना आसान नहीं था। एक कठिन तपस्या थी। बातों की जकड़न, काम करने में हड़बडाहट और भी बहुत कुछ, जो दूसरों को नहीं दिखता था पर उन्हें दिखा, जिसे देख तुम्हारी मां समझ गई कि इसको मजबूत बनाने के लिए उनको भी मशक्कत करनी पड़ेगी।
तुम्हारे घर में एक बहुत बडा सुनहरे चंपा का पेड़ था। उस पर तुम्हारी मां ने मधुमालती के बेल को चढा दिया था। तुम्हें याद है कि नहीं, पता नहीं, पूरा साल हमारा कमरा महकता रहता था । जब चंपा खिलते तो उसकी महक से और जब मधुमालती खिलते तो उसकी महक से सुगंध की बाढ़ आ जाती थी। मह-मह करता हमारा कमरा। उस मधुमालती को दिखाकर एक दिन तुम्हारी मां ने कहा था, ‘देखो दोनों महकते हैं पर एक मजबूत है तो दूसरे को खडे होने के लिए आधार चाहिए। दोनों एक-दूसरे के पूरक बन गए ! अब यह लता और महकेगी।’
आज मैं सोचती हूं लता को आधार तो मिला पर उसको और मजबूत बनने कि लिए अगर उसकी जडों को और गहराई दी जाए तो फिर उसे आधार की आवश्यकता ही न पडे। आज मुझे लगता है तुम्हारी मां ने यही किया था मेरे साथ। मेरे खडे होने के लिए मेरी जडों को गहराई देने और मजबूत बनाने में जुट गई थी।
मेरे अंदर दो तरह का संस्कार रोपा हुआ है। मेरी मां ने मेरे अंदर विरोध के स्वर को उभरने ही नहीं दिया था, जबकि तुम्हारी मां ने असहयोग लगने पर अविरोध का पाठ पढाया। वैसे विरोध की परिभाषा का कोई भी अस्तित्व मेरे कोश में नहीं है। ‘जो तुम कहो वही सही’ यही मैंने सिखा था। पर तुम्हारी मां ने मुझ गूंगी को बोलना सिखाया। न-न तर्क-वितर्क नहीं, स्पष्टवाद। वाक स्वतंत्रता। विचाराभिव्यक्ति की स्वतंत्रता।
आज जब मैं देखती हूं, लोग घर में अशांति का मूल कारण बाहर से लाई लड़की के बहुत बोलने को मानते हैं तो मेरा रोम-रोम खिल उठता है कि कैसी किस्मत लेकर आई थी मैं कि तुम्हारी मां ने मुझे बोलना सिखाया। सही समय पर सही बात। शायद उन्होंने मुझे बाहर से लाई हुई लड़की नहीं समझा।
इसे मैं शक्ति ही कहूंगी, क्योंकि जो आज भी मुझे शक्ति देती है, वो है उनका अदम्य साहस। याद आती है उस रात की, जब पडोस की लड़की का विवाह था। उनके सारे मेहमान अपने साजो-सामान के साथ आए हुए थे। गहने घर में होने कि खबर चोरों को लग गई थी, अवसर पाकर उन्होंने भी अपना हाथ आजमाया। चोर-चोर का शोर उठने लगा पर पडोस से कोई नहीं निकला। उनके हथियारों के डर से। बेचारे घरवाले चोर-चोर चिल्लाते ही रहे।
सर्दी की उस रात में अपने कंबल को झाड़कर तुम्हारी मां ही थी, जिसने बॉलकोनी में जाकर चिल्लाकर उनको ढाढस बंधाया और उन्हीं के हल्ला मचाने से डर के मारे चोर भाग गए। दूसरे दिन लोग घर आकर….नहीं मदद किया इसलिए नहीं अपितु भविष्य में ऐसा कभी न करने को समझाया, क्योंकि दूसरे दिन बदला लेने वो फिर इस घर में आ सकते थे। तुम्हारी मां अडिग रही ‘ आने दो पर मैं ऐसा कभी नहीं कर पाऊंगी, क्योंकि अन्याय को सहना मेरे स्वभाव में नहीं है।’
स्वदेशी आंदोलन में तुम्हारे नानाजी का बहुत बडा योगदान रहा। खुद्दारी जो उनके खून में थी, उन्हीं से आई थी।
अक्सर फुर्सत के समय में तुम्हारी मां अपने बचपन की बातें करती थी। अपने छोटे-छोटे दो भाई और एक बहन को मां बनकर पाला था। उनकी मां अक्सर बीमार रहती। मां की बीमारी उनको निपुण गृहिणी बना दिया था। भोजन बनाने में उनकी निपुणता का सबसे श्रेष्ठ उदाहरण यह था कि घर में जितने भी लोग आते, सभी समय पर उनके हाथ का बनाया भोजन करके तृप्त होकर जाते। साधारण-से-साधारण खाने में भी अपना इतना प्यार उडेलती कि खाने वाले उंगलियां चाटते रहे होते। तभी तो अंतिम दिनों में बाबा केवल मां के हाथ का खाना ही पसंद करते थे। बच्चे उनके बनाए खाने के दीवाने। कभी-कभी मुझे भी गुस्सा आता था। बच्चों के दोस्त जब केवल दादी के ही हाथ का बनाया खाना खाने आते। पाक कला तो उनकी रग-रग में घुली हुई थी।
तुम्हारे नाना मेरठ कॉलेज के प्रिंसिपल थे। उनके क्वार्टर के आगे पीछे का आहता इतना बडा था की उसमें फल-फूल और सब्जियों की भरपूर खेती होती। बगीचे से ताजी सब्जियों को तोड़कर पकाया जाता। सर्दियों के दिनों में लहलहाती ताजी पालक की सब्जियां सुबह-सवेरे ही तोड़कर पकाई जाती। उन पर बर्फ की हल्की चादर फैली होती। जिनको तोड़ते हुए मालियों के हाथ सुन्न हो जाते पर उनके मां का आदेश सुबह का तोडा हुआ ही पकेगा।
माली जब कांपते हाथों से भाजी की टोकरी रखने आते तो तुम्हारी मां का मन कचोट उठता, फिर सर्दियों में शाम को ही तुम्हारी मां के आदेश से तोड़कर रखना शुरु किया। हर छोटे-बडे के लिए उनके मन में ममता भरी होती। कर्मठ होने के कारण कर्मशील लोग उन्हें बहुत पसंद थे, इसलिए घर के नौकरों की मदद में लगी रहतीं। घर में नौकर-चाकर भरे होने पर भी अपना काम स्वयं करना उनका सिद्धांत रहा। नौकरों पर कभी निर्भर नहीं किया। तुम्हारी मां से ही मैंने सीखा, सतत बहते रहना ही जीवंतता है। बैठा जीवन सुखी जीवन नहीं होता है।
तुम्हारी मां ने मुझे मकान को घर में तबदील करना सिखाया है। फुरफुराता उड़ता-फिरता जीवन कुछ दिनों में ही एकरसता के कारण अपनी मनोहरता खो बैठता है और तभी देनी होती है परीक्षा। धैर्य की परीक्षा, कर्मशीलता की परीक्षा, एडजस्टमेंट की परीक्षा, सहयोगिता की परीक्षा, एक-दूसरे को जानने-पहचानने के तकनीक की परीक्षा। ऐसी अनेक परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है। ठोस धरती पर थरथराते कदमों का कांप जाना, सही जगह पर न पड़ना, कोई अजीब बात नहीं पर थरथराते कदमों का कांप जाना, सही जगह पर न पड़ना, कोई अजीब बात नहीं पर सही-गलत सिखाने वाला भी होना चाहिए। तुम्हारी मां ने मेरे ईंट पत्थर से बने मकान को घर बनाने में मेरी भरसक मदद की। कभी भी ‘मेरे बेटे का घर’ नहीं कहा और न ‘मेरा घर है’ कहा। सजाया-संवारा, मजबूत बनाया तो रानू के घर को।
मां के घर से सीखा सारा का सारा पाठ में तो तुम्हारी मां को देखते ही भूल गई थी। याद रहा तो बस इतना ही कि आज से मायके पर मेरा कोई अधिकार नहीं है पर यह तुम्हारी मां की ही विशेषता रही कि उन्होंने मुझे सम्राज्ञी बना दिया। एक विशाल दायित्व की सम्राज्ञी, फिर तो तुम्हारी मां ने मेरी हर गलती को इतनी बारीकी से अपना लिया कि मुझे मेरी हर गलती उन तक जा ऐसे विलीन हो जाती, जैसे समुद्र में नदी-नालों का पानी।
धीरे-धीरे तुम्हारी मां का मेरे प्रति स्नेह मेरे लिए एक सुरक्षात्मक बंधन बन गया और मैं उसमें ऐसे बंधी की मेरा मन उनसे दूर कहीं न टिकता। एक अव्यक्त समझौता हमारे बीच हरदम पसरा रहता। शुरु के दिनों में तुम्हारे ऑफिस से लौटने में देर होने पर मेरी हर उद्विग्न दृष्टि को पहचान कर कहती, “वो तुम्हारा ही है, तुम्हारे पास ही आएगा इतनी उद्विग्न क्यों होती हो। चलो मैं तुम्हें लाईब्रेरी से एक अच्छी पुस्तक निकालकर देती हूं। पढ़कर बताओ तो कैसा है।“ हमारे घर में हर भाषा से समृद्ध लाईब्रेरी है। उनको पढ़ने का बहुत शौक था। समय निकालकर पढ़ती रहती थी। तुम्हारी मां ने अपनी यह पसंद मुझे विरासत में दे दी।
सृष्टि की प्रत्येक वस्तु के प्रति उनके मन में सम्मान देखा। धिक्कार या अवज्ञा की भावना न उनके स्वर में और न उनकी दृष्टि में कभी देखा। छीः शब्द से या घृणात्मक भाव से व्यवहार करते हुए मैंने उन्हें कभी नहीं देखा। मुझे याद है उस बार जमकर बारिश हो रही थी। बगीचे से लगा पोखर लबालब भर गया था। हमारा बगीचा बतखों और मेंढकों का अड्डा बन गया था। पेंक-पेंक और टर्र-टर्र से गुलजार रहने लगा था। तुम्हारी मां अक्सर दोपहर को बैठकर अपने बगीचे को बालकनी से निहारा करती।
उस दिन थोडी धूप खिल आई थी। बगीचा टर्र-टर्र से गुलजार था। अचानक मुझे तुम्हारी मां ने आवाज दी। दूर से ही इशारे से चुपचाप आने को कहा। मेरे जाते ही बगीचे की दीवार की और इशारा किया। मैं तो देखकर स्तब्ध रह गई। एक लंबा मोटा-सा सांप पूरी दीवार पर कब्जा जमाकर धूप सेंक रहा है। मेरे दोनों हाथ मुंह पर कस गए। शायद चीख निकल जाती। उनकी ओर देखा तो वही स्नेहभरी दृष्टि। निर्निमेष निहार रही थी फिर मेरी ओर सरककर कहा, ‘देखो कितना सुंदर है न ! उसकी पीठ पर की चित्रकारी देखी और रंगो का मिश्रण, पीला, भूरा, सफेद और लग ऐसा रहा है जैसे किसी ने अभी-अभी स्केच किया हो। एकदम चमचम। है न!’
मेरी तो सिट्टी-पिट्टी गुम। वर्णन तो ऐसे कर रही थी जैसे किसी सुंदर रंगीन तितली का कर रही है। जीवन में पहली बार सुना कि सांप देखने में सुंदर होते हैं। मेरा तो धिन और डर के मारे बुरा हाल था पर उनकी मोहमयी दृष्टि के सामने नत हो गई।
तुम्हारी मां लोगों के दुख को समझना, अर्थ-सामर्थ्य से मदद करना। थक- हारकर पीछे हटने वालों में ढाढस बढाने की भावना से मैं होते-होते ही अवगत हुई थी। आश्चर्य तो इस बात का था कि वो कभी इसे जाहिर करना नहीं चाहती थी। ये उनका अलग संसार था, जिसमें दूसरों का प्रवेश निषिद्ध था। एक स्पष्ट वक्ता की तरह कह देती थी, ‘इससे मुझे ही निपटने दो।’ इसमें जदूमाली, चारु बूढी, कुब्जा आदि आते। बहुत ठोक बजाकर मुझे परखने के बाद ही, जब ये लोग आते तो मुझे तुम्हारी मां के साथ बैठने को मिलता।
जदूमाली माली का काम करता ही था पर दूध बेचने का काम भी करता था। जब भी उसे पैसों की जरुरत पडी तुम्हारी मां ने उसकी भरसक मदद की। एक बार उनको कहते हुए सुना था, ‘ओरे जोदू। पैसों की जरुरत होने पर दूध में पानी मिलाकर उसकी मात्रा बढाकर बेचने के बजाय मुझसे पैसे ले जाया करो। और उस समय के लोगों के मन में सम्मान की भावना देखिए। जब-तब हाथ फैलाकर खडा नहीं हो जाता था जोदू। अभाव पड़ने पर ही वह मांगता।
चारु बूढी के बारे में तो मैंने अपने बच्चों के जनेऊ के वक्त ही जाना। उसे हम इसी नाम से जानते थे। बाबा तो लोगों की भीड़ में उसे कोने में बैठे देखकर ही नारज होने लगे। तुम्हारी मां ने ही उन्हें शांत किया। मुझसे कहा, उसे खाना खिला दो। मैंने खाना दिया तो चारु बूढी बोली मांलक्ष्खी इस बार बरसात में भीगे कपडों में रही। दूसरा कपडा नहीं है, जो बदलती। मैंने उसे कपडे दिए तो वहां बैठे दूसरे नौकर भी मांगने लगे। एक हो-हल्ले का माहौल बन गया। मैं डर गई। बाबा के नाराज होने का डर सताने लगा। उनकी जुबान पर तो एक ही बात होती, ‘तुम्हारी मां ने तो इन पुराने नौकरों को सर चढा रखा है।’ तुरन्त मां नीचे उतर आई और मामले को क्षणभर में सुलझा दिया। उनके स्वभाव में ऐसी दृढ़ता थी कि उनको देखते ही लोग संभल गए। बाद में उन्होंने मुझे बताया था। इसका एक बेटा है, जो पढ़-लिखकर अच्छी नौकरी पर है पर ये पगली वहां नहीं जाती।
कुब्जा की तो बात ही कुछ और थी। चार बच्चों को लेकर छोटी उमर में ही विधवा होकर मायके आ गई थी। कुब्जा की मां हमारे घर बर्तन-चौके का काम करती थी। शोक से उबरने पर वो भी इधर-उधर लग गई। चालीस कमरों के बडे से महल में काम का अभाव होता है क्या! काम का तो नहीं पर खाने का अभाव होने लगा। तुम्हारी मां ने उन सबको अपनी रसोई में बुला लिया। कुब्जा मदद भी करती और बाल-बच्चों का पेट भी भरती, फिर तो मां ने उसके बच्चों को वहां के स्कूल में दाखिल करवा दिया। आज सब नौकरी-चाकरी करके रच-बस गए हैं। शादी के बाद मैंने तुम्हारी मां से नहीं, कुब्जा से ही सारी बातें सुनी थी।
जैसा सुंदर मन था, वैसे ही सुंदर तरीके से वो काम भी करते थी। उनके स्पर्श से साधारण से साधारण काम भी विशिष्ट बन जाता। उनकी कलात्मक निपुणता बिन बताए ही दिख जाती। लक्ष्मीपूजा के दिन, दिनभर उपवास करके पूजा का आयोजन इतनी सहजता और सुंदरता से करती की भक्ति के साथ-साथ उनकी दक्ष व्यव्स्था का भी परिचय मिलता था। उनके हाथ की बनी खीर-पपूरी जिन लोगों ने खाई है, वो आज भी उनको याद करते हैं।
हमारे बंगाल में रिवाज है कि विजयादशमी के दिन वयस्क लोगों को उनके घर जाकर प्रणाम करके उनका आशीर्वाद लेना। उत्तरपाडा में तो तुम्हारी मां इस दिन को एक उत्सव की तरह मनाती रहती। उनके हाथ की बनी “घुघनी” खाने के लिए लोग देर रात तक आते रहते।
ऐसे तो बाबा के साथ भी बडौदा आती रही पर बाबा के न रहने पर उनको हम अपने पास ही ले आए और बच्चों ने तब घोषणा कर दी कि दादी अब उत्तरपाडा हमारे साथ ही जाओगी और हमारे साथ वापस भी आओगी। छोटा तो उनसे फेविकोल की तरह चिपक गया।
वो आज भी उनकी सिखाई उन छोटी-मोटी बातों को बडी मुस्तैदी के साथ याद करता रहता है और बताता भी है कि इसे उसकी दादी ने सिखाया हैं।
तुम्हारी मां के बडौदा आते ही हमारी बिरादरी जाने-पहचाने सभी लोग दशहरे के दिन उनको प्रणाम करने हमारे घर आने लगे। उन लोगों को केवल मुंह मीठा और घुघनी खिलाकर भेजना उनको कभी अच्छा नहीं लगा। सो, आने वालों के लिए रात को खाने की व्यवस्था हुई। जिसमें कुछ एक बनाने में तो उनका हाथ जरुर होता। जब तक तुम्हारी मां जीवित रही, कम-से-कम पचास साठ लोग विजयादशमी के दिन हमारे घर प्रणाम करने के बाद रात का खाना तो खाते ही और आज तक वही प्रथा मैं भी निभाती आ रही हूं। उनका मेरे साथ होना ही मुझे ताकत देता है, मुझे लगता है अंदर से एक ऊर्जा उनसे बहती हुई मुझ तक आज भी प्रवाहमान है।
आज भी जब भी में दुखी होती हूं द्वंद्व में होती हूं, भीड़ में अकेलेपन की शिकार होती हूं, तुम्हारी मां मुझे सहारा देने मेरे साथ होती हैं। मेरे कदम बढाते ही मेरे बढ़ते कदमों के साथ मैं उनके दृढ़ कदमों की चाप आज भी सुनती हूं, जो मुझे मुश्किलों से जूझने की ताकत देती है।
हृदय को बेधने वाले शब्दों को अनसुना करने की कला मैंने उनसे ही सीखा। ऐसे में उनके सांत्वनात्मक शब्द जलते पर ठंडे रुह के फाहे जैसे लगते। ऐसे में एक भीरु मेमना जैसे अपनी मां के संरक्षण की आस में रहता है, वैसे ही मुझे अपनी पनाह में ले लेती और लगता मुझ डूबती का हाथ थामकर दलदल से खींचकर निकाल लेने के लिए ही उन्होंने हाथ बढाया है।
हर इनसान अपने बचपन के दिन बडी शिद्दत से याद करता है। मेरठ में उनके मकान के बाद के दो-चार बंगले लो छोड़कर ही नेहरुजी का बंगला था। अक्सर कमला नेहरुजी उनके घर आती रहती थी उनकी मां से मिलने। उनके हाथ के बनाए नाश्ते की कमलाजी बहुत तारीफ करती।
मैंने भी इस बात का जिक्र किया है बहुत छोटी उम्र से ही उनके अंदर घर पधारे लोगों तथा अपनी मां की मदद करने की भावना घर कर गई थी।
परिवार के लोगों को आपस में बांधकर रखने की कला में तो वो इतनी माहिर थी कि क्या कहने! उनके बुलाने पर या उनके कहीं होने की खबर मिलने पर उनको जानने वाले उन तक पहुंच ही जाते। किसी की भी कोई बुराई को याद रखकर दूसरों तक पहुंचाते हुए मैंने उन्हें कभी नहीं सुना। जो जैसे उनके सामने होता, वैसे ही उनसे मिलती। कोई टीका-टिप्पणी नहीं। अपनेपन से लबालब व्यवहार, जिससे मिलने वाला कई दिनों तक अभिभूत रहता। छोटी-छोटी बातों से लोगों के मन में घर बना लेने की अद्भुत कला उनके पास थी।
बच्चे बीमार पड़ते ही मैं मुरझा जाती। तुम्हारी मां तुरंत सिरहाने बैठ जाती। जैसे कह रही हो, आओ तो देखें कौन सताता है। पुचकारती, सहलाती, सर पर पट्टी रखती, दवाई देती और मुझे लगता इनके रह्ते मेरे बच्चों को क्या हो सकता है! दस-भुजाधारिणी मां।
हम आज नारी शोषण, स्त्री विमर्श की बात करते हैं पर उनके लिए संसार धर्म में लिपटे हुए हम कितना और क्या कर पाते हैं पर तुम्हारी मां किसी पीड़ित की व्यथा केवल सुनकर नहीं रह जाती थी। उसे बुलाकर अपने पास बैठकर उसे समझाने – उबारने की कोशिश करती।
एम.ए. करने की इच्छा जाहिर करते ही तुम्हारी मां का भरपूर सहयोग मिला। स्त्री शिक्षा की हिमायती होने के कारण मेरा कॉलेज ज्वायन करना उन्हें बहुत अच्छा लगा, फिर तो पी-एच.डी. तक मैंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। इन दिनों बाबा भी चल बसे, फिर तो पांच पुस्तकें छप गई। उनके विराट व्यक्तित्व का परिचय एक बार फिर मिला। मेरी पी-एच.डी. के बारे में मेरी नानी बडी उत्सुक थी। अक्सर मुझसे पूछती, ‘ तू जो पुस्तक लिख रही है कब पूरा करेगी?’ थीसिस खत्म होते तक नानी का स्वर्गवास हो चुका था। पता नहीं क्यों, अंत तक उनकी जिज्ञासा बनी रही।
मैंने थीसिस बाबा (ससुरजी) को समर्पित करने की सोची थी पर तुम्हारी मां ने मुझे समझाया, ‘तुम्हारी नानी परिवार में सबसे बडी थी। बहुत पढी-लिखी न होते हुए भी तुम्हारे पठन-मनन से बहुत उत्साहित थी। मुझे लगता है तुम अपनी पहली पुस्तक उनको ही समर्पित करो। लिखना शुरु हुआ है तो और भी लिखे जाएंगे, फिर बाबा को समर्पित करना।’ और मैंने पुस्तक नानी को समर्पित की। आज लगता है कितना सही सुझाव था। उस थीसिस पर मुझे गुजरात साहित्य अकादमी का प्रथम पुरस्कार मिला है।
एक बडे शिक्षित परिवार से थी। उनके पिता उस समय के बहुत बडे इतिहासकार थे। उनकी लिखी पुस्तकें आज रेफेरेन्स के रुप में विश्वविद्यालय में लगाई गई है। घर हर समय संगीत कला और विद्या का निकेतन बना रहता था। ऐसे परिवार में से वो उस समय के बंगाल के विशिष्ट जमींदार, प्रातः स्मरणीय जयकेष्ट मुखर्जी के परिवार में बहु बनकर आई थी पर स्वभाव गरिमा देखिए, इन सबके लिए मस्तक ऊंचा तो रहता पर उसमें अकड़न लेश मात्र नहीं।
उनके पिता घनिष्ट मित्र ऐतिहासिक सुनिती कुमार चटर्जी मेरे विवाह में आए थी। मैंने आज तक उनके दिए उपहार को संभालकर रखा है। उनकी हस्ताक्षर की हुई पुस्तक मेरी अमूल्य निधि है। आज जब मैं सोचती हूं तो मेरे रोंगटे खडे हो जाते हैं कि मैंने क्या पाया! न जाने किस पुण्य का फल मिला है।
इन सबके लिए अहंकार उनको छू तक नही गया था पर मुझे अहंकार है। ऐसी ममतामयी मां का संस्पर्श पाने के लिए। उनके हृदय में आंखों में, अपने लिए स्नेह के सागर को लहराते देख मेरा मस्तक नत हो जाता है उनके चरणों में।
मुझे गर्व है कि मैं उनके द्वारा गढी गई हूं। एक कच्ची मिट्टी के लोंदे को गढ़कर उसमें प्राण फूँकने का काम तुम्हारी मां ने किया। मेरे इस लेख को लिखने तक मेरे गले में दर्द का एक गोला लगातार ऊपर धकेलता रहा है, जो मुझे और लिखने नहीं दे रहा है। रत्न की तरह संचित अभी और यादें है, फिर कभी पिटारी खुलेगी तो यादें फिर से महकेंगी।
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परिचय -
नाम - डॉ. रानू मुखर्जी
जन्म - कलकता
मातृभाषा - बंगला
शिक्षा - एम.ए. (हिंदी), पी.एच.डी.(महाराजा सयाजी राव युनिवर्सिटी,वडोदरा), बी.एड. (भारतीय
शिक्षा परिषद, यु.पी.)
लेखन - हिंदी, बंगला, गुजराती, ओडीया, अँग्रेजी भाषाओं के ज्ञान के कारण अनुवाद कार्य में
संलग्न। स्वरचित कहानी, आलोचना, कविता, लेख आदि हंस (दिल्ली), वागर्थ (कलकता), समकालीन भारतीय साहित्य (दिल्ली), कथाक्रम (दिल्ली), नव भारत (भोपाल), शैली (बिहार), संदर्भ माजरा (जयपुर), शिवानंद वाणी (बनारस), दैनिक जागरण (कानपुर), दक्षिण समाचार (हैदराबाद), नारी अस्मिता (बडौदा), पहचान (दिल्ली), भाषासेतु (अहमदाबाद) आदि प्रतिष्ठित पत्र – पत्रिकाओं में प्रकशित। “गुजरात में हिन्दी साहित्य का इतिहास” के लेखन में सहायक।
प्रकाशन - “मध्यकालीन हिंदी गुजराती साखी साहित्य” (शोध ग्रंथ-1998), “किसे पुकारुँ?”(कहानी
संग्रह – 2000), “मोड पर” (कहानी संग्रह – 2001), “नारी चेतना” (आलोचना – 2001), “अबके बिछ्डे ना मिलै” (कहानी संग्रह – 2004), “किसे पुकारुँ?” (गुजराती भाषा में आनुवाद -2008), “बाहर वाला चेहरा” (कहानी संग्रह-2013), “सुरभी” बांग्ला कहानियों का हिन्दी अनुवाद – प्रकाशित, “स्वप्न दुःस्वप्न” तथा “मेमरी लेन” (चिनु मोदी के गुजराती नाटकों का अनुवाद शीघ्र प्रकाश्य), “गुजराती लेखिकाओं नी प्रतिनिधि वार्ताओं” का हिन्दी में अनुवाद (शीघ्र प्रकाश्य), “बांग्ला नाटय साहित्य तथा रंगमंच का संक्षिप्त इति.” (शिघ्र प्रकाश्य)।
उपलब्धियाँ - हिंदी साहित्य अकादमी गुजरात द्वारा वर्ष 2000 में शोध ग्रंथ “साखी साहित्य” प्रथम
पुरस्कृत, गुजरात साहित्य परिषद द्वारा 2000 में स्वरचित कहानी “मुखौटा” द्वितीय पुरस्कृत, हिंदी साहित्य अकादमी गुजरात द्वारा वर्ष 2002 में स्वरचित कहानी संग्रह “किसे पुकारुँ?” को कहानी विधा के अंतर्गत प्रथम पुरस्कृत, केन्द्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा कहानी संग्रह “किसे पुकारुँ?” को अहिंदी भाषी लेखकों को पुरस्कृत करने की योजना के अंतर्गत माननीय प्रधान मंत्री श्री अटल बिहारी बाजपेयीजी के हाथों प्रधान मंत्री निवास में प्र्शस्ति पत्र, शाल, मोमेंटो तथा पचास हजार रु. प्रदान कर 30-04-2003 को सम्मानित किया। वर्ष 2003 में साहित्य अकादमी गुजरात द्वारा पुस्तक “मोड पर” को कहानी विधा के अंतर्गत द्वितीय पुरस्कृत।
अन्य उपलब्धियाँ - आकशवाणी (अहमदाबाद-वडोदरा) की वार्ताकार। टी.वी. पर साहित्यिक पुस्तकों का परिचय कराना।
संपर्क - डॉ. रानू मुखर्जी
17, जे.एम.के. अपार्ट्मेन्ट,
एच. टी. रोड, सुभानपुरा, वडोदरा – 390023.
Email – ranumukharji@yahoo.co.in.
ranumukharji@yahoo.co.in
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