संस्मरण लेखन पुरस्कार आयोजन - प्रविष्टि क्र. 49 : अभिशप्त रजत पृष्ठ और मनुपुत्रों की बस्तियाँ // यात्रा संस्मरण // डॉ. मोहनलाल गुप्ता

SHARE:

प्रविष्टि क्र. 49 अभिशप्त रजत पृष्ठ और मनुपुत्रों की बस्तियाँ यात्रा संस्मरण/डॉ. मोहनलाल गुप्ता आज उन बातों को पच्चीस साल से अधिक हो गए हैं।...

image

प्रविष्टि क्र. 49

अभिशप्त रजत पृष्ठ और मनुपुत्रों की बस्तियाँ

यात्रा संस्मरण/डॉ. मोहनलाल गुप्ता

आज उन बातों को पच्चीस साल से अधिक हो गए हैं। ढाई दशकों से भी अधिक लम्बी अवधि में समय की काली-पीली आंधियों के जाने कितने बवण्डर इस जीवन में आए और काल के प्रवाह में तिरोहित हो गए। इस दौरान भारत की नदियों में से केवल पानी ही नहीं बहा अपितु सैंकड़ों नदियाँ या तो सूख गईं या सूखने के कगार पर पहुंच गईं। जो उन दिनों में आठ-दस बरस के बालक थे, अब यौवन की दहलीज लांघकर प्रौढ़ होने की तैयारी में हैं।

वर्ष 1993 का फरवरी महीना अभी आरम्भ हुआ ही था किंतु ऋतुराज वसंत ने पूरे वातावरण को आच्छादित कर लिया था। सर्दियों की चटख कम पड़ने लगी थी और जालोर जिले के हरे-भरे खेत, सरसों के पीले फूलों का शृंगार करके होली के लाल-पीले रंगों वाले मदनोत्सव की तैयारियां करते हुए प्रतीत होने लगे थे। यही वे दिन होते थे जब सुन्धा पर्वत की ढलानों पर टेसू दहकने लगते हैं और लूनी नदी के चौड़े पाट में बोई गई सेवज की फसलों में दाने पड़ जाने से चिड़ियों की चहचहाटें अचानक बढ़ जाती हैं। पूरी प्रकृति ऐसी दिखाई देने लगती है मानो यौवन के भार से लदी नववधू चाहकर भी अपनी चपलता को छिपा न पा रही हो।

मैं प्रायः अपनी विलेज जीप लेकर रामा और भोरड़ा के सरोवरों की ओर निकल जाता था, जहाँ इन दिनों विदेशी पक्षियों का जमावड़ा रहता था। उनकी विचित्र ध्वनियां और विस्मयकारी चेष्टाएं प्रकृति के सौंदर्य को और भी अधिक बढ़ा देती थीं। ऐसे ही एक दिन अपने कार्यायल पहुंचा तो आकाशवाणी जोधपुर के केन्द्र निदेशक रतिरामजी का पत्र मिला। उन्होंने लिखा था कि वे तीन दिनों के लिए जालोर आ रहे हैं और मेरे साथ नेहड़ के दुर्गम क्षेत्र की यात्रा करने की इच्छा रखते हैं। यह निमंत्रण पाकर मेरी प्रसन्नता का पार नहीं रहा। लम्बे समय से मेरी साध थी कि मैं उस दुर्गम नेहड़ क्षेत्र में जाऊँ, जिसके बारे में मैं सदैव भिन्न-भिन्न तरह की बातें सुना करता था किंतु अकेले जाने का साहस नहीं कर पाता था।

रतिरामजी का पत्र पाकर मेरे नेत्रों के सामने वे तीन वर्ष छायाचित्रों की भांति स्पष्ट हो गए जिनमें मैं आकाशवाणी में प्रसारण अधिशासी हुआ करता था। रतिरामजी हमारे केन्द्र निदेशक हुआ करते थे और मेरी थोड़ी बहुत साहित्यिक रुचि के कारण मेरे प्रति अतिरिक्त स्नेह रखा करते थे। मैंने जब आकाशवाणी की सेवा छोड़ने का मानस बनाया तो उन्होंने मुझे ऐसा करने से कई बार मना भी किया किंतु मेरा यायावरी मन मुझे वहाँ से कहीं और ले चलने के लिए आतुर था, उसने किसी की एक न सुनी।

मेरे इस यायावरी मन ने मुझे कभी भी, कहीं भी टिक कर नहीं रहने दिया। जहाँ भी मैं गया, वहीं से कहीं और भाग चलने की तैयारी करने लगा। अपने छप्पन वर्ष के जीवन काल में अब तक मैं किसी शहर में लगातार पाँच वर्ष तक लगातार नहीं रह पाया। आज सोचता हूँ तो बड़ा आश्चर्य होता है, कैसे मैं चौदह वर्ष तक र्धर्य रखकर अपनी पढ़ाई पूरी कर सका और कैसे एक स्थान पर ठहर कर मैं स्वयं को प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में निरत रख सका! संभवतः इस सबके पीछे मेरी साधना ने नहीं, अपितु मेरे पिताजी के कठोर अनुशासन ने नियंत्रणकारी भूमिका निभाई।

रतिरामजी अपने साथ आकाशवाणी का पूरा ध्वन्यांकन दल लेकर आए। उनके साथ आए दल में कार्यक्रम अधिशासी प्रेमप्रकाश माथुर (दैववश नेहड़ यात्रा के कुछ ही दिनों बाद वे देवलोक प्रस्थान कर गए), प्रसारण अधिशासी पार्थसारथी थपलियाल तथा सैयद साबिर अली मेरे पुराने साथी भी थे जिनके साथ मैं आकाशवाणी में काम कर चुका था। अतः इस यात्रा का सुखद हो जाना तो निश्चित ही था। मैंने जालोर के एक वयोवृद्ध किंतु उत्साही पत्रकार रामेश्वर माथुर को भी अपने साथ ले लिया जो पचास के दशक से इस क्षेत्र में पत्रकारिता कर रह थे (दैववश वे भी इस यात्रा के कुछ माह बाद देवलोक प्रस्थान कर गए)।

रतिरामजी अपने साथ एम्बेसेडर कार लाए थे किंतु इस वाहन से नेहड़ के दुर्गम क्षेत्र में जाना संभव नहीं था। अतः मैंने अपनी विलेज जीप भी ले ली ताकि पक्की सड़क तक तो कार की सुविधाजनक यात्रा का आनंद लिया जा सके और उसके बाद दुर्गम क्षेत्र में विलेज जीप का प्रयोग किया जा सके। रतिरामजी अपने दल के साथ प्रातः काल में जोधपुर से चलकर दोपहर में जालोर पहुंचे अौर हम लोग उसी समय जालोर से रवाना होकर संध्या होने तक भीनमाल पहुंच गए ताकि अगले दिन शीघ्र ही नेहड़ की यात्रा आरम्भ की जा सके।

भ्ानमाल नगर में रात्रि व्यतीत करना कोई कम गौरव की बात नहीं थी। यह नगर आज से कई शतािब्दयों पूर्व, भारत का एक विख्यात एवं समृद्ध नगर था। भीनमाल की धरती पर खड़े होकर इस बात को सोचकर रोमांच हो आता है कि महान गुप्त शासकों ने इस नगरी को सजाया और संवारा। उनके काल में भीनमाल में बने महालक्ष्मी मंदिर के अवशेषों को देखकर तो ऐसा प्रतीत होता है मानो हम भी हजारों साल पीछे के इतिहास में चले आए हैं और गुप्तों की आराध्य देवी लक्ष्मी की कृपा प्राप्त कर रहे हैं। इसी मंदिर के कारण यह नगर उन दिनों श्रीमाल और पुष्पमाल कहलाता था।

प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग जब ई.641 में इस नगर की यात्रा पर आया तो अपने संस्मरणों में उसने इस नगर के बारे में बहुत कुछ लिखा। ह्वेनसांग द्वारा लिखे गए शब्द इतिहास के अमर पृष्ठों का भाग हो गए जो उस काल के भारत के इतिहास को जानने की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। हे्वनसांग के समय तक तो मुम्बई तथा कलकत्ता भविष्य के गर्भ में सैंकड़ों वर्ष दूर थे और पाण्डवों की बसाई हुई दिल्ली (इन्द्रप्रस्थ) भी एक छोटे गांव से अधिक कुछ नहीं थी। ह्वेनसांग के भीनमाल आने से केवल 13 वर्ष पूर्व ही भीनमाल निवासी ब्रह्मगुप्त ने ‘ब्रह्मस्फुट सिद्धांत’ की रचना की थी। यही वे सूत्र थे जिन्होंने सम्पूर्ण विश्व में नक्षत्रों की गति पर आधारित काल गणना एवं ज्योतिष के सिद्धांतों का प्रतिपादन किया।

जिस समय ह्वेनसांग भीनमाल आया था, उस समय भीनमाल का निवासी महाकवि माघ संस्कृत में कविताएं लिख रहा था जिन्हें बाद में संसार के सर्वश्रेष्ठ साहित्य में सम्मिलित किया गया। माघ की कविता के बारे में संस्कृत साहित्य में जब यह उक्ति पढ़ने को मिलती है तो रोमांच हो आता है-

उपमा कालिदासस्य भारवेर्थ गौरवम्

दण्डिनः पद लालित्यम् माघे संति त्रयो गुणाः।

अर्थात् कालिदास की कविता की उपमा, भारवि की कविता का अर्थ गौरव और दण्डी की कविता का पदलालित्य देखने योग्य है किंतु माघ की कविता में तो ये तीनों ही गुण उपस्थित हैं। कहा जाता है कि महाकवि माघ के पास इतना धन था कि धार नगरी का राजा भोज, उसके वैभव को आंखों से देखने के लिए माघ के यहाँ अतिथि हुआ। जब यही माघ भिखारियों को दान देते-देते निर्धन हो गया तो भूख से तड़प कर मर गया किंतु भीनमाल के लोगों ने उसे भोजन नहीं दिया। जब राजा भोज को इस बात की जानकारी हुई तो उसने श्रीमाल का नाम बदल कर भिन्नमाल कर दिया।

मेरे मुँह से भीनमाल नगरी का ऐसा विचित्र इतिहास सुनकर आकाशवाणी के अधिकारी विस्मय से भर गए। संभवतः इतिहास के प्रति मेरे अनुराग के कारण ही रतिरामजी ने मेरे साथ नेहड़ की यात्रा का कार्यक्रम बनाया था।

उसी सायं हम लोगों ने भीनमाल नगर के मध्य में स्थित वाराह-श्याम मंदिर के दर्शन किए। इस मंदिर में खड़ी वराह प्रतिमा प्रतिहार कालीन है। वाराह, गुप्त शासकों के काल में सम्पूर्ण उत्तर भारत में सर्वाधिक पूज्य विष्णु अवतार थे। भीनमाल क्षेत्र पर गुप्तों के उत्तराधिकारी प्रतिहार हुए जिन्होंने वैष्णव धर्म को मंदिरों एवं विग्रहों से समृद्ध बनाने में गुप्तों जैसा ही उत्साह दिखाया। सात फुट लम्बी और ढाई फुट चौड़ी यह प्रतिमा इतनी भव्य एवं सजीव दिखाई देती है मानो भगवान विष्णु अभी-अभी अपनी प्रिया मेदिनी को समुद्रों में छिपे दैत्यों के चंगुल से छुड़ाकर अपने स्कंध पर बैठाकर लाए हों। इस मंदिर की बाहरी दीवारों पर जूते पहने हुए सूर्यदेव, दर्शकों को इस बात का स्मरण कराते हैं कि एक समय था जब इस क्षेत्र पर क्षहरातों ने भी शासन किया था। मैं बूटधारी सूर्य उन्हीं का आराध्य देव हूँ।

मंदिर की एक दीवार में किरातवेश धारिणी पार्वती की एक प्रतिमा घण्टों तक दर्शकों को अपनी ओर आंख टिकाए रखने के लिए विवश करती है। माता पार्वती किरातिनी के वेश में वन्यपशुओं का शिकार करके महादेव के पास लौट रही हैं। उनके कंधे पर एक लाठी है जिस पर उनका शिकार लटक रहा है। उनके साथ खड़ी चंवरधारिणी यह स्पष्ट करती है कि यह माता पार्वती ही हैं, कोई अन्य देवी नहीं। इस मंदिर की अधिकांश प्रतिमाएं एक हजार वर्ष से अधिक पुरानी हैं।

भीनमाल में सार्वजनिक निर्माण विभाग के जिस डाक बंगले में हम रुके, उसका अपना अलग ही इतिहास था। उन दिनों इसके बारे में कहा जाता था कि जो राजनेता इस डाक बंगले में ठहरते हैं, उन्हें यहाँ से राजधानी लौटकर अपना त्यागपत्र लिखना पड़ता है। इसलिए भीनमाल आने पर मुख्यमंत्री भैंरोसिंह शेखावत एवं उनके मंत्रियों सहित लोकसभा और विधान सभा सदस्य भी इसमें रात्रि विश्राम नहीं करते थे। अतः राज्य के समस्त राजनेता, भीनमाल के कोट्याधिपतियों के देवपति इन्द्र के आवास से स्पर्धा करने वाले विमान सदृश्य सुंदर प्रसादों के अतिथि होते थे और डाक बंगला सरकारी अधिकारियों को सहज ही उपलब्ध हो जाया करता था।

अगली प्रातः प्राची के पुरातन यायावर के नील पथ पर यात्रा आरम्भ करने से पर्याप्त पहले ही हम लोगों ने भीनमाल छोड़ दिया। सर्दियाँ अभी शेष थीं इसलिए भीनमाल से सांचौर तक की यात्रा तो कोहरे से ढकी सड़क पर ही पूरी हुई। सांचौर से आगे लगभग 50 किलोमीटर दूर, केरिया गांव तक पक्की सड़क थी, जहाँ तक हम कार से जा सकते थे। उससे आगे की यात्रा हमें विलेज जीप से करनी थी। सांचौर से आगे निकलते ही प्राची के यायावर ने नील पथ पर अपनी उपस्थिति दी और लाज से नहाई हुई उषा, भगवान सूर्य के पथ पर सोने का गोबर लीप गई। यही वह क्षण था जब प्रकाश से नहाई हुई वसुन्धरा, भगवान सूर्यदेव को प्रणाम करने के लिए हमारे चारों ओर प्रकट हो गई।

ठीक उसी समय हमने एक अद्भुत दृश्य देखा। हमने देखा कि एक लघु सरोवर के किनारे मेष गुल्म खड़ा था। यह विशाल गुल्म, सरोवर से भी अधिक विशाल प्रतीत होता था। दो रेबारी नवयुवक अपने मेष-गुल्म को सरोवर के नीले जल में स्नान करवा रहे थे। ताकि उनके अमल-धवल केशों से धूल के कण हट जाएं और वे स्वच्छ ऊन प्राप्त कर सकें। ये रेबारी भी मेरी तरह यायावर प्रकृति के हैं। ये स्वयं नहीं जानते कि चरैवेति-चरैवेति के मूल सिद्धांत पर चलते-चलते कब वे चरवाहे की जगह रेबारी कहलाने लगे! मुझे तो पूरी आर्य संस्कृति ही यायावर लगती है। आज के रेबारी उन्हीं पुरातन आर्यों के अवशिष्ट रूप ही तो हैं। ये लोग कम्मेलकों ओर मेषों को साथ लेकर सैंकड़ों योजन की यात्रा किया करते हैं। मैंने देखा कि एक रेबारी युवक विशालाकाय मेष को सत्वर पकड़कर अपनी पीठ पर लाद लेता है और मेष कुछ समझ पाए, उससे पहले वह युवक मेष को सरोवर में डुबकी लगवा देता है। युवक की पुष्ट भुजाएं देखकर मेरे विस्मय का पार न रहा। हमने कार रुकवा ली। बहुत देर तक हम उस दृश्य को निर्मिमेष देखते रहे। नगरों के युवकों में से तो कदाचित ही कोई इतनी स्थूल मेष को अपनी पीठ पर उठा सके। उस अद्भुत दृश्य को उसी तरह घटता हुआ छोड़कर हम लोग आगे बढ़ गए।

सांचोर के आगे दो तरह की धरा के दर्शन होते हैं। एक तरफ विशाल बालुका स्तूप अलसाए हुए से पड़े हैं तो उनके बीच-बीच में सरसों के हरे खेत, वनस्पति जगत का विजयोत्सव मनाते हुए प्रतीत होते हैं मानो कह रहे हों कि हम रेगिस्तान से हारने वाले नहीं हैं। गांधव पुल से आगे रेगिस्तान नेपथ्य में जाता हुआ प्रतीत होता है और हरियाली बढ़ने लगती है जिसके बीच मनुष्यों की विरल बस्तियाँ विद्यमान हैं। इस क्षेत्र में मानव-अधिवास का घनत्व अत्यंत अल्प जान पड़ता था जो संभवतः बाड़मेर और जैसलमेर के गहन बालुका प्रदेश के मानवीय घनत्व के समतुल्य ही अत्यंत न्यून था।

नौ बजते-बजते हम केरिया गाँ तक पहुंच गए। यहाँ हमने कार छोड़ दी और विलेज जीप में बैठ गए। कुछ दूर जाने पर मेरे वाहन चालक ने सूचत किया कि जीप का चार गुणा चार निकाय (फोर बाई फोर गीयर सिस्टम) काम नहीं कर रहा है। इस कारण जीप के मार्ग में ही फंसने का भय है। सामने स्थित बालुका स्तूपों को देखकर हमें वहीं रुकना पड़ा और आगे की योजना पर विचार करने लगे। सौभाग्यवश एक ट्रैक्टर वहाँ से निकला। हमें इस तरह निर्जन में जीप रोके खड़े देखकर ट्रैक्टर चालक रुक गया। उसने सुझाव दिया कि चार व्यक्ति मेरे ट्रैक्टर पर बैठ सकते हैं जिन्हें मैं खेजड़ियाली गांव तक पहुंचा सकता हूँ। उसका निमंत्रण स्वीकार करके मैंने, रतिरामजी ने, थपलयिलजी ने और साबिरजी ने आगे जाने का निर्णय लिया। पी. पी. माथुर, रामेश्वर माथुर और मेरे वाहन चालक हिम्मताराम को विलेज जीप के साथ छोड़ दिया गया।

हम चारों व्यक्ति भारवाहक लौह शटक (ट्रॉली) से रहित उस अत्यल्प अवकाश युक्त, यंत्रचालित लौह-अश्व (ट्रैक्टर) पर किसी तरह सिमटकर बैठ गए। यहाँ से आरम्भ हुई हमारी वास्तविक नेहड़ यात्रा। गह्वरों से युक्त विषम धरातल के कारण ट्रैक्टर को इतने हिचकोले लग रहे थे कि यदि हम किंचित भी असावधानी दिखाते तो नीचे गिरकर किसी बड़ी दुर्घटना की चपेट में आ सकते थे। हरि स्मरण करते हुए किसी तरह हम ट्रैक्टर से चिपके रहे।

कोई एक घंटे की कष्ट-साध्य किंतु आनंदानुभूति कराने वाली यात्रा के बाद हम नेहड़ नाम से विख्यात धरा के अभिशप्त रजत पृष्ठ पर पहुंचे, जहाँ क्षितिज और धरा मिलकर एकाकार हो रहे थे। मीलों दूर तक फैला श्वेत रजत पटल सा मैदान। पशु-पक्षी की कौन कहे वनस्पति की एक पर्णी तक नहीं। दूर-दूर तक जल सूख जाने से गहराई तक अंकित हो गए पदयात्रियों के पद चिह्न ऐसे दिखाई दे रहे थे मानो सिंधुघाटी सभ्यता अभी-अभी काल के गाल में समा गई है और वहाँ के निवासी इन पदचिह्नों को अपने पीछे छोड़ गए हैं। जहाँ तक दृष्टि दौड़ाओ, पानी ही पानी किंतु पीने के योग्य घूंट भर भी नहीं। यही है नेहड़ जहाँ प्रलयंकारी जलप्लावन से अपनी नौका को बचाकर लाने वाले मनु का कोई पुत्र प्रवेश नहीं कर सकता। यहाँ जालोर जिले की सीमा समाप्त होती है, यहीं राजस्थान की सीमा भी समाप्त हो जाती है और आरम्भ होता है गुजरात का रणकच्छ अथवा रणखार। नेहड़ का क्षेत्र, रणखार का ही एक किनारा है जिसका एक भाग राजस्थान के जालौर जिले में स्थित है और कुछ प्रसार बाड़मेर जिले से लेकर गुजरात एवं पाकिस्तान तक विस्तृत है।

नेहड़ का अर्थ है ‘नीर-हृत’ अर्थात् जल का हृदय। आज से कुछ लाख वर्ष पहले इस क्षेत्र में समुद्र लहराता था। अरब सागर की ओर आने वाली पश्चिमी राजस्थान की समस्त छोटी-बड़ी नदियां यहाँ आकर गिरा करती थीं। इन जलधाराओं का उद्गम अरावली पर्वत से होता था जिसे संसार का सबसे प्राचीन पर्वत माना जाता है। ऋग्वेद कालीन सरस्वती का एक प्रवाह भी पंचसिंधु प्रदेश को पार करके समुद्र के इस तट तक आता था जिसके किनारों पर गन्ने की खेती होती थी। गन्ना पेरने के कोल्हुओं के पत्थर आज भी रेगिस्तान के बीच देखने को मिल जाते हैं।

समुद्र के इस तट तक पहुंचने वाली नदियां, सहस्राब्दियों तक अरावली के विमर्दित कणों को भी अपने साथ लाती रहीं। समुद्र का तटीय प्रदेश इन कणों से पटता रहा और समुद्र शनैः-शनैः मुख्य धरा से दूर जाता रहा। आज अरावली के उत्तुंग शिखर घिस-घिस कर अंतिम अवशेषों के रूप में विद्यमान हैं। सरस्वती तो कालिदास के समय में ही अंतःसलिला कहकर पुकारी जाने लगी थी। घग्घर, हाकड़ा, लवणाद्रि एवं जवाई आदि अधिकांश जल धाराएं भी सूख गई हैं। पर्वतीय अवरोध के हट जाने से इस क्षेत्र में वर्षा बहुत कम रह गई है किंतु वर्षाकाल में आज भी कुछ जलधाराएं अरावली की उपत्यकाओं से क्षुद्र जलराशि ग्रहण करके अपने प्राचीन पथ का अनुसरण करती हुई यहाँ तक पहुंच जाती हैं मानो पिछले जन्म की स्मृतियाँ अब भी शेष रह गई हों।

वर्षाकाल में कुछ दिनों के लिए बहने वाली बची-खुची जलधाराएं, ऋग्वेद कालीन सरस्वती नदी की प्रमुख सहायक लवणाद्रि में आकर समाहित हो जाती हैं जो अब लूनी के नाम से विख्यात है। यह लूनी ही इन धाराओं का जल लेकर साहस पूर्वक आगे बढ़ती है किंतु उसका प्रवाह भी नेहड़ तक आते-आते समाप्त हो जाता है क्योंकि आगे की धरा ढलानमयी नहीं है। ऐसा लगता है मानो नदी के मन में आगे बढ़ने का उत्साह भंग हो गया हो और विगत करोड़ों वर्षों के अभ्यास के कारण यहाँ पहुंचकर नदी को समुद्र में समा जाने का भ्रम हो गया हो। लूनी का यह खारा जल नेहड़ क्षेत्र में यत्र-तत्र फैल जाता है।

यह जल कई महीनों तक पड़ा-पड़ा सूखता रहता है। आज लूणी, विशाल मरुस्थ्ालीय प्रसार को पार करके आती है। मंद गति होने के कारण अब यह अपने साथ बालुका कण तो नहीं ला पाती किंतु बालुका के लवण, लूणी के जल में घुलकर इस क्षेत्र तक पहुंच जाते हैं। यहाँ वरुणदेव तो सूर्यदेव का सानिध्य प्राप्त कर अंतरिक्ष को प्रस्थान कर जाते हैं किंतु उनके द्वारा लाए गए लवण इसी धरा पर शेष रह जाते हैं। शताब्दियों से इसी विधि से करोड़ों टन लवण इस क्षेत्र में पहुंचता रहा है। इसी लवण ने यहाँ की धरती को चांदी की तरह सफेद बना दिया है। इन लवणों के कारण वनस्पति का उद्भव इस क्षेत्र में नहीं हो पाता। इसी कारण मैंने इस भूमि की कल्पना अभिशप्त रजत पृष्ठ के रूप में की है। इस लवण-बहुल एवं पंक-बहुल क्षेत्र में कहीं-कहीं गह्वरों में एकत्र जलराशि सरोवरों की भांति दिखाई पड़ती है किंतु उनमें कोई जलचर अथवा पक्षी किल्लोल करते हुए दृष्टिगत नहीं होते। इतने घनीभूत लवण-सांद्र में जीवन के कोई चिह्न प्रकट होने का साहस नहीं कर पाते। जीवन जैसे यहाँ पराजय स्वीकार करता हुआ दिखाई पड़ता है। इस कारण नेहड़ शब्द की व्युत्पत्ति ‘नीर-हृत’ के स्थान पर ‘निषिद्ध’ से हुई जान पड़ती है क्योंकि यह क्षेत्र मानवों से लेकर पशु-पक्षी और वनस्पति तक के लिए निषिद्ध है।

कुछ देर तक नेहड़ क्षेत्र में रुकने के पश्चात् हम लोग, खेजड़ियाली गाँव आ गए। वहाँ के सरपंच ने हमारा स्वागत किया और दोपहर के भोजन का प्रबंध भी। अतिथि सत्कार की भारतीय परम्परा यहाँ भी पूरे वैभव के साथ उपस्थित थी। हमें देखकर गांव के पच्चीस-तीस स्त्री-पुरुष सरपंच के घर के आहते में एकत्रित हो गए। उनसे हमें इस क्षेत्र के सम्बन्ध में कई आश्चर्यजनक बातें ज्ञात हुईं। थपलियालजी ने अपना ध्वन्यांकन यंत्र आरम्भ कर लिया ताकि वे अद्भुत बातें यंत्रबद्ध की जा सकें।

खेजड़ियाली गांव भारत की सीमा पर स्थित अंतिम गांव है तथा इसी गांव में अंतिम भारतीय पुलिस चौकी स्थित है। यद्यपि खेजड़ियाली से आगे आकुड़िया गाँव भी स्थित है किंतु यह गाँव अब अतीत का भूला-बिसरा अध्याय मात्र ही रह गया है। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय हुए भारत-पाकिस्तान विभाजन के फलस्वरूप आकुहिड़या गाँव के सभी निवासी सीमा के उस पर चले गए। वहीं उन्होंने नया गाँव बसा लिया। पाकिस्तान में बसे उस नए गाँव का नाम भी आकुड़िया है। भारत स्थित आकुड़िया गांव में अब कठिनाई से आठ-दस घरों की बस्ती शेष बची है।

जहाँ से अभिशप्त रजत पृष्ठ नेहड़ आरम्भ होता है वहीं तक मनुपुत्रों की बस्तियाँ बसी हुई हैं और वहीं तक वनस्पति का प्रसार है। ये बस्तियाँ अत्यंत विरल हैं और दूर-दूर बसी हुई हैं। वर्षाकाल में जब लवणाद्रि, इस क्षेत्र में वर्षा का जल लेकर पहुंचती हैं तो वह पूरे उत्साह के साथ इन मानव बस्तियों को घेर लेती है। उस काल में पूरा क्षेत्र छोटे-छोटे टापुओं में बदल जाता है। चारों तरफ पानी ही पानी और उनके बीच जीता-जागता जीव एवं वनस्पति जगत। मानव बस्तियां एक दूसरे से पूरी तरह कटकर रह जाती हैं। जब तक यह पानी नहीं सूख जाता, मनुपुत्रों की ये बस्तियां शेष सृष्टि से कटी रहती हैं। मानो प्रलयंकारी जलवृष्टि के बीच नौकाच्युत होकर मनु, निर्जन गहन प्रदेश में आत्मावलोकन कर रहे हों। कभी-कभी तो यह अवधि चार से छः माह तक लम्बी हो जाती है। इस पूरे काल में जीवनयापन के लिए केवल बस्ती में उपलब्ध साधनों पर ही जीवित रहना पड़ता है। जैसे-जैसे पानी सूखता जाता है, लोगों का बाहरी विश्व से सम्पर्क पुनः आरम्भ हो जाता है। वषार्-ऋतु आने पर पुनः यही पुनरावृत्ति होती है। इस प्रकार छः माह का दिन और छः माह की रात वाली उक्ति यहाँ चरितार्थ होती हुई प्रतीत होती है।

वर्षाती नदियाँ अपना मार्ग सदैव बदलती रहती हैं। यही कारण है कि ये सदैव उसी मार्ग पर नहीं बहतीं जिस पर वे पिछले साल बहती थीं। नदियों का यह स्वभाव मानव बस्तियों को भी कोई छूट नहीं देता। हर वर्ष नदियों का जल किसी न किसी गांव में घुस जाता है। गांव चाहे कितनी ही ऊंचाई पर क्यों न बसाया गया हो, अवसर मिलते ही नदी गाँव में घुस जाती है। कई बार ऐसा भी होता है कि उछलती-कूदती नदी रात्रि के समय गांव में घुस आती है और किसी को भी अपने बचने का अवकाश नहीं देती। ऐसी स्थिति में कच्चे घर मानवों अथवा पशुओं को किसी प्रकार की सुरक्षा नहीं दे पाते। घर-द्वार, पशु, बाल-वृद्ध यहाँ तक कि बलिष्ठ स्त्री-पुरुष भी इसके प्रवाह में बह जाते हैं। असली कठिनाई के दिन ये ही होते हैं। जब नदी आती है, तब जो जहाँ होता है, उसे वहीं अपनी सुरक्षा का प्रबंध करना होता है। किसी को पलायन का अवसर प्राप्त नहीं होता। एकमात्र सहारा अल्प ऊँचाई वाले वृक्षों का ही रहता है। खेजड़ी, रोहिड़ा, नीम तथा बबूल, प्रायः मानवों और पशुओं को शरण देने में असमर्थ रहते हैं। जो भाग्यशाली मनुष्य शरण पाने में समर्थ रहते हैं, उन्हें कई-कई दिन भूखे-प्यासे ही वृक्षों पर टंगे रहना पड़ता है। यही कारण है कि इस क्षेत्र में छोटे-छोटे बच्चे भी कुशल तैराक बन जाते हैं ताकि संकट के समय प्राणों की रक्षा कर सकें।

शरद काल बीतते-बीतते नदी का जल सूखना आरम्भ हो जाता है तथा भूमि सपाट और सूखी दिखाई देने लगती है। ऐसी भूमि खतरनाक ढंग से धोखा देने वाली सिद्ध हो सकती है। क्योंकि यह ऊपर से तो सूखी हुई दिखाई देती है किंतु इसके नीचे दलदल जमी हुई होती है। इस दलदली भूमि में कोई मनुष्य एक बार फंस जाए तो उसका जीवित बचना कठिन होता है। जब शरद ऋतु आरम्भ होती है, तब ग्रामीण उन भूखण्डों पर गेहूँ, चना और सरसों के बीज बो देते हैं जो लवणों के प्रभाव से कम प्रभावित होते हैं। यह सेवज की फसल कहलाती है तथा वर्ष पर्यन्त भोजन उपलब्ध कराने योग्य उपज दे देती है। ग्रीष्म काल में जब जल एकदम नीचे स्थित भूखण्डों में सिमट जाता है, तब यहाँ के लोग पापड़ों में डालने वाला खार (सज्जी) बनाते हैं। यह खार कास्टिक सोड़ा, भोजन पदार्थों के परिरक्षकों, आयुर्वेदिक औषधियों एवं अन्य रसायनों के निर्माण में भी काम आता है।

पशुपालन ही यहाँ के लोगों को प्रधान व्यवसाय है। सुप्रसिद्ध सांचौरी नस्ल की गायें इस क्षेत्र में बड़ी संख्या में पाली जाती हैं जिनके विशाल वलयाकार शृंग-युग्मों को देखकर सिंधुघाटी सभ्यता के भीमाकाय वृषभों का स्मरण हो आता है। पिछले कुछ दशकों में नेहड़ से लगा पूरा क्षेत्र विलायती बबूलों से घिर गया है और दूर-दूर तक फैली हुई मानव बस्तियां उनके झुरमुटों में पूरी तरह छिप गई हैं। कहीं-कहीं तो ये क्षुप इतने घने हो गए हैं कि मानव तो दूर, पशु-पक्षी भी इनमें नहीं घुस सकते। तीक्ष्ण शूलों के कारण बबूल के पास से किसी प्राणी का निकलना कठिनाई को ही आमंत्रण देना है।

अंतरराष्ट्रीय सीमा पर स्थित होने, बहुत बड़े क्षेत्र के निर्जन प्रायः होने तथा मानव बस्तियों के घने बबूलों से छिपे रहने के कारण यहाँ तस्करी की व्यापक संभावनाएं बनती हैं। फिर भी यह क्षेत्र से होकर बहुमूल्य वस्तुओं की तस्करी नहीं की जाती। इसका मुख्य कारण है दलदल तथा बबूल। इन दोनों की उपस्थिति के कारण ऊंट तथा जीप दोनों ही इस क्षेत्र में अप्रभावी सिद्ध हो जाते हैं। इतना होने पर भी जब सीमा पर अन्य क्षेत्रों में कड़ाई हो जाती थी तो पाकिस्तान में बनी कृत्रिम भारतीय मुद्रा इसी मार्ग से भारत में आती थी और चांदी की सिल्लियां पाकिस्तान को जाती थीं। अब तो सीमा पर कांटों की बाड़ लग जाने से इस कार्य पर पूरी तरह रोक लग गई है।

नेहड़ से लगा यह पूरा क्षेत्र विश्नोई बहुल क्षेत्र है। यह जाति, जीवदया एवं प्रकृतिप्रेम के लिए प्रसिद्ध है। इसी कारण यहाँ हरे वृक्ष सुरक्षित हैं तथा हरिण, शशक, नीलगाय आदि वन्य-प्राणी निर्भय होकर विचरण करते हैं। प्राकृतिक विषमताओं के उपरांत भी यहाँ के लोग निर्धन नहीं हैं। विश्नोइयों के अतिरिक्त अन्य लोग किंचित सीमा तक निर्धन कहे जा सकते हैं जो विलायती बबूल की झाड़ियों को काटकर लकड़ी का कोयला बनाते हैं। इस काम में भी हजारों लोगों का पेट पल जाता है। मच्छरों के कारण मलेरिया इस क्षेत्र में स्थाई रूप से बना रहता है।

ग्रामवासियों से वार्तालाप में बहुत सा समय निकल गया। प्राची का पथिक, आकाश का चक्कर लगाकार पश्चिम में झुकने लगा था। उन लोगों की अद्भुत बातों से न अघाते हुए हम लोग भारी मन से लौटे। लौटते समय भी उसी लौह-अश्व (ट्रैक्टर) की सहायता ली गई। केरिया में हमारे साथी हमें विलम्ब हुआ जानकार चिंतित थे। उस रात हमने पुनः भीनमाल के उस डाक बंगले में रात्रि विश्राम किया और अगली सुबह जोधपुर के लिए रवाना हो गए। नेहड़ क्षेत्र की वह अद्भुत यात्रा आज पच्चीस वर्ष बाद भी मेरे मानस-पटल पर ज्यों की त्यों अंकित है। बरसों बाद इण्डोनेशिया के बीहड़ों में भटकते हुए भी मुझे नेहड़ का यह क्षेत्र रह-रह कर याद आता रहा। ढाई दशक के इस अंतराल में शरीर थकने लगा है किंतु मेरा यायावरी मन में आज भी ऐसे दुर्गम क्षेत्रों की यात्रा के लिए उत्साह की कमी नहीं आई है।

- डॉ. मोहनलाल गुप्ता

63, सरदार क्लब योजना

वायुसेना क्षेत्र, जोधपुर

पिन 342011, राजस्थान


ईमेल : mlguptapro@gmail.com

COMMENTS

BLOGGER
नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: संस्मरण लेखन पुरस्कार आयोजन - प्रविष्टि क्र. 49 : अभिशप्त रजत पृष्ठ और मनुपुत्रों की बस्तियाँ // यात्रा संस्मरण // डॉ. मोहनलाल गुप्ता
संस्मरण लेखन पुरस्कार आयोजन - प्रविष्टि क्र. 49 : अभिशप्त रजत पृष्ठ और मनुपुत्रों की बस्तियाँ // यात्रा संस्मरण // डॉ. मोहनलाल गुप्ता
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEje_sfHivWmgqktX81P7peeTMaGZ7iIbR9gUIFZFyK0ulMr9tH3JwE60oshF-aAYzePfbFvyM_qkuZ2gcwlQWqc_xm2k1KQxcGpza7eWC0V1HROsz4Zv6JdgQbsEQ4kqSxAgyxR/?imgmax=800
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEje_sfHivWmgqktX81P7peeTMaGZ7iIbR9gUIFZFyK0ulMr9tH3JwE60oshF-aAYzePfbFvyM_qkuZ2gcwlQWqc_xm2k1KQxcGpza7eWC0V1HROsz4Zv6JdgQbsEQ4kqSxAgyxR/s72-c/?imgmax=800
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2018/03/49.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2018/03/49.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content