गार्गीशरण मिश्र ‘मराल’ की दो कवितायें मदिरा न लगाना होंठों से मदिरा न लगाना होंठों से ये जहर है कोई जाम नहीं बस एक हसीं यह धोखा है कुदरत...
गार्गीशरण मिश्र ‘मराल’ की दो कवितायें
मदिरा न लगाना होंठों से
मदिरा न लगाना होंठों से ये जहर है कोई जाम नहीं
बस एक हसीं यह धोखा है कुदरत का कोई इनाम नहीं।
जिसने भी पिये प्याले इसके
बदनाम हुए वो बस्ती में,
नाले में गिरे इज्जत खोई
झूमे फिर भी अलमस्ती में
नजरों में गिरे घरवालों की
वो बैठ नशे की कश्ती में,
अपराधों से इसका रिश्ता पीता इंसां का काम नहीं
जिसने बोतल से प्यार किया
बरबादी से इकरार किया,
लुट गयी आबरू घर भर की
चौपट सब कारोबार किया,
नीलाम हुआ घर-बार सभी
कंगाली ने यूं वार किया,
खुद की गलती फल है ये बदकिस्मत का अंजाम नहीं.
है गलत सोचना लोगों का
इंसां दारू को पीता है,
पीती है दारू इंसां को
वहा मुर्दा बन कर जीता है,
वह भरा हुआ समझे खुद को
पर सचमुच में वह रीता है,
मिटकर मयकश बोला दारू, रावण है, कोई राम नहीं.
बस हाला मेरे हाथ रही
तुम छोड़ गयीं मुझको सजनी बस हाला मेरे हाथ रही.
मधुमास तुम्हारे साथ गया पतझड़ की पीड़ा साथ रहीं.
तुमने हाला को ‘सौत’ कहा
‘चुन लो मुझको या हाला को’,
तुम चली गयीं मधुबाला सी
मैं छोड़ न पाया हाला को,
सूनी महफिल क्या करूं भला
घर की सूनी मधुशाला में,
तुम चली गयी सुख चैन गया बस मात्र तुम्हारी याद रही.
हां! काश छोड़ जाती हाला
या मैं ही उसे छोड़ पाता,
घर की बगिया मुस्काती तब
मय-बंधन काश तोड़ पाता,
धन, मान, प्रेम मिल जाता फिर
टूटा घर काश जोड़ पाता,
पर कहीं भोर की किरन न थी बस काली काली रात रही.
की संत विनाबा से बिनती
आदत दारू की छुड़वा दो,
‘तुमने खुद पकड़ा है उसको
मुझको कहते हो छुड़वा दो
लो ठान कि पीना छोड़ दिया
दृढ़ निश्चय कर खुद तुड़वा लो,’
लो पीना छोड़ दिया मैंने अब बात तुम्हारे हाथ रही.
सम्पर्कः 1436/बी, सरस्वती कॉलोनी,
चेरीताल वार्ड, जबलपुर, (म.प्र.) -482002
डॉ. उषारानी राव की चार कवितायें
1. नेपथ्य
भोर होने से पहले
निःस्व चिड़ियों के स्वर से पट जाती है..
सघन जंगल की शून्यता...
कलरव... जैसे... जीवन-राग!
अकस्मात धड़ाम से...
गिरती टहनियों से
झड़ते पत्तों की तेज
आवाज से
मंद होती गई...
जीवन-राग की ध्वनियां
वर्तुल बनाकर...
हवा में उड़ते पक्षियों का
झुंड...
पेड़ के आंसू पोछने का
प्रयत्न करते!
चालाक विचारों के
समय में...
जब... सब सूख रही हो आर्द्रता...
तब बदलता नहीं
नेपथ्य!
चक्रव्यूह रचने वाले हैं
संगठित
तो.. चाहिए भेदने वाला भी
सुनियोजित!
2. कगार
खड़े हैं हम... कगार पर
सेतु के रूप में हैं
मौजूद
परास्त होती संवेदना!
जीवन को राख करके भी
नहीं जागती
सुप्त चेतना
धर्म, मत, जाति के
. बदल जाने से ‘हम’
नहीं बदलते
जब तक हृदय परिवर्तन न हो
नहीं हो सकती...
नए सत्यों की स्थापना...
हिरण के कुलाँच में विलास तो है!
पर... दिग्ज्ञान नहीं...
3. लावा
बहती हुई नदी की
तरह दौड़ने लगता...
मन...
सतत प्रदीप्त रहता ग्रह की तरह
एक विचार!
अब एल्बम में कैद है वह
बचपन
जो
निर्विकार...
निष्कलंक
उजली सुबह की तरह
हुआ करता था!
इंद्रधनुषी सपनों की
उत्कंठा...
प्रतीक्षा...
सब कुछ था उसमें
सहेजे हूं आज भी
उन दिनों को
किसी खजाने की तरह!
स्कूल के दिनों की याद दिलाती है
आजकल...
रहस्यात्मक पगछाप!
एक चीत्कार...
कोमलता को भेदती...
गहराती... असह्य वेदना
रोम-रोम में फैलता जाता...
सिहरन
ममता के
लावा से
जलकर राख हो जायेंगी
संसार की
सारी दुर्भावनाएँ
एक दिन!
कलेजा जिहवाग्र पर !
4. मन की वृत्ति
अलौकिक रस है
प्रियतम का प्रेम!
तो...
सीमा का सृजन ही
निरर्थक!
सीमा मानों... असीम की
ओर उठी हुई उंगली हो...
वह बताती है...
असीम का पथ
आत्मा का संपूर्ण अवगाहन
ससीम प्रेम...
ले चलती है
असीम की ओर...
मन की एकायन वृत्ति में!
सम्पर्कः No.k~ 94, BansÈnkari 2nd Stage, Bangalore.560070
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राजेश माहेश्वरी की कविता
जीवन का आधार
जीवन में
असफलताओं को
करो स्वीकार
मत होना निराश
इससे होगा
वास्तविकता का अहसास
असफलता को सफलता में
परिवर्तित करने का करो प्रयास
समय कितना भी विपरीत हो
मत डरना
साहस और भाग्य पर
रखना विश्वास
अपने पौरुष को कर जाग्रत
धैर्य एवं साहस से
करना प्रतीक्षा सफलता की
पौरुष दर्पण है
भाग्य है उसका प्रतिबिम्ब
दोनों का समन्वय बनेगा
सफलता का आधार.
कठोर श्रम, दूर दृष्टि और पक्का इरादा
कठिनाइयों को करेगा समाप्त
होगा खुशियों के नए संसार का आगमन
विपरीत परिस्थितियों का होगा निर्गमन
पराजित होंगी कुरीतियां
होगा नए सूर्य का उदय
पूरी होंगी सभी अभिलाषाएं
यही है जीवन का क्रम
यही है जीवन का आधार
सम्पर्कः 106, नया रामनगर हाउसिंग सोसायटी, जबलपुर (म.प्र.)
राकेश भ्रमर : दो ग़ज़लें
इस शहर की भीड़ में
इस शहर की भीड़ में खो जाओगे.
गांव अपने किस तरह फिर जाओगे.
गांव की यादें रुलाएंगी तुम्हें,
शोर के दरिया में जब बह जाओगे.
ये शहर कुछ भी सही अपना नहीं,
घर की चौखट ढूंढ़ते रह जाओगे.
रास्ते लम्बे बहुत हैं, एक दिन,
तुम भटककर राह में रह जाओगे.
नींद आंखों से तुम्हारी दूर है,
किस तरह मंज़िल सहर की पाओगे.
ये कहानी भी खतम हो जाएगी,
फिर सुनाने क्या ‘भ्रमर’ तुम आओगे.
सांझ ढल जाए तो
सांझ ढल जाये तो मेरी गली में आ जाना.
चांद हो तुम भी अमावस में कभी आ जाना.
हम तुम्हें ख़्वाब दिखायेंगे आसमानों के,
तुम परी हो तो कभी इस ज़मीं पे आ जाना.
जो क़िताबों में रखे थे उन्हें ही भूल गये,
मेरे बोसीदा ख़तूतात लेने आ जाना.
चांद हाथों में कभी मेरे मुकम्मल होगा,
साथ अपने भी सितारों को ले के आ जाना.
तुम हंसोगी तो सभी लोग चौंक जाएंगे,
अपने चेहरे पे कोई दर्द ले के आ जाना.
ये हंसीं रात तुम्हारी अगर अमानत है,
तुम सभी काग़जात ले के कभी आ जाना.
अशोक ‘अंजुम’
बस्ती बनाम तवाइफ
परसों-
जनता संग्राम पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष
श्री गिरगिट चंद जी बस्ती में आये
तो जनता ने उनके स्वागत में
पलक-पांवड़े बिछाये
खातिरदारी में
खून-पसीना लगाया गया,
बस्ती को
दुल्हन की तरह सजाया गया,
माननीय गिरगिटचंद जी ने
आश्वासनों की
जबरदस्त गंगा बहायी,
तदेपरान्त
हंसते-हंसते ली विदाई!
-
कल
जनता खिचड़ी संघ के महासचिव
श्री अंगूठालाल ‘रंगीले’ का
हुआ बस्ती में आगमन
जनता ने तहेदिल से किया
उनका भी अभिनन्दन,
बस्ती फिर से सजायी गई
बाकायदा दुल्हन बनायी गई
रंगीले जी ने भी खूब रंगरेलियां मनायीं
जनता को आश्वासनों की
फुलझड़ियां दिखायीं
और फिर अंगूठालाल ‘रंगीले’ भी
अंगूठा दिखाकर चले गये,
यानि कि हम
एक बार फिर छले गये!
-
आज
जनता क्रान्ति दल के महामंत्री
श्री दलबदल सिंह ‘धुरंधर’
बस्ती में चले आ रहे हैं
बस्ती वाले बस्ती को फिर
दुल्हन की तरह सजा रहे हैं
मैं जानता हूं-
धुरंधर जी भी
बस्ती के अरमानों से खेलेंगे
बस्ती वाले धुरंधर जी का भी
‘आपके लिए ये कर दूंगा’
‘आपके लिए वो कर दूंगा,’
-झेलेंगे!
फिर धुरंधरजी भी
औरों की तरह खेलेंगे-खायेंगे,
तत्पश्चात्
मुंह मटकाते हुए चले जाएंगे!
फिर कल कोई और आयेगा
परसों कोई और
दोस्तों!
आखिर कब तक
चलेगा ये दौर?
आखिर कब तक
खेलते रहेंगे ये तथाकथित उद्धारक
हमारे अरमानों से?
और हम कब तक सुनते रहेंगे
इनके झूठे वादों को
अपने कानों से?
-
वैसे दोस्तों!
सच तो ये है कि
अब रोज-रोज यही सब देखना-सुनना
हमारी लाइफ हो गई है,
और इधर हमारी बस्ती भी
बार-बार दुल्हन बनने के कारण
दुल्हन नहीं रही
तवाइफ हो गई है!
सम्पर्कः गली-2, चन्द्रविहार कॉलोनी
(नगला डालचंद)
क्वारसी बाईपास, अलीगढ़-202001 (उ.प्र.)
राजकुमार जैन ‘राजन’ की दो कवितायें
अंधकार के बीज
ज्योति पर्व पर
जला रहे हो पीड़ा के दीप
लील चुका है तम
परंपरा, संस्कृति और संस्कार.
ज्योति-पर्व के अस्तित्व बोध में
अंधेरे से लड़ना चाहते हो
तो आओ
जला लो अपने भीतर की मशालें
संजो लो अंतर्मन में
अस्तित्व बोध का दीप
मन में जब जलती हैं मशालें
तब खुद-ब-खुद बदलने लगती हैं
इतिहास की इबारतें
कटने लगती हैं संवेदना की फसल
अपने अभिमान में
खण्ड-खण्ड होते आदमी हो तुम
समय के चित्र फलक पर गलत तस्वीर मत
खींचो
ज्योति पर्व पर
अंधकार के बीज मत बोओ
तुम्हारे भीतर एक सरसब्ज बाग है
उसे सींचो
जो प्रकाश मौन और म्लान हुआ है
देवदूत की तरह अंधकार को काटो
तुम पर समूचे भविष्य की आस्था है
और जिन्दगी महज अभिमान में तार-तार
अंधेरे का घोषणा पत्र नहीं
रूप है, रस है, गंध है, उजास है
आदमी आत्मा का छंद है.
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अंतहीन अनुसंधान
हवा में खुशबू
चांदनी में माधुर्य
फूलों से भंवरे का आलिंगन
स्पर्श से कोमलता का छंद
कैसे बनता है?
खोजता था मैं
सांझ के अंधेरे में
चांदनी की शीतलता में
सूरज की ऊष्णता में
धर्म सभाओं और एकांतिक क्षणों में
गुरुओं की वाणी में
इतिहास के पन्नों में
पर हो जाता था हर बार असफल.
अचानक एक सुबह
सूर्य किरणों की चमक
पक्षियों की कलरव
फूलों के रंग, मिट्टी की गंध
गीतों के बंद
हृदय को छूते कानों को लगने लगे
प्रिय
अंर्तमन बोल उठा
जिंदगी एक अनुसंधान
एक अनवरत यात्रा
एक से अनंत होने की यात्रा
अनवरत यात्रा, अंतहीन यात्रा
सम्पर्कः आकोला-312205, (चित्तौड़गढ़) राज.
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