कहानी // बिना किसी बंधन के // देवेन्द्र कुमार मिश्रा // प्राची - फरवरी 2018

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त लाक, तलाक, तलाक, कानों में किसी गंदी गाली की तरह ये शब्द गूंज उठे. किस जुर्म की सजा थी ये. यदि औरत होने की सजा थी तो मैं ये सजा भुगतने को ...

लाक, तलाक, तलाक, कानों में किसी गंदी गाली की तरह ये शब्द गूंज उठे. किस जुर्म की सजा थी ये. यदि औरत होने की सजा थी तो मैं ये सजा भुगतने को कतई तैयार नहीं थी. मेरे लिए औरत होना फख्र की बात है. धर्म भी यही कहते हैं हम औरतों के बारे में. किसी ने हमें देवी कहा. किसी ने बराबरी का हक दिया. लेकिन इन तमाम बातों के बावजूद औरत को सिखाया यही जाता है कि उस पर एक नहीं दो परिवारों की जिम्मेदारी होती है, वह दो खानदानों का मान है.

शौहर की सेवा करना उसका ख्याल रखना औरत का फर्ज है. दो खानदानों की मान-मर्यादा की जिम्मेदारी उसकी है. बराबरी का दर्जा तो कभी मिला ही नहीं.

मैंने चाहा भी नहीं, क्योंकि बचपन से सिखाया ही यही गया था कि औरत की जिम्मेदारी होती है वंशवृद्धि करना. शौहर को जिस्मानी सुख देने से लेकर उसका हर तरह से ख्याल रखना हम औरतों का फर्ज है. मुझे विवाद नहीं इंसाफ चाहिए. मैं नहीं जानती कि क्या लिखा है मजहबी किताबों में. वे बताते हैं जो इस पर अपना कॉपीराइट मानते हैं. इसके रक्षक बनते हैं.

परिवार के कहने पर जब मैंने इस शादी से इंकार किया तो सभी भड़क गये. मैंने इंकार किया, क्योंकि मैं ज्यादा पढ़ी-लिखी थी, सुन्दर थी. मेरे सपनों के राजकुमार से वह मेल नहीं खाता था. वह कम पढ़ा-लिखा रंगीन मिजाज का इंसान था.

लेकिन मेरा परिवार कर्जदार था. उनके परिवार से कई बार मदद मिली थी मेरे परिवार को. कर्जा चुकाने का वक्त आ गया था. उन्हें और उनके परिवार को मैं पसंद थी. सो अब्बू ने उनके प्रस्ताव पर तुरंत हां की मुहर लगा दी.

परन्तु मेरे इंकार करते ही परिवार के लोग भड़क उठे. अम्मी ने तो गुस्से में यहां तक कह दिया- ‘ज्यादा पढ़ाने-लिखाने से लड़कियों का दिमाग खराब हो जाता है.’

अब्बा ने कहा- ‘परिवार की इज्जत का सवाल है.’ मुझे चढ़ा दिया गया शादी की सूली पर. आखिर कुर्बानी तो मुझे ही देनी पड़ी. औरत जो ठहरी. मौलवी साहब ने पूछा- ‘कुबूल है.’ मुझे कहना पड़ा ‘कुबूल है.’ और मौलवी साहब ने निकाह पढ़ने के बाद कहा- ‘इस्लाम में स्त्रियों को बराबरी का हक दिया गया है. उनकी मर्जी से ही विवाह होता है.’ मुझे हंसी के साथ क्रोध भी आया. औरत बराबरी, मर्जी ये तीनों एक-दूसरे के विरोधी हैं. फिर भी सबकुछ भूलकर ससुराल में सबकी खिदमत करने लग गई; ताकि किसी को कोई शिकायत न हो. अच्छी बहू बनने के लिए दिन भर घर के सारे काम करती. खाना बनाने से लेकर घर की सजावट तक. दिन भर घर के कामों से थककर चूर होती. बिस्तर पर पहुंचती तो वहां शौहर के सुख, उनके अधिकारों का ध्यान रखना पड़ता. दो साल बाद शौहर अमीर बनने का ख्वाब लेकर अमेरिका चले गये. कुछ महीने बीते होंगे कि एक दिन शौहर ने फोन करके तलाक मुंह पर दे मारा. मेरी गलती क्या थी? मेरा अपराध क्या था? मुझे किस बात की सजा मिली? मेरी समझ में नहीं आ रहा था. क्या वजह थी तलाक की? मैं निकाह पढ़ाने वाले मौलवी के पास पहुंची. उन्होंने बड़े आराम से कह दिया कि शौहर ने तीन बार तलाक कह दिया तो तलाक हो गया. अब कुछ नहीं हो सकता. मैंने पूछा- ‘मेरी क्या खता?’

मौलवी साहब ने कहा- ‘ये शौहर का हक है.’

‘और मेरा हक?’

मौलवी साहब कुछ देर शांत रहे जैसे कोई जवाब तलाश रहे हो. फिर वहीं मजहबी बात बोले- ‘तुम्हें निकाह में शौहर द्वारा लिखी गई रकम मिलेगी.’

‘यही इंसाफ है.’ मैंने पूछा.

‘हां, और क्या चाहती हो. दूसरे धर्मों में तो दहेज देना पड़ता है. दहेज के लिए जलाकर मार डालते हैं.’

मौलवी लोग इस्लाम की तारीफ और औरत के हक के प्रश्न पर यही उत्तर देते हैं. मैंने कहा- ‘मौलवी साहब, दूसरे धर्मों में तो सुधार हो चुका है. बाल-विवाह, सती प्रथा बंद हो चुके हैं. दहेज उत्पीड़न पर भी सजा होती है मर्दों को. इस्लाम में हमारे लिए ऐसा कुछ नहीं है.’

‘हम कुरान और हदीस में लिखे पर ही चलते हैं.’

‘भले ही वो गलत हों.’

‘गलत हो ही नहीं सकता.’

‘फोन पर तीन तलाक कह देना गलत नहीं है. मुझे अपना जुर्म भी पता नहीं और सजा सुना दी गई.’

‘यदि कोई साथ न रहना चाहे तो जबरदस्ती करने से क्या फायदा? ऐसे में पीछा छुड़ाने के लिए शौहर हत्या भी कर सकता है.’

‘मौलवी साहब, कमाल का इस्लाम है आपका.’

‘अब जो भी है, यही है. ऐसा ही लिखा है. आप जाइये.’

मैं खाली हाथ लौट आई मजहब के रहनुमा के पास से. ये मेरे औरत होने की सजा थी. ये सारे धर्म, मजहब औरतों को बेड़ियां पहनाने के लिए बने हुए हैं और मर्दों को मनमर्जी करने के लिए. चाहे मेरी जैसी साधारण स्त्री हो या साक्षात् सीता. वनवास हम औरतों के हिस्से ही आता है. मर्द करे तो मर्दानगी. औरत करे तो चरित्रहीनता, बेहयाई. मैं अपने मायके वापस आ गई. पढ़ी-लिखी थी. नौकरी के अथक प्रयास किये. प्रयास सफल रहे और मुझे सरकारी विभाग में लिपिक की नौकरी मिल गई. शांति से जीवन गुजर रहा था कि एक दिन तलाक देने वाला वह मर्द जो कभी शौहर हुआ करता था, मेरे पैरों पर गिरकर माफी मांगने लगा. वह थका हारा, टूटा हुआ था. उसने अपने अपराध के लिए माफी मांगी. पूछने पर यही बताया कि उसे एक ईसाई स्त्री से प्यार हो गया था. उसके कहने पर उसने मुझे तलाक दिया था.

लेकिन जब शादी की बारी आई तो हेलना ने स्पष्ट कहा- ‘मैं बुरका नहीं पहनूंगी. मैं एक बच्चे से ज्यादा पैदा नहीं करूंगी.’

मैं ठहरा मुसलमान. मैंने स्पष्ट कह दिया ‘तुम्हें इस्लाम कुबूल करना होगा. औलाद तो अल्लाह की देन हैं. मैं अपने मजहब के खिलाफ नहीं जा सकता.’

हेलना ने कहा- ‘आज मेरे कहने से अपनी बीवी को तलाक दिया है. कल किसी और के कहने से मुझे तलाक दे सकते हो. बच्चे अल्लाह की देन कैसे हो गये? नौ माह अपनी कोख की जमीन पर उसे औरत रखती है. पुरुष सिर्फ बीज डालता है. औरत उसे पोषण देती है. इस प्राकृतिक क्रिया से अल्लाह का क्या लेना-देना?’ इस्लाम के विरुद्ध मैं न सुन सका. चूंकि वह धनवान थी. मैं घर जमाई बनने को तैयार था. वह शराब, सिगरेट पीती थी. उसे भी मैंने बर्दास्त किया. लेकिन उसने जब ये कहा कि यही लिखा है इस्लाम में कि मर्द हो तो चार शादियां करो. जब चाहे तलाक मुंह पर मारकर पीछा छुड़ा लो. सारी दुनिया में कत्लेआम मचाकर रखा है. इस्लाम के मानने वालों ने. फिर भी इस्लाम सबसे अच्छा है. तुम मर्दों के लिए होगा. और दो वर्ष के प्रेम, जिस्मानी संबंधों के बाद भी उसने शादी से इंकार कर दिया.

‘और तब तुम्हें मेरी याद आई. अपनी गलती का पछतावा हुआ कि मुस्लिम औरत ही बेहतर है जो इस्लाम के नाम पर मर्दों के सारे अत्याचार सह लेती है. क्यों ठीक कहा न.’

वह चुप था. क्यों न होता? आखिर एक औरत ने उसे ठुकरा दिया था. उसका तन पाकर भी उसे झुका न सका. अपनी मर्जी न चला सका. सवाल यहां धर्म का नहीं था. हमारे सामाजिक ढांचे का था. स्त्री-पुरुष के मध्य अंतर का था. जो पुरुषों ने बनाया था. पहले तो मैंने उसे झटककर भगा दिया. मेरा अहंकार संतुष्ट हुआ या बदला. कह नहीं सकती. लेकिन यहां इस तरह के किस्से अक्सर सुनने को मिल रहे हैं. दाल में नमक कम हो गया तो पति ने तलाक दे दिया पत्नी को. समय पर खाना न मिला तो तलाक दे दिया.

कई औरतों ने अदालत में तीन तलाक के विरोध में मुकदमा दायर कर दिया तो तिलमिला गया पुरुष समाज. वे इस्लाम की आड़ लेकर अनेक तरीकों से तीन तलाक को जायज बताने लगे. उन्हें सख्त एतराज होने लगा सरकार से. संविधान से. वे हल्ला बोलने लगे कि ये उनका व्यक्तिगत मसला है. संविधान ने उन्हें अधिकार दिया है कि उनके धार्मिक मामलों में दखल नहीं देंगे.

हम इस्लाम को मानने वाली औरतें इनके लिए काठ की पुतलियां हैं. यदि यही इस्लाम के ठेकेदार अपनी स्त्रियों के बारे में सोचते तो हमें अदालतों की शरण क्यों लेनी पड़ती? कुछ इस्लामिक ठेकेदारों ने तो ये भी कह दिया कि तीन तलाक की आड़ में सरकार समान नागरिक आचार संहिता लागू करना चाहती है. अगर ऐसा है भी तो क्या समस्या है? समानता की ही तो बात है. इस देश के होकर हम क्यों अपने लिए विशेषाधिकार चाहते हैं?

हम मुसलमान औरतें अल्लाह की देन के नाम पर क्यों बच्चा पैदा करने की मशीन बने? क्यों तुम्हारे इस्लाम के विस्तार के लिए अपनी पैदा की हुई औलाद को तुम्हारे मजहब के लिए बलि चढ़ाते रहे? पुरुष प्रधान समाज में एक औरत का अकेला रहना किसी मुसीबत से कम नहीं. जमाना कितना ही बदल गया हो लेकिन औरतों के लिए आज भी वही जमाना है. बलात्कार का डर. किसी से हंसकर दो बातें कर लो तो चरित्रहीनता, बेवफाई के प्रमाण-पत्र.

पता नहीं क्यों उस टूटे-बिखरे आदमी पर मुझे दया सी आ गई. मैंने जैसे ही उसके साथ फिर से शादी का फैसला किया तो कुरान-हदीस लेकर मौलवी साहब बिन बुलाये टपक पड़े. उन्होंने सख्त लहजे में कहा- ‘तुम्हारा निकाह तभी संभव है अपने शौहर से, जब तुम किसी दूसरे मर्द से शादी करो. उसके साथ कुछ वक्त पति-पत्नी का रिश्ता बनाओ. फिर उससे तलाक लो. उसके बाद तुम अपने पूर्व शौहर के साथ रह सकती हो. निकाह कर सकती हो.’

मैं सोच में पड़ गई. ये तो मेरी रूह पर चोट थी सीधी. मैंने गुस्से में तमतमाकर कहा- ‘ये क्या कह रहे हैं आप?’

उन्होंने कहा- ‘ऐसा ही लिखा है. हलाला कहते हैं इसे.’

‘ये तो हराम है मेरे लिए.’

‘यही नियम है. ये सजा तुम्हें नहीं, तुम्हारे पति के लिए होगी.’

‘ये कैसी सजा है मौलवी साहब. जो भुगतनी तो मुझे है और है मेरे पति के लिए.’

‘तुम्हारे पति को इससे समझ में आयेगा कि तलाक के बाद शादी इतनी आसानी नहीं होती. तलाक दिया है ये सब तो उसे सहना ही पड़ेगा. इस्लाम में स्त्रियों को बराबरी का दर्जा दिया है. मैंने कहा था न.’

मौलवी साहब की बातों पर हैरान थी मैं. इस बार भी तो सजा औरत को ही मिल रही थी. पहले पति को पाने के लिए दूसरे से शादी. फिर उससे तलाक. ये सब क्या है? ये तो औरत के जिस्म के साथ उसकी रूह तक पर चोट करना हुआ.

‘यही कायदा है.’ मौलवी ने सपाट स्वर में कहा.

‘और यदि मैं आपकी ये बात न मानूं.’

‘तो तुम्हारा अपने पूर्व पति के साथ रिश्ता नाजायज होगा. इस्लाम के खिलाफ माना जायेगा. इसके लिए हम तुम्हें सजा दे सकते हैं. फतवा जारी कर सकते हैं. तुम्हारी जान को भी खतरा हो सकता है.’ मौलाना साहब ने धमकी भरे अंदाज में कहा.

मैं सोच में पड़ गई. धर्म बदल लूं या अदालत का दरवाजा खटखटाऊं. धर्म बदलकर क्या होगा. रहूंगी तो मैं औरत ही. अदालत में जाना मतलब इंसाफ के लिए पूरा जीवन इंतजार करना.

‘कुछ भी हो. मैं हलाला के लिए तैयार नहीं हूं.’

मेरे पूर्व पति ने मौलवी से कहा- ‘मौलवी साहब. सब कुछ लुट चुका है मेरा. न रुपया-पैसा है. न जमीन-जायदाद. आप कोई रास्ता सुझायें.’

मौलवी साहब कुछ गंभीर हुए. उन्होंने कहा- ‘रास्ता तो है. कुछ खर्च करो. ताकि तुम्हारी बीवी गैर के साथ सम्बंध बनाये बिना निकाह, तलाक से गुजर सके.’

‘और यदि उसने कमाऊं बीवी देखकर तलाक न दिया तो...?’ मेरे पूर्व पति सलीम ने मौलवी से कहा.

‘हम ऐसे लोगों को जानते हैं जो ये काम करते हैं. रस्म अदायगी के लिए निकाह होगा. कुछ समय बाद तलाक दिलवा देंगे. वह तुम्हारी पूर्व पत्नी को छुएगा भी नहीं. बस कुछ रकम देनी होगी उसे. और इस काम को करवाने के लिए मुझे भी.’

‘मुझे मंजूर है.’ सलीम ने कहा.

‘लेकिन मुझे मंजूर नहीं.’ मैंने गुस्से में कहा. ‘हाड़-मांस की जिन्दा औरत हूं. कोई काठ की गुड़िया नहीं. वो हेलना अच्छी थी, जिसने औरत होने के बाद भी तुम्हें ठुकरा दिया क्योंकि वो तुम्हारी बेकार की बातों पर राजी नहीं हुई थी. मेरे शरीर को मोहरे की तरह इस्तेमाल करने की इजाजत नहीं दे सकती मैं किसी को. तलाक तुमने दिया. हलाला से मैं क्यों गुजरूं? नहीं करनी मुझे तुमसे शादी. ऐसे बेकार के नियमों को नहीं मानती मैं. अपने पैरों पर खड़ी हूं. सलीम साहब अपनी गरीबी से बचने के लिए मुझसे माफी मांगकर फिर से शादी करना चाहते हैं. जाइये कोई और तलाशिये.’

और मैं अपने अतीत को पूरी तरह भूलकर आगे कदम बढ़ाती गई. ऐसा नहीं है कि मेरे जीवन में कोई पुरुष नहीं आयेगा. शादी तो मैं करूंगी. पूरा जीवन अकेला काटने की सजा मैं क्यों भुगतूं? मैं शादी करूंगी लेकिन अपने नियम अपनी शर्तों पर. शादी के नाम पर कैदखाना नहीं चाहिए मुझे. शादी उसी से करूंगी जिसके साथ आजादी महसूस होगी. जिम्मेदारी हो,

बंधन नहीं. जिम्मेदारी भी मेरी अकेली की न हो. बराबरी से हो दोनों की.

मुझे आज भी अपने सपनों के राजकुमार की तलाश है ऐसा राजकुमार जिसके साथ प्रेम हो बंधन नहीं. शादी हो. सजा नहीं. वरना अकेले ही ठीक हूं. दुनिया का क्या है? कुछ तो लोग कहेंगे. लोगों का काम है कहना. वैसे आपसे सच कहूं फिलहाल मैं एक पुरुष के साथ लिव-इन में हूं. बिना किसी शर्त बिना किसी बंधन के.

संपर्क : पाटनी कॉलोनी, भरत नगर,

चंदनगांव- छिन्दवाड़ा (म.प्र.)- 480001

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रचनाकार: कहानी // बिना किसी बंधन के // देवेन्द्र कुमार मिश्रा // प्राची - फरवरी 2018
कहानी // बिना किसी बंधन के // देवेन्द्र कुमार मिश्रा // प्राची - फरवरी 2018
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रचनाकार
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