भा रतीय संस्कृति में नारी को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। वह शिव भी है और शक्ति भी, तभी तो भारतीय संस्कृति में सनातन काल से अर्धनारीश्वर की...
भारतीय संस्कृति में नारी को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। वह शिव भी है और शक्ति भी, तभी तो भारतीय संस्कृति में सनातन काल से अर्धनारीश्वर की कल्पना सटीक बैठती है। इतिहास गवाह है कि भारतीय समाज ने कभी मातृशक्ति के महत्व का आकलन कम नहीं किया और जब भी ऐसा करने की कोशिश की और उन्हें ज्ञानार्जन से रोका तो समाज में कुरीतियाँ और कमजोरियाँ ही पनपीं। नारी को आरंभ से ही सृजन, सम्मान और शक्ति का प्रतीक माना गया है। शास्त्र से लेकर साहित्य तक नारी की महत्ता को स्वीकार किया गया है- ‘यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते, रमन्ते तत्र देवता।’ सिंधु संस्कृति में भी मातृदेवी की पूजा का प्रचलन परिलक्षित होता है। नारी का कार्यक्षेत्र न केवल घर वरन सारा संसार है। प्रकृति ने वंश वृद्धि की जो जिम्मेदारी नारी को दे रखी है, वह न केवल एक दायित्व है अपितु एक चमत्कार और अलौकिक सुख भी। इन सबके बीच नारी आरंभ से ही अपनी भूमिकाओं के प्रति सचेत रही है।
भारतीय संस्कृति में महिलाओं की शिक्षा और साहित्य में उनके योगदान पर नजर डालें तो वैदिक काल में यह पूर्ण विकास पर थी। वैदिक काल में शिक्षा के द्वार सभी स्त्रियों के लिए खुले थे और पुस्तक रचना, शास्त्रार्थ, साहित्य तथा अध्यापनकार्य के द्वारा नारी उच्च शिक्षा का उपयोग करती थी। ईसा से 500 वर्ष पूर्व वैयाकरण पाणिनि ने भी नारियों के द्वारा वेद अध्ययन की चर्चा की है। वैदिक युग में छात्राओं के दो वर्ग थे। प्रथमतः, सद्योवधु वे छात्राएं थीं जो विवाह के पूर्व तक कुछ वेद मंत्र व याज्ञिक प्रार्थनाएं पढ़ लेती थीं। द्वितीयतः, ब्रह्मवादिनी, जो आजीवन शिक्षा ग्रहण करने में लगी रहती थीं। पुत्री का उपनयन संस्कार व स्त्रियों को यज्ञ करने का अधिकार भी प्राप्त था। उच्च शिक्षा के लिए पुरुषों की भाँति स्त्रियाँ भी शैक्षिक अनुशासन के अनुसार ब्रह्यचर्य व्रत का पालन कर शिक्षा ग्रहण करतीं, तत्पश्चात विवाह करती थीं। विश्ववरा, अपाला, लोमशा तथा घोषा जैसी विदुषियों ने वेद मंत्रों की रचना की और ऋषि पद को प्राप्त कर लिया था। अगस्त्य ऋषि की पत्नी लोपामुद्रा भी विदुषी थीं, और भी कई ऋषि स्त्रियों की रचनाएं ऋग्वेद संहिता में मिलती हैं। ऋग्वेद में तो सरस्वती को सबसे पवित्र नदी मानने के साथ-साथ ‘वाणी प्रार्थना’, ‘कविता की देवी’ एवं ‘बुद्धि को तीव्र करने वाली और संगीत की प्रेरणादायी’ कहा गया है।
महिलाओं की शिक्षा का अनन्य संबंध स्वतंत्रता आंदोलन से भी जुड़ा हुआ है। शिक्षित और जागरूक होती महिलाओं ने समानांतर रूप में अपने हकों की लड़ाई भी लड़ी। आखिर तभी तो महात्मा गाँधी ने कहा था कि- ‘भारत में ब्रिटिश राज मिनटों में समाप्त हो सकता है, बशर्ते भारत की महिलाएं ऐसा चाहें और इसकी आवश्यकता को समझें।’ आजादी के दौर में तमाम सुशिक्षित महिलाओं ने स्वतंत्रता-आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। एक तरफ इन्होंने स्त्री-चेतना को प्रज्वलित किया, वहीं आजादी के आंदोलन में पुरुषों के साथ कंधा से कंधा मिलाकर आगे बढ़ीं। इसी क्रम में महिला मताधिकार को लेकर 1917 में सरोजिनी नायडू के नेतृत्व में वायसराय से भी एक प्रतिनिधिमण्डल मिला। ‘भारत कोकिला’ के नाम से मशहूर सरोजिनी नायडू एक अच्छी कवयित्री भी थीं। स्वामी विवेकानंद की शिष्या मार्गरेट एलिजाबेथ नोबेल (भगिनी निवेदिता) ने स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षिका बनकर ‘निवेदिता पाठशाला’ के माध्यम से एक प्रभावी शिक्षा-पद्धति का आरम्भ किया। उनका मानना था कि- ‘पत्नीत्व से पहले नारीत्व और नारीत्व से पहले मानवता, बालिका शिक्षण का ध्येय होना चाहिए।’ कलकत्ता विश्वविद्यालय में 11 फरवरी 1905 को आयोजित दीक्षान्त समारोह में वायसराय लॉर्ड कर्जन द्वारा भारतीय युवकों के प्रति अपमानजनक शब्दों का उपयोग करने पर भगिनी निवेदिता ने खड़े होकर निर्भीकता के साथ प्रतिकार किया। थियोसोफिकल सोसायटी के बैनर तले एनी बेसेंट ने भी स्त्री शिक्षा के लिए पुरजोर प्रयास किया। एनी बेसेन्ट ने ही 1898 में बनारस में सेन्ट्रल हिन्दू कॉलेज की नींव रखी, जिसे 1916 में महामना मदनमोहन मालवीय ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के रूप में विकसित किया। मदन मोहन मालवीय जी सदा बालिका शिक्षा को बालकों की शिक्षा से ज्यादा महत्व देते थे। उनका मानना था कि- ‘पुरुषों की शिक्षा से स्त्रियों की शिक्षा का प्रश्न अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि वही भारत की भावी संतानों की माता हैं। वे हमारे भावी राजनीतिज्ञों, विद्वानों, तत्वविज्ञानियों, व्यापार तथा कला कौशल के नेताओं की प्रथम शिक्षिका हैं।’
20वीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में भारत में इस बात पर ध्यान दिया गया कि नारी शिक्षा उनके समाजिक जीवन के लिए उपयोगी होनी चाहिए क्योंकि उस समय तक जहाँ तक लिखने-पढ़ने का संबंध था, लड़कों और लड़कियों की शिक्षा में कोई अंतर न था। एक लंबे समय तक उच्च शिक्षा पाने के पश्चात् स्त्रियाँ अध्यापन, चिकित्सा कार्य अथवा कार्यालयों में ही अधिकतर काम करती नजर आती थीं पर वर्तमान दौर में देखें तो नारी हर क्षेत्र में परचम फैला रही हैं। शिक्षा के चलते नारी जागरूक हुई और इस जागरूकता ने नारी के कार्यक्षेत्र की सीमा को घर की चहारदीवारी से बाहर की दुनिया तक फैला दिया। इससे जहाँ नारी अपने पैरों पर खड़ी हो सकी, वहीं आर्थिक आत्मनिर्भरता ने उसे रचनात्मक कार्यों हेतु भी प्रेरित किया। पर अभी भी नारी-शिक्षा के क्षेत्र में बहुत प्रगति होनी बाकी है। नारी-शिक्षा में अभी भी तमाम रूढ़िगत बाधाएँ सामने आ रही हैं, मसलन- बेटी की बजाय बेटे की शिक्षा पर ज्यादा ध्यान देना, विवाह के चक्कर में लड़कियों की पढ़ाई न पूरी होने देना, लड़कियों की पढ़ाई को कैरियर उन्मुख न मानना। इसके अलावा संस्थागत स्तर पर भी नारी-शिक्षा में कई बाधाएँ आ रही हैं, मसलन- घर के नजदीक स्तरीय स्कूलों और कॉलेजों का अभाव, स्कूलों में लड़कियों के लिए टॉयलेट सुविधा न होना, पिछड़ी और दलित लड़कियों के साथ स्कूलों में भेदभाव, कई बार लड़कियों का यौन शोषण जैसे तमाम पहलू ऐसे हैं, जिन पर गंभीरता से विचार करने की जरुरत है।
शिक्षा की बदौलत ही आज नारी जीवन के हर क्षेत्र में कदम बढ़ा रही है। राजनीति, प्रशासन, उद्योग, विज्ञान-प्रौद्योगिकी, फिल्म, साहित्य, मीडिया, चिकित्सा, इंजीनियरिंग, वकालत, कला-संस्कृति, शिक्षा आई.टी., खेल-कूद, सैन्य से लेकर अंतरिक्ष तक नारी ने छलांग लगाई है। शिक्षा के साथ नारी का स्वभाव और चरित्र भी बदला है एवं अपने अधिकारों के प्रति वह जागरूक हुई है। घरेलू महिला हिंसा अधिनियम, सार्वजनिक जगहों पर यौन उत्पीड़न के विरुद्ध नियम एवं लैंगिक भेदभाव के विरुद्ध उठती आवाज नारी को मुखर कर रही हैं। पंचायतों में मिले आरक्षण का उपयोग करते हुए शिक्षित नारियाँ जहाँ नए आयाम रच रही हैं, वहीं विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका में भी महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ा है। अब शिक्षित व जागरूक नारी समाज की अवहेलना करना आसान नहीं रहा। एक तरफ लड़कियाँ हाईस्कूल व इंटर की परीक्षाओं में बाजी मार रही हैं, वहीं देश की सार्वधिक प्रतिष्ठित सिविल सेवाओं में भी उनका नाम हर साल बखूबी जगमगा रहा है। कल्पना चावला व सुनीता विलियम्स ने तो अंतरिक्ष तक की सैर की। दहेज प्रथा, कन्या भ्रूण हत्या, बाल विवाह, शराबखोरी, लिंग विभेद जैसी तमाम बुराइयों के विरुद्ध शिक्षित नारी आगे आ रही है और दहेज लोभियों को बैरंग लौटाने, शराब के ठेकों को बंद करने एवं लड़कियों को स्कूल भेजने व अपने कैरियर को प्राथमिकता देने जैसी पहल अपना रंग लाने लगी है।
यहीं नहीं प्राचीनकाल में जहाँ लोमशा एवं लोपामुद्रा आदि नारियों ने ऋग्वेद के अनेक सूक्तों की रचना करके और मैत्रेयी, गार्गी, घोषा, अदिति इत्यादि विदुषियों ने अपने ज्ञान से तब के तत्वज्ञानी पुरुषों को कायल बना रखा था, उसी परम्परा में अब पुरुष पुरोहितों की परम्परा को महिलाओं ने तोड़ दिया है। ये महिलाएं वैदिक मंत्रोच्चारण के बीच पुरोहिती का कार्य करती हैं और विवाह के साथ-साथ शांति यज्ञ, गृह प्रवेश, मुंडन, नामकरण और यज्ञोपवीत भी करा रही हैं और यह जरूरी नहीं कि वे ब्राह्मण ही हों। वस्तुतः समाज की यह पारंपरिक सोच कि महिलाओं के जीवन का अधिकांश हिस्सा घर परिवार के मध्य व्यतीत हो जाता है और बाहरी जीवन से संतुलन बनाने में उन्हें समस्या आएगी, बेहद दकियानूसी लगती है। शिक्षा के बढ़ते प्रभाव के चलते आज महिला भी अपने कैरियर के प्रति संजीदा है। इस अवधारणा को बदलने की जरूरत है कि बच्चों का लालन-पालन और गृहस्थी चलाना सिर्फ नारी का काम है। यह एक पारस्परिक जिम्मेदारी है, जिसे पति-पत्नी दोनों को उठाना चाहिए। इस बदलाव का कारण शिक्षा के चलते महिलाओं में आई जागरूकता है, जिसके चलते महिलायें अपने को दोयम नहीं मानतीं और कैरियर के साथ-साथ पारिवारिक-सामाजिक परम्पराओं के क्षेत्र में भी बराबरी का हक चाहती हैं। वर्षों से रस्मो-रिवाज के दरवाजों के पीछे शर्मायी-सकुचायी सी खड़ी महिलाओं की छवि अब सजग और आत्मविश्वासी व्यक्तित्व में तब्दील हो चुकी है। जहाँ प्रकृति पुरुष-स्त्री को बिना किसी भेदभाव के बराबर धूप-छांव बाँटती हो, वहाँ कोई महिला यदि किसी क्षेत्र में जाना चाहती है तो मात्र इसलिए कि वह एक महिला है, उसको उस क्षेत्र में जाने से नहीं रोका जा सकता। आखिर अपनी पसन्द का क्षेत्र चुनने का सभी को अधिकार है।
शिक्षा ने जहाँ नारी को जागरूक बनाया वहीं अपनी अभिव्यक्तियों के विस्तार का सुनहरा मौका भी दिया। साहित्य व लेखन के क्षेत्र में भी नारी का प्रभाव बढ़ा है। सरोजिनी नायडू, महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान, साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता (1956) प्रथम महिला साहित्यकार अमृता प्रीतम, प्रथम भारतीय ज्ञानपीठ महिला विजेता (1976) आशापूर्णा देवी, इस्मत चुगताई, शिवानी, कुर्रतुल हैदर, महाश्वेता देवी, मन्नू भंडारी, मैत्रेयी पुष्पा, ममता कालिया, मृणाल पांडेय, चित्रा मुद्गल इत्यादि नामों की एक लंबी सूची है, जिन्होंने साहित्य की विभिन्न विधाओं को ऊँचाइयों तक पहुँचाया। उनका साहित्य आधुनिक जीवन की जटिल परिस्थितियों को अपने में समेटे, समय के साथ परिवर्तित होते मानवीय सम्बन्धों का जीता-जागता दस्तावेज है। भारतीय समाज की सांस्कृतिक और दार्शनिक बुनियादों को समकालीन परिप्रेक्ष्य में विश्लेषित करते हुये उन्होंने अपनी वैविध्यपूर्ण रचनाशीलता का एक ऐसा आकर्षक, भव्य और गम्भीर संसार निर्मित किया, जिसका चमत्कार सारे साहित्यिक जगत महसूस करता है।
साहित्य के माध्यम से नारी ने जहाँ पुराने समय से चली आ रही कुप्रथाओं पर चोट किया, वहीं समाज को नए विचार भी दिए। अपनी विशिष्ट पहचान के साथ नारी साहित्यिक व सांस्कृतिक गरिमा को नई ऊँचाइयाँ दे रही है। उसके लिये चीजें जिस रूप में बाह्य स्तर पर दिखती हैं, सिर्फ वही सच नहीं होतीं बल्कि उनके पीछे छिपे तत्वों को भी वह बखूबी समझती है। साहित्य व लेखन के क्षेत्र में सत्य अब स्पष्ट रूप से सामने आ रहा है। समस्यायें नये रूप में सामने आ रही हैं और उन समस्याओं के समाधान में नारी साहित्यकार का दृष्टिकोण उन प्रताड़नाओं के यथार्थवादी चित्रांकन से भिन्न समाधान की दशाओं के निरूपण की मंजिल की ओर चल पड़ा है। जहाँ कुछ पुरुश साहित्यकारों ने नारी-लेखन के नाम पर उसे परिवार की चहारदीवारियों में समेट दिया या ‘देह’ को सैंडविच की तरह इस्तेमाल किया, वहाँ ‘नारी विमर्श’ ने नए अध्याय खोले हैं। नारी को ‘मर्दवादी यौनिकता’ से परे एक स्वतंत्र व समग्र व्यक्तित्व के रूप में देखने की जरुरत है। रोती-बिलखती और परिस्थितियों से हर पल समझौता कर अपना ‘स्व’ मिटाने को मजबूर नारी आज की कविता, कहानी, उपन्यासों में अपना ‘स्व’ न सिर्फ तलाश रही हैं, बल्कि उसे ऊँचाइयों पर ले जाकर नए आयाम भी दे रही है। उसका लेखन परम्पराओं, विमर्शों, विविध रुचियों एवं विशद अध्ययन को लेकर अंततः संवेदनशील लेखन में बदल जाता है। नारी-शिक्षा आज सिर्फ एक जरुरत नहीं बल्कि विकास और प्रगति का अनिवार्य तत्व है।
आकांक्षा यादव
कॉलेज में प्रवक्ता। साहित्य, लेखन और ब्लॉगिंग के क्षेत्र में भी प्रवृत्त। नारी विमर्श, बाल विमर्श और सामाजिक मुद्दों से सम्बंधित विषयों पर प्रमुखता से लेखन।
लेखन-विधा : कविता, लेख, लघुकथा एवं बाल कविताएँ। अब तक 3 पुस्तकें प्रकाशित- ‘आधी आबादी के सरोकार’ (2017), ‘चाँद पर पानी’ (बाल-गीत संग्रह-2012) एवं ‘क्रांति-यज्ञ : 1857-1947 की गाथा’ (संपादित, 2007)
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संपर्क : टाइप 5 निदेशक बंगला,
पोस्टल ऑफिसर्स कॉलोनी
जेडीए सर्किल के निकट,
जोधपुर, राजस्थान - 42001
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