कहानी // देने का सुख // आलोक कुमार सातपुते // प्राची - फरवरी 2018

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मु निया को विदा करते हुए राकेश की आँखें भर आई थीं। वह टाईममशीन में बैठकर कई साल पीछे पहुंच गया था। वह अकसर देखता कि उसके मुहल्ले में प्लास्ट...

मुनिया को विदा करते हुए राकेश की आँखें भर आई थीं। वह टाईममशीन में बैठकर कई साल पीछे पहुंच गया था। वह अकसर देखता कि उसके मुहल्ले में प्लास्टिक की पन्नी बीनने वाले लड़के-लड़कियाँ घूमते रहते हैं। वे अपने पीछे एक गंदा सा प्लास्टिक का बोरा रखे हुए होते और कचरे के ढेर में से प्लास्टिक की पन्नियां बीनकर उसी में डालते जाते। वह यह भी देखता कि वे प्रायः चार-पांच के झुण्ड में होते। उनके हाथों में एक लकड़ी होती।

अपनी बालकनी में बैठकर वह इन पन्नी बीनने वाले बच्चों की गतिविधियों को ध्यान से देखा करता। वह पाता कि कॉलोनी के आवारा कुत्ते उन पर बड़े ही खतरनाक तरीके से भौंका करते थे। हाथ में लकड़ी होने के बावजूद वे बच्चे इन कुत्तों से बेहद आंतकित रहते थे। वे उन्हें लकड़ी से मारने की बजाय अपना ही रास्ता बदल देते थे। ये आवारा कुत्ते न जाने क्यों इन्हें अपना दुश्मन समझते थे। ये बच्चे ज्यादातर घूरों पर ही पन्नियाँ बीनते और कुत्ते भी उन्हीं घूरों पर अपना खाना तलाशते थे। संभवतः कुत्तों को यह लगता होगा कि वे उनका खाना चुरा रहे हैं।

राकेश अविवाहित था और अविवाहित ही रहना चाहता था। वह एक सरकारी नौकरी में होने के बावजूद चिन्तक था और सामाजिक सरोकारों के प्रति पूर्णतः समर्पित था। वह इन बच्चों के लिये कुछ करना चाहता था, पर क्या करे, कुछ सोच नहीं पा रहा था।

जिस तरह से वे दस-बारह साल के पन्नी बीनने वाले बच्चे कुत्तों से आंतकित रहते थे, उसी तरह कॉलोनीवासी इन बच्चों से आतंकित रहते थे। कॉलोनियों में आमतौर पर यह माना जाता है कि ये बच्चे नंबरी चोर होते हैं और पन्नी बीनने के बहाने ये चोरी करने के लिये सूने घरों की रैकी करते रहते हैं। उसके बाद वे अपने माँ-बाप को खबर कर देते हैं। शहर में पिछले दिनों कुछ इसी तरह की घटनाएँ प्रकाश में आई थीं। सामाजिक सरोकारों से जुड़े होने के बावजूद इन घटनाओं का प्रभाव सुरेश पर भी पड़ा था, और वह भी दूसरे कॉलोनीवासियों की तरह इनसे आंतकित सा रहने लगा था।

राकेश इस कॉलोनी में एक किरायेदार की हैसियत से रहता था। उसका मकान मालिक उसी शहर की दूसरी कॉलोनी में रहता था। राकेश ने घर पर झाडू-पोंछा और बर्तन साफ करने के लिये एक उम्रदराज बाई रखी थी, जो कि पास की ही स्लम बस्ती से आती थी। वह बिल्कुल ही निरक्षर थी।

दीवाली का त्योहार नजदीक ही था। राकेश ने अपनी बाई को साफ-सफाई के बारे में समझा दिया था। उसने यह भी चेता दिया था कि लकड़ी की अलमारी में रखे हुए दीमक लगे हुए कागजों की भी सफाई करनी है। बाई को समझाकर वह ऑफिस चला गया था।

दो-तीन दिनों बाद एल.आई.सी की पॉलिसी मेच्योर्ड होने की सूचना मिलने पर उसने उसे खोजना शुरू किया तो उसके पैरों तले जमीन खिसक गई। एल.आई.सी. पॉलिसी, बैंक एफ.डी. और किसान विकासपत्र आदि तमाम इन्वेस्टमेंट वाली फाइलों के साथ-साथ उसकी शैक्षणिक दस्तावेजों वाली फाइल भी नहीं मिल रही थी। वह इन महत्वपूर्ण दस्तावेजों को लोहे की अलमारियों मे ही रखता था। खोजते-खोजते वह परेशान सा हो गया था।

उसे खुद पर ही गुस्सा आ रहा था कि आखिर वह इतना लापरवाह कैसे हो गया है। उसने सारा घर छान मारा, पर उसको वह फाइलें कहीं नजर नहीं आईं। वह अपना सर पकड़कर बैठा था, तभी लोहे के गेट पर खटखटाहट सुनाई पड़ी। दरवाजे पर सफेद बोरी टांगी हुई एक पन्नी बीनने वाली बच्ची खड़ी हुई थी। इस समय उसे देखकर राकेश का पारा, गर्म हो गया। उसने नजदीक जाकर उसे जोर से फटकारा- ‘क्या है? यहाँ क्यों खड़ी है? चल भाग यहाँ से। अब तुम लोग भीख भी मांगने लगे हो.’ वह कुछ और बोल पाता, इससे पहले ही उस लड़की ने अपने हाथ में रखी दो फाइलें उसकी ओर बढ़ा दीं। उसने उसे हाथ में लिया। वो दोनों ही उसकी गुमशुदा फाइलें थीं। उसे याद आया कि एक दिन जल्दी-जल्दी में उसने इन फाइलों को लोहे की जगह लकड़ी की अलमारी में रख दिया था और उसकी अंगूठा-छाप बाई ने इन फाइलों को कचरा समझ कर बाहर फेंक दिया था।

वह कर्तव्यविमूढ़ सा खड़ा फाइलों को देखता रहा। वह जब तक संभलता, लड़की वहां से जा चुकी थी। उसने तुरंत ही गेट खोला और उस लड़की को देखने बाहर निकल आया, पर वो लड़की दूर-दूर तक नजर नहीं आई। उस लड़की के प्रति अपने रूखे व्यवहार पर वह बेहद शर्मिन्दा था। वह उस लड़की से माफी माँगना चाहता था। वह उन फाइलों के लिये उसे दिल से धन्यवाद भी देना चाहता था। उसे आत्मग्लानि की अनुभूति हो रही थी। उसे ऐसा लग रहा था कि उसके सर पर टनों बोझ है, जो उस लड़की से माफी मांगने पर ही उतरेगा। वह पूरे सप्ताह भर इंतजार करता रहा, पर लड़की कहीं नहीं दिखी।

एक दिन जब वह अपनी बाल्कनी में बैठा अखबार पढ़ रहा था, तभी उसे वह लड़की नजर आई। उसके साथ उसके और भी साथी थे। उसने उन्हें आवाज देकर बुलाना चाहा, पर उन्हें यकीन ही नहीं हुआ कि उन्हें कोई बुला भी सकता है। वे नहीं आये. फिर राकेश ने नीचे आकर अपनी बाई को उन्हें बुलाने के लिए भेजा। इस पर वे सभी डरते-डरते आये और राकेश के समक्ष दयनीय मुद्रा में खड़े हो गये। राकेश ने साथ रखी हुई कुर्सियों पर उन्हें बैठने को कहा। इस पर वे मना करने लगे। उसके थोड़ा और जोर देने पर वह सकुचाते हुए से उन कुर्सियों पर बैठ गये।

‘तुम लोग बैठो मैं आता हूँ...’ कहकर राकेश अंदर चला गया और फ्रिज से काजू कतली का पैकेट निकाल लाया। राकेश ने उन सभी को मिठाई दी । मिठाई खाते हुए उन सभी की आँखों में खुशियां चमक रही थीं। फिर राकेश ने उन सभी से बारी-बारी उनका नाम पूछा। राकेश के पास फाइलें पहुंचाने वाली लड़की का नाम मुनिया था। जैसा कि मुनिया ने बताया कि वह पिछले ही साल चौथी कक्षा पास हुई थी, लेकिन उसके पिता ने आगे पढ़ाने से मना कर दिया था। राकेश ने उससे पूछा, ‘बेटा तुम्हें कैसे पता चला कि ये फाइलें मेरी ही हैं।’ इस पर उस लड़की ने बताया कि बाहर आपकी नेमप्लेट लगी हुई थी और आपके कई सारे कागजों में आपका नाम हिन्दी में लिखा हुआ था। राकेश को वह बच्ची एक्स्ट्रा-ऑर्डिनरी लगी। उसने उसे अपने करीब बुलाया और उसके सिर पर हाथ फेरने लगा।

उसके सिर पर हाथ फेरते हुए उसे महसूस हुआ कि वह उसकी बेटी है। वह सोचने लगा कि यदि सही उम्र में उसकी शादी हो गई होती तो उसकी बेटी भी लगभग इतनी ही बड़ी होती। यह सोचकर उसे उस पर और भी ज्यादा दुलार आने लगा। वह फिर सोचने लगा कि बच्चे तो बच्चे होते हैं फिर चाहे वे हमारे अपने हो या पन्नी बीनने वाले के हों. उसके बालों पर हाथ फेरते हुए उसके दिल से आवाज आई मुझे इस बच्ची के लिये कुछ करना चाहिये। उसने सभी बच्चों से पूछा कि तुममें से कौन-कौन बच्चा पढ़ाई करना चाहता है। इस पर सभी ने हाथ उठा दिये। राकेश ने उनसे वादा किया कि कल से वह उन सभी को अपने घर पर पढ़ायेगा।

अगले दिन से सभी बच्चे सुबह उसके घर पर पढ़ने आने लगे। वह उन्हें बीच-बीच में खाने-पीने की चीजें भी देता रहता, जिससे कि उनका उत्साह बना रहे।

धीरे-धीरे बच्चों को पढ़ाने में उसे मजा आने लगा, और राकेश को आत्मसंतोष भी मिलने लगा। मुनिया उन सभी बच्चों में तेज थी। उसके अंदर सीखने की गजब की ललक थी। राकेश ने महसूस कर लिया था कि यदि इस लड़की पर ध्यान दिया जाये, तो यह बहुत आगे बढ़ सकती है। राकेश को एक सरकारी योजना के बारे में मालूम था, जिसमें स्कूल छोड़ चुके बच्चों को सीधे ही पाँचवीं की परीक्षा दिलाने की अनुमति होती थी। समय आने पर उसने उस योजना के तहत मुनिया को पांचवीं की परीक्षा में बिठा दिया।

वह मुनिया को पूरी तरह अपनी बेटी मान चुका था। वह चाहता था कि छठवीं कक्षा में वह नियमित स्कूल जाये, लेकिन इसके लिये जरूरी था कि उसके पिता सहमत हों। वह मुनिया के घर पहुंचा। उसके घर की हालत बहुत खराब थी। उसका बाप एक नंबर का शराबी था। वह रिक्शा चलाता था। उसकी माँ नहीं थी। राकेश ने उसके बाप से बात की तो वह मना करने लगा। राकेश के बहुत समझाने पर और यह आश्वस्त करने पर कि उसका सारा खर्च वह स्वयं उठायेगा, वह बड़ी ही मुश्किल से तैयार हुआ।

अब राकेश ने मुनिया का स्कूल में एडमिशन करा दिया था। अब वह नियमित रूप से स्कूल भी जाने लगी थी। वह नियमित रूप से राकेश के घर आती और मन लगाकर पढ़ती। अब अपने से छोटे बच्चों को भी वह खुद ही पढ़ाने लगी थी।

समय बीतता जा रहा था कि एक दिन राकेश को झटका सा लगा। उसका तबादला दूसरे शहर में हो गया था। वह मुनिया को लेकर चिंतित हो उठा कि अब उसकी पढ़ाई का क्या होगा। उसे पन्द्रह दिनों के अन्दर नई जगह पर पहुंचना था। उसने मुनिया के पिता के हाथों में एक हजार रूपये रखकर हाथ जोड़कर कहा प्लीज आप मुनिया की पढ़ाई मत छुड़वाइएगा । मैं इस लड़की को आगे बढ़ते हुए देखना चाहता हूँ। नोट देखकर उसके बाप की आंखों में चमक आ गई और उसने बड़ी ही लापरवाही से कहा- ‘ठीक है साहब, मैं इसकी पढ़ाई नहीं छुड़वाऊंगा।’ उसकी बातों से राकेश संतुष्ट नहीं हुआ, पर उसके पास कोई चारा भी नहीं था। आखिर वह शराबी ही तो उसका बाप था।

मुनिया को उसके भाग्य के भरोसे छोड़कर वह नये शहर पहुँच गया। नये शहर में नौकरी करते उसे तीन महीने हो गये थे। इन तीन महीनों में वह रोज मुनिया के बारे में सोचा करता। मुनिया के बाप द्वारा लापरवाहीपूर्वक दिया गया उत्तर उसे आशंकित और आतंकित करता रहता था।

आखिर एक दिन वह मुनिया से मिलने के लिये उसके शहर पहुँच गया। वहां जाकर उसे सारा माजरा समझ में आने लगा। उसके बाप ने उसका स्कूल जाना बंद करा दिया था। अब वह फिर से पन्नी बीनने जाने लगी थी। उसकी पढ़ाई के लिये दिये गये एक हजार रुपये की उसके बाप ने शराब पी ली थी।

राकेश को सामने देख वह रुआंसी हो उठी और दौड़कर उससे लिपट गई। उसने उसके बालों में हाथ फेरा। राकेश ने उसके बाप को समझाने की कोशिश की, पर वह नहीं पढ़ाने के लिये अड़ा रहा। थक-हारकर जब राकेश वापस लौटने लगा तो उसके बाप ने कहा- ‘साहब यदि आपको मुनिया की इतनी ही चिंता है तो मैं इसे आपको बेचने के लिये तैयार हूँ। मैं इसे आपको बीस हजार रुपये में बेच सकता हूँ।’

यह सुनकर राकेश सकते में आ गया वह सोचने लगा- ‘हे भगवान! ये बाप है या कोई जल्लाद।’ उसका जी चाहा कि वह नजदीक के पुलिस थाने में उसके खिलाफ रिपोर्ट लिखवा दे, पर इससे क्या हासिल होगा। उलटे वह वहाँ से लौटकर मुनिया को ही मारा करेगा।

‘मैं सोचकर बताता हूं,’ कहकर राकेश वहाँ से चला गया। उसके अन्दर अजीब तरह का द्वंद्व चल रहा था। उसका एक मन कहता था कि यह तो हो सकता है। दूसरी तरफ उसका दूसरा मन करता कि तू यदि लड़की को खरीदेगा तो तेरे अन्दर बाप की जगह मालिकपन का भाव आ जायेगा। ऐसे में तू उसके साथ न्याय कहाँ कर पायेगा। खैर उसने दृढ़ निश्चय कर लिया कि उसे मुनिया को इस नर्क से निकालना ही है। आज उसने यदि उसके भले के लिये उसे नहीं खरीदा, तो उसका बाप उसे दूसरे को बेच देगा और उसकी जिन्दगी नर्क हो जायेगी।

यह विचार आते ही उसने नजदीक के एटीएम से बीस हजार रुपये निकाल लिये और वापस मुनिया के घर की तरफ चल पड़ा। उसने उसके बाप को बीस हजार रुपये देकर मुनिया को खरीद लिया। उसने उसके बाप से स्टाम्प पेपर पर लिखवा लिया कि वह मुझे गोद दे रहा है। हालांकि वह जानता था कि गोद लेने की प्रक्रिया बहुत ही उलझी हुई होती है और कोई सिंगल पुरुष को एक लड़की गोद तो मिलने से रही... फिर भी उसके बाप की बदमाशी से बचने के लिये यह जरूरी था। उसने बाजार से मुनिया के लिये कुछ कपड़े आदि खरीदे और फिर उसे लेकर वह अपने घर आ गया। वहाँ उसने एक अच्छे स्कूल में उसका एडमिशन करा दिया। हालांकि पढ़ाई शुरू हुए चार माह हो चुके थे, तो भी राकेश को यकीन था कि वह रिकवर कर लेगी। मुनिया कुशाग्रबुद्धि की लड़की थी, सो उसने जल्दी ही पूरा कोर्स कवर कर लिया। राकेश ने अपनी बेटी के रूप में ही लोगों से उसका परिचय कराना शुरू कर दिया था।

मुनिया को पढ़ाई के साथ-साथ खाना बनाने का भी बड़ा शौक था। जैसे-जैसे वह बड़ी होती गई, वह राकेश को एक से बढ़कर एक व्यंजन बनाकर खिलाने लगी। बाप और बेटी दोनों की जिन्दगी बड़े मजे से कटती रही। राकेश अक्सर पाता कि वह पन्नी बीनने वाले दूसरे बच्चों को देखकर दुःखी हो जाती है। वह अपने बचपन में पहुँच जाती थी। धीरे-धीरे मुनिया की सामाजिक कार्यों में रुचि बढ़ती जा रही थी, और उसने सबसे प्रतिष्ठित सामाजिक विज्ञान कॉलेज से स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त कर ली थी। उसने एक एनजीओ की तरह कार्य करना शुरू कर दिया। उसने पन्नी बीनने वाले बच्चों, प्लेटफॉर्म पर आवारा भटकने वाले बच्चों और भिखारी बच्चों के लिये स्कूल खोल लिया। धीरे-धीरे उसका एनजीओ शहर का सबसे प्रतिष्ठित एनजीओ बन गया था।

सामाजिक कार्यों के दौरान उसकी जान-पहचान महेश नामक युवक के साथ हो गई थी। वह भी बेहद गरीब घर का लड़का था और उसे भी किसी दूसरे ने ही पाल-पोसकर बड़ा किया था, सो उसे भी इसी तरह के सामाजिक कार्यों में रुचि थी। दोनों ने आपस में शादी का तय किया था। अलग-अलग जाति के होने के बावजूद राकेश ने उनकी अरेन्ज मैरिज कराई थी और कन्यादान करते हुए उसे अभी ही विदा किया था। हालांकि महेश के घर भी उसी शहर में था, तो भी बेटी की विदाई तो आखिर विदाई ही होती है। उसकी आँखें भर आई थीं।

संपर्क : 832 हाउसिंग बोर्ड कॉलोनी सडडू

रायपुर, छत्तीसगढ़

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रचनाकार: कहानी // देने का सुख // आलोक कुमार सातपुते // प्राची - फरवरी 2018
कहानी // देने का सुख // आलोक कुमार सातपुते // प्राची - फरवरी 2018
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