श्रीमती सुधारानी श्रीवास्तव हाईकोर्ट में सीनियर एडवोकेट हैं . वे संभ्रात परिवार से हैं. उनका हिंदी और अंग्रेजी दोनों पर समान अधिकार है. सुधा...
श्रीमती सुधारानी श्रीवास्तव हाईकोर्ट में सीनियर एडवोकेट हैं. वे संभ्रात परिवार से हैं. उनका हिंदी और अंग्रेजी दोनों पर समान अधिकार है. सुधा जी ने मानव अधिकार के साथ नारी अधि-कार पर बहुत लिखा है. उन्होंने महिलाओं के कानूनी अधिकारों पर कई पुस्तकें लिखी हैं जो चर्चित रहीं. सुधाजी को देश और विदेश अमेरिका, लंदन में सम्मानित किया जा चुका है. उनकी इस विशेष उपलब्धि के बारे में कम ही लोग जानते हैं. वे उच्चकोटी की साहित्यकार हैं. उनका मेरे प्रति अत्यंत स्नेह रहा है. उनके व्यक्तित्व और महान कार्यों के लिये मैंने उनका साक्षात्कार लिया जो यहां प्रस्तुत है.
लक्ष्मी शर्मा : आपका जन्म कब और कहां हुआ?
सुधा जी : हमारा जन्म 9 जनवरी 1932 को परतवाड़ा अब अचलपुर विदर्भ (महाराष्ट्र) में हुआ था. हमारे पिता जी अंग्रेजी शासन में आबकारी विभाग में मुलाजिम थे अतः उनका स्थानान्तरण् म.प्र. में होता रहता था. हम लोग लगभग 10 वर्ष महाराष्ट्र में रहे जो तत्कालीन म.प्र. का ही भाग था अतः हमारा शिक्षण भी मराठी में ही हुआ.
लक्ष्मी शर्मा : कृपया अपने परिवार के बारे में बतायें?
सुधा जी : चूंकि हमारे पिता जी बिहार से थे. 1915-16 में बिहार में भयंकर प्लेग पड़ा. एक दिन में 22-23 मौतें हुईं और हमारे परिवार में मात्र बाबू जी और दादी बचे. हमारे बाबू जी सबसे छोटे थे. हमारे बड़े पिता जी स्व. अच्युताचंद्र, बाबू राजेन्द्र प्रसाद जी के सहपाठी और रिश्तेदार थे. हमारे बाबा स्व. कुलदीप सहाय सूरजपुर इस्टेट के दीवान थे तथा ‘गया’ के रहबासी थे. हमारी मां इलाहाबाद की थीं. हमारा बंगला नेहरू जी के आनंद भवन के सामने था. एक मामा कृष्णा हठीसिंह (नेहरू जी की बहन) के सहपाठी थे. उन दिनों आजादी की लड़ाई चल रही थी. हम लोगों का नेहरू जी के पास आना-जाना होता था. मामा लोगों के विवाह में जब हम इलाहाबाद जाते और मराठी बोलते तो लोगों को बहुत आश्चर्य होता था. हमने नेहरू जी को भी अपना मराठी बालगीत सुनाया था.
लक्ष्मी शर्मा : आपने शिक्षा कहां प्राप्त की?
सुधा जी : हमारी अम्मा कुन्तीदेवी सहाय जो स्व. सुभद्राकुमारी चौहान की समकालीन थीं, अपने जमाने की मिडिल पास थीं. हमारे नाना ने 1903 में आगरा विश्वविद्यालय से बी.ए. किया था. हमारे बाबू जी पटना से बी.ए. पास थे, अतः शिक्षित परिवार में जन्म हुआ.
हमारी प्रारंभिक शिक्षा महाराष्ट्र में हुई. उसके बाद हम लोग बैतूल आ गये. वहां एक मामा कांग्रेसी हमारे यहां आते थे. आजादी की चर्चा चलती थी. बाबू जी के पास ब्रिटिश सरकार का फरमान आ गया था कि हमें कांग्रेस का काम करने से रोका जाये इसलिये हम लोग बैतूल आ गये और पढ़ाई में लग गये. इस प्रकार महाराष्ट्र से शुरू हुआ शिक्षा का क्रम मंडला, जबलपुर होता हुआ बैतूल आ गया. जुलाई 1947 में बाबू जी का तबादला जबलपुर हो गया और शिक्षाक्रम जबलपुर में चला आया. 1950 में हमने मेट्रिकुलेशन पास किया जिसे अब हायर सेकेंडरी कहते हैं. 1951 में विवाह हो गया. जबलपुर आकर हमने हिंदी साहित्य सम्मेलन से हिंदी साहित्य रत्न और संस्कृत विशारद किया. 1951 से शिक्षा का क्रम टूटा और बाल बच्चे, गृहस्थी में लग गये. 12 बरस तक अच्छी खासी घूंघट वाली बहू बने रहे, क्योंकि विवाह पुरानी जमींदारी वाले परिवार में हुआ था. 1962 में छोटी बहन आशा चंचलाबाई कॉलेज जबलपुर में व्याख्याता हो गई. अम्मा ने कहा तू भी आगे पढ़ ले. तब हमने इंटर, बी.ए. और अंग्रेजी में एम.ए. किया. 1969 में ससुर की मृत्यु से यह क्रम भी टूट गया. जमीनों का ज्ञान नहीं था. हमारा गांव कटनी के पास है, अतः हम कटनी डिग्री कॉलेज में व्याख्याता हो गये. उसके बाद 1972 में हम जबलपुर आ गये.
लक्ष्मी शर्मा : आपने वकालत की शिक्षा कब प्राप्त की?
सुधा जी : एक कहावत है कि जर, जोरू और जमीन के मुकदमे होते हैं. जर का अर्थ रक्त संबंध, जोरू तथा जमीन तो आम शब्द हैं. अतः हमें न्यायालय के चक्कर काटने पड़े. हमारे बाबू जी सेवानिवृत्त हो चुके थे और महाराष्ट्र मैहर के दीवान थे. उनके साथ राजा मैहर के मुदकमें देखा करते तो बाबू जी ने हमारी कानून पर पकड़ देखी तो बोले- ‘सुधा तू लॉ कर ले और वकालत में आ जा.’ बस एक एक दिन की पढ़ाई कर हम 1976 में बाकायदा अधिवक्ता बन गये और आज तक हैं.
लक्ष्मी शर्मा : आपकी प्रथम रचना कब प्रकाशित हुई?
सुधा जी : हमारी अम्मा भी लिखती थीं. भजन लिखकर गाती थीं. हमारे यहां मेरे जन्म के पूर्व से हारमोनियम और कैमरा था. अम्मा घर में ही फोटो प्रिंट करती थीं. वे बहुत चतुर थीं. हमारी अम्मा से ही हमें लेखन की प्रेरणा मिली. सन् 1941 में मात्र 9 वर्ष की आयु में हमारी कविता तितली तत्कालीन बाल पत्रिका बालसखा (इलाहाबाद) से प्रकाशित हुई. फिर तो लिखने का क्रम चल निकला.
लक्ष्मी शर्मा : आपको साहित्य लेखन की प्रेरणा कहां से मिली?
सुधा जी : अम्मा कांग्रेस का काम करती थीं अतः सुभद्राकुमारी चौहान से परिचय हुआ और हमारी लेखनी निखरती गई. सुभद्राजी के सान्निध्य में ही ‘आजादी’ ‘गुलामी’ जैसे शब्दों ने हमारे दिमाग में प्रवेश किया.
लक्ष्मी शर्मा : भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की कुछ स्मृतियां जो आपको याद हों, बताइये?
सुधा जी : हमारी दादी का जन्म 1855 का था, वे हमें गदर के किस्से सुनाती थीं. 1942 का वह अगस्त आंदोलन आज भी नहीं भूलता. जबलपुर कोतवाली के आसपास बहुत सी गलियां जो आज भी हैं इन्हीं में से एक गली स्कूल जाती थी. स्कूल में हमने कुएं की जगत पर खड़े होकर भाषण दिया. तब हम मात्र 10-11 साल के थे. ‘हमें अंग्रेजों की गुलामी नहीं करना, हमें अंग्रेजी नहीं पढ़ना’ और मालूम नहीं क्या-क्या. पुलिस आ गई तो एक लड़की रोने लगी तो हमने सभा बर्खास्त कर दी. फिर बाहर निकले तो स्कूल के पास वाला लेटर बॉक्स उखाड़ने लगे पर वह नहीं उखड़ रहा था. तभी कुछ क्रांतिकारी आये और बोले- ‘बेबी, इसे हम उखाड़ देंगे. हम घर की ओर बढ़े तो देखा गली के बच्चे कोतवाली की सलाखों के बीच से मुंह निकाल कर काली कुतिया तू तू तू कह रहे थे. उस समय हम लोग देसी पुलिस को काली कुतिया कहते थे. हमने नारेबाजी शुरू कर दी, शाम तक यह आंदोलन चला. यह भोगा हुआ यथार्थ है. आजादी का यह मंजर था कि बच्चा-बच्चा जाग गया था और आज इस माहौल में सांस ले रहे हैं. इस उच्छृंखल आजादी की हमारी पीढ़ी ने कल्पना भी नहीं की थी. अब जितनी सांसें भगवान ने दी हैं वह तो लेनी ही पड़ेंगी.
लक्ष्मी शर्मा : आपने मानवाधिकार एवं महिलाओं के हित के लिये कानून की जो कृतियां लिखी हैं उनके बारे में बतलाइये?
सुधा जी : महादेवी जी 1975 में रानी दुर्गावती की मूर्ति का अनावरण करने के लिये जबलपुर पधारीं. वे अम्मा की बहन होती थीं. इसलिए हम लोग उन्हें मौसी कहते थे. स्व. नर्मदा प्रसाद खरे के निवास पर नगर की साहित्यकार महिलायें उनसे मिलने गईं. वे किसी मुस्लिम महिला पर अत्याचार से दुःखी थीं. हमें देखते ही बोल पड़ीं- ‘सुधा, वकील होकर तू क्या कर रही है?’ और आज तक ये शब्द कानों में गूंज रहे हैं. इलाहाबाद जाना हुआ तो मनोरमा के संपादक से मुलाकात की और मनोरमा में कानूनी कालम की चर्चा की. अमरकांत जी ने कहा- ‘मैडम, अभी महिलाओं में इतनी जागृति नहीं है कि वे अपनी पीड़ा की अभिव्यक्ति दें. अतः पहले कुछ अंकों में आप प्रश्न और उत्तर दोनों दें.’ हमारे इस कालम का खूब प्रसार हुआ और देश भर से प्रश्न आने लगे. एक पत्र दिल्ली से आया जो कि बहुत ज्यादा पीड़ित थी. हमारा उत्तर प्रकाशित हो तब तक उसने आत्महत्या ही कर ली. उसकी भाभी का पत्र आया कि- ‘यदि उत्तर समय पर मिल जाता तो उसकी ननद आत्महत्या न करती.’ बस मुझे इतनी ग्लानि हुई कि हमने कालम बंद कर दिया. फिर सुमित्र जी ने नवीन दुनिया में ‘समाधान’ नाम से हमारा कॉलम निकाला. तभी उपभोक्ता संरक्षण कानून आया और हमें बिना प्रयास के ही मानदेय सदस्य नियुक्त किया गया. अपने 5 वर्ष के कार्यकाल में हजारों फैसले दिये. भास्कर में भी अनेक कानूनी लेख आये, तभी हम भारतीय सामाजिक विज्ञान परिषद की सुप्रीम कोर्ट के केस फाइल करने दिल्ली जाते ही थे. अतः संपर्क किया और पहली शोध परियोजना ‘भारत में महिलाओं की स्थिति, विधि प्रदत्त अधिकार, उन पर व्यवहारिकता संशोधन हेतु सुझाव’ इसका पहला संस्करण 1993 में प्रकाशित हुआ और अब तक 3 संस्करण भारत भर की बड़ी लाइब्रेरियों में देखे जा सकते हैं. 1993 में ही उपभोक्ता संरक्षण कानून आया और हमने ‘उपभोक्ता संरक्षण’ एक किताब लिख डाली जिसे भारत सरकार का पुरुस्कार मिला और कालांतर में इस विषय पर एक पुस्तक अंग्रेजी तथा एक और हिंदी में इस प्रकार तीन पुस्तकें आईं. भास्कर पत्र में भी कॉलम चलता रहा.
‘1998 में वर्ड एसोसिएशन फॉर वैदिक स्टडीज’ के सम्मेलन में यू.एस.ए. जाना पड़ा. लौटते में 4-5 दिन हम लंदन रुके और इंडिया हाउस में अपने भारतीय मित्र स्व. एम. एल. सिंघवी जी से इंडिया हाउस में मिले. उन्होंने बड़ा सा गोल बोर्ड दिखाया जिसमें 12 खाने थे. जिसमें 3-3 तोले सोने के विश्व के 12 धर्मों के प्रतीक थे. जब हमने विभिन्न धर्मों का साहित्य पढ़ा तो पाया कि हिंदी को छोड़कर बाकी सब धर्म मानवता की बात करते हैं पर मानवाधिकार की बात तो हमारे यहां पर वेदों से है. कामाधिकार, मोक्षाधिकार आदि बस शोध प्रारंभ हो गया और एक शोध परियोजना ‘महिला उत्पीड़न और मानवाधिकार’ सहित 5 पुस्तकें आईं. अंग्रेजी में ‘वीमन इन इंडिया’, ‘महिलाओं के प्रति अपराध’, ‘मानवाधिकार’, ‘महिला शोषण और मानवाधिकार’, ‘भारत में मानवाधिकार की अवधारणा’, ‘महिला उत्पीड़न और वैधानिक उपचार’ आई. यही आने वाली पीढ़ी के लिये हमारी सौगात है. अंग्रेजी में पढ़ना और हिंदी में लिखना कठिन कार्य है फिर कानून जैसा विषय?
लक्ष्मी शर्मा : आपकी साहित्यिक कृतियों के विषय में बतलाइये.
सुधा जी : पहला व्यंग संग्रह ‘वकील का खोपड़ा’ की पांडुलिपि लेकर जब हम परसाई जी से भूमिका लिखवाने गये तो परसाई जी ने कहा- ‘मैडम, मैं वकील तो हूं नहीं, पर आपने जो विषय चुना है उस पर भारत का कोई माई का लाल लिखने की हिम्मत नहीं कर सकता.’ यह संग्रह 1986 में आया था और इसका विमोचन मदनमहल किले पर स्व. चंद्रप्रभा पटेरिया ने किया था. इसकी प्रति लेकर हम डॉ. रामकुमार वर्मा, जो हमारे मामा ससुर थे, के पास गये तो वे बोले-‘बहू, तुम हमारे परिवार का गौरव हो.’ कानून के साथ व्यंग लिखना भी चलता रहा. कालांतर में 1993 में ‘दिमाग के पांव’ आया. हमारी अम्मा का व्यंग ‘हम शरीफ’ 1940 में इलाहाबाद से निकलने वाली पत्रिका में प्रकाशित हुआ था. अतः हमारा तीसरा व्यंग संग्रह ‘दिमाग में बकरा युद्ध’ 2004 में उनकी जन्मशताब्दी पर समर्पित किया. चौथा ‘दिमाग की खुराफात’ है.
लक्ष्मी शर्मा : 16.12.2012 को दिल्ली में घटी सामूहिक बलात्कार की घटना जिसने समूचे देश को हिला दिया. ऐसी घटनाओं में न्याय पाने पीड़िता के वर्षों लग जाते हैं, त्वरित कानून के लिये क्या परिवर्तन होने चाहिये? नवयुवतियों को सुरक्षा देने के लिये आप क्या संदेश देना चाहती हैं?
सुधा जी : तुमने लक्ष्मी हमारी दुखती रग छू दी है. हमारे प्रयासों को सार्थकता नहीं मिली. जिस आजादी की हमने कल्पना की थी कि भारत की व्यवस्था हमारे हाथ आपने पर सुधरेगी परंतु उच्छृंखल स्वतंत्रता ने सारा सामाजिक ढांचा कलुषित कर दिया. जब सारे कुएं में भांग पड़ी है और कामदेव का पुर्नजन्म हो गया है तो हमारा मौन रहना ही ठीक है. इसी कुंठा को लेकर हम जायेंगे कि हम कुछ न कर पाये, केवल गाल बजाते रहे, पर हम आशावादी हैं. रात के बाद सुबह आती है, गर्मी के बाद सर्दी आती है, यह प्रकृति की कानून है जो अक्षुण्ण है अतः वह दिन जरूर जायेगा जब भारत की महिलायें विश्व की श्रेष्ठ महिलायें कहलायेंगी. कालांतर में विचार धाराएं प्रबल परिपक्व होंगी. भारतीय महिलायें बुद्धिमती, चतुरमती कालांतर से रही हैं, वे अपनी परंपरा वापस लायेंगी, बस लक्ष्मी बोलते-बोलते थक गई हूं.
लक्ष्मी शर्मा : दीदी आपका बहुत-बहुत आभार मानती हूं. आपने अपना समय दिया और अपने कार्यों पर प्रकाश डाला. आपसे महिलाओं को प्रेरणा लेना चाहिए.
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संपर्क : 1020, शक्ति नगर,
गुप्तेश्वर रोड, जबलपुर, म.प्र.
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