प्रविष्टि क्र. 113 हिंसाप हेमन्त बावनकर ‘ हिंसाप ’ ! कैसा विचित्र शब्द है ; है न ? मेरा दावा है की आपको यह शब्द हिन्दी के किसी भी शब्दकोश ...
प्रविष्टि क्र. 113
हिंसाप
हेमन्त बावनकर
‘हिंसाप’! कैसा विचित्र शब्द है; है न? मेरा दावा है की आपको यह शब्द हिन्दी के किसी भी शब्दकोश में नहीं मिलेगा। आखिर मिले भी कैसे? ऐसा कोई शब्द हो तब न। खैर छोड़िए, अब आपको अधिक सस्पेंस में नहीं रखना चाहिये। वैसे भी अपने-आपको परत-दर-परत उघाड़ना जितना अद्भुत होता है उतना ही शर्मनाक भी होता है। आप पूछेंगे कि- “हिंसाप की चर्चा के बीच में अपने-आपको उघाड़ने का क्या तुक है? मैं कहता हूँ तुक है भाई, ‘हिंसाप’ जैसे शब्द के साथ तुक होना सर्वथा अनिवार्य है। आखिर हो भी क्यों न; ‘हिंसाप’ की नींव जो ‘हमने’ रखी है? आप सोचेंगे कि ‘हिंसाप’ की नींव हमने क्यों रखी? चलिये आपको सविस्तार बता ही दें।
फिर आपने तो हमारी पुरानी दुखती रग पर हाथ रख दिया। यह संस्मरण कोई अस्सी के दशक के आसपास का है। हमारे विभाग में राजभाषा के प्रचार-प्रसार के लिये विभागीय स्तर पर प्रतियोगिताओं का आयोजन किया गया था। साहित्य में रुचि होने के कारण मैंने भी प्रतियोगिता में भाग लिया। पुरस्कार भी प्राप्त किया। किन्तु, साथ ही ग्लानि भी। ग्लानि होना स्वाभाविक था क्योंकि प्रतियोगिता, प्रतियोगिता के तौर पर आयोजित ही नहीं हुई थी। क्योंकि, प्रतियोगिता विभागीय स्तर की थी तो निर्णायक का किसी विभाग का अधिकारी होना भी स्वाभाविक था, बेशक निर्णायक को हिन्दी साहित्य का ज्ञान हो या न हो। फिर, जब निर्णायक अधिकारी हो तो स्वाभाविक है कि पुरस्कार भी किसी अधिकारी को भी मिले, चाहे वह ‘हिन्दी’ शब्द का उच्चारण ‘इंदी’ या ‘इंडी’ ही क्यों न करे। अब आप सोच रहे होंगे कि मुझे पुरस्कार इसलिए मिला होगा क्योंकि मैं अधिकारी हूँ? आप क्या कोई भी यही सोचेगा। किन्तु, मैं आपको स्पष्ट कर दूँ कि मैं कोई अधिकारी नहीं हूँ। अब मुझे यह भी स्पष्ट करना पड़ेगा कि- जब मैं अधिकारी नहीं हूँ तो फिर मुझे पुरस्कार क्यों मिला? इसका एक संक्षिप्त उत्तर है ‘स्वार्थ’। वैसे तो यह उत्तर है किन्तु आप इसका प्रयोग प्रश्न के रूप में भी कर सकते हैं। फिर मेरा नैतिक कर्तव्य हो जाता है कि मैं इस प्रश्न का उत्तर दूँ।
चलिये अब आप को पूरा किस्सा सुना ही दिया जाए। हुआ यूँ कि- प्रतियोगिता के आयोजन के लगभग छह-सात माह पूर्व वर्तमान निर्णायक महोदय जो किसी विभाग के विभागीय अधिकारी थे उनके संदेशवाहक ने बुलावा भेजा कि- साहब आपको याद कर रहे हैं। मेरे मस्तिष्क में विचार आया कि भला अधिकारी जी को मुझसे क्या कार्य हो सकता है? क्योंकि न तो वे मेरे अनुभागीय अधिकारी थे और न ही मेरा उनसे दूर-दूर तक कोई व्यक्तिगत या विभागीय संबंध था। खैर, जब याद किया तो मिलना अनिवार्य लगा।
अधिकारी जी बड़ी ही प्रसन्न मुद्रा में थे। अपनी सामने रखी फाइल को आउट ट्रे में रखते हुये मेरी ओर मुखातिब हुए “सुना है, आप कुछ लिखते-विखते हैं? मैंने झेंपते हुए कहा- “जी सर, बस ऐसे ही कभी-कभार कुछ पंक्तियाँ लिख लेता हूँ।“
शायद वार्तालाप अधिक न खिंचे इस आशय से वे मुख्य मुद्दे पर आते हुए बोले- “बात यह है कि इस वर्ष रामनवमी के उपलक्ष में हम लोग एक सोवनियर (स्मारिका) पब्लिश कर रहे हैं। मेरी इच्छा है कि आप भी कोई आर्टिकल कंट्रीब्यूट करें।“
उनकी बातचीत में अचानक आए अङ्ग्रेज़ी के पुट से कुछ अटपटा सा लगा। मैंने कहा- “मुझे खुशी होगी। वैसे स्मारिका अङ्ग्रेज़ी में प्रकाशित करवा रहे हैं या हिन्दी में?” वे कुछ समझते हुए संक्षिप्त में बोले – “हिन्दी में।“
कुछ देर हम दोनों के बीच चुप्पी छाई रही। फिर मैं जैसे ही जाने को उद्यत हुआ, उन्होने आगे कहा- “आर्टिकल हिन्दी में हो तो अच्छा होगा। वैसे उर्मिला से रिलेटेड बहुत कम आर्टिकल्स अवेलेबल है। मैंने उठते हुए कहा- “ठीक है सर, मैं कोशिश करूंगा।“
फिर मैंने कई ग्रंथ एकत्रित कर एक सारगर्भित लेख तैयार किया “उर्मिला – एक उपेक्षित नारी”।
कुछ दिनों के पश्चात मुझे स्मारिका के अवलोकन का सुअवसर मिला। लेख काफी अच्छे गेटअप के प्रकाशित किया गया था। आप पूछेंगे कि फिर मुझे अधिकारी जी से क्या शिकायत है? है भाई, मेरे जैसे कई लेखकों को शिकायत है कि अधिकारी जी जैसे लोग दूसरों की रचनाएँ अपने नाम से कैसे प्रकाशित करवा लेते हैं? अब आप इस प्रक्रिया को क्या कहेंगे? बुद्धिजीवी होने का स्वांग रचाकर वाह-वाही लूटने की भूख या शोषण की प्रारम्भिक प्रक्रिया। थोड़ी देर के लिए मुझे लगा कि ‘उर्मिला’ ही नहीं मेरे जैसे कई लेखक उपेक्षित हैं। यह अलग बात है कि हमारी उपेक्षाओं का अपना अलग दायरा है। अब यदि आप चाहेंगे कि ‘स्वार्थ’ और ‘उपेक्षित’ को और अधिक विश्लेषित करूँ तो क्षमा कीजिये, मैं असमर्थ हूँ।
शायद अब आपको ‘हिंसाप’ के बारे में कुछ-कुछ समझ में आ रहा होगा। यदि न आ रहा हो तो तनिक और धैर्य रखें। हाँ, तो मैं आपको बता रहा था कि- मैंने और शर्मा जी ने ‘हिंसाप’ की नींव रखी। वैसे मैं शर्मा जी से पूर्व परिचित नहीं था। मेरा उनसे परिचय उस प्रतियोगिता में हुआ था जो वास्तव में प्रतियोगिता ही नहीं थी। मैंने अनुभव किया कि उनके पास प्रतिभा भी है और अनुभव भी। यह भी अनुभव किया कि हमारे विचारों में काफी हद तक सामंजस्य भी है। हम दोनों मिलकर एक ऐसे मंच की नींव रख सकते हैं जो ‘हिंसाप’ के उद्देश्यों को पूर्ण कर सके। अब आप मुझ पर वाकई झुँझला रहे होंगे कि- आखिर ‘हिंसाप’ है क्या बला? जब ‘हिंसाप’के बारे में ही कुछ नहीं मालूम तो उद्देश्य क्या खाक समझ में आएंगे? आपका झुँझला जाना स्वाभाविक है। मैं समझ रहा हूँ कि अब आपको और अधिक सस्पेंस में रखना उचित नहीं। चलिये, अब मैं आपको बता दूँ कि ‘हिंसाप’ एक संस्था है। अब तनिक धैर्य रखिए ताकि मैं आपको ‘हिंसाप’ का विश्लेषित स्वरूप बता सकूँ। फिलहाल आप कल्पना कीजिये कि- हमने ‘हिंसाप’ संस्था की नींव रखी। उद्देश्य था नवोदित प्रतिभाओं को उनके अनुरूप एक मंच पर अवसर प्रदान करना और स्वस्थ वातावरण में प्रतियोगिताओं का आयोजन करना, जिसमें किसी ‘पक्षपात’ का अस्तित्व ही ना हो।
कई गोष्ठियाँ आयोजित कर प्रतिभाओं को उत्प्रेरित किया। उन्हें ‘हिंसाप’ के उद्देश्यों से अवगत कराया। सबने समर्पित भाव से सहयोग की आकांक्षा प्रगट की। हमने विश्वास दिलाया कि हम एक स्वतंत्र विचारधारा की विशुद्ध साहित्यिक पत्रिका भी प्रकाशित करना चाहते हैं, जो निष्पक्ष और बेबाक हो तथा जिसमें नवोदितों को उचित स्थान मिले। सब अत्यंत प्रसन्न हुए। सबने वचन दिया कि वे तन-मन से सहयोग देंगे। किन्तु, धन के नाम पर सब चुप्पी साध गए। भला बिना अर्थ-व्यवस्था के कोई संस्था चल सकती है? खैर, ‘हिंसाप’ की नींव तो हमने रख ही दी थी और आगे कदम बढ़ाकर पीछे खींचना हमें नागवार लग रहा था।
‘हिंसाप’ के अर्थ व्यवस्था के लिए शासकीय सहायता की आवश्यकता अनुभव की गई। संस्थागत हितों का हनन न हो अतः यह निश्चय किया गया कि विभागीय सर्वोच्च अधिकारी को ‘संरक्षक’ पद स्वीकारने हेतु अनुरोध किया जाए। इस संदर्भ में प्रशासनिक अधिकारियों के माध्यम से विभागीय सर्वोच्च अधिकारी को अपने विचारों से अवगत कराया गया। विज्ञापन व्यवस्था के तहत आर्थिक स्वीकृति तो मिल गई किन्तु, ‘हिंसाप’ को इस आर्थिक स्वीकृति की भारी कीमत चुकानी पड़ी। एक पवित्र उद्देश्यों पर आधारित संस्था में शासकीय तंत्र की घुसपैठ प्रारम्भ हो गई और विशुद्ध साहित्यक पत्रिका की कल्पना मात्र कल्पना रह गई जिसका स्वरूप एक विभागीय गृह पत्रिका तक सीमित रह गया। फिर किसी भी गृह पत्रिका के स्वरूप से तो आप भी परिचित हैं। इस गृह पत्रिका में अधिकारी जी जैसे लेखकों की रचनाएँ अच्छे गेट अप में सचित्र और स्वचित्र अब भी प्रकाशित होती रहती हैं।
इस प्रकार धीरे धीरे अधिकारी जी ने ‘हिंसाप’ की गतिविधियों में सक्रिय भाग लेकर अन्य परिचितों, परिचित संस्थाओं के सदस्यों, चमचों के प्रवेश के लिए द्वार खोल दिये। फिर उन्हें महत्वपूर्ण पदों पर बैठा कर ‘हिंसाप’ की गतिविधियों में हस्तक्षेप करने का सर्वाधिकार सुरक्षित करा लिया। हम इसलिए चुप रहे क्योंकि वे विज्ञापन-व्यवस्था के प्रमुख स्त्रोत थे।
जब अर्थव्यवस्था सुदृढ़ हो गई तो कई मौकापरस्त लोगों की घुसपैठ प्रारम्भ हो गई। पहले जो लोग तन-मन के साथ धन सहयोग पर चुप्पी साध लेते थे आज वे ही सक्रिय कार्यकर्ताओं का स्वांग रचा कर संस्था के आर्थिक विश्लेषण की ऊंची-ऊंची बातें करने लगे। अध्यक्ष और अन्य विशेष पदों पर अधिकारियों ने शिकंजा कस लिया। और शेष पदों के लिए कार्यकर्ताओं को मोहरा बना दिया गया। फिर, वास्तव में शुरू हुआ शतरंज का खेल।
हमें बड़ा आश्चर्य हुआ कि- शासकीय तंत्र के घुसपैठ के साथ ही ‘हिंसाप’ अतिसक्रिय कैसे हो गई? लोगों में इतना उत्साह कहाँ से आ गया कि वे ‘हिंसाप’ में अपना भविष्य देखने लगे। कर्मचारियों को उनकी परिभाषा तक सीमित रखा गया और अधिकारियों को उनके अधिकारों से परे अधिकार मिल गए या दे दिये गए। इस तरह ‘हिंसाप’ प्रतिभा-युद्ध का एक जीता जागता अखाड़ा बन गया।
सच मानिए, हमने ‘हिंसाप’ की नींव इसलिए नहीं रखी थी कि- संस्थागत अधिकारों का हनन हो; प्रतिभाओं का हनन हो? उनकी परिश्रम से तैयार रचनाओं का कोई स्वार्थी अपने नाम से दुरुपायोग करे? विश्वास करिए, हमने ‘हिंसाप’ का नामकरण काफी सोच विचार कर किया था। अब आप भी देखिये न ‘हिंसाप’ का उच्चारण ‘इंसाफ’ से कितना मिलता जुलता है? अब जिन प्रतिभाओं के लिए ‘हिंसाप’ की नींव रखी थी उन्हें ‘इंसाफ’ नहीं मिला, इसके लिए क्या वास्तव में हम ही दोषी हैं? खैर, अब समय आ गया है कि मैं ‘हिंसाप को विश्लेषित कर ही दूँ।
परत-दर-परत सब तो उघाड़ चुका हूँ। लीजिये अब आखिरी परत भी उघाड़ ही दूँ कि- ‘हिंसाप’ का विश्लेषित स्वरूप है ‘हिन्दी साहित्य परिषद’। किन्तु, क्या आपको ‘हिंसाप’ में ‘हिंसा’ की बू नहीं आती? आखिर, किसी प्रतिभा की हत्या भी तो हिंसा ही हुई न? अब चूंकि, हमने ‘हिंसाप’ को खून पसीने से सींचा है अतः हमारा अस्तित्व उससे कहीं न कहीं, किसी न किसी आत्मीय रूप से जुड़ा रहना स्वाभाविक है। किन्तु, विश्वास मानिए अब हमें ‘हिंसाप’, ‘हिन्दी साहित्य परिषद’ नहीं अपितु, ‘हिंसा परिषद’ लगने लगी है।
यह कहानी मात्र ‘हिन्दी साहित्य परिषद’ की ही नहीं अपितु कई साहित्य और कला अकादमियों की भी लगने लगी है। आपका क्या विचार है? शायद, आपका कोई सुझाव ‘हि. सा. प.’ को ‘हिंसा. प.’ के ‘हिसाब’ से बचा सके?
- हेमन्त बावनकर, पुणे, (महाराष्ट्र)
COMMENTS