प्रविष्टि क्र. 111 दुख और मृत्यु के संघर्ष से अछूता नहीं रहा मेरा बचपन (संस्मण- मेरे जीवन की घटना पर आधारित) आत्माराम यादव (पीव) बात 197...
प्रविष्टि क्र. 111
दुख और मृत्यु के संघर्ष से अछूता नहीं रहा मेरा बचपन
(संस्मण- मेरे जीवन की घटना पर आधारित)
आत्माराम यादव (पीव)
बात 1970 की है तब हमारा एक संयुक्त परिवार था जिसमें सबसे बुजुर्ग दादी माँ मुखिया थी और मेरे पिताजी माता जी हम सभी भाई-बहिन, बडे पापा-बडी अम्मा उनके सभी बच्चे सहित मझले दादा दादी मजदूरी कर गरीबी में जीते थे। बडी अम्मा एक सम्पन्न पटेल के घर सुबह शाम गाय दुहने, गोशाला साफ कर कन्डे थोपने के बदले उनके घर का बचा बासा खाना लाती और हमें खिलाती थी। पिताजी घर के बाहर रहकर नौकरी करते और महीने की तनखा दादी माँ को देकर लौट जाते। जहाँ नये मकान बनते माँ वहाँ मजदूरी करती। मझले दादा बकरियां पालते थे जिन्हें वे खुद ही चराने ले जाते और दूध बेचकर काम चलाते तथा जब भी कोई बकरा कसाई खरीदकर ले जाता तब उस दिन घर में ताजी गर्म रोटियां खाने को मिलती थी। पिताजी की तनखा के दिन अगर बुआजी फूफाजी घर आ जाये तब घर में दीवाली के दिन की तरह सभी को पूडिया और खीर खाने का अवसर मिलता। काकी बजरंग बाबा के खेत पर काम करती थी। सबसे बडे भैईया शहर की सबसे बडी किराने की दुकान पर पुडिया बॉधकर सामान पैक करने का काम करते थे। तब हमारे मोहल्ले में बिजली के खम्बे लग चुके थे पर जीवन यापन के लिये लोग बिजली कनेक्शन लेने की बजाय चिमनी-लालटेन पर निर्भर थे। शादी विवाह या अन्य आयोजनों में गैसबत्ती का चलन था।
घर में कोदू, भूंजा, दाल-चावल और ज्वार की रोटी ही बनती थी। बडे दादा जी घर से एक फलांग दूर लालावाले कुये में पानी भरते समय गिर गये, जिन्हें खटोला से निकाला गया लेकिन वे बच नहीं सके और संयुक्त परिवार का एक सदस्य असमय ही चला गया। दादी अम्मा उस समय बहुत रोयी थी और उन्होंने शांत कराने मोहल्ले की कई मातायें आती थी, मुझे उनका रोना समझ नहीं आता था, बाद में पता चला कि घर के पीछे तेलीवाले कुये में चार-पांच साल पहले पानी भरने गयी एक बुआजी भी कुयें में गिरकर मर चुकी है और एक दादा जी भी गुजर चुके थे इसलिये दादी दो बेटे एक बेटी के गम में दुखी रहती थी। बडे दादा जी अपने जीवनकाल में घर पर एक चबूतरे का निर्माण कर वहाँ एक मूर्ति की स्थापना कर चुके थे जिसे आज भी सभी कुलदेवी विजयासेन के नाम से साल में दो बार खीर-पूडी से पूंजते है।
बडे भैईया 1970 से ही स्कूल के दो महिने की छुटटी में इतवारा बाजार में चमन की होटल में एक रूपये रोज कप प्लेट धोने की मजदूरी करते थे । तब इस बाजार में अस्पताल तक पक्की दुकानें नहीं थी, लोगों के टप रखे थे और सतरास्ते तक गल्ला बाजार लगता था। होशंगाबाद नगर के आसपास के लोग इतवारे बाजार में तीन चार बडी इमलियों के पेड के नीचे लगने वाले गल्ला बाजार में अपनी अपनी बैलगाडियों में अनाज लाकर बेचकर जाते थे। तब अकेला उपभोक्ता भंडार था जिसमें हजारों की सॅख्या में शहर ही नहीं अपितु आसपास के एक दर्जन से अधिक गॉवों के लोग लाईन में लगकर स्कूल की कापी-किताब, पहनने के कपडे आदि उचित मूल्य पर लेकर जाते थे। इसी बाजार में बडे भैइया होटल में कप प्लेट धोते तो मुझे बुरा लगता था। पर यह क्या, जिस दिन भैइया कहीं छुटटी पर होते तो उनकी जगह मुझे होटल में कप प्लेट धोने उनकी जगह जाना पड़ता। भैईया ने काम छोड दिया तो मुझे वहाँ 1 रूपये रोज यह काम करना होता जो मुझे कतई पसंद नहीं था।
घर से इतवारा बाजार होटल पर पहुंचने में मुझे एक घन्टा लग जाता था जिससे दुकानदार नाराज रहा करता था। उसकी नाराजी से बचने के लिये मैंने ग्वालटोली स्थित गिरधारी दादा की होटल पर कप प्लेट धोने का काम स्वीकार कर लिया। मैं सुबह 6 बजे होटल पहुंच जाता और रात गये 10 बजे तक काम करता। होटल में दो समय नास्ता और पूरे समय चाय पीने की छूट थी। नाश्ता सेठ को दिखाने के बाद मिलता था। मुश्किल तब होती जब रात को होटल से घर जाने का समय होता तभी सेठ के पिताजी गिरधारी दादा होटल के अंदर, आखरी दो बेंचों को मिलाकर अपना बिस्तर बिछाकर सो जाते और मुझे आवाज देते थोडे हाथ पैर दबा दे, मैं सेठ के पिताजी के थुलथुले शरीर पर सिर से लेकर पैरों को अपने पैरों से दबाता रहता लेकिन उनकी ओर से कभी नहीं कहा जाता कि हो गया, ऐसे कभी कभी मुझे एक घन्टे से ज्यादा हो जाता और मुझे नींद आने लगती मेरे पैर थक जाते और मैं रूक जाता तब वह चीखता चिल्लाता, गाली बकता और आलसी कहकर बेदर्दी से मुझे चिकोटी काटता था। मैं कईयों बार उसकी चिकोटी से दर्द से कराह उठता, रोता और आंसू पीकर देर से घर पहुंचता। मेरा मन करता था कि सेठ के पिताजी को मार डालूं या यह खुद मर जाये। तब यह होटल आज की तरह पक्की दीवालों की नहीं थी, लकडी के पटिये की थी और जहाँ सेठ के पिताजी सोते थे मैंने पटिये की संध चौडी कर दी थी। जिस दिन सेठ के पिताजी मुझे ज्यादा तंग करते मैंने लोहे के तारों का एक नुकीला हिस्सा पटिये की संध से सेठ के कुल्हे के पास लेजाकर गुपो देता और जैसे ही उनकी चीख निकलती मैं पूरी ताकत से भाग जाता और कभी उसके हाथ नहीं आया और वह इसका जिक्र करता कि कोई कीडा काटता होगा।
देर रात गये होटल से जब मैं अपने घर पहुंचता तो माँ मेरा इंतजार करती थी। वह पूछती कोई परेशानी तो नहीं है, मैं माँ को दुखी नहीं करके खुश होकर मना कर देता और कहता मुझे तो दिन भर आलूगोन्डा, समोसा, कचोरी, सेव, जलेबी, खाने को मिलता है। सेठ रोज एक गिलास दूध में मलाई डालकर देते हैं। माँ मेरे नन्हें नन्हें हाथों को थामती और और बिस्तर पर सोने तक सिर पर हाथ फेरती रहती, कब मेरी नींद लग जाती मुझे पता ही नहीं चलता था। माँ जब भी सुबह मेरे पास होती तो मुझे कहा करती देख लोगों की जूठन साफ करते करते तेरे हाथों की चमडी खराब हो गयी है, पानी में पैर होने के कारण तेरे पैरों की चमडी सफेद हो गयी है। बेटा तू काम छोड दे, तेरे सात रूपया हफ्ता से कोई अमीर थोडे हो जायेंगे, तेरा बडा भैईया भी है जो काम कर रहा है फिर परेशानी क्या, तू तो अपनी पढाई कर। मैं माँ से कहता कोई अच्छा काम मिलते ही होटल छोड़ दूंगा।
अगले दिन अगर में होटल नहीं पहुंच पाता तो सेठ खुद सायकल लेकर बुलाने आ जाता। पर जब कभी नींद न खुल पाने से आधा घन्टा भी लेट होता तो सेठ के बेटे मुझे डॉटते, पर उनमें उनका छोटा बेटा अच्छा था जो खुद नहीं चाहता था कि मैं ज्यादा काम करूं तब वह दिन में अनेक ऐसे ग्राहक आते जो सिर्फ पेपर की खबरें सुनने के साथ चाय पीते, ऐसे आठ दस बुजुर्ग ग्राहकों की सेवा के लिये सेठ के छोटे लड़के ने मुझे खबर पढ़कर सुनाने की जिम्मेदारी दे दी जो खुद उन्हें करनी होती थी। मुझे बुजुर्गों को खबर पढकर सुनाना अच्छा लगने लगा। वे अखबार में छपी एक-एक खबर के प्रति संवेदनशील रहा करते थे, जब भी कभी किसी घटना-दुर्घटना में किसी एक व्यक्ति की मौत की खबर आती सभी बुजुर्गों के चेहरे पर तनाव झलकता और वे आपस में उसके परिवार पर आने वाली विपत्ती को लेकर दुखी हुआ करते थे। होटल में समाचार पत्र की खबरें पढ़ने की मेरी रूचि के बाद ग्राहकों ने मुझे आल्हा उदल कथा सहित अन्य साहित्य उन्हें पढकर सुनाने की माँग बढ गयी जिसे में पूरा करता तभी बस स्टेण्ड पर पेपर की दुकान चलाने वाल हरिराम दादा ने आकर कहा, यहाँ से क्या मिलता है, चल पेपर बॉट ज्यादा कमाई होगी और बस, होटल छोडकर मैं बस स्टेण्ड पहुंच गया। यहाँ परेशान करने वाली बात यह थी कि मेरे पास सायकल नहीं थी जिससे पेपर बॉट सकूं। मैंने बस स्टेण्ड पर बसों में लस्सी और गन्ने का रस बेचने का काम शुरू कर दिया जिससे मुझे 50 पैसे में एक लस्सी बेचने पर दस पैसा कमीशन मिलता था और बीस पैसे के गन्ने के रस पर पांच पेसे प्रतिगिलास कमीशन मिलता था। दो महीने बाद ही यह काम बंद हो गया तब मैंने पिताजी के पास मिन्नत की कि आप रोज सुबह 10 बजे सायकल लेकर आफिस जाते हो अगर सुबह 9 बजे तक मुझे सायकल मिल जाये तो मैं होटल के काम से बच सकूंगा। पिताजी ने अपनी सायकल दे दी और मुझे पेपर बॉटने का काम मिल गया। यह काम मिलते ही मेरे स्वाभिमानी मन की मुराद पूरी हो गयी और मैंने शहर से दूर बसी रसूलिया और एसपीएम कालोनियों के पेपर बॉटने का काम ले लिया। एसपीएम और रसूलिया शहर से दूर होने पर आधा किलोमीटर तक कोई आवासीय क्षेत्र न होने से लोगों को वहाँ जाने में डर लगता था। ग्वालटोली से एसपीएम के पहले गेट तक कोई भी आवास नहीं था और भोपाल पुल के आसपास अपराधियों का बोलबाला रहता और यही आलम भोपाल तिराहे के थे।
बात 1978 के मार्च महीने की है। उन दिनों मैं कक्षा आठवीं में था। बोर्ड परीक्षा थी इसलिये मेहनत ज्यादा करनी होती। रामजीबाबा के सामने गोपाल होटल थी जो 24 घन्टे खुली रहती। तब गोपाल के पिताजी रात होटल पर होते और पूरे जिले के सभी समाचार पत्रों के बंडल इसी होटल पर उतरते जहाँ से अलग अलग बंडल बनाकर अलग अलग बसों में रखा जाता था। इस होटल में रात दो बजे के बाद से अखबारों के बंडल आना शुरू हो जाते। अगले दिन कक्षा आठवीं में गणित का पेपर था इसलिये मैं चाहता था कि जल्द पेपर बांट दूं। मैं सारी रात गणित करता रहा और साढे तीन बजे पेपर के बडंल उठाने गोपाल होटल पहुंच गया। गोपाल के पिताजी ने कहा तुम जल्दी क्यों आये हो तुम्हें तो एसपीएम और रसूलिया जाना होता है जहाँ इतनी रात को जाना तुम्हारे जीवन के लिये खतरा हो सकता है, सुबह 6 बजे आना। मैंने परीक्षा की बात बतलाई तो उन्होंने नाराज होते पेपर दे दिये। मैं सायकल में पेपर बॉधकर 15 मिनिट में ही भोपाल पुल के नीचे एसपीएम की ओर गुजरा। वहाँ खूब अंधेरा था और बिजली के खम्बे की लाईट बंद दी। भोपाल पुल के नीचे एसपीएम जाने वाली पुलिया के पास अंधेंरे में दो टृक खडे दिखे, जहाँ तीन चार आदमी की काली छाया भी दिखी। जैसे ही तेजी से घुमावदार सडक को मैं सायकल से पार कर इस पुलिया के पास पहुंचा तो वहाँ दो टृक खडे थे और तब एक व्यक्ति ने सिगरेट सुलगाने के लिये माचिस की तीली जलाई, मैं माचिस की तीली से निकले प्रकाश में दिखे नजारे से स्तब्ध रह गया, दो व्यक्ति किसी एक व्यक्ति के गले में फन्दा डाले नाले में उसे फेंक रहे थे और दो लोग नाले की ओर झुककर देख रहे थे। तीली बुझते ही अंधेरा हुआ और उनमें से अचानक एक व्यक्ति का ध्यान मेरी ओर गया और वह अपने साथियों से बोला, इसने देख लिया है, इसे पकड़ लो, जाने मत दो। उनकी बात सुनकर मैं पूरी ताकत से एसपीएम की ओर सायकल से भागा, तब मेरे पीछे मुझे पकड़ने के लिये दो लोग भी भागे, तब मैं थोडे ही आगे पहुंचा तो पाया कि कुछ कुत्तों की तेज भोंकने की आवाज के कारण उनकी दौड पर कुछ विराम लग गया जो बिलकुल मेरे करीब आने को है और मैं उनकी पकड़ में आसानी से आ जाता। मन ही मन जय जय काली बुदबुदाते हुये मैं कुत्तों के भोंकने की आवाज का सहारा मिलते ही उनकी पकड़ से आगे निकल गया और ऐसे लगा जैसे स्वयं परमात्मा के भेजे दूत बनकर कुत्तों ने मुझे बचा लिया हो। जैसे ही एसपीएम का पहला गेट आया,मुझे वहाँ सीआईएसएफ का जवान तैनात दिखते ही हिम्मत आयी, मैंने एक ही सांस में सारी बात उसे बता दी। उसने कहा तुम अंदर हमारे मेस में बने हेडआफिस में जाकर रूक जाना, हमारे डयूटी इंचार्ज माथुर साहब को कह देता हूं। मेरी सांसें फूल गयी थी, जैसे शरीर में प्राण ही न बचे हो, मौत को इतने करीब से पहली बार देखा था, अगर जरा सी चूक हो जाती और मैं उनके हाथों पकडा जाता तो निश्चित ही मौत तय थी। कभी न भूल पाने वाले इस दृश्य की एक झलक के बाद मेरा शरीर जवाब दे चुका था, मैं अंदर से भयभीत था, कांप रहा था, कांपते हुये शरीर के साथ पैरों ने जवाब दे दिया था ओर वे भी आगे बढ़ने में असमर्थ दिखे। मैंने देखा जिधर से मैं अपनी जान बचाकर आया,उधर से तीन लोग पैदल आ रहे थे, कुत्तों की आवाज थम गयी थी। तब सीआईएसएफ जवान ने मुझे धराशायी जानकर फोन कर कमाण्डेट के बंगले पर तैनात दो जवानों को बुला लिया, एक जबाव मेरी सायकल लेकर चला गया और जवान मुझे अपने अधिकारी के पास ले गया।
डयूटी पर तैनात सीआईएसएफ के उस अधिकारी ने मुझे कहा कि हम तुम्हें हमारी गाडी से घर छुड़वा देते हैं, बिना किसी को बताये अपना पेपर देना। उन्होंने सलाह भी दी कि अब सुबह होने के बाद ही पेपर बॉटने आना ओर विशेषकर एक दो सायकल वाले आये तो उनके बीच में आना, ध्यान रखना मामला तूल पकड़ने पर ये लोग तुम्हारी खोज कर सकते हैं और तुम्हें खतरा हो सकता है। उन्होंने मेरे बताये स्थान पर चार जवानों को भेजा तब उन्होंने आकर बताया कि अब कोई टृक वहां खडे नहीं है। दिन निकलते ही सुबह पता चला कि उस नाले में एक व्यक्ति की लाश मिली। भीड जुटी, पुलिस आयी, पंचनामा बना, उस अज्ञात लाश का पता नहीं मिल सका। इस घटना ने मुझे अंदर तक झिंझोड़ कर रख दिया ओर मैं अन्चाहे बुखार का रोगी हो गया, पन्द्रह दिन तक मेरे मित्र सुनील ने पेपर बॉटे तब मैं सामान्य हो सका। तब मैंने एसपीएम रसूलिया के पेपर बॉटने का काम मेरे दो स्कूल सहपाठी शंकर और दीपक को दे दिया। आज भी बचपन में तेज रफतार सायकल चलाकर दो लोगों के क्रूर पंजों के रूप में अपनी और बढ रही मौत की याद आते ही मन कांप जाता है और जिस तरह सीआईएसएफ के अधिकारी श्री माथुर ने तत्परता दिखाकर मुझे सुरक्षित रखते हुये डयूटी निभाई,उनके प्रति मन श्रद्धा से नतमस्तक हो जाता है, जिनकी अनुकम्पा से बचपन में खुद को बचा सका।
आत्माराम यादव (पीव) पत्रकार
द्वारकाधीश मंदिर के सामने,
नामदेव निवास, जगदीशपुरा वार्ड
वार्ड नंम्बर-2, होशंगाबाद म.प्र.
बहुत कष्टों और संघर्षों से गुजरा है बचपन ।सटीक चित्रण जैसे कल की बात हो ।
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