प्रविष्टि क्र. : 81 कहाँ-कहाँ पर मुझको कितना पीना पड़ा गरल डॉ0 हरिश्चन्द्र शाक्य, डी॰लिट्॰ फरवरी 1999 की बात है। मैं श्री चित्रगुप्त स्नातक...
प्रविष्टि क्र. : 81
कहाँ-कहाँ पर मुझको कितना पीना पड़ा गरल
डॉ0 हरिश्चन्द्र शाक्य, डी॰लिट्॰
फरवरी 1999 की बात है। मैं श्री चित्रगुप्त स्नातकोत्तर महाविद्यालय मैनपुरी का संस्थागत छात्र था। मेरा जीवन विसंगतियों भरा रहा है। मुझे सन् 1984 में एम०ए० की परीक्षा पास कर लेनी थी किन्तु जब मैं इण्टर में था तब मुझ पर अचानक दुख का इतना बड़ा पहाड़ टूट पड़ा जिससे मेरी सारी पढ़ाई लिखाई बीच में ही छूट गयी और विपत्तियों के अथाह सागर में डूबता उतराता रहा। जीवन के तमाम उतार चढ़ाव देख लेने के बाद मैंने अपनी अधूरी शिक्षा को पूरा करने की ठान ली थी। सन् 1983 में मैंने व्यक्तिगत छात्र के रूप में इण्टरमीडिएट परीक्षा पास कर ली थी उसके बाद मैं बहुत कोशिश करने के बाद भी अपनी पढ़ाई जारी न रख सका था।
फरवरी 1999 में शायद 11-12 तारीख को मेरे कॉलेज में सूचना आई कि नारायण डिग्री कॉलेज, शिकोहाबाद (फिरोजाबाद) में डॉ0 भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय से सम्बद्ध महाविद्यालय के संस्थागत छात्रों की 20 फरवरी 1999 को एक कविता प्रतियोगिता होने जा रही है। मैं अब तक एक प्रतिष्ठित साहित्यकार के रूप में स्थापित हो चुक था। राष्ट्रीय स्तर पर मैं कई बार सम्मानित भी हो चुका था। मेरी विभिन्न विधाओं की रचनायें लगभग 100 पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती थीं और आकाशवाणी से भी अनेक बार प्रसारित हो चुकी थी। मेरी रचनायें कई काव्य संकलनों एवं अभिनन्दन ग्रन्थों में भी प्रकाशित हो चुकी थी। मैं एक काव्य संकलन ‘अमर साधना’ का संपादन प्रकाशन भी कर चुका था। जिन पत्र पत्रिकाओं में रचनायें प्रकाशित हो चुकी थीं उनमें कई पत्र पत्रिकायें तो राष्ट्रीय स्तर की थीं। भले ही मेरी उम्र अधिक थी किन्तु मैं संस्थागत छात्र था इसलिए मेरी हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ0 मालती जैन को ऐसा लगा कि मुझे (हरिश्चन्द्र शाक्य को) इस प्रतियोगिता में भाग लेना चाहिए। मेरी कक्षा का एक और छात्र पृथ्वीराज सिंह चौहान भी कविता लेखन में रुचि रखता था। मैं कई दिनों से कालेज नहीं जा पाया था इसलिए मेरी विभागाध्यक्ष डॉ0 मालती जैन ने पृथ्वीराज चौहान के माध्यम से मेरे पास सूचना भिजवाई। मुझे महाविद्यालय स्तर की प्रतियोगिताओं के बारे में कतई अनुभव नहीं था इसलिए मैं सहर्ष तैयार हो गया।
मेरा कार्यक्रम जब इस कविता प्रतियोगिता में जाने का बन गया इसके बाद कुरावली में आयोजित एक विशाल आयोजन ‘हिन्दरत्न’ डॉ0 आर0डी0 वर्मा वैज्ञानिक (कनाडा अमेरिका) के अभिनन्दन समारोह में भाग लेने का निमन्त्रण पत्र मिला। इस आयोजन के आमंत्रण पत्र में मुझे मुख्य वक्तागणों में छापा गया था। बहुचर्चित नेता भगवत दास शाक्य इस आयोजन के संयोजक थे। चार पाँच साल पहले भी भगवतदास शाक्य द्वारा कुरावली में ही वैज्ञानिक डॉ0 आर0डी0 वर्मा का अभिनन्दन समारोह आयोजित किया गया था। इस आयोजन में मैंने डॉ0 वर्मा के अभिनन्दन में एक स्वागत गीत प्रस्तुत किया था जो उस दिन इतना हिट हुआ था कि सारा पण्डाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज गया था। उस आयोजन में एटा, इटावा, फर्रुखाबाद, आगरा, फिरोजाबाद आदि जिलों के लगभग 7-8 हजार श्रोता आये थे। 20 फरवरी 1999 के आयोजन में भी यही आशा थी कि लगभग दस हजार श्रोता वहाँ इकट्ठे होंगे। शिकोहाबाद की कविता प्रतियोगिता और कुरावली का अभिनन्दन समारोह दोनों एक ही समय में आयोजित होने जा रहे थे इसलिए किसी एक में ही भाग ले सकता था। मैंने यह सोचकर कि संस्थागत छात्र के रूप में मेरा अन्तिम वर्ष है फिर कभी इस रूप में मौका नहीं मिलेगा। अभिनन्दन करने के मौके तो ज़िन्दगी में बहुत मिलेंगे।
20 फरवरी को मैं और मेरा सहपाठी पृथ्वीराज सिंह चौहान मन में ढेर सारा उत्साह लेकर कविता प्रतियोगिता में भाग लेने निकल पड़े। मेरी हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ0 मालती जैन भी मेरे साथ गयीं। चूँकि मैं वास्तविक कवि था इसलिए मुझे पूरा विश्वास था कि प्रथम पुरस्कार मुझे ही प्राप्त होगा। पृथ्वीराज सिंह चौहान भी एक नवोदित कवि था। मैं सोच रहा था कि उसने ज़रा भी साथ दे दिया तो चल वैजयन्ती भी हम लोगों को ही प्रदान की जावेगी। छात्रों की कोई प्रतियोगिता इसलिए आयोजित की जाती है कि उन्हें आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहन मिले। किन्तु आजकल छात्रों की प्रतिभा का विकास तो देखा नहीं जाता। प्रतियोगिताओं में छात्र जो कुछ प्रस्तुत करते हैं वे विचार या कवितायें किन्हीं मँजे हुए विद्वानों के लिखे हुए होते हैं। मैंने अनेक छात्र-छात्राओं को अपने एक वयोवृद्ध साहित्यकार मित्र के पास वाद विवाद प्रतियोगिताओं हेतु विचार लिखाने के लिए कविता प्रतियोगिताओं के लिए कवितायें लिखाने के लिए आते देखा था। मेरे वह मित्र इतने उदार थे कि कोई अपने नाम से कहीं छपवाने हेतु कोई लेखादि की माँग करे तो वे सहर्ष दे देते थे।
सही समय पर हम लोग नारायण डिग्री कॉलेज शिकोहाबाद पहुँचे। वहाँ प्रतियोगिता दो चरणों में थी। पहले चरण में कविता प्रतियोगिता तथा दूसरे में वाद विवाद प्रतियोगिता थी। कविता प्रतियोगिता के संयोजक भी विपिन कुमार चतुर्वेदी थे। प्रतियोगियों का क्रम लॉटरी द्वारा निर्धारित किया गया। तीन कवि वृन्द वहाँ निर्णायक नियुक्त किये गये। जिनमें आगरा यूनिवर्सिटी में कार्यरत श्री नरेन्द्र सिंह ‘नीरेश’ शिकोहाबाद के बहुचर्चित कवि श्री कृपा शंकर शर्मा ‘शूल’ तथा शिकोहाबाद के ही श्री देवेन्द्र सिंह चौहान ‘दर्पण’ थे। तीनों ही लोग मेरे जाने पहचाने थे। नरेन्द्र सिंह ‘नीरेश’ के साथ तो पिछले पन्द्रह वर्षों के अन्तराल में अनेक बार काव्य मंचों पर मैं काव्य पाठ कर चुका था। उनके संचालन में भी एक बार काव्यपाठ का मौका मिला था। श्री देवेन्द्र सिंह चौहान ‘दर्पण’ जी के साथ फिरोजाबाद जिले के पिड़सरा गाँव में वहाँ के बहुचर्चित कवि श्री विनोद यादव राजयोगी के संयोजकत्व में आयोजित एक कवि सम्मेलन में काव्य पाठ कर चुका था। यह कवि सम्मेलन सन् 1993 में आयोजित किया गया था। श्री कृपा शंकर शर्मा ‘शूल’ के साथ काव्य पाठ करने का मौका प्राप्त नहीं हुआ था किन्तु उनका नाम मेरा जाना पहचाना था। मैं समझ रहा था कि क्षीर-नीर विवेकी निर्णायक मण्डल है और मुझे प्रतियोगिता में कोई न कोई स्थान अवश्य प्राप्त हो जायेगा।
प्रतियोगिता अपने हिसाब से शुरू हुई। कई छात्र छात्राओं ने अपने गुरुजनों या अन्य किन्हीं मँजे हुए रचनाकारों की रचनायें पढ़नी प्रारम्भ कीं। लगभग 15-20 वर्ष साहित्यिक सेवा में गुजार देने के उपरान्त मुझे इतना विवेक हो ही गया था कि मैं जान सकूँ कि कौन छात्र अपनी रचना पढ़ रहा है कौन परायी। कविता प्रतियोगिता सम्पन्न होने के बाद तुरन्त वाद विवाद प्रतियोगिता आरम्भ हो गयी। जब दोनों प्रतियोगितायें सम्पन्न हो गयीं तब वह घड़ी आयी जिसका मुझे बेसब्री से इन्तजार था। मैं तो सोच ही रहा था कि प्रथम स्थान मुझे प्राप्त होगा किन्तु वहाँ निर्णय सुनकर मैं आश्चर्य में पड़ गया। प्रथम स्थान नारायण महाविद्यालय के ही एक छात्र अशोक कुमार को प्रदान कर दिया गया। इस प्रतियोगी ने तो प्रतियोगिता के नियम कि कविता 30 पंक्तियों से अधिक नहीं होनी चाहिये को ही तोड़ दिया था। मैंने सोच चलो कोई बात नहीं। शायद द्वितीय स्थान मुझे मिले। लेकिन यह भी मुझे नहीं मिला। फिर सोचा शायद तृतीय स्थान मुझे मिले यह भी मुझे नहीं मिला। फिर सोचा कि सान्त्वना पुरस्कार में तो मेरा नाम आ ही सकता है किन्तु यह भी मुझे नहीं मिला। निर्णय को देखकर मेरा दिल बैठ गया। मुझमें यह हिम्मत भी नहीं रही कि अपना कविता प्रतियोगिता में शामिल होने का प्रमाण पत्र भी मंच पर चढ़ कर प्राप्त कर सकूँ। मेरी हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ0 मालती जैन को पूरी उम्मीद थी कि मुझे कोई स्थान अवश्य मिलेगा। उन्हें सचमुच मेरी वेदना से भी बड़ी वेदना हुई। उन्होंने मुझसे कहा कि जाओ प्रतियोगिता में शामिल होने का प्रमाण पत्र ले लो। मैंने भावावेश में कह दिया कि क्या होगा इस प्रमाण पत्र का। एक वास्तविक कवि सान्त्वना पुरस्कार तक प्राप्त न कर सका उसके साथ इससे भी बड़ा मजाक भला और क्या हो सकता था।
प्रतियोगिता उपरान्त तमाम छात्र-छात्राओं ने मेरी कविता को सराहा। एक छात्र ने कहा कि जब आप कविता पढ़ रहे थे मुझे लग रहा था कि आप मेरी आत्मकथा प्रस्तुत कर रहे हैं। एक छात्रा बोली कि भाई साहब आपकी कविता में दिल बहुत टूटा हुआ है। सचमुच ही बहुत अच्छी है आपकी रचना। उसने तो यहाँ तक तारीफ कर दी कि आपकी यह रचना तो फिल्मी गीत बन सकती है। वह गीत मेरी वैयक्तिक भाव भूमि की रचना थी जिसमें शृंगार के वियोग पक्ष का चित्रण किया गया था जिसके बोल इस प्रकार थे-
मिली प्रेम की पीर और मन कितना हुआ सरल,
कहाँ-कहाँ पर मुझको कितना पीना पड़ा गरल।
इकतारा सा धुन-धुन-धुन कर
सारी रात बजा।
सरगम में जो जान डाल दे
दूजा सुर न सजा।
बिन बादल बरसात हो रही नैना हुए सजल,
कहाँ-कहाँ पर मुझको कितना पीना पड़ा गरल।
अपनी असफलताओं पर
कितना शरमिन्दा हूँ।
प्रेम प्यार की मृग-मरीचिका
से बस जिन्दा हूँ।
जीवन में बलवान समय कर देता फेर बदल,
कहाँ-कहाँ पर मुझको कितना पीना पड़ा गरल।
एकाकी जीवन का जीना
कितना कठिन हुआ।
मेरे उर का कभी किसी ने
कोना तक न छुआ
किसे लुटाऊँ प्रीत सताती यह चिन्ता हर पल,
कहाँ-कहाँ पर मुझको कितना पीड़ा गरल।
जीवन की बगिया में खिलते
लाखों फूल मिले।
हर पल मुझको रहे चिढ़ाते
हँस-हँस सदा खिले।
दे न सके जो प्रेम-प्यार को कोई भी सम्बल,
कहाँ-कहाँ पर मुझको कितना पीना पड़ा गरल।
जब से देखा तुम्हें, लगा था
जीवन सफल हुआ।
मेरे दिल का कोना-कोना
जैसे ग़ज़ल हुआ।
उर-सागर में आशाओं की खूब हुई हलचल,
कहाँ-कहाँ पर मुझको कितना पीना पड़ा गरल।
बीच भँवर में मुझे फँसाकर
तुमने भी छोड़ा।
दिल में चाहत ज्वाला जला
मुख तुमने भी मोड़ा।
आग लगा तुम गये मोम सा मैं तो गया पिघल,
कहाँ-कहाँ पर मुझको कितना पीना पड़ा गरल।
वह छात्रा मेरे साथ बस स्टैण्ड तक आयी उसे मेरी रचना सुनकर ऐसा लगा था कि इस रचना में मैंने अपना ही व्यक्तित्व प्रस्तुत कर दिया है और पीड़ा का अथाह सागर मेरे दिल में समाया हुआ है। उसे न जाने क्यों सचमुच ही मुझसे श्रद्धा हो गयी थी। वह अपने शहर फिराजोबाद को जाने वाली बस में बैठ चुकी थी किन्तु उसका मन मस्तिष्क मेरी ओर मुखातिब ही रहा। वह वाद-विवाद प्रतियोगिता में कोई स्थान पा गयी थी। मैंने उसे बातों ही बातों में बधाई प्रेषित की तो उसकी प्रसन्नता की सीमा नहीं रही। वह मुझे बस स्टैण्ड पर खड़ा तब तक देखती और मुस्कराती रही जब तक उसकी बस चली न गयीं। अन्तिम बार जब उसने टाटा की तो ऐसा लगा कि उसने अपने जिस्म से अपना दिल निकाल कर मुझे दे दिया हो।
छात्र-छात्राओं निर्णायकों एवं वहाँ उपस्थित अध्यापक गणों ने मेरी रचना डूबकर सुनी थी यही मेरे लिये सच्चा पुरस्कार था। यदि इस प्रतियोगिता में शामिल न होता तो शायद प्रतियोगिताओं की राजनीति जानने से वंचित रह जाता। घर पर लौटते समय जब बस में बैठा हुआ था तब मेरी हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ0 मालती जैन ने कहा कि दिल छोटा न करो। तुमने कविता ही ऐसी लिखी है जो तुम्हीं पर चरितार्थ हो गयी। तुमने लिखा है कि कहाँ-कहाँ पर मुझको कितना पीना पड़ा गरल। यह समझ लो यहाँ भी एक गरल और पी लिया।
20 फरवरी 1999 को नारायण स्नातकोत्तर महाविद्यालय शिकोहाबाद की अंतर्विश्वविद्यालयी कविता प्रतियोगिता में शामिल होने से पूर्व ही हमारे हिन्दी विभाग के रीडर डॉ0 आर0डी0 सक्सेना जी ने मुझे अवगत करा दिया था कि 26 फरवरी 1999 को तुम्हें किशोरी रमण स्नातकोत्तर महाविद्यालय में आयोजित एक काव्य प्रतियोगिता में भी भाग लेने जाना पड़ेगा। वहाँ से प्रतियोगिता के संयोजक और किशोरी रमण स्नातकोत्तर महाविद्यालय के प्रोफेसर डॉ0 अनिल गहलौत का मेरे पास फोन आया है। डॉ0 गहलौत जी और डॉ0 सक्सेना जी ने एक बार परीक्षा की कापियां साथ-साथ जाँची थीं तब से दोनों लोगों में मित्रता हो गयी थी। डॉ0 सक्सेना जी मैनपुरी स्थित राजा के बाग नामक मुहल्ले में जहाँ रहते थे वहीं उनके मकान के ठीक सामने डॉ0 गहलौत जी के बहनोई का मकान है इसिलए डॉ0 गहलौत जी जब भी मैनपुरी आते थे डॉ0 सक्सेना जी से उनकी मुलाकात अवश्य होती थी।
डॉ0 रंगेश्वर दयाल सक्सेना जी ने मुझसे और मेरी कक्षा के एक अन्य छात्र पृथ्वीराज सिंह चौहान जो कविता लिखता था से जैसे ही कहा कि तुम लोगों को मथुरा जाना है। हम दोनों लोग सहर्ष तैयार हो गये थे। उन्होंने हम दोनों को विद्यालय में यह पता लगाने भेजा कि क्या वहाँ मथुरा से विधिवत आमन्त्रण आया है। उन्होंने यह भी कह दिया था कि यदि वहाँ आमंत्रण न आया हो तो तुम दोनों लोग प्राचार्य जी से अवश्य मिल लेना। हम दोनों लोग महाविद्यालय में पहुँचे तो पता चला कि वहाँ कोई आमंत्रण नहीं आया है। हम लोगों ने वहाँ अपनी हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ0 कु0 मालती जैन को अपनी समस्या से अवगत कराया। प्राचार्य जी डॉ0 बलवीर सिंह यादव जी पीलिया जैसी भयंकर बीमारी से पीड़ित चल रहे थे और अपने घर पर ही आराम ले रहे थे। डॉ0 मालती जैन ने भी यही सलाह दी कि इस सम्बन्ध में प्राचार्य जी से अवश्य ही संपर्क कर लो तुम लोग।
हम दोनों छात्र अपने हिन्दी विभाग के प्रोफेसर डॉ0 शिवजी श्रीवास्तव के घर पहुँचे। उनसे भी इस सम्बन्ध में राय मशविरा किया। अन्ततः हम लोग प्राचार्य जी के घर पहुँचे। वहाँ पर हम लोगों को श्री देवेन्द्र सिंह यादव एडवोकेट के बड़ी भाई श्री सूबेदर सिंह यादव (रिटायर्ड कानूनगो) पहले से बैठे मिले। हम दोनों छात्रों ने प्राचार्य जी के चरण स्पर्श किये तत्पश्चात प्रतियोगिता के बारे में अवगत कराया। प्राचार्य जी मुझे एक कवि, साहित्यकार के रूप में तो बहुत पहले से जानते थे किन्तु उन्हें यह ज्ञात नहीं हो सका था कि मैं उनके महाविद्यालय में छात्र भी हूँ। एक लम्बे समयान्तराल के बाद मैं पुनः छात्र हुआ था इसलिए प्राचार्य जी को बड़ा आश्चर्य भी हुआ। उन्होंने यह बताया कि उनके पास भी मथुरा से डॉ0 अनिल गहलौत जी का फोन आया था। प्राचार्य जी ने हम दोनों छात्रों को आश्वासन दिलाया कि यदि वहाँ से लिखित आमन्त्रण नहीं भी आ सके तब भी तुम दोनों लोग वहाँ जाइये। टी0ए0, डी0ए0 महाविद्यालय वहन करेगा।
शिकोहाबाद की प्रतियोगिता में मुझे कोई स्थान प्राप्त नहीं हुआ इसलिए मेरा मन खिन्न हो गया था। डॉ0 अनिल गहलौत जी से शि्ाकोहाबाद में मुलाकात हो गयी थी। उन्हीं के विद्यालय के छात्रों को चल बैजयन्ती प्रदान की गयी थी। मुझे ऐसा लगने लगा था कि शिकोहाबाद में मथुरा के किशोरी रमण महाविद्यालय को चल बैजयन्ती प्रदान कर दी गयी है इसके बदले में किशोरी रमण महाविद्यालय की प्रतियोगिता में नारायण महाविद्यालय शिकोहाबाद को चल बैजयन्ती प्रदान की जायेगी। मुझे तो वहाँ कोई स्थान मिलना नहीं है इसलिए वहाँ जाकर क्यों बेकार में परेशान होऊँ।
कक्षा में डॉ0 शिवजी श्रीवास्तव जी पढ़ा रहे थे तभी डॉ0 आर0डी0 सक्सेना जी मुझसे और पृथ्वीराज से संपर्क करने आये। पृथ्वीराज सिंह ने उन्हें पहले ही बता दिया था कि हरिश्चन्द्र शाक्य ने शिकोहाबाद में कोई स्थान नहीं मिला इसलिए मथुरा की प्रतियोगिता में भाग न लेने का मन बना लिया है। डॉ0 सक्सेना जी जब कक्षा में आये तो मैंने अपनी न जाने की इच्छा व्यक्त कर दी। डॉ0 सक्सेना जी ने मुझसे कहा ‘‘मिस्टर शाक्य कितना बड़ा अहंकार तुम्हें हो गया है जिसे मैं तोड़ने का प्रयास करूँ।’’ मैंने कहा, ‘‘सर मुझे अपने से भी ज्यादा आपकी चिन्ता है क्योंकि आप बेहद संवेदनशील व्यक्ति हैं। मुझे यदि कोई स्थान प्राप्त नहीं होगा तो आपको विशेष मानसिक पीड़ा होगी।’’ डॉ0 सक्सेना जी ने कहा, ‘‘मुझे कोई मानसिक पीड़ा नहीं होगी मैं तो तुम लोगों को इसलिए ले जाना चाहता हूँ कि तुम लोग वास्तविक कवि हो। मैं तो यह सोचकर ही वहाँ चल रहा हूँ कि कोई स्थान नहीं मिलेगा। तुम लोगों के काव्यपाठ से यदि मैं खुश हो गया तो मैं तो समझ लूँगा कि पुरस्कार मिल गया। चलो कम से कम वहाँ विशाल जन समूह के सामने तुम्हें कविता सुनाने का मौका तो मिलेगा। एक कवि के लिए यही क्या कम है।’’ डॉ0 सक्सेना जी के व्याख्यान को सुनकर मैं प्रभावित हुए बिना न रह सका। और मैं मथुरा जाने के लिए सहर्ष तैयार हो गया।
26 फरवरी को प्रातः साढ़े छह बजे मैं और पृथ्वीराज सिंह चौहान दोनों ही एक ही साथ डॉ0 रंगेश्वर दयाल सक्सेना जी के घर पर पहुँचे। डॉ0 सक्सेना जी हम लोगों के इन्तजार में ही बैठे थे। उनके और उनकी श्रीमती जी के चरण स्पर्श करके हम लोग उनके चलने का इन्तजार करने लगे। अपनी साइकिल मैंने उन्ही के घर पर खड़ी कर दी। और उनके साथ हम लोग निकल पड़े। देवी रोड पर आकर हम लोग रिक्शे पर सवार हुए और बस स्टैण्ड पहुँचे। वहाँ से तेज चलने वाली राजस्थान परिवहन की बस में सवार होकर हम लोग आगरा पहुँचे। बिजली घर बस स्टैण्ड पर पहुँच कर पृथ्वीराज सिंह ने नाश्ता करने की इच्छा व्यक्त की। वहाँ पर कोई ऐसी बस नहीं मिली जो अतिशीघ्र मथुरा पहुँचा देती हो। हम लोग थ्री व्हीलर पर सवार होकर ईदगाह बस स्टैण्ड पर पहुँचे। वहाँ पर शीघ्र ही बस में बैठ गये। डॉ0 सक्सेना जी ने अपने घर से चलते समय बता दिया था कि तुम दोनों लोगों के लिए भी खाना मैंने रख लिया है। बिजली घर बस स्टैण्ड पर डॉ0 सक्सेना जी को ऐसा महसूस हो गया था कि पृथ्वीराज सिंह को भूख लगी है। बस में बैठते ही उन्होंने अपने बैग से खाना निकाला और हम दोनों छात्रों के साथ खाया।
मथुरा में भूतेश्वर बस स्टैण्ड पर उतरकर हम लोगों ने किशोरी रमण स्नातकोत्तर महाविद्यालय के लिए रिक्शा कर लिया। मथुरा में उस समय सड़के ऊँची की जा रही थी इसलिए सड़कों पर मिट्टी डाल दी गयी थी। रिक्शावाला बड़ी मुश्किल से रिक्शा चला पा रहा था। डॉ0 सक्सेना जी ने हम लोगों से कहा कि सड़कों पर ब्रजरज बिखरी है इसके दर्शन तो हो गये चलो। थोड़ी देर में किशोरी रमण महाविद्यालय आ गया। हम लोग महाविद्यालय के विशाल हॉल में पहुँचे। पूरा हाल महाविद्यालय के छात्रों अध्यापकों एवं प्रतियोगी छात्र छात्राओं से खचा खच भरा था। हम लोगों को भी बैठने को जगह मिल गयी। प्रतियोगिता का शुभारम्भ होने जा ही रहा था। मैंने बैनर पर लिखा देखा तो पाया कि प्रतियोगिता का नाम डॉ0 गयाप्रसाद उपाध्याय चल बैजयन्ती अन्तर्विश्वद्यालयी काव्य प्रतियोगिता था। यह प्रतियोगिता किशोरी रमण स्नातकोत्तर महाविद्यालय के प्राचार्य डॉ0 विजय प्रकाश उपाध्याय जी के स्वर्गीय पिता श्री डॉ0 गयाप्रसाद उपाध्याय जी जो एस0आर0के0 स्नातकोत्तर महाविद्यालय फिरोजाबाद में हिन्दी विभागाध्यक्ष रहे थे और बहुत अच्छे लेखक थे की स्मृति में आयोजित की गयी थी। डॉ0 अनिल गहलौत इस प्रतियोगिता के मुख्य संयोजक थे।
प्रतियोगिता शुरू हुई। कई छात्र प्रतियोगियों ने कवितायें प्रस्तुत की। कई प्रतियोगी छात्र-छात्राओं ने नामी गिरामी कवियों की बहुचर्चित कवितायें भी चुराकर वहाँ पढ़ी जिनके लिए संयोजक जी ने मंच पर यह भी कहा कि छात्र लोग सिर्फ अपनी स्वरचित कवितायें ही पढ़े, कविता के मंच पर दूसरे की कवितायें अपनी बताकर पढ़ना अशोभनीय बात है। मैं तो यह समझ ही रहा था कि यहाँ भी मुझ वास्तविक कवि को कोई स्थान नहीं मिलना। चोर कवि ही पुरस्कार प्राप्त करके ले जायेंगे। मेरा भी काव्यपाठ का नम्बर आया। मैंने अपना वैयक्तिक भाव भूमि का वियोग शृंगार का वही गीत जो शिकोहाबाद की प्रतियोगिता में पढ़ा था डूबकर पढ़ा। जैसे ही मैंने अपने गीत का मुखड़ा प्रस्तुत किया सभी का ध्यान मेरी और आकृष्ट हो गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता छत्रपति शाहूजी महाराज विश्वविद्यालय कानपुर के पूर्व कुलपति डॉ0 ब्रजकिशोर सिंह जी कर रहे थे। वे भी मेरा गीत बड़े ध्यान से सुन रहे थे। मेरा गीत समाप्त हुआ। तालियों की गड़गड़ाहट से सारा हॉल गूँज गया। जैसे ही मैं अपने स्थान पर बैठने को चला तमाम छात्र-छात्राओं ने मुझे बधाइयाँ देना शुरू कर दिया। मेरा गीत वहाँ उपस्थित सभी जनों को पसन्द आया था। कुछ छात्र-छात्राओं को तो मैंने अपने गीत की पंक्तियाँ नोट करते हुए देख लिया था। कुछेक की आँखों में तो आँसू छलछला आये थे। मैं अपने स्थान पर बैठ भी न पाया था कि वहाँ बैठे एक पत्रकार जो कवरेज कर रहे थे ने मुझे बुलाकर गीत की तारीफ की और समाचार पत्र के लिए मुझसे पंक्तियाँ नोट करा लीं। तभी वहाँ पर एक अन्य छात्र आया जो कवि था। उसने मेरे गीत की तारीफ करते हुए कहा कि भाई साहब मुझे भी आप अपना एक मिनट दे दीजिये। मैं उसके साथ चला गया। वह अपने सीट पर ले गया और मुझे बड़े ही सम्मान से बैठाया। वहाँ दो तीन अन्य छात्र कवि भी बैठे हुए थे। सभी ने मुझे विशेष सम्मान दिया और कहा कि मैं आपको अपने किसी कवि सम्मेलन में आमंत्रित कर उचित सम्मान दूँगा। उन लोगों ने मेरा पता भी अपनी डायरी पर लिखवा लिया। वे लोग यही कह रहे थे कि इस प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार तो आपको ही मिलना चाहिए। मैंने कहा कि मेरे लिए सबसे बड़ा पुरस्कार यही है कि आप लोगों ने डूब कर मेरे गीत को सुना और मुझे विशेष प्यार दिया। प्रतियोगिता में कोई भी स्थान मुझे न मिले तो मुझे कोई चिन्ता नहीं। कार्यक्रम में उपस्थित तमाम छात्रायें मेरी ओर बार-बार देख रहीं थी। उनकी मौन वाणी शायद यही कहने का प्रयास कर रही थी कि भाई साहब आपका गीत बहुत ही अच्छा लगा और यह प्रथम पुरस्कार के योग्य है।
अन्ततः वह घड़ी भी आ गयी जिसका सभी को बेसब्री से इन्तजार था। प्रथम पुरस्कार एक लड़की को प्रदान किया गया द्वितीय पुरस्कार एक लड़के को। तृतीय पुरस्कार किशोरी रमण महाविद्यालय के छात्र मनवीर सिंह को प्रदान किया गया। अब मैं समझने लगा था कि यहाँ भी मुझे कोई स्थान प्राप्त नहीं होना है। किन्तु फिर घोषणा हुई कि सान्त्वना पुरस्कार श्री चित्रगुप्त स्नातकोत्तर महाविद्यालय के छात्र हरिश्चन्द्र शाक्य को प्रदान किया जायेगा। तमाम श्रोता छात्र-छात्राओं को निर्णय पसन्द नहीं आया किन्तु निर्णय तो निर्णय था। मुझे कोई खास प्रसन्नता नहीं हुई। हाँ ऐसा अवश्य लगा कि यहाँ के निर्णायक मण्डल ने मेरे गीत को समझ कर कुछ तो स्थान देने का प्रयास किया। कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे छत्रपति शाहू जी महाराज विश्वविद्यालय कानपुर के पूर्व कुलपति डॉ0 ब्रजकिशोर सिंह ने मुझे प्रमाण पत्र और प्रतीक चिह्न प्रदान करते समय कहा कि मिस्टर शाक्य मुझे तुम्हारा गीत बेहद पसन्द आया। निर्णायक मण्डल की न जाने कौन सी मजबूरियाँ रहीं जिसके कारण तुम्हें सान्त्वना पुरस्कार मिल पा रहा है, यदि मैं निर्णायक होता तो निश्चय ही प्रथम पुरस्कार तुम्हें प्रदान करता। मैंने कहा, ‘‘सर मुझे आप जो सान्त्वना पुरस्कार प्रदान कर रहे हैं मैं उसे प्रथम पुरस्कार समझ कर ही ग्रहण कर रहा हूँ। वे बोले तुमने अपना गीत बहुत डूबकर लिखा है। मैंने तुम्हारे गीत में महान फिल्मी गीतकार स्वर्गीय शैलेन्द्र जैसी अभिव्यक्ति पायी है। उन्होंने यह भी कहा कि जिन छात्र-छात्राओं को प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय स्थान प्राप्त हुये हैं उनमें से एकाध पर तो मैं यह विश्वास भी नहीं कर पा रहा हूँ कि वह असली कवि है भी या नहीं।
प्रतीक चिह्न के रूप में नटराज की प्रतिमा और स्व0 डॉ0 गया प्रसाद उपाध्याय जी की पुस्तकों का पैकेट तथा प्रमाण पत्र प्राप्त कर मैं जब अपनी सीट पर बैठने आया तो, मुसकान नाम की एक बेहद खूबसूरत छात्रा जो मथुरा की ही थी और जो प्रतियोगिता में शामिल हुई थी ने मुझे बधाई दी। उसने कहा कि आपका गीत बहुत अच्छा लगा। मैंने कहा किन्तु मुझे तो सान्त्वना स्थान ही मिल पाया। उस लड़की ने कहा मुझे तो यह भी नहीं मिला। मुझे लगा कि कोई स्थान न प्राप्त कर सचमुच उसे बहुत ही वेदना पहुँची होगी। मैंने अपना पैकेट उसकी गोद में रख दिया और कहा कि आप मेरे पुरस्कार को अपना ही पुरस्कार समझें और अपने घर ले जायें। मेरी श्रद्धा का सचमुच उस पर गहरा प्रभाव पड़ा और उसने आदर के साथ मेरा पैकेट मुझे थमा दिया। रास्ते में लौटते समय मैंने पाया था कि सान्त्वना पुरस्कार पाकर मुझे तो कोई खास प्रसन्नता नहीं हुई थी किन्तु हमारे संरक्षक डॉ0 रंगेश्वर दयाल सक्सेना को अत्यधिक प्रसन्नता हुई थी। कोई उल्लेखनीय स्थान प्राप्त न कर मैंने एक गरल और पी लिया था।
- डॉ॰ हरिश्चन्द्र शाक्य, डी0लिट्0
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