जन्म शताब्दी पर विशेष आलेख हमारा भौतिक संसार सजीव और निर्जीव वस्तुओं से मिलकर बना है। सजीव संसार में चौरासी लाख योनियों की भीड़ है जिनमें मनु...
जन्म शताब्दी पर विशेष आलेख
हमारा भौतिक संसार सजीव और निर्जीव वस्तुओं से मिलकर बना है। सजीव संसार में चौरासी लाख योनियों की भीड़ है जिनमें मनुष्य योनि को उसके बुद्धि तत्व के अति विकसित होने के कारण सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। इस सर्वश्रेष्ठ योनि में कभी-कभी ऐसे महापुरुष जन्म लेते हैं जिनकी कीर्ति रश्मियाँ इस अखिल संसार को आलोकित करने के साथ-साथ अखिल ब्रह्माण्ड को भी आलोकित करती हैं। ऐसे महापुरुष संत, महात्मा, राजनेता, साहित्यकार, पत्रकार, संगीतकार, गायक, चित्रकार, शिक्षाविद, विचारक, वैज्ञानिक, समाजसेवी आदि किसी भी रूप् में जन्म ले सकते हैं। ऐसे ही एक महापुरुष थे कविवर डॉ0 लक्ष्मी शंकर मिश्र 'निशंक' जी। निशंक जी एक उच्चकोटि के साहित्यकार और एक महाकवि थे। एक महाकाव्य लिख लेने वाले कवि को महाकवि कहा जाने लगता है परन्तु एक महाकाव्य, छह खण्डकाव्य, छह छन्द मुक्तक संग्रह, एक गीतकाव्य, दो कविता संग्रह, एक निबंध संग्रह, एक संस्मरण संग्रह, दो ब्रजभाषा काव्य संग्रह, एक अवधी काव्य संग्रह, एक अनुकृति काव्य संग्रह तथा तमाम अप्रकाशित कृतियों के रचनाकार कवि लेखक डॉ0 निशंक जी को मैं किस संज्ञा, किस विशेषण या किस अलंकरण से सुशोभित करूँ यह मेरी समझ से परे है। ऐसी महान आत्मा डॉ0 निशंक जी के नाम से मैं सन् 1976 में तब परिचित हो गया था जब मैं कक्षा 9 का विद्यार्थी था। हमारे मैनपुरी जिले के हिन्दी विषय के पाठ्यक्रम में जयशंकर त्रिपाठी द्वारा रचित खण्डकाव्य 'मातृभूमि के लिए' स्वीकृत था। हमारी गाइड बुक में पूरे उत्तर प्रदेश के अलग-अलग जिलों में स्वीकृत खण्डकाव्यों मुक्ति दूत, ज्योति जवाहर, अग्रपूजा, मेवाड़ मुकुट, जय सुभाष, मातृभूति के लिए, कर्ण, कर्मवीर भरत तथा तुमुल के कथानक व उनसे सम्बन्धित प्रश्नोत्तर रहते थे। मैं अपने खण्डकाव्य के साथ-साथ अन्य खण्डकाव्यों के बारे में भी पढ़ डालता था। डॉ0 निशंक जी के खण्डकाव्य 'कर्मवीर भरत' के बारे में भी मैंने उस समय पढ़ डाला था। निशंक जी का यह खण्डकाव्य उत्तर प्रदेश बोर्ड इलाहाबाद के हाई स्कूल के पाठ्यक्रम में मेरठ, पीलीभीत, रायबरेली तथा हमारे पड़ोसी जनपद फर्रुखाबाद के लिए स्वीकृत है।
आधुनिक काल में भारतेन्दु युग में मंचीय कविता का विकास होने लगा था। इस युग में प्रायः वही कवि मंचीय कवि थे जो साहित्य के भी कवि थे। द्विवेदी युग के कवियों में भी ऐसा ही देखने को मिलता है। साहित्य में जो छायावादी युग कहा जाता है वही युग मंचीय कविता में सनेही युग कहा जाता है। श्री गया प्रसाद शुक्ल 'सनेही' इस युग के प्रवर्तक कवि माने ते हैं। भारतेन्दु युग में कविता ब्रजभाषा में होती थी, द्विवेदी युग में ब्रज व खड़ी बोली दोनों से होती थी किन्तु साहित्य के छायावाद युग में ब्रजभाषा लुप्त हो गयी थी। छायावाद के समानांतर मंच के सनेही युग में ब्रजभाषा में लेखन होता रहा। यहाँ से ही साहित्यिक कविता और मंचीय कविता की विभाजन रेखा खिंच गयी। सूरदास के अष्टछाप के कवियों की तरह सनेही जी का सनेही मंडल भी चर्चा में रहा है। इसी सनेही मंडल के कवियों में डॉ0 लक्ष्मी शंकर मिश्र 'निशंक' भी शामिल थे। डॉ0 राम बहादुर मिश्र ने एक समीक्षा आलेख में बताया है कि ब्रजभाषा, खड़ी बोली तथा अवधी में सम्यक रूप से काव्य सर्जना करने वाले डॉ0 निशंक की रचनाधर्मिता का प्रारंभिक काल ब्रजभाषा के प्रभुत्व का काल था। वे कन्नौजी भाषा से प्रभावित जनपद हरदोई में जन्मे थे किन्तु अवधी के प्रति उनमें सर्वाधिक अनुराग था। डॉ0 अमिता दुबे ने अपने एक आलेख में कहा है कि डॉ0 लक्ष्मी शंकर मिश्र 'निशंक' एक ऐसे रचनाकार हैं जिनकी कृतियों में ब्रजभाषा का लालित्य है तो खड़ी बोली की रसात्मकता भी।
बहुमुखी प्रतिभा के धनी, विद्वान साहित्यकार, डॉ0 लक्ष्मी शंकर मिश्र 'निशंक' का जन्म जनपद हरदोई के भगवंत नगर में 21 अक्टूबर 1918 को हुआ था। हाई स्कूल तक की शिक्षा भगवंत नगर में प्राप्त कर आगे की शिक्षा प्राप्त करने वे 5 जुलाई 1938 को लखनऊ चले गये थे जहाँ कान्यकुब्ज कॉलेज में शिक्षा प्राप्त कर वहीं कान्यकुब्ज डिग्री कॉलेज जिसे अब जे.एन.पी.जी. कॉलेज कहा जाता है में अध्यापन करने लगे। वहाँ वे 1956 से 1979 तक छात्रावास अधीक्षक के पद पर कार्य करते हुए साहित्य सेवा करते रहे। इसमें कोई दो राय नहीं कि निशंक जी का जन्म तो हरदोई में हुआ था किन्तु उनका साहित्यिक निर्माण लखनऊ में हुआ। वे छात्र जीवन से ही अनेक सम्मानित साहित्यकारों के संपर्क में आ गये थे। निशंक जी को स्नेह एवं प्रोत्साहन देने वाली विभूतियों में श्री गया प्रसाद शुक्ल 'सनेही', श्री जगदम्बा प्रसाद मिश्र 'हितैषी', पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी 'श्रीवर', श्री बालकृष्ण पाण्डेय, सुविख्यात उपन्यासकार अमृतलाल नागर, यशस्वी कवि सोहन लाल द्विवेदी तथा छायावादोत्तर काल के यशस्वी कवि डॉ0 शिव मंगल सिंह 'सुमन' शामिल थे। स्वामी एकरसानन्द व उनके शिष्य स्वामी नारदानन्द का भी उन पर वरद हस्त रहा। अपने कॉलेज में उन्होंने सन् 1939 में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के दर्शन कर लिये थे। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद उ0प्र0 की प्रथम राज्यपाल श्रीमती सरोजनी नायडू व दूसरे राज्यपाल के0एम0 मुंशी के दर्शन करने व उनकी वाणी सुनने का अवसर उन्हें मिल गया था। डॉ0 श्याम बिहारी मिश्र 'मिश्रबन्धु', अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध', राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', डॉ0 दीन दयालु गुप्त, डॉ0 पीताम्बर बड़थ्वाल, कालीदास कपूर, दुलारे लाल भार्गव, माखन लाल चतुर्वेदी, बाल कृष्ण शर्मा 'नवीन', रामधारी सिंह 'दिनकर', डॉ0 रामकुमार वर्मा, श्रीमती विद्यावती कोकिल, श्रीमती सुमित्रा कुमारी सिन्हा, बलवीर सिंह 'रंग', श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान, श्री श्रीलाल शुक्ल, बाबू श्याम सुन्दर दास, माधुरी पत्रिका, के सम्पादक पं0 रूपनारायण पाण्डेय, श्री सियाराम शरण गुप्त, श्री मैथिली शरण गुप्त, रामनरेश त्रिपाठी, डॉ0 हेमचन्द्र जोशी, डॉ0 माता प्रसाद गुप्त, श्री परशुराम चतुर्वेदी, डॉ0 जगदीश गुप्त, महादेवी वर्मा, भगवती चरण वर्मा व यशपाल आदि साहित्यकारों का सामीप्य इनको मिलता रहा था।
1952 में डॉ0 लक्ष्मी नारायण मिश्र 'निशंक' का पहला काव्य संग्रह 'शतदल' तथा पहला खण्डकाव्य 'सिद्धार्थ का गृह त्याग' प्रकाशित हुआ था। शतदल छन्द मुक्तक संग्रह था जो उसी वर्ष उ0प्र0 शासन द्वारा पुरस्कृत हुआ था। 1938 से लेकर 1952 तक उन्होंने जो गीत लिखे थे और जो पत्र-पत्रिकाओं में छपे थे उनका संग्रह 'साधना के स्वर' 1976 में प्रकाशित हुआ जो उ0प्र0 हिन्दी संस्थान द्वारा 1978 में पुरस्कृत हुआ। 'साधना के स्वर' से वर्षा ऋतु से संबंधित उनकी कुछ पंक्तियाँ उद्धृत कर रहा हूँ-
ओ मतवाले ऐसे बरसो
धरती का यौवन मुसकाये
सरस-सरस बूँदों से उतरो
तरुवर खड़े बाँह फैलाये।
सावन में प्लावन बन आये
इतनी आतुरता न दिखाओ।
रुक-रुक कर छक-छक कर पीने दो
धीरे-धीरे रस बरसाओ।
ओ रस वाले ऐसे बरसो
जैसे प्रियतम की सुधि आये।
कविवर निशंक जी भारतीय संस्कृति में रचे-पचे थे और 'वसुधैव कुटुम्बकम' के पक्षधर थे। वे सनातन हिन्दू धर्म से जितने प्रभावित थे उतने ही बौद्ध धर्म से। उनके खण्ड काव्यों की बात करें तो उन्होंने अपने खण्ड काव्यों 'सिद्धार्थ का गृह त्याग' तथा 'शांतिदूत' में महामानव गौतम बुद्ध के सन्यास, तपस्या तथा बुद्धत्व प्राप्ति की घटनाओं का वर्णन किया है। भिक्षुओं को दिये गये बुद्ध के उपदेश कवि की भाषा में दृष्टव्य हैं-
हिंसा न करो, न असत्य कहो, धन द्रव्य नहीं स्वीकार करो।
नित नृत्य गान से दूर रहो, जीवन में मत व्यभिचार करो।
मत द्रव्य सुगंधित अपनाओ, असमय का भोजन त्याग करो।
कोमल शैया पर सो न कभी, लालच से सदा विराग करे।
मत करो मद्य का पान कभी, उनके ये दस आचार रहे।
निर्वाण प्राप्ति के लिए सभी से, विनय पूर्ण व्यवहार रहे।
दुख क्या है? कारण क्या उसके, उसको हम कैसे दूर करें।
उपदेष यही था जीवन को कैसे सुख से भरपूर करें।
निशंक जी का 'जयभरत' खण्डकाव्य 1971 में प्रकाशित हुआ जिसकी कथा रामचरित मानस से ली गयी है और जिसमें राम के भाई भरत का जीवन चरित है। भरत के जीवन चरित पर उनका दूसरा काव्य 'कर्मवीर भरत' है जो 1976 में प्रकाशित हुआ और 1981 में जिसे मानस संगम कानपुर से विशिष्ट पुरस्कार प्राप्त हुआ। यह खण्डकाव्य पाँच सर्गों आगमन, राजभवन, कौशल्या सुमित्रा मिलन, वनगमन, राम भरत मिलन में विभक्त है। इस खंडकाव्य में निशंक जी ने भरत को आदर्श महापुरुष, भावुक हृदय, परम त्यागी तथा अनासक्त, राम के सच्चे अनुयायी तथा कर्मवीर के रूप में चित्रित किया है। इस खंडकाव्य की दो पंक्तियाँ अमरत्व को प्राप्त कर गयी हैं जो इस प्रकार हैं-
बिना कर्म के ग्राह्य न होता कभी ज्ञान है।
बिना त्याग के व्यक्ति नहीं बनता महान है।
निशंक जी के अन्य खण्ड काव्य 'संकल्प की विजय' तथा 'क्रांतिदूत' हैं। उनके छह छन्द मुक्तक संग्रह प्रकाशित हुए हैं जो शतदल, अनुपमा रामलला की किलकारी, लाल सेना, मुसोलिनी का पतन तथा दर्पण हैं।
डॉ0 लक्ष्मी शंकर मिश्र 'निशंक' का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ उनका महाकाव्य 'सुमित्रा' है जो 1989 में प्रकाशित हुआ है। 'सुमित्रा' महाकाव्य उन्होंने डॉ0 हजारी प्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा से लिखा है। जब 1976 में सरोजरानी गौरिहार की काव्य कृति 'माण्डवी एक विरमृता' प्रकाशित हुई तो डॉ0 हजारी प्रसाद द्विवेदी ने डॉ0 निशंक जी से कहा था, ''लो माण्डवी पर भी लिख गया, किन्तु आश्चर्य है कि सुमित्रा जेसे उदात्त चरित्र पर किसी ने नहीं लिखा।'' डॉ0 निशंक जी ने डॉ0 हजारी प्रसाद द्विवेदी की बात को आदेश मानकर सुमित्रा पर महाकाव्य लिखा जो ग्यारह सर्गों में विभक्त है। इस महाकाव्य के बारे में डॉ0 अमिता दुबे ने लिखा है, ''सुमित्रा सिंहल के राजा सुमित्र की पुत्री पर ग्यारह सर्गों में विभक्त महाकाव्य है। इस प्रबन्ध काव्य में राजा दषरथ की भार्या, वीरवर लक्ष्मण की माता सहित एक स्वतंत्र व्यक्तित्व के रूप में चरित्रांकित की गयी है।'' सुमित्रा की बहुमुखी प्रतिभा पर द्वितीय सर्ग में डॉ0 निशंक जी ने कहा है-
महलों के वैभव में भी वह
ऋशि कन्या सी थी उदासीन।
फूलों की कोमल षैया पर
जागृत रहती ज्यों तपोलीन।
'षंख की साँस' तथा 'मेरी आरंभिक कविताएँ' निशंक जी के कविता संग्रह हैं। 1971 में प्रकाशित 'प्रेम पीयूश' तथा 1983 में प्रकाशित 'बाँसुरी' उनके ब्रजभाषा काव्य हैं। प्रेम पीयूष उ0 प्र0 शासन द्वारा 1973 में पुरस्कृत किया गया। बाँसुरी को उ0प्र0 हिन्दी संस्थान द्वारा पं0 श्रीधर पाठक नामित पुरस्कार से समादृत किया गया। बाँसुरी से निशंक जी का भारत की माटी की महिमा पर एक छन्द देखें-
सिन्धुजा के पति जाके उर में निवास करें,
सिन्धुजा के चरन पखारि उमहति है।
सैलजा के नाथ जाके माथ पै धरे हैं हाथ,
सैलजा के सीस चढ़ि गौरव लहति है।
संगम की वानि जाके उर जड़ जंगम की
प्रेम की पुनीत रसधार सी बहति है।
छन्दन सों बन्दन कै ऐसे दिव्य भारत की,
भारती हूँ आरती उतारति रहति है।
डॉ0 लक्ष्मी शंकर मिश्र 'निशंक' ब्रजभाषा के साथ-साथ अवधी के भी अच्छे रचनाकार थे। तुलसी के रामचरित मानस तथा जायसी के पदमावत जैसी कालजयी कृतियाँ अवधी में ही लिखी गयीं थीं। द्वारिका प्रसाद मिश्र, पं0 बलभद्र दीक्षित 'पढ़ीस', पं0 बंशीधर शुक्ल, चन्द्रभूषण त्रिवेदी 'रमईकाका', गुरु प्रसाद सिंह 'मृगेश', आचार्य विश्वनाथ पाठक, आद्या प्रसाद मिश्र 'उन्मत्त', डॉ0 श्याम सुन्दर मिश्र 'मधुप' के साथ डॉ0 निशंक जी भी अवधी को प्रतिष्ठित कर रहे थे। डॉ0 निशंक जी का एक अवधी काव्य संग्रह 'पुरवाई' प्रकाशित हुआ है। वे किसानों और मजदूरों का चित्रण करते हैं तो जनवादी हो जाते हैं। उपन्यास सम्राट मुंषी प्रेमचन्द्र ने अपने अमर उपन्यास गोदान में भारतीय किसान की दुर्दशा का सजीव चित्रण किया है। उनके पात्र होरी तथा धनियाँ सारे संसार में अमर हो गये। डॉ0 राम कुमार वर्मा ने किसान को ग्राम देवता कहा हैं। डॉ0 लक्ष्मी शंकर मिश्र 'निशंक' ने अवधी भाषा के माध्यम से भारतीय किसान के श्रम वैभव का चित्रण किया है-
पौ फटतै खन ख्यातन जात हैं
सुर्ज मुँदे घर लौटि कै आवै।
ऊसर का छरि देत कुदारि तै
बंजर को उपजाऊ बनावैं।
हाथ लिये स्रम की पतवारई
नाव समाज की पार लगावें।
दानी किसान किसानी करैं
खुद काटत पेट पै देस जियावे।
2001 में प्रकाशित डॉ0 निशंक जी के 'प्रज्ञा उदभास' विभीषण की पद्यबद्ध आत्मकथा है। 'तूणीर' में व्यंग्य कविताएँ हैं तथा 'अपने मुँह मियाँ मिट्ठू' एक अनुकृति काव्य है। पद्य के साथ-साथ निशंक जी ने गद्य में भी लेखनी चलाई है। साहित्यकार का दायित्व उनके निबंधों का संग्रह है तथा 'संस्मरणों के दीप' उनके संस्मरणों का संग्रह हैं उन्होंने साहित्यकारों के पत्र भी संग्रहीत किये हैं। इन प्रकाशित पुस्तकों के अलावा उनकी कुछ और भी पुस्तकें प्रकाशनाधीन है। 'साहित्यकार का दायित्व' पुस्तक के बारे में डॉ0 उपेन्द्र ने लिखा है, ''सात्यिकार का दायित्व'' में साहित्यकार का दायित्व प्रतिभा और साधना, काव्य रचना का उद्देश्य, घनाक्षरी छन्द का इतिहास, सवैया छन्द का उद्भव और विकास, कविता का आदर्श, कवि कर्म इत्यादि पन्द्रह निबन्ध संकलित है जो कवि के प्रौढ़ चिन्तन और सुदृढ़ आस्था के परिचारक हैं।
साहित्य सृजन के अलावा निशंक जी ने एक बड़ा काम यह किया था कि उन्होंने अपने गुरु गया प्रसाद शुक्ल 'सनेही' की 1928 में प्रारंभ हुई पत्रिका जो बन्द हो गयी थी जिसका नाम सुकवि था, को पुनः सुकवि विनोद नाम से 1973 में प्रारंभ कर दिया था। यह पत्रिका 1983 तक निकलती रही। निशंक जी ने इसमें लगभग 900 कवियों को जोड़ा था। मेरे जनपद मैनपुरी के कवि मुक्तक सम्राट श्री लाखन सिंह भदौरिया 'सौमित्र' व डॉ0 दीन मोहम्मद दीन भी इसमें छपते रहे थे। मैं इस पत्रिका में नहीं छप पाया जिसका मुझे दुख है। मैं इस पत्रिका में इसलिए नहीं छप पाया था कि मैंने 1983 से पत्र पत्रिकाओं में छपना शुरू किया था और 1983 में सुकवि विनोद बन्द हो गयी थी।
अंत में निष्कर्षतः यही कहा जा सकता है कि डॉ0 लक्ष्मी शंकर मिश्र 'निशंक' राष्ट्रीय चेतना के संवाहक, मानवता के पुजारी, अध्यात्म, प्रकृति, सौन्दर्य, इतिहास, मिथक व युग प्रबोध के कवि लेखक साहित्यकार थे। वे कुशल संपादक, कुशल प्राध्यापक होने के साथ-साथ एक अच्छे इंसान थे। सच्चे अर्थों में वे कोई साधारण मनुष्य नहीं एक महामानव थे जिनकी कीर्ति रश्मियाँ युगों-युगों तक दिगदिगंत को आलोकित करती रहेंगी। आज उनके शताब्दी वर्ष समारोह में उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूँ।
( डॉ0 लक्ष्मी शंकर मिश्र 'निशंक')
- डॉ० हरिश्चन्द्र शाक्य, डी0लिट्0
शाक्य प्रकाशन, घंटाघर चौक
क्लब घर, मैनपुरी-205001 (उ.प्र.) भारत
स्थाई पता- ग्राम कैरावली पोस्ट तालिबपुर
जिला मैनपुरी-205261(उ.प्र.) भारत
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