(यह विशेष प्रविष्टि पुरस्कारों की प्रविष्टियों में सम्मिलित नहीं है. विशेष प्रविष्टि के लिए आप भी अपने संस्मरण लिखें और हमें भेजें. अपने सु...
(यह विशेष प्रविष्टि पुरस्कारों की प्रविष्टियों में सम्मिलित नहीं है. विशेष प्रविष्टि के लिए आप भी अपने संस्मरण लिखें और हमें भेजें. अपने सुखद, मार्मिक संस्मरणों को सहेजने का इससे सुंदर आयोजन और क्या हो सकता है भला?)
बच्चन की यादें
डा. सुरेन्द्र वर्मा
नहीं, मैं भारतीय सिनेमा के महानायक अमिताभ बच्चन की बात नहीं कर रहा हूँ जिनका सरनेम बच्चन है, मैं तो उस लोकप्रिय कवि हरिवंश राय की बात कर रहा हूँ जिनका तकल्लुस “बच्चन” है और जो अमिताभ के पिता हैं। अमिताभ बच्चन अपने पिता के संस्मरण और उनकी कवितायेँ प्राय: सुनाते रहते हैं, और हम सब में बसी “बच्चन” जी की यादें पुन: पुन: जीवंत करते रहते हैं।
यह मेरा सौभाग्य रहा है कि मैंने बच्चन जी को न केवल कवि के रूप में सुना और सराहा है बल्कि, उन्हें एक शिक्षक के रूप में भी, करीब से देखा है। यह सन १९५०-५२ की बात है। मैं तब इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बीए का छात्र था। इतिहास और दर्शन शास्त्र के अतिरिक्त अंग्रेज़ी साहित्य भी मेरे अध्ययन का एक विषय था। प्रो. एस सी देब अंग्रेज़ी विभाग के अध्यक्ष थे। अंग्रेज़ी विभाग उन दिनों बड़ा समृद्ध था। के के महरोत्रा जैसे एक से एक बढ़कर अंग्रेज़ी के विद्वान थे। इस विभाग की विशेषता थी कि अंग्रेज़ी के अध्यापक के रूप में हिन्दी और उर्दू साहित्य की नामी-गिरामी शक्सियतें भी इस विभाग में मौजूद थीं। प्रकाश चन्द्र गुप्त थे जिन्होंने हिन्दी साहित्य में अपने रेखाचित्रों के लिए नाम कमाया था। एस पी खत्री थे जिन्होंने हिन्दी जगत को अंग्रेज़ी आलोचना शास्त्र से परिचय कराया था। साथ ही मशहूर शायर रघुपति सहाय ‘फिराक’ थे और “बच्चन” जी भी थे। उस समय “बच्चन” जी की एक कवि के रूप में ख्याति अपने चरम पर थी। मैंने तो तब कभी यह सोच भी नहीं सकता था कि मधुशाला का यह हिन्दी कवि इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी पढाता होगा।
“बच्चन” जी ने मेरी नियमित अंग्रेज़ी की कक्षाएं तो कभी ली नहीं लेकिन केपीयूसी (कायस्थ पाठशाला यूनिवर्सिटी कालेज) में वे ‘ट्यूटोरियल्स’ लिया करते थे। मैं भी केपीयूसी से जुड़ा हुआ था। जब मुझे पहली बार पता चला की “बच्चन” जी हमारे अंग्रेज़ी के ट्यूटोरियल्स लेंगे तो मुझे सुखद आश्चर्य हुआ। मेरे मन में “बच्चन” जी की तस्वीर मधुशाला के कवि और गायक के रूप में घर कर गई थी और मैं सोचता था कि वे जब मुझे पढाएंगे तो मैं उनसे अंग्रेज़ी कम और हिन्दी ज्यादह सीख पाऊँगा। लेकिन यह क्या? वे तो अंग्रेज़ी पढ़ाते समय भूल कर भी हिन्दी में बात नहीं करते। दिए गए होमवर्क के एक एक शब्द को पढ़ते थे, गलतियाँ सुधारते थे। जितनी देर पढ़ाते थे तो सिर्फ पढाते ही थे। मैंने उन्हें पढ़ाते समय कभी विषय से भटकते नहीं देखा।
उन दिनों विश्वविद्यालय में खूब कविसम्मेलन हुआ करते थे। ”बच्चन” जी जब उनमें शिरकत करते थे तो छात्र-छात्राएं बस उन्हीं को सुनना चाहते थे। ”अरे भई, मैं सो सुनाऊँगा ही, फिलहाल आप अन्य कवियों को, जो बाहर से पधारे हैं, भी अवसर दें। फिर बाद में तो बस मैं हूँ, तुम हो. और हमारी रात है !” उनकी विनोद प्रियता संक्रामक थी। एक बार वे एक कविसम्मलेन में अध्यक्षीय आसन पर विराजमान थे। एक कवयित्री ने उनके कान में कुछ कहा तो वे माइक पर आ गए। कवयित्री का नाम लेकर बोले, मोहतरमा को ट्रेन पकड़ कर दिल्ली जाना है, वह चाहिती हैं कि जाने से पहले कम से कम एक कविता तो मैं उन्हें सुना ही दूँ। “वैसे अध्यक्ष के नाते तो मुझे बाद में ही बोलना है”, और फिर ‘बच्चन’ जी कवयित्री की तरफ मुकातिब होकर बोले,” मैं क्या गाऊँ जो तुमको भा जाऊँ। जी हाँ, मेरी कविता की यह पहली पंक्ति है।” फिर क्या था , जो तालियाँ बजीं तो काफी देर तक बजती ही रहीं।
बच्चन जी को लोग मधुशाला के कवि के रूप में जानते हैं। लेकिन उनकी एक अन्य रचना, “निशा- निमंत्रण उन दिनों मुझे बहुत ही पसंद थी। उसके गीतों में जो गेयता और मार्मिकता थी, यह हृदय को छूने वाली है। बच्चन जी की निशा निमंत्रण और आकुल अंतर में हमें उनका बिलकुल एक दूसरा ही रूप नज़र आता है। निशा निमंत्रण की रचनाओं में कवि ने अपने प्रेम के निजी अवसाद और संवेदन को वाणी प्रदान की है। मैं बहुत चाहता था कि निशा-निमंत्रण के गीत मैं उनके ही मुंह से सुन सकूँ। लेकिन यह संभव नहीं हो सका।
मेरा अध्ययन पूरा हो चुका था। १९५५ में बच्चन जी दिल्ली में विदेश मंत्रालय में “ऑसीफर ऑन ड्यूटी’’ (हिन्दी) नियुक्त हो गए। मेरा भी इलाहाबाद छूट गया। १९५५ में मैं उज्जैन प्राध्यापक होकर आ गया था। लेकिन “बच्चन” जी से मेरी मुलाक़ात उनकी रचनाओं के जरिए बराबर होती रही। उनकी आत्म कथा, जो तीन अंकों में छपी है, के तो क्या कहने हैं। यह आत्म-कथा विश्व की श्रेष्ठतम आत्म-कथाओं में से एक है। उसे पढ़ता हूँ तो लगता है, साक्षात उन्हीं से बात कर रहा हूँ।
एक बार कालीदास जयंती पर “बच्चन” जी को उज्जैन कवि सम्मेलन में आमंत्रित किया गया था। उनकी कई कवितायेँ सुन चुकने के बाद सुमन जी, जो उन दिनों माधव कालेज के प्राचार्य थे, ने उनसे निवेदन किया कि वे एकाध कविता “निशा निमंत्रण” की भी सुनाएं। मुझे लगा कि आज मेरी वर्षों की तमन्ना पूरी हो जाएगी। किन्तु, यह क्या ? बड़ी विनम्रता से बच्चन जी ने सुमन जी की मांग को यह कहकर अस्वीकार कर दिया कि निशा-निमंत्रण की कवितायेँ मेरे दिल के बहुत करीब हैं और इन्हें इस प्रकार किसी सम्मेलन में सुनाना ठीक नहीं होगा।
इस संस्मरण के बहाने मैं उन्हें प्रणाम करता हूँ।
--डा. सुरेन्द्र वर्मा
१०,एच आई जी / १, सर्कुलर रोड,
इलाहाबाद -२११००१
हरिवंश राय जी की बारे में बहुत अच्छा संस्मरण पढ़ने को मिला, धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबचपन फिर ना लौटेगा
जवाब देंहटाएंवो बचपन की किलकारियां
ना कोई दुश्मन ना यारियां
सर पे ना कोई ज़िम्मेदारियाँ
वो मासूम सी होशियारियाँ,
वो बचपन फिर ना लौटेगा !
वो धूप में नंगे पाँव दौड़ना
कभी कीचड़ में लौटना
ना हारना ना कभी थकना
कभी बे वजह मुस्कुराना,
वो बचपन फिर ना लौटेगा !
गली गली बेवजह दौड़ना
खिलोने पटक कर तोड़ना
टूटे खिलोने फिर से जोड़ना
छोटी छोटी बात पर रूठना,
वो बचपन फिर ना लौटेगा !
कभी मिटटी के घर बनाना
घरों को फिर मिटटी से सजाना
कभी दिन भर माँ को सताना
फिर माँ की छाती से लिपट सो जाना,
वो बचपन फिर ना लौटेगा
हाँ !! वो बचपन फिर ना लौटेगा