एक थी माया .............!!! :::: १९८० :::: ::: १ ::: मैं सर झुका कर उस वक़्त बिक्री का हिसाब लिख रहा था कि उसकी धीमी आवाज सुनाई दी, "अ...
एक थी माया .............!!!
:::: १९८० ::::
::: १ :::
मैं सर झुका कर उस वक़्त बिक्री का हिसाब लिख रहा था कि उसकी धीमी आवाज सुनाई दी, "अभय, खाना खा लो",मैंने सर उठा कर उसकी तरफ देखा, मैंने उससे कहा," माया, मैं आज डिब्बा नहीं लाया हूं।" दरअसल सच तो यही था कि मेरे घर में उस दिन खाना नहीं बना था। गरीबी का वो ऐसा दौर था कि बस कुछ पूछो मत। जो मेरे पढ़ने का वक़्त था, उसमें मैं उस मेडिकल शॉप में सेल्समेन का काम करता था।
वो सामने खड़ी थी। मैंने उसे गहरी नज़र से देखा। वो एक साधारण सी साड़ी पहने हुई थी। जिस पर नीले रंग के फूल बने हुए थे। पता नहीं उस साड़ी को कितनी बार धोया जा चूका था, उन नीले फूलो का रंग भी उतर सा गया था। उसने मुस्करा कर कहा " मेरे डिब्बे में थोडा सा खाना तुम्हारे लिए भी है। चलो खाना खा लो, लंच का समय है"। मैंने हंसकर कहा, " अच्छा ये बताओ कि, तुम्हारे डिब्बे में मेरे लिए कब से खाना आने लगा।"
उसने कुछ नहीं कहा, बस मुस्करा कर अन्दर के कमरे में चली गयी। मैंने भी हिसाब किताब बंद किया और उस कमरे में चल दिया जहाँ उस मेडिकल शॉप के दूसरे बन्दे भी बैठकर दोपहर का खाना खा रहे थे। उसने डब्बा खोला। कुल मिलाकर उसमें चार रोटी, आलू प्याज की सब्जी, और एक अचार का टुकड़ा था। उसने डब्बे के कवर में मुझे तीन रोटी और कुछ सब्जी दी, खुद एक रोटी, सब्जी और अचार के साथ खाने लगी।
मैंने कहा, " ये क्या माया, एक रोटी से क्या होगा," उसने कहा, "मैं बहुत कम खाती हूँ,अभय" मैंने ध्यान से उसे देखा। उसके चेहरे में कोई आकर्षण नहीं था, पर वो अच्छी दिखती थी या हो सकता है कि उस दौर में या उस वक़्त में, ये सिर्फ उस उम्र का आकर्षण था, पर कुछ भी हो उसमें कुछ अच्छा लगता था मुझे। डब्बे का खाना खत्म हो गया था और दुकान मालिक की आवाज आ रही थी, चलो सब काम पर लगो, ग्राहक आ रहे है।
::: २ :::
मेरा नाम अभय है और उस वक़्त, मेरी उम्र करीब २२ साल थी। मैं कामर्स विषय में डिग्री की पढाई कर रहा था, साथ में ये नौकरी भी। घर के हालात कुछ अच्छे नहीं थे। इसलिए नौकरी करना जरुरी था। सो सुबह कॉलेज जाता था और दोपहर में कॉलेज से सीधा इस दुकान में आ जाता था, जिसमें मैं सेल्समन की नौकरी करता था। करीब रात के ८ बजे तक यहाँ नौकरी करता था और फिर नए सपनों की उम्मीद में मैं अपने घर चला जाता था। माया को हमारी दुकान में आये करीब १ महीना हो गया था। वो यहाँ पर अकाउंटेंट का काम करती थी। उसकी उम्र मुझसे ज्यादा ही थी। रोज वो साइकिल से आती और चुपचाप अपना काम करती और चली जाती, कभी भी किसी से कोई ज्यादा बात नहीं करती थी, दुकान मालिक ने जो कहा उसे सुन लिया। वो एक दुबली पतली सी लड़की थी और उसके रख - रखाव से जाहिर था कि वो भी गरीब थी। वो भी का मतलब ये था कि मैं भी गरीब ही था। मैं स्लीपर पहनता था। सिर्फ दो पेंट थी। और चार शर्ट, बस उसी से गुजारा चलता था। इस मेडिकल शॉप में मैं सेल्समेन था। मन में कल के लिए सपने थे लेकिन राह नज़र नहीं आती थी। यूँ ही ज़िन्दगी गुजर रही थी। उन दिनों मुझ जैसे गरीब आदमी के सपने और ख्वाहिशें भी छोटी ही होती थी।
::: ३ :::
धीरे-धीरे माया से मेरी दोस्ती हो गयी। और बीतते हुए समय के साथ ये दोस्ती और गहरी होती चली गयी। उसको मुझमें कुछ अच्छा लगने लगा और मुझे उसमें कुछ। मुझे लगा कि ये प्यार ही था। उस वक़्त प्यार शब्द भी अच्छा लगता था और उसका अहसास भी। खैर,ज़िन्दगी कट रही थी। दोपहर से शाम तक काम और सिर्फ काम, दुनियादारी की दूसरी बातों के लिए समय नहीं मिलता था। कभी कभी काम के इन्हीं मुश्किल और न ख़त्म होने वाले पलो में हम एक दूसरे की ओर देख कर मुस्करा लिया करते थे। हाँ वो ज्यादा मुस्कराती नहीं थी। पर मुझे अच्छी लगती थी।
हम अक्सर बाते कर लेते थे। उसने मुझे बताया कि वो अपने पिता और दो छोटे भाई बहन के साथ रहती थी। कॉमर्स में उसने ग्रेजुएशन किया था और पढाई के तुरंत बाद ही नौकरी करने लगी थी, क्योंकि उसके पिता के पास कोई रोजगार नहीं था और अब सारे परिवार की जिम्मेदारी उस पर ही थी। बस नौकरी और घर, इन दोनों के सिवा उसकी ज़िन्दगी का कोई ओर मकसद नहीं था। पर उसकी ज़िन्दगी में शायद अब मैं भी था।
गुजरते दिनों के साथ मैं उसके और करीब आने लगा था, मुझे वो अब और ज्यादा अच्छी लगने लगी थी। उसकी मेहनत, उसका भोलापन, उसकी ज़िन्दगी को जीने की जुस्तजू और अपने परिवार के लिए उसकी अपनी खुशियों का गला घोंट देना मुझे बहुत अपना सा लगने लगा था। क्या ये प्यार था? आज सोचता हूँ तो उन अहसासों के कई नाम थे, पर मुझे लगता है कि उस वक़्त वो सिर्फ प्यार ही था।
::: ४ :::
दुकान के मालिक ने दीवाली की ख़ुशी में सबको उपहार दिए। मैंने धीरे से अपना उपहार भी उसके बैग में डाल दिया, उसने ये देखकर मुझसे कहा, “देखो ऐसा न करो, मेरी अपनी खुद्दारी है, सिर्फ वो ही अब मेरे पास बची रह गयी है, उसे तो न छीनो।“ मैंने उससे कहा “ऐसी कोई बात नहीं है, बस इस उपहार का मैं क्या करूँगा? हाँ, अगर ये तुम्हारे काम आया तो मुझे अच्छा लगेगा। देखो, मना मत करो, इसे रख लो।“ उसने बहुत मना किया, पर मैं भी नहीं माना और उसे अपना भी उपहार दे दिया। उपहार लेते समय उसकी आँखें भर आई। उस दिन मुझे बहुत अच्छा लगा। सारा दिन आकाश में बादल छाये रहे। मन बावरा पक्षी बन उड़ता रहा।
::: ५ :::
समय बीतता रहा , मेरी तनख्वाह बढ़ी। जब नयी तनख्वाह मिली तो मैंने माया से कहा कि उसे मैं पार्टी देना चाहता हूँ। वो हंस दी। उसने कहा कि उसने मेरे लिए एक शर्ट खरीदी है। क्योंकि मेरा जन्मदिन नजदीक आ रहा था, तो दोनों बातों को एक साथ ही सेलिब्रेट करे। मैंने भी कहा, हां ये ठीक है। और हंसकर अपनी अपनी साइकिल से वापस घर की ओर चल दिये।
माया मेरे मोहल्ले से करीब ८ किलोमीटर दूर रहती थी। हमारे घरों को अलग-अलग करने वाला एक मोड़ था। उस पर आकर हम रुकते थे और अपनी अपनी राह पर चल पड़ते थे, दूसरे दिन फिर से मिलने के लिये। उस दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ। हम रुके, माया से मैंने कहा कि कल मिलते है। और कल दोपहर का खाना कहीं बाहर खा लेंगे, तुम डब्बा नहीं लाना। माया ने मुस्करा कर हां कहा। मुझे पता नहीं पर क्यों उसकी भोली सी मुस्कराहट बहुत अच्छी लगती थी।
दूसरे दिन माया नहीं आई। मैं पहली बार परेशान हुआ। कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था। उन दिनों फ़ोन की सुविधा भी ज्यादा नहीं थी, क्या हुआ, क्यों नहीं आई? जैसे तमाम सवाल मन में उमडने लगे। शाम को मैं जल्दी ही निकल पड़ा और अपनी साइकिल से उसके घर तक गया, उसने मुझे एक बार अपने घर का पता बताया था। घर पहुंचा, वो एक छोटा सा घर था, शायद सिर्फ दो कमरों का।
मैंने दरवाजे की सांकल खड़खड़ायी, दरवाजा खुद माया ने ही खोला । मुझे देख कर चौंक सी गयी। मैंने पुछा क्या हुआ, दुकान क्यों नहीं आई। उसका चेहरा उदास था। उसने कुछ नहीं कहा, बस अन्दर आने का इशारा किया। घर के भीतर गया तो देखा कि एक चटाई है और उसपर उसके पिताजी और दोनों भाई बहन बैठे हुए है, सभी उदास। उसके पिताजी मुझे जानते थे, वो एक दो बार दुकान पर भी आये हुए थे, तब मुलाक़ात हुई थी। मैंने उन्हें नमस्ते की और बच्चों से उनकी पढाई के बारे में पूछा।
फिर माया से पूछा कि वो दुकान पर क्यों नहीं आई तो पता चला कि कल जो तनख्वाह माया को मिली थी वो रास्ते में साइकिल से उसके बैग सहित गिर गयी, जब तक वो उतर कर वापस जाती वो बैग ही गायब हो चूका था। उसने शाम को पूरे तीन चक्कर लगाए घर से ऑफिस और ऑफिस से घर, पर बैग को न मिलना था और वो न मिला। मेरी जेब में कल की मिली हुई तनख्वाह का करीब आधा हिस्सा बचा था। वो मैंने निकाल कर उसके हाथ में रख दिया। उसने आँखें भर कर मुझे देखा। मैंने कहा, " कुछ न कहो, बस ले लो। मुझे अच्छा लगेगा। " उसके पिताजी ने मुझे देखकर हाथ जोड़ दिए। मैंने उनके हाथों को अपने हाथों में ले लिया और दोनों बच्चों के सर पर हाथ फेरकर बाहर निकल गया। उस दिन मुझे फिर से बहुत अच्छा लगा। सारा दिन आकाश में बादल छाये रहे। मन बावरा पक्षी बन उड़ता रहा।
::: ६ :::
हम अक्सर यूँ ही मिलते रहे। ऑफिस में, राह में, बस यूँ ही। कभी कुछ भी कहा नहीं एक दूसरे से, बस मिलते रहे। और एक दूसरे को देखते रहे। कई बार बहुत कुछ कहने को हुआ, पर कह नहीं पाए। वो मुझे देखती और मैं उसे देखता। बस दिन यूँ ही गुजर जाते। बीच में उसका एक जन्मदिन आया।, मैंने उसे एक छोटा सा लॉकेट दिया। जिसमें चांदी से अंग्रेजी में "A" बना हुआ था। उसने मुझे कहा कि वो ये लॉकेट हमेशा अपने पास रखेंगी। ज़िन्दगी के दिन बीतते गए। मुझे मेरे दोस्त दूसरे शहर में अक्सर बुलाते रहे, ताकि मैं एक बेहतर नौकरी कर सकूं ; लेकिन मैं कभी नहीं गया, एक तो मुझे दूसरे शहर में जाकर बसना, इस बात से ही डर लगता था और दूसरा मुझे माया से अलग नहीं रहना था।
::: ७ :::
उस दिन शिवरात्रि थी। वो शिव की पूजा करती थी। कुछ ज्यादा ही पूजा करती थी। मैंने उससे पूछा, "क्यों इतनी ज्यादा पूजा करती हो शिव की ", उसने कहा, "शिव भगवान की पूजा करने से अच्छा पति मिलता है। बिलकुल तुम्हारे जैसा।" ये कहकर वो शर्मा गयी। मैं भी शर्मा गया। उसने कहा,"आज मैं डिब्बे में साबूदाने की खिचड़ी लायी हूँ। आओ, खाना खा लो। " हमने लंच में साबूदाने की खिचडी खाई, फिर उसने कहा कि वो शिव मंदिर जा रही है। मुझे भी साथ आने को कहा। मैं भी चल पड़ा, मैं बहुत ज्यादा भगवान को नहीं मानता था, पर ठीक है चलो... मंदिर चलो।
शिव मंदिर में भीड़ थी। वो मंदिर शहर के एक पुराने तालाब के किनारे बना हुआ था। उसने पूजा की और हम दोनों तालाब के किनारे जाकर बैठ गए। शाम गहरी होती जा रही थी। कुछ देर में अँधेरा छा गया। अब कुछ इक्का दुक्का लोग ही रह गए थे, वो मुझसे टिक कर बैठी थी। हम चुपचाप थे। पता नहीं क्या हुआ, मैंने उसका हाथ पकड़ा। उसने कुछ नहीं कहा। मुझे कुछ होने लगा। फिर मैंने उसका चेहरा थामा अपने हाथों में और धीरे से उसके होंठों को छुआ। वो ठन्डे से थे। मैंने तुरंत उसका चेहरा देखा, वो मेरी ओर ही देख रही थी। मैंने कहा कि मुझे शायद उससे प्रेम हो गया है। उसने धीरे से कहा कि वो मुझसे प्रेम करती है। मैंने फिर उसका चेहरा छुआ। वो फिर से ठंडा ही लगा। मैंने सकपका कर पुछा, "माया तुम्हें कुछ नहीं होता" उसने सर उठा कर पुछा, "मतलब ?" मैंने पूछा कि तुम कुछ रियेक्ट ही नहीं कर रही है। "तुम ऐसी क्यों हो?" उसने सर झुका लिया, उसकी आँखें गीली हो गयी। उसने धीरे से कहा, "अभय, मैं ऐसी ही हो गयी हूँ। मेरा जीवन, मेरी गरीबी और मेरे घर के हालात, सबने मिलकर मुझे ऐसा बना दिया है। मेरे मन में किसी के लिए कोई भावना नहीं उमड़ती है "। मैंने कुछ नहीं कहा। बस चुप रह गया। बहुत देर तक हम दोनों में ख़ामोशी रही। फिर पुजारी ने आकर कहा कि मंदिर बंद हो रहा है, अब हम जाए। हम दोनों चुपचाप बाहर की ओर निकले और अपनी अपनी साइकिल उठायी और चल दिए। मैंने उसे उसके घर तक छोड़ा, हम दोनों में से किसी ने कुछ नहीं कहा।
::: ८ :::
दूसरे दिन माया ने मुझसे कहा, "आज तुमसे कुछ बाते करनी है।" मैंने कहा,"हाँ कहो न।" उसने कहा, "वहीं उसी मंदिर में चलो।" हम दोनों फिर उसी मंदिर में उसी जगह जाकर बैठ गए। उसने मेरा हाथ पकड़ा। शाम हो रही थी। सूरज डूब रहा था, तालाब के उस किनारे और हम दोनों बैठे थे इस किनारे।
उसने कहा, " देखो अभय। आज मैं तुमसे जो कहने जा रही हूँ सुनकर तुम्हें अच्छा नहीं लगेगा, पर यही सच है और यही हम दोनों के लिए अच्छा होगा।" मैं चुप था। उसने कहा, "मैं जानती हूँ कि तुम मुझसे प्रेम करते हो और मैं भी तुमसे प्रेम करती हूँ," ये कहकर उसने मेरा हाथ दबाया। मैं थोडा सा आश्वस्त सा हुआ। फिर उसने कहा," लेकिन हम शादी के लिए नहीं बने है।" मुझे एकदम से सदमा सा लगा। माया ने कहा, "देखो, तुम्हें अगर लगता है कि हम दोनों बहुत अच्छे पति -पत्नी साबित होंगे तो ये तुम्हारी ग़लतफ़हमी है। शादी के कुछ दिनों या महीनों के बाद तुम अपने प्रेम को खो दोगे और यही से तुम और मैं अलग-अलग होते चले जायेंगे।" मैंने एकदम से कहा , "ये तुम क्या कह रही हो माया और कैसे कह सकती हो ; ये सच नहीं है।" माया ने कहा, मैंने तुमसे ज्यादा दुनिया देखी है अभय। तुम बहुत अच्छे इंसान हो अभय और मैं नहीं चाहती कि तुम्हारे भीतर का ये इंसान जीते जी ही मर जाए।" मैंने कहा, "नहीं माया ऐसा कुछ नहीं होगा। बस कुछ दिनों की ही बात और है, फिर एक नयी नौकरी के साथ ही सब कुछ ठीक हो जायेगा। हम शादी कर लेंगे।"
माया ने कहा, "तुम समझ नहीं रहे हो, मैं अपने पिताजी और छोटे भाई बहन को नहीं छोड़ सकती हूँ। मेरा जीवन उन्हीं के लिए है।" मैंने कुछ रुकते हुए कहा, "मैं कुछ दिन इन्तजार कर लूँगा।" माया ने मेरा चेहरा हाथ में लेकर कहा कि "नहीं अभय , तुम इस इन्तजार को नहीं सह पाओगे और अगर हमने जल्दबाजी में शादी कर भी ली तो, सब कुछ थोडे ही दिनों में ख़त्म हो जायेगा। मैं तुम्हें और तुम्हारी अच्छाई को ख़त्म होते नहीं देख सकती।"
मेरी आँखें भीग गयी। माया ने कहा, "देखो हम दोनों हमेशा ही अच्छे दोस्त रहेंगे और प्रेम तो है ही, तुम्हें प्रेम में, मेरा ये शरीर भी चाहिए तो ये भी तुम्हारा ही है। लेकिन मैं तुम्हें कभी भी ख़त्म होते नहीं देख सकती हूँ और अगर हमने शादी की तो दुनिया की दुनियादारी तुम्हारे प्रेम को ख़त्म कर देंगी, मैं ये जानती हूँ। "
मैंने एक अनजानी सी आवाज में पुछा, " तुम बहुत देर से मेरे प्रेम और मेरे ही बारे में बात कर रही हो, क्या तुम्हारा प्रेम कभी ख़त्म नहीं होगा?
माया ने मुस्कराकर कहा,"नहीं मेरे अभय, मेरा प्रेम तुम्हारे लिए कभी भी खत्म नहीं होगा। तुम देख लेना। मैं खुद को भी जानती हूँ और तुम्हें भी।"
मैंने गुस्से में कहा, "तुमने ये बात कैसे कह दी कि मुझे तुम्हारा शरीर चाहिए?" माया ने कहा,"मैं जानती हूँ कि तुम्हें नहीं चाहिए पर अगर तुम्हारे भीतर मौजूद पुरुष को चाहिए तो ये भी तुम्हारा ही है। मैंने सिर्फ हम दोनों के बीच में मौजूद प्रेम की बात की है। "
मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था, मुझे कुछ समझ भी नहीं आ रहा था कि ऐसा क्या करूँ कि कहीं कोई समस्या न रहे। पर गरीबी अपने आप में बहुत बड़ी समस्या होती है ये मुझे उस दिन ही पता चला। मुझे अपने आप पर, अपनी गरीबी पर उस दिन पहली बार गुस्सा आया और बहुत ज्यादा आया और मैं भीतर तक टूट गया। मेरी ज़िन्दगी का पहला सपना ही बिखर रहा था।
मैं गुस्से में चिल्ला बैठा, " मुझे कुछ भी नहीं चाहिए, न तुम, न तुम्हारा प्रेम और न ही तुम्हारा शरीर।" और मैं उसे छोड़कर चल दिया, वो मुझे पुकारती ही रह गयी। और मैं चला गया।
उस दिन मैंने पहली बार शराब पी, घर में चिल्लाता हुआ घुसा। माँ से कहा, अब मैं शहर चला जाऊँगा, यहाँ नहीं रहना है मुझे, दुनिया ख़राब है, ये ऐसा है, वो वैसा है, पता नहीं क्या क्या बकते हुए मैं नींद के आगोश में चला गया।
दूसरे दिन मैं दुकान नहीं गया। मैंने बहुत सोचा, मुझे कोई समाधान नहीं मिला। गरीबी का कोई तुरंत समाधान नहीं होता, ये बात भी मुझे उसी वक़्त पता चली। मैं तीन दिन दुकान नहीं गया, माया भी नहीं मिलने आई। मैं तीसरे दिन दुकान पहुंचा तो पता चला कि माया ने नौकरी छोड़ दी है। इस बात से मुझे बड़ा धक्का लगा। मैं शाम को उसके घर पहुंचा। वो घर पर नहीं थी । मैंने उसका इन्तजार करता रहा। उसके पिताजी ने कहा कि उसे कोई दूसरी नौकरी मिल गयी है। ये सुनकर मुझे बहुत बुरा लगा। थोड़ी ही देर में माया आ गई। मुझे देखकर उसने ख़ुशी से कहा, “चलो अच्छा हुआ तुम आ गए, तुम्हें एक खबर सुनानी थी।“ मैंने गुस्से में कहा, “मुझे मालूम है। मैं चलता हूँ।“ माया ने कहा, “ अरे बाबा, रुको तो, तुम तो हमेशा ही गुस्से में रहते हो। थोडा शांत भी हो जाओ, अच्छा बैठो।” फिर उसने मुझे चिवडा खिलाया और फिर मुझे साथ लेकर बाहर आ गयी। उसने बड़े गंभीर स्वर में कहा, “देखो अभय अगर मैं वहां रहती तो न तुम काम कर पाते और न ही मैं। हम दोनों का जीवन ही खराब हो जायेगा । इसलिए मैंने दूसरी जगह नौकरी कर ली है । हम अब हफ्ते में एक बार मिलेंगे । दोनों का मन ठीक रहेगा और हम दोनों की दोस्ती और प्रेम भी जिंदा रहेगा।” मैं बहुत देर तक उसे देखता रहा, कुछ नहीं कह पाया . मेरी आँखों में आंसू आ रहे थे। थोड़ी देर तक मैं उसका हाथ थामे बैठा रहा, कुछ देर बाद मैं चुपचाप चला आया !
::: ९ :::
मैं करीब एक हफ्ते दुकान पर नहीं गया । बहुत सोचा, फिर लगा कि माया की सोच ठीक है। हमें अभी जीवन को और सुदृढ़, कल को और अधिक मजबूत बनाने की ओर ध्यान देना होगा। हो सकता है कल कुछ अधिक बेहतर रास्ता निकल आये। सो पढाई फिर शुरू हो गयी, नौकरी भी चलने लगी, हफ्ते में एक दिन माया से मिलता,बहुत सी बाते करता। और इस तरह समय को पंख लगाकर उड़ते हुए देखता रहा।
लेकिन, जल्दी ही लगने लगा कि कुछ नया नहीं होगा, जीवन बस ऐसे ही चलने वाला है। गरीबी के दिन पहाड़ जितने लम्बे थे, कुछ सूझता नहीं था। कुछ दोस्त जो बाहर चले गए थे, वो बार बार बुला रहे थे, माँ भी कह रही थी कि दूसरे शहर में जाकर एक नयी नौकरी ढूँढू जिससे कि घर की आमदनी बढे। बस मेरा मन ही नहीं मान रहा था, पता नहीं किस मृग मरिचिका में मैं भटक रहा था, अब कभी कभी शराब भी पीने लगा था। माया भी अब पता नहीं क्यों उदास रहने लगी थी। जब भी हम मिलते, वो बार बार मेरा हाथ पकड़कर रो देती थी। मुझे ये सब बाते और पागल बना रही थी ।
वो मेरे कॉलेज का आखिरी साल था। उम्मीद थी कि एक अच्छी नौकरी मिल जायेंगी । रिजल्ट निकला, मैं पास हो गया था । अब कुछ नया करने का समय आ गया था।
::: १० :::
उस दिन शिवरात्रि थी। मुझे मालूम था कि माया आज फिर मंदिर में जायेगी। उसने कल ही कहा था कि आज वो ऑफिस नहीं जाएगी। दोपहर के बाद वो मंदिर में आएगी। मैंने कहा, " मैं भी उसे मंदिर में मिलूँगा।" दोपहर के बाद मैं उसी मंदिर में पहुंचा, जहाँ मैं उसे मिलता था। आज भीड़ थी, मैं मंदिर के कोने वाली एक जगह पर बैठ गया। धीरे-धीरे शाम हो रही थी। अचानक माया की आवाज आई, "लो तुम यहाँ बैठे हो और मैं तुम्हें सारे मंदिर में ढूंढ रही हूँ।" मैंने उसकी ओर मुड़कर कहा "अरे बाबा , यही तो अपनी जगह है।" वो पास आकर बैठ गयी। उसके साथ उसके दोनों भाई बहन भी आये थे। उन्होंने मुझे नमस्ते की। मैंने भी उन्हें आशीर्वाद दिया। माया ने मुझे पूजा के लिए आने को कहा। मैंने मुस्करा कर कहा, "तुम जानती हो, मैं भगवान को नहीं मानता। तुम जाओ और पूजा कर के आ जाओ।" उसने कहा, "देखना, एक दिन तुम, इसी मंदिर में इसी भगवान को हाथ जोडोगे।" मैं मुस्करा दिया। थोड़ी देर बाद वो आई और मेरे पास बैठ गयी। उसने अपनी झोली में से एक डब्बा निकाला, उसे मेरी ओर बढाकर कहा," इसमें तुम्हारे लिए लड्डू और चिवडा है।" मैंने हंसकर कहा "अरे तुम कब तक मेरे लिए डब्बा लाती रहोगी?"
माया ने कहा, "जब तक मैं जिंदा हूँ, तब तक तुम्हारे लिए हर शिवरात्रि को मैं ये डब्बा लाऊंगी ये वादा रहा।" मेरी आँखें भीग गयी। मैंने कुछ नहीं कहा और डब्बे में रखा खाना बच्चों के साथ बांट कर खाने लगा।
माया ने धीरे से मेरा हाथ पकड़ कर कहा, "अभय एक खबर है तुम्हें बताना है।" मैंने कहा "बताओ।"
माया ने बच्चों को वहां से हटाने की गर्ज से उन्हें खेलने भेज दिया और उसने मेरा हाथ पकड़ा, बहुत कसकर पकड़ा, मानो उसे छूट जाने का डर हो, फिर उसने मेरी ओर बहुत प्यार से, बहुत गहरी नज़र से देखते हुये कहा,"अभय मेरी शादी तय हो गयी आज।"
मैं अवाक रह गया जैसे मुझ पर बिजली आ गिरी हो। मैं अजीब सी आँखों से माया को देखने लगा। माया ने कहा देखो, " हमने सोचा था कि हम एक दूसरे से शादी नहीं करेंगे ताकि हमारा प्रेम बचा रहे। और मुझे ये शादी करनी पड़ी। मैं शादी नहीं करनी चाहती थी, कभी भी नहीं और किसी से भी नहीं, ये बात तुम जानते हो। लेकिन मुझे परिवार के लिए ये शादी करनी पड़ेंगी।" मैं चुपचाप था। बहुत अजीब सा अहसास हो रहा था। दिमाग और दिल दोनों हवा में तैर से रहे थे। जो हमने तय किया था ये ठीक भी था कि हम दोनों एक दूसरे से शादी नहीं करेंगे ताकि हमारा प्रेम बचा रहे हमेशा ही, लेकिन माया की शादी किसी और से, ये मैं सहन नहीं कर पा रहा था। मैंने माया से गुस्से में पुछा, "ये क्या बात हुई, जब शादी ही करनी थी तो मुझसे कर लेती, मैं तो तैयार ही था?" माया ने शांत स्वर में कहा, "अभय, तुम समझ नहीं रहे हो, हम दोनों की सामाजिक परिस्थिति अलग-अलग है। मैं तो खुश हो जाती तुमसे शादी करके, लेकिन तुम कभी भी खुश नहीं हो पाते।"
मैं भड़क कर बोला "और तुम अब जो शादी कर रही हो, उससे तुम खुश हो ?" माया ने बहुत शांत स्वर में मेरा हाथ पकड़ कर कहा," अभय, मेरे लिए तुमसे बेहतर कोई और पुरुष नहीं। भगवान शिव की कसम। मैं ये शादी अपनी ख़ुशी के लिए नहीं कर रही हूँ, मैं ये शादी सिर्फ अपने परिवार के लिए कर रही हूँ, जिनकी जिम्मेदारी मुझ पर ही है। तुम मेरे साथ कभी भी खुश नहीं रह सकते थे। थोड़ी देर की ख़ुशी रहती और फिर ज़िन्दगी भर का चिडचिडापन ! तुम्हारे लिए हमारा प्रेम सिर्फ बोझ बनकर रह जाता। और हर बीतते हुए वक़्त के साथ तुम ख़त्म होते जाते। और मैं ये नहीं चाहती थी। मैं चाहती हूँ कि तुम जिंदा रहो, न कि सिर्फ शरीर में बल्कि, ज़िन्दगी के विचारों में, तुम बहुत अच्छे इंसान हो। इस दुनिया को, और बहुत सी माया और दूसरे इंसानों को तुम्हारी जरुरत है। मैं तुम्हें जीते हुए देखना चाहती हूँ। "
पता नहीं माया कि बातों में क्या था, मैं शांत होते गया। मैंने धीरे से कहा, "पर माया, हमारा प्यार उसका क्या ?" माया ने कहा, "प्यार कभी नहीं मरता अभय। वो तो हमेशा ही जिंदा रहेगा। और हमारा प्यार तो कभी भी ख़त्म नहीं होगा "
मैंने धीरे से पुछा, "तुम्हारे होने वाले पति के बारे में तो बताओ?" माया ने कहा,"तुम्हें उनके बारे में जानकार बहुत अच्छा नहीं लगेगा , लेकिन जैसा कि मैंने कहा है ये शादी मैं सिर्फ अपने परिवार के लिए कर रही हूँ, तुम वादा करो कि तुम मुझे रोकोगे नहीं।" मैंने शक से उसे देखते हुए कहा, "क्या बात है माया, अगर तुम खुश न हो तो, क्यों कर रही हो ये शादी?" माया ने कहा, "मैंने बहुत पहले ही तुमसे कहा था अभय कि मैं अब मेरी ख़ुशी के लिए नहीं जीती हूँ। मेरे लिए मेरी ज़िन्दगी कि सबसे बड़ी ख़ुशी सिर्फ और सिर्फ तुम ही हो। तुम ही मेरे शिव का सबसे बड़ा प्रसाद हो। लेकिन मेरी किस्मत में तुम होकर भी नहीं हो।" फिर माया चुप हो गयी। इतने में बच्चे आ गए। वो घर चलने की जिद करने लगे। माया धीरे से उठी, उठते समय मेरे हाथ से उसका हाथ नहीं छूट रहा था।
मैं उसके साथ बाहर तक आया। मंदिर के बाहर आकर उसने मेरी तरफ देखा। उसकी आँखों में आंसू थे। उसने कहा, "अभय तुम मेरी शादी में मत आना। तुम सह नहीं पाओगे।" पता नहीं मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था। उसने मेरी तरफ देखा। मेरे होंठों को माया ने अपने दायें हाथ से छुआ और उस हाथ को अपने माथे पर, अपने सर पर, अपने दिल पर और अंत में अपने होंठों पर लगा दिया। उसने कहा, "अभय, हमेशा ही ऐसे अच्छे इंसान बनकर रहना। सोचना कि कोई माया थी जिसने तुम्हें ये कहा था।" मेरी आँखें फिर भीग गयी। मैंने कहा, “माया, मैं तुम्हें कभी भी भूला नहीं पाऊंगा।”
उसने एक रिक्शा वाले को हाथ दिखाया। रिक्शा पास आकर रुका। रिक्शे में उसने बच्चों को बिठाया और मुझे देखा। जी भर कर देखा। उसका दिल उसकी आँखों में साफ़ नजर आ रहा था। फिर उसने धीरे से कहा,"मेरे होने वाले पति विधुर है। उन्होंने वादा किया है कि वो मेरे पूरे परिवार की देखभाल करेंगे, जब तक सभी है, उन सभी का ख्याल रखेंगे। दोनों भाई बहनों को पढ़ाएंगे, उनका जीवन बनायेंगे, कभी भी कोई कमी नहीं होने देंगे। सबने पिताजी से और मुझसे कहा कि ये रिश्ता स्वयं भगवान ने भेजा है। वरना कौन आजकल किसी के परिवार को पालने की बात करता है? मैं भी मान गयी अभय, क्या करुं। मेरा जीवन अभिशप्त सा जो है। पर मेरे लिए ये भी भगवान का ही प्रसाद है। मैं चलती हूँ, कल से ऑफिस नहीं जाउंगी, अगले हफ्ते शादी है। तुम शादी में न आना।" कहकर वो रोने लगी।
मैं पत्थर का बन गया था, उसके कहे हुए शब्द पारे की तरह मेरे कानों में बरस रहे थे। मेरी आँखों से आंसू बह रहे थे। वो रिक्शे में बैठने के लिए मुड़ी, फिर पता नहीं क्या हुआ, मुझसे लिपट गयी, झुक कर मेरे पैर छुए, पैरों की मिट्टी अपने सर पर लगाई और अपनी रुलाई को दबाते हुए रिक्शे में बैठ गयी और फिर चली गयी। मुझे लगा कि मेरा जीवन ही जा रहा है। मैं पागल सा हो रहा था। बहुत देर तक मैं वहीं खड़ा उसको रिक्शे में जाते हुये देखता रहा।
कुछ देर में मंदिर की घंटियाँ बजने लगी, ये मंदिर के बंद होने का संकेत थी। मैं भीतर गया और भगवान को जी भर कर कोसा, मैंने कहा "इसीलिए मैं तेरी पूजा नहीं करता हूँ। तू है ही नहीं, तू इस दुनिया में अगर होता तो क्या ये होने देता?
इसी तरह का अनर्गल प्रलाप करते हुए और पता नहीं क्या-क्या बोलते हुए मैं मंदिर में चिल्लाने लगा। पुजारी ने मुझे मंदिर के बाहर निकाल दिया।
मैं रोते कलपते हुए घर आ गया, मां से कहा, मैं ये शहर छोड़कर जा रहा हूँ, दूसरी नौकरी ढूंढता हूँ और फिर तुझे भी ले जाता हूँ, मैंने उसी रात वो शहर छोड़ दिया।
:::: १९९२ ::
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बहुत बरस बीत गए। मैं अपने शहर को छोड़कर दूसरे शहर में नौकरी करने आ गया और वहीं बस भी गया। बीतते समय के साथ मेरा भी एक छोटा सा परिवार बन गया। लेकिन फिर भी कभी-कभी मुझे, माया की बहुत याद आ जाती, वो कैसी होंगी? उसका जीवन कैसा होगा? लेकिन मुझे ये तृप्ति थी मन में कि जब मैं उससे अलग हुआ तो वो ज़िन्दगी में बस गयी थी, उसका परिवार बस गया था। मैं अक्सर सोचता था कि क्या वो मेरे लिए एक बेहतर जीवन संगिनी साबित होती? और भी कुछ इसी तरह की अनेकों बातें... जिनका अब कोई मतलब नहीं था।
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फिर अचानक किसी काम के सिलसिले में मुझे अपने शहर जाना पड़ा। वहां पहुंच कर मेरे मन में सबसे पहली याद सिर्फ और सिर्फ माया की ही आयी थी। संयोगवश उस दिन शिवरात्रि भी थी। जिस काम के सिलसिले में मुझे जाना पडा था, उसे पूरा करते-करते मुझे शाम हो गयी थी, रात की गाडी थी वापसी के लिए और मैं एक बार माया से जरूर मिलना चाह रहा था। मेरे कदम खुद ब खुद उसके घर की तरफ मुड गये, अब वहां पर काफी कुछ बदल चूका था । उसके घर की जगह अब वहां कोई और बिल्डिंग सी बनी हुई थी। मैंने वहां पर पूछा तो पता चला कि माया के पिताजी गुजर चुके हैं, उनके गुजरने के बाद माया और उसका पति, माया के दोनों भाई बहन के साथ कहीं और रहने चले गए हैं। कहाँ गए किसी को मालूम नहीं था। मैं निराश होकर वापस लौट आया, रास्ते में मुझे तालाब के किनारे वाला वही मंदिर दिखाई दिया , आँखों में बहुत सी बाते तैर गयी। मेरे पास कुछ समय था, सो मैंने सोचा कि उसी मंदिर में बैठकर समय बिता लिया जाए।
मैं मंदिर में गया और उसी कोने पर जाकर बैठ गया जहां कभी माया के साथ बैठा करता था। कुछ भीड़ थी, पर मैं वहीं जगह बनाकर बैठ गया और माया के साथ इस जगह बिताये हुये लम्हों को याद करने लगा। थोड़ी देर बाद मंदिर लगभग खाली सा हो गया । मेरे दिमाग में बस यही चलता रहा कि माया कैसी होंगी? कहाँ होंगी?... कि तभी एक आवाज आई.... "मुझे मालूम था, तुम एक दिन यही मिलोगे। " मैं चौंक कर पलटा और देखा तो, माया खड़ी थी। मैं बहुत चकित हुआ और प्रभु की लीला पर खुश भी [ शायद पहली बार प्रभु की महता को स्वीकारा था ]।
मैंने माया को गौर से देखा। वो और भी उम्र दराज लग रही थी। उसके साथ उसके छोटे भाई और बहन भी थे, जो कि अब काफी बड़े हो गए थे, साथ में एक छोटा सा लड़का भी था। मैंने मुस्कराकर कहा, "आओ बैठो, तुम्हारी ही जगह है, तुम्हारा ही इन्तजार कर रही है।" वो पास आकर बैठ गई। मैंने उसकी तरफ हाथ बढ़ाया, उसने मेरा हाथ थामा और मेरी तरफ देखने लगी। मैंने कहा," कैसी हो माया " उसने कहा, "मैं ठीक हूँ और तुम ?"
"मैं भी ठीक हूँ।" मैंने कहा। मैंने फिर उसके भाई बहन की तरफ इशारा करके पुछा, "ये दोनों ठीक है ? " उसने कहा, "हां अब तो अच्छी स्कूल में पढ़ते है ।" मैं चुप हो गया। फिर उसने उस छोटे लड़के की ओर इशारा करके कहा "ये मेरा बेटा है।" मेरे मन में एक कसक सी उठी, फिर भी मैंने उसके बेटे की तरफ मुस्कराकर हाथ हिलाया।
उसने पूछा, "तुम कैसे हो। शादी कर ली ?" मैंने कहा "हां, कर तो ली, पर सच कहूँ तो कभी कभी तुम्हारी बहुत याद आती है। और आज यहाँ इस शहर में आना हुआ तो तुम्हारे घर गया, तुम नहीं मिली तो इस मंदिर में आ गया। और देखो तुम मिल भी गयी। यह तो बस भगवान का करिश्मा ही है। "
माया ने कहा," अच्छा तो अब तुम भगवान् को भी मानने लग गए हो?" मैंने कहा, " ऐसी कोई बात नहीं है बस ऐसे ही कह दिया, लेकिन तुमको यहाँ देखकर बहुत ख़ुशी हुई, सच मैं सबसे पहले तुम्हारे घर गया था लेकिन वहां तुम नहीं थी। वैसे आजकल रहती कहाँ हो?"
माया ने मुस्कराकर कहा, “सब बताती हूँ, बाबा, पहले भगवान के दर्शन तो कर लूं, नहीं तो मंदिर बंद हो जायेगा। " मैंने कहा जरूर, पहले दर्शन कर आओ।
मैंने उसे देखा, वो बच्चों के साथ भीतर की ओर चली गयी और मैं तालाब के पानी को देखता रहा और माया के बारे में सोचते रहा।
बस इसी सोच में था कि उसकी आवाज आई। "लो प्रसाद खा लो, और हाँ...कहते हुये उसने बैठते हुये अपने झोले से एक डब्बा निकाला, " कुछ लड्डू और चिवडा है तुम्हें पसंद था न? ये लो, खा लो।" मैंने आश्चर्य चकित होकर पुछा, "तुम्हें पता था कि मैं आज मिलूँगा?” उसने कहा, मैं हर शिवरात्रि को तुम्हारे लिए लड्डू और चिवडे का डब्बा लेकर यहां जरूर आती हूँ, यही सोचकर कि कभी तो तुम मिलोगे... और देख लो....आज तुम मिल भी गए। "
मेरे गले में कुछ अटकने लगा। मेरी आँखें भी भर आई। माया ने मेरे आंसू पोंछते हुए कहा "अरे पागल अब भी रोते हो?" मैंने थोड़ी देर बाद पूछा, "तुम अपने बारे में बताओ, कैसी हो? कहाँ हो?" माया ने बच्चे को प्रसाद खिलाते हुए कहा, " शादी के कुछ दिन बाद ही बाबूजी नहीं रहे। मैं अपने भाई और बहन को लेकर अपनी ससुराल चली आई। कुछ दिनों बाद, मेरा बेटा हुआ। और फिर दो साल पहले ही वो गुजर गए, उन्हें दिल की बीमारी थी। जो कि बाद में पता चली।" मेरी आँखों से फिर आंसू बहने लगे, हे भगवान इसे और कितने दुःख देगा? माया कह रही थी," पर उन्होंने कुछ पैसा मेरे लिए रख छोड़ा था, मैंने उसी पैसे से एक किराने की दुकान खोल ली है और लोगों को डब्बा पार्सल भी बना कर देती हूँ। कुल मिलाकर, अब ज़िन्दगी की गाडी ठीक चल रही है। घर भी है, दुकान भी है, डब्बे का काम भी अच्छा चल रहा है, दोनों भाई बहन भी अच्छे से पढ़ रहे है। शिव भगवान की कृपा है।" फिर वो चुप हो गयी। मैं भी चुप था, पता नहीं क्या सोच रहा था, मन में विचारों का अजीब सा झंझावात चल रहा था।
हम बहुत देर तक चुप रहे। रात गहरी हो गयी थी। पुजारी ने आकर कहा कि मंदिर बंद होने वाला है। माया ने कहा, "अच्छा अब चलती हूँ, अगली शिवरात्रि को मिलना " मैं भी उठ खड़ा हुआ। मैंने यूँ ही पुछा,"माया मेरी याद नहीं आती क्या?" माया ने मुस्कराकर मेरा हाथ पकड़ा और कहा कि, "ऐसा कोई दिन नहीं जब मैं तुम्हें याद नहीं करती हूँ पर तुम नहीं होकर भी मेरे पास ही रहते हो।"
मैंने उसकी ओर गहरी नज़र से देखा, उसने कहा,"मैंने अपने बेटे का नाम अभय ही रखा है। इसलिए, हमेशा, घर में अभय के नाम की गूँज उठती रहती है ......."
मैं अवाक रह गया। वो कहने लगी, "बेटा अभय, इनके पैर छुओ।" और जब वो छोटा अभय झुका तो उसके गले में से बाहर की ओर एक लॉकेट लटक गया . मैंने उसे पहचान लिया . वो मेरा माया को दिया हुआ लॉकेट था जिसमें "A " लिखा हुआ था; मेरी आँखें आंसुओं से भर गयी, धुंधला गयी और उसी धुंध में माया एक बार फिर चली गयी।
::: ३ :::
मेरी आँखों में आंसू थे। पुजारी फिर मेरे पास आया। वही पुराना पुजारी था, जिसने हमारे प्रेम की शुरुआत और अलग होना देखा था ; उसने मुझे और मैंने उसे पहचान लिया था। उसने मेरे कंधे पर हाथ रखा। मैं अकेला ही था, मैंने मंदिर को देखा और फिर धीरे-धीरे मेरे कदम भगवान शिव की मूर्ति की ओर बडे। और मैंने पहली बार भगवान को हाथ जोडे। मेरी आँखों में आंसू थे और मैं भगवान को पूज रहा था और कह रहा था कि वो जो भी करता है अच्छा ही करता है। और हाँ भगवान है ।
मैं भागते हुए मंदिर के बाहर आया और दूर अँधेरे में माया को खोजने की नाकाम कोशिश की ...पर वक़्त और माया दोनों ही रेत की तरह हाथ से निकल गए थे ................!
मैं वापस चल पड़ा.
आज भी ज़िन्दगी में जब उदास और अकेला सा महसूस करता हूँ तो बस यही सोचता हूँ कि माया है कहीं ........ और मैं एक आह भरकर अपने आप से कहता हूँ एक थी माया ............!!!
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विजय कुमार
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