डॉ. शुभा श्रीवास्तव (एम.ए., बी.एड. पी. एच. डी.) प्रकाशन - पाखी, कथादेश, परिन्दे, आजकल, सोच विचार, जनपक्ष, नागरी पत्रिका में कहानी कविता और...
डॉ. शुभा श्रीवास्तव (एम.ए., बी.एड. पी. एच. डी.)
प्रकाशन - पाखी, कथादेश, परिन्दे, आजकल, सोच विचार, जनपक्ष, नागरी पत्रिका में कहानी कविता और लेख प्रकाशित
पुस्तक - असाध्य वीणाः एक मूल्यांकन (आलोचनात्मक पुस्तक प्रकाशित), हिन्दी शिक्षण, हिन्दी व्याकरण पुस्तक प्रकाशित, पाठक की लाठी (साझा कहानी संग्रह), नव्य काव्यांजलि (साझा काव्य संग्रह), हिन्दी शिक्षण डी. एल. एड. के लिए पुस्तक
पुरस्कार - कथादेश लघु कहानी प्रतियोगिता में तृतीय पुरस्कार, माँ धन्वन्तरी देवी कथा साहित्य सम्मान, चित्रगुप्त सम्मान।
पता - शुभा स्टेशनरी मार्ट, एस. 8/5-5-1, गोलघर कचहरी, वाराणसी-221002 (उ.प्र.)
धर्मेश के करवट बदलने से लतिका की नींद खुल जाती है। बाहर की गर्मी का अहसास उसे अपने कपड़ों के पसीने से भीगे होने के कारण होता है। धर्मेश की सांसों की गति यह कहती है कि वह जाग रहा है। लतिका के मन में अजब सी टीस उठती है। उसकी आंखों में आंसू आने को होते हैं पर उन्हें वह रोक देती है। उसके अन्दर बहुत देर तक कुछ मथता रहता है। एक अजीब सी हूक उठती है। उसका जी करता है कि वह चीख मारे और जी भरकर रो ले।
अचानक ही धर्मेश के प्रति उसके मन में घृणा उत्पन्न हो जाती है और अपने कमरे में उसे बर्दाश्त नहीं कर पाती है। उसे महसूस होता है कि वह अगर बाहर नहीं गई तो कै हो जायेगी। लतिका के कदम तेजी से बालकनी की ओर बढ जाते हैं। पर वहां भी वह बेचैनी ही महसूस करती हैं। फ्रीज से एक ठण्डी पानी की बोतल निकालकर वह छत पर पहुंच जाती है। पानी की बोतल पूरी अपने सिर पर उड़ेलकर वह झूले पर बैठ जाती है। अपनी गर्दन को झूले के पट पर टिका कर आंखें बन्द कर लेती है। पलकों के बन्द होने के बाद भी वह अपने आंसू रोक नहीं पाती है। फिर अपने आप से हारकर वह उन्हें लगातार बहने देती है। उसे अहसास भी नहीं होता है कि वह कब तक रोती रही है। भीतर का तनाव बाहर आने पर उसे हल्कापन महसूस होता है। झूला अपनी गति से चलता रहता है और लतिका का हृदय भी ।
लतिका जानती है कि वह धर्मेश को चाहकर भी कोई सजा नहीं दे पायेगी। वह तो खुद सजा भुगत रहा है। उम्र के इस पड़ाव में शरीर की जरूरत उसे कितना सालती होगी यह वह समझ सकती है। धर्मेश जानता है कि उसकी बीमारी लतिका को हो जायेगी इसलिये वह दूर रहता है। एक दो दिन नहीं पूरे दो साल से। पत्नी के होते हुए भी वह पत्नी सुख नहीं ले पा रहा है। लतिका जानती है कि अपनी इच्छाओं पर वह नियन्त्रण कर सकती है, क्योंकि उसकी कुंआरी देह ने यह सुख जाना ही नहीं था, पर धर्मेश के लिए यह बहुत कष्टकारी है।
वह अपने को अजीब स्थिति में पाती है. धर्मेश का वह चेहरा जो अपने भीतर पीड़ा छुपाये हुए है, उसमें एक ओर वितृष्णा भर देता है तो दूसरी तरफ अजीब सी दया भीतर उभार देता है। आखिर आज तक उसने कोई जबरदस्ती नहीं की है। वह चाहता तो अपनी बीमारी को छुपा जाता पर उसने अपनी ओर से ईमानदारी का निर्वाह किया है।
पर धर्मेश का सोफे पर पूरी रात करवट बदलना अजीब सी फांस पैदा करता है। डर के कारण लतिका धर्मेश के चेहरे को ध्यान से नहीं देखती है। उसे धर्मेश का वह चेहरा ही याद है जब वह हाथ में जयमाल लिये महरून रंग की शेरवानी पहने सामने खड़ा था। जैसा पापा ने कहा था, वह बिलकुल वैसा ही था। लम्बा, चौड़ा, गोरा- अपनी फौजी नौकरी के अनुरूप।
धर्मेश से उसकी पहली मुलाकात महज दस मिनट की थी। फूलों से सजे कमरे में लाल जोड़े में बैठी लतिका और किसी का आकर यह सूचना देना कि धर्मेश की छुट्टियां कैंसिल कर दी गई हैं। वह आज ही हेडक्वार्टर जा रहा है। उसे एक-एक पल स्वप्न जैसा लग रहा था। धर्मेश का कमरे में आना और पहली बार उसके मुंह से अपना नाम सुनना सुखद था- ‘लता मैं जानता हूं कि मेरा इस तरह से जाना तुम्हें अजीब लग रहा होगा, पर नौकरी है समझौता तो करना ही पड़ेगा।’
लतिका कुछ कह नहीं पाती है। उसका हाथ अब भी धर्मेश के हाथों के बीच में है. अपने दूसरे हाथ से धर्मेश लतिका को अपनी बांहों में भर लेता है और बड़ी कोमलता के साथ अपने होंठ उसके सुर्ख होंठों पर रख देता है. बाहों में सिमटी लतिका उसके हृदय की धड़कन की समगति में चलता हुआ पाती है। वह चाहती है कि समय यही रुक जाय पर ऐसा होता नहीं है। यह सुखद समय बीत गया है, इसका अहसास उसे धर्मेश की आवाज सुनकर होता है। ‘जल्दी ही आऊंगा’ कहते हुए बालों को सहलाता हुआ धर्मेश चला जाता है। उसकी वह मुस्कान आज भी दिल में फांस उत्पन्न कर जाती है। धर्मेश को बाहर छोड़कर आने के बाद लतिका सूने घर को देखती है. उसे लगता है कि भीतर कुछ सूख गया है। पर उसे क्या पता था कि इस सूखी धरती पर अभी और प्रहार होने बाकी है।
फोन पर औपचारिक बातों में छः महीने बीत गये और फिर वह दिन भी आया जब धर्मेश स्वयं आ गया। पर उसका आना किसी प्रहार से कम नहीं था। पहला प्रहार यह कि वह फौज की नौकरी छोड़ कर आया है और दूसरा यह कि उसे एड्स हो गया है। नजरें झुकाये हुए धर्मेश ने उसे अपनी तरफ से हर बंधन से आजाद कर दिया। पर यह सब क्या इतना आसान था।
धर्मेश के जिस सुन्दर चेहरे पर उसे प्यार आया था, उसी चेहरे से अब घृणा होती है। पर धर्मेश का कहना है कि शादी से दो साल पहले जब वह आतंकवादी हमले का मुकाबला करते हुए घायल हुआ था उस समय उसे ब्लड चढाया गया था उसी में यह संक्रमण उसे हुआ होगा जिसका पता उसे शादी के बाद चला।
फिर भी लतिका को यह महसूस होता है कि वह छली गई है। यह बात उसे पहले भी बताई जा सकती थी। अब वह क्या करेगी? उसे धर्मेश से पूछना था कि उसने आखिर ऐसा क्यों किया? धर्मेश की निगाहें अभी भी झुकी हुई थीं। पहली मुलाकात वाला धर्मेश आज कहीं खो गया है। उसकी जबान लड़खड़ा रही थी और लतिका का दिल भी।
लतिका की आंखें लगातार उसकी पीड़ा को बहाने की कोशिश कर रही थी और कान धर्मेश की सफाई की सुन रहे थे। पर लतिका को लगता है कि वह कहीं और है और धर्मेश कहीं और बड़बड़ा रहा है-‘लतिका! मैं जानता हूं कि मुझसे बहुत बड़ा अपराध हो गया है। पर मेरा ईश्वर ही जानता है कि शादी के पहले मुझे यह नहीं पता था। मुझे यह बात तुम्हें पहले ही बता देनी चाहिए थी पर अपने आप से लड़ते और हिम्मत जुटाते इतना समय बीत गया। मेरी ओर से तुम्हें कोई बन्धन नहीं है। तुम्हारा जो भी निर्णय होगा, वह मुझे स्वीकार है और तुम्हारे हर निर्णय में साथ देने का वादा करता हूं.’
धर्मेश कहता जा रहा था पर वह सुन कुछ रही थी और गुन कुछ रही थी। अचानक लतिका को चारों ओर अन्धकार ही अन्धकार दिखाई देने लगता है। वह अपने आंसुओं को पोंछकर यन्त्रवत सी कमरे के बाहर आ जाती है। अपने को संयत कर रोजमर्रा के काम निपटाने लगती है।
रात में खाना बनाकर डाइनिंग टेबल पर लगा दिया और धर्मेश को आवाज दी। धर्मेश के कानों में लतिका की आवाज आई थी। इससे पहले उसने लतिका से एक शब्द भी नहीं सुना था। अचानक धर्मेश को अपने आप से घृणा होने लगती है। उसे लगा कि वह इस संसार का सबसे तुच्छ व्यक्ति है। अपने भीतर वह असहनीय पीड़ा का अहसास कर रहा था। उसे लग रहा था कि जैसे कोई उसके हृदय को तेजी से दबा रहा है और वह सांस नही ले पायेगा। इच्छा न होते हुए भी वह खाना खाने टेबल पर आ जाता है। दोनों शान्त रह कर खाना खाते हैं, पर भीतर उतनी ही अशान्ति रहती है।
लतिका सिर झुकाये रोटी के कौर निगलती है। उसकी आंखों में कुछ बूंदें झिलमिला जाती हैं पर वह उन्हें बाहर नहीं आने देती है। वह सोचती है कि वह किस हक से खाना खा रही है। पत्नी धर्म से तो उसे मुक्त कर दिया गया है। न ही घर पर उसका अधिकार है और न अन्न पर।
अचानक ही दिल के मरीज पिता और मरी हुई मां का अक्स उसकी आंखों के आगे घूम गया। वह जान रही थी वापसी का कोई रास्ता नहीं है, क्योंकि अब विवाहिता का लेबल लग गया है। वास्तविकता कोई समझेगा या नहीं पर भइया भाभी के साथ जीवन निर्वाह सम्भव नहीं है।
खाना समाप्त करके लतिका सोने चली जाती है। धर्मेश बहुत देर तक बाहर बैठा रहता है। वह सोचता है कि अनजाने में उससे बड़ा अत्याचार हो गया। कमरे में आकर देखता है लतिका बेड के एक कोने पर करवट लिए लेटी है। उसके सुन्दर शरीर को देखकर धर्मेष के दिल में अजीब सी हूक उठती है। वह जान-बूझकर बेड के दूसरे छोर पर लेट जाता है। वह सोचता है लतिका शायद अपना मौन तोड़ दे, पर ऐसा नहीं होता हैं।
धर्मेश ने सोचा था कि जब वह वास्तविकता बतायेगा तो लतिका उससे झगड़ा करेगी, उसे गालियां देगी, पर उसके मौन ने धर्मेश को भीतर तक चीर डाला था। अगर लतिका कोई शिकवा शिकायत करती तो अपना पक्ष रखना आसान होता पर लतिका के मौन ने सारे रास्ते बन्द कर दिये थे। फिर धर्मेश अपनी सोच को दूसरी तरफ केन्द्रित कर लेता है।
यहां आने से पहले वह विद्यालय में नौकरी के लिए आवेदन कर चुका था. वहीं नौकरी ज्वाइन कर लेता है। धीरे-
धीरे वह इस जीवन को स्वीकार कर लेता है। वह अपनी नौकरी व घर का बाहरी काम देखता है और लतिका घर के सारे काम निपटाती है। न लतिका उससे कुछ कहती है और न ही वह कुछ कहने का साहस कर पाता है। समय अपनी गति से चलता रहता है. उन दोनों के रिश्ते की तरह चुप और शान्त।
एक दिन शाम को धर्मेश टेलीविजन देख रहा था, तभी लतिका चाय ले आकर बगल वाली कुर्सी पर बैठ जाती है। चाय पीते हुए वह धर्मेश से कहती है- ‘मुझे आपसे कुछ मदद चाहिए।’
‘कैसी मदद?’ कहते हुए धर्मेश महसूस करता है कि लतिका की मधुर आवाज उसे बेध रही है।
‘मैंने कॉलेज वाली रोड पर चौक के पास एक दुकान देखी है। अपनी कॉलोनी के पटेल बाबू की है। वहीं पर मैं मैगजीन और किताब की दुकान खोलना चाहती हूं.’ लतिका यह भी कहना चाहती है कि उसे भी पढ़ने का बहुत शौक है पर वह कह नहीं पाती है।
धर्मेश सोचता है- इस छोटे से कस्बे में कोई लड़की दुकान खोलेगी, यह लोगों के लिए अकल्पनीय है। पर वह प्रत्यक्ष में कहता है- ‘तुम यह सब कैसे करोगी?’
‘मैं सब कर लूंगी, बस आप पटेल बाबू से बात कर लीजिए और रुपये उधार दे दीजिए।’ लतिका का कहा उधार शब्द धर्मेश को हथैाड़े की तरह लगता है, पर वह जानता है कि उसके हर निर्णय में साथ देने का वादा किया है, पीछे नहीं हटेगा।
अगले दिन धर्मेश सब व्यवस्था कर देता है और लतिका से कहता है, ‘पटेल बाबू को एडवान्स दे दिया है। साफ-सफाई के लिए मजदूर बुला दिया है। मेरे एक परिचित का व्यवसाय भी यही है. तुम लिस्ट दे देना मैं सस्ते दाम में किताबें और मैगजीन मंगा दूंगा।’
आज लतिका की दुकान का उद्घाटन है। धर्मेश सब कुछ अपनी देख रेख में करा रहा है। आज वह देख रहा है कि लतिका के हर काम में गर्मजोशी है। उसकी बातचीत, चाल ढाल सब में एक कसाव है। हल्के धानी रंग की साड़ी में लतिका बेहद खूबसूरत लग रही थी। वह सोचता है कि जितना वह जानता है लतिका उससे भी सुन्दर है। आज तक उसने लतिका के कितने ही रूप देखे हैं। पहली मुलाकात में सहमी संकोची लतिका, शादी के जोड़े में सिमटी लतिका, उसकी बाहों में कॉपती लतिका, अन्याय सहने वाली मौन लतिका और अब अपने आप को स्थापित करती लतिका।
धर्मेश गौर करता है कि लतिका को उसने कभी हंसते हुए नहीं देखा है तो उसका दर्द गहरा हो जाता है। लतिका ने पूरी दुकान को करीने से सजाया है। अपने सपने को साकार होते देखकर वह गहरी सांस छोड़ती है. तभी कन्धों पर वह स्पर्श महसूस करती है। सामने मुस्कुराता हुआ धर्मेश खड़ा रहता है। वह कहता है- ‘अपने कस्बे में ऐसी दुकान नहीं थी, अब लोग शहर नहीं जायेंगे। देखना तुम्हें सफलता जरूर मिलेगी.’ सुनकर लतिका मुस्कुराती है और थैंक्स कहती हैं. जवाब में धर्मेश कहता है, ‘चलो आज बाहर खाना खाते हैं। तुम बहुत थक गई होगी।’ लतिका इन्कार नहीं कर पाती है।
लतिका पूरे उत्साह के साथ अपना कार्य शुरू करती है. अपना व्यवसाय करने के बाद लतिका ने बहुत कुछ सीखा और जाना है। अब उसके कुछ लोग अपने बन गये हैं. कॉलेज और कस्बे की कुछ लड़कियां उसकी अच्छी मित्र बन गई हैं।
किताबें बेचने के साथ ही पुस्तकों को किराये पर भी देने लगी थी। अच्छे व्यवसायी के साथ ही लतिका अच्छी और प्रतिष्ठित नागरिक भी बन जाती है। शिक्षा के प्रति लोगों को जागरूक करना, बच्चों को शिक्षित करना जैसी अनेक योजनाओं को वह कार्यान्वित कर चुकी थी। घर-घर जाकर लतिका प्रत्येक बच्चे को विद्यालय में नामांकित कराने के साथ ही मुफ्त में ट्यूशन भी देती है। कस्बे में शिक्षा की रोशनी फैलाने वाली लतिका को अब अपना जीवन बोझ नहीं लगता हैं. अब उसके ऊपर सिर्फ एक बोझ है वह है धर्मेश का कर्ज। आज वह दुकान के लिए लिये गये कर्ज की आखिरी किस्त धर्मेा को देगी। यह धयान आते ही वह अपने विचारों से हटती हैं। भोर की किरणें उसके झूले पर पड़ने लगती हैं.
पूरी रात जागने तथा जीवन की संघर्ष भरी यादें उसे सामान्य नहीं होने दे रही हैं। अनमने ढंग से उठकर वह सारा काम निपटाती है और दुकान पहुंच जाती हैं। जैसा उसने सोचा था वैसा ही होता है, सिद्धान्त उसके इन्तजार में बाहर खड़ा रहता है। दोनों की निगाहें मिलती है और मुस्कुरा देती है। सिद्धान्त को पुस्तकें देने के बाद लतिका सफाई करने लगती है। वह जानती है कि सिद्धान्त पढेगा कम उसे देखेगा ज्यादा पर सिद्धान्त का बैठना उसे अच्छा लगता है।
पिछले आठ महीने से वह उसे जानती है पर उसे लगता है कि यह परिचय कितना पुराना हैं। सिद्धान्त शान्त प्रकृति का है इसलिए वह लतिका से कुछ कह नहीं पाता है पर दोनों जानते हैं कि उनके बीच कुछ है जो बेहद मधुर और सुन्दर है। लतिका यह जानती है कि सिद्धान्त उसे पसन्द करता है पर प्रेमी का रूप उसने कभी धारण नहीं किया।
सिद्धान्त की आवाज से वह अचकचा कर अपनी सोच की दुनिया से बाहर आ जाती है।
सिद्धान्त कह रहा है- ‘कल छुट्टी है। क्या प्रोग्राम है वही घर के बोरिग काम या कुछ और ?’
‘कुछ और क्या करूंगी। न तो मेरा परिवार है और न ही यार दोस्त.’ लतिका ने मुस्कुरा कर कहा तो सिद्धान्त ने तपाक से कहा- ‘तो मैं क्या हूं तुम्हारा?’
लतिका को कुछ जवाब नहीं सूझता है। वह बगलें झांकने लगती है और सिद्धान्त उसकी इस स्थिति का आनन्द लेता है। वह लतिका को ध्यान से देखता है। लतिका की झुकी निगाहें बड़ी-बड़ी पलकों और भौहों के कटाव उसे बहुत अच्छे लगते है। लतिका के गुलाबी होंठ कुछ कहना चाहते हैं पर हल्का सा लहराकर शान्त हो जाते हैं। सिद्धान्त उसे उबारता है- ‘अच्छा चलो कल सोचकर बताना ठीक है.’
‘कल तो दुकान बन्द रहेगी-’ लतिका ने धीरे से कहा तो सिद्धान्त बोला- ‘पर मैं कल तुमसे मिलने आ रहा हूं।’
‘क्यूं...?’
‘मेरा मन। कल ग्यारह बजे आऊंगा घर पर।’
‘पर मैं उस समय व्यस्त रहती हूं.’ लतिका ने टालने के मूड से कहा.
सिद्धान्त ने कहा- ‘मेरे लिए थोड़ा समय नहीं निकाल सकती हो क्या? रोज थोड़े ही कहता हूं। ठीक है कल मिलते हैं, बाय।’
लतिका जानती है वह जरूर आयेगा। रात में धर्मेश जब डाइनिंग टेबल पर आता है तो लतिका को डायरी में कुछ हिसाब करते देखता है। डायरी में ही रखे रुपयों को वह धर्मेश को देती है और खाना लेने चली जाती हैं। धर्मेश जब जब लतिका से रुपये लेता है तब तब अपने को छोटा पाता है। वह डायरी उठाकर देखता है। लतिका ने मकान का किराया और खाने का हिसाब जोड़ रखा है। धर्मेश को लगा उसके पूरे शरीर में कांटे चुभ गये है पर वह कहता कुछ नहीं है।
लतिका को पता था कि सिद्धान्त जरूर आयेगा। अपने को रोकते हुए भी उसने हल्की गुलाबी सिल्क की साड़ी पहन ली थी और हल्का सा मेकअप करके चाय पी रही थी कि मुस्कुराता हुआ सिद्धान्त उसके सामने हाजिर हो जाता है। हल्की चेक शर्ट पर जीन्स उस पर फब रही थी। लतिका ने गौर किया- वह जीन्स बहुत कम पहनता है, शायद अपने अध्यापकीय प्रोफेशन के कारण।
‘कल के प्रश्न का जवाब कब देंगी आप?’ सिद्धान्त के प्रश्न पर लतिका सिर्फ मुस्कुराकर कहती है- ‘तुम भी न सिद्धान्त..।’ पर सिद्धान्त पूरा प्रोग्राम बनाकर आया था इसलिए सपाट लहजे में कहता है- ‘तुम्हारा आज का पूरा दिन मेरा है.’
‘डेट पर ले जाना चाहते हो?’ लतिका ने प्यार से कहा तो सिद्धान्त बोल पड़ा, ‘तुम्हारी जैसी हसीना को कौन नहीं ले जाना चाहेगा। पर तुम राजी हो तब ना।’
‘चलो आज राजी हो गई। तुम बैठो मैं तैयार होकर आती हूं.’ लतिका के कहे शब्दों पर सिद्धान्त को विश्वास नहीं होता हैं पर अपनी खुशी को छुपाकर उसे चिढ़ाता है- ‘अभी तैयार नहीं हो? कुछ मेकअप बाकी है क्या?’
लतिका कुछ कहना चाहती है पर तभी धर्मेश आ जाता है. लतिका निगाहें नीची करके कहती है, ‘वह थोड़ी देर के लिए बाहर जाना चाहती है.’ तो धर्मेश कहता है कि वह उसे कस्बे के बाहर छोड़ देगा.
तीनों के बीच एक असहजता व्याप हो जाती है पर कोई कुछ कहता नहीं है। धर्मेश लतिका को छोड़कर घर चला आता है। सिद्धान्त लतिका को एक रेस्टोरेन्ट में ले जाता है। सिद्धान्त अपनी हल्की फुल्की बातों से लतिका को सहज बनाता है. खाने का आर्डर लतिका देती है।
इस बीच सिद्धान्त उसे निगाहों से सहलाता है जिसकी छुअन लतिका भीतर तक महसूस करती है, पर शर्म से निगाहें झुकाये ही रहती हैं। सिद्धान्त की आवाज पर वह उसे निगाहें उठाकर देखती हैं- ‘आगे क्या करना है लतिका?’
‘यहां से घर चलेंगे और क्या?’
‘यह जीवन कब तक चलेगा। दूसरी जिन्दगी नहीं शुरू करोगी?’
‘तुम कहना क्या चाहते हों?’
‘तुम नहीं जानती हो कि मैं क्या कहना चाहता हूं?’
‘बातों में मत उलझाओ सिद्धान्त।’
‘लता...!’
अपना नाम सुनते ही लतिका की आंखें भीग जाती हैं। सिद्धान्त हौले से उसके हाथों को सहलाता है। इतने दिनों का गुबार आंसुओं के रूप में बह निकलता है। सिद्धान्त उसे रोकता नहीं है। थोड़ी देर बाद लतिका अपना मुंह धुलकर आती है- ‘इस नाम से मुझे कभी मत पुकारना सिद्धान्त। जिस दिन से यह नाम मेरे जीवन में आया है उसी दिन से मेरे जीवन में दुख ही दुख आया है।’
‘नहीं कहूंगा. अगर मुझे पता होता तो कभी नहीं कहता। आई एम सॉरी डियर!’ लतिका के दोनों हाथ अपने हाथों में लेते हुए सिद्धान्त बड़े प्यार से कहता है.
‘सॉरी की क्या बात है। तुम्हें थोड़े ही न पता था कि धर्मेश मुझे इस नाम से बुलाता था। इस नाम से दर्द जुड़ गया है जो... खैर छोड़ो कुछ और बात करो सिद्ध।’
‘मेरे पास तो सिर्फ एक बात है- आई लव यू।’
‘पता है क्या कह रहे हो सिद्धु।’
‘हां मैं तुमसे प्यार करता हूं इस शब्द का यही मतलब है। ’ आंखों से मुस्कुराते सिद्धान्त ने कहा तो लतिका हंस देती है बिलकुल धुली उजली हंसी। यही हंसी सिद्धान्त को पसन्द है। वह कहता है- ‘चलो लतिका शादी कर लेते हैं।’
‘जानते हो न सिद्धु, मैं शादीशुदा हूं।’ लतिका ने कहा.
सिद्धान्त ने बड़ी सहजता से कहा- ‘यह तो सभी जानते हैं कि तुम शादीशुदा हो, पर क्या तुम यह नहीं जानती कि तुम
धर्मेश की पत्नी नहीं हो।’
लतिका के चुप रहने पर सिद्धान्त आगे कहता है- ‘सुनो डियर मैं मन के रिश्ते को अहमियत देता हूं। उसे मन से स्वीकार करती हो तो मैं बीच में नहीं आऊंगा और मुझमें कोई कमी हो तो अस्वीकार करने का तुम्हें हक है।’
‘नहीं सिद्धु, मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि मेरा दिल भी धड़केगा, मैं भी किसी से प्यार करूंगी, पर तुम्हारी अच्छाइयों ने मुझे मजबूर कर दिया। तुम्हारा साथ पाकर मैं धन्य हो जाऊंगी। शादी तो करनी है पर अभी नहीं।’
‘पर लतिका मैं तुम्हारे साथ खुलकर नहीं रह पाता हूं। मुझे शादी की जल्दी है।’
‘सिद्धु मुझे थोड़ा वक्त चाहिए। अभी तो मैं सिर्फ दुकान का कर्ज चुका पाई हूं। घर और खाने का उधार चुकाना है।’
लतिका की बात सुनकर सिद्धान्त आश्चर्यचकित हो जाता है। वह एक नई लतिका को अपने सामने पाता है। उसे समझ नहीं आता है कि वह क्या कहे। उसकी जबान लड़खड़ा जाती है- ‘तो क्या तुम... यह सब...?’
‘हॉ सिद्धु जब पति नहीं तो उसकी सम्पत्ति पर मेरा क्या अधिकार। धर्मेश ने तो कह ही दिया कि उसकी ओर से कोई बंधन नहीं है. उसने मुझे न पत्नी बनाया न मैं बनी। पर हाथ में पैसे नहीं थे इसलिए उधार डायरी पर लिखती गई और धीरे-
धीरे चुका रही हूं। मेरे गहने मां की निशानी थी इसलिए उन्हें बेचा नहीं। कर्ज चुका दूं तब शादी के लिए हां कह पाऊंगी। मैं जानती हूं तुम मेरा कर्ज चुकाने में समर्थ हो पर तुम चुकाओगे तो अहसान लगेगा। मैं तुम्हारी तभी बनूंगी जब भीतर से वही लतिका बन जाऊं जैसी अपनी पिता के घर थी। कुछ घाव कभी नहीं भरते हैं और अपने पीछे रिक्तता छोड़ जाते हैं। कोशिश करूंगी कि तुम्हारे जीवन में जो लतिका आये वह इन घावों से भरी न हो।’
सिद्धान्त भावुक होकर उसके हाथों को सहलाने लगता है। आंखों ही ऑखों में वह कहता है- ‘तुम बहुत अच्छी हो लतिका। मैं बहुत खुशनसीब हूं कि मुझे तुम्हारा प्यार मिला। मैं तुम्हारा इन्तजार करूंगा।’
लतिका अनकहे शब्दों को सुन लेती है और अपने भीतर दर्द की शिला पिघलते हुए महसूस करती है।
वह दिन भी आता है जब लतिका अपनी आखिरी किस्त पूरा करती है और सिद्धान्त शादी की तारीख निकलवाता है। शादी की तैयारी में डूबा सिद्धान्त लतिका को घर तक छोड़ता है। लतिका देखती है धर्मेश कमरे में लेटा है। वह सोचती है रात में डाइनिंग टेबल पर ही उसे सब बतायेगी। धर्मेश जब खाना खाने आता है तब लतिका महसूस करती है कि वह लड़खड़ा रहा है। पूछने पर कहता है, ‘बुखार है दवा ले ली है।’
लतिका को ध्यान आता है कि वह काफी दिनों से इसी तरह बीमार है. सुबह होते ही वह स्वयं धर्मेश को डाक्टर के पास ले जाती है। सिद्धान्त भी साथ में होता हैं.
घर आकर वह सिद्धान्त से पूछती है- ‘डाक्टर ने तुम्हें अलग से बुलाकर क्या कहा सिद्धान्त!’ सिद्धान्त को समझ नहीं आता है कि वह क्या कहे और कैसे कहे। पर बताना तो है ही- ‘उसकी बीमारी के लक्षण पूरी तरह से उभर गये हैं। अब कुछ किया नहीं जा सकता है।’
लतिका सोच में पड़ जाती है। उसने महसूस किया- अभी परीक्षा बाकी है। सिद्धान्त लतिका की स्थिति समझ रहा था। वह उसके करीब जाकर उसके कन्धों को हौले से सहलाता है। स्पर्श पाते ही लतिका बिखर जाती है। अपने अन्दर वह अजीब सी बेचैनी महसूस करती है। शादी की तारीख नजदीक आती जाती हैं।
लतिका सिद्धान्त से कहती है, ‘इन परिस्थितियों में क्या शादी सम्भव है. हम कुछ दिन रुक नहीं सकते?’
सिद्धान्त ने तुरन्त कहा- ‘कितने दिन?’
लतिका के पास कोई उत्तर नहीं था। लतिका अपने को मंझधार में पाती है। दिल और दिमाग में संघर्ष चल रहा था।
धर्मेश की देखभाल के लिए कोई होता तो शायद परेशानी इतनी नहीं होती पर इस वक्त वह क्या करे। सिद्धान्त को थोड़ा रोष आ जाता है। वह लतिका से कहता है-
‘जिसने तुम्हारा जीवन बर्बाद किया, तुम उसके लिए इतना क्यों सोच रही हो?’
‘कुछ भी हो सिद्धु! उसके साथ सात फेरे लिए हैं। जब लिये थे तब तो साथ निभाने का वादा किया था और उसने भी तो एक वादा निभाया है ईमानदारी का। वह चाहता तो मुझे बर्बाद कर सकता था पर उसने ऐसा नहीं किया। मेरे हर निर्णय में मेरा साथ दिया है। समाज के ताने सुनने के बावजूद मेरे तुम्हारे रिश्ते को स्वीकृति दी है।’
‘और मै?’ सिद्धान्त का रोष गहरा जाता है.
लतिका का गला रुंध जाता है. वह कहती है- ‘तुमसे ही तो जाना है कि प्यार क्या होता है। मुझे थोड़ा वक्त दे दो।’
सिद्धान्त कुछ नहीं कहता है और जाने लगता है। लतिका उसे छोड़ने बाहर आती है । सिद्धान्त देखता है- उसकी आंखों के कोर पर कुछ मोती अटके हैं। वह जानता है, उसके जाते ही वह बाहर आ जायेंगे।
लतिका कुछ देर तक उस राह को तकती रहती है जिससे सिद्धान्त गया था फिर अन्दर आ जाती है। वह सोचती है कि वह सिद्धान्त को क्यूं सजा दे रही है। कार्ड बंट चुके हैं, सबको शादी की तारीख पता है और सिद्धान्त की समाज में अपनी एक गरिमा है जिसे धक्का लगेगा. वह इन्तजार भी कितना करे।
धर्मेश की बीमारी तो हमेशा रहेगी पर उसकी देखभाल? धर्मेश को अकेला नहीं छोड़ा जा सकता। अगर उसे कुछ हो गया तो क्या वह अपने आप को माफ कर पायेगी।
लतिका गौर करती है इधर सिद्धान्त के चेहरे की मुस्कान गायब हो गई है। मतलब वह निर्णय चाहता है और निर्णय तो उसे लेना ही है।
‘सिद्धु मैं तुमसे कुछ कहना चाहती हूं. मेरी बात मानना अनिवार्य नहीं है। यह सिर्फ एक अनुरोध है। क्या ऐसा हो सकता है कि शादी के बाद हम यहीं रहे इसी मकान में।’
सिद्धान्त के आश्चर्य की सीमा नहीं रहती है। वह अपने आप को कई दिनों तक मथता है। वह जानता है कि लतिका से किसी साधारण निर्णय की उम्मीद करना बेकार है। धर्मेश लतिका के प्रस्ताव पर यथावत बना रहता है, पहले ही जैसा मौन... शायद उसके पास और कोई विकल्प ही नहीं है। सिद्धान्त के समक्ष अब अपना निणर्य रखने का प्रश्न था. वह लतिका की विकट स्थिति को समझता है इसलिये वह लतिका से कहता है-
‘यह तो सम्भव नहीं है कि शादी के बाद मैं यहां शिफ्ट होऊं। हां, तुम्हारी इच्छा है तो धर्मेश हमारे साथ हमारे घर में रह सकता है।’
सिद्धान्त के इस निर्णय पर लतिका की श्रद्धा उसके प्रति और बढ़ जाती है। शादी के मन्त्रों में पहले शादी के मन्त्र उसके मस्तिष्क में उभर जाते हैं। उसकी आंखों ने फिर वही दृश्य दिखाया।
सजे कमरे में सिमटी लतिका और उसकी आंखों के कोर में कुछ धुंधले मोती छलक आते हैं पर उनके गिरते ही सिद्धान्त उन्हें अपने हाथों में भर लेता है। बिस्तर पर लेटते ही बगल के कमरे में करवट लेता धर्मेश का चेहरा लतिका के आगे घूम जाता है पर सिद्धान्त के हल्के स्पर्श ने उसके तन को ही नहीं मन को भी छू लिया। वह एक झटके से सिद्धान्त के सीने में छुप जाती है। सिद्धान्त के होंठ लतिका के होंठ को पा लेते हैं। रात के साथ लतिका के भीतर दर्द की शिला पिघल जाती है।
सुबह की हल्की रोशनी में सिद्धान्त को धुली उजली नई लतिका मिलती है. दोनों की आंखें मिलती हैं और वे दोनों एक दूसरे में समा जाते हैं।
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