मुझको हँसना आता नहीं है मुझको हँसना आता नहीं है दुख में बीता सारा बचपन, जीवन मुझको भाता नहीं है। मुझको हँसना-- - - - छिछलेपन पर हँसने मे...
मुझको हँसना आता नहीं है
मुझको हँसना आता नहीं है
दुख में बीता सारा बचपन,
जीवन मुझको भाता नहीं है। मुझको हँसना-- - - -
छिछलेपन पर हँसने में तुम माहिर
भरमाकर काम निकालने में जगजाहिर
अपना लूं तुम सा व्यवहार भाता नहीं हैं। मुझको हँसना- - - -
जब भी जीवन में सुख की बूंदें आयी
तुमने गहरे तक उनको सोख लिया
सुख की राहे बंद हो मिथक नया ईजाद किया
पक्के धुनी हो अलमस्त,ये राग गाना आता नहीं है। मुझको हँसना - - -
दुख सहने का आदी हूँ
मैं कमजोर नहीं पड़ता हूँ
पीव खुशी से दुख को गले लगाकर
मैं हरदम अपने पथ पर आगे बढ़ता हूँ
स्वप्न संभालो सुनहले अपने, मुझको जीना आता है।
मुझको हँसना आता नहीं है।
गीत-
नर्मदा मैय्या तू हौले हौले बहना
नर्मदा मैय्या तू हौले हौले बहना
हौले हौले बहती संग बासंती हवाएं
करती नहीं शोर हो नर्मदा मैय्या ;;;. हौले हौले बहना
गुपचुप रहती यहाँ रात की रुनझुन
बाज रही जैसे माँ तेरे पायल की छमछम
कब आ जाती भोर गुपचुप ;;..ओ नर्मदा मैय्या हौले हौले बहना
धीमे धीमे ओ माँ, तू जब अपने नयन खोले
ऊषा सलोनी मुख पर तेरे, लालिमा अपनी ढोले
हो जाता स्वर्णिम श्रृंगार, माँ तेरा धीरे धीरे ...ओ नर्मदा मैय्या ...
तेरे तट पर तेरी शरण में, भक्त खड़े जयकार करे
जीवन पथ पर धूनी रमाये. साधु संत तेरा गुणगान करे
लेकर सबको अपनी शरण में ,पार लगाना माँ धीरे धीरे ...ओ नर्मदा मैय्या
उनींद से जागे लोग. तेरे जल में करते है स्नान
तू भरदे उनकी झोली, आस लिए वे करते खूब दान
एक नजर से सबको निहारे,नजरे तेरी अनमोल ....ओ नर्मदा मैय्या ...
धीमे धीमे पैदल करते परिक्रमा माँ तेरी
पीव लम्बा दुर्गम मार्ग सरल हो,कृपा होती तेरी
परिक्रमा तेरी हो जाये पूर्ण धीरे धीरे ....ओ नर्मदा मैय्या हौले हौले बहना
मन परमात्मा बनने को राजी नहीं?
जब तक यह नश्वर शरीर
इस धरती पर सांसे लेता है
तब तक एक-एक सांस के लिए
यह देह माटी की कर्जदार है .
शरीर में निवास करता यह हृदय
ईश्वर के अदृश्य अप्राप्त शरीर की कृपा
और वासनाओं में लबरेज
अपार संपदा और सुंदरतम नारी की कामना करता है –
ईश्वर के चरणों में भावरुपी पुष्प-सामग्री
आधे अधूरे से मन से अर्पित कर
यह शरीर शेष मन से
नारी के क़दमों में प्रेमाश्रय की याचना करता है
उधार ली वासी प्रार्थनायें दोहराते हुए
उसकी आँखों में नहीं उमड़ते आंसू
और न ही प्रभु के चरणों को भिगो पाते है
माटी के तन में मनुष्यता को खोजता
और तन से तन को प्यार करता ये आदमी
मृत्यु तक नवजीवन को संवारता है .
क्यों भूल जाता है मौत को यह आदमी?
कि मौत के आते ही उसका सारा अस्तित्व
इस माटी में मिल जाना है
तो क्यों न मौत के आने से पहले जीवन में
उस परा तत्व को खोज लेना जरुरी हो
इस जगत में जो कुछ होता है
वह होकर भी न हुआ होता है
दुनिया जहां है वहीँ होती है
यदि बदलता है तो जन्म के बाद
आदमी के शरीर से होकर बचपन, जवानी और बुढ़ापा
समय के अतिथि बनकर गुजर जाते है
एक सलोने स्वप्न की तरह,
और समय निकल चूका होता है एक जीवन का
शरीर एक बर्तन ही तो है, जैसे कुम्हार बनाता है
छोटे से इस बर्तन में आत्मा मौजूद है
शरीर उसका घर है और ब्रह्मांड की गहराइयों
मैं जीवन और परमात्मा की खोज जारी है
शरीर क्या है ?
आखिर आदमी शरीर को भेदता क्यों नहीं
इस नश्वर देह में जो अप्रतिम है
अद्वितीय है, अलौकिक है, सुन्दरतम है
सबसे न्यारा हृदय है ...आत्मा है
क्या वह सम्राटों का सम्राट नहीं ?
क्या वह देवताओं का भी परमात्मा नहीं?
झांको, इस सुन्दरतम शरीर में झांको
स्वयं अपने अंदर गहरे में उतरो और देखो ,
वह परमात्मा बैठा है ...आत्मा से
मिलने के लिए ...सदियों से, कई जन्मों से
पीव तुम हो को अपने को मिटाकर
परमात्मा बनने को अब तक राजी नहीं हुए
आज के दौर की बात ..नई कविता
मैं नर्मदा के घाटों पर
नागफनी सी फैली
राजनीति का तिलिस्म हूँ
होशंगाबाद की रगों में भले ही
दिल्ली दौड़ती हो
और यहाँ के आदमी
राजधानी के सभागारों मैं बैठने लायक बने है
दौड़ लगाते उडान भरते
इस माटी के इन कीमती हुए आदमियों ने
मुझ होशंगाबाद को **हाशिये *** पर रखकर
नर्मदा का हौसला भी आहिस्ता आहिस्ता
मिट्टी में मिला दिया है और
इस नगर को इन्होंने दे दी है अनचाही दरिद्रता
सभासदों में विराजने वाले इन्हीं आदमियों ने
अपने चेहरे पर नकाब पहनकर
नर्मदा का माँ कहते हुए
उसका दिल चीर, अपने ओठों पर सुर्खियां और चेहरे पर
लालिमा पाई है ...
चाहे लाज हो या बगीचा
या अपवाद मैं पृथ्वीराज चौहान के तथाकथित वंशज
ठीक वैसे ही जैसे पानी भरे मटकों में प्रतिबिम्बित होते उनके चेहरे
ये सभी माचिस की तीली मैं लगे बारूद के सामान है
और जैसे माचिस की डिबिया के दोनों और
बारूद की पट्टियां शांत होती है किसी तूफान की तरह
ये होशंगाबाद की राजनीति के तिलिस्म को
पल भर मैं प्यार से उड़ा देने में सिद्धहस्त है
एक माचिस की तीली के बारूद को
दोनों और जुड़वाँ बारूद के पट्टियों से रगड़ कर
ये गुपचुप रहने वाले होशंगाबाद में
**पीव **खड़ा कर सकते है एक बड़ा भूचाल
अपनी राजनीति चलाने के लिए यहाँ के आदमी
इस नर्मदापुर की शान्ति और सौहार्द को
अदृश्य अज्ञात भय से मथना जानते है
ताकि इस शहर के बाहर और भीतर
इनकी पूछ परख बनी रहे और धंधा चलता रहे ....
तम का राज्य रहा सारी रात
उमड़ घुमड़ कर बादल बरसे, बिजली तड़की सारी रात
सांय सांय कर चली हवाएं, बेचैन रहा दिल सारी रात
चारों और सिसके सन्नाटा, अँधेरा चीखा सारी रात
जंगल सागर सभी दिशाएं, फूट फूट रोये सारी रात
पलके थम गई दिल तड़पा है, मुझे नींद न आई सारी रात
भय से सशंकित वृक्ष सभी, थर थर कांपे सारी रात
असीम जलस्रोत ले असंख्य बादल, नापते रहे धरा सारी रात
सागर नदिया,वनपथ-जनपथ ने, रात की चादर ओढ़ी सारी रात
हृदय में उठती सभी को सिहरन, भय ने पाँव पसारे सारी रात
डरा रही है सृष्टि सबको, डर से नदिया सोई न सारी रात
घोसलों मैं डरे छिपे से विकल पक्षियों की, आँख न लगी सारी रात
खोह कंदराओं में प्राण बचाए,वन पशु भी जागे सारी रात
**पीव**घरों में कुछ जागे,कुछ सोये थे,और अँधेरा चीखा सारी रात
नभ और धरा पर उतरा तम था, तम का राज्य रहा सारी रात
ब्रह्मांड हथेली में देनेवाला, दाता खुद बने पसारने वाला है
हाथ पसारे आने वाले हाथ पसारे जाते है
इस दुनिया में आते ही ,सभी भिखारी बन जाते है
गली गली में झोला टांगे ,कुछ तो आटा मांग रहे
कुछ सम्राटों के घर पैदा हो, खाने को मोहताज रहे
आगे बढ़ो माफ़ करो बाबा, कहा जाता है भिखारी को
जिनके घर अम्बार लगा हो,उनको पल में मिल जाता है
भिक्षुक बनकर जो हाथ पसारे,वह उतना ही पा जाता है
रुखा सुखा भाग्य है जिनका, वह चाह छोटी ही रख पाता है
जो आदत छोड़े मांगने की और प्रेम को हृदय मैं उमंगाये
जरूरत नहीं फिर उस प्रेमी की, वह सारा साम्राज्य पा जाए
जीवन से चूके कई मांगने वाले,जो भिखारियों के आगे हाथ पसारे
छीने उनसे जिनकी झोली खाली, ,भरी तिजोरीवालों की करता न्यारे-ब्यारे
आनन्द बरसे करुणा उपजे, जहां अस्तित्व सदा से नाच रहा
*पीव * उस वीतरागी की मुठ्ठी में आने को, आनन्द स्नेह से है भरा
पसारने के इस आनंद को पाने, जिसने भी हाथ पसारा है
ब्रह्मांड हथेली में देनेवाला , दाता खुद बने पसारने वाला है
पत्थर हो, पत्थर के भगवान हमारे ,
पत्थर हो, पत्थर के भगवान हमारे ,
कभी हिले डोले न मुस्काए
पूजन अर्चन स्नेह समर्पण,
सब व्यर्थ गए कुछ काम न आये A
सुन्दर मुख पर ममता दिखती,
पर तन पर जड़ता की छाया
विकल हृदय की सारी पीड़ा झरती
पर किसी पुकार पर भी वह न आया A
मेरी आँखों से निर्झर आंसू बहते रहे
पर उसका आंचल भीग न पाया
कैसे कह दूँ तुम भगवान हो करुणामय
पत्थर हो, पत्थर के भगवान हमारे A
सारा जीवन दर पर तेरे
जगमग ज्योति जलाता रहा हूँ
दुःख मैं गिनकर काटी रातें
और मन को मैं भरमाता रहा हूँ A
अंधकार में डूबे मेरे अंतर्मन को
भगवान तू न आलोकित कर पाया
**पीव** तुझसे तो अच्छे है भगवन!
नभ के सूरज और चाँद तारे A
तुम पत्थर के हो भगवान हमारे ...
एक दीप मेरा भी जलाये
अबकी दीवाली सबकी
हो जाए परिपूर्ण
दूर हो दुःख दर्द,
और जिन्दगी हो पूर्ण
अनुपम जीवन स्नेह भरा,
आप सबको मिल जाए
हर उम्मीद और मंजिले को
मिल जाए सही दिशाएं
हर खुशियां नाचे आंगन में
*पीव* ऐसी दीवाली आये
अपने आंगन में अपनेपन का
एक दीप मेरा भी जलाये
अमावस की रात लगे पूर्णिमा
हिल मिल कर सब दीप जलाये
हँसी में मेरे ही कफन का, मैंने साया छिपाया है
ओठों ने करके दफन सपने,
तेरे प्यार को भुलाया है।
सताया है रूलाया है
मुझे तेरी यादों ने बुलाया है।
चाहा था दिल में हम,
गम की कब्र खोदेंगे
दिल का क्या कसूर,
जो उसमें गम ही नहीं समाया है।
दिखती है मेरे लबों पर,
तुमको जमाने भर की हँसी
हँसी में मेरे ही कफन का,
मैंने साया छिपाया है।
तुम्हारी खुशी के लिये ही
ये शौक पाले थे मैंने
ये मेरी ही खता थी
जो तुमने बदनाम करवाया है।
गल्तियों को अपनी कहां,
छिपाओगे तुम यहां पर
झुकाकर नजर गुजर जाना
तूने अच्छा ये सबब अपनाया है।
कसूर ऑखों में छिपाकर जब,
कसूरवालों ने अकड़कर चलना सीख लिया
तब से हर शरीफजादा,
गली से चुपचाप निकल आया है।
दिल की बोतल से तेरी,
मैंने पी डाले न जाने कितने कड़वे घूंट
पीव जलजले जहर के मैँने,
खुदा की रहमत से पचाया है।
शमें रोशनी को कहीं और जलाओे तुम लोगों,
अंधेरों से हमें कुछ इस कदर प्यार आया है
नीम का पेड़ ओर मेरा बचपन
आज भी है मेरे घर
नीम का पेड़ और देवी की मढ़िया
जब में बच्चा था तब
नीम के पेड़ पर
सहज ही चढ़ जाया करता था
तब चुपके से पेड़ की सबसे ऊंची
डाली/शाखा पर पहुंचकर में जोर से
मां को आवाज लगाता था।
मां नीम के पेड़ पर मुझे चढ़ा देख
जमकर चीखती चिल्लाती
कहती नीचे उतर गिर जायेगा
डराती नहीं उतरेगा तो पीटूंगी
मैं मां को चिढाकर खुश होता
उन्हें गुस्सा करते देख शरारतें करते
पतली डाली पर चढ़ जाता था।
मां कभी रूआंसी होती, कभी रोने लगती
और नीम से उतरने की मिन्नतें करती
फिर कहती तेरे पिताजी को बुलाती हूँ
पिता का नाम सुनकर मैं झटपट
नीम से नीचे उतर आता था।
जानता था सच में पिताजी आ गये
तो वे पीटेंगे और म्याल से हाथ बांधकर
खाना न देने का फरमान जारी कर देंगे,
तब मां, उनकी दी गयी सजा को कम
कराने की मिन्नतें करती तो पिताजी मां पर नाराज होते थे
मां मुझे कई बार म्याल से बंधा देख
रस्सी खोलने का ख्याल तो लाती,
पर पिताजी को मनाने के बाद ही वे मुझे
बचपन की मेरी शरारतों से बचा पाती,
हां उस समय पिताजी को
दादी मां और बडी अम्मा ही डपटकर
मुझे सजा से मुक्त कराने का एकमेव अधिकार रखते थे
और पिताजी
दादी मां और उनकी भाभी मां के आदेश को
आजीवन अपना कर्तव्य समझ निभाते रहे,
आज मैं बडा हो गया हूँ
और मेरे बेटे आज भी मुझसे ज्यादा
अपने दादा दादी को प्रेम करते है,
भले आज माता पिता पर उम्र हावी होने पर
वे कमजोर, बूढे हो गये हैं लेकिन
उन बूढी आँखों को आज भी अपने बेटे-बेटियों का
इंतजार होता है, मिलने पहुंचते हैं
तब मेरे मातापिता की ऑखों से
आंसू प्रेम के रूप में झरने लगते हैं
मैं माता-पिता के हर दर्द को
समझकर,भूल जाता हूँ अपने बचपन की
वे सारी सजायें, जो मुझे बचपन की
नादानी की शरारतों से उनसे मिली थी।
नीमवाली देवी की मढ़िया
आज भी है मेरे घर नीम का पेड़,
पेड़ के नीचे देवी की मढ़िया है
मेरे दादा दयाराम जी तब
जब वे गंभीर रूप से अस्वस्थ्य थे
कहीं से एक मूरत जो तलवार लेकर बैठी थी
ले आये,और मढ़िया में रख
उस मूरत की पूजा-पाठ शुरू कर दी थी।
परिवार ने चबूतरे पर गुम्बदनुमा
मढ़िया बना दी,और आस-पडोस में
विजयासेन देवी के नाम से
उस पत्थर पर उकेरी मूरत पर
सिन्दूरलगा कर पूजा का दौर चालू हुआ।
और वह नीम का पेड़
अंदर से खोखला था
जिसमें कुछ पत्थर की पिंडलिया निकली,
उसे सिन्दूर से लपेटकर
विजयासेन, कैलारस वाली
देवी के नाम से हम
आज तक पूजते आये हैं।
तब देवी की मढ़िया उत्तरमुखी थी
जहां चैत ओर वैशाख की दो नवरात्रियों
पर जस होते, पडिहार घूमा करते
दरबार में यह सिलसिला सुबह तक चलता।
अचानक परिवार के बडे घर पर
जाने कहां से विपत्तियां आने लगी
तब जगदीश पर हरदौल बाबा उतरे
पता चला,सालों से इस मढ़िया पर
मिश्रीकाका को जो देवी सीस उतरती थी
वह कोई मर चुके रामप्रसाद की अत़प्त आत्मा थी
हरदौल बाबा ने शीश में आकर
मढ़िया को उत्तरमुखी से पूर्वमुखी कर दिया।
पर परेशानियां कम नहीं हुई
और परिवार के मुखिया रामभरोस जी
असमय ही चल बसे,
तब एक पडिहार के कहने पर
भोपाल तिराहे पर उनका चबूतरा बना दिया गया।
बड़े परिवार पर आज भी
विपत्तियों का दौर थमने का नाम नहीं लेता
भाईयों में परिवार के प्रति स्नेह,
मोह,माया और ममता ढूंढे नहीं मिलती
स्वार्थ के दलदल में सभी
एक दूसरे को भूले है और घर के सामने
जो नीम का पुराना पेड़ था,
वह तीन दशक पहले धराशायी हो गया था और
उसके स्थान पर मैंने जो पेड़ लगाया है
वह आज विशाल हो गया है और
पहले वह मढ़िया के पीछे हुआ करता था
आज वह नीम का पेड़ मढ़िया के बगल में है
और परिवार बंटकर मढ़िया के
दायें-बायें और पीछे टुकड़ों में बंट गया है।
रचनाकार ...आत्माराम यादव पीव (वरिष्ठ पत्रकार)
के-सी- नामदेव निवास, द्वारकाधीश मंदिर के सामने,
जगदीशपुरा वार्ड नम्बर -2 होशंगाबाद मध्यप्रदेश
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