(यह विशेष प्रविष्टि पुरस्कारों हेतु नहीं है) मुझे लगता है , शुरुआत मुझे शान्तिनिकेतन से करनी चाहिए। मैं वहाँ स्कूल में पड़ती थी। मेरे पिता ...
(यह विशेष प्रविष्टि पुरस्कारों हेतु नहीं है)
मुझे लगता है, शुरुआत मुझे शान्तिनिकेतन से करनी चाहिए। मैं वहाँ स्कूल में पड़ती थी। मेरे पिता सरदार हरीसिंह मदान कोलकाता में बहुत बड़े ट्रेवेल एजेंट थे। मेरी माँ अमर कौर और मौसी हरनाम कौर दोनों ही पंजाबी की जानी-मानी कवयित्रियाँ थीं। स्वाभाविक ही गुरुदेव रवीन्द्रनाथ के प्रति उनके मन में अगाध श्रद्धा थी। मेरे पिता ने अपने मित्रों को गुरुदेव और उनके शन्तिनिकेतन की काफी प्रशंसा सुन रखी थी। इसलिए मुझे वहाँ पढ़ने भेजा गया। वहाँ मुझे खूब अच्छा लगा। बाद में मेरे छोटे भाई बहनों को भी पढ़ने भेजा गया। जब हम 3-4 भाई-बहन वहाँ पढ़ने गए तो माँ भी वहीं- आकर रहने लगीं। पहले किराये के मकान में, बाद में खुद के मकान में। गौरापन्त मेरी सहपाठिनी थीं। बाद में वे ' शिवानी ' के नाम से हिन्दी की विख्यात लेखिका हुईं।
एक बार मुझे गुरुदेव के समक्ष रवीन्द्र संगीत गाने का अवसर मिला। गुरुदेव को प्रसन्न देखकर मैंने धीरे से कहा कि मेरी माँ पंजाबी की कवयित्री हैं और अभी यहीं पर हैं। गुरुदेव ने कहा कि एक दिन उन्हें जरूर ले आओ। इस प्रकार मेरी माँ को अनायास गुरुदेव का दर्शन-लाभ हो गया।
जब मैं स्कूल से कॉलेज में आयी, तब तक मोहन लाल वाजपेयी शान्तिनिकेतन आ गये थे। उनकी नियुक्ति हिन्दी भवन में हुई थी और वे कॉलेज के छात्रों को हिन्दी पढाते थे। वे बहुत ही अच्छा पढ़ाते थे। ० उन पर अगाध श्रद्धा '। बाद में उनसे प्रेम भी करने लगी। किन्तु पहले श्रद्धा, बाद में प्रेम। मेरा प्रेम श्रद्धा-जनित था। वे मेरे पति थे ओर गुरु भी थे।
मैंने निश्चय किया था कि मैं शादी नहीं करूँगी। शादी में मेरी कोई रुचि नहीं थी। मेरा रुझान कुछ-कुछ आध्यात्मिकता की ओर था। यही हाल उनका था। वे भी शादी नहीं करना चाहते थे आध्यात्मिकता की दिशा में वे बहुत आगे बढ़ चुके थे। श्री अरविन्द और श्रीमाता जी के परम भक्त थे और पांडिचेरी जाते रहते थे।
शादी मैं करना चाहती थी, न वे। किन्तु विधाता के मन में कुछ और था। धीरे-धीरे हम दोनों को ही लगने लगा कि हम दोनों का ही जीवन के प्रति दृष्टिकोण एक-सा है, वृत्तियाँ एक-सी हैं और विचारधारा भी समान है। हम दोनों एक-दूसरे के लिए बने हैं। हमने शादी करने का निर्णय लिया।
इस शादी में बहुत बड़ी बाधा था- धर्म। मैं सिख परिवार से थी और वे ब्राह्मण कुल से। इस शादी के लिए हम दोनों के ही परिवार की घोर असहमति थी। बल्कि मेरे माता-पिता तो अमृतसर के एक सम्पन्न सिख परिवार के लड़के से मेरी शादी करने का निश्चय कर चुके थे। माँ धर्म को लेकर नाराज थीं तो पिता इस बात से नाराज थे कि मैं एक सम्पन्न परिवार की लड़की, एक सम्पन्न लड़के को छोड्कर एक विपन्न मास्टर से शादी करने जा रही हूँ। फिर भी पिता का विरोध उतना तीव्र नहीं था, जितना माँ का। केवल मेरे बड़े भाई मेरे पक्ष में थे। वे वाजपेयी जी के गुणों से परिचित थे और उनका अत्यधिक आदर करते थे। वे स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी रहे और डेढ़ बरस जेल में रहे वे अत्यन्त सुन्दर थे और एक फिल्म अभिनेत्री से उनका प्यार था। दोनों ही शादी करना चाहते थे, पर मेरे भाई पर देश-भक्ति का ऐसा रंग चढ़ा कि उन्होंने कभी शादी न करने का संकल्प लिया पैतृक व्यवसाय में भी नहीं पड़े। केवल देश सेवा में लगे रहे। यद्यपि स्वयं उन्होंने कभी शादी नहीं की, लेकिन मेरा पूरा साथ दिया।
यही हाल वाजपेयी जी के परिवार का रहा हमारी शादी में वहाँ से कोई नहीं आया । इन्होंने जाति-धर्म से बाहर जो शादी कर ली थी। शादी के कोई चार बरस बाद मैं उनके घर गयी तो मेरी जिठानी ने मुझे चौके से अन्दर नहीं आने दिया, लेकिन बाद में भाभी (जिठानी) के विचारों में परिवर्तन आया और हम लोगों को बड़े प्रेम से अपना लिया। उनके बच्चे हमारे बच्चे हो गए। प्रकाश तो शान्तिनिकेतन में हमारे घर पर रहकर पढ़ा।
हिन्दी भवन के अध्यक्ष पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी का वाजपेयी जी पर अत्यधिक स्नेह था। उसी प्रकार अँग्रेजी के प्रोफेसर ऋषि तुल्य गुरुदयाल मल्लिक का भी वाजपेयी जी पर उतना ही स्नेह था दोनों ही मेरी माँ से. परिचित थे। दोनों ने ही मेरी माँ को समझाने की पूरी कोशिश की यानी एक संस्कृत के अध्यापक थे।
और अँग्रेजी के अध्यापक थे। हिन्दी के अध्यापक की शादी के -लिए अपनी पूरी ताकत लगा दी, लेकिन माँ टस से मस न हुई, किन्तु हम दोनों ही इस विवाह पर अडिग थे और दोनों ही परिवारों के जबर्दस्त विरोध के बावजूद- धर्म, जाति, प्रान्त, भाषा के य-धन काट कर हमने शादी करने का निर्णय लिया।
गरमी की छुट्टियों में शादी करना तय हुआ। मैं कोलकाता में थी मेरे पास एक से बढ्कर एक साड़ियाँ थीं। लेकिन मैँने उनमें से एक भी साड़ी नहीं ली। जो गहने पहने थे, वे भी उतारकर रख दिए। मेरे बड़े भाई साहब के साथ खाली हाथ शान्तिनिकेतन आयी। जिला मुख्यालय जाकर सिविल मैरिज की। वाजपेयी ने कहा कि अनुष्ठान भी होना चाहिए। मन्त्रोच्चार के साथ विवाह होना चाहिए। अब पुरोहित कहाँ से आए।
तब पंडित हजारी प्रसाद जी ने कहा कि तुम दोनों की शादी मैं करवाऊँगा। उन्होंने कहा कि अग्नि को साक्षी मानकर विवाह होना चाहिए। कहीं से ताँबे का छोटा-सा हवन-पात्र प्राप्त किया गया 1 मेरी ओर देखकर पंडितजी ने कहा- अच्छी-सी साड़ी पहनकर आओ, लेकिन मेरे पास और साड़ी थी ही नहीं। मेरी एक सहेली वहाँ रहती थी। उसी से साड़ी ली। निश्चय ही वह नयी नहीं थी। एक पुरानी साड़ी पहनकर मैं शादी के लिए बैठी। जब कन्यादान का समय भी आया तो पंडित जी ने मेरे बड़े भाई से कन्यादान करने के लिए कहा। बड़े भाई ने बड़ी विनम्रता से कहा कि आप हर तरह से मुझसे बड़े है। इसलिए कन्यादान कृपया आप ही करें। पंडित जी ने पुरोहित और कन्या के पिता- दोनों की ही भूमिका बड़ी खूबी से निभाई। वाजपेयी ने मेरी माँग में सिन्दूर भरा। विवाह सम्पन्न हो गया। गुरुजनों ने हमें आशीष दिये।
शादी सम्पन्न होते ही त्रुपितुल्य गुरुदयाल मल्लिक लगे नाचने! हम कितने भाग्यवान थे कि पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी ने हमारी शादी सम्पन्न करवाई और मल्लिक जी नाचे और पंजाबी के विवाह गीत गाये! मल्लिक जी उन्हें ' मोहन और मुझे ' मोहिनी कहते थे! इन मनीषियों के शुभाशीष के कारण हमारा वैवाहिक जीवन अत्यन्त सुखमय रहा। हमारी शादी 5० या शायद उससे भी कम रुपयों में हो गयी। कोई भोज नहीं, स्वल्पाहार तक नहीं। वे अपना खाना खुद बनाते थे। खिचड़ी ही बनाते थे। विवाह सम्पन्न होने के बाद हम अपने कमरे में आए खिचड़ी पकाई और खाना खाया। मैंने इतना उलाहना जरूर दिया कि शादी के लिए तुम मेरे लिए एक साड़ी तक नहीं लाए ' किसी से साड़ी माँगकर मुझे शादी रचानी पड़ी।
उसी दिन मैं समझ गयी कि घर-गिरस्ती इनके बस की बात नहीं। यह काम मुझे ही करना होगा। शादी के तुरन्त बाद हम लोग श्री अरविन्द आश्रम, पांडिचेरी चले गए। उन दिनों वहाँ स्त्रियाँ अलग रहती थीं और पुरुष अलग। पति-पत्नी को भी साथ रहने की अनुमति नहीं थी। अपवाद स्वरूप सम्भवत: कि हम लोग नवनिवाहित थे- हमें साथ रहने दिया गया। जिस कमरे में हम रहे, उसमें पहले श्री अरविन्द रह चुके थे।
छुट्टियाँ खत्म होने से पहले हम शान्तिनिकेतन लौट आए। हमारी शादी 1946 में हुई थी। तब उनकी तनख्वाह कुछ 180 रुपये थी। इसमें गृहस्थी चलाना मुश्किल था। मैं एक अत्यन्त समृद्ध परिवार से थी। फिर भी एक पल के लिए भी मेरे मन में यह विचार नहीं आया कि मैंने कोई गलती की है।
शादी के बाद मेरे माता-पिता का विरोध जारी रहा, लेकिन मेरे छोटे भाई-बहन मुझसे चोरी-छिपे मिलते थे। कालान्तर में उनका विरोध भी कम होता गया और बाद में तो यह स्थिति बनी कि मेरे माता-पिता हर छोटे-बड़े काम में ' उनकी ' सलाह लेने लगे। पिताजी कहते – “जैसा मोहन जी कहें वैसा करो। '' एक बार तो माँ ने मुझसे कहा, '' जिन्दगी में तूने अगर कोई समझदारी का काम किया है, तो वह है- मोहन जी से शादी। '' माँ ने मुझे सारे गहने दे दिए जो उन्होंने मेरी शादी के लिए बनवाए थे।
यह भी बता दूँ कि पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी की पत्नी- जिन्हें हम भाभी जी कहते थे- धर्म के बाहर की इस शादी के पक्ष में नहीं थीं। जहाँ पंडितजी ने हमारी शादी करवायी, वहीं वे इस शादी में आयी तक नहीं। किन्तु बाद में हमें उनका भी भरपूर स्नेह मिला। बाद में वे जब शान्तिनिकेतन छोड्कर बनारस चले गए तब वहाँ से पंडितजी का पत्र आया कि हम सभी को तुम दोनों की बड़ी याद आ रही है, कुछ दिनों के लिए यहाँ आ जाओ। हम दोनों गए और पंडितजी के घर बड़े आनन्द से रहे।
मेरे मन में एक आकांक्षा थी- तीव्र आकांक्षा कि मैं माँ बनूँ। मेरी मान्यता थी और आज भी है कि नारी जब तक गर्भधारण नहीं करती, माँ नहीं बनती, तब तक वह अपूर्ण है। शादी के तीन साल बाद वह छौना (पुत्र अभिजित) का जन्म हुआ तो मुझे लगा, मेरा नारी होना सार्थक हुआ।
मैं बता ही चुकी हूँ कि घर-गिरस्ती इनके बूते की बात नहीं थी। इसलिए घर का काम तो मैं करती ही थी, बाजार-हाट भी मैं ही करती थी, लेकिन कभी ऐसी परिस्थिति आ जाती थी कि बाध्य होकर मुझे इनको कुछ काम कहना ही पड़ता था। हमारा बेटा उस समय छोटा था, इसलिए अचानक बाजार जाना मेरे लिए सम्भव नहीं था। मैंने इनसे दबी जबान में कहा, '' कुछ बहुत जरूरी सामान रसोईघर का लाना है- तुम ला सकोगे? उन्होंने तत्परता से कहा, '' अवश्य ही ला सकूँगा। जो कुछ चाहिए उसकी सूची बना कर मुझे दे दो। बस, मैं यूँ गया और यूँ आया। '' मैंने चटपट लिस्ट बनाकर दी और कहा '' 'देर नहीं करना। तुम लौटोगे तभी खाना पकेगा। दोपहर के ग्यारह बज गए, बारह बज गए। साढ़े बारह बजे लौटे कुछ सकुचाते हुए कहा, '' देर हो गयी। बोलपुर में एक किताब लाने की बात कब से सोच रहा था, आज जब दुकान के पास से निकला तब लगा ये काम भी झट से निपटा लूँ। '' मैंने कहा, '' अच्छा ठीक है। लाओ सबसे पहले मुझे चावल दो ताकि छौना को कुछ तो खिला सकूँ। '' इन्होंने कहा, '' थैले में सब कुछ है, देखकर निकाल लो। '' लेकिन थैले में चावल कहीं नहीं था। मैंने कहा '' चावल तुमने अलग रखे होंगे, थैले में तो नहीं हैं। '' इन्होंने कहा '' ये कैसे हो सकता है। गिरिजा बाबूने तो मुझे साफ कहा था कि सारा सामान बैग में भर दिया है।
मैंने कहा, '' तो ये सब सामान गिरिजा बाबू ने खरीदा है?
'' हाँ हाँ। वे अचानक मिल गये तो मैंने उनसे अनुरोध किया कि इस सूची का सामान अगर ला दें तो मेरी बड़ी सहायता होगी। उन्होंने झट कहा, '' यह भी भला कोई कहने की बात है!'' मेरे हाथों से खाली थैला लिया और सामान खरीद लाये। मुझे बुक- स्टाल पर कुछ काम था, मैं कुछ ऐसा व्यस्त हो गया कि समय का ख्याल नहीं रहा। लौटने में देर हो गयी। ''
मैंने कहा, '' अच्छा तो यह बात है! चावल सूची में लिखा नहीं था लेकिन मैंने तुम्हें अच्छी तरह समझा कर कहा था कि अद्वैत स्टोर से यह विशेष प्रकार का चावल लेना। उनको सिर्फ कह देने से ही वे दे देंगे। तुमने तो कहा- कोई खरीद-फरोख्त की ही नहीं। गिरिजा बाबू के हाथ सूची पकड़ा दी और अपनी किताबों की दुकान में जाकर बैठ गये। '
हमारी शादी को चार वर्ष हुए थे। ये विश्व भारती के भवन में अध्यापक थे। तनख्वाह बहुत कम थी। मुश्किल से गृहस्थी चलती थी। हमारा बेटा उस समय एक बरस का था। इसी समय इन्हें जर्मनी जाने का सुयोग मिला। साक्षात्कार के लिए वे दिल्ली चले गए। संवाद देते रहे कि कई परीक्षाएँ हो चुकी हैं, सिर्फ अन्तिम साक्षात्कार बाकी है। फिर तार आया कि सिलेक्शन हो गया और 15 दिनों के अन्दर हमें जर्मनी के लिए रवाना होना है।
इस सुयोग को पाकर हम सब बहुत प्रसन्न थे। बड़े उत्साह से तैयारी कर रहे थे। तभी अचानक एक तार और आया- हमारे पूज्य दादाजी का अचानक देहान्त हो गया है। जर्मनी जाना कैंसिल कर दिया है। कला भवन के छात्र जयन्त को लेकर बालाघाट पहुँचे। अचानक जैसे बिन बादल बिजली गिरी। पूज्य दादाजी (इनके बड़े भाई साहब) इनसे 15 वर्ष बड़े थे, अचानक चले गये। इस दुर्घटना ने इन्हें गहरी चोट पहुँचायी। दादाजी के प्रति इनकी अगाध श्रद्धा थी। उनका अचानक निधन हो गया।
वे दिल्ली से सीधे बालाघाट पहुँचे। मैं जयन्त के साथ बेटे को लेकर पहुँची। देखा, इन्होंने बड़ी तत्परता से सारी परिस्थिति को सँभाल लिया है। तथा भाभी जी तथा तीनों लाडले बच्चों की सब तरह की व्यवस्थाएँ शान्त भाव से करते जा रहे हैं। दादाजी के अचानक निधन से कई तरह की समस्याओं का उठ खड़ा होना स्वाभाविक था। लेकिन वे विचलित नहीं हुए।
उस समय मुझे इनका असली परिचय मिला। वे शान्त थे, स्थिर थे और अपने कर्तव्यों का मुस्तैदी से पालन कर रहे थे। बस, एक ही बात वे बार-बार दोहराते थे- भगवान मंगलमय है- उनकी इच्छा से जो कुछ भी घटित होता है, उसके पीछे उन्हीं मंगलमय का हाथ होता है। वह तोड़ते हैं तब और कुछ सुन्दर गढ़ने के लिए ही। आज समझ में आता है उनका यह कथन- '' कितना सत्य है। हमारे ये तीनों बच्चे एक से एक बढ्कर कृती हुए हैं।
अस्सी बरस से ऊपर की उमर हो रही है। मेरे अतीत को जिस पर्दे ने ढँककर रखा था, वह अचानक किस हवा से सरक-सरक जा रहा है। बीते समय की झलक दिखाई देती है और फिर अचानक ओझल हो जाती है। पुरानी जो भी घटना याद आती है- वे चाहें सुखद हो या दुखद- उनकी अनुभूति आज बदल गयी है, देखने का ढंग बदल गया है। जिस घटना ने उस समय बहुत सुख दिया था, बड़ी महत्त्वपूर्ण लगी थी, वही आज नगण्य लगती है, व्यर्थ लगती है। और चोट पाई थी जिससे, वही मूल्यवान लग रही है। क्योंकि ठीक-पीटकर उन्हीं ने तो हमें सँवारा है। नहीं, ' सँवारा है ' नहीं कहना चाहिए। सँवारने की कोशिश की है। सँवर जाती तो क्या बात थी। खैर।
शान्तिनिकेतन के प्रति आकर्षण इनका बचपन से ही था। क्योंकि रवीन्द्रनाथ की रचनाएँ ये निरन्तर पढ़ते रहते थे। उधर श्री अरविन्द की योग-साधना पर पूरा विश्वास और श्रद्धा उनके अन्तर में गहरी थी। संयोग से इनकी जीवनधारा इन दोनों किनारों का आश्रय लेकर बड़ी सहजता से आगे बढ़ती रही। उतार-चढ़ाव तो जीवन में लगे ही रहते हैं। सुख-दुख, खुशी-गम, भला-बुरा, ये सभी हमारे जीवन में पूरी तरह आए। लेकिन इन्होंने इन सब परिस्थितियों का बोझ नहीं ढोया। इन्हें हावी होने नहीं दिया। मैं तो कई बार घबरा जाती थी, चिन्तित होती थी, लेकिन इनका अपने गुरुदेव पर अटूट विश्वास और भरोसा डगमगाता नहीं था। और धीरे- धीरे परिस्थिति सुधरती जाती थी। घर-गृहस्थी की समस्याओं में, उलझनों में मैंने इनको पड़ने ही नहीं दिया। वैसे मेरी पूरी सहायता करना चाहते थे, लेकिन कुछ खास बन नहीं पाता था। पैसे- धेले के साथ तो इनका कोई सम्बन्ध नहीं था। आमदनी कितनी है, कितना खर्च करना है, कहाँ करना है, कैसे करना है, यह हिसाब-किताब इनसे बनता नहीं था। विश्वभारती की तनख्वाह बहुत कम थी। शादी के बाद जब शुरू-शुरू में मैंने गिरस्ती की गाड़ी चलानी शुरू की, तब समझ में नहीं आता था कि क्या करूँ और कैसे करूँ।
वे अपनी पढ़ाई-लिखाई और विशेषकर वे छात्रों को पड़ाने तथा विश्व- भारती के अन्य कामों में व्यस्त रहते थे। उत्तर वे अवश्य देते थे। इसमें उनका इतना समय चला जाता था कि फिर स्थिर चित्त से साहित्य-सृजन का समय नहीं मिल पाता था। वैसे; जब भी इन्होंने कुछ लिखा है, टाइप-राइटर के सहारे, एक बार में ही
लिख डालते थे- कई बार तो जो लिखा, उसे फिर से एक बार देखने का समय भी इनको नहीं मिलता था। मैं इनसे कई बार कहती, '' कितने लोग तुमसे तुम्हारी रचना माँगते हैं, तुम कुछ तो लिखकर भेजा करो। '' वे कहते, ' अरे, क्या होगा ' प्रेम से लिखी जो चिट्ठियाँ आती हैं, उनका जवाब देने का समय तो मिल नहीं पाता। और होगा क्या साहित्य की रचना करने से ' चिट्ठी बहुत बड़ा माध्यम हे, जिसके सहारे हम एक-दूसरे के निकट आते हैं। प्रेम और भाईचारा बढ़ता है। '
इस सिलसिले में एक घटना याद आ रही है। इन्होंने ही सुनाई थी। '' विश्वभारती हिन्दी भवन में मेरी नियुक्ति होने के बाद काफी लोगों से मेरा परिचय हुआ। पत्र-व्यवहार का काम ज्यादातर मेरे जिम्मे ही था। एक दिन एक सज्जन मेरे पास आये। थे तो बंगाली, लेकिन थोड़ी-बहुत हिन्दी उन्हें आती थी। बहुत सकुचाते हुए कहने लगे, '' अगर आप थोड़ा कष्ट करें तो मेरी बड़ी सहायता होगी। ''
मैंने कहा, '' कहो, क्या काम है?''
उनकी उम्र रही होगी यही बाईस-तेईस साल की। सिर नीचा करके कहने लगे। '' एक चिट्ठी लिखनी होगी। मैं तो अच्छी हिन्दी जानता नहीं, इसलिए आपसे अनुरोध करना चाहता हूँ कि आप मेरे मन के भावों को सजा-सँवार कर इस तरह लिख दीजिये कि मेरा काम बन जाये। '' मैंने कहा, '' ये कौन सी बड़ी बात है। कहो, क्या कहना चाहते हो। मैं चिट्ठी ठीक से लिख दूँगा ताकि तुम्हारा काम बन जाए। '' बताओ, क्या लिखना है। ''
वह युवक चुपचाप खड़ा रहा। मेरे बार-बार कहने पर धीमे स्वर में बोला, '' कैसे कहूँ समझ नहीं पा रहा। एक ऐसा पत्र लिखना है जिससे वह मेरे अन्तर के भाव को ठीक से समझ ले और हम एक-दूसरे के बहुत नजदीक आ जाएँ। ''
मैं चौंक उठा। '' यह तुम क्या कह रहे हो? यानी कि प्रेम पत्र!''
'' जो आप समझें। '' फिर बेचारा रो पड़ा और कातर होकर कहने लगा, '' कृपया आप मुझे निराश न करें। मुझे आप निराश नहीं करेंगे, ऐसा भरोसा लेकर आया हूँ। ''
थोड़ा रुककर बोले, '' जीवन में ऐसी घटना भी घटी है। इनका विवाह भी हो गया। तो यह काम भी मुझे करना पड़ा है!''
1955 में हमें फिर विदेश जाने का अवसर मिला। इटली के रोम में नियुक्ति थी। काम था-इटली में राष्ट्रभाषा हिन्दी का प्रचार और भारत में इतालवी का प्रचार करना। इस काम को रेडियो, हिन्दी प्रशिक्षण तथा कई तरह के और कामों के माध्यम से करना पड़ता था। शुरू-शुरू में तो हमें बहुत दिक्कत होती थी और वहाँ के लोग बिल्कुल ही अँग्रेजी बोलना नहीं चाहते थे। ऐसा नहीं कि अँग्रेजी जानते नहीं थे, लेकिन बोलना नहीं चाहते थे। उनका कथन था कि जिसे भी हम से बात करनी है वे हमारी भाषा में करें। इससे हमें लाभ यह हुआ कि हम बहुत जल्द इतालवी सीख गये।
वहाँ उन्हें एक बड़ा काम और करने के लिए दिया गया। हमारे देश की जो तेरह भाषाएँ हैं, उनका इतिहास, थोड़ा परिचय तथा और भी जानने योग्य तथ्य हो- सब मिलाकर एक य-थ तैयार करने को कहा गया। यह काफी मेहनत का काम था और समय तो वैसे ही इनके पास कम होता था। फिर भी खूब परिश्रम और लगन से इस काम को करते रहे।
इटली में पाँच वर्ष का अनुबन्ध था। अवधि प्राय: समाप्त होने को आ रही थी। इनके कार्य से वहाँ के अधिकारी बहुत सन्तुष्ट थे, अत: इन्हें और भी आगे रहने के लिए कहा गया। लेकिन हम दोनों को ही अपना देश छोड्कर अब बाहर रहने की जरा भी चाह नहीं थी। विशेषकर शान्तिनिकेतन को बड़ी याद आती थी। इसलिए हमने लौट आना ही तय किया। इनके स्थान पर और एक सज्जन की नियुक्ति की गयी। उनकी उम्र कुछ कम थी और पहली बार विदेश में इतने बड़े दायित्व का भार लेने के लिए आए थे। कुछ चिन्तित और घबराए हुए थे। इन्होंने लक्ष्मण प्रसाद मिश्र को पूरा प्रोत्साहन तो दिया ही, साथ में इन्होंने भारतीय भाषाओं पर जो काम किया था, उन्हें सौंपकर कहा- ये जो कुछ भी काम मैंने किया है, उसे आप रख लें। और थोड़ा-बहुत आगे बढ़ाकर थीसिस को सबमिट कर दें। इससे आपको डॉक्ट्रैट मिल जाएगी और जल्द ही काम-काज में तरक्की होगी।
इस तरह उन्होंने अनायास ही अपनी मेहनत का फल उन्हें सौंप दिया और बहुत प्रसन्न थे कि मिश्राजी की कुछ सहायता कर सके। उनका इस तरह का कार्य मैं शुरू से ही देखती आ रही थी। फिर भी मैंने दबी जुबान से कहा, '' तुम्हारी थीसिस तो प्राय: पूरा हो चुका था। भारत लौटने के बाद भी इसकी उपयोगिता थी इसे रख सकते थे। ' इन्होंने कहा, ' देने का मजा तो इसी में है कि अपनी बहुमूल्य वस्तु को किसी और के प्रयोजन में लगा दें। ''
विदेश से लौटने के बाद इन्हें शान्तिनिकेतन में रवीन्द्र भवन का अध्यक्ष बनाया गया। यहाँ गुरुदेव रवीन्द्रनाथ के बहुमूल्य चित्र, पांडुलिपियाँ तथा देश-विदेश से मिले उपहारों का दुर्लभ संग्रह है वाइस-चांसलर सुधीरंजन दास ने तनख्वाह के बारे में पूछा। वे इन्हें काफी अधिक तनख्वाह देना चाहते थे। बहुत पूछने पर बोलो, ' सुदर्शना कहती है, घर-खर्च में सौ रुपये कम पड़ते हैं। वर्तमान तनख्वाह से सौ रुपये ज्यादा दे सकें तो हमारा काम चल जाएगा। '' सुधीरंजन हँस पड़े घर लौटकर इन्होंने मुझे सब बताया और कहा, मुझे बड़ी लज्जा हो रही है। लगता है सौ रुपये कुछ ज्यादा ही कह दिए।
रवीन्द्र भवन के अध्यक्ष होने के नाते बहुत बड़ी जिम्मेदारी इन पर आ पड़ी। ये अत्यधिक व्यस्त रहने लगे। साथ ही हिन्दी भवन में थोड़ी-बहुत क्लासें भी लेते रहे। शुरू से ही इन्हें पढ़ाने का काम बहुत अच्छा लगता था और छात्रों के साथ इतनी आत्मीयता थी कि वे इन्हें छोड़ना नहीं चाहते थे।
रवीन्द्र भवन बहुत बड़ा विभाग है और यहाँ कर्मियों की संस्था भी काफी है। थोड़ी ही दिनों में सबके साथ इनका आत्मीय सम्बन्ध हो गया। अचानक किसी काम से मुझे कोलकाता जाना पड़ा। घर में ये अकेले थे और माली था माली की तबीयत खराब हुई। बिस्तर से उठकर बैठना मुश्किल हो गया। डॉक्टर ने बताया कि कॉलरा है, इसे घर में न रखें, अस्पताल में भर्ती करें। इन्होंने माना नहीं और बड़े विश्वास से कहा कि मैं इसकी सेवा करूँगा। घर में ही रखा, पूरी तरह सेवा की और से स्वस्थ किया।
संस्कृत के प्रति इनकी अगाध श्रद्धा थी। कहते थे- यह देव भाषा है, कितनी तिथियाँ छिपी हुई हैं- इसमें। इसे सुनने का अवसर इन्हें बचपन से ही अपने पूज्य पिताजी से मिला था। वे फारसी, उर्दू और विशेष रूप से संस्कृत के विद्वान थे। यही कारण था कि संस्कृत के संस्कार बचपन से ही इनके मन में दृढ़ हो गये
शान्तिनिकेतन में संस्कृत के मन्त्रों को यहाँ की उपासना का अभिन्न अंग माना गया है। केवल उपासना में ही नहीं, किसी भी शुभ कार्य को प्रारम्भ करने से पहले तथा अन्य महत्त्वपूर्ण अवसरों पर भी मन्त्रोच्चार अवश्य किये जाते हैं। कभी उपनिषद, कथा वेद, गीता या फिर अन्य पुरातन विशिष्ट अन्य. से मन्त्र चुने जाते हैं। जब ये यहाँ आये थे, तभी से इन्हें मन्त्र-पाठ करने के लिए कहा गया। संस्कृत के साथ इनका लगाव तो था ही और वैसे भी घर में ये समय के अनुसार मन्त्रोच्चार करते रहते थे। इन्होंने ' मन्दिर ' में तथा अन्य अनुष्ठानों में मन्त्र-पाठ करना आरम्भ किया। उच्चारण और पाठ शुद्ध होता था। साथ ही इनका कंठ सुरीला था। इसलिए उनका मन्त्रपाठ बहुत जनप्रिय हो गया। जब भी कभी कोई विशिष्ट अनुष्ठान होते या विश्वभारती से सम्बन्धित कार्यक्रम कोलकाता से होते या कभी टी.वी. में होते, इन्हें आमन्त्रित किया जाता था। रिटायर होने के बाद भी काफी लम्बे अरसे तक यही क्रम चलता रहा। हमारे पांडिचेरी जाने के बाद यह सिलसिला टूटा।
पाँडिचेरी में हम लम्बे समय तक रहते थे, तब लौटते थे। 1984 में हमने वहाँ एक छोटा-सा मकान ले लिया और वहीं रहने लगे। हम दोनों के आश्रम के कुछ कार्यभार दिये गये। ये लाइब्रेरी में काम करते और मुझे श्रीमाता जी तथा श्रीअरविन्द की पुण्य समाधि को फूलों से सजाने का काम मिला। हमारी जीवनधारा बहुत ही आनन्दपूर्ण हो गयी। हम दोनों खूब सबेरे उठ जाते और जल्दी से घर के काम निबटाकर आश्रम चले जाते। दोपहर को घर आकर दैनन्दिन काम और थोड़ा विश्राम करके फिर से आश्रम चले जाते। काफी रात गये लौटते। वहाँ की इस जीवन- धारा में कब कैसे 16 वर्ष बीत गये, हमें कुछ पता ही न चला। हम दोनों की उम्र हो चली थी। बेटा और मेरे भाई लोग बहुत दिनों से आग्रह करते थे कि अब हम लौट आए।
ये कहते थे- बिकुल नहीं। वृन्दावन व्यज्य पादम एकम न गच्छामि। ' लेकिन होता वही है जो हमारे भाग्य-विधाता चाहते हैं। हम दोनों 2००० में दुर्गा पूजा के एक-दो दिन पहले शान्तिनिकेतन लौट आये। लौट आए उसी पुराने नीड् में जो हमेशा से हमारा आश्रय स्थल रहा है। फिर धीरे-धीरे कुछ समझ में आने लगा कि क्यों हमारे भाग्य-विधाता हमारे जीवन की साँझ में हमें यहाँ ले आए हैं।
'' कुछ लिख के सो कुछ पढ़ के सो, जिस जगह जागा था तू उस जगह से बढ़ के सो। ' भवानी भैया (श्री भवानी प्रसाद मिश्र) के प्रति इनकी जितनी अगाध श्रद्धा थी, उतना ही प्रेम था। ये पंक्तियाँ तो उनके जीवन की हर शाम और सुबह से जुड़ी भी हुई थीं। '' ये सिर्फ कविता की दो लाइनें भर नहीं हैं। महामन्त्र है। किस पुरातन काल में हमारे ऋषियों ने यही सन्देश दिया था- चरैवेति, चरैवेति। आगे बढ़ना ही तो हमारे जीवन का एकमात्र लक्ष्य है। जिस दिन हमारी गति थम जाएगी, उस दिन हमारे भाग्य भी बैठ जाएँगे। ''
मेरा सौभाग्य है- चलते-फिरते, घर का काम-काज करते, सहज ही इस तरह के मूल्यवान कथन मुझे सुनने को मिल जाते थे जो अनायास ही मन को सजग कर जाते थे। अनजाने ही एक निखार आ जाता था। फिर भी कभी अगर उदासी का वातावरण हो जाता तो गाने लगते, '' हर आन हँसी, हर आन खुशी, हर आन अमीरी है बाबा। जब आशिक मस्त फकीर हुए तब क्या दिलगीरी है बाबा। ' मन के बादल छँटना इतना सहज तो होता नहीं। मैं झुँझलाकर कह बैठती, ' रहने दो इन काव्य की बातों को। '' तब ये शान्त भाव से कहते, '' नहीं, यह काव्य भर नहीं है- ये तो महामन्त्र हें, जो हमारा नजरिया बदल देते हैं। जिस दिन देखने का सही ढंग आ गया, उस दिन सारे बादल छँट जाते हैं। आनन्द ही आनन्द है। '
जब पाडिचेरी से लौटे थे तो मेरे मन में खेद था। क्यों ऐसा सुन्दर आश्रम जीवन छोड्कर हमें यहाँ आना पड़ा, लेकिन कुछ दिनों में ही समझ में आ गया कि हमारे जीवन देवता हमें जहाँ रखते हैं, जैसे रखते हैं, वहीं ठीक है, उसी में मंगल है। शान्तिनिकेतन को प्रकृति का विशेष आशीर्वाद है- यहाँ की सुबह-साँझ प्रतिदिन अपना नया सौन्दर्य लेकर आती है। प्रशस्त आकाश कभी स्वच्छ नीलिमा लिए हुए और कभी घने बादलों से ढँका तो कभी सुनहरी किरणों से सजा। एक साँझ को हम दोनों छत पर चुपचाप बैठे थे। अचानक इन्होंने कहा, '' हम यहाँ क्यों आये हैं, मालूम?''
मैंने कहा, ' यही तो मैं सोचती हूँ। ''
जुगाली करने। '
मैं चकित-सी हुई- यह जुगाली क्या है? उन्होंने समझाया, गाय-भैंस सारा दिन बाहर चरती हैं। घास खाकर जब पेट भर जाता है, तब साँझ को घर लौटकर बड़े आराम से जुगाली करती हैं, अर्थात् प्रकृति से सारा दिन उन्होंने जो कुछ भी भेंट पाया है, उसे शान्ति से बैठकर धीरे- धीरे चबाती हैं ताकि हजम होकर शरीर को पुष्ट करें। हमारी माता जी ने हमें यहाँ इसीलिए भेजा है ताकि पिछले दीर्घ समय में हमने जो कुछ पाया है- वहाँ, उसे यहाँ एकान्त प्रकृति की गोद में बैठकर अन्तर में उपलब्ध कर सकें। ''
मैं देखती थी, प्राय: ही यह शान्त-स्थिर भाव से आँखें बन्द किए लम्बे समय तक बैठे रहते थे। मैं भी पास की कुर्सी पर चुपचाप बैठ जाती। अचानक एक दिन कहने लगे, ' देख, जैसी भी परिस्थिति हो, कभी घबराना नहीं। श्री माताजी का स्मरण करना। वे शक्ति देंगीं। '
मुझे कुछ अटपटा-सा लगा। आज अचानक इतने धीमे स्वर में क्यों ऐसा कह रहे हैं। साँझ के बाद कमरे में आकर चुप बैठे रहे। प्रतिदिन का कार्यक्रम जैसा होता था, वैसा होता रहा। फिर सो गए। दूसरे दिन सबेरे के चार बजे होंगे। अचानक मेरी नींद खुल गयी। देख, वह लेटे हुए ही गाना गा रहे हैं। ' मनमोहन, गहन जामिनी रोते, दिल आमारे जागाए। '' रवीन्द्रनाथ के गीत की पंक्तियाँ थीं। इस गीत की कुछ विशेष पंक्तियाँ वे बार-बार दोहराते रहे- जिनका अर्थ कुछ इस तरह है- मेरे मनमोहन, तुमने रात्रि शेष में अपने शुभ्र आलोक के स्पर्श से मेरी सुप्त आँखों के पट खोल दिये हैं। शान्ति की स्वच्छ धारा से मेरा चित्तकमल आनन्द वायु का स्पर्श पाकर खिल उठा है। ' अन्तिम पंक्ति को ये बार-बार दोहराते रहे। मैंने कहा, अभी तो अँधेरा है, सो जाओ। ' उन्होंने कहा, '' नहीं, नहीं, अँधेरा कहाँ है '' फिर चुप हो गये।
प्रतिदिन की तरह मुँह-हाथ धोकर लाठी टेकते हुए बरामदे में दो-एक चक्कर लगाये। बोले, ' बस अब और नहीं। फिर बैठ गये। प्रतिदिन सबेरे साढे छह बजे टी.वी. में श्रीमाता जी के बड़े सुन्दर प्रवचन सुनने को मिलते थे। आज भी सुने और कहा, '' सिर्फ सुनने भर से काम नहीं चलेगा, आशिक भाव से ही इन्हें जीवन में उतारा जा सके तो सुनना सार्थक है।
साढ़े सात बजे वे नाश्ता करते थे। पहले थोड़े फल फिर एक कप हारलिक्स के साथ एक पाव रोटी। मैंने प्लेट में फल काटकर इनके आगे रखे। इन्होंने आधे रखे, आधे खाये, बाकी आधे प्लेट में ही रहने दिये। प्लेट मेरी तरफ सरका कर कहा, ' ये तेरे लिए।
मैंने कहा, '' नहीं, नहीं। यह तुम खा लो। मेरे लिए और भी रखे हैं। ''
'' जरूर रखे होंगे, लेकिन मैं तो अपना आधा हिस्सा तुझे दे रहा हूँ। इसे अवश्य खा लो। और एक बात याद रखना- घर-गिरस्ती के कामों में समय पर स्थिर होकर बैठकर खाने का समय सदा नहीं मिल पाता, इसलिए रास्ता यही है, सब कामों को हम करें- अच्छी तरह करें- साथ ही अन्तर में हमारी साधना निरन्तर चलती रहे। स्मरण चलता रहे। ''
यही वाक्य उनके जीवन का अन्तिम वाक्य था।
मैंने उनसे कहा, '' तुम्हारा नाश्ता ठंडा हो रहा है, खा लो। ''
वे बोले कुछ नहीं सिर्फ सिर हिलाकर ना कर दी। फिर थोड़ी देर स्थिर बैठे रहे। उस समय वहाँ शारदा (जिसे वे बेटी मानते थे और अत्यधिक स्नेह करते थे- भी बैठी थीं। हम सभी चुप बैठे थे। कैसे एक निस्तब्धता छायी हुई थी)
इनकी आँखें बंद थी. अचानक इनका शरीर ढीला पड़ने लगा। शारदा ने बड़ी तत्परता से इनको अपनी बाहों में लेकर धीरे-धीरे लिटा दिया। उस समय मैं कुछ समझ ही नहीं पाई कि क्या हो गया। इस कठिन सत्य को समझने और स्वीकार करने में मुझे बहुत समय लगा। सच पूछा जाए तो आज भी स्वीकार नहीं कर पायी हूँ।
प्रस्तुति – अमृतलाल वेगड़
साभार - नया ज्ञानोदय, जनवरी 2018
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