साहित्य के बिना राष्ट्र की सभ्यता और संस्कृति निर्जीव है। साहित्यकार का कर्म ही है कि वह ऐसे साहित्य का सृजन करे जो राष्ट्रीय एकता, मानवीय स...
साहित्य के बिना राष्ट्र की सभ्यता और संस्कृति निर्जीव है। साहित्यकार का कर्म ही है कि वह ऐसे साहित्य का सृजन करे जो राष्ट्रीय एकता, मानवीय समानता, विश्व-बन्धुत्व और सद्भाव के साथ हाशिये के आदमी के जीवन को ऊपर उठाने में उसकी मदद करे। साहित्य का आधार ही जीवन है। साहित्यकार समाज और अपने युग को साथ लिए बिना रचना कर ही नहीं सकता है क्योंकि सच्चे साहित्यकार की दृष्टि में साहित्य ही अपने समाज की अस्मिता की पहचान होता है। साहित्य जब एक समाज के लिए उपयोगी है तभी तक ग्राह्य है। साहित्य की उपादेयता में ही साहित्य की प्रासंगिकता है। साहित्यकार के अंतस में युगचेतना होती है यही चेतना साहित्य सृजन का आधार बनती है। श्रेष्ठ साहित्य भावनात्मक स्तर पर व्यक्ति और समाज को संस्कारित करता है उसका युग चेतना से साक्षात्कार कराता है।
अब प्रश्न उठता है कि श्रेष्ठ साहित्य क्या है ?साहित्यिक विधाओं का उद्देश्य क्या है? क्या आत्म संतुष्टि अथवा सुखानुभूति या प्रेरणा या सन्देश या जागृति ?
संवेदना ही एक ऐसी चीज है जो साहित्य और समाज को जोड़ती है। संवेदनहीन साहित्य समाज को कभी प्रभावित नहीं कर सकता। वह मात्र मनोरंजन कर सकता है। सिर्फ मनोरंजन द्वारा ही साहित्य को जीवित रखना संभव नहीं है। अगर साहित्य के पूरे इतिहास को सामने रखकर देखा जाए तो सहज ही पता चल जाएगा कि महान साहित्य उसी को माना गया है जिसमें अनुभूति की तीव्रता और भावना का प्राबल्य रहा है। श्रेष्ठ साहित्य एक सार्थक, स्वतन्त्र एवं संभावनाशील विधाओं से जीवन के यथार्थ अंश, खण्ड, प्रश्न, क्षण, केन्द्र, बिन्दु, विचार या अनुभूति को गहनता के साथ व्यंजित करता है।
श्रेष्ठ साहित्य को मापने का न कोई पैमाना हैं न ही कोई मापदंड क्योंकि साहित्य इतना विराट और इतना सूक्ष्म है कि उसको विश्लेषित करने की सामर्थ्य किसी में भी नहीं है। साहित्य का कार्य चुनौती देना या लेना नहीं है. साहित्य सर्व जन हिताय, सर्व जन सुखाय रचा जाता है। इस सर्व में निस्संदेह आत्म भी समाहित होता है। कोई भी रचना किसी प्रकार की निर्धारित औपचारिकताओं के अधीन नहीं होती। रचनाकार जब जीवन की सूक्ष्म, गहन अनुभूति एवं विचारों को शिल्पगत निर्धारित तत्वों की सीमा में आबद्ध होकर सही इजहार दे पाने में दिक्कत महसूसते हैं तो वे शिल्पगत पुराने सांचों को तोड़ फेंकते हैं।श्रेष्ठ साहित्यिक रचना के कुछ मूलभूत संस्कार हैं जो आ रचनाकार द्वारा पालित किये जाते हैं तो वह उच्च श्रेणी की रचना बन सकती हैं। किसी भी साहित्य-विधा को श्रेष्ठ कलाकृति के रूप में प्रस्तुत करने के लिए जिन कौशलों की जरूरत होती है उनमें कथानक, शिल्प, वैचारिक-पक्ष, शैली, संवेदनीयता और उसका कला-पक्ष प्रमुख हैं।
1 रचना कौशल - रचना में मूल वस्तु उसकी वैचारिक अंतर्वस्तु होती है जिसे प्रभावशाली बनाने के लिए हम जिस प्रविधि का उपयोग करते हैं वही रचना कौशल है। कालजयी वही रचनायें हो सकी्ं जिनमें सहज संप्रेषण था। लेखन एक कला है जो आते आते आती है इसे सहजता स्वीकारने में संकोच क्यों हो। काव्यस सृजन उससे भी कठिन है। आयोजनों के लिये रचा गया काव्य सामान्यातय: रचनाकार का श्रेष्ठ कृतित्व नहीं होता है।
2 कथानक - कथावस्तु में एकतानता, सूक्ष्मता, तीव्रता, गहनता, केन्द्रीयता, एकतन्तुता और सांकेतिकता आदि होने से रचना की प्रभावशीलता अधिक बढ़ जाती है। इसलिए रचना के तत्वों में तीक्ष्णता तीव्रता और गहनता लाकर वह प्रभाव उत्पन्न किया जा सकता है। चंद्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी उसने कहा था को मोटे तौर पर देखें तो तीन विशेषताएं हैं जो ‘उसने कहा था’ को कालजयी और अमर बनाने में अपनी-अपनी तरह से योगदान देती हैं. इसका शीर्षक, फलक और चरित्रों का गठन.
3. कथावस्तु - कथा-वस्तु का विन्यास, एवं घटनाओं का संयोजन भी बड़ा महत्व रखता है। क्योंकि कथा-वस्तु का विन्यास, घटनाओं के क्रम नियोजन की प्रस्तुति जब रचना में सशक्त होती है, तब वह पाठक को अपनी तरफ खींचती है। हर लेखक अपनी क्षमता के अनुसार कथा-विन्यास का उपयोग अपनी रचनाओं में करता है। समय, सत्य और जीवन सत्य के किसी खंड, अंश, कण, कोण, प्रश्न, विचार, स्थिति, प्रसंग को लेकर चलने वाली रचना में कथानक की एक सुगठित सुग्रथित, सुसम्बद्ध एवं संश्लिष्ट योजना रहती है और उसी के अनुरूप पात्रों, संवादों, भाषा आदि का निर्माण अत्यन्त सावधानी से करना पड़ता है।
4 सुस्पष्ट विचार श्रृंखला - साहित्य में विचारधारा एक विचारदृष्टि के रूप में रहती है और कभी-कभी सृजन के स्तर पर वह भावबोध को निर्धारित भी करती है। मुक्तिबोध ने साहित्य में विचारधारा के उपयोग के लिए 'कामायनी’ का मूल्यांकन करते हुए कहा था-
''काव्य रचना जितनी उत्कृष्ट होती है, उसकी प्रभाव क्षमता भी उतनी ही अधिक होती है। इसलिए उस काव्य कृति में व्यक्त विचारधारा की प्रभावशक्ति को ध्यान में रखते हुए उसका मूल्यांकन अवश्य किया जाना चाहिए, लेकिन विचारधारा के मूल्यांकन को काव्यगुण के मूल्यांकन से अलग रखना चाहिए।”
5 कथोपकथन - किसी भी रचना में कथोपकथन का बहुत महत्व है।यह प्रभावोत्पादक, जानकारी पूर्ण, सहज संप्रेषणीय, सोद्देश्य और सांकेतिक होना आवश्यक है। रचनाकार का आशय या अभिप्रायः संवादों के जरिये सहजता और सरलता से संप्रेषित हो जाता है। संवाद, रचना का छोटा स्वाभाविक और अत्यन्त प्रभविष्णु अंश होता है और उसका एक-एक शब्द सार्थक, सोद्देश्य और महत्त्वपूर्ण होता है। संवादों के सहारे लघुकथा के अन्य तत्व मुखरित होते हैं।
उपरोक्त सभी बातें रचना के शिल्प से सम्बंधित हैं कुछ और विशिष्ट बातें जो साहित्य को कालजयी बनाती हैं वो निम्नानुसार हैं।
1. साहित्यकार को इसप्रकार के पात्रों का चयन करना चाहिए जो सहानुभूति और समझ के साथ विभिन्न सामाजिक वर्गों की एक विस्तृत श्रृंखला को समाहित कर अलग-अलग परिस्थितियों को दृढ़तापूर्वक वर्णित करने में सक्षम हों और परिस्थितियों पर "एकल-बिंदु" परिप्रेक्ष्य तक सीमित न हों। आर के नारायण की रचनाओं में सर्वाधिक लोकप्रिय मालगुडी की पृष्ठभूमि से जुड़ी रचनाएं हैं। मालगुडी ब्रिटिश शासनकाल का एक काल्पनिक नगर है। इसमें स्वामी उसके दोस्त सहित तमाम चरित्र हैं। इसके सारे पात्र खांटी भारतीय चरित्र हैं और सबकी अपनी विशिष्टताएं हैं।
2. किसी भी कालजयी रचना के पात्र मनोवैज्ञानिक गहराई और प्रेरणा की स्पष्टता के साथ दिखाए देतें हैं ;ये पात्र सत्य , परिवर्तन, विकास या जागरूकता को प्रक्षेपित करते हुए दिखाई देते हैं साथ ही उस अनुभव को सम्प्रेषित करते हैं जो समाज में इस तरह के बदलाव का कारण बनने के लिए उपयुक्त है।
3. जिस काल में रचना का निर्माण हो उसकाल की युगभावना और ऐतिहासिक परिपेक्ष्य को समाहित कर गहन कल्पनाशीलता के साथ प्रस्तुति साहित्य को श्रेष्ठता प्रदान करती है। तीसरी कसम’ कहानी को अगर शास्त्रीय कथानक के ढाँचे के अंतर्गत विश्लेषित किया जाये तो हम पाएंगे कि इसमें आदि, मध्य और अंत के निश्चित ढाँचे वाला कथानक ढूंढ पाना मुश्किल है l इसमें जीवन का एक लघु प्रसंग, उसी प्रसंग से उलझे जुड़े अन्य प्रसंग, मिथक, गीत-संगीत, मूड, सुगंध आदि सब सम्मिलित रूप में मिलकर ही कथानक बन गए हैं l
4. हमें अपनी मानवता और समाज के प्रति हमारे संबंध और हमारे ब्रह्मांड के प्रति हमारे दायित्व का बोध होना चाहिए।प्रेमचन्द की ज्यादातर रचनाएं उनकी ही गरीबी और दैन्यता की कहानी कहती है। ये भी गलत नहीं है कि वे आम भारतीय के रचनाकार थे। उनकी रचनाओं में वे नायक हुए, जिसे भारतीय समाज अछूत और घृणित समझा था। उन्होंने सरल, सहज और आम बोल-चाल की भाषा का उपयोग किया और अपने प्रगतिशील विचारों को दृढ़ता से तर्क देते हुए समाज के सामने प्रस्तुत किया।
5. साहित्यकार की कृति आनेवाली पीढ़ी या समकालीन लेखकों के समक्ष आदर्श प्रस्तुत करती हो या साहित्यकार उसका अनुसरण करने के लिए मानसिक रूप से बाध्य हों तो समझिये आप श्रेष्ठ साहित्य का सृजन कर रहें हैं।
6. अगर आपका साहित्य मनोवैज्ञानिक, आर्थिक और सामाजिक जटिलता, शैक्षिक आंदोलनों, दबे कुचले शोषित वर्ग को परिभाषित करता है या उस पर बुद्धिजीवियों को सार्थक बहस के लिए प्रेरित करता है तो आप श्रेष्ठ साहित्य का सृजन कर करें हैं।
7 आपकी लेखन की शैली एक विशिष्ट भाषाशैली ,तरीके ,शब्दों के विन्यास या विधा तक सीमित नहीं होनी चाहिए।
8. आपके लेखन में औपचारिक अखंडता होनी चाहिए , साहित्यकार को अपनी रचना पर पूर्ण नियंत्रण करना चाहिए ऐसा कोई भी शब्द या प्रसंग रचना में न हो जो उस रचना की कथावस्तु से सम्बंधित न हो। रचना अपना उद्देश्य चरम के साथ प्राप्त करे यही श्रेष्ठ रचना का लक्षण होता है।
भाषा, साहित्य, व्याकरण, शब्द-ज्ञान, रचना कौशल, शिल्प आदि गंभीर अध्ययन और मनन का विषय हैं जिसके लिए पर्याप्त समय,साधन, साधना, गहरी रुचि और समर्पण चाहिए। इनमें से कितना कुछ आज उपलब्ध है ? ऐसी पृष्ठभूमि में यह अपेक्षा करना कि हर दृष्टि से शुद्ध साहित्य ही परोसा जाय केवल दिवा-स्वप्न सामान है। अंतरजाल के विशाल क्षेत्र में पनपते अनेक साहित्य समूहों, ई-पत्रिकाओं के लिए विशुद्ध साहित्यिक सामग्री पर निर्भरता असंभव है। पाठक तो क्या अधिकाँश रचनाकार भी साहित्य सृजन की बारीकियों से अनभिज्ञ हैं। ८० -९० प्रतिशत लेखक व पाठक केवल भाव-पक्ष या तत्व-पक्ष को ही प्रधानता देते हैं। काव्य -विधा की कई शाखाएं, जैसे, सोरठा, कुण्डलियाँ, सवैयाँ दोहा आदि लुप्त होते जा रहे हैं। किसी भी साहित्य को कालजयी बनाने में दो बातें बहुत महत्वपूर्ण हैं पहला समय की पहचान और उस काल की संवेदनाओं को आवाज़ देना और दूसरा समकालीन विश्वसाहित्य से पूर्ण परिचय और उसके स्तर पर साहित्य रचना।
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