श्मशान जीवन के अन्तिम पड़ाव की विश्रामस्थली है जहाँ मृत्यु के पश्चात शरीर स्थायीरूप से पंचतत्व में विलीन हो जाता है। रंगों की वीतरागता इस श्...
श्मशान जीवन के अन्तिम पड़ाव की विश्रामस्थली है जहाँ मृत्यु के पश्चात शरीर स्थायीरूप से पंचतत्व में विलीन हो जाता है। रंगों की वीतरागता इस श्मशान भूमि पर किसी को भी आल्हादित नहीं करती तभी मृतक देह को विदाई करते समय हर व्यक्ति जीवन की असारता समझते हुये अध्यात्मवाद में सराबोर हो मृतक की देह को दहकती अग्नि में भस्मीभूत होने तक मशगूर होता है। भस्मीभूत शव को अन्तिम श्रद्घान्जली अर्पित कर उसकी परिक्रमा के पश्चात घर लौटने के बाद यही मनुष्य बुद्घत्व की तमाम देशनाओं को विस्मृत कर सांसारिक हायतौबा में खुद को झौंक देता है फिर जीवन के रंगों का पूर्णभास उसे कतई नहीं हो पाता है। विश्वविख्यात ब्रजभूमि को चुहलबाजी होली की निराली छटा जीवन में रोमांच व आनन्द को जन्म देती है जबकि श्मशान की कल्पना देहावसान से ही महसूस की जाती है। अजीव संयोग की बात है, देह त्यागने के पश्चात अर्थी को जहाँ गुलाल-अबीर डालकर सॅजाया जाता है वहाँ रंगों के आभास के साथ ही मृतक के सगे-सम्बन्धियों को मृतक से सदा के लिये बिछोह पर अपूर्णीय कष्ट भाव को सहना नियति का बदरंग स्वरूप माना गया है।
मृत्यु के आगमन पर मृतक देह के साथ रंगों से लगाव किसी को गले नहीं उतरेगा किन्तु यह यथार्थ सत्य है कि जन्म से मृत्यु तक के सफर में सप्तरंगी रंगों की छटा बिखरी हुई है। ऐसे ही यदि महाकाल के प्रतिनिधि महादेव शिव श्मशान भूमि पर मुर्दे की भस्म लपेटे काले सर्पों की माला पहने बिच्छुओं का जनेऊ धारण कर विचित्र स्वरूप लिये भय की उत्पत्ति के साथ ताण्डवकर्ता शिव अपनी प्रकृति के विपरीत होली के रंगों की उमंग में जीवन के सारतत्व का सन्देश देवे तो यह अद्वितीय ही माना जावेगा। अभी तक पाठकों ने बृजवासी ग्वालबाल, प्रेम में पगे श्रीराधा-कृष्ण व गोपियों के बीच होली और रंगों से सराबोर जीवनशैली का आनन्द उठाया है किन्तु यह पहली बार है जब जगतजननी मॉ पार्वती और मृत्यु के कारक शिवजी के जीवन में रंगों होली व रंगों से परिचित हो रहे हैं।
एकओर मानव ह्दयाकाश विषैली विकारमयी बदलियों से ढंका राग-द्वेष से अपनी स्वच्छन्दता की शाश्वत तस्वीर भूलकर अपने व्यक्तित्व की बहुआयामी दिशाओं में खुद को बन्द कर बैठा है वहीं दूसरी और मन की धरती पर प्रतिशोध की नागफनियों से पट गया है इसलिये रंगों के स्वरूपों की मौलिकता उसके जीवन में स्वर्णमृग की तृष्णा बनकर रह गई है।
होली शाश्वत काल से बुराईयों को दग्धकर अच्छाइयों को ग्रहण करने का सन्देश देती आ रही है जिससे वर्ष भर एकत्र विकारों को धोया जा सके और उनका स्थान प्रेम - भाईचारा और सद्भाव की मधुरिमा ले सके। यह त्यौहार गमों को भुलाकर हँसी-खुशी मस्ती में खो जाने का है जिसकी सुगन्ध साहित्यकारों-धर्मज्ञों ने पुराणों में अभिव्यक्त कर चिरस्थायी बना दी है जिससे इसे मनाने का उत्साह दिनोंदिन जबरदस्त होता दिखाई देता है।
रंगों की मादकता मृत्युन्जय के लिये यहाँ धतूरे की तरंग से कई गुनी ज्यादा है, इसमें डूबे नन्दीश्वर उमा की मोहनी सूरत देखते हैं जो उन्हें और भी मदहोश कर देती है।
जटा पैं गंग भस्म
लागी है अंग संग
गिरिजा के रंग में
मतंग की तरंग है।
विचित्रताओं की गढ़ बनी हिमालय भूमि भोले को देख पुलकित होती है। विभिन्न ध्वनियों में नगाड़े ढ़ोल मृदंग आदि कर्णभेदी ध्वनियों के बीच नंगेश्वरके गण फागुन की मस्ती में यह तक भूल जाते हैं कि उनके तन पर वस्त्र है या नहीं -
बाजे मृदंग चंग
ढ़ंग सबै है उमंग
रंग ओ धड़ंग गण
बाढ़त उछंग है।
एक बारगी हिमाचल वासी भोले शंकर की बारात देखकर अवाक से रह उमा की किस्मत को लिये विधाता को कोसते हुये अपने-अपने घरों के दरवाजें बन्द कर देते हैं। आज भोले शंकर उस दूल्हा रूप से भी ड़रावने दिख रहे हैं जो होली में मतबोर होकर झुम रहे हैं और उनके साथ उनके शरीर में लिपटते सर्प बिच्छू फुंफकारते हुए मस्त हो रहे हैं-
'बाधम्बर धारे
कारे नाग फुफकारे सारे
मुण्डमाल वारे
शंभु औघड़ हुए मतवारे है।'
होली के अवसर पर भला ऐसा कौन होगा जो अपने प्रिय पर रंग डालने का मोह त्याग सके। सभी अपने -अपने हमजोली पर रंग डालने की कल्पना संजाये होली की प्रतीक्षा करते हैं। जब स्वयं जगत संहारक शिव उमा को रंगने से नहीं चूके तो साधारण मनुष्य अपनी पिपासा कैसे छोड़ सकता हैः-
'गिरिजा संग होरी खेलत बाघम्बरधारी
अतर गुलाल छिरकत गिरिजा पंहि
अरू भीज रही सब सारी।'
कितना सुहाना होगा वह दृश्य जब जब डमरूधारी बाबा जगजननी के पीछे दीवानों की तरह भागे थे वे आँखें धन्य है जिन्होंने मोह माया से परे इस लीला को देखा होगा जब अपनी भिक्षा की झोली में रंग गुलाल व रोरी भर कर नाचते भोले बाबा को उमा के ऊपर छिरकने का दृश्य अनुपम रहा होगा जब :-
रोरी रे झोरी सो फैकत
अरू अब रख चमकत न्यारी
गिरिजा तन शिव गंग गिराई
हँसत लखत गौरा मतवारी।
कैलाशवासी गौरा के तन को रंग दे तब क्या वे भोले बाबा को छोड़ देगी। वह भी हाथ में पिचकारी लेकर अपनी कसर निकाले बिना नहीं रहेंगी जिसे देख भले ही हँसी से ताली बजाती संखिया दूर बैठी लोट-पोट हो जाये फिर वे खुशी से गीत गा उठे तो मजा और भी बढ़ जायेः-
औघड बाबा को रंगे शैल-सुता री
अरू रंग लिये पिचकारी
फागुन मास बसन्त सुहावन
सखियां गावत दे दे तारी।
उमा की पिचकारी से भोले बाबा का बाघम्बर भीग जाता है और शरीर में रंगी विभूति बहकर रंग केसर ही रह जाता है तब रंग अपने भाग्य पर मन ही मन हर्षित हो उठता है इस भाव दशा को कवि इस तरह व्यक्त करता हैः-
उड़ी विभूति शंभू केसर
रंग मन में होत उलास
भीग गयो बाघम्बर सबरो
अब रख जहाँ प्रकाश।
इसी तरह कई रसभरे गीत लावनियां अपने मधुर एवं मादक स्वरों से ब्रज ही नहीं बल्कि लोक घटनाओं में समाये चरित्रों राधा-कृष्ण के मिलेजुले प्रेम रंगों से भरे होली पर्व को इस सृष्टि पर जीवन्त जीने वाले पात्रों सहित भारतदेश की माटी में बिखरी भीनी फुहारों से उपजने वाली खुशबू को ढ़ोलक झांझन मंजीरों की थाप से फागुन के आगमन पर याद करते हैं। यही क्रम जीवन को आनन्दित करता हुआ सदियों तक जारी रहेगा और स्वर लहरियां देर रात गये तक गांव की चौपालों में गूंजती रहेगी।
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