हास्य-व्यंग्य // पूंछ नहीं तो पूछ नहीं // रामानुज श्रीवास्तव

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चिकित्सा विज्ञान के जानकारों के अनुसार मानव भ्रूण में पूँछ होती है, फिर नौ माह आते आते लोप हो जाती है....कहाँ लोप हो जाती है...क्यों लोप हो ...

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चिकित्सा विज्ञान के जानकारों के अनुसार मानव भ्रूण में पूँछ होती है, फिर नौ माह आते आते लोप हो जाती है....कहाँ लोप हो जाती है...क्यों लोप हो जाती है..यह खोज का विषय है...दिमागी काम है...मैं इस पचड़े से दूर रहना उचित मानता हूँ। किसी अख़बार में पढ़ा था कि कलकत्ता में कोई शिशु पूँछ सहित जन्म लिया है...हो सकता है कि डॉक्टरों की कही बात का प्रमाण लेकर अवतरित हुआ हो...जो भी हो मैं तो इस बच्चे को नमन करता हूँ जो प्रकृति के सभी नियमों को धता बताकर पूँछ होने का सबूत धरती के तमाम अविश्वासी लोगों के लिये उपस्थित कर दिया। भगवान हम दोनों को कुशल रखे, कभी न कभी चार आँखें होने की उम्मीद लिये लिख रहा हूँ।

शरीर विज्ञानियों का ये भी कहना था कि हमारे पूर्वजों के पूँछ और मूँछ दोनों थी, वे बराबर दोनों का उपयोग करते थे, कई बड़े बड़े काम मूँछ और पूँछ की मदद से कर लेते थे, पता नहीं हम मनुष्यों की पूँछ क्यों छीन ली गई...मूँछ तो सलामत है लेकिन आज की नयी पीढ़ी मूँछ को भी रिश्तों की तरह स्वीकार नहीं कर पा रही है..पूँछ तो रही नहीं मूँछ भी जाने वाली है, आखिर कब तक अपना अपमान सहेगी... बेचारी।

आइये, एक सारगर्भित चिंतन जीवन के हर पहलुओं को सामने रख के करते हैं "कि पूँछ होती तो क्या फायदे हो सकते थे।"

स्कूली बच्चे

..................ठण्ड के दिनों में बच्चों को अक्सर जुकाम होता है...ऊपर से भारी बस्ते का बोझ कितनी मुसीबत का काम...रुमाल भी  अगर दे दे तो रास्ते में छोड़ देना या गिरा देना उनकी आदत में है...काश कोमल और छोटी पूँछ जो उगी होती तो मम्मी लोग पूँछ में रुमाल बांध देती...गुमने की झंझट से हमेशा के लिए मुक्ति और नाक पोंछने का काम भी कितना आसान।

घर में पूँछ की उपयोगिता

....................................

पचहत्तर प्रतिशत पूँछ से फायदा घर में ही मिलता। झाड़ू पोंछा क्या होता है इनकी तो शायद नस्ल ही खत्म हो जाती...घर में सफाई का काम पूँछ से जितना अच्छा तो सकता है....और किसी उपकरण औजार से सम्भव नहीं हो सकता है। एक कवि की नज़र से देखें...क्या क्या कुछ घर में होता।

" घर का सारा कूड़ा करकट दुम से झाड़ लिया करते।

लटकाये दुम से बच्चों को जब रोते तो बहलाया करते।

उठी पूँछ जो दिखे किसी की गड़बड़ कोई समझ लेते,

दबी हुई दुम अगर दिखे तो उसे प्रसन्न समझ लेते।

पत्नी होती गुस्से में जब सब्जी भी घर न होती,

तब घर के हर कोने जाकर अपनी पूँछ पटक कहती।

पूँछ उठाये घूम रहे हो घर में सब्जी आज नहीं,

आलू बैंगन सड़े पड़े है धनिया लहसुन प्याज नहीं।

जाहिर हैं पति देव फौरन ही सब्जी मंडी के लिए दुम में झोले लटकाकर चल पड़ते।


कुछ बड़े पेट वाले लोग जिनकी पतलून नीचे खिसकती रहती है....बार बार सम्हालते रहते हैं, हाथ न लगाये तो अपने आप उतर सकती है। उनके लिए हुक का काम पूँछ देती और इस झंझट से निश्चित ही मुक्ति मिल जाती। आज इस गरीबी के आलम में हर बच्चे को खिलौने नहीं मिलते,

काश पूँछ होती तो उसी के साथ खेलकर मन बहला लेते।


सरकारी दफ्तरों में भी पूँछ अनुसार पूछ होती, रुतबा होता दबदबा होता...सब पूँछ देखते ही पहचान में आ जाते कौन क्या है।

" नये ढंग से दफ्तर में भी सबका नामकरण होता।

दुम अनुसार वहाँ पर सबका छोटा बड़ा चरण होता।

बड़ी पूँछ वाला तो प्राणी अपने को कहता अफ़सर,

दबी पूँछ वाला तो केवल शब्दों का उच्चारण होता।


पूँछ की भाव भंगिमा और बदलते रंग को देखकर मौसम का अनुमान लगाना कितना आसान होता.. काली मटमैली पूँछ देखकर बता सकते थे कि बरसात आने वाली है। पूँछ डरी सहमी दिखने पर कहते ठंडी आने वाली है...चलो रजाई ठीक करा लो। बसन्त के दिनों में तो किसी की पूँछ बढ़ जाती किसी की घट जाती। गर्मी के दिनों में यदि हवा के विपरीत दिशा में पूँछ जाती तो समझ लेते आंधी तूफान का जोग बन रहा है। क्या बतायें इतना फायदा होता की सबको लिखने बैठ जायें तो महा लेख तैयार हो जाये। सब बातें लिख पाना मेरे लिए सम्भव नहीं है..लेकिन राजनीति में क्या उथल पुथल होता यह बताने का लोभ हृदय में जरूर है।

काश पूँछ होती जो उनके देशी नेता इठलाते।

पार्टी के सब झंडे बैनर पूँछ उठाये जाते।

मजबूती के साथ पूँछ में चिपकी रहती धोती।

हाथ उठाकर इंकलाब में कोई दिक्कत न होती।

जब कोई प्रस्ताव सदन में रखता एक विधायक।

सत्ताधारी पक्ष बताता है यह बिल्कुल लायक।

मिलजुल के जब सभी विपक्षी साथ डालते अड़चन।

तब मंत्री के दबी पूँछ की बढ़ती निश्चित फड़कन।

मंत्री जी तब क्रोध भाव से कहते पूँछ पटककर।

तुम लोगों की आदत में है अड़चन डालो मिलकर।


पूँछ से फायदे ही फायदे होते फिल्मों में तो कहना की क्या जब गाने भी कुछ इस तरह बनते....

"पूँछ से पूँछ मिलाते चलो...प्रेम की गंगा बहाते चलो।

राह में आये जो पूँछ विहीन,... उसे भी गले से लगाते चलो।"


कुछ हानियाँ भी हो सकती थी...सबसे ज्यादा खतरा गाँवों में हो सकता था..लोग एक दूसरे का खलिहान खेत मकान हनुमान के लंका दहन की तर्ज में जला देते... हो सकता है

विधाता ने पूँछ विषय पर कोई मीटिंग कॉल की हो और आदमी की पूँछ सुविधा हटाने का प्रस्ताव बहुमत से पास हो गया हो....खैर जो भी हो...मुझे तो पूँछ न होने का मलाल है

आपको भी होगा...सभी को होगा...लेकिन कुछ किया नहीं जा सकता..भगवान से बड़ा तो कोई नहीं है...हाँ बुद्धि हीन लोग मंदिर में जाकर भगवान से  प्रार्थना कर सकते है...बुद्धि रखने वाले हकीम वैज्ञानिक खोज कर सकते है। मेरी समझ में तो कुछ नहीं आ रहा क्या करें...

दिन रात यही लगता है...."पूँछ नहीं तो पूछ नहीँ........."

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रचनाकार: हास्य-व्यंग्य // पूंछ नहीं तो पूछ नहीं // रामानुज श्रीवास्तव
हास्य-व्यंग्य // पूंछ नहीं तो पूछ नहीं // रामानुज श्रीवास्तव
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