सलाम हनीफ मियां राजेन्द्र चंद्रकांत राय ब्लर्व मैटर भारत की स्वाधीनता के लिये जब पूरा देश लड़ रहा था , तब मुस्लिम लीग के नेत...
सलाम हनीफ मियां
राजेन्द्र चंद्रकांत राय
ब्लर्व मैटर
भारत की स्वाधीनता के लिये जब पूरा देश लड़ रहा था, तब मुस्लिम लीग के नेता मुहम्मद अली जिन्ना के मन में मुसलमानों के लिये एक अलग राष्ट्र का विचार पैदा हो गया था। इसके पीछे अंग्रेजों की अपनी कूट-बुद्धि तो काम कर ही रही थी, खुद जिन्ना भी इतिहास के अभिशाप से कम आक्रांत न थे। उनके द्वारा यह तर्क दिया जा रहा था, कि हिंदू बहुल आबादी वाले मुल्क में मुसलमानों के साथ अन्याय ही होगा। इस तर्क की जड़ें इतिहास के मुग़लकाल में थीं, क्योंकि औरंगजे़ब जैसे बादशाहों ने गैर मुस्लिमों के साथ जैसा सुलूक किया था, उसकी छाया जिन्ना पर तारी थी।
भारत को विभाजन की त्रासदी तो भोगनी ही पड़ी पर ऐसे राष्ट्रवादी मुसलमानों की भी कोई कमी नहीं थी, जो कांग्रेस के बैनर तले देश के लिये लड़ रहे थे। कुरबान हो रहे थे। ऐसे लोगों को दुतरफा त्रासदी झेलनी पड़ी। पहले तो उन्हीं की कौम ने उन्हें गद्दार घोषित किया और बाद में स्वतंत्र भारत में भी उन्हें उपेक्षा ही मिली।
राजेंद्र चंद्रकांत राय का यह नाटक भारतीय समाज में घटित उसी त्रासदी की गहरी पड़ताल करता है। उसके यथार्थ परिप्रेक्ष्य को सामने लाता है।
एक थे हनीफ मियां
पात्र परिचय
अब्बू : डॉ. हनीफ के पिता
डॉ. हनीफ : उम्रदराज, सेकुलर और राष्ट्रवादी व्यक्तित्व
सायरा बानो : डॉ. हनीफ की पुत्रवधु, उम्र अट्ठाईस-तीस वर्ष
इमरोज : डॉ. हनीफ का बेटा
अफरोज : डॉ. हनीफ का पोता, सायरा बेगम का बेटा, उम्र दस-बारह वर्ष
अम्मी : डॉ. हनीफ की माँ, उम्र चालीस-पैंतालीस वर्ष
फूफी : डॉ. हनीफ की फूफी, उम्र साठ-पैंसठ वर्ष, बेवा स्त्री
लोग एक
लोग दो : डॉ. हनीफ के हिंदू-मुस्लिम मित्र
लोग तीन
आदमी एक :
ग्राहक :
मौलाना : मस्जिद के प्रमुख मौलाना और मुस्लिम लीग के उम्मीदवार
जाकिर साहब : डॉ. हनीफ के वकील मित्र
रमजान : डॉ. हनीफ का समर्थक
साथी - एक :
दो : डॉ. हनीफ के पार्टी-मित्र
तीन :
चार :
लोग - एक
दो : मौलाना के समर्थक
तीन : मौलाना का खास समर्थक
कुछ दोस्त : इमरोज के दोस्त
स्त्री - एक
दो : मुहल्ले की स्त्रियां
तीन
डॉक्टरनी साहिबा : डॉ. हनीफ की पत्नी
पार्टी सेक्रेटरी : कांग्रेस पार्टी के जिला सेक्रेटरी
नाटक में डॉ. इकबाल का प्रसिद्ध गीत ‘सारे जहाँ से अच्छा...’ का प्रयोग किया गया है। आभार।
इस नाटक का किसी भी प्रकार का प्रयोग लेखक की अनुमति के बिना वर्जित है।
दृश्य : एक
पुराना, मुस्लिम संस्कृति का घर. सामने का बड़ा सा कमरा बैठक के तौर पर प्रयोग किया जाता है। यह बैठक सामने की सड़क पर खुलती है. बैठक-कक्ष के किनारे, दीवार से सटा एक तख्त रखा है। कुछ पुराने चलन वाली कुर्सियाँ रखी हुई हैं तो गाँधीजी और नेहरू जी के चित्र टंगे हैं।
डॉ. हनीफ के बूढ़े पिता इसी तख्त पर लेटे हुए हैं।
पार्श्व ध्वनि : मुस्लिम लीग.....
ज़़िंदाबाद - ज़िंदाबाद
हिन्दू बच्चा!
हाय! हाय!!
लीग की खिलाफत करने वाला
कौम का गद्दार है....
पाकिस्तान...!
ज़िदाबाद - ज़िंदाबाद
क़ायदे आज़म!
ज़िंदाबाद-ज़िंदाबाद!
हिन्दू बच्चा!
हाय! हाय!!
पार्श्व-ध्वनि में सुनाई पड़ने वाले नारों के दौरान ही मंच का दृश्य बदल गया है। सन् उन्नीस सौ छियालिस का समय। डॉ. हनीफ का युवाकाल....। डॉ. हनीफ की माँ और फूफी कमरे में डरी-दुबकी खड़ी हैं।
अम्मी : (रोते हुए) बाजी! हनीफ कहाँ होंगे...?
फूफी : (तड़कते हुए) होंगे जहन्नुम में...और कहाँ होंगे...? कैसी
मुसीबत में फँसा दिया इस नासपीटे ने...?
(पार्श्व ध्वनि में सुनाई पड़ने वाले नारे क्रमशः दूर जा रहे
थे। आवाजें धीमी होती जा रही थीं।)
मुस्लिम लीग.
ज़िंदाबाद - ज़िंदाबाद
हिंदू बच्चा!
हाय! हाय!!
लीग की खिलाफत करने वाला
कौम का गद्दार है
पाकिस्तान!
ज़िंदाबाद - ज़िंदाबाद.
क़ायदे आज़म!
ज़िंदाबाद - ज़िंदाबाद
हिन्दू बच्चा!
हाय! हाय!!
(पार्श्व-ध्वनियाँ दूर चली गयीं.
अम्मी फूफी के एकदम करीब जाकर)
अम्मी : कुछ करिये बाजी...। हनीफ के अब्बू आयें...,तो उनसे कहिये कि हनीफ मियाँ का पता करें....कहाँ हैं, किस हाल में हैं...? न हो तो थाना-वाना....।
(अम्मी का गला रुँध गया. वे चुप हो गयीं। फूफी ने खामोशी अख्तियार कर ली। यही उनका विरोध था। अम्मी उन्हें चुप देखकर निराशा में चली गयी। कुछ देर बाद -)
फूफी : (गुस्से से भरा लहजा)... इसके बाप ने कैसे-कैसे करके तो इस हनीफा को डाक्टरी की पढ़ाई करवायी...। और लड़का है कि डाक्टरी करने की बजाय बरबाद हो गया। हिंदूअन की संगत में पड़कर बिगड़ गया।
(तभी अकबकाये हुए से अब्बू ने घर में प्रवेश किया)
अब्बू : (घबराया हुआ स्वर) का हुआ....? का वो लोग इधर आये रहे...?
(अम्मी और भयातुर हो गयीं।)
फूफी : और का.... भीड़ की भीड़ हिंयां आयी रही....।
अब्बू : घर में तो नहीं घुसा कोई...?
फूफी : घर में तो कोई न घुसा, मगर घुसने में कोई कसर भी तो न छोड़ी....।
अब्बू : का कहते रहे...?
फूफी : कहते का रहे... गरिया रहे थे....। हिंदू-बच्चा हाय हाय कर रहे थे....।
अब्बू : (सिर पीटकर)... कैसा दिन दिखाया इस लौंडे ने....? हमें तो इसने कहीं का न रक्खा....। ना कौम के रहे ना मजहब के। जाने का लिखा है तकदीर में...?
फूफी : हम पूछते हैं कि जे हनीफा ने आखिर ऐसा का कर दिया हैगा... जो दरवज्जे पे ऐसी नौबत बज रही हैगी....?
अब्बू : पता नईं... का किया है....। कौनों झगड़ा-फसाद ना किया हो....। मुहल्ले वाले तो ऐसे घूर रहे हैं, मानो किसी की बहन-बेटी लेकर भाग गया हो, जैसे...।
अम्मी : हमारे हरगिज-हरगिज हनीफ ऐसे ना हैं....।
अब्बू : (गरजकर) तू चुप रह बेअकल....। जाने कैसी औलाद पैदा की है...। ऊपर से उसकी वकालत भी करती है।
(अम्मी डरकर कोने में जा चिपकीं.)
(पार्श्व-ध्वनियाँ फिर सुनाई पड़ने लगीं. लगा कोई जुलूस फिर से आ रहा है। घर के सारे लोग फिर सनाके में चले गये। भय और उत्सुकता चेहरे पर फैल गयी। शोर करीब आता गया और फिर आवाजें स्पष्ट होने लगीं)
यहीं रहेंगे....
मुसलमान!
नहीं बंटेगा...
हिन्दुस्तान...!
जवाहर लाल...!
ज़िंदाबाद - ज़िंदाबाद!
महात्मा गांधी...!
ज़िंदाबाद - ज़िंदाबाद!
हनीफ भाई...!
ज़िंदाबाद - ज़िंदाबाद!
कांग्रेस पार्टी...!
ज़िंदाबाद - ज़िंदाबाद!
(हनीफ भाई - ज़िदाबाद का नारा सुनकर अम्मी की रौनक लौट आयी। वे बाहर देखने के लिये द्वार पर आ गयीं। ओढ़नी का घूंघट कर एक आँख बाहर की ओर ले जाकर देखने की कोशिश....।
अब्बू भी हतप्रभ से पीछे-पीछे आये।
सबसे पीछे बुआ, सुपारी चबाते हुए आयीं।
नारे अब बिल्कुल दरवाज़े पर आ पहुँचे।)
हनीफ भाई...!
ज़िंदाबाद - ज़िंदाबाद!
कांग्रेस पार्टी...!
ज़िंदाबाद - ज़िंदाबाद!
जवाहर लाल...!
ज़िंदाबाद - ज़िंदाबाद!
नहीं बंटेगा - हिन्दुस्तान...!
यहीं रहेंगे - मुसलमान!
(एक छोटी सी भीड़ हनीफ भाई को अपने कंधों पर बैठाए हुए थी. हनीफ भाई के गले में मालाएं पड़ी हैं।)
अम्मी : (हुलास भरे स्वर में) बाजी.... जरा देखिये तो.... अपने हनीफ के गले में कित्ते हार पड़े हैं....। और लोग उन्हें कंधों पर उठाये हुए हैं....।
अब्बू : (हैरानगी से) कंधों पर उठाये हुए हैं....?
फूफी : हुंह..., ऐसा कौन सा तीर मार आये हमारे साहबजादे...?
अम्मी : हाँ, आप खुदई देख लीजिए..।. वो लोग इधरई आ रहे हैंगे.... हम भीतर जा रए हैं...।
(अम्मी थोड़ा सा भीतर को हो गयीं।)
अम्मी : (भीतर से ही) सुनिये..., बेटे का इस्तकबाल न करेंगे...?
अब्बू : (जरा पस्त आवाज में)... हाँ-हाँ क्यों नहीं करेंगे.... राना परताप को फतह करके जो लौटे हैं न्.... तो ज़रूरै करेंगे...।
(हनीफ और दो तीन लोग बैठक में आये।
आये हुए लोगों ने अब्बू को सलाम किया।)
लोग-एक
: सलाम भाई जान!
लोग-दो
अब्बू : सलाम।
लोग-तीन : मुबारक हो....। हनीफ भाई को कांग्रेस का टिकट मिला है और आज फारम भी भर गया है। कलक्टरियट से सीधेई चले आ रहे हैं हम लोग..।
अब्बू : (मुर्दा स्वर) शुक्रिया भाई जान....। मगर हम लोग कोई सियासत वाले लोग नहीं हैं....। यह सब ठीक नहीं हो रहा है....।
लोग-एक : भाई जान, आज के दौर में जिंदगी और सियासत दो अलग-अलग चीजें कहाँ रह गयी हैं....?
डॉ. हनीफ : हाँ अब्बू...! पाकिस्तान का शोशा, सियासी लोगों ने अवाम के हक में नहीं, बल्कि खुद अपने फायदों के लिये खड़ा किया है....। अगर हम एक बार अपने वतन से, अपनी ज़मीन से उखड़ गये, तो यह पक्का है कि मुरझाये बिना, सूखे बिना न रहेंगे....। हमें कितना भी चमकता हुआ आसमान क्यों न दिखाया जाये..., जड़ों के लिये तो ज़मीन की ही दरकार होती है....। आसमान कभी भी, जड़ों के लिये माफिक साबित नहीं हुआ है....।
अब्बू : (कुछ नरम पड़ते हुुए)... कभी-कभी लगता है, बेटे, कि आप की बातों में सच्चाई है...। मगर आपकी इस सच्चाई से हमारा दिल काँपता क्यों है...? पड़ोसियों और अपने ही लोगों की आँखों में हमारे-तुम्हारे लिये नफरत क्यों दिखाई देती है...एं?
(अम्मी और बुआ के कान बाप-बेटों की इस बातचीत पर चिपके हुए थे। कभी-कभार और दो-चार शब्दों तक सीमित रहने वाली बातचीत की जगह एक लंबे विमर्श ने उन्हें अचरज में डाल रखा था।)
डॉ. हनीफ : अब्बू भीड़ के फैसलों में भीड़ की वजनदारी होती है, इसीलिये गलत होने के बावजूद भी वे फैसले हमारे अंदर दहशत पैदा करते हैं। जब एक आदमी या एक परिवार फैसला करता है, तो उसमें सच्चाई होती है। और जब हम कोई फैसला दिल से कर लेते हैं, तो फिर दिल कांपता नहीं....। और अब्बू, नफरत से लड़ना तो आपको भी आता है। आपने ही तो नफरत के खिलाफ मुहब्बत करना हमें सिखाया है। हम और आप और ये हमारे साथी मुहब्बत के पाले में ही तो खड़े हैं,,,, वो भी नफरत के खिलाफ। ऐसे में तो हमें अपनी पीठ पर आपका हाथ मिलना ही चाहिये न्.... अब्बू...!
अब्बू : (स्वीकृति में सिर हिलाते हुए)... हाँ... हाँ....।
(अब्बू ने डॉ. हनीफ के कंधे पर हाथ रख दिया। इस वक़्त वे इतने भावुक हो गये थे, कि उनकी आँखों में दो बूँद आंसू छलक आये। डॉ. हनीफ ने उन्हें अपनी आदर भरी अंगुलियों से पोंछ दिया।)
डॉ. हनीफ : अम्मीजान! हमारे चार दोस्त-भाई घर पर आये हैं...। इन्हें कुछ शरबत-पानी नहीं पिलवाईयेगा क्या...?
अम्मी : (हड़बड़ाहट के साथ) हाँ.... हाँ, क्यों नहीं....। अभी सब हाजिर हुआ जाता है...।
(सब लोग इत्मीनान से बैठ गये।)
अब्बू : (साथ के लोगों से)... का कहते हैं, जरा ये बताईये... का चुनाव लड़ना
ज़रूरी है?
लोग-दो : जी अब्बू.... बहुत ज़रूरी है...।
अब्बू : वो किस तरह...?
लोग-दो : देखिये... आज़ादी की लड़ाई चल रही है न, उसे हिन्दुस्तान में रहने वाली सभी कौमों ने मिलजुलकर ही लड़ी है। फिर वे चाहे हिंदू हों या मुसलमान। छोटे तबके के लोग हों या बड़े तबके के। गरीब हों या अमीर....। सब कौमों के लोगों ने शहादतें दी हैं। हजारों लोग फांसी पर लटकाये गये और जेलों में तड़फाये गये....। अब, जब आजादी का मौका आया तो अंगरेजों ने चाल चल दी, ताकि हिन्दुस्तान की दो बड़ी कौमों में फूट पड़ जाये....। हिन्दुस्तान दो टुकड़ों में बंट जाये....। इससे हमारी ताकत आधी हो जायेगी और हम एक-दूसरे के दुश्मन बनकर सालों-साल लड़ते रहेंगे। हमारे अपने ही कुछ लोग अंग्रेजों की इस चाल के मोहरे बन गये हैं। उनकी जुबान में बोल रहे हैं....। तो जब यह बात चुनाव के जरिये तय होने वाली है कि पाकिस्तान बने कि ना बने..., तो अपनी बात को मजबूत बनाने के लिये चुनाव में उतरना ही पड़ेगा न्....। मैदान खाली छोड़ दिया जायेगा तब तो बिना लड़े ही हार गये समझौ...। सच्चाई हमारे हाथों से ही न पिट जायेगी....? बताईये...आप ही बताईये...।
अब्बू : पर मौलाना साहब तो कहते हैं कि आज़ादी मिलने के बाद यह हिंदूओं का मुल्क बन जायेगा....। यहाँ मुसलमानन की जरा सी भी कदर न होगी....। उनकी तरक्की के रास्ते बंद हो जायेंगे...। और मौलाना कहते हैं कि यह मजहब का सवाल भी है....।
डॉ. हनीफ : अब्बू.... इसमें मजहब का सवाल कहाँ से आ गया...? अपने मुल्क की आज़ादी के लिये जब हम लड़ने गये थे, तब तो मजहब का सवाल न आया था...। क्या मौलाना आज़ाद साहेब मुसलमानों की आज़ादी की खातिर लड़ रहे हैं, हिंदूस्तान की आज़ादी की खातिर नहीं? और अशफाक उल्ला खाँ मुल्क की खातिर कुरबान हुए हैं या कि फिर मुसलमानों की खातिर...? अपने मजहब की खातिर...?
(शरबत का टे्र अम्मी ने परदे के पीछे से डॉ. हनीफ को पकड़ा दिया।)
अब्बू : पर का कहते हैं कि का जिन्ना साहब भी गलतै हैं...? मौलाना मज्जित में जो रोज तकरीर कर रहे हैं..., तो का वो सब गलतै कर रए हैं...?
लोग-तीन : जिन्ना साहब तो एक बखत हिंदू-मुस्लिम एकता के सबसे बड़े पैरोकार रहे हैं....। वे यह भी जानते थे कि अंग्रेज हिंदू-मुसलमानों के मतभेदों का फायदा उठाने की जुगत में हैं। उन्होंने सन् 1930 में इस बात को असेंबली तक में कहा था कि हम देश में मुसलमानों और दूसरे अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के प्रावधानों के साथ एक जिम्मेदार सरकार चाहते हैं...। पर अब अचानक अंग्रेजों ने उन्हें अपने साथ कर लिया है। इत्ते समझदार आदमी होके भी वो अंगरेजन के साथ काहे हो गये..., जेई समझ में नहीं आ रहा है।
डॉ. हनीफ : वे किसी के साथ हो जायें...। हम तो हिन्ुस्तान के साथ हैं....। हमें कहीं नहीं जाना है....। यहीं रहेंगे। इसी मिट्टी में पैदा हुए हैं..., यहीं पर मर-खप जाएंगे....। देखना एक दिन हमारी बात ही सच होगी...। बड़े-बड़े लोग कुछ भी कहें-करें, गरीब बुनकरों की जमात किसी के बहकावे में आने वाली नहीं है...। वह यहीं रहेगी....। उसके लिये आगे आना, उसके लिये लड़ना कोई बुरी बात थोड़े है...!
अब्बू : हम भी तो कौमे की बात कर रहे हैं.... उसे नाराज करना भी तो ठीक नहीं....।
डॉ. हनीफ : कौम का मतलब सिर्फ चंद बड़े और अमीर मुसलमान तो नहीं होता, बल्कि पूरा मुल्क होता है....। हम मुल्क के साथ हैं....। दो मजहबों में एकता और भाईचारे की खातिर मोर्चे पर हैं....। आप चिंता न करें... सब अच्छा ही होगा....। जब रारस्ता सही हो, तो उसकी मंजिल भी सही ही होती है...।
(सब शरबत खत्म कर गिलासें रख रहे थे।
एक आदमी का प्रवेश-)
आदमी एक : अस्सलामवालेकुम!
अब्बू : वालेकुमअस्सलाम!
आदमी एक : जी मैं बड़ी मज्जित से आया हूँ....। बड़े मौलाना साहब ने आपको याद फरमाया है....।
(अब्बू और डॉ. हनीफ ने एक-दूसरे की ओर देखा।)
अब्बू : ( जरा देर खामोश रहने के बाद) अच्छा। आप चलिये...., हम अभी आते हैं....।
दृश्य : दो
(महंगे टाइल्स और फर्नीचर से सज़ा हुआ भव्य कक्ष। दीवारों पर धार्मिक प्रतीकों वाली तस्वीरें। लकदक करता मखमल का विशाल तख्त-पोश। कीमती झूमर।)
अब्बू : अस्सलामवालेकुम!
मौलाना : वालेकुमअस्सलाम!!
(मौलाना ने उपेक्षित नज़रों से देखा)
अब्बू : मैं जलील अहमद अंसारी....।
(मौलाना ने नज़रें उठाकर एक बार और देखा। चाँदी के डब्बे से पान का बीड़ा उठाया।)
अब्बू : आपने मुझे बुलवाया था, जनाब!
मौलाना : मियाँ जलील अहमद...!
अब्बू : जी, जनाब...!
मौलाना : आपके साहबजादे चुनाव लड़ रहे हैं...?
अब्बू : लड़ रहे हैं....।
मौलाना : कांगरेस पारटी से लड़ रहे हैं...?
अब्बू : कांगरेस पारटी से लड़ रहे हैं...।.
मौलाना : वो मुसलमानों के खिलाफ लड़ रहे हैं....।
अब्बू : जनाब को गलतफहमी हुई है....। वे तो अपने उसूलों के हक में चुनाव लड़ रहे हैं....।
(इस जवाब की मौलाना को उम्मीद न थी। वे हतप्रभ हुए।)
मौलाना : (तुर्श आवाज़ में)...हूं...। तो आप भी अपने बेटे के साथ हैं...?
(अब्बू खामोश रहे।)
मौलाना : उन्हें समझाईये कि जरा होश में रहें....। मजहब और कौम के साथ चलें। मजहब और कौम से बड़ा दुनिया में और कुछ नहीं होता....। मुस्लिम लीग ही मुसलमानों का वेलफेयर कर सकती है....। पाकिस्तान बनने पर ही मुसलमानों की तरक्की होगी....। यहाँ तो हिंदूओं का राज हो जायेगा....। बनिये मुल्क के मालिक बन जायेंगे। मुसलमान बेहिफाजत हो जायेंगे। जाईये उनसे कहिये कि कौम की खातिर अपना परचा वापस ले लें। ये कांगरेस हिंदूअन की पार्टी है। हिंदूओं ने आपके लडत्रके को भरमा लिया है।
(अब्बू खामोश रहे।)
मौलाना : मियाँ आप कुछ बोल नहीं रहे हैं...? जरा मुंह तो खोलिये...।
अब्बू : शायद परचा वापस न होगा, मौलाना साहिब....।
मौलाना : आपके कहने पर भी...?
अब्बू : हाँ। हमारे कहने पर भी...।
मौलाना : और हमारे कहने पर...?
अब्बू : आपके मुकाबले में ही तो परचा भरा है हनीफ ने....।
मौलाना : हूँ....।
(कुछ देर खामोशी छायी रही.)
मौलाना : एक बात तो बताओ, मियां जलील अहमद...!
अब्बू : जी..., फरमाईये...।
मौलाना : औलाद तो आपकी ही है न्...? पाक-निकाह सेई पैदा हुआ है न्....?
(अब्बू की आँखें हैरत से फट गयीं।
मौलाना खड़े हो गये -)
मौलाना : सुनो मियाँ, जरा ठीक से समझा देना अपने शहजादे को...। वरना आपके
हक़ में अच्छा नहीं होगा....। अब जाईये....।
(अपमानित महसूस करते हुए अब्बू लौट पड़े।)
दृश्य : तीन
(घर का दृश्य। चाय पी जा रही है। अम्मी तो प्याले देकर लौट गयीं और फूफी बैठक में कुर्सी पर आ विराजीं।)
फूफी : चाय कैसी है, भाईजान...?
अब्बू : अच्छीअई है... बाजी।
फूफी : स्वाद कुछ कसैला सा नहीं लग रहा है का...?
अब्बू : नईं तो...., ठीक तो है।
(जरा देर चुप्पी।)
फूफी : अच्छा एक बात पूछें...?
अब्बू : हाँ, पूछो...।
फूफी : ये हनीफ जो कर रए हैं, तो ठीक कर रए हैं, का...?
अब्बू : गलत का कर रहे हैं, बाजी...?
फूफी : कल जैसी हुड़दंग हुई..., वो का भले घरों में हुआ करती है...?
अब्बू : अब तो जमाना ही हुड़दंग का है...। अगर हुड़दंगों से डर गये तो फिर
जिंदगी ही बेजार हो जायेगी, बाजी...।
फूफी : और अड़ोस-पड़ोस की औरतें जो ताना मारती हैं, सो...?
अब्बू : का कहती हैं...?
फूफी : कहती हैं कि हम लोग मुसलमानों के दुश्मन बन गये हैंगे....।
अब्बू : तो जरा अपने दिल पे हाथ रखके बताओ कि दुश्मन बन गयी हो का,
बाजी...?
फूफी : काहे बनेंगे...?
अब्बू : तो फिर मलाल काहे करती हो, एं...?
फूफी : लोगों की बातें सुनो तो बुरा लगता है....। लगेगा के नईं...?
अब्बू : लोगों को तो बकने की आदत होती है....। उस पर कान देने की ज़रूरत ना है....।
(वे चुप हो गयीं. थोड़ी देर चुप्पी छायी रही, फिर -)
अब्बू : मौलाना भी नाराज हो रहे थे...।
फूफी : (भय से) मौलाना नाराज हो रए थे...? का कै रहे थे...?
अब्बू : कहते थे, हनीफ का फारम उठवा लो।
फूफी : फिर...?
अब्बू : फिर का...? हमने कह दिया कि हनीफ अपना फारम न उठाएंगे.... बस।
फूफी : (भय और अचरज से) का कै रए हैं भाई जान...? अपने मौलाना साहब के मुँह पे ऐसा कै दिया...?
अब्बू : हाँ...। कह दिया। इसमें डरने की का बात है...एं...?
फूफी : हाय अल्ला! ज्रा भी डर नहीं लगा...?
अब्बू : डर...? डर काये का...? मौलाना साहब कोई हमें डराने के लिये थोड़े हैं।...एं..? वो तो मजहबी आदमी हैं। उनका काम है समझाना...। रास्ता दिखाना....। उन्हें लग रहा होगा कि हनीफ मियाँ का रास्ता गलत है, तो अपनी तरफ से आगाह कर दिया...। बस्स। और का...?
(इसी समय हनीफ का तेरह-चौदह साल का बेटा इमरोज बाहर से रोते-रोते अंदर बैठक में आया।)
फूफी : अरे... इमरोज...? का हुआ... काहे रो रहे हो बेटा...? झगड़ा-बगड़ा कर लिये हो का...?
(इमरोज बिना कुछ बताये अंदर चला गया.)
फूफी : मगर भाई जान..., हमें जरा ये तो बताईये कि जब पूरा मुहल्ला ही पाकिस्तान की हिमायत कर रहा हो...,तो एक हमीं उनसे अलग और खिलाफ वाला रास्ता काहे चुनें...? सब नाते-रिस्तेदारों का भी यही ख्याल है कि पाकिस्तान ही उनको माफिक रहेगा....। सुना है कि खुद हनीफ के ससुराल वाले भी पाकिस्तान के हक में हैं....।
(इसी बीच अम्मी इमरोज की बाहें पकड़े बैठक में आयीं.)
अम्मी : (फूफी से) जरा देखिये तो बाजी...! ये इमरोज बस रोये जा रहा है....। पूछते हैं तो कुछ बताता नहीं....।
फूफी : का हो गया इमरोज... कोई मारा है का...?
इमरोज : (रोते हुए)... नईं।
फूफी : तब का हुआ...?
(इमरोज का रोना जारी।)
अब्बू : (सख्त स्वर)... अरे कुछ बताएगा भी...या यूँ ही टसुए बहाता रहेगा...?
अम्मी : (पुचकार कर) बताओ बेटा का हुआ है....कौन मारा-पीटा है...।. चोट-वोट तो नहीं लगी कहीं...?
इमरोज : (रोते-रोते) लड़के अपने साथ हमें नहीं खिलाते....।
अब्बू : तो दूसरे दोस्तों के साथ खेलो-कूदो....।
इमरोज : कोई नहीं खिलाता और बुरी-बुरी बात कहते हैं....।
(इमरोज फिर रोने लगा.)
अब्बू : का कहते हैं...?
इमरोज : (आँखें उठाकर) वो कहते है किं....कहते है किं....‘हरामी-बच्चा’...। ‘हिंदू-बच्चा’....।
(इमरोज अंदर भाग गया.
अब्बू, बुआ, अम्मी सब सन्न रह गये.
अब्बू ने माथे पर हाथ फेरा.)
बुआ : (तैश में) लो, सुन लो, भाई जान...! लेगों ने ‘हरामी’ बना भी दिया.... अभी भी वक़्त है... फैसला कर लो.... वरना जिंदगी भर जलालत सहना पड़ेगी. हम तो कहते हैं... खुदा की तरफ से भले दो रोटी मिलें... मगर सुकून पूरा मिले.... ये हनीफा को भी ना जाने क्या सूझता है.... शैतानई सवार है उसके सिर पर....
(अब्बू खामोशी से बुआ को सुनते रहे और कुछ सोचते रहे, फिर -)
अब्बू : (अम्मी से)... और आपका का कहना है बेगम, इस बारे में...?
अम्मी : हमारा कहना का है...? आपई सोच लो.... अभी कलई तो आपने बेटे को छाती से लगाया था... आज क्या उसके सिर पर फत्तर मार देंगे...?
बुआ : (तीखेपन से) और जे जो जलालत हो रई हैगी... सो...?
अम्मी : ...बच्चे हैं बाजी.... कल हनीफ के जुलूस को देखकर ये सब बर्रा रए हैं.... दो-चार दिन में ठीक-ठाक हो जायेगी.... मगर अब अगर फैसला बदला गया तो औरई ज्यादा बुरा होगा. ना इधर के रहेंगे ना उधर के. रमजान की बेगम आयी थी सबेरे. कैहती थी कि रात को उसके घर पर बुनकरों की मीटिंग हुई थी. सब हनीफ का साथ देने का सोच रए हैं.... जब चार और लोग हनीफ के साथ आ रहे हैं तो हनीफ की बात में दम होगा तबई आ रहे हैं. ...अब ऐसे में हमीं पाला बदल लें तो उनका का होगा जो हमारी खातिर बुराई मोल ले रहे हैं...?
...कौन बैठा है वहाँ हमारा... कि हम पाकिस्तान जाएंगे. इधर पुरा-पड़ोस में चार रिश्तेदार भी हैं तो चार जान-पैचान के भी... वहाँ...? वहाँ तो ज़मीन भी नई होगी और हवा-पानी भी. रेल के डब्बे में तो कोई घुसने नहीं देता... अपने शहर और मुहल्ले में कोई हमें कैसे सह लेगा...?
बुआ : (बहु और उसकी बातों के प्रति कटुता सहित)... और इत्ते बड़े-बड़े लीडर जो हैं सो...? का सब फालतुए हैं...? वो कुछ ना करेंगे का...? जिन्ना साब कुछ ना करेंगे.... अंगरेज तक उनकी बातें मानते-सुनते हैं.... बुला-बुला के बातें करते हैं... तो सब ऐसेई है का...?
अब्बू : (बुआ को समझाईस देते हुए)... हैं बाजी, जिन्ना साहब बड़े लीडर हैं.... पर का उन्हें इत्ती फुरसत धरी है कि जलील अहमद का घर देखें? उसका इंतजाम करें...? ऐं...? का जिन्ना साहब जानते हैं कि जबलपुर में घोड़ा नक्कास पर एक जलील अहमद रहते हैं.... उसकी एक बेवा बहन है.... एक बीबी है, लड़का-बहु और पोता है.... वो लोग पाकिस्तान आएंगेे तो उनके लिये घर-मकान, रोटी-पानी और काम-धंधे का इंतजाम करना है? अरे हमने तो सुना है कि वे नमाज तक नहीं पढ़ते.... ऊपर से किसी पारसी की लड़की से निकाह करे बैठे हैं.... अंगरेजी बोलते हैं... अंगरेजी कपड़े पहनते हैं.... अंगरेजों की तहजीब में रहते हैं....
बुआ : (अचरज से) का कहते हैं, भाई जान? जिन्ना साहब नमाज नईं पढ़ते...?
अब्बू : हाँ. सुना तो जेई है.... (हँसकर) और तो सुनिये, मज़हर अली अजहर नाम के एक शायर ने उनके लिये एक शेर कहा है. मालुम है क्या कहा है...?
बुआ : (उत्सुकता से)... का कहा है...?
अब्बू : कहा है - इक काफिरा के वास्ते इस्लाम को छोड़ा,
यह कायदे आज़म है या काफिरे आज़म.
बुआ : (हँसते हुए) मरे शायर भी का-का लिखते रहते हैं...!
अम्मी : (इत्मीनान की सांस लेकर) तो जब जिन्ना साहब को ही काफिर कहा जा रहा है... मुसलमान ही नहीं माना जा रहा है... तब तो आगे का खुदा ही मालिक है....
अब्बू : इसीलिये सोचते हैं बाजी... कि आखिरी वक़्त में हम-तुम इस मिट्टी को लेकर कहाँ जाएंगे...? यहीं मदार टेकरी के कब्रिस्तान में हमारे पुरखे दफन हैं... तो उन्हें छोड़कर हम का करांची-पिंडी जायेंगे...? और जब यहीं रहना है तो यहाँ की तरह रहा जाये, वहाँ की तरह क्यों रहें...?
बुआ : (समझौताकुन लहजा) तुम्हारे सिवा इस जहान में मेरा कौन है...? बूढ़ी हो चली हूँ... चार रोज की जिंदगी रह गई है.... तुम जैसा ठीक समझो... वैसा करो.... मैं भी उसी में राजी हूँ....
(बुआ उठकर बावर्चीखाने की तरफ चली गयीं.)
अब्बू : (हँसकर) बाजी मुहल्लेवालों के कारण बहुत परेशान हो गयी हैं....
बाजी : वो भी का करें... हवा ही बदली हुई है....
(अब्बू के दोस्त जाकिर वकील साहब का आगमन)
जाकिर साहब : अस्सलामवालेकुम जलील मियाँ....
अब्बू : वालेकुमअस्सलाम जाकिर साहब.... तशरीफ लाईये... आईये.... बैठिये.
(जाकिर साहब कुर्सी पर बैठ गये.)
अब्बू : सुनाईये जाकिर साहब... सब खैरियत तो है...?
जाकिर साहब : हाँ... खैरियत ही समझिये... खुदा के फजल से जिंदगी चल रही है....
अब्बू : वकालत कैसी चल रही है...?
जाकिर साहब : (उदासी) इस अफरा-तफरी के माहौल में वकालत का बुरा हाल है.... जबसे ‘पाकिस्तान’ वाली बातें शुरू हुई हैं... हिंदू- क्लाइंट थोड़ा बिदकने लगे हैं... और मुस्लिम-क्लाइंट का हाल तो आप जानतेई हैं... उनकी पेइंग-कैपेसिटी इतनी कहाँ...?
अब्बू : हूँ... तो मतलब ये कि पाकिस्तान का शोशा फायदा कराये न कराये मगर नुकसान तो कराने लगा है....
जाकिर साहब : मगर... हनीफ साहब की डाक्टरी तो खूब चल रही है... हिंदूओं में बड़े पापुलर हैं....
अब्बू : उनका हाल भी खूब है.... आधे मरीजों से तो फीस ही नहीं लेते... आठ-दस मरीजों को दवाईयाँ अपने पास से दे देते हैं.... भूखे पेट होंगे सोचकर उन्हें डबलरोटी-बिस्कुट भी पास से खिलाते हैं.... अब जो बच गये... तो उनसे चार आना-आठ आना जो मिल जाये ले लेते हैं....
जाकिर साहब : भईया... अगर तीस-चालीस लोगों से आठ आने भी मिले तो पंद्रह-बीस रुपये रोज के होते हैं.... हमारी फीस पंद्रह-बीस रुपया होती ज़रूर है, मगर महीने में एकाध बार ही मिलती है.... ऊपर से ठाठ-बाट ऐसे बनाने पड़ते हैं, गोया सौ-पचास रुपये की आमदनी वाले हों.... वकील के काले कोट के नीचे बड़े दर्द छुपे होते हैं....
अब्बू : अरे ऐसा न कहो मियाँ.... वकीलों की तो चांदी है चांदी. अरे चाहे कत़्ली की पैरवी करें या मारे जाने वाले की... उन्हें फीस तो हर हाल में मिलती ही है. मजे की बात तो ये है कि इस ज़माने में, झूठ को सच और सच को झूठ साबित करने के पैसे तक मिला करते हैं....
जाकिर साहब : भाई वकील जो कुछ कहता-करता है क्लाइंट के लिये....
अब्बू : और वो भी पाक-कुरान की कसम खाकर...!
जाकिर साहब : कसम हम कहाँ खाते हैं...? वो तो क्लाइंट हलफ उठाता है... हम तो बस उसके कहे को कानूनी तरीके और कानूनी नुक्ते के साथ पेश भर कर देते हैं.
अब्बू : (हँसकर) इसीलिये वकीलों के बारे में शेर है कि :
जब वकील हुआ पैदा तो इब्लीस ने ये कहा
अल्ला मियां ने हमें भी साहिबे-औलाद बना दिया
जाकिर साहब : अब चाहे इब्लीस की औलाद कहिये या फरिश्ते की... वकीलों के बिना इस दुनिया का काम चलने वाला नहीं है....
अब्बू : वो तो ठीक है जाकिर मियाँ... यह तो बताईये कि आपने क्या तय किया है...?
जाकिर साहब : किस बावद...?
अब्बू : अरे... यही कि पाकिस्तान जाएंगे या यहीं रहने का इरादा है...?
जाकिर साहब : न जायें तो क्या भूखों मरें? वहाँ क्लाइंट तो मिला करेंगे....
अब्बू : तो क्या सारे जरायम पेशा लोग पाकिस्तान जा रहे हैं?
जाकिर साहब : मजाक मत करो मियाँ... बड़े-बड़े लोगों का मन पाकिस्तान जाने का बन चुका है....
अब्बू : (उदासी) तो आप भी चले...!
जाकिर साहब : (गर्दन अब्बू के पास लाकर)... बड़े मौलाना साहब ने हमें बुलवाया था....
अब्बू : आपको भी...?
जाकिर साहबः हाँ....
अब्बू : क्यों...?
जाकिर साहब : अरे, आपको पता नहीं...?
अब्बू : नहीं तो....
जाकिर साहब : फारम भरवाने की खातिर.
फारम?
हाँ.... मुस्लिम-लीग के बड़े लीडरान का उनको पैगाम आया है....
अब्बू : कैसा पैगाम...?
जाकिर साहब : वो मुस्लिम-लीग के उम्मीदवार हो गये हैं....
अब्बू : का कहते हो जाकिर मियाँ...?
जाकिर साहब : सही कहते हैं.
अब्बू : तो खुद बड़े मौलाना चुनाव लड़ेंगे...?
जाकिर साहब : हाँ.... लड़ रहे हैं....
अब्बू : मजहब का बड़ा काम छोड़कर अब सियासत जैसा रद्दी काम करेंगे...?
जाकिर साहब : हमें फारम भरवाने बुलवाया था.... आज दोपहर जुमे की नमाज के बाद फारम दाखिल करने जाएंगे.... भारी जुलूस जाने वाला है.... नमाज के बाद वहीं से सीधे जाने का इरादा है.
अब्बू : (चिंतित होकर) अच्छा....
जाकिर साहब : और...!
अब्बू : (ताड़ते हुए) और क्या जाकिर साहब...?
जाकिर साहब : (सिर झुकाकर) हमसे कहा है कि आपको समझाया जाये.... डॉक्टर साहब का फारम वापस करवा दूँ.... ...वैसे भी मियाँ, इसमें कोई फायदा नहीं है... सिवाय नुकसान के.... और हमें सियासत से क्या लेना-देना...?
अब्बू : (त्यौरियाँ चढ़ाकर) तो आप हमसे मिलने नहीं आये हैं.... दोस्ती-यारी खींचकर आपको नहीं लायी... आप तो कासिद बनकर आये हैं.... और कह रहे हैं - हमें सियासत से क्या लेना-देना... मजहबी लोगों को सियासत से लेना-देना है? पर हम लोगों का लेना-देना नहीं है...? क्यों जाकिर साहब, क्यों?
(जाकिर साहब चुप.)
मजहब ऊँची जगह है या सियासत? बताईये.
(जाकिर साहब चुप.)
अगर मजहब ऊँची जगह है... पाक जगह है. तो बड़े मौलाना उससे उतरकर नीचे क्यों आ रहे हैं...?
(जाकिर साहब चुप.)
और अगर सियासत इतनी अच्छी चीज है कि मजहब से बड़ी हो गयी है तो फिर हनीफ मियाँ पर पाबंदी क्यों...? उनका फारम भरना गुनाह किसलिये...? क्या मौलाना साहब अखाड़े में अकेले ही उतरना चाहते हैं और ‘हिंद केसरी’ का खिताब भी पाना चाहते हैं...?
जाकिर साहब : (घबराकर) जरा आहिस्ता बोलिये जलील मियाँ.... किसी ने सुन लिया तो कयामत ही आ जायेगी....
अब्बू : (तैश में) क्यों आ जायेगी कयामत...? क्या जो हम बोल रहे हैं वे कुफ्र है...? इतना डर किस बात का...? कौन सा गुनाह कर रहे हैं हम लोग या वो हनीफ मियाँ...?
(जाकिर साहब से जवाब देते न बना. पहलू बदलने लगे.)
असल बात आप भी नहीं जानते जाकिर साहब.... हो ये गया है कि सब उनके हाथों में चला गया है.... मजहब भी उनका, सियासत भी उनकी. हमारे हिस्से में सिर्फ जिल्लत... सिर्फ जिल्लत जाकिर भाई... सिर्फ और सिर्फ जिल्लत....
जाकिर साहब : (खीझकर) कैसी बातें कर रहे हैं मियाँ....? बात तो इतनी सी है कि दोस्ती और तकरार बराबरी वालों में ही अच्छी होती है....
अब्बू : (टोपी उतारते हुए) अल्ला मियाँ ने तो सबको बराबरी का दर्जा ही अता किया है... छोटे-बड़ों के बाड़े तो ज़मीन वालों के बनाये हुए हैं. लोग क्या खुदा की बनायी दुनिया को भी बदलने पर उतारू हो गये हैं...?
(जाकिर साहब का बैठे रहना मुश्किल हो गया. उन्होंने अपनी टाई ठीक की. कोट संवारा और खड़े हो गये.)
जाकिर साहब : तो चलते हैं जलील भाई.... हो सकता है कि आप ही सही हों.... हम ग़लत भी हो सकते हैं.... फिजां बड़ी बिगड़ी हुई है. सही-गलत समझuk बड़ा मुश्किल हो गया है....
अब्बू : चाय तो पीते जाओ... भाई. इतने रोज बाद आये और बे-चाय-पानी ही जा रहे हो...?
जाकिर साहब : फिर कभी जलील भाई... फिर कभी. नमाज का वक़्त हो रहा है, चलूँ.
अब्बू : और कलक्टरियट जाने का भी...! (व्यंग्य)
जाकिर साहब : ऐं.... हाँ-हाँ.... अच्छा खुदा हाफिज...! (घबराहट)
अब्बू : खुदा हाफिज!
जाकिर साहब : (जाते-जाते सड़क पर) फिर भी जरा ठंडे दिमाग से सोचना जलील भाई....
(बाजू की चाय-दूकान से एक फिकरा)
ग्राहक : बूढ़े के पास दिमाग हो तब तो सोचेगा ‘ठंडे दिमाग’ से.... अरे, वो तो ‘जनेऊ’ पहनेगा, ‘जनेऊ....
(अब्बू ने उस तरफ हिकारत से देखा और हाथ में रखी टोपी सिर पर जमाते हुए अंदर मुड़ गये.)
(अब्बू ने बैठक के दो-तीन चक्कर लगाये और तख्त पर ढेर हो गये।)
(अभी झंझावातों ने सांस भी न ली थी कि किसी भारी जुलूस की आवाजें, नारे और हुल्लड़ सुनाई पड़ने लगे. अब्बू ने गर्दन उठाकर सुनने की कोशिश की. ढोल-नगाड़ों के साथ शोर उसी तरफ से आ रहा था.)
(पार्श्व-ध्वनियाँ)
मुस्लिम लीग....
जिंदाबाद-जिंदाबाद!
मौलाना साहब....
जिंदाबाद-जिंदाबाद!
कायदे-आजम....
जिंदाबाद-जिंदाबाद!
लेक्के रहेंगे....
पाकिस्तान....
हिंदू-बच्चा....
हाय-हाय.
हिंदू-बच्चा....
हाय-हाय.
मौलाना साहब जीतेंगे...
कौम के दुश्मन हारेंगे...!
हरी पेटी में वोट दो
वोट दो - वोट दो...!
लाल पेटी वालों को
चोट दो - चोट दो...!
(डॉ. हनीफ के दरवाजे के सामने से निकलते समय भीड़ ने उनके दरवाजे पर झंडे वाली लकड़ियां पीटीं। दरवाजों को ठोकर लगायी। हरे झंडे अंदर फेंके। ‘हिंदू-बच्चा हाय-हाय’ का कोरस देर तक गाया।
शोर शराबा सुनकर फूफी, अम्मी और इमरोज बैठक से अंदर जाने वाले दरवाजे पर चिपके हुए थे।
इमरोज का बदन थरथरा रहा था। आँखें तेजी से चल रही थीं। फिर एकाएक वह ज़मीन पर गिर पड़ा। उसके गिरने की आवाज ने अम्मी और फूफी का ध्यान खींचा.)
अम्मी : (घबराया हुआ स्वर)... इमरोज...! इमरोज...!! ओ इमरोज...!
फूफी : खटिया पर लिटाओ इसे... या तखत पर ही ले चलो।
अब्बू : क्या हुआ...?
(अम्मी, फूफी और अब्बू ने उसे तख्त पर लिटा दिया। इमरोज को होश न था।)
अब्बू : इमरोज... इमरोज.... बेटा का हुआ तुम्हें...? (अम्मी से) सुनो...,ऐसा करो... पानी ले आओ जरा....।
(अम्मी भागकर अंदर गयी और पानी ले आयीं। लोटा अब्बू को थमा दिया। अब्बू ने पानी लेकर इमरोज के मुँह पर छींटे मारे। बच्चा कुनमुनाया।)
अम्मी : (उत्साहित होकर) इमरोज... इमरोज.... कुछ बोलो बेटा....।
फूफी : आँखें खोल बेटा....।
अब्बू : इमरोज... ओ इमरोज.... (अब्बू ने उसे हिलाया)... इमरोज....।
(इमरोज अकबका कर उठ बैठा.)
इमरोज : (दरवाजे की ओर इशारा करते हुए - बड़बड़ाहट)... वो - वो...
आ गये वो लोग...। वो लोग आ गये...। हिंदू-बच्चा...। हरामी-बच्चा...। मत मारो... मुझे मत मत मारो... आ... ओह....।
(बच्चा ऐसी हरकतें करने लगा जैसे कोई पीट रहा हो। अपने हाथों को आगे कर वह अपना बचाव कर रहा था और रो रहा था। रोते-रोते वह फिर से बेहोश हो गया।)
फूफी : बच्चे के नाजुक दिल को सदमा पहुँचा है....। ऐसा करो बहु कि थोड़ा सा दूध गरम करके ले आओ....।
(रोती हुई अम्मी अंदर भागी.)
अब्बू : (ऊपर देखते हुए) या खुदा... हम पर रहम कर....। इस मासूम बच्चे पर रहम फरमा....।
फूफी : (गुस्से में)... हनीफा का है तो पता नहीं है...। कहाँ तकरीर फरमा रहें होंगे जाने...?
अब्बू : इमरोज... इमरोज....। उठो बेटा....। देखो दादू बुला रहे हैं....।
ओ इमरोज....!
(अब्बू ने पानी छिड़का। बच्चा कुनमुनाया।)
इमरोज : अब्बा...! अब्बा...!! अब्बा कहाँ हैं....? अब्बा को बुला लो दादू....। वो लोग मारेंगे.... मारेंगे....। हमें बचा लो दादू....। दादू....। हरामी-बच्चा...। हिंदू-बच्चा...। (रोना) आ... ऊह... मत मारो - मत मारो....।
अब्बू : (दुखी स्वर) कोई नहीं मारेगा बेटा...,. हम हैं न्....। हम सबके हाथ-पैर तोड़ देंगे...।. तुम कोई फिकर ना करो। दादू सबको मार कर भगा देंगे.... भगा देंगे....। हां...।
दृश्य : चार
(बैठक का दृश्य। फूफी कोने में परेशानकुन हालत में बैठी हैं। अब्बू चहल-कदमी कर रहे हैं। उनके दिमाग में भी आँधी-तूफान चल रहे हैं।)
फूफी : भाई जान...., देखो..., बात बहुतई बिगड़ गयी है....। कुछ करौ... ना तो हम पे तूफान आयेगा....। कहर बरपेगा....। कयामत आयेगी जलील अहमद। अपने लौंडे को ताबे में रखो....। बच्चे की तरफ देखो और सोचो....। मासूम सी जान, सकते में चली गयी है....। पोते की जान के लाले पड़ गये हैं....। भाड़ में गयी जे सियासत और सियासत के चोंचले...।
(डॉ. हनीफ अंदर से निकलकर बैठक में आये।)
डॉ. हनीफ : कुछ नहीं हुआ है फूफी....। इंजेक्सन दे दिया है....। उसे आराम लग गया है। वह सो रहा है। थोड़ा डर गया था... मगर अब ठीक है। चिंता की कोई बात नहीं है....।
फूफी : चिंता की बात काहे नहीं है रे हनीफा....? नन्हीं सी जान पर सदमा पड़ा है... और तू कहता है है चिंता की बात नहीं है...। जाने का करैयाँ है रे तू...? बच्चे की जान लेके मानेगा का...?
डॉ. हनीफ : (हँसकर, सहजता से) फूफी ... आप हैं न, जल्दी से घबरा जाती हो...। ऐसा करते हैं कि आपको भी एक इंजेक्सन लगा देते हैं...., सब ठीक हो जायेगा....।
फूफी : रहने दे... रहने दे.... हमें नईं लगवाना तेरी सुई-मुई....। सबको सुई ही लगाता रहता है....। अपने दिमाग में भी एक ठो सुई लगा ले..., जिससे वो ठीक हो जाये....।
अब्बू : (सधी हुई आवाज) हनीफ...!
डॉ. हनीफ : जी अब्बू....।
अब्बू : जे सब का हो रहा है...? मरने-मारने की नौबत आने वाली है का...?
डॉ. हनीफ : ऐसा होना तो नहीं चाहिये अब्बू, मगर सिरफिरों के जेहन का क्या भरोसा...? सीधी और सरल बात को भी इन लोगों ने मजहबी-बर्क में लपेटकर इतना मुश्किल बना डाला है...। इसके नतीजे अच्छे नहीं होंगे। खुद उन्हें भी इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा। वे सोचते हों कि वे इससे बच जायेंगे, तो गलत सोचते होंगे। मजहब और सियासत दो अलग-अलग चीजें हैं। उन्हें जोड़कर ये लोग बर्र के छत्ते में हाथ डाल रहे हैं। डालने वाले का हाथ तो लहुलुहान होगा ही, उड़ी हुई बर्रें दूसरों को भी काटेंगी....।
अब्बू : पर बेटा... हम बर्र के छत्ते के पास खड़े ही क्यों हों...? उससे दूर ना चले जाएं....। इत्ती दूर कि बर्रें हम तक आएं ही नहीं....।
डॉ. हनीफ : अब्बू, अगर एक नाराज आदमी बर्र के छत्ते से छेड़छाड़ कर रहा हो, तो...समझदार आदमी को उससे दूर भागने की बजाय, उस आदमी को रोकना भी चाहिये और बदहवास बर्रों पर काबू पाने की कोशिशें भी करनी चाहिये, ताकि वे औरों को नुकसान ना पहुँचा सकें....।
अब्बू : (खामोश्याी से कई पल हनीफ को देखते रहने के बाद) हनीफ, तुम अक्सर ही बड़ी समझदारी की बातें करते हो, इतनी कि वे सीधे दिल पे असर करती हैं...। मगर दूसरी तरफ भी इतनेई समझदार लोग क्यों नहीं हैं? उधर इतनी हुल्लड़ क्यों है...? ऐसी धमाचौकड़ी क्यों मचा रखी है उन लोगों ने...? डराने-धमकाने का ऐसा तरीका कि बच्चे की जान सांसत में पड़ी हुई है...? उनमें इतनी नफरत क्यों है...? आदमी की आदमी से नफरत...ओह...हमारा तो दिमाग काम नहीं करता...।
डॉ. हनीफ : (हँसकर) अब्बू...! ये मुगल बच्चे हैं। तैमूर और चंगेज खां की औलादें....। डेमोक्रेसी इनके खून में ही नहीं है....। जम्हूरियत से वे अब तक वाकिफ ही कहाँ हो सके हैं...? इस मुल्क में पहली बार गाँधी जी ने डेमोके्रसी सिखाने का काम किया है। दुश्मन की भी इज्जत की जाये, यह तो इनके लिये अनजाना वक्फा है न्....। ये तो लड़ाकू और सिर काटू कौम है....। इन्हें वक़्त लगेगा... पर उम्मीद है कि वे भी एक दिन थककर, जम्हूरियत के साये में ही सांस लेने पहुंचेंगे...। जम्हूरियत सीख जायेंगे...।
अब्बू : इंशा अल्ला, वो दिन कब आयेगा...? जम्हूरियत से तो हम भी कभी बिल्कुल अनजान ही थे....। हँसी आती थी इस बात पर कि जनता तय करेगी कि उस पर किसकी बादशाहत होगी...। ऊपर से गाँधी जी का कहना कि मारना नहीं, मरना है। मरने के लिये एक हो जाओ। घर से निकलो। पर वाह रे इंसान...,उसने अपनी सब बातों पर भरोसा करवा ही लिया....। बताओ भूखे रहकर, दूसरों को झुका देना कित्ती बड़ी बात है...? रोजों का बड़ा असर होता है, यह सुना तो था, महसूस भी किया था, मगर दुनिया को दिखाया इसी आदमी ने....।
डॉ. हनीफ : जी अब्बू.... बिल्कुल दुरुस्त फरमा रहे हैं आप....। यही ‘सत्याग्रह’ है। सत्य के प्रति इल्तजा। इसीलिये आप अपने पर भरोसा रखिये। हम पर भरोसा रखिये। उनकी हुल्लड़ों और डराने-धमकाने के तौर-तरीकों को बिगड़ैल बच्चों का कारनामा मानकर नज़रअंदाज कर दीजिये। बस। इमरोज बच्चा ही तो है। डर गया है। यह थोड़ी देर की तकलीफ है फिर वह भी सहना और कड़ा होना सीख जायेगा....। हम लोग अपना और उसका हौसला बनाये रखें, बस....। उसे टूटने न दें। वे हमारा हौसला ही तो तोड़ना चाहते हैं। पर तोडत्र नहीं पायेंगे...।
(पार्श्व-ध्वनि के रूप में स्पीकरों पर ऐलान सुनाई पड़ने लगा -)
‘‘- हर आम-ओ-खास को इत्तला की जाती है कि वे दोपहर की नमाज के लिये बड़े इमामबाड़े में तशरीफ लाएं। मौलाना साहब खास तकरीर फरमाएंगे....।
- हर आम-ओ-खास को.....’’
डॉ. हनीफ : लगता है मौलाना साहब पर्चा दाखिल करके लौट आये हैं और अब मजहबी बर्क में सियासी-गोलियाँ लपेट-लपेटकर खिलाने वाले हैं....। आप जाएंगे क्या...?
अब्बू : हम काहे जाएं...? नमाज तो किसी भी मज्जित में अदा की जा सकती है।...रही बात मौलाना की तकरीर की...,तो वह तो यहीं पर सुनाई पड़ जायेगी....। मगर आपका का इरादा है...?
डॉ. हनीफ : इरादा तो नेक ही है....अब्बू। मन तो कर रहा है कि वहीं जाकर तकरीर सुनें और मौलाना साहब की बातों का वहीं पर सीधे-सीधे जवाब दें....।
अब्बू : अरे-अरे, ऐसा न करना बेटा....। वो लोग इतने बड़े जिगरे वाले नहीं हैं कि तुम्हारी हाजिरी को भी सह सकें। दंगे-फसाद पर उतर आएंगे.... और इल्जाम भी आपके ही सिर पर धर देंगे। और कहीं कोई मजहबी-इल्जाम लगा दिया, तो मुसीबत ही हो जायेगी....।
डॉ. हनीफ : हाँ, ये अंदेशा तो हमें भी है....। जिनके पास अपनी बात मनवाने के लिये वाजिब तर्क नहीं होते, वे मजहब का छत्ता लगाकर वार करते हैं...। तो ऐसा करते हैं... कि हम कांग्रेस पार्टी के दफ़्तर चले जा रहे हैं....। वहीं पर चार लोगों के साथ तकरीर सुनेंगे और जवाबी-तकरीर का प्लान भी बनाएंगे...। आप यहीं घर पर रहियेगा और इमरोज वगैरह का खयाल रखियेगा....।
अब्बू : ठीक है बेटा..., खुदा हाफिज!
डॉ. हनीफ : (हँसकर)... हम तो ‘जयहिंद’ कहेंगे अब्बू....।
(डॉ. हनीफ पार्टी-दफ्तर चले गये।)
पार्श्व-ध्वनि :
‘हाजरीन! थोड़ी ही देर में मौलाना साहब यहाँ तशरीफ लाने वाले हैं। वे अपनी तकरीर के जरिये हमें अपने दीन और दुनियावी कामों के बारे में सही रास्ता दिखाएंगे। लिहाजा अक्सरियत में हिस्सेदारी करने की कोशिश करें.’
(अब्बू कान लगाकर ऐलान और तकरीर को सुनने की कोशिश कर रहे हैं।)
पार्श्व-ध्वनि : कुछ हो-हल्ला और नारेबाजी
नारा ए तदबीर...!
अल्लाहोअकबर....
नारा ए तदबीर...!
अल्लाह-ओ-अकबर....
(मौलाना साहब की तकरीर शुरू हुई)
मौलाना साहब : इस्लाम के बंदो! आज का वक़्त, मुसलमानों के लिये फैसले का
वक़्त बन गया है...। हिन्दोस्तान की जंगे-आजादी के लिये
मुसलमानों ने अपना खून बहाया है...कुरबानियाँ दी हैं। जिन्ना
साहब जैसे लोगों की बदौलत ही मुल्क आजादी की दहलीज तक
पहुँचा है...। अब जबकि मुल्क आजाद होने को है... हिंदू-नेताओं ने
मुल्क पर कब्ज़ा करने और मुसलमानों को एक और गुलामी के
हवाले कर देने का मंसूबा बना लिया है...। इस मंसूबे को हम
किसी भी सूरत में कामयाब ना होने देंगे...। हरगिज हरगिज
कामयाब ना होने देंगे...।
भीड़ : नारा - ए - तदबीर...!
अल्लाहो - अकबर...!
तकरीर जारी : आज हम सबके सामने सवाल पैदा हो गया है कि हमें इस्लाम को बचाने के लिये कुछ करना चाहिये कि नहीं...? मुसलमानों का वजूद बचाने के खातिर कुछ करना चाहिये या कि नहीं...? मुसलमान तभी महफूज रह सकता है, जब उसका अपना मुल्क हो.... जहाँ पैगंबर-साहब के बताये हुए रास्तों पर अमल करने का माहौल हो.... मुसलमानों की तरक्की के लिये खुली धरती और खुला आसमान हो.... जहाँ पर उनका मजहब और खुद उनकी सियासत हो....
अभी तक मुसलमान जिस बदहाली में जिंदगी बसर करता रहा है, अब उसके खात्मे का वक़्त दहलीज पर आ खड़ा हुआ है.... आज सियासत सिर्फ सियासत नहीं है, बल्कि मजहब को बचाने का एक औजार भी है.... रास्ता भी है.
जिन्ना साहब की खास गुजारिश पर हमने असेंबली चुनाव के लिये मुस्लिम लीग की तरफ से पर्चा भरा है और वो दाखिल भी किया जा चुका है.... हमने अपना काम कर दिया है अब आपकी बारी है. हरी पेटी में डाला गया आपका वोट, वोट नहीं, इस्लाम को बचाने, मुसलमानों को उनका हक दिलाने और पैगंबर साहब के बताये रास्तों पर चलने वाले एक नये मुल्क की नींव का पत्थर है.... बुनियाद है....
इसीलिये यह तय किया गया है कि जो मुसलमान इस्लाम की खातिर वोट नहीं डालेगा... उसे इस्लाम से खारिज माना जायेगा.... उसका निकाह खारिज हो जायेगा... उसकी औलादें हराम की औलादें कहलायेंगी.... इस्लाम की मुखालिफत करने वालों के लिये इस्लाम में कोई जगह ना होगी.... तो फैसला करिये आप लोग... और पाकिस्तान के हक में आगे आईये.
...शुक्रिया!
नारा - नारा - ए - तदबीर...!
अल्लाहो - अकबर...!
नारा - ए - तदबीर...!
अल्लाहो - अकबर...!
लेके रहेंगे - पाकिस्तान...!
मुसलमान की किस्मत - पाकिस्तान...!
कायदे - आजम!
जिन्दाबाद-जिन्दाबाद!
मौलाना साहब!
जिन्दाबाद-जिन्दाबाद!
(अब्बू की पेशानी पर बल पड़ गये. वे बैठक में तेजी से चहल-कदमी करने लगे.)
अब्बू : (बुदबुदाहट)... ये तो जुल्म है.... सरासर नाइंसाफी है.... एक वोट के लिये आदमी मजहब से खारिज कर दिया जायेगा...! (सिर हिलाते हैं)
वाह...! औलादें हरामी करार दे दी जायेंगी...! वतनपरस्ती आखिर मजहब की मुखालफत कैसे हो गयी...?
(बुआ का अंदर आगमन.)
बुआ : (चिंता के साथ)... का भया जलील अहमद...?
(अब्बू आँखें चुराते हुए तख्त पर ढेर हो गये.)
कहते काय नईं... आखिर इत्ते परेशान क्यों हो...? कैसी तकरीर थी, पिछवाड़े कुछ सुनाई पड़ी, कुछ सुनाई uk पड़ी....
(अम्मी पानी लेकर आ गयी. आधा गिलास पानी पिया और कुछ सूकून पाया.)
अब्बू : (मरी-मरी सी आवाज) कहते हैं जो उनकी मुखालफत करेगा, मजहब से खारिज कर दिया जायेगा...!
बुआ : या खुदा...! (बुआ ने सिर ठोक लिया.)
अब्बू : निकाह खारिज हो जाएंगे...!
(अम्मी के हाथ से कांसे का गिलास छूट गया.)
औलादें हरामी करार दे दी जाएंगी...!
(अम्मी दीवार से घिसटती हुई ज़मीन पर ढेर सी हो गयीं.)
(कोने में खड़ा इमरोज काँपने लगा. वह उठकर चला आया था)
(रमजान बुनकर ने दरवाजे की सांकल खटखटाकर अपने आने का इशारा किया. स्त्रियों ने परदा कर लिया. अम्मी धीरे से उठकर अंदर चली गयीं. इमरोज को भी अंदर लिवा ले गयीं. बुआ आड़-कायदे के साथ बैठी रहीं.)
रमजान : सलाम वालेकुम जलील भाई....
अब्बू : वालेकुम सलाम.... (अब्बू उठ बैठे) आओ रमजान मियाँ....
रमजान : कैसे हो भाई जान...? सब खैरियत तो है...?
अब्बू : (व्यंग्यात्मक हँसी) खैरियत ही तो नहीं है....
रमजान : मायूस न हों, जलील भाई.... पूरी बुनकर बिरादरी आपके साथ है....
अब्बू : सुना है आपके घर पे मीटिंग हुई थी...?
रमजान : हाँ, हुई तो है.... उसी में तय हुआ कि सारे अंसारी लोग हिंदूस्तान की हिमायत करेंगे.... डॉक्टर साहब का साथ देंगे....
अब्बू : पर हमने तो आपको मौलाना के जुलूस में देखा था...?
रमजान : हाँ..., देखा होगा. हमें चार आदमी जबरदस्ती जुलूस में ले गये थे... क्योंकि हमारे घर पर मीटिंग हुई रही... इसी से.
अब्बू : पर सुना नहीं, जो उनके खिलाफ जायेगा मजहब से खारिज कर दिया जायेगा....
रमजान : अब तो ठान लिया है... जो होगा देखा जायेगा....
अब्बू : कित्ते लोग ऐसा सोचते हैं...?
रमजान : जुलाहे तो सभी....
अब्बू : आखरी वक़्त पे डर गये तो...?
रमजान : अब डर निकल चुका है... आज की तकरीर ने उल्टा असर किया है.
अब्बू : क्यों...?
रमजान : अमीर लोग इस बहाने गरीबों को दबाना चाहते हैं....
(डॉ. हनीफ का प्रवेश)
रमजान : सलाम डाक्टर साहब....
डॉ. हनीफ : सलाम चाचा.... कहिये कैसे हैं...?
रमजान : खुदा का फजल है....
डॉ. हनीफ : क्या ख़बर है...?
रमजान : सारे जुलाहे आपका साथ देंगे... ऐसा तय हुआ है.
डॉ. हनीफ : शुक्रिया. पर हमारा साथ देने में बड़े-बड़े जोखम हैं.... खतरे हैं....
रमजान : जोखम उठाएंगे. खतरे उठाएंगे, पर वतन छोड़कर नहीं uk जाएंगे....
डॉ. हनीफ : पक्का...?
रमजान : पक्का डॉक्टर साहिब... निसाखातिर रहिये....
डॉ. हनीफ : मजहब छीन लिया जायेगा...!
रमजान : छीनकर देखें.
डॉ. हनीफ : निकाह खारिज हो जायेगा...!
रमजान : करके देखें.
डॉ. हनीफ : बड़े मजबूत हैं, चाचा...?
रमजान : गरीब ठान लेता है तो मजबूत हो जाता है....
डॉ. हनीफ : अब्बू...!
अब्बू : हाँ, बेटा कहो...!
डॉ. हनीफ : आप क्या कहते हैं... आप कहें तो हम इलेक्शन से हटने को तैयार हैं....
अब्बू : काहे बेटा...?
डॉ. हनीफ : हम अपने कारण इतने सारे लोगों को मुसीबत में क्यों डालें.... जैसे और जगहों पर मुस्लिम लीग के उम्मीदवार अन-अपोज आ रहे हैं, यहाँ भी आ जायें... तो इतना अंधेर तो न होगा....
अब्बू : जब इत्ते सारे लोग साथ देने को तैयार हैं.... हर तरह का खतरा उठाने को तैयार हैं तो ऐसे में तुम्हारे कदम काहे डगमगा रह हैं...?
डॉ. हनीफ : कदम नहीं डगमगा रहे... अब्बू.... बल्कि आपको... रमजान चाचा को... इत्ते सारे बुनकर भाईयों को हम मुसीबत में डालना नहीं चाहते....
रमजान : आपने अगर अपनी उम्मीदवारी वापस ले ली तो उसका यही मतलब निकलेगा कि सारे मुसलमान पाकिस्तान और मुस्लिम लीग के हिमायती हैं.... हमारी वतन-परस्ती अंधेरे में डूब जायेगी.... कल तोहमतें लगायी जायेंगी कि जब वतन का सवाल आया तो हम उसके साथ न थे.
डॉ. हनीफ : और इतने सारे खतरे...?
रमजान : वे वतन से बड़े नहीं हैं.
डॉ. हनीफ : इस्लाम के विरोधी करार दिये जाएंगे....
रमजान : इत्ता आसान नहीं है....
डॉ. हनीफ : अब्बू...?
अब्बू : जब रमजान इतने मजबूत हैं तो हम का मोम के बने हैं, जो पिघल जायेंगे...?
( डॉ. हनीफ ने अब्बू का हाथ थाम लिया और अपना मुँह उस पर रख दिया. दोनों की आँखें बह चलीं.)
अब्बू : सामना करो बेटा... जुल्म का सामना करो.... डरने वालों को लोग और डराते हैं... अगर तुम्हें लगता है कि तुम्हारा रास्ता ईमान का रास्ता है तो उस पर डटे रहो.... पैगंबर साहब के रास्ते में क्या कम मुसीबतें आयी थीं...? क्या उन्होंने मुकाबला नहीं किया? का रास्ता छोड़कर लौट गये...?
(इस बीच अम्मी और इमरोज भी हनीफ के पीछे आकर खड़े हो गये. इमरोज ने डा.ॅ हनीफ के कंधे पर हाथ रखा. डॉ. हनीफ ने मुड़कर पीछे देखा.)
इमरोज : हम भी आपके साथ हैं....
उसने पीठ पीछे छिपायी तख्ती दिखा दी - जिस पर उसने लंगड़े अक्षरों से लिख रखा था - ‘नहीं बंटेगा हिन्दुस्तान’
दृश्य : पाँच
(डॉ. हनीफ के घर पर आठ-दस लोग बैठे हैं। चुनाव के नतीजे आ गये हैं। डॉ. हनीफ चुनाव हार गये हैं और मुस्लिम लीग के मौलाना साहब चुनाव जीत गये हैं। पार्श्व-ध्वनि के रूप में मुहल्ले, में कहीं ढोल-नगाड़े बजाये जा रहे हैं। पाकिस्तान जिंदाबाद, मुस्लिम लीग जिंदाबाद और मौलाना साहब जिंदाबाद के नारे भी सुनाई पड़ रहे हैं।)
अब्बू : (ढाढस बंधाने वाला स्वर) चुनावों में हार-जीत तो लगी रहती है....उसका गम ना करना चाहिये...।
रमजान : हम गम कहां कर रहे हैं, अब्बू...? हम तो हारकर भी जीत गये हैं, क्योंकि हमारा रास्ता सही रास्ता था...। हमें यकींन है कि हिंदूस्तान का बंटवारा नहीं होगा। और अगर हो भी गया तो चंद अमीर मुसलमानों के सिवाय वहां कोई और न जायेगा...। पर जो चला जायेगा, उसका वहां गुजर होगा भी या नहीं, यही एक सवाल है...।
साथी-एक : हमें तसल्ली इस बात की है, अब्बू जान, कि हमने चुनाव में मजहब का सहारा नहीं लिया और न ही लोगों को डराया धमकाया...। बस अपनी बात रखी। लोगों को पसंद नहीं आयी, कोई बात नहीं। फिर समझायेंगे...। बार-बार समझाायेंगे...।
साथी-दो : हमें तो अपना चुनाव-प्रचार तक ठीक से नहीं करने दिया गया...। यहाँ से लेकर कटनी तक, प्रचार करने के दौरान किसी मुसलमान ने हमें डर के मारे पानी तक नहीं पिलाया...।
रमजान : कैसे पिलाते...? उन्हें न पिलाने के लिये मजबूर किया गया था। कसम दिलायी गयी थी।
साथी-तीन : तो क्या अब पाकिस्तान बन जायेगा...?
डॉ. हनीफ : दोनों तरह की कोशिशें जारी हैं....। बनाने वाले भी अड़े हैं और न बनने देने वालों के हौसले भी कुछ कम नहीं हैं.... मगर...?
साथी-चार : मगर क्या डाक्टर साहब..?
डॉ. हनीफ : मगर अंग्रेज उनका साथ दे रहे हैं....।
रमजान : मान लो पाकिस्तान बन जाता है, तो उसका मतलब तो यही है कि मौलाना साहब और उनकी पार्टी के तमाम लोग यहां से पाकिस्तान चले जाएंगे...?
साथी-एक : क्यों नहीं चले जाएंगे...? ज़रूर चले जायेंगे। वो तो ‘पाकिस्तान’ बनाने के हक में ही तो चुनाव लड़ रहे थे। यह चुनाव तो इसी मुद्दे को लेकर मुस्लिम लीग ने लड़ा। वो यह दिखाना चाहती है कि देश भर का मुसलमान मुस्लिम-लीग के साथ है और इसी कारण उनका ‘पाकिस्तान’ वाला मुद्दा मान लिया जाये।
रमजान : तब तो यह बड़ा अच्छा होगा...?
डॉ. हनीफ : क्या, अच्छा होगा...?
रमजान : यही कि पाकिस्तान अगर बन गया, तो मौलाना पाकिस्तान चले जाएंगे।
डॉ. हनीफ : तो इसमें कौन सी अच्छी बात है...?
रमजान : अच्छी बात यह होगी कि आइंदा से अंसारियों पर ढाये जाने वाले कहर बरपा न होंगे...।
डॉ. हनीफ : (हँसकर) चाचा का वश चले तो वे बड़े मौलाना को आज ही पाकिस्तान रवाना कर दें....।
साथी-दो : सचची बात तो यही है कि उनके चले जाने से सबको बड़ा सुकून मिलेगा...।
(पार्श्व-ध्वनि के रूप में ढोल-नगाड़ों और नारों के स्वर सुनाई पड़ते रहे।)
दृश्य : छह
(14 अगस्त 1947 पाकिस्तान की आजादी का दिन तय हो जाने के कुछ सप्ताह पहले. मौलाना साहब के घर में भीड़-भड़क्का। मुबारकबाद का लेन-देन।)
लोग-एक : (गुलदस्ता देते हुए) मुबारक हो मौलाना साहब...! पाकिस्तान का वजूद मुबारक हो....।
मौलाना : शुक्रिया... शुक्रिया। आईये तशरीफ रखिये।
लोग-दो : अब तक तो मौलाना साहब..., पाकिस्तान में आपके लिये किसी बड़े ओहदे का इंतजाम हो गया होगा....।
मौलाना : सही फरमाते हैं। हो ही गया है..., मगर...!
लोग-तीन : मगर क्या, मौलाना साहब...?
मौलाना : मगर हम पाकिस्तान नहीं जा रहे हैं...।
लोग-एक : पर, पाकिस्तान की आज़ादी के जश्न वाले दिन तो आपको वहीं होना चाहिये...।जिन्ना साहब और लियाकत साहब की ठीक बगल में...।
मौलाना : (अनमनेपन से) हां, हमारी जगह तो वहीं पर मुकर्रर की गयी है पर इन बातों को छोड़िये....। परदेश, परदेश होता है....और अपना वतन, अपना वतन होता है...।
लोग-दो : परदेश...? मौलाना साहब... परदेश क्यों...? पाकिस्तान तो मुसलमानों का अपना मुल्क है।
मौलाना : होना तो यही चाहिये था... मगर ऐसा हुआ नहीं....।
लोग-तीन : हुआ नहीं...? जरा खुलकर बताईये... मौलाना साहब... हमने तो पाकिस्तान जाने की पूरी तैयारी करके न जाने कब से रखी है.... बस इंतजार आपका ही था कि साथ-साथ जाएंगे।
मौलाना : जो पाकिस्तान चले गये...,उनकी हालत वहाँ बड़ी खराब है...। वहाँ वाले इधर वालों को ‘मुहाजिर’ कहकर पुकारते हैं। रिफ्यूजी कैंपों में रखा गया है उन्हें....। वहां पर कीड़े-मकोड़ों की तरह बिलबिलाते रहते हैं लोग....। न खाने का ठिकाना है न पीने का....।
लोग-एक : इन खबरों का कोई खास सुराग होगा...?
मौलाना : बिल्कुल खास....। यू पी से हमारे एक करीबी रिश्तेदार का खत आया है। उन्होंने वहाँ आने से मना भी किया है....।
लोग-दो : ये तो बड़ी मायूसी वाली बात है....।
मौलाना : इसी ने हमारे पैर बाँध दिये हैं....। यहाँ जो रुतबा-रुआब, इज्जत-आबरू हासिल है, उसका वहाँ शायद नामोनिशान तक न हो....।
लोग-तीन : पर चुनाव तो आपने मुस्लिम-लीग से लड़ा...। पाकिस्तान की हिमायत में कोई कसर न छोड़ी....। हम लोग भी जोश में और आपकी सरपरस्ती में आपे से बाहर होकर अपना मुँह चलाते रहे....। पर अब तो न इधर के रहे न उधर के रहे....।
(मौलाना उदासी में चले गये. तभी एक समर्थक हरे रंग के साटन का चौगा पहने, फूलों का बड़ा सा गुलदस्ता लेकर आया।)
समर्थक : (खिलखिलाता हुआ) मुबारक हो मौलाना साहब... मुबारक हो...। आखिर पाकिस्तान बनवा ही दिया आपने....। हम मुसलमानों के लिये एक अलग मुल्क....। पाकिस्तान के वजूद और मुसलमानों की आजादी के नाम पर हम फूलों का यह गुलदस्ता आपकी नज़र करते हैं...।
मौलाना : (दांत पीसते हुए) शुक्रिया!
समर्थक : (मौलाना की ठंडी शुक्रिया से चकित होकर) तबियत नाशाद है का, मौलाना साहब...? या पाकिस्तान की आजादी की तारीख बढ़ा दी गयी है...?
मौलाना : हां, तबियत थोड़ी नाशाद है....।
समर्थक : तो कब की रवानगी है, मौलाना साहब...? हमारा तो सामान बंधा धरा है. जब आपका हुकम होगा, चल पड़ेंगे। दूकान थी एक ठो सो बेच-बाच कर रुपये खड़े कर लिये हैं....।
मौलाना : अच्छा-अच्छा...!
(मौलाना के ठंडेपन ने उसे मायूस कर दिया।)
(शरबत बांटने वाला हरे रंग का शरबत लेकर उन लोगों के आगे हाजिर हुआ। सबने मरे हुए हाथों से गिलास उठाये।)
(लोगों का आना-जाना तो जारी रहा, मगर धीरे-धीरे वहाँ मायूसी का वातावरण बनता चला गया। आपसी बातों ने लोगों के जेहन में पाकिस्तान जाने के जोश को ठंडा कर दिया।)
मौलाना : (थका हुआ स्वर) आप लोग शरबत नोश फरमाएं...। हमारी तबियत कुछ नाशाद महसूस हो रही है....। जरा आराम करने को जी हो रहा है....।
(मौलाना उठकर अंदर चले गये। लोग भी आपस की शंकाओं-कुशंकाओं पर चर्चा करते विदा होने लगे।)
दृश्य : सात
(15 अगस्त 1947 की रात। डॉ. हनीफ के घर पर बड़ी सजावट है। चहल-पहल मची हुई है। हँसना-खिलखिलाना चल रहा है। लोगों के झुंड के झुंड आ रहे हैं। नारे लगाये जा रहे हैं। डॉ. हनीफ सबका स्वागत तहे दिल से कर रहे हैं। अब्बू और इमरोज इंतजाम में व्यस्त हैं।)
हिन्दुस्तान की आजादी!
जिंदाबाद - जिंदाबाद...!
हिंद-मुस्लिम एकता !
जिंदाबाद - जिंदाबाद...!
कांग्रेस पार्टी !
जिंदाबाद - जिंदाबाद...!
तिरंगा झंडा !
ऊँचा रहे - ऊँचा रहे !
डॉ. हनीफ अंसारी !
जिंदाबाद - जिंदाबाद...!
जवाहर लाल !
जिंदाबाद - जिंदाबाद...!
महात्मा गाँधी !
जिंदाबाद - जिंदाबाद...!
सारे जहाँ से अच्छा!
हिन्दोस्तां हमारा !
(गाँधी टोपी और तिरंगे झंडों के साथ लोगों की आमद जारी है।)
एक झुंड : (उत्साह के साथ) हिंदूस्तान की आज़ादी मुबारक हो डॉ. साहब...!
डॉ. हनीफ : आप सबको भी...। भाई आप सबको भी...।
(शरबत और मिठाईयाँ पेश की जा रही हैं। अब्बू और इमरोज खासतौर पर ध्यान दे रहे थे, कि मिठाईयाँ सबको पेश की जाएं। कोई बाकी न रहे।)
अब्बू : (मिठाईयों की तश्तरी लिये हुए) तो भाईयो... मिठाईयाँ लो। मुँह मीठा करो। चुनाव हार गये थे, मगर मुल्क जीत गये हैं....।
लोग : मुबारक हो अब्बू... बहुत-बहुत मुबारक हो...।
अब्बू : शुक्रिया...! शुक्रिया!!
(इमरोज के दोस्तों का झुंड उछल-कूद मचाता आया।)
दोस्त एक : इमरोज भाई मुबारक हो....।
इमरोज : शुक्रिया...! आपको भी...।. मिठाई खाओ... यार....।
(डॉ. हनीफ की पत्नी, अम्मी और बुआ के पास औरतें जमा थीं।)
स्त्री-एक : मुबारक हो डाक्टरनी साहिबा....।
अम्मी : शुक्रिया.... तशरीफ लाईये....। आजादी आपको भी मुबारक हो....।
स्त्री-दो : फूफी आपको भी मुबारक हो...।
फूफी : (भारी खुशी के साथ) आपको भी.... आओ भाई...। मुँह तो मीठा करो....।
स्त्री-तीन : मजहब से निकालने वालों के मुँह सिल गये, फूफीजान...।
बुआ : खुदा का फजल है....।
(इस बीच डॉ. हनीफ के इर्द-गिर्द जमा लोग गाने लगे...।)
सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा
हम बुलबुलें है इसकी, ये गुलसितां हमारा
पार्टी सेक्रेटरी : (गाना खत्म होने पर) इस ऐतिहासिक मौके पर मौजूद दोस्तो! हम सब
लोगों की दिली ख्वाहिश है कि हमारे लीडर डॉ. हनीफ अंसारी आज
की जश्न भरी रात में, जो हिन्दुस्तान की आजादी की पहली रात है,
एक छोटी सी तकरीर करें। डॉ. हनीफ साहब....तशरीफ लाईये और
तकरीर फरमाईये...।
डॉ. हनीफ : दोस्तो और साथियो, बुजुर्गो और बच्चो! आज का दिन हमारी जिंदगी का सबसे हसीन दिन है। न जाने कितनी लड़ाईयों और कुरबानियों के बाद आज़ादी का ये दिन हमारे नसीब में आया है। दुख है तो बस यही है कि देश का बंटवारा हो गया। अंगरेज अपनी चालों में कामयाब हो गये। दंगे-फसादों ने हजारों जानें ले लीं। घर जल गये और अफरा-तफरी मच गयी। पिछले दो सालों से मुस्लिम लीग जैसी कम्यूनल पार्टियों के द्वारा और हिंदू महासभा जैसी जमात के जरिये, जो माहौल बनाया जा रहा है, उसी के कारण इतनी हिंसा और खून-खराबा हुआ है।
महात्मा गाँधी ने जो लड़ाई अहिंसा के हथियार से लड़ी और जीती..., उस पर खुद हमीं ने एक बदनुमा दाग लगा दिया है। काश, हम नफरतों और दुश्मनी से बचे रहते। जिन्होंने पाकिस्तान की हिमायत में ज़मीन-आसमान एक कर डाला, कैसे-कैसे फतवे दिये..., वे भी आखिरकार पाकिस्तान नहीं गये। वे इसी मुल्क में अपने को महफूज मानते हैं। यही बात हमस ब तब कहा करते थे। पर इसी बात के लिये कौम के दुश्मन करार दिये गये थे। बहरहाल, हमें उनसे कोई शिकायत नहीं है। हम तो तब भी यही कहते थे कि ‘नहीं बंटेगा हिन्दुस्तान, यहीं रहेंगे मुसलमान’, तो अब भी कहते हैं कि हम सब मिलकर यहीं रहेंगे।
हिन्दुस्तान ने अपने को मजहबी मुल्क नहीं बनाया....। सेकुलर मुल्क बनाया है। यहाँ हिंदू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई और हरिजन-आदिवासी सभी बराबरी का दर्जा पायेंगे। सबको तरक्की का एक जैसा माहौल हासिल होगा। बस, एक ही इल्तजा है हम सबकी, कि कल तक उन लोगों ने जो किया, सो किया, अब सब कुछ भुलाकर एकता और भाईचारे के साथ, सच्ची मुहब्बत और वतनपरस्ती के साथ हम आगे की जिंदगी बिताएं।
हिंदू और मुसलमान एक माँ की दो आँखें हैं। एक आँख दूसरी आँख को फोड़ना चाहे, तो क्या यह हम मुमकिन होने देंगे...?
भीड़ : कभी नहीं - कभी नहीं।
डॉ. हनीफ : कल तक हमारे बेटों को ‘हिंदू-बच्चा’ और ‘हरामी-बच्चा’ कहा जाता रहा है...., पर हम किसी के बच्चे को ऐसी नापाक गालियाँ न तो देंगे और न ही किसी और को देने देंगे...।
बच्चो! आज तुम लोग यहाँ जमा हो...। यह आज़ाद मुल्क तुम्हें मुबारक हो। आज़ादी तुम्हें मुबारक हो। जो नफरतें और तकलीफें हमारी जेनरेशन ने सहीं..., तुम लोग उससे महफूज रहो। बस, इतना ही कहना है...। जयहिंद...!
भीड़ : जयहिंद!
डॉ. हनीफ : हिंदू-मुस्लिम...
भीड़ : भाई-भाई....।
डॉ. हनीफ : कोमी एकता...!
भीड़ : जिंदाबाद!
डॉ. हनीफ : शुक्रिया, दोस्तो!
दृश्य : आठ
(वही बैठक, वही तख्त, पर अब उस तख्त पर लेटने के लिये अब्बू इस संसार में नहीं हैं। तख्त पर अब उनकी जगह पर डॉ. हनीफ अंसारी लेटे हुए हैं। उम्र उनकी पछत्तर के आसपास हो चुकी है।
कमरे में वही पुरानी मजहबी तस्वीरें अब नहीं हैं। गाँधी-नेहरू की तस्वीरों के अलावा अब दीवार पर कुछ और तस्वीरें बढ़ गयी हैं- ये हैं लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गाँधी और राजीव गाँधी की। सब पर मालाएं टंगी हुई हैं।
बुजुर्ग डॉ. हनीफ गावतकिये पर अधलेटे शून्य में कहीं ताक रहे हैं।)
(बूढ़े रमजान का आगमन)
रमजान : अस्सलामवालेकुम डाक्टर साहब....।
डॉ. हनीफ : (आहिस्ता से गर्दन मोड़कर)... वालेकुमअस्सलाम...। जयहिंद...।
आओ रमजान मियाँ.... बैठो।
(रमजान कुर्सी पर बैठ जाते हैं।)
डॉ. हनीफ : बहुत दिनों बाद आये....कहाँ मशरूफ रहे भाई...? पुराने दोस्तों में आप ही तो एक बचे हैं... और आप हैं कि आप भी लंबा गोल मार जाते हैं। और मियाँ... आज तो आपने जयहिंद भी नहीं किया... सब खैरियत तो है...?
रमजान : (उदासी से) क्या खाक खैरियत है....। रथ-यात्रा वालों ने मुल्क भर में मुसलमानों की जिंदगी हराम कर रखी है....। जहाँ-तहाँ से दंगों-फसाद की खबरें आ रही हैं....। न जाने का होने वाला है...?
डॉ. हनीफ : हाँ...,रमजान भाई...। एक पॉलिटिक्स के तहत हिंदू-मुसलमान एक-दूसरे के दुश्मन बनाये जा रहे हैं। अयोध्या से हमारे एक रिश्तेदार की चिट्ठी आयी है, कि वो लोग शायद इस बार बाबरी-मस्जिद को ढहा ही देंगे....। पक्की स्कीम बना ली गयी है....।
रमजान : सुन लीजिये डाकटर साहेब, पूरे मुल्क में मुसलमानों को ‘पाकिस्तानी’ कहा जा रहा है....। सैंतालीस-छियालीस के घाव फिर से कुरेदे जा रहे हैं। अब हमें अपनी वतन परस्ती के सुबूत दिखाने पड़ रहे हैं....। हमें बद्दार माना जा रहा है...। इसी मुल्क का ख्वाब देखा था क्या हमने-आपने...?
डॉ. हनीफ : मायूस न हों रमजान भाई....। वक़्त सब ठीक कर देगा....। जब छियालीस-सैंतालीस का वह बुरा वक़्त न रहा, दंगे-फसाद न रहे, तो ये वक़्त भी गुजर ही जायेगा....। जब सियासत में तंगनजरी आ जाती है, तो ऐसा ही होता है....। तब जिन्ना और मुस्लिम लीग वालों ने तमाशा मचा रखा था, अब इतने अरसे बाद इन रथ-यात्रा वालों ने भी वही करना शुरु कर दिया है....। कोई इतिहास से सबक क्यों नहीं सीखता...?
रमजान : अच्छा जरा एक बात बताईये डॉ. साहब...कि क्या इसी दिन के लिये हम लोग मौलाना साहब से भी जा भिड़े थे...? आजादी के छियालीस साल बाद भी वही हिंदू-मुसलमान का झगड़ा...। वही फिरकापरस्ती...। वही शको-सुबहा का माहौल....। और पता है आपको...जनाबआपकी कांग्रेस-पार्टी ने मौलाना साहब के साहबजादे को न जाने काहे का चेयरमेन मुकर्रर किया है...? आपको तो वो लोग पूछते तक नहीं...। तकलीफ नहीं होती...?
डॉ. हनीफ : (हँसकर) हाँ... तकलीफ तो होती है, मगर हिम्मत क्यों हारते हो मियाँ...? कोई हनीफ, कोई रमजान फिर खड़े हो जायेंगे इंसानियत के पैरोकार बनकर और इन फिरकापरस्तों को उसी तरह पस्त कर देंगे....। हाँ, यह ज़रूर खतरनाक है कि कांग्रेस ने सन् छियालीस के वतनपरस्तों को भुला दिया....।
रमजान : का पता, का होगा...?
(एकाएक सायरा बेगम घर के अंदरूनी हिस्से से दस-बारह साल के बेटे को बाँह से खींचते हुए बैठक में आती हैं। उनके चेहरे पर गुस्सा है। बच्चा उदास, दुखी और डरा हुआ है।)
सायरा बेगम : (सिर पर चुन्नी खींचते हुए)... दादू, जरा जे अफरोज की बात सुनिये...! क्या कह रहे हैं...?
डॉ. हनीफ : भई, क्या कहते हैं हमारे अफरोज साहब...?
सायरा बेगम : ज़िद कर रहे हैं कि इस्कूल न जाएंगे....। रिक्सा वाला रास्ता देखकर चला गया....। अंगरेजी स्कूल वाले अभी कलई एक रुक्का भेज देंगे....। इम्तहान सिर पे हैं... सो अलग से।
डॉ. हनीफ : अफ़रोज...! आपकी अम्मी क्या कह रही हैं? बोलो बेटा...?
अफरोज़ : (सिर झुकाए हुए ही)... जी दादू....।
डॉ. हनीफ : स्कूल क्यों नहीं गये बेटा...?
(अफरोज़ ने जवाब नहीं दिया। गर्दन और झुका ली।)
डॉ. हनीफ : बोलो... बेटे....।
(अफरोज़ चुप।)
डॉ. हनीफ : क्या मिस् ने आपको डाँटा है..?
(अफरोज़ ने इंकार में सिर हिलाया।)
डॉ. हनीफ : तो क्या आपने होमवर्क नहीं किया...?
अफ़रोज़ : किया है दादू....।
डॉ. हनीफ : तो फिर आप स्कूल क्यों नहीं गये...? यह तो ग़लत बात है, बेटे...। फिर ऐसे में आप कलेक्टर कैसे बनेंगे...? ऐं... बताओ तो...?
(अफरोज़ चुप। गर्दन झुकी हुई। सुबकना जारी।)
डॉ. हनीफ : स्कूल जाएंगे न्...?
(अफरोज़ ने इंकार में सिर हिलाया।)
डॉ. हनीफ : (लहजे में थोड़ा गुस्सा)...कैसे गंदे बच्चों की मानिंद जिद पकड़े हुए हो....। स्कूल नहीं जाओगे, तो हमें आपकी हैड-मिस्ट्रेस से बात करना पड़ेगी...।
अफरोज़ : (रुआंसी आवाज)... दादू...!.
डॉ. हनीफ : हाँ, बेटा बोलो....। बताओ क्या बात है...?
(अफरोज़ की जरा देर तक चुप्पी।)
डॉ. हनीफ : (उत्साहित करते हुए)... हां-हां बताओ... बताओ। डरो मत। हम हैं न्....।
क्या अपको किसी ने मारा है..., या तंग किया है...?
अफरोज़ : (कातर स्वर)... लड़के चिढ़ाते हैं...!
डॉ. हनीफ : (हँसकर) अरे तो भई आप भी उन्हें चिढ़ा दिया कीजिये....। इसमें रोने की क्या बात है...?
अफरोज़़ : (रोते हुए) गंदा-गंदा चिढ़ाते हैं दादू....।
डॉ. हनीफ : (नरम स्वर) अच्छे बच्चे रोते नहीं....। चलो, आँसू पोंछो और बताओ ि कवे तुम्हें क्या कहकर चिढ़ाते हैं...?
(अफरोज़ ने आँसू पोंछे और सिर उठाकर दादू की ओर बड़ी आजिजी के साथ देखा।)
डॉ. हनीफ : हाँ-हाँ.... बोलो बेटा...। ऐसी क्या बात है..., कि हमारा इत्ता बहादुर बच्चा ऐसे रो रहा है....।
अफरोज़ : (गर्दन झुकाकर) सब लड़के हमें... वो ना दादू....।
(अफरोज़ फिर रो पड़ा।)
डॉ. हनीफ : अच्छा इधर हमारे पास आओ...। जल्दी से आओ....।
(रोते-रोते अफ़रोज़ दादू के निकट जा पहुँचा. दादू ने उसके आँसू पौंछे. सिर पर हाथ फेरा।)
डॉ. हनीफ : (पुचकार कर)...डरने की कोई बात नहीं है..। बोलो, क्या बात है...? क्या चिढ़ाते हैं, बच्चे...?
अफरोज़ : वो हमें ‘कटुआ’ कहते हैं....।
(कहकर अफरोज़ हिलक-हिलक कर रो पड़ा।
छादू, रमजान और सायरा बेगम सन्न रह गये। दादू ने उसे सीने से लगा लिया। सिर पर हाथ फेरा। खामोशी छा गयी।)
अफरोज़ : और पाकिस्तानी भी कहते हैं...।.
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राजेंद्र चंद्रकांत राय : परिचय
जन्म : 5 नवंबर 1953 को जबलपुर में। प्रमाण-पत्रों में : 15 नवंबर 1953 ।
शिक्षा : रानी दुर्गावती वि वि से हिंदी साहित्य में एम ए, बी-एड. तथा नेट की डिग्रियां हासिल कीं।
आजीविका : अघ्यापन और राजीव गांधी वाटरशेड मिशन म प्र शासन के परियोजना अधिकारी रहे ।
कृतियां : राजेंद्र जी मूलतः कथाकार हैं, धर्मयुग, सारिका, पहल, तद्भव, नया ज्ञानोदय, हंस, नवनीत, कादम्बिनी सहित सभी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशित।
प्रकाशित कृतियां : ‘कामकंदला’, ‘फिरंगी ठग’, ‘खलपात्र’ उपन्यास। ‘बेगम बिन बादशाह’, ‘गुलामों का गणतंत्र’, ‘अच्छा तो तुम यहां हो’ कहानी संग्रह। ‘सहस्रबाहू’, ‘थैंक्यु स्लीमेन’, सलाम हनीफ मियां’ नाटक। दिन फेरें घूरे के’, ‘बिन बुलाए मेहमान’, ‘क्योंकि मनुष्य एक विवेकवान प्राणी है’, ‘आओ पकडें टोंटी चोर’, ‘तरला-तरला तितली आयी’, ‘काले मेघा पानी दे’, ‘चलो करें वन का प्रबंघन’ बच्चों के लिये नुक्कड़ नाटक। ‘इतिहास के झरोखे से’, ‘कल्चुरि राजवंश का इतिहास’ इतिहास ग्रंथ। ‘पेड़ों ने पहने कपड़े हरे’ पर्या गीत, ‘गैर सरकारी संगठन : स्थापना, प्रबंधन और परियोजनाएं’, सामान्य पर्यावरण ज्ञान’। ‘स्लीमेन के संस्मरण’, ‘स्लीमेन की अवध डायरी’, ‘ठगों की कूटभाषा रामासी’ और ‘ठग अमीरअली की दास्तान’ अनुवाद कार्य।
संपादन : बच्चों की पत्रिका ’अंकुर’, पर्यावरण पत्रिका ‘ख़बर परिक्रमा’। इसके अलावा आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित रेडियो पत्रिका ‘ताकि बची रहे हरियाली’ का 1992 से 1999 तक संपादन किया।
स्मंभ लेखन : नव भास्कर, नव भारत में स्तंभ लेखन। दुनिया इन दिनों में ‘देशांतर’।
रेडियो लेखन : ‘कृषि परिक्रमा’, ‘उत्तम खेती : उत्तम स्वास्थ्य’ तथा ‘कल्चुरियों की गौरवगाथा’ की रेडियो के लिए 13-13 कड़ियां।
दूरदर्शन : भोपाल से चर्चाओं का प्रसारण।
अभिनय : नाटकों, एक धारावाहिक और एक फिल्म में अभिनय। अनेक नाटकों का निर्देशन।
आईसेक्ट विश्वविद्यालय, भोपाल द्वारा प्रकाशित एंथॉलॉजी ‘कथा मध्यप्रदेश’ में कहानी ‘गुलामों का गणतंत्ऱ’ शामिल।
धारावाहिक : एपिक चैनल पर प्रसारित ‘लुटेरे’ धारावाहिक में स्लीमेन साहित्य के विशेषज्ञ के तौर पर ठगों के इतिहास पर टिप्पणी का प्रसारण।
संगठन : शिक्षक कांग्रेस का संस्थापन सहयोग। शिक्षक अस्मिता रक्षा मंच की स्थापना और आंदोलनों की श्रृंखला का नेतृत्व।
पर्यावरण और प्रगतिशीलता के पक्ष में लगातार सक्रिय। सांप्रदायिक शक्तियों का निरंतर प्रतिरोध। आंदोलनों के तहत् तीन बार जेल यात्राएं।
संपर्क : ‘अंकुर’, 1234, जेपीनगर, आधारताल, जबलपुर-482004 म.प्र.
मो. : 7389880862 ई मेल : rajendrac.rai@gmail.com
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