प्रविष्टि क्र. 36 : [ताज महोत्सव 18 -27 फरवरी , पर विशेष रूप से] एक शहंशाह ने बनवाया हसीं ताज महल । डॉ. कामिनी कामायनी मुगल कालीन स्थाप...
प्रविष्टि क्र. 36 :
[ताज महोत्सव 18 -27 फरवरी , पर विशेष रूप से]
एक शहंशाह ने बनवाया हसीं ताज महल ।
डॉ. कामिनी कामायनी
मुगल कालीन स्थापत्य शैली का भव्य प्रतीक ; भांति भांति की निराली ,बहुत सी बातें ताजमहल को ताजमहल बनाने में कामयाब रही हैं । सब कुछ स्पष्ट है ,इतिहास का पन्ना पन्ना चीख कर बयान करने के लिए अपने स्तर पर पर्याप्त क्षमता रखता है कि कैसे ,
बयालिस एकड़ के विस्तृत परिसर में ,अपने समय के बत्तीस मिलियन रुपए की लागत से , उस्ताद अहमद लाहौरी के नेतृत्व में , प्रख्यात वास्तुविदों के समूह के देख रेख में ,करीब बीस हजार कारीगरों के अनथक बाईस बरसों के प्रयास का प्रमाण ,आगरे का ताज महल ,दुनिया के सात आश्चर्य चीजों में शामिल होने के साथ साथ , नए सेवेन वंडर में फिर से शामिल होकर , विश्व भर में अपना गौरव बखान करने में फिर से कामयाब हो गया है । वर्ल्ड हेरिटेज में तो यह शुमार है ही ।
साथ ही ,यह भी कि, वह चौदहवीं बच्ची गौहर बेगम जिसके जन्म के साथ ही अर्जुमंद बानो बेगम उर्फ मुमताज़ महल का इंतकाल हो गया ,अपने वालिद और वालिदा के अमर प्रेम की साक्षी बनकर वहीं कहीं ठहर सी गई । अफ़साने तो यह भी कहे जाते हैं कि,चौदह वर्ष का शहजादा ख़ुर्रम की,जब पहली बार मीना बाज़ार में पंदरह वर्ष की अर्जुमंद बानो पर निगाहें पड़ी , तो वह उस पर दिलो जान से फिदा हो गया था । बाद में वह उसकी तीसरी बेगम के रूप में उसकी शरीके हयात बन गई थी । अनुरोध था माशूका का कि उसके मज़ार पर एक ऐसी यादगार इमारत बनाई जाय, जिससे उनके नहीं रहने पर भी , उनकी मोहब्बत दुनिया में अमर हो जाय ।
ताजमहल के भीतर छत से मुमताज़ की कब्र पर बूंद बूंद पनि सदेव टपकता रहता है । कहा जाता है कि ताज महल की प्रेरणा शाहजहाँ को मांडू के होशंगशाह के सफ़ेद संगमरमर के मजार के स्थापत्यकला से मिली थी ।
मक्का की ओर मुंह करके दोनों प्रेमी यहाँ इस अत्यंत मनोरम ,नक्काशी , कशीदे वाले अटूट प्रेम और निष्ठा के प्रतीक इमारत के , भूतल के इस क़ब्रगाह में आराम फरमा रहे हैं मगर छुप छुप के वहाँ आने जाने वालों की भारी पदचाप सुनकर प्रफुल्लित भी होते रहते हैं । । वैसे इस भव्य और विस्तृत परिसर में शहंशाह की दो अन्य बीबियाँ जो मुमताज़ की अनन्य सहेली थी, का भी कब्र है ।
इतिहास तो यह भी बयां करने में महारत हासिल कर लिया है कि, मकराना ,पंजाब ,चीन ,तिब्बत ,श्री लंका ,अफगानिस्तान ,अरब आदि से ,जहाजों ,नावों पर लदा सामान , हजारों हाथी ,घोड़ों ,गदहों,खच्चरों द्वारा निर्माण स्थल तक लाया गया था ,और पार्श्व का बहता जमुना नदी ,बड़ी दरियादिली से अपना पानी इन प्रस्तरों को पिलाती रही थी । ।
इसे , इस सम्पूर्ण कायनात में सबसे जुदा और सबसे हसीं एवं पाक साफ बनाने वालों के द्वारा ,यहाँ कुरान शरीफ की अनेक बेहतरीन आयतों को दीवारों ,कब्रों पर सुलेख से लिपि बद्ध किया गया है ।
सबसे पहले तो ,इसके दरवाजा ऐ रौज़ा अर्थात विशाल मुख्य दरवाजे पर कैलिग्राफी में अंकित कुरान की पंक्तियों का अँग्रेजी अर्थ है “O soul ,thou art at rest, Return to the Lord at Peace with Him, and He at Peace with you,”. यही पंक्तियाँ सबकी नजरों को बाग बाग कर देती है ।
बादशाहनामा में इसे रौज़ा ए मुनाव्वरा अर्थात अलंकृत अथवा प्रकाशित मकबरा कहा गया है ।
इस चारदीवार से घिरी परिसर में अनेक इमारत ,और मस्जिद ,वज़ू खाना ,मीनारें ,पर्सिअन मुगल शैली के बाग ,बगीचे ,नहर ,फव्वारे ,आदि चित्रित और सुशोभित सी अभी तक मानो अपने कद्रदान बादशाह के हुक्म तामिल करने के लिए खड़ी हैं ।
मुक़द्दर ही कहा जा सकता है कि इसके पूरा होने के बाद ही बादशाह शाहजहां का लायक पुत्र औरंजेब ने उसे बंदी बना कर, जमुना पार , पास के आगरे के किले में कैद कर लिया ।उदास ,भग्नोत्साह वाले दिनों में , अपने कैद खाने में लगे दीवार पर जड़े एक बड़े से हीरे में दुखी बादशाह ताज का दीदार करता रहा था और क्षीण होती काया के साथ ,बूंद बूंद अपनी आँखों से अश्क टपकाता हुआ ,खरामा खरामा ,एक दिन अचानक संसार को अलविदा कह गया ।
कालांतर में ,भरतपुर के जाट शासकों द्वारा इसे काफी क्षति पहुंचाई गई थी । बाद में अँग्रेजी फौजों द्वारा भी इसे काफी नुकसान पहुंचाया गया था ।
लेकिन ,लार्ड कर्जन ने इसमें काफी सुधार भी किया और पूरी दिलचस्पी लेते हुए , इसके रख रखाव पर भी ध्यान दिया था ।
अत्यंत कोमल ,भावुक हृदय कवि रवीद्र नाथ टगोर ने जब इसे देखा तब पता नहीं क्या सोच कर “,like a solitary tear suspended on the cheek of time” कह दिया था , कोई नहीं जानता कि ताजमहल ने अपने अनकही दास्तान से , कौन सा ऐसा दर्द उनसे बयान किया था ।
आधुनिक काल में इसे प्रदूषित जमुना के जल ,मथुरा रिफाईनरी ,एसिड रेन आदि से खतरा है । इसका दुग्ध धवल रंग भय अथवा शर्म वश पीला पड़ता जा रहा है । हालाँकि सरकार अपने स्तर और संसाधन से इसके बचाव के लिए कुछ कदम तो अवश्य उठाती हुई नजर आती है ।
वैसे ,बादशाह इसे काला मार्बल का बनाने का ख़्वाहिश मंद था ,जो पूरी न हो सकी ,क्योंकि बादशाहों की ख्वाहिशें भी कभी कभी अधूरी रह जाती हैं ।
यह अमूल्य ऐतिहासिक विरासत बार बार देखने और दिल में बसा कर रखने की चीज है ।
यहाँ प्रवेश करने के लिए तीन द्वार हैं दक्षिणी द्वार , पश्चिमी द्वार और पूर्वी द्वार । सबसे आलीशान दक्षिणी द्वार ,कहते हैं बादशाह यहीं से प्रवेश करते थे , अमीर उमरा ,सेनापति आदि पश्चमी द्वार से ,और सैनिक ,घोड़े हाथी आदि पूर्वी द्वार से ,यहाँ अस्तबल,हथिसार आदि इसी मार्ग की ओर बना है । ताज महोत्सव इसी पूर्वी द्वार के सामने शिल्प ग्राम में ,उन भांति भांति के कारीगरों को जीवन दान देने के लिए आयोजित होता है ।
वैसे प्रेमी दर्शक इसे बादशाह की निगाहों से देखना पसंद करते हैं। हर मौसम में ,चाहे चिलचिलाती धूप हो या ,चाँदनी रात ,घनघोर बादल हों या धुंवाधार बरसती मेघ , सुबह हो या दोपहर ,शाम ,इसके सौन्दर्य की बात ही क्या ,यह वाकई बेहद हसीन माशूका की तरह दिल की गहराईयों में सदा सदा के लिए समा जाता है ।
प्रेम के पुजारी कवियों शायरों ने भिन्न भिन्न कालावधि में इसको अपनी भावनाओं के रोशनाई में पिरो कर संसार के सामने रख दिया । कुछ के लिए तो यह प्रेम का साक्षात रूप है, उन्हें इसमें अपनेप्रेम के देवता नजर आते हैं,उनके अल्फ़ाज़ “ यार को हमने जाँबाज देखा ,कभी जाहिर कभी छुपा देखा” हृदय की गहराईयों से फूट पड़ते हैं । मगर बहुतों के लिए एक बादशाह का इजहार ए प्यार दावानल की भांति हृदय की सारी भावनाओं को जला डालने वाला भी साबित हुआ । ऐसे महान शायरों में साहिर लुधियानवी साहब प्रमुख थे जो अपनी माशूका से कह उठे थे कि ‘मेरे महबूब कहीं और मिला कर मुझसे’ ,
क्योंकि ,उनकी निगाहों में , अनगिनत लोगों ने दुनिया में मुहब्बत की है
कौन कहता है कि सादिक़ न थे जज़्बे उनके
लेकिन उन के लिए तशहीर का सामान नहीं
क्योंकि वो लोग भी अपनी ही तरह मुफ़लिस थ”’
और गरीब प्यार का प्रदर्शन भला करेगा तो कैसे करेगा । गरीबी का उपहास दौलतमंदों द्वारा सदा होता रहा है । इसलिए “ इक शहंशाह ने बनवा के हंसी ताज महल ,
हम गरीबों की मोहब्बत का उड़ाया है मज़ाक’ ।फिर , इस ताज के साए में मिलना कैसा “ मेरे महबूब कहीं और मिला कर मुझसे’ ।
एक दूसरे अजीज़ शायर कैफी आज़मी ने अपनी भावना को यूं सरे आम व्यक्त किया , “ ये दमकती हुई चौखट ये तिलापोश कलस,
इन्हीं जलवों ने दिया कब्र परस्ती को रिवाज़,
माह ओ अंजुम भी हुए जाते हैं मज़बूर ए सुजूद
वाह! आराम –गह –ए –मालिका-ए माबुद मिज़ाज
दोस्त ! मैं देख चुका ताजमहल
… वापस चल”।
अज्ञेय नेअपनी रहस्यमय चुप्पी के साथ ही कहीं लिख डाला ,
“मुझ में यह सामर्थ्य नहीं है मैं कविता कर पाऊँ
साधन इतने नहीं कि पत्थर के प्रासाद खड़े कर
तेरा ,अपना और प्यार का नाम अमर कर जाऊं”।
भला सुमित्रानंदन पंत कब और कैसे चूकते । अपनी रक्त रंजित जज़्बातों को उजागर करते हुए कहा,
“गत युग के बहु –धर्म –रूढ़ि के ताज मनोहर
मानव के मोहान्ध हृदय में किए हुए घर
भूल गए हम जीवन का संदेश अनश्वर
मृतकों के हैं मृतक ,जीवितों का है ईश्वर”। आदि आदि ।
इसने अपने प्रशस्वी में बहुत से पुष्प पाए हैं तो ,ईर्ष्यावश पत्थर भी खाए हैं ।
ताज को सब मालूम है ,अनेक अनाम कवि ,शायर ,इसके साए में सिमट कर जार जार रोए हैं ,प्यार के जन्नत को अपनी सारी संवेदनाएं समर्पित करते हुए फ़ना हो गए हैं । “जिसने भी उसकी आलोचना की ,दिल ही दिल में उसको सराहा भी है, तन्हाईयों में हजार बार किसी को यहाँ पुकारा भी है। ये रास्ते प्यार के हैं जो रूह तलक जाती है और एक आह ,एक दर्द ,उन कब्रों में सिमट जाती है”।
खैर , सच्चाई तो यही है कि यह ताज महल बड़ा ही प्यारा है।
जितनी बार यहाँ पधारें , इस अमरप्रेम को सलामी देने के लिए यह गीत , कोमल या शुष्क हृदय वाले , सबके होठों पर आने के लिए मचल ही उठता हैं, “ इक शहंशाह ने बनवा के हसीं ताज महल ,
सारी दुनिया को मोहब्बत की निशानी दी है ,
इसके साए में सदा प्यार के चर्चे होंगे ,
ख़त्म जो हो न सकेंगे वो कहानी दी है”।
॥ कामिनी कामायनी ॥
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