प्रविष्टि क्र. 32 चम्पारण्य- जहाँ कृष्ण मार्गी शाखा के प्रणेता ने जन्म लिया उर्मिला शुक्ल छत्तीसगढ़ स्थित चम्पारण्य यॅू तो एक तीर्थ स्थल के र...
प्रविष्टि क्र. 32
चम्पारण्य- जहाँ कृष्ण मार्गी शाखा के प्रणेता ने जन्म लिया
उर्मिला शुक्ल
छत्तीसगढ़ स्थित चम्पारण्य यॅू तो एक तीर्थ स्थल के रूप में ख्यात है। यहाँ स्थित चम्पेश्वर महादेव की बड़ी ख्याति है,मगर यह वैष्णव धमावलंबियों का भी प्रमुख तीर्थ स्थल है। कारण हिंदी साहित्य को कृष्ण भक्ति शाखा का अवदान देने वाले श्री वल्लभाचार्य का इस स्थान से गहरा संबंध रहा है। ये संबंध इतना गहरा है कि अगर चम्पारण का जिक्र न किया जाय तो वल्लभाचार्य की जीवनी ही अधूरी रह जायेगी।
हिंदी साहित्य का भक्ति काल वह काल था,जब भारतीय जनमानस आतताइयों से भयाक्रांत था। उसका आत्मबल टूट सा गया था। ऐसे में उसके भीतर के सोये आत्मविश्वास को जगाने का काम किया भक्त कवियों ने और पूरे देश में भक्ति की एक लहर सी उठ खड़ी हुई थी। इसमें सगुण और निगुर्ण दोनों कवियों का महत्वपूर्ण योगदान रहा हे। दोनों का उदेश्य जनता के आत्मविश्वास को जगाना था। तथ्यात्मक बात तो यह थी कि शंकराचार्य के अद्वैतवाद की कठिनाइयों के कारण आमजन का जुड़ाव सनातन धर्म से नहीं हो पा रहा था। इसलिये वैष्णव धर्म एक आंदोलन के रूप् में सामने आया और राम और कृष्ण इसके आधार बने। यह आंदोलन इतना व्यापक हो गया कि भारत की चारों दिशायें राम और की लीलाओं से गुंजारित हो उठा। इस वैष्णव आंदोलन की बागडोर थामने वाले वल्लभाचार्य की जन्मभूमि है चम्पारण्य। पहले इसका नाम चम्पाझर हुआ करता था। रायपुर से पचास कि.मी.की दूरी पर स्थित ये एक सुरम्य स्थल है। नाम की समानता के कारण कुछ लोग भ्रमवश इसे बिहार स्थित चम्पारण समझ लेते हैं,मगर इसके उच्चारण पर ध्यान दिया जाय तो दोनों के नाम में बहुत अंतर है। बिहार में चम्पारण है और छत्तीसगढ़ में चम्पारण्य। इसमें रण नहीं, अरण्य है। किसी जमाने में यहाँ बहुत घना जंगल हुआ करता था। जंगल तो अभी भी है पर पहले जैसा सघन नहीं है।
मैंने बिहार स्थित चम्पारण की यात्रा भी की है,मगर छत्तीसगढ़ के इस चम्पारण्य की यात्रा तो कई कई बार की है। कारण एक तो ये रायपूर के करीब है; इतने करीब कि आसानी से जाया जा सकता है। दूसरे ये तीर्थ स्थल भी है। शायद यही कारण है कि घर में जब भी जब भी कोई मेहमान आता हम उसे लेकर चम्पारण्य जरूर जाते। पर इस बार की यात्रा कुछ अलग थी। ये यात्रा धार्मिक नहीं साहित्यिक थी। हूआ ये था कि अपने अकादमिक कार्य से कवि दिनेश कुशवाहा जी सपरिवार रायपुर आये थै। उनके पास दिन भर का ही समय था। उनकी इच्छा थी कि उन्हें आसपास के किसी दर्शनीय स्थल की सैर करा दी जाय। छत्तीसगढ़ में दर्शनीय स्थलों की कमी है ही नहीं। जंगलों ,नदियों और पहाड़ों से परिपूर्ण छत्तीसगढ़ अपनी प्राकृतिक सुन्दरता के साथ साथ अपने पुरातात्विक सौंदर्य के लिये भी जाना जाता है। अगर उनके पास अधिक समय होता ,तो यहाँ के पुरातत्व और वन संपदा से भी उनका परिचय कराना उचित होता;मगर समय की कमी के चलते रायपुर के आसपास जाना तय हुआ था और। रायपुर के आसपास जाना हो तो चम्पारण्य से बेहतर भला और क्या हो सकता था।
सुबह लगभग आठ बजे हम चम्पारण्य की ओर रवाना हुये। रायपुर से चम्पारण्य जाने के कई रास्ते हैं; मगर हमने आरंग वाला रास्ता चुना ,जो कुछ लंबा तो जरूर है ;मगर सड़क बहुत अच्छी है। आरंग के पास से चम्पारण्य के लिये जो रास्ता कटता है,वह हरा भरा और रमणीय है। सो यही रास्ता उपयुक्त था। सितंबर का महीना था। धान के हरे भरे खेतों के साथ साथ तालाब भी कमल के फूलों से आच्छादित थे। उन तालाबों के पास से गुजरने का भी अपना अलग ही आनंद था। पुरइन के पत्तों से आच्छादित तालाब में खिले हुये गुलाबी कमल मन को आल्हादित कर रहे थे। राह में ऐसे कई तालाब थे। दरअसल छत्तीसगढ़ की संस्कृति तालाबों सें रची बसी है। इसीलिये इस अंचल में जगह जगह छोटे बड़े अनेक तालाब मिलते हैं।
छत्तीसगढ़ के लोगों ने शायद जल संग्रह के महत्व को बहुत पहले से समझ लिया था। इसीलिये यहाँ बारिश के पानी के संग्रह के लिये तालाब खुदवाये जाते थे। इसीलिये यहाँ गांव से लेकर शहर तक असंख्य तालाब नजर आते हैं। हमारी राजधानी रायपुर में भी छोटे बड़े कई तालाब थे। ;मगर अब आधुनिकता के चलते तालाब खत्म होते जा रहे हैं। मुझे याद है आज जहाँ आमापारा बाजार है मेरे बचपन में वहाँ भी एक तालाब हुआ करता था,जो मौसम में कमल के फूलों से भरा रहता था;मगर आज वहाँ तालाब का नामोनिशान तक नहीं है। तालाब को पाटकर मॉल और बाजार बना दिया गया है। यही हाल यहाँ के मच्छी तालाब का भी है। उसका भी अधिकॉश हिस्सा पट चुका है और भी कई तालाब थे जो पाट दिये गये हैं। परिणामतः आज राजधानी में जल संकट इतना गहरा गया है कि मोहल्लों में पानी के लिये आये दिन मारपीट की होती है। भविष्य में तो और भी बुरी स्थिति होने वाली है;मगर अपनी भौतिक हवस के चलते कोई इस विषय में सोचना ही कहाँ है। गनीमत है कि छत्तीसगढ़ के भीतरी गांव अभी इस भौतिकतावादी सोच के जाल से बाहर हैं। शायद इसीलिये उनके ये तालाब बचे हुये हैं।
हमारी कार खेतों के बीच से गुजर रही थी । मैंने देखा सड़क के दोनों ओर धान के खेत लहलहा रहे थे। कुछ खेतों में तो धान में बालियॉ भी आ गयी थीं। 'धान की कच्ची बालियों से एक दूधिया सी महक आती है। छत्तीसगढ़ के धान की कुछ किस्मों की कच्ची बालियों से भी उसके चावल जैसी महक आती थी;मगर अब वो महक गायब हो चुकी है। रसायनिक खाद के अत्याधिक प्रयोग ने वो खुश्बू ही छीन ली है,वरन छत्तीसगढ़ अंचल तो चावल की बेहतरीन किस्मों के लिये ही विख्यात रहा है। यहाँ होने वाले विष्नुभोग ,दुबराज ,जवाफूल में इतनी खुश्बू आती थी कि इसके खेत दूर से ही अपनी उपस्थिति जता दिया करते थे। और चावल?उसकी तो बात ही और थी। मोहल्ले में किसी एक घर में दुबराज का भात पकता तो उसकी खुश्बू आस पास के सभी घरों में समा जाती थी;मगर अब?अब तो इनका बस नाम ही रह गया है। खुश्बू से अब इनका कोई रिश्ता नहीे रहा। इसमें गलती धान के इन पौधों की तो कतई नहीं है। फिर? 'मैं अपनी इन्हीं सोचों में घिरी हुई थी कि ''आपके यहाँ के चावल तो अपनी खुश्बू और स्वाद के लिये दूर दूर तक मशहूर हैं। '' कुशवाहा जी ने कहा ,तो भाभी जी ने भी हामी भरते हुये कहा ''हाँ ये तो हमने भी सुना है। अब आये हैं तो एक दो किलो चावल तो ले ही जायेंगे। ''
''हाँ!हाँ क्यों नहीं। ''कहने को तो मैंने कह दिया था ,मगर 'क्या इन्हें अच्छा चावल मिल पायेगा?या फिर?। 'सोचते हुये मैंने अपने वाहन चालक से पूछा-'' मनराखन !क्या किसी दुकान पर नगरी का दुबराज मिल पायेगा?''
''पता नहीं मैडम। पता करना पड़ेगा। गोल बाजार में शायद मिल जाये । '' उसने कहा तो कुछ आस बॅधी थी। 'जंगल और पहाड़ से घिरे नगरी क्षेत्र ने आज भी दुबराज की गुणवत्ता बरकरार रखी है। धान का कटोरा कहे जाने वाले इस छत्तीसगढ़ की नाक तो बचेगी। वरना...? 'इन्हीं सोचों के बीच चम्पारण्य आ गया था। चम्पारण्य ! श्री वल्लभाचार्य की जन्मभूमि के अतिरिक्त चम्पारण्य में चम्पेश्वर महादेव का मंदिर भी है ,जो इस क्षेत्र बहुत विख्यात है। दरअसल प्राचीन छत्तीसगढ़ में शैव और शाक्त मतों का बोलबाला था। यही कारण है कि यहाँ शिव और देवी आराधना का विशेष महत्व रहा है। छत्तीसगढ़ स्थित रतनपुर का शक्तिपीठ ,डोंगरगढ़ में बमलेश्वरी का मंदिर और बस्तर राजघराने की कुलदेवी दंतेश्वरी की ख्याति आज भी इस बात की प्रमाण हैं। जहाँ तक शैव मत की बात है,तो इस अंचल के अधिकांश आदिवासी समुदाय भी शिव को ही अपना इष्ट मानते हैं और उन्हें बूढ़ादेव की संज्ञा देते हैं। रायपुर स्थित बूढेश्वर महादेव,खरौद के लक्ष्मणेश्वर महादेव और चम्पारण्य के चम्पेश्वर महादेव इसका प्रमाण हैं।
चम्पारण्य अपने नाम के मुताबिक अरण्य ही प्रतीत होता है। मंदिर के प्रवेश द्वार से लेकर श्री वल्लभाचार्य के जन्म स्थल तक पूरा मार्ग सघन पेडों और लता गुल्मों से आच्छादित है। भारत के हर मंदिर की तरह यहाँ भी राह में प्रसाद बंचने वालों की एक लम्बी कतार मिलती है और इसके साथ ही मिलते हैं असंख्य बंदर। छोटे बड़े बंदरों का पूरा का पूरा हुजूम ही वहाँ बसता है। मंदिर जाने वाले लोग उन्हें श्रद्धा से फल खिलाते हैं ;मगर कुछ दादा किस्म के बंदर हैं ,जो किसी के देने का इंतजार ही नहीं करते। वे राह चलते लोगों के हाथों से प्रसाद और कई बार तो उनका सामान तक छीन लेते हैं। इतना ही नहीं उन्हें डराते भी हैं। सो उन बंदरों से बचते बचाते हम मंदिर परिसर में दाखिल हुये यॅू तो ये मंदिर भी भारत के अन्य मंदिरों की तरह ही है;चॅूकि वल्लभाचार्य का संबंध कृष्ण से रहा है ,इसलिये यहाँ कृष्ण जन्म से लेकर उनकी रासलीला तक की संपूर्ण झॉकियॉ दीवारों पर अंकित हैं। मगर इसमें एक खासियत है, जो इसे अन्य मंदिरों से अलगाती है । वो यह है कि ये सघन पेड़ों के बीच स्थित है और ये पेड़ मंदिर बनने के बाद नहीं लगाये गये हैं;इन्हें बचाते हुये मंदिर बनाया गया है। यानि पेड़ों को काटे बगैर ही इस मंदिर को बनाया गया है और उन्हें इस तरह बचाते हुये छत ढ़ाली गयी है कि पेड़ों के तने स्तंभ की तरह नजर आते हैं। इसके कारण मंदिर परिसर में शीतलता भी बनी रहती है। इस तरह ये मंदिर एक उदाहरण प्रस्तुत करता है कि पेड़ों को काटे बगैर भी निर्माण किया जा सकता है। मंदिर तक पहुँचते पहुँचते बारह बज गये थे। ये भगवान के सोने का समय सो मंदिर का द्वार बंद हो चुका था। पूछने पर लोगों ने बताया कि अब मंदिर के पट चार बजे ही खुलेंगे। इसी परिसर में चम्पेश्वर महादेव का मंदिर भी है,जो अपने पुरातात्विक महत्व के लिये भी विख्यात है। हमें समय का सदुपयोग करना था। सो हम चम्पेश्वर महादेव की ओर बढ़ चले थे।
प्रसिद्ध स्थानों, खासकर देव स्थानों से कुछ कथायें जुड़ी होती हैं। चम्पारण्य स्थित चम्पेश्वर महादेव से जुड़ी एक रोचक कथा सुनने को मिलती है। जिसे यहाँ के पुजारी सभी आने जाने वालों को सुनाया करते हैं;मगर सामान्य दिनों में। पर्व के समय में तो उन्हें प्रसाद चढ़ाने तक की फुर्सत ही नहीं मिलती है। उस समय तो प्रसाद भी मंदिर के बाहर ही रखवा दिया जाता है। अभी पर्व का समय नहीं था। सो पुजारी हमें चम्पेश्वर महादेव की कथा सुना रहे थे। मैंने वो कथा पहले भी कई बार सुनी थी। उन्होंने हमें बताया कि चम्पेश्वर महादेव का ये मंदिर स्वयं भू है। अर्थात इसे किसी के द्वारा स्थापित नहीं किया गया, एक शिवलिंग यहाँ स्वयं ही प्रकट हुआ है। वे तन्मय होकर हमें उसकी कथा सुना रहे थे-''लगभग आठ सौ वर्ष पूर्व की बात है,तब ये चम्पारण्य सघन वनों से आच्छादित था। इस जंगल में एक ग्वाला गायें चराने आता था। चूंकि जंगल बहुत घना था ;इसलिये अपनी गायों को जंगल के बाहर ही चराता था;मगर उसकी एक गाय आते ही दौड़कर जंगल के भीतर चली जाती थी और तब वो बाहर आती तो उसके थन का सारा दूध निचुड़ा हुआ होता था। ग्वाले को शंका हुई कि जंगल के भीतर जरूर कोई है,जो उसकी गाय का सारा दूध चुरा लेता है। उसे रंगे हाथों पकड़ना चाहिये । ये सोचकर एक दिन वो गाय के पीछे पीछे जंगल के भीतर गया। वहाँ जाकर उसने जो कुछ देखा,उसे देखकर वो चकित ही रह गया था। उसने देखा कि उसकी गाय के थन का सारा दूध अपने आप ही एक पत्थर गिरता जा रहा है। यह देखकर जिज्ञाशावश वो और पास गया ,तो उसने देखा कि वह एक अद्भुत शिवलिंग था। अदभुत इस मायने में कि उस पर एक साथ महादेव का पूरा परिवार ही अवस्थित था। यानि उस पर पार्वती और गणेश की छवि भी बनी हुई थी। उसने इसकी सूचना गांव वालों को दी। गांव वालों ने आकर देखा ,तो इस अद्भुत शिवलिंग को पाकर उन्हें अपार प्रसन्नता हुई। सबने मिलकर झाड़ियों की सफाई की और शिवलिंग को हटाये बिना उसी जगह पर ये मंदिर बनाया। ये मंदिर सावन में होने वाली छत्तीसगढ़ की पंचकोसी यात्रा का एक पड़ाव भी है।
पुजारी ने हमें ये भी बताया कि इस मंदिर से लगा हुआ जो जंगल है ,वो भी बहुत अदभुत है। वो बहूत से मायने में साधारण जंगल से एकदम ही अलग है। '' जंगल तो जंगल ही है। फिर उसमें भला ऐसी कौन सी खास बात है?''मैंने पूछा तो उसने उस जंगल की कई विशेषतायें गिनायीं और साथ ही ये भी बताया कि उस जंगल में मधुमक्खियों की बहुतायत है,तो अन्यत्र नहीं मिलता हैं। चम्पेश्वर महादेव मंदिर से हम जंगल की ओर चल पड़े। मंदिर परिसर के भीतर से ही जंगल में प्रवेश का रास्ता था। पेड़ों की सधनता के साथ ही सघन झाड़ियॉ भी थीं इसलिये वो बहुत ही सघन नजर आ रहा था। सितंबर का महीना था मगर बारिश अभी भी खत्म नहीं हुई थी । इसलिये जंगल के भीतर जाने वाला रास्ता कीचड़ से भरा था। इसलिये जंगल के भीतर जाना संभव नहीं हुआ। हमें चार बजे तक का समय तो बिताना ही था। सो हम मंदिर के पिछवाड़े की ओर बढ़ चले थे। मंदिर के पिछवाड़े भी घना जंगल है;मगर झाड़ियॉ नहीं है और पक्का रास्ता होने के कारण कीचड़ भी नहीं था। सो वहाँ तक पहुँचना आसान था। मंदिर के पीछे से होकर एक छोटी सी नहर जैसी नदी भी बहती है,जिसे यहाँ यमुना कहा जाता है। उस पर छोटा सा बहुत खूबसूरत सा पुल भी बनाया गया है। उस नदी के पार भी झाड़ियों वाला सघन जंगल है। चम्पारण्य से होकर महानदी भी गुजरती है। महानदी छत्तीसगढ़ की बड़ी नदी है;जिसका उद्गम यहाँ के सिहावा पहाड़ से हुआ है और ये उड़ीसा के पारादीप के पास बंगाल की खाड़ी में मिलती है। चित्रोत्पला कहलाने वाली इस महानदी के तट पर छत्तीसगढ़ का महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल राजिम स्थित है,जहाँ इसमें पैरी और सोढूर नामक दो नदियों का संगम है।
हमने यमुना कहलाने वाली उस नदी के तट पर बैठकर भोजन किया फिर कृष्ण पर रचे साहित्य के साथ ही हिन्दी साहित्य में कृष्ण मार्गी शाखा के प्रवर्तक श्री वल्लभाचार्य के अवदानों पर भी बातें कीं। वल्लभाचार्य उच्च कोटि के ऐसे विद्वान आचार्य रहे हैं,जिन्होंने शंकराचार्य के निर्गुण ब्रहम को उलटकर सगुण की उपासना पर बल दिया। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के मतानुसार उन्होंने पूर्व मीमांसा भास्य,उत्तर मीमांसा भास्य,श्रीमदभागवत की सुक्ष्म टीका,सुबोधनी टीका ,तत्वदीप निबंध तथा अनेक प्रकरण ग्रंथों की रचना की । अणुभास्य नाम का उनका एक ग्रंथ अधूरा रह गया था ,जिसे बाद में उनके पुत्र बिट्ठल नाथ ने पूरा किया। सूरदास को अपना शिष्य बनाकर उन्हें पुष्टि मार्ग में दीक्षित करने वाले वल्लभाचार्य के अवदानों पर बात करते हुये समय का पता ही नही चला। मंदिर खुलने का समय हो चुका था। सो हम सब मंदिर की ओर रवाना हुये।
चम्पारण्य स्थित श्री वल्लभाचार्य का य भव्य मंदिर महाप्रभु वल्लभाचार्य का प्रकाट्य सथल कहलाता है। इसके भीतरी भाग के गलियारों में मूर्तियों के द्वारा कृष्ण जन्म और क्ष्ण की रासलीला की झॉकियॉ दर्शायी गई हैं। दीवारों पर भी चित्र रूप में कृष्ण के जीवन प्रसंगों को उकेरा गया है। साथ ही भागवत में उल्लिखित कई कथाओं की चित्रात्मक झॉकी भी रची गयी है। वललभाचार्य! रामानंद ,कबीर और तुकाराम के समकालीन माने जाते हैं। सूरदास को कृष्ण मार्गी शाखा से जोड़ने का श्रेय वल्लभाचार्य को ही जाता है। चम्पारण्य में इनके जन्म के विषय में मिलने वाली कथा के अनुसार दक्षिण भारत के कृष्णा नदी के तट पर स्तभाद्री के निकट कुंभकार का जन्म हुआ था। कालांतर में वे काकखंड में जाकर बस गये और वहीं से तीर्थयात्रा के लिये सपरिवार काशी पहॅुचे मगर मुस्लिम आक्रमणकारियों के भय के कारण वे बहुत दिनों तक वहाँ रह नहीं पाये ओर अपने मूल स्थान की ओर लौट रहे थे । रास्ते में वे राजिम के निकट इसी चम्पाझर में चम्पेश्वर महादेव के दर्शन के लिये रूक गये थे। संवत 1535 बैशाख कृष्ण पक्ष की एकादशी को यहीं उनकी पत्नी वल्लभागारू ने एक बालक को जन्म दिया था। कहते हैं कि जन्म के समय वो बालक बहुत कमजोर था। वो इतना कमजोर था कि उसके बचने की उम्मीद ही नहीं थी। ?,इसलिये वे उसे वहीं छोड़कर आगे बढ़ गये थे मगर मन नहीं माना तो दूसरे दिन फिर उसी जगह पर लौट कर देखा ,तो बालक जीवित था। इसी बालक ने आगे चलकर वल्लभाचार्य के नाम से ख्याति प्राप्त की और द्वैत मत का समर्थन करते हुये पुष्टि मार्ग की स्थापना की और अष्टछाप के रूप में। हिन्दी जगत को सूरदास जैसा कवि दिया।
चम्पारण्य में वल्लभाचार्य जी भगवान के रूप में पूजे जाते हैं। इसलिये उनके जन्म दिवस को यहाँ बहुत बड़े पर्व के रूप में मनाया जाता है। जब किसी को देव रूप में स्वीकार कर लिया जाता है ,तब उसके साथ बहुत सी चमत्कारी कथायें जुड़ जाती हैं। कबीर के जन्म और उनकी मृत्यु से जुड़ी कई चमत्कारी कथायें है। वल्लभाचार्य के भी विषय में भी ऐसी कथायें मिलती हैं। कहा जाता है कि जब उनके बचने की कोई उम्मीद नहीं थी ,तब एक शमी वृक्ष की कोटर में उन्हें छोड़कर उनके माता पिता अपने पैतृक स्थान की ओर बढ़ चले थे; मगर अपनी ममता से विवश होकर वे दो दिन बाद ही लौट आये थे। वे जब वापस लौटे तो उन्होंने देखा कि साक्षात अग्निदेव बालक की रक्षा कर रहे थे।
वल्लभाचार्य जी देवपुरूष हों या न हों एक महामानव तो अवश्य रहे होंगे;जिन्होंने विपरीत परिस्थितियों में समाज को संबल दिया। उन्होंने पूरे देश की पैदल यात्रायें कीं और लोगों को अपने ज्ञान से लाभान्वित किया। उनकी इन यात्राओं के पड़ावों को बैठक कहा जाता है। देशभर में उनकी चौरासी बैठकें हैं जिनमें से चम्पारण्य में उनकी दो बैठकें हैं। एक उनके जन्म स्थल शमी पेड़ के नीचे;दूसरी घटी पूजन के स्थान पर। मंदिर परिसर में घूमते हुये हम देर तक हिन्दी साहित्य की कृष्ण काव्य धारा में अवगाहन करते रहे। इस मंदिर का वातावरण इतना सौम्य और शांत है कि वहाँ से आने का मन ही नहीं होता है,मगर लौटना तो होता ही है। हर यात्रा ही नियति लौटना है। सो शाम ढलते ढलते हम भी लौट चले थे।
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A -21
स्टील सिटी
रायपुर छत्तीसगढ़
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