प्रविष्टि क्र. 29 संस्मरणात्मक कहानी : प्रतिदान डॉ ०एस०आर०यादव'कुसुमाकर' प्रकृति का विधान बड़ा विचित्र है। परम सौन्दर्य का आकर गुल...
प्रविष्टि क्र. 29
संस्मरणात्मक कहानी : प्रतिदान
डॉ ०एस०आर०यादव'कुसुमाकर'
प्रकृति का विधान बड़ा विचित्र है। परम सौन्दर्य का आकर गुलाब कण्टकाकीर्ण डालों पर खिलता है। अपना ख्याल न करके दूसरों को सुरभि प्रदान करना ही उसका कार्य है। यही दशा परोपकारीजनों की है। वे स्वयं दिक्कतें झेल लेते हैं पर दूसरों पर आँच नहीं आने देते। दीनानाथ भी एक ऐसे ही व्यक्ति थे। वे अपने हिताहित की चिन्ता किये बिना ही जरूरतमन्द लोगों की प्राणपण से सहायता किया करते थे। इससे उन्हें बड़ी आत्मतुष्टि प्राप्त होती थी। परन्तु एक बात जो उन्हें सदैव दुःख देती थी , वह थी - - सन्तान हीनता। सन्तान प्राप्ति के लिए उन्होंने अथक प्रयास किया । मनौतियों मानी ; व्रत-उपवास रखा , कथा वार्ता में भी कम खर्च नहीं किये, पर सब प्रयास निष्फल रहा। विवाह हुये पन्द्रह वर्ष व्यतीत हो गये , पर उनकी पत्नी की कोख अब तक सूनी ही रही। वे निराश हो चुके थे-अपने जीवन से।उनके एक बाल्यसखा थे - चौ० हिम्मत सिंह। उनकी मैत्री अति प्रगाढ़ थी। यदि यह कहें कि उन दो शरीरों में एक ही प्राण का निवास था , तो अत्युक्ति न होगी। जो भी पर्व-त्यौहार पड़ता वे प्रायः एक साथ ही मनाते थे। उन्हीं से थोड़ा साहस पाकर दीनानाथ किसी तरह जी रहे थे। पर इधर कुछ दिनों से वे घुटन- सी महसूस कर रहे थे। इस दुनिया में अब क्षणभर भी रहना उन्हें गवारा न था। अपनी दुरवस्था से तंग आकर वे आत्महत्या करने पर उतारू हो गये थे। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये जंगल से कोई जड़ी ढूँढ़ लाये थे। उसे खाकर वे चैन की नींद सो सकेंगे , यह सोचकर कुछ प्रसन्नता भी हुई उन्हें। पर अभी उनका फर्ज पुकार रहा था। वे अपने महाप्रयाण से पूर्व अपने मित्र को पार्टी दे देना चाहते थे। इसी उद्देश्य से उन्होंने नागपंचमी का दिन निश्चित किया था। चौ०हिम्मत सिंह ने दीनानाथ के घर दस बजे आने का वायदा किया था, पर दो बज चुकने पर भी जब वे न आये तो दीनानाथ चिन्तित हो उठे। वे भागते हुये हिम्मत सिंह के घर गये। वहाँ जो कुछ देखा , उससे वे स्तब्ध रह गये। हिम्मत सिंह के चार वर्षीय पुत्र प्रकाश को सर्प ने डँस लिया है , जिसके कारण उसका शरीर नीला पड़ गया है।
लोग अन्तिम संस्कार की तैयारी कर रहे हैं। हिम्मत सिंह और उनके पारिवारिक लोग अस्त-व्यस्त पड़े रो रहे हैं। दीनानाथ ने मन ही मन शिव जी का स्मरण किया। उनकी आँखें भी आर्द्र हो चुकी थीं। उनको एक दैवी आवाज सुनाई पड़ी- ' देख क्या रहे हो? तुम एक पुत्र की प्राप्ति के लिए तरस रहे हो; यह देखो एक पुत्र पिता से बिछुड़ रहा है। यदि तुम चाहो तो पकड़ लो, रोक लो। तुम्हारे पास वह शक्ति है जो जिन्दे को मुर्दा और मुर्दे को जिन्दा कर सकती है। उठो, अपना फर्ज पूरा करो। एक मित्र के लिए तुम क्या कर सकते हो? आज दिखा दो - . --- . -- - - - - | '
फिर क्या था ! वे झटपट आगे आये। बालक के संज्ञाहीन शरीर पर हाथ रख कर देखा। मस्तक थोड़ा गर्म था। शेष शरीर ठंडा था। उन्होंने अपनी पाकेट से वही जड़ी निकाली।
पत्थर पर घिसा ,थोड़ा सर्पदंश की जगह पर लगाया ,शेष बच्चे को पिला दिया।
निसर्ग की लीला कब क्या हो जायगी , कौन जाने? जो जड़ी आत्महत्या के उद्देश्य से लाये थे , वही प्राण रक्षा के काम आयी--------!
लोगों की आँखों से निकल रहे आँसू गालों पर आकर थम गये। सभी आश्चर्य से आँखें फाड़ -फाड़कर देख रहे थे। कोई घण्टे भर बाद उसके शरीर की गर्मी वापस आयी' एक विष ने दूसरे विष को समाप्त कर दिया। थोड़ी ही देर में प्रकाश ने अँगड़ाई ली। हिम्मत सिंह दीनानाथ के गले लग कर रो रहे थे। उन्होंने कहा-'मेरे प्यारे मित्र ! तुम धन्य हो; आज तुमने मेरे प्रकाश को प्राणदान दिया है, आजीवन ऋणी रहूँगा।'
'मित्र पागल न बनो , सब कुछ ईश्वर करता है l ,
'ईश्वर ने तो मेरे जीवन में अन्धकार भर दिया था , तुमने ही मुझे प्रकाश वापस दिलाया ।,यमराज से छीनकर मेरी गोद में रख दिया प्रकाश को।
अपने आप को चौधरी हिम्मत सिंह के बाहुपाश से मुक्त करते हुये दीनानाथ ने कहा-'मुझ में यह शक्ति कहाँ.? यदि ऐसी सामर्थ्य मुझ में होती तो क्या मैं ही सन्तान की एक किलकारी सुनने के लिए तरसता रहता ..।'इतना कहते कहते दीनानाथ की आँखों से अश्रु छ्लछला पड़े।
मित्र ! दुःखीमत हो, मेरा प्रकाश तुम्हारा ही बेटा है।" दीनानाथ मौन थे, पर चौधरी हिम्मत सिंह बोले जा रहे थे। - ''मित्र ! निश्चिन्त रहो। यदि तुम्हारे घर कोई बच्चा नहीं पैदा होता तो एक पुत्र मैं तुम्हें गोद दे दूँगा।' यह उनकी दृढ़ मैत्री का प्रतीक था। समय बीतता गया। कुछ ही दिनों बाद दीनानाथ की पत्नी के पैर भारी हुये। यह सुसमाचार पाकर हिम्मत सिंह की खुशी का ठिकाना न रहा। उन्होंने दीनानाथ का हाथ अपने हाथों में लेकर कहा-'दीनानाथ! तुमने जो एहसान किया है ,उसका बदला चुकाने की सामर्थ्य मुझ में नहीं है, परमात्मा से यही विनय है कि वह हर व्यक्ति को तुझ जैसा दोस्त दे।''
''क्यों लज्जित करते हो मित्र ! मुझ तुच्छ की प्रशंसा करके।''
'इसमें लज्जित करने की क्या बात है , वास्तविकता तो कहनी ही पड़ती है।''
'ईश्वर का धन्यवाद करो , मुझ में क्या शक्ति है? जो कुछ कर सकूँ?'
ईश्वर की सत्ता भी तभी तक स्वीकार की जायगी ,जब तक तुम्हारे जैसे लोग इस धरती पर रहेंगे।" इधर-उधर की अनेक बातें होती रहीं। अन्त में हिम्मत सिंह ने पूछ ही तो लिया - "अच्छा दीनाभाई मुँह कब मीठा करा रहे हो? ।''
''भैया! पहले प्रभु मुझे इस योग्य करे तब तो s. ऽ ऽ - . -- - - ।'' और उनकी आँखें नम हो उठीं'।
हिम्मत ने ढाँढ़स बँधाया और अपने वायदे को पुनः दोहराया - - - 'मित्र तुम मेरे गाढ़े दिनों में काम आये हो , मैं सदैव तुम्हारा साथ दूँगा। यदि पुत्र पैदा होता है तो गोद लेने की आवश्यकता नहीं। यदि पुत्री पैदा होती है तो एक पुत्र मैं तुम्हें दे दूँगा, तुम्हें वर ढूँढ़ने की फिक्र नहीं करनी होगी। गाँठ बाँधलो , चन्द्र-सूरज टल
सकते हैं पर हिम्मत का वचन नहीं टल सकता।'
'मुझे पूरा - पूरा विश्वास है।' दीनानाथ ने कहा और उनका रोम-रोम पुलकित हो उठा। दीनानाथ ने मन ही मन सोचा-'मुझे कितना दरियादिल मित्र मिला है ,अब मुझे किस बात की तकलीफ है। समय चक्र आगे बढ़ता गया। विवाह के सोलहवें वर्ष दीनानाथ के नीरव आँगन को किलकारियों से गुँजायमान करती हुई , उनके तमसावृत हृदयाकाश को ज्योति पुञ्ज से भरती हुई ,पूर्णिमा के चन्द्र सदृश प्रकाशमान, कमल-कली सी एक पुत्री पैदा हुई। उसका नाम रखा गया - पूर्णिमा ।' होनहार बिरवान के होत चीकने पात' पूर्णिमा जन्म के समय ही एक वर्ष के बच्चे के समान थी। हिम्मत ने जब बच्ची को शुभ गुणों से युक्त देखा तो मित्रता की भित्त्ति पर एक और ईंट रखने का प्रयास किया। उन्होंने दीनानाथ से कहा- 'मित्र मैं पूर्णिमा को अपनी पुत्र बँधूँ बनाने को तैयार हूँ पर तुम्हें विवाह से पूर्व उसे इण्टर तक पढ़ाना होगा।
दीनानाथ हिम्मत सिंह का आश्वासन पाकर बहुत खुश हुये। उनकी सारी खुशी पूर्णिमा ही थी।
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तिनके का सहारा भी डूबते हुये व्यक्ति के लिए काफी होता है। दीनानाथ अपनी जिन्दगी से ऊब कर आत्महत्या करने की ठान चुके थे, पर हिम्मत सिंह ने जब थोड़ा हौसला बढ़ाया तथा बच्ची ने इनके घर जन्म लिया , इन्होंने अपना इरादा बदल दिया। अब उनका मन एक बार फिर उत्साह युक्त हो गया था। वे अब तक के सभी दुःख -दर्द भूल नये सिरे से जीवन यापन करने लगे।
समय के साथ-साथ बच्ची बढ़ने लगी। उसके पढ़ने -लिखने की व्यवस्था हुई। वह पढ़ने में बड़ी तेज थी उसे जो एक बार पढ़ा दिया जाता , वह भूलती ही न थी। विद्यालय में सभी उसकी प्रतिभा से प्रभावित हुये। अध्यापक - अध्यापिकायें सभी उसका बड़ा ख्याल रखते थे। पढ़ने -लिखने में वह सदैव सावधान रहती थी। पाँचवें दर्जे में वह सर्वप्रथम आयी। अब उसका प्रवेश अन्य विद्यालय में हुआ। उसे नया विद्यालय पहले दिन अच्छा न लगा। वह कक्षा में सबसे आगे बैठी हुई थी। जब उसने पीछे मुड़कर देखा तो उसकी दृष्टि सबसे पीछे बैठी हुई एक बालिका पर पड़ी। देखने में वह कक्षा की सभी बालिकाओं में सबसे बड़ी दिखायी पड़ती थी। पूरे विद्यालय में सबसे खूबसूरत व सीधी भी वही बालिका थी। उसने भी इस विद्यालय में जल्द ही प्रवेश लिया था। उसका चेहरा काफी उदास था। वह बहुत दुःखी दिखायी पड़ रही थी। उस समय उसका ध्यान पुस्तक में लगा हुआ था, उसे इस बात का पता भी न था कि कोई बालिका उसे निहार रही है। तभी कक्षा में एक अध्यापिका प्रविष्ट हुईं। उपस्थिति लेने के . बाद वे बोलीं- 'बच्चों आज अध्यापन कार्य तो होगा नहीं. चुप बैठे रहने से अच्छा है कुछ सुना -सुनाया जाय , ठीक है न?'
'ठीक है मेम !' सभी बच्चों ने एक स्वर में कहा।
'कोई आये और कहानी , कविता ,चुटकुला कुछ सुनाये। '
'इस बार सभी चुप थे। '
अध्यापिका पुनः बोलीं- 'तुम लोगों में से किसी को कुछ नहीं आता।'
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सभी को खामोश देखकर अध्यापिका ने रीता
नाम की एक लड़की को बुलाया और उसे गीत सुनाने को कहा। उसने दर्द से भरा गीत-' पास आये खुशी के मिली वेदना' सुनाया। इसके बाद अन्य कई बालक बालिकाओं ने गीत,गजल, चुटकुले आदि सुनाये। अन्त में पूर्णिमा सहमती हुई खड़ी हुई ।वातावरण से अपरिचित होने के कारण वह कुछ झिझक व शर्मा रही थी। साहस बटोर कर उसने कहा-'मैं स्वरचित गीत सुनाने जा रही हूँ जो त्रुटि हो उस पर ध्यान न दीजियेगा।
इस पर अध्यापिका अति प्रसन्न हो बोलीं- 'तब तो हम लोग अवश्य सुनेंगे , आओ मेरे पास और खड़ी होकर सुनाओ ।'
पूर्णिमा अध्यापिका के सन्निकट, मेज से सट कर गम्भीर मुद्रा में करुण गीत सुनाने लगी-
सृष्टि की सगाई रची हाय क्यूँ मरण से।
चुनरीकी बाँध दी गाँठ क्यूँ कफन से। I
शूलों पर सेज बिछा दो पल को सोई ,
पीड़ा दे नींद की गलबाहीं रोई,
भेज दिया काहे को दिन का कोलाहल ,
छीन लिया छिन भर का चैन भी सपन से
चुनरी की बाँध दी गाँठ क्यूँ कफन से।
तितली के पंख नोचे काँटों ने गुलाब के ,
जाम छीने पतझर ने बाग से शराब के ,
साँझ को मेंहदी रची , माथे पे रोली,
छीन लिये प्रात को सिंगार सब दुल्हन के
चुनरी की बाँध दी गाँठ क्यूँ कफन से।
दिवाली के आँगन में ,फूँक दी क्यों होली ,
माथे पे मुकुट दिया , हाथों में झोली ,
सूरज की जायी और धरती पे खेली ,
डाल ली अँधेरे ने भाँवरें किरन से ,
चुनरी की बाँध दी गाँठ क्यूँ कफन से।
सृष्टि की सगाई रची, हाय क्यूँ मरण से।
पूर्णिमा गीत सुनाकर बैठ गयी। सभी उसके गीत की प्रशंसा कर रहे थे। तभी घंटी बजी। दूसरी अध्यापिका आयीं। बच्चों को मैदान में जाकर खेलने को कहकर स्टाफ रूम की ओर चल पड़ीं। बच्चे खेलने चले गये। पूर्णिमा अपनी जगह बैठी ही रह गयी। उसने पीछे मुड़कर देखा
तो वह लड़की भी खेलने नहीं गयी थी। उसका ध्यान पुस्तक के खुले पृष्ठों पर केन्द्रित था,पूर्णिमा ने उसे बड़े ध्यान से देखा। वह भी उसी की भाँति गम्भीर थी। उसके मुखमण्डल पर नैराश्यमय पीलापन छाया हुआ था। उसके नेत्रों में चिन्ता का सागर लहरा रहा था। उसके कल्पना -उद्यान के सुकोमल पौधे भय रूपी वायु के अतितप्त थपेड़ों से झुलस चुके थे।
पूर्णिमा की उससे बोलने की इच्छा हुई। वह उसके पास पहुँच गयी। पूर्णिमा को देखकर वह मुस्करा पड़ी और पुस्तक बन्द कर उसे अपने पास बिठाया। पूर्णिमा ने बैठते हुये पूछा- 'आपका शुभ नाम दीदी' ?''
'मुझे मधुमती कहते हैं 'उसका उत्तर था।
'आपका नाम तो बड़ा ही प्यारा है। नाम -सा व्यवहार भी ;मेरा नाम तो आपको ज्ञात हो ही गया होगा। '
'हाँ, क्यों नहीं ? कवयित्री जी का नाम भला कौन नहीं जानेगा।'
पूर्णिमा बात बदलती हुई बोली- "मधूदीदी यह तो बताइये आप खेलने क्यों नहीं गयीं?'
मधुमती ने उत्तर दिया - 'खेलने की अवस्था तुम लोगों की है, मेरी नहीं। फिर मेरा मन भी खेलकूद में नहीं लगता।' तुम भी तो खेलने नहीं गयी।'
'बस, मेरा भी आप जैसा ही हाल है।'
'तुम्हारा मन तो गीत लिखने में लगता होगा। उससे फुर्सत मिले तब न ? है न ठीक ? '
'आप जो भी समझें, ठीक है।'
'पूर्णिमा तू कितना अच्छा गीत लिखती है, क्या मुझे भी लिखना सिखा दोगी ?'
'मैंने गीत लिखना सीखा तो है नहीं , और फिर मुझे आता ही कहाँ है, जो सिखा दूँ।'
, 'कितनी भोली है तू भी। शायद बहिन जी से झूठ बोली थी।'
'वह तो मैं यूँ ही बिना मतलब के लिख गयी थी। जाने कैसे बन गया था। '
'तुम्हारे लिये तो बिना मतलब का है, पर दूसरों के लिए अनेक मतलब रखता है।'
'पूर्णिमा मुस्करा कर शान्त हो गयी। उसे मधुमती का स्वभाव बड़ा मधुर लगा।
मधू के मन में भी पूर्णिमा बस गयी । वह उसे बड़ी बहिन का प्यार देने को तड़प उठी।'
यद्यपि वह उसके समक्ष मुस्कराने का बहुत प्रयास करती, पर उसके मुखमण्डल पर छायी उदासी ने यह बतला ही दिया कि वह दुःखी है । पूर्णिमा के पूछने पर उसने अपना सारा दुःखड़ा कह सुनाया। माँ का स्वर्गवास, विमाता का आगमन, उसका कटु व्यवहार---------- पूरा वृत्तान्त सुनाते -सुनाते उसका चेहरा और उदास हो गया। नैनो में सावन - भादों छा गया।
पास बैठी पूर्णिमा उसकी करुण कहानी सुनकर उसके दर्द में डूब सी गयी। मधुमती के अश्रुपूरित नेत्रों को देखकर वह भी रो पड़ी।
मधू ने अपने तथा उसके आँसू पोंछते हुये कहा-'पूर्णिमा तू रो रही है पगली कहीं की ;
मैं दुःखी अवश्य हूँ पर तुम जैसी नन्ही- मुन्नी बहिन, जिसके लिए आँखें तरसती रहीं, पाकर मैं बहुत प्रसन्न हूँ। मेरी प्यारी बहिन पूनों! जरा मुस्करा दो; मुस्करा दो ना । जा रोयेगी तो मैं तुमसे नहीं बोलूँगी।' पूर्णिमा शान्त्त हुई। उसने भी अपने विषय में बहुत कुछ मधू को बतलाया।
एक क्षण की मुलाकात में ही दोनों इतना घुलमिल गयीं , मानो वर्षों का परिचय हो। छुट्टी होने पर सब अपने-अपने घर गयीं।
धीरे - धीरे दोनों एक दूसरे के - अति निकट आ गयीं और बराबर मिलती रहीं। वर्षों का समय एक क्षण - सा बीत गया। पर दुर्दैव की बिडम्बना! मिलन के साथ ही बिछोह भी आया। यद्यपि मधू पूर्णिमा से एक क्षण भी बिलग नहीं होना चाहती थी,पर विमाता का निष्ठुर व्यवहार इतना अधिक बढ़ गया कि उसे पूर्णिमा ही क्या, पूरी दुनिया को छोड़ने का साहस करना पड़ा।
वह अंतिम मुलाकात के लिए पूर्णिमा के घर गयी। वहाँ बहुत देर तक इधर-उधर की बातें होती रहीं। पूर्णिमा ने बहुत समझाया-बुझाया। उसके दु:खों को दूर करने की युक्ति सोचने लगी परकोई राह न निकली। जब मधू चलने लगी तो पूर्णिमा रो पड़ी--'मेरी प्यारी दीदी! मुझे छोड़ कर न जाओ------------! उसने मधू के आँचल का छोर पकड़ लिया।
यद्यपि मधू की आत्मा बिलख उठी ,फिर भी उसने पूर्णिमा से कहा-'पगली. अभी तू मुझे समझा रही थी , अब स्वयं तू ही रोने लगी ,मत रो, मेरा शरीर भले ही दूर रहेगा पर आत्मा तो सदैव तुम्हारे पास ही रहेगी। पूर्णिमा इस कथन का गूढ़ार्थ न समझ सकी। उसने अपने हृदय को पत्थर बनाकर मधू को बिदा किया। चलते समय मधू ने कुछ क्षण रुक कर पूर्णिमा के सुकोमल मुखकमल को चूम - चूम कर पागलों की तरह प्यार करती रही और आँखों में आँसू भरे अपने घर की ओर चल पड़ी। पूर्णिमा की हिम्मत न पड़ी कि वह जाती मधू को रोक ले। वह भी सिसकती हुई बरामदे में खड़ी-खड़ी अपनी प्यारी दीदी को जाती हुई देखती रही। कौन जानता था कि वह उनका अन्तिम मिलन होगा मधू का रेशमी आँचल हवा में लहराता चला जा रहा था, उसके कदम आगे बढ़ते ही जा रहे थे। मधू और उसका रक्तिम आँचल हवा में इस प्रकार विलीन हो गया , मानो कोई सान्ध्य सुन्दरी अम्बर में लहरा रही हो और रात्रि ने उसे कृष्ण वर्ण आवरण में ढँक लिया है।
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दास -दासियों, शुभाकांक्षियों से घिरे चौधरी साहब प्रकाश को, जिसको डॉक्टर लोग मृतक घोषित कर चुके थे, आज स्टेशन छोड़ने जा रहे थे I वह गाँव के स्कूल से हाईस्कूल उत्तीर्ण कर पढ़ने के लिए शहर जा रहा था। हिम्मत सिंह की आँखें छलछला आयी थीं। आज उसे बिदा करते समय उन्हें दीनानाथ की याद आ रही थी। कोई यह नहीं समझ पा रहा था कि उनकी आँखों में ये आँसू क्यों? खैर, लोग स्टेशन आये। ट्रेन पर बिठाकर वापस होने से पूर्व उन्होंने कई बार प्रकाश को पहुँचते ही पत्र लिखने की सख्त हिदायत दी। खिड़की से प्रकाश तब तक लोगों को देखता रहा, जब तक कि वे लोग आँखों से ओझल न हो गये।
प्रकाश को बिदा कर वे घर वापस आये। प्रकाश की माँ को आज कुछ अच्छा नहीं लग रहा था। यद्यपि प्रकाश बहुत दूर नहीं गया था किन्तु उन्हें लगता था मानो प्रकाश 'सात समुन्दर' पार चला गया है।
हिम्मत सिंह के डाँटने पर किसी तरह उन्होंने खाना खाया। समझाने -बुझाने का तो उन पर कुछ असर ही नहीं होता था। माँ की ममता बड़ा अजीब होती है 'अपने जिगर के टुकड़े को अलग होते देख वह तड़प उठती है,पर बच्चों के जीवन और भविष्य का ख्याल कर, अपने दिल पर पत्थर रखकर , वह उसे कला- कौशल सीखने के लिए दूर भेजती ही है।
जब तक प्रकाश घर पर था , घर बड़ा खुशहाल था। प्रकाश के जाते ही माँ उसकी याद में डूबी रहने लगीं। कभी दो बजे नहातीं खातीं , तो कभी चार बजे। कभी किसी से बातचीत करने लगतीं तो भूल ही जातीं नहाना - खाना। परिणाम यह हुआ कि वर्ष गुजरते-गुजरते उनकी तबीयत खराब हुई। डॉक्टर ने इलाज किया यद्यपि उस समय उनकी हालत ठीक हो गई ,पर कमजोरी ने पीछा न छोड़ा। प्रकाश महीने -दो महीने में घर आ भी जाता था। समय बीतता गया।
प्रकाश का छोटा भाई दिनेश मिडिल में पढ़ रहा था ।उसके पास प्रकाश का पत्र बराबर आता रहता था। वह भी पढ़ने में बहुत तेज था। अध्यापक गण उससे बहुत प्रसन्न रहते थे। आठवीं की परीक्षा उत्तीर्ण होने के बाद उसे छात्रवृति की भी प्राप्त हुई थी। यद्यपि हिम्मत सिंह को रुपये पैसों की कोई कमी न थी;अपने समय के धनी -मानी रईस थे बड़े-बड़े सेठ - महाजन उन्हें शीश झुकाते, पर थे वे बड़े कंजूस प्रकृति के Iरुपया खर्च करना तो जैसे उन्होंने सीखा ही नहीं था। 'चमड़ी जाये पर दमड़ी न जाये' वाली कहावत उन पर शत प्रतिशत सत्य चरितार्थ होती थी।
एक दिन प्रकाश की माँ ने कहा-'आपका इतना नाम है बड़े_बड़े रईस आपको मत्थे टेकते हैं I झुक - झुक कर सलाम करते हैं। आप हैं कि दो पैसे भी खर्च करने से हाथ बटोरते हैं।
'अरे बाबा ! मैं जितना खर्च करता हूँ, वही भारी पड़ रहा है, तुम कहती हो ------------!'
'मैं क्या कहती हूँ--------------!'
'अच्छा बाबा कह लो-------!' वे धीरे से खिड़की की ओर खिसक जाते हैं और बाहर की ओर देखने का उपक्रम करते हैं।
'मिसरानी जी कह रही ही थीं कि दिन्नूजिले में प्रथम आया है , उसे छात्रवृति भी मिल रही है, पर मेरा मुँह मीठा नहीं करवाया। अभी महरी को भी कुछ नहीं दे पायी हूँ। लोग मेरे बारे में क्या सोचते होंगे।'कहाने को रानी चुराने को चमरख--------------! जरा सोचिये, इतनी बड़ी धन दौलत , मान- मर्यादा.. किस काम की ,यदि दो - चार रुपयों की मिठाइयाँ भी न बाँटी गयीं।'
'भई, बात तो ठीक कह रही हो , पर मुझे तो और बहुत से कार्य देखने हैं। प्रकाश की पढ़ाई के साथ-साथ अब दिन्नू की पढ़ाई का भी खर्च सिर आया है। तब तक 'पारो' ( पार्वती) का भी इंतजाम करना ही होगा। अगले वर्ष वह मिडिल में जायगी ; फिर उसकी शादी भी तो कहीं करनी है। दहेज के लिए लम्बी रक़म की व्यवस्था करनी ही पड़ेगी। यदि हम दोनों हाथों मनमाना धन लुटाते रहे तो कैसे, क्या- होगा?'
'आप तो बेकार में इतनी बातें सोच जाते हैं। अब क्या बेटी की शादी करने भर की भी सामर्थ्य हम में नहीं है ?"
.' है क्यों नहीं; पर उतना ही पैर फैलाना चाहिये , जितनी लम्बी अपनी चादर हो।'
''कुछ भी हो , मैं तो मिसरानी जी को मिठाइयाँ तथा साड़ी दूँगी ही। क्या मेरी बेटी की शादी मिसरानी के हक से ही होगी?''
' क्यों झगड़ रही हो? जो जी में आये करो मेरी सुनता ही कौन है?'
'आप सुनने लायक कहते ही कब हैं?'
'हाँ, तुम्हें क्या करना है? घर में न रहती हो। बाहर कैसे - कैसे लोग मिलते हैं , वह तो मुझे मालूम है। कल ही तो कहोगी बेटी के लिए कहीं वर तलाश करो।''
'' तो क्या बेटी ही आपके लिए भार है? रहने दीजिएगा मेरी बेटी की शादी; मैं स्वयं उसकी व्यवस्था कर लूँगी। अभी मेरे भाई-बाप जिन्दा हैं ''इसी तरह समय बीतता रहा। लोग उनकी कंजूसी की टीका टिप्पणी करते रहते थे । X X ० X x ၊
नये मित्रों का मिलन जहाँ सुख प्रदान करता है , वहीं उनका बिछोह अपार दुःखोदधि में निमग्न कर देता है। मधू का मिलन खुशी लाया,पर उसके बिछुड़ते ही पूर्णिमा की हर खुशी चली गयी। कालेज में यद्यपि उसकी अनेक सहेलियाँ मौजूद थीं पर मधु का अभाव सदैव उसके मन में एक टीस पैदा करता रहता था। उस समय वह मधू के कथन का अर्थ न समझ पायी थी, पर उसे जब वास्तविकता का पता चला , वह बहुत देर तक फूट-फूट कर रोती रही और अत्याचारी विमाता को कोसती रही I मधू की दादी माँ ने पूर्णिमा को बहुत समझाया -बुझाया तब कहीं जाकर उसका रोना बन्द हुआ।
नये सत्र के प्रारंभिक दो महीने उसने घोर कष्ट एवं व्यस्तताओं में गुजारे। अभी मधू के बिछोह का गम भूल भी न पायी थी कि अचानक बीमार पड़ गयी। जैसे-तैसे वह सत्र बीता। अगले सत्र में उसकी एक ऐसी लड़की से दोस्ती हुई ,जिससे मधू की कमी बहुत हद तक पूरी हो गयी । वह थी - रीतू ।
रीतू एक मध्यमवर्गीय खानदान की लड़की थी। सीधी- सादी, पर बड़ी ही चञ्चल I अक्सर वह पूर्णिमा को अपने घर ले जाया करती थी। उसके घर की वस्तुयें ग्रहण करने में पूर्णिमा को संकोच - सा लगता था। वह अपनी तुलना में उसे कहीं अधिक समृद्धशालिनी पाती थी। इसी कारण उसने कभी उसे अपने घर खाने पर आमन्त्रित नहीं किया , पर उसके मन में यह बात सदैव शूल की तरह चुभती रहती थी। सचमुच गरीबी सबसे बुरी चीज है इस संसार में।
वह कुछ हीन भावनाग्रस्त हो चली थी। धीरे-धीरे वह अन्य लड़कियों से कटी-कटी -सी रहने लगी थी। एक दिन रीतू ने पूछ ही तो लिया - 'बहिन! आप मुझसे इतती कटी-कटी क्यूँ रहती हैं?' यद्यपि उसने खुलकर कुछ भी नहीं कहा था पर उसकी बातों से ऐसी 'बू' निकलती थी जिससे पूर्णिमा के स्वाभिमान को ठेस पहुँचती थी पूर्णिमा ने हँस कर टाल दिया। समय बीतता गया कुछ समय बाद एक दिन पता चता कि रीतू के पिता पर 'सरकारी धन' के गबन का आरोप है। उन पर मुकद्दमा चलाया जायगा। पूर्णिमा खुशी से उछल पड़ी। उसके मुँह से निकल पड़ा - 'इसी गबन के धन पर इतराती थी - रीतू ।' अब पता चलेगा उसे इतराने का। लेकिन दूसरे ही क्षण उसका मन ग्लानि से भर गया। छिः ! मैं क्या सोचने लगी। ऐसी बातें सोचना तो नीचता है। मैं मानती हूँ कि मैं एक विपन्न दम्पति की सन्तति हूँ। मेरे पास धन - दौलत नहीं है। पर मेरे पास ऐसी अनमोल सम्पदा है जो धन-दौलत से कहीं ज्यादा मूल्यवान है। वह है चरित्र और परिश्रम ।'
मैं परिश्रम करना जानती हूँ। मेरा आचरण ठीक है तो फिर मुझे किस वस्तु की कमी है। कोई भी मुसीबत मेरे सम्मुख आने की हिम्मत नहीं करेगी। यदि आ भी गई तो एक नसीहत देकर जायगी और उससे निबटने में जो शक्ति मुझ में संचित होगी, उससे जीवन की अनेक दहलीजों को पार करने में अवश्य सहायता मिलेगी।
पूर्णिमा प्रतिभा सम्पन्न तो थी ही। अवस्था के साथ-साथ प्रतिभा की भी अभिवृद्धि होती गयी। उसकी माँ, उसके पिता तथा अन्य पड़ोसियों से बातचीत के दौरान उसे ज्ञात हो गया था कि उसकी 'मंगनी' किन्हीं हिम्मत सिंह के पुत्र प्रकाश के साथ हो चुकी है , पर शादी के लिए जो शर्त उन्होंने रखी है , वह भी बड़ी विकट ही है। कम से कम दीनानाथ जैसे साधारण व्यक्ति के लिए। वह शर्त रही - विवाह से पूर्व पूर्णिमा को इण्टर तक पढ़ाने की। 'उसे जिस दिन से यह बात ज्ञात हुई थी , उसी दिन उसने प्रण किया कि वह कभी भी अच्छे कपड़ों या आरामदेह वस्तुओं की अपने माता -पिता से फरमाइश नहीं करेगी , जिससे उन पर अनावश्यक भार आये। वह इस वर्ष अपनी फाइनल परीक्षा में सम्मिलित होने जा रही थी, जिस परीक्षा को पास कराने के लिए उसके पिता ने अपना सर्वस्व होम कर दिया था। अब वह जल्द से जल्द अपने पिता को भारमुक्त करना चाह रही थी। अतः रात - रात भर जग कर उसने तैयारी की। जब परीक्षा सन्निकट आयी ,तब तो उसने और कठिन परिश्रम किया। उसे इस बात की चिन्ता थी कि यदि वह पास नहीं हो जाती तो उसके पिता के कन्धों पर 'अत्यधिक भार पड़ेगा जिसे बर्दाश्त करना उनकी सामर्थ्य से परे है' सच्ची लगन और कठिन परिश्रम से जुटी हुई थी, अपने अध्ययन कार्य में। सकी सफलता निश्चितप्राय थी।
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कुछ समझ नहीं पा रहा था प्रकाश ! आखिर उसका चित्त आज उद्विग्न क्यों है? अभी वह अपने रूम में आ कपड़े उतार ही रहा था कि डाकिये ने तार उसकी ओर बढ़ाया। हस्ताक्षर कर कागज लौटाया और झटपट तार पढ़ने लगा - ''तुम्हारी माँ सख्त बीमार हैं , शीघ्र आओ।''
हिम्मत सिंह
मातृभक्त प्रकाश , माँ की बीमारी का समाचार पाकर भला रुकता भी कैसे? बिना सोच-बिचार में वक्त गँवाये , वह अटैची हाथ में लेकर स्टेशन की ओर चल पड़ा। आज वह उदास था। सारा वातावरण ही उसे गमगीन नजर आ रहा था। जन्मभूमि लौटने पर लोग खुश होते हैं पर उसके साथ कुछ उलटी बात थी। जी हाँ, वह आज गुरु तेग बहादुर की तपोभूमि शिराज - ए - हिन्द जौनपुर से , जहाँ उसने अपने जीवन के चार खूबसूरत वर्ष बिताये थे , बिलग हो रहा था। रह -रहकर उसके मस्तिष्क में ज्वार-सा उठ रहा था। बेचैनी बढ़ती जा रही थी। कहाँ शहर की रौनक' गोमती नदी का सुहावना किनारा, शाही पुल ऐतिहासिक किला , अटाला मस्जिद, पार्क, सिनेमा और कहाँ गाँव की खामोशी , सूना पन , ऊबड़-खाबड़ मार्ग , उसके हृदय में एक विचित्र अन्तर्द्वन्द्व उठ रहा था।
'फूलनपुर' यह छोटा-सा गाँव है उसका। माता- पिता दो भाई छोटी बहन तथा कुछ नौकर - चाकर हैं। यह जानते हुये भी कि उसका मन न लगेगा , वह घर जा रहा है। जीवन के इन चार वर्षों में घटी सभी घटनायें उसके मानस-पटल पर एक. - एक करके उभर रही थी खासकर- उसकी क्लास फेलो - गीता की ।
रेलगाड़ी की तड़तड़ाहट ने उसकी विचार तन्द्रा भंग की। अपना सामान उठाकर उतरने -चढ़ने वालों की भीड़ से होता हुआ एक डिब्बे में प्रविष्ट हुआ और एक सीट पर उठँग कर बैठ गया। वह स्वर्णिम स्मृतियों में खो गया, जिससे उसे यह भी पता न चला कि गाड़ी कब चली?''
उसका दिल गीता के लिए छटपटा रहा था आते समय उससे न मिलने की भूल उसे शूल - सी चुभ रही थी। पहली मुलाकात और फिर बढ़ता हुआ सम्बन्ध --------------------!
वह गीता की स्मृति में खो गया। गाँव के स्कूल से हाईस्कूल उत्तीर्ण कर वह जौनपुर आया था। उसने इससे पूर्व कभी इन शहरी चकाचौंध के दर्शन नहीं किये थे। न उसमें शहरी बालकों जैसा चाञ्चल्य ही था। वह ग्रामीण वातावरण में पला था|उसमें ग्रामीणता का निवास स्वाभाविक था।
वह शहरी लोगों के 'मेकअप 'को देखकर बड़े असमंजस में पड़ा था। आखिर लोग 'मेकअप ' (बनाव-श्रृंगार ) पर इतना ध्यान क्यों देते हैं? यह प्रश्न उसके मस्तिष्क में प्रायः आ जाया करता था जब मेकअप युक्त शहरी लड़के - लड़कियाँ उसके सामने से गुजरते।
उधर वे शहरी लड़के-लड़कियाँ जो घण्टों मेकअप करते, तरह-तरह के डिजायनदार भड़कीले कपड़ों से स्वयं को सजाते---.- - -वे इस ग्रामीण युवक को देखकर आपस में कानाफूसी करते।
कालेज में प्रवेश लेने के दूसरे ही दिन की तो बात है। वह विचार मग्न लिपिक कार्यालय की तरफ से पुस्तकालय की ओर जा रहा था। मार्ग के दोनों ओर रंग - बिरंगे गुलाब खिले हुये थे। वातावरण मादक सुगन्ध से युक्त था। फूलों के इर्द-गिर्द तितलियाँ और भ्रमर मंडरा रहे थे। यद्यपि वह लड़कियों से कतराता था। उनके उद्दाम यौवन से उसका कभी पाला नहीं पड़ा था, तभी उसकी टक्कर एक समवयस्का लड़की से हो गयी। लड़की ने क्रोधावेश में कहा - 'बत्तमीज कहीं के ,देखकर नहीं चलते?' चूँकि यह पहला मौका था , जब उसकी टक्कर किसी लड़की से हुई थी। वह पसीने से तर था। घबराहट में कोई उत्तर न बन पड़ा। उसके मुँह से 'एक्सक्यूज मी' ही निकला। लड़की तब तक जा चुकी थी। वह अपराधी की भाँति उसकी तरफ देखता रह गया।
हर प्रकार की सुख-सुविधाओं में पला प्रकाश हृष्ट-पुष्ट और बाँका नौजवान था उसका व्यक्तित्व ऐसा था कि जो भी देखता , देखता ही रह जाता , उसका सुन्दर , गठीला , लम्बा शरीर , चौड़ा सीना ,उच्च स्कन्ध, लम्बे हाथ , बड़ी-बड़ी आँखें चमकता हुआ ललाट - - - - ---- - सब मिलाकर पूरा पहलवान था वह ।
धीरे-धीरे दिन बीतते गये। कालेज में प्रवेश लिए उसे लगभग डेढ़ महीने बीत गये। अब तक अधिकांश छात्र - छात्राओं के नाम एवं चेहरों से परिचित हो गया था। उसे लगभग नित्य ऐसा आभास होता कि कोई उसे घूर - घूर कर देखता है। वह कोई और नहीं , वही लड़की थी , जिससे उसकी टक्कर हुई थी।
प्रकाश यद्यपि पढ़ने में तेज था हाईस्कूल प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण भी किया था ,पर उसे किसी अपरिचिता लड़की के आँखों की भाषा पढ़ने और समझने का अभ्यास नहीं था। वह जब भी उसके सामने से जाती , वह सिर नीचा किये गुज़र जाता।
दिन बीतते गये। गीता की लालसा बढ़ती गयी पर उसे प्रकाश तक पहुँचने का कोई मार्ग नहीं मिल पा रहा था। कब मिले? कहाँ मिले? कैसे मिले? इसी उधेड़ - बुन में महीनों गुज़र गये धीरे-धीरे उसकी मिलन - पिपासा असह्य हो गयी। उसकी खुशी विलुप्त होने लगी। उसे अपनी सहेलियों से मिलने तक का ध्यान न था। वह खाली घण्टों में भी अपनी सीट पर बैठी ,उसके वारे में ही सोचा करती थी। कभी सोचती इसके क्वार्टर पर चलूँ वहीं मिल लूँ। कभी और कहीं। ---- --------- पर कालेज में बदनामी होने के डर से वह मिल न सकी। लोग व्यंग करेंगे यह सोच कर निराश हो जाती। इसी ऊहापोह में वह दिन गुजार रही थी, कि तभी कालेज में 'गीता जयन्ती समारोह 'आयोजित किया गया। एक प्रवक्ता महोदय ने बोलने के इच्छुक (प्रतिभागी) विद्यार्थियों का नाम माँगा। पहले तो किसी ने भी नाम न दिया। इस पर उन्होंने समझाया - 'देखो गीता के कुछ श्लोक ही बोल देना , पर बोलना अवश्य। तुम लोग यदि बोलना नहीं सीखोगे तो कैसे 'इण्टर व्यू 'आदि में सफल हो सकोगे? कैसे भारतीय संसद में बोलोगे ? हाँ यदि कोई सहयोग अपेक्षित हो तो मुझसे मिल लेना।'
धीरे - धीरे दो तीन छात्रों ने अपना नाम दिया। प्रकाश के मन में भी उत्साह का संचार हुआ। - उसने भी अपना नाम दे दिया। दूसरे दिन वह कालेज आया तो उसके हाथ में एक छोटी पर अत्यन्त आकर्षक'गीता' थी। वह क्लास में अपनी सीट पर बैठा उसे देख रहा था।'गीता'देखकर गीता को अच्छा चांस मिला। उसका मुरझाया मुखकमल आशा की एक किरण पाकर खिल उठा। उसने निश्चय किया कि वह आज प्रकाश से अवश्य भेंट करेगी और उससे गीता माँगेगी।
समारोह प्रारम्भ हुआ। लोग अपने-अपने विचार प्रकट कर रहे थे तथा गीता से प्राप्त होने वाली शिक्षाओं पर प्रकाश डाल रहे थे। यद्यपि लोग बड़ी सार पूर्ण बातें कह रहे थे , पर गीता को यह सब बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा था। वह कुछ खोयी -खोयी अनमनी- सी बैठी थी कि तभी सचिव ने प्रकाश का नाम पुकारा। गीता को 'शॉक'- सा लगा। वह स्वस्थ होकर बड़े ध्यान से सुनने लगी। प्रकाश धीरे-धीरे हिलते-काँपते मंच तक पहुँचा पर कुछ बोलने से पहले वैसे ही पसीना छूटने लगा जैसे गीता से टकराने पर छूटा था, पर स्वयं को शीघ्र संयत कर उसने बोलना प्रारम्भ किया।
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गीता उस दिन वह पुस्तक न माँग सकी। दूसरे दिन प्रकाश जब पुस्तकालय में कोई पुस्तक ढूँढ़ रहा था तभी साहस करके गीता वहाँ जा पहुँची၊ उसके आने की आहट पाकर प्रकाश सहसा मुड़ा। सामने गीता को उपस्थित देखकर कुछ घबड़ाया , पर साहस बटोरकर बोला- ''आप ?!''
'जी, आपको कुछ कष्ट देने आयी हूँ।'
'कहिये आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ ?'
'जरा आप की गीता चाहिए थी।'
'आज तो नहीं।' प्रकाश बोला- 'कल मिल जायगी 'और वह बाहर चला गया। गीता शिष्टाचार वश कुछ देर तक वहाँ रुकी और फिर पर कटे पक्षी की भाँति बाहर आयी। उसके जाते ही प्रकाश का एक मित्र आ धमका और पहुँचते ही प्रश्न किया - 'यह दाँव - पेंच कब से करने लगे प्रकाश ? '
'कैसे दाँव - पेंच?' उसकी ओर मुखातिब हो प्रकाश ने सहज भाव से पूछा।
'यह गीता क्यों आयी थी?'
' . 'गीता' - - - - गीता लेने।"
'तुम भी कमाल हो , क्या कहा तुमने?'
'कल देने को कहा है। '
एक विचित्र -सी हँसी हँसकर उसने अपनी बाँहों के दायरे में लाते हुये कहा-'आखिर आ ही गये न जाल में।'
हल्के से गुस्से में सफाई पेश करते हुये प्रकाश ने कहा-' कैसे जाल में?'
'इतने भोले न बनो प्रकाश'' कह कर वह चला गया। प्रकाश की समझ में अब तक कुछ न आया। उसे बोरियत महसूस होने लगी। वह वहाँ से चला गया।
अगले दिन प्रकाश ने अपनी गीता ला कर गीता को दिया। उसे हाथ में लेकर गीता ने मुस्करा कर प्यार के लहजे में उसको 'धन्यवाद' 'दिया।
'इसमें धन्यवाद ज्ञापन की क्या आवश्यकता है ? 'यह तो बड़ा आवश्यक है कि एक दूसरे का सहयोग किया जाय। कहते-कहते उसका मन सहानुभूति से भर गया। उसने प्यार भरी दृष्टि गीता पर डाली और मुस्कुराते हुये बोला- 'गीता कितनी प्यारी है।'
गीता ने कहा- 'आप तो बड़े वो हैं ।' और मुस्कुराती हुई चली गयी।
गीता ने गीता लाकर अपने कमरे में रखी सरस्वती की मूर्ति के पास रख दिया। सुबह-शाम फूल चढ़ाती अगरबत्ती जलाती। रात में सोने से पूर्व उसे पढ़ती। जब प्रकाश द्वारा उसमें लगाये गये चिह्नों या लिखे गये नाम आदि को देखती तो उसे चूम लेती। गीता को उससे बड़ा सन्तोष मिलता। वह गीता को सीने से लगाये सो जाती। गीता को पूरी उम्मीद थी कि दो -एक दिन में वह उसे अवश्य माँगेगा , पर जब सप्ताह बीत गया और प्रकाशने गीता के बारे में कुछ न कहा तो उसके मन ने उसे वापस करने के लिए बाध्य किया। वह अपने साथ गीता लिए कालेज गयी।
शाम को छुट्टी हुई। गीता ने प्रकाश से कहा- 'लीजिये यह आपकी 'गीता' और आज आपको मेरे साथ 'अनुपम 'चलना होगा। '
प्रकाश बेफिक्री से बोला- 'क्यों? '
'जो कहती हूँ उसे सुनिये और जो करना होगा वहीं पता चल जायगा।'
'अच्छा यह बात है तब तो मैं नहीं चलूँगा।'
'क्यों?क्या मेरे साथ चलना अच्छा नहीं लगता ?'
'यह कब कहा मैंने। '
' तो फिर आपके कहने का आशय ?,'
'यही कि मैं अनुपम नहीं हूँ जो अनुपम में जाऊँ।'
' वाह जी वाह , आप तो मुझे बोर करने पर उतारू है'। अच्छा बताइये चलते हैं या नहीं। प्लीज बोलिये न.?'गीता का चेहरा देखने से उसे लगा, जैसे अभी रोयेगी। उसकी मुखाकृति देख कर वह कुछ कह न सका और चल पड़ा उसके साथ अनुपम की ओर।
अनुपम पहुँच कर गीता ने चाय-वाय मग वायी और प्रकाश की ओर बढ़ाते हुये बोली- 'भई , बैठे क्यों हो , चाय पियो न। '
प्रकाश के समक्ष उस दिन का दृश्य उभर आया , जब वह टकरायी थी। उसने तुरन्त नहले पर दहला जमाते हुए व्यंग किया - 'क्या बत्तमीजों के साथ चाय पीने में आपको लज्जा नहीं महसूस होगी?''
''अच्छा तो जनाब अभी भूले नहीं वो बात ?!'' इतना अक्षम्य अपराध था मेरा।'.'
'भूलता भी कैसे? गीता का उपदेश जो रहा; फिर आपने क्षमा भी तो नहीं माँगी।'
"अच्छा बाबा अब खुश हो जाओ मैं अभी क्षमा माँग लेती हूँ, एक बार नहीं , हजार बार बस-.- 'श्रीमान् जी क्षमा कर दीजिये'गीता के मुखमण्डल पर हल्की -सी मुस्कान बिखर पड़ी।
प्रकाश को लगा जैसे जन्म - जन्मों का बिछुड़ा दोस्त मिल गया हो। प्रकाश अब इनकार न कर सका। चाय-वाय समाप्त कर दोनों अपने-अपने निवास की ओर चल पड़े। रास्ते भर दोनों के हृदय आन्दोलित होते रहे। रात में नींद न आयी दोनों को।
इसके बाद वे अक्सर एक दूसरे से मिलते रहे। धीरे-धीरे वे परस्पर अतिसन्निकट आ गये।
एक दिन गीता ने प्रकाश से कहा-'मि० प्रकाश चलो आज सिनेमा चलें।'
'लेकिन मैं------------।' अभी वाक्य पूरा भी नहीं हुआ था कि गीता हल्के गुस्से में बोल पड़ी- '' लेकिन - वेकिन कुछ नहीं;बड़ी अच्छी पिक्चर आयी है, आज तो चलना ही होगा। ''
उसके दिल में गुदगुदी होने लगी। रोमाञ्च हो आया '। वह चाहकर भी 'ना' न कर
सका। दोनों रिक्शे पर सवार हुये और चल पड़े उत्तम टाकीज की ओर। फिल्म छूटने पर दोनो' 'भगत सिंह पार्क' में आये। यद्यपि पार्क बहुत बड़ा और सजा-सँवरा न था फिर भी छोटे शहर के लिहाज से यह बड़ी अहमियत रखता था।
ठंडी - ठंडी हवा चल रही थी। फव्वारे के जलपर पड़ रहा रंग-बिरंगा प्रकाश अत्यन्त मनोमोहक लग रहा था।
गीता को बातचीत आरम्भ करने का अच्छा मौका मिला। वह बोल उठी - 'कितना
मनोमोहक है ये प्रकाश !'
अब तक प्रकाश ग्रामीणता छोड़कर शहरी बन चुका था। उसने तुरन्त व्यंग करते हुये कहा-'' पसन्द आया?'' और मुस्करा पड़ा। गीता वस्तुस्थिति को भाँपते हुए थोड़ा शर्मिन्दा हो गयी
पर शीघ्र ही स्वयं को संयत कर बोली- ''प्रकाश मजाक छोड़ो ; इस संसार में मजाक से परे भी कुछ है' कभी सोचा है?''
''नहीं, मैंने तो नहीं सोचा।"
''खैर, सोचनाः - - - - - - । अब तो रात हो चली ; चलो आज मेरे घर।"
''तुम्हारे घर ?!" विस्मयपूर्ण मुद्रा में प्रकाश ने पूछा।
''क्यों? क्या मेरे घर चलने में कोई तकलीफ है तुम्हें ?''
''लोग क्या कहेंगे?''
''लोग क्या कहेंगे! 'हुँह. Iइतना तो लड़कियाँ भी नहीं डरतीं। व्यर्थ ही लड़काः - - - - - - - - - - - I''
'' - - - - - - - - ।''
'अजी बस, इतनी ही है हिम्मत?!'' कैसे मेरे साथ पूरा जीवन बिताइएगा?'' गीता मुस्करा पड़ी।
" . - - - - - - - - - - -'' प्रकाश अब भी चुप था। वह कुछ सोच नहीं पा रहा था कि क्या कहे ?''
''नहीं, प्रकाश, तुम्हें चलना ही पड़ेगा। ''
''नहीं ,गीता, फिर कभी चलेंगे; आज नहीं।'' उसने टालने के ध्येय से कहा।
गीता को यह आश्वासन भी काफी लगा। उसने कहा-'कुछ जरूरी बातें करनी थी आपसे। '
' वह भी कर लीजिए।'
'ऊँ - - - - हुँ - - - - - अभी नहीं।' पहले यह बताइए ; गर्मियों की छुट्टियाँ कहाँ बिताइएगा?'
'बस, कुछ यहाँ , कुछ घर पर।"
गीता का चेहरा उदास हो गया। उसने कहा-'क्या घर जाना बहुत जरूरी है?'
' नहीं तो.; पर यहाँ रहकर ही क्या करूँगा ?'
'यहाँ रहने को कौन कहता है ? '
' फिर ?'
'मेरा विचार था मिर्जापुर चलने का।'
'तो ठीक ही है जाइये; मेरी दुवायें आपके साथ रहेंगी।'
'लेकिन --- -- --- ---' कहते-कहते कुछ रुक गयी 'फिर मुँह नीचा किये बोली- 'प्रकाश! तुम नहीं
चलोगे क्या?'
'अपना तो विचार कम बैठता है।' उसका उत्तर था।
'अरे भई ! वहाँ का कंकरीट का पुल कितना खूबसूरत है रिहन्द डैम का तो कहना ही क्या ? वह तो पूरा समुद्र - सा दिखाई पड़ता है। इतना बड़ा, इतना बड़ा कि चारों ओर जल ही जल नजर आता है। उससे उत्पन्न विद्युत से वहाँ ही क्या? आज अपना सारा प्रदेश जगमगा उठा है। रात्रि में तो ऐसा जान पड़ता है मानो तारे आसमान से उतर कर जल में स्नान कर रहे हों-------- -- i'
और देखने लगी प्रकाश के मुख की ओर। प्रकाश बोला- 'वाह जी आपने तो पूरा दृश्य ही प्रस्तुत कर दिया रिहन्द का I'
'आप नहीं तुम कहो'
'अच्छा तुम ही सही।''
'हाँ तो तुम चलोगे न?'
' नहीं '
' क्यों?'
'मेरे सामने कुछ - -- - - - - - - - ।'
'कुछ नहीं तुम्हें चलना ही होगा। शेष सभी व्यवस्था मैं करूँगी।'
अभी बात हो ही रही थी कि उधर से उनका एक क्लास फेलो आता हुआ दिखाई पड़ा.l गीता ने प्रकाश से कहा- कल तीन बजे तुम 'राजकमल' ( टाकीज )आ जाना, मैं इन्तजार करूँगी और उत्तर की प्रतीक्षा किये बगैर वह अपने घर की ओर चल पड़ी।
दूसरे दिन दोनों राजकमल के सामने मिले। काफी देर तक इधर-उधर की बातें होती रहीं। अन्त में गीता के बहुत आग्रह करने पर वह उसके घर गया। गीता ने उसका स्वागत किया। माता-पिता एवं सहेलियों से परिचय हुआ। उसके शील, स्वभाव ,शारीरिक गठन एवं प्रखर बुद्धि का परिचय प्राप्त कर सभी अति प्रसन्न हुये
रात्रि में ही गीता ने उसके विषय में चर्चा की थी। काफी देर तक वहाँ रहने के बाद प्रकाश अपने क्वार्टर चलने को तैयार हुआ। गीता के माता-पिता से आज्ञा लेकर वह चल पड़ा। गीता तथा उसकी सहेलियाँ उसे छोड़ने आयीं। एक सहेली ने कहा- 'जीजी , जीजा जी तो बड़े पहलवान हैं।'
'क्यों? डर रही हो क्या?.'
'नहीं जीजी, मैं तो सोच रही हूँ कि तुम्हारी क्या बनेगी?'
इस पर सभी खिलखिला उठे। गीता कटकर रह गयी। इसी प्रकार मनोविनोद करते हुये वे लोग काफी दूर तक चले आये। अब गीता की एक सहेली ने कहा-' भई , चलो हम सब घर चलें जीजा , जीजी एकान्त में प्रेम वार्ता करेंगे और वे सब प्रकाश को नमस्ते करते हुये, दाँतों तले अँगुली दबाये , मुस्कराती तथा कटाक्षों से बिद्ध करती हुई वापस चलीं। गीता प्रकाश के साथ काफी दूर तक गयी।
प्रकाश आज कुछ उदास था। उसका मूड ठीक न था। गीता ने पूछ ही तो लिया - 'प्रकाश ! आज तुम बहुत उदास दिखायी दे रहे हो, क्या कारण है ? सहेलियों ने कुछ कहा तो नहीं ? उनके कथन का बुरा न मानना।
प्रकाश ने कहा-" गीता, आज मेरे मन में जाने कैसी उद्विग्नता - सी छायी हुई है; कहीं कुछ अच्छा नहीं लग रहा है।.'
''कहीं किसी की नज़र तो नहीं लग गयी" गीता ने कटाक्ष किया।
''गीता! काश! मेरी मनः स्थिति तुम समझ पाती।''
'देखो प्रकाश! बहाना न बनाओ; तुम्हें हमारे साथ चलना ही पडे़गा। हम लोग परसों सुबह वाली ट्रेन से चलेंगे। स्टेशन पर अवश्य मिलना', देखो भूलना नहीं।"
वह गीता से बिदा लेकर अपने क्वार्टर आया। अभी वह कपड़े उतार दी रहा था कि तभी डाकिये ने तार उसकी ओर बढ़ाया हस्ताक्षर कर कागज वापस किया और तार पढ़ने लगा -
'तुम्हारी माँ सख्त बीमार हैं, शीघ्र आओ।'
हिम्मत सिंह
उसकी व्यग्रता और बढ़ गयी। वह तुरन्त उठा और चल पड़ा स्टेशन की ओर क्योंकि गाड़ी का समय होने में केवल तीस मिनट शेष है। यदि यह गाड़ी छूट जाती है तो फिर कल ही मिल पायेगी फिर यदि माँ (ईश्वर न करे) गुजर गई तो -- - - - - - - - - - - - - - - | तो क्या गीता से बिना मिले ही चलना उचित होगा' ।
इसका उत्तर परिस्थितियों को देखते हुये जो हो सकता था, वही हुआ ၊ उसने निश्चय किया कि वह आज ही रात वाली ट्रेन से चलेगा। हाँ ',घर पहुँच कर गीता को .'लेटर' लिख देगा। गाड़ी पर सवार , बिचारों में खोया - खोया वह घर पहुँचा। मातृभक्त प्रकाश, माँ की सेवा में जी जान से जुट गया। अब दशा में काफी सुधार हो चुका था।
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सुख-शान्ति के दिन बहुत जल्द गुज़र जाते हैं। अभी जिस पूर्णिमा को गोद खिलाया , वही आज बचपन की दहलीज पार कर किशोरावस्था में प्रविष्ट हो गयी। अब पूर्णिमा की माँ' को उसकी शादी की चिन्ता होने लगी। वे अक्सर उसकी शादी कहीं कर देने की बात करतीं, पर दीनानाथ अपने परम मित्र चौ० हिम्मत सिंह द्वारा दिये गये आश्वासन की बात कहकर पत्नी का आग्रह टाल देते। साथ ही उनके घर - द्वार , रहन-सहन . लड़के की पढ़ाई-लिखाई की बात करके मना लेते। चौ० साहब का पत्र अक्सर आया करता था' ,जिसमें वही मैत्री व वादे की बात हुआ करती थी।
एक बार पूर्णिमा की माँ बीमार पड़ीं। हालत दिन - ब-दिन बदतर होती गयी। कुछ ही अरसे में उन्हें विश्वास हो गया कि अब उनका उठ पाना सम्भव नहीं है । तब एक दिन वे दीनानाथ से बोलीं- 'पुनियाँ के बाबू.! जमाना बड़ा खराब है Iइन बड़े लोगों की बातों में न आइये। आज वे 'हाँ.' कर रहे हैं और आप उनका विश्वास कर रहे है; यदि वे कल 'ना' कर
दें तो ? तो आप क्या कीजियेगा?''
''नहीं पूनों की माँ ! , वे मेरे जिगरी दोस्त हैं। वे ऐसा कभी नहीं कर सकते'। एक बार चाँद सूरज टल सकते हैं पर हिम्मत की बात नहीं टल सकती।
'हठ न कीजिये मेरी बात मान कर उसका विवाह कहीं कर दीजिये। अब जमाना ऐसा आया है , लोग बहू - बेटी तक नहीं पहचान रहे हैं। घर में सयानी बेटी सीने पर पत्थर जैसी होती है। '
'पूनों की माँ ! तुम पगली तो नहीं हो गयी हो? अरे पूनों की शादी हम ऐसे -वैसे घर थोड़े ही करेंगे। 'कहाँ दस-पाँच हैं। अरे बेटी है तो , बेटा है तो ; केवल पूर्णिमा ही तो है। प्रकाश को यदि तुम देखती तो कहती कि हाँ , चाहे जितने दिन बीत जायँ पर शादी हो तो उसी से। लाखों में एक है. -- -- - --- - - - I''
इसी प्रकार की टालमटोल में दिन बीतते रहे। पूर्णिमा अभी ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ रही थी। उसकी माँ की हालत और गम्भीर रूप धारण करती गयी। अबकी बार वे उठ न सकीं। उनके दिल के सभी अरमान दिल में ही रह गये। उनकी किस्मत में अपने दिल के टुकड़े-इकलौती बेटी, की शादी देखना नहीं बदा था' । पूर्णिमा की माँ के दिवंगत होने के बाद दीनानाथ की जिम्मेदारी और बढ़ गयी। अभी तक वे अपनी गरीबी से जूझ रहे थे। खुद भूखे रहकर बेटी को हर सुख-सुविधा प्रदान करने का प्रयास कर रहे थे। उनका लक्ष्य सामने था। अभी उसकी प्राप्ति में एक -डेढ़ वर्ष की देर थी। वे पहले तो मित्रों के पास आते-जाते भी थे , पर पत्नी के स्वर्गवास के पश्चात उनका इधर-उधर आना -जाना भी बन्द हो गया। जाते भी तो कैसे? सयानी बेटी को अकेली घर में छो़ड़कर ; सो भी इस युग में '
पूर्णिमा को माँ की ममता से वंचित होना पड़ा। बिना माँ के घर उसे काट खाने को दौड़ता था , पर करती भी तो क्या ? वह खोयी - खोयी -सी रहने लगी। पिता की मजबूरी , गरीबी देखकर उसने जो 'सादा जीवन उच्च विचार ' का व्रत ले रखा था, उसका परिणाम यह हुआ कि दीनानाथ उसे इण्टर तक पढ़ाने में सफल हुये। अबकी बार वह फाइनल परीक्षा में बैठ रही थी। उसने अपनी परिस्थिति को देखते हुये ऐसा कठिन परिश्रम किया कि उसकी सफलता निश्चितप्राय हो गयी। उसकी लगन व कठिन परिश्रम को देखकर दीनानाथ को बड़ा सन्तोष होता। उसके सुखी जीवन की कल्पना कर वे अत्यन्त खुश होते। परीक्षा समाप्त हुई। आजकल पूर्णिमा को पर्याप्त समय मिलता, पुस्तकों के स्वाध्याय के साथ -साथ उसने कहानियाँ लिखना प्रारम्भ कर दिया था, जिनमें कई जानी मानी पत्रिकाओं में स्थान पायीं तथा पर्याप्त पारिश्रमिक भी प्राप्त हुआ। अब तक दीनानाथ रिक्त कोष हो चुके थे। पारिश्रमिक के ये चन्द रुपये उनके लिए बहुत अहमियत रखते थे किसी तरह उनकी गाड़ी घिसट रही थी। अब उन्हें चिन्ता थी हिम्मत के पुत्र - प्रकाश से उसकी शादी करके भार- मुक्त होने की । वे कुछ रुपया. पैसा जुटाने में व्यस्त थे कि तभी उन्हें हिम्मत सिंह का प्रीति भोज निमन्त्रण प्राप्त हुआ। उनका पुत्र ,इनका भावी जामाता पी.एम.टी.
(P.M.T.). प्रतियोगिता में आ गया था, इसी उपलक्ष में वे उक्त भोज का आयोजन किये थे। दीनानाथ बहुत खुश हुये। सोचे-एक पंथ दो काज होंगे। निमन्त्रण भी करूँगा और विवाह की तिथि भी निश्चित कर लूँगा।
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प्रीति भोज के दिन सुबह. से ही प्रबन्ध किया जा रहा था' चौ० हिम्मत सिंह के यहाँ। लोग कुर्सियाँ ,सोफे ,चँदोवा आदि ला-ला कर सजा रहे थे। टेबुलों , बेंचों मशहरी चारपाइयों की तो गणना ही क्या? एक ओर स्वागत द्वार बना हुआ था। उस द्वार से सड़क तक बन्दन वार सजे थे' आने-जाने वालों का ताँता लगा हुआ था। स्वागत द्वार के पार्श्व में ही कारें खड़ी थीं। चौधरी साहब आज बहुत व्यस्त थे। इनके दरवाजे पर आज जजों ,बैरिस्टरों, सिविलियनों तथा शतशः शुभाकांक्षियों का मजमा दिखाई पड़ रहा था' । साधारण लोगों की तो बात ही क्या? वे डॉ० मानिक चन्द की भेंट स्वीकार कर हाथ जोड़ विनम्रता प्रकट करते हुये उन्हें सोफा पर बिठाये। उन्हीं के पूछने पर कि प्रकाश की शादी कब कर रहे हैं; चौधरी साहब बोले- "भाई मैं बड़े असमंजस में पड़ा हूँ; क्या करूँ? बलवीर सिंह उधर जोर लगा रहे हैं। जज साहब का दबाव अलग। क्या बताऊँ। लीजिये खुद देख लीजिए 'अब तक इतने संवाद प्रस्ताव आये हैं; ऐसा कहकर वे एक रजिस्टर डी.एम. साहब की ओर बढ़ा दिये, जिसमें सैकड़ों संवाद प्रस्तावों का उल्लेख था। उसमें कुछ तो वास्तविक थे , कुछ नौकरों द्वारा कल्पित Iसबसे अधिक दहेज प्रस्ताव श्री केशरीनाथ का था - लाखों रुपये दहेज लड़का-लड़की के रहने के लिये बंगला तथा पढ़ाई का सब खर्च।" डी. एम. साहब भी कुछ इसी उम्मीद से आये थे क्योंकि उनकी भी एक लाडली शादी योग्य हो चुकी थी; पर यह सब जानकर वे अवाक् रह गये। चौ० साहब तो कब के चले गये थे------------------। ये भी उठे और सोचे कि चौधरी साहब से इजाजत ले लूँ तो चलूँ' । पर चौ० साहब की व्यस्तता देखकर उन्हें कुछ देर इन्तज़ार करना पड़ा। चौधरी साहब यन्त्रवत्, आगन्तुकों, बधाईदाताओं , शुभाकांक्षियों के सम्मुख नम्रता प्रकट करते हुये भेंटें स्वीकार कर उन्हें इत्र -इलायची , पान- सुपारी आदि भेंट कर सोफे आदि पर बिठाये - जा रहे थे।
आज प्रकाश की सफलता पर इतने लोगों को यहाँ आया देखकर दीनानाथ जी फूले नहीं समा रहे थे। मानो विश्व को दिखा देना चाहते थे कि अपनी कमल-कली - सी पुत्री के लिए जो वर उन्होंने वर्षों पूर्व मनोनीत किया था , वह तेज में दिवाकर - सा बढ़ता जा रहा है और वह दिन दूर नहीं जब उनकी बेटी इस इलाके के सबसे बड़े खानदान की लक्ष्मी बनेगी, जिसके कौमार्य पर लोगों ने उन्हें आज सिरपर उठा रखा है। अपनी बुद्धिमत्ता एवं दूरदर्शिता पर उन्हें गर्व भी होने लगा था।
उत्सव के बीच भेंट और बधाइयों से घिरे चौ० साहब को देखकर उनका हृदय बाँसों उछल रहा था प्रकाश को देखकर तो जैसे वात्सल्य सिन्धु में समा गये थे। व्यस्तताओं के बीच घिरे चौ०साहब की दृष्टि दीनानाथ पर,जो न जाने कब से अपनी बारी की प्रतीक्षा में थे,पड़ी , तो उनका दिल 'धक 'से रह गया। लेकिन इसे छिपाते हुये उनकी बधाई स्वीकार किये। लगे हाथ दीनानाथ ने यह भी कह दिया कि पूर्णिमा इस वर्ष इण्टर उत्तीर्ण हो चुकी है । चौधरी साहब कच्ची गोली खेलने वाले न थे। 'वे उनका आशय ताड़ गये और मुस्करा कर बोले- 'तो आप भी मेरी बधाई स्वीकार कीजिये' और वाक्य को पूरा करते हुये बोले- 'क्या कहूँ भाई साहब जिस दिन से प्रकाश पी .एम.टी. में आया है , उसी दिन से शादी के अनेक प्रस्ताव आ रहे हैं ।अभी केशरीनाथ जी आये थे , लाखों रुपये तो टीके में दे रहे थे- - -- - - पढ़ाई का सारा खर्च ...............। और जाते-जाते अगले रविवार को फिर आने को कहकर गये हैं सो भी जज साहब के साथ। अकेले उनका आना ही मुझे भारी पड़ रहा था ,उस पर जज साहब की सिफारिश-------।
और वे दूसरे आगन्तुक की ओर मुड़ गये ,जो जाने कब से प्रतीक्षाकुल था।
दीनानाथ की दृष्टि में उत्सव की सारी चहल-पहल शूल की तरह चुभने लगी। वे वहाँ क्षण भर भी ठहर न सके और बिदाई की आज्ञा माँगने का शिष्टाचार भी न दिखला कर चुपचाप उठ आये। उनके समक्ष पूरा ब्रह्माण्ड तैर गया। उन्हें अब कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था। वे वापस आ रहे थे। उनके मुँह से अचानक निकल पड़ा - 'ओह ! जिसके विश्वास पर समाज के लोगों की निन्दा , व्यंग एवं कटाक्षों के बरसते अविराम तीरों को पहाड़ - सा दृढ़ होकर झेलते गये; उसी का यह अन्तिम उत्तर ! और नहीं तो क्या आवश्यकता थी कि इतनी वय तक पूर्णिमा को क्वाँरी रखकर इतनी ऊँची शिक्षा दिलाने की?! क्या साधारण घर में वही शिक्षा विष न हो जायगी ? अब वैसा 'वर' कहाँ - पा सकते हैं जैसी पूर्णिमा की अवस्था और अपनी निर्धनता है। जिस नाव पर बैठने के लिये जीवन भर की सारी कमाई भाड़े में चुकाई गयी और जब बैठने का समय आया तब नाविक विमुख हो गया। अब नदी भी ग्रीष्म से बढ़कर पावस की हो गयी है। बल भी युवा से वृद्ध की ओर उन्मुख हो गया है। वह कैसे तैर जाने का साहस करेगा?!'
उनकी मनः स्थिति बड़ी ही खराब थी। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि वे क्या करें ? कहाँ जायें? वे रास्ते में एक पेड़ के नीचे बैठे-बैठे यही सब सोचते रहे। इसी उधेड़ - बुन में वे काफी रात गये घर पहुँचे। दीपक के मद्धिम प्रकाश में टूटी कुर्सी पर बैठी पूर्णिमा को , जो उनके आने का इन्तजार कर रही थी, देखकर उनकी विकलता और बढ़ गयी। पूर्णिमा के निकट कागज , कलम और पुस्तकें , उसके जीवन की भाँति अस्त-व्यस्त पड़ी थीं। (दीनानाथ को आज पूर्णिमा सयानी लगी।) आज वे उसकी वय देखकर और भी दुःखी हो रहे थे, पर कर भी क्या सकते थे। काफी साहस बटोर कर घर में प्रविष्ट हुये। पूर्णिमा तुरन्त खाना पानी लायी। वे अपने भावों को छिपाने हेतु खाने बैठ तो गये पर खा न सके। पूर्णिमा ने सोचा- 'पार्टी में खाये - पिये होंगे अतः अधिक हठ न कर वह भी कुछ खा-पी कर सो गयी।
दीनानाथ को सारी रात नींद न आयी। वे कभी पूर्णिमा की वय की सोचते; कभी चौधरी की कुचाल पर मन ही मन जलते-भुनते और कभी और किसी बीती घटना के विषय में सोचते। आज उन्हें पहली बार जीवन की सारी बातें एक-एक कर याद आ रही थीं। सुबह उनकी आँखें लाल-लाल हो गयी , काफी तीव्रज्वर था उन्हें। पूर्णिमा ने ज्वर की दवा ,जो उसके पास रखी थी ,दी । पर यदि बुखार हो तब तो ठीक हो। वे तो चिन्ताग्नि में जले जा रहे थे।
दिन बीता .सप्ताह बीता, अब महीना भी पूरा होने को आया। पर उनकी दशा में रत्ती भर भी सुधार न हुआ। पूर्णिमा जैसे-तैसे उनकी दवा - दारू कर रही थी। पर अब उसके पास भी पैसे न थे। वह दिल मसोस कर रह गयी। जब पिताजी दवा माँगेंगे तो क्या देगी?........ यही सोचकर उसका दिल बैठा जाता था। किसी प्रकार साहस कर उठी और पहुँची कालेज डिस्पेन्सरी के 'आउटडोर' पर I कम्पाउण्डर बड़ा नेक और दयालु था। वह बूढ़ा हो चला था। कालेज ही क्या उस क्षेत्र के सभी नर-नारी उसकी दयालुता एवं नेकनीयती के गीत गाते थे। पूर्णिमा अक्सर उनके पास से दवायें ले लिया करती थी। वह उसकी परिस्थिति से पूर्ण परिचित हो गया था। उसने पूर्णिमा को दवा देते हुये कहा- 'बेटी .जब भी आवश्यकता पड़े तू बेहिचक आकर दवा ले जाना .....।
उसका यह आश्वासन भी डूबती हुई पूर्णिमा के लिये तिनके का सहारा बन गया। वह पुनः आशावान बन गयी। घर पहुँच कर दवा दी अब घर में खाने को एक दाना न था जो कुछ था वह दवा के लिये बेच चुकी थी। अगले दिन फाकाकशी का ही सहारा था। पूर्णिमा की आँखें जागते-जागते लाल हो उठी थीं। आज से उसकी परीक्षा और विकट होने लगी थी बिना दाना - पानी वह हास्पिटल गयी और कुछ दवा लेकर वापस आयी। पिताजी की सेवा करते दिन बीता रात बीती फिर दिन बीतने को आया अब वह स्वयं को कमजोर महसूस कर रही थी। अभी पिता को पानी दे ही रही थी कि दरवाजे पर पोस्टमैन रुका। उसने पचास स्पये का मनीआर्डर पूर्णिमा को दिया जो एक पत्रिका कार्यालय से कहानी का पारिश्रमिक आया था। रूपया लेकर वह बहुत देर तक सिसक - सिसक कर रोती रही। एक समय था जब वह अपने पिता द्वारा दिये गये सौ -सौ, दो-दो सौ रुपये पत्ते की भाँति उड़ाती थी। वह आज पैसे- पैसे को मुहताज ... i
पचास रूपये उसे आज पचास लाख के समान लगे। उसने निश्चय किया कि इससे दवा - दारू_करेगी और जैसे-तैसे खाने पीने की व्यवस्था करेगी, तब तक बँटाई की फसल कट जायगी और कुछ अनाज प्राप्त हो जायगा ।
सुबह दीनानाथ ने कोई दवा न ली। वे अब अधीर हो चुके थे। ये कई बार कहना चाहते थे ,पर कह नहीं पाते थे। धान की भूसी की तरह भीतर ही भीतर सुलगते रहते थे।
दु्र्देव की बिडम्बना कहे बिना भी तो नहीं बनता। बीमार हैं जाने कब प्रभु को प्यारे हो जायँ। उनके मानस-पटल पर अतीत की अनेक घटनायें उभर आयी थीं।
पूर्णिमा की माँ ने एक बार कहा था - 'इन बड़े लोगों की बातों में न आइये आज वे हाँ कह रहे हैं और आप विश्वास कर रहे हैं , यदि
कल 'ना' कर देंगें तो ? पूँजीपतियों की बात का क्या विश्वास ? वे कब धनहीनों का हित सोचेंगे?
'नहीं , पूनों की माँ , वे मेरे जिगरी दोस्त हैं , वे ऐसा नहीं कर सकते।' यह उत्तर दिया था उस समय इन्होंने।
'हठ न कीजिये , मेरी बात मानकर पूनों का कहीं विवाह कर दीजिये. -- -- ---- - पर हो शादी तो उसी से। '
आज वे चैधरी हिम्मत पर कम , अपने आप पर अधिक रंज थे। उन्हें दुःख था कि पत्नी की बात मान कर उसकी शादी कहीं क्यों न कर दी? क्यों चौधरी का विश्वास किया?
मरते समय भी पूर्णिमा की माँ ने कहा था - 'पुनियाँ के बाबू! मैं तो अब - - - - - - - - - - शायद - - - - - - देखने के लिये ---- - -- इस संसार में न रहूँ -- - - - - पर देखिये -- - - पूनों की शादी - - - - जल्द कहीं- - ---- कर दीजिएगा'
इस पूँजीपति ------ के भरोसे---- - न रहियेगा। और . ---- अधिक - - - ----- मैं कह भी क्या सकती हूँ। - -- ---- कहाँ है मेरी बेटी--- पूनों ? और अपनी बाँहें फैला दी थी। पूनों को बाँहों में पकड़कर आँखों में आँसू लिये उसने कहा था - - 'बेटी .- - - - मैं बड़ी अभागन हूँ ---- जो तेरी शादी - - ----- न देख सकूंगी। इस का मुझे दुःख है।......... पर कोई बात नहीं। जो प्रभु को ... . को स्वीकार है -- . ---- वही होगा। 'अब तेरे पिताजी ही - - - - तेरी माँ भी रहेंगे। देखना बेटी .- - - - तेरे पास------धन - दौलत तो नहीं है ---- पर उससे भी कीमती - - - ----- चरित्र है। - - - - अपने कर्त्तव्य , अपने चरित्र सेi - - - - नारी जाति की शान बढ़ाना - ----- मानव मात्र की भलाई में ---- --- लगी रहना ၊ अब- - - - चलती हूँ। थो- - - - ड़ा --- -- पा----- नी।' पानी पिलाया गया और एक हिचकी के साथ उनकी इहलीला समाप्त हो गयी।
पूर्णिमा बिलख पड़ी थी। उसे कितना दुःख हुआ होगा, कहा नहीं जा सकता I उसे माँ की ममता से वञ्चित होना पड़ा था। दीनानाथ को भी कम कष्ट नहीं हुआ था; पर समय का मरहम बड़े-बड़े घावों को भर देता है। वे सब कुछ भूल चुके थे। उनके सामने एक ही लक्ष्य था -- 'पूर्णिमा को इण्टर कराना तथा प्रकाश से उसकी शादी कराना। लेकिन वे बीती बातें जो कभी आह्लाद प्रद थीं आज कष्टप्रद महसूस हो रही थीं। उन्होंने पूर्णिमा के हाथों का अपने सीने से लगाते हुये कहा-' बेटी मैंने बड़ी भूल की जो तेरी माँ का कहा नहीं माना और दोस्त का विश्वास किया। धन के लोभी बचन . , इज्जत , और चरित्र की कद्र क्या जानें? यदि चौधरी का विश्वास न कर ,तेरी माँ का कहा मानकर तेरी कहीं शादी कर दी होती, तो आज सुख से मर तो सकता। लेकिन , लेकिन मैंने एक मित्र का विश्वास किया जो पैसे के पीछे पड़कर अपना वादा भूल गया i पहले वह वफादार दोस्त था, पर आज - - - - आज कुछ और हो चुका है। आज उसे रुपयों की आवश्यकता है क्योंकि प्रकाश पढ़ रहा है। विदेश भी जाने वाला है। डॉक्टर बनेगा।
' पिताजी' पूर्णिमा ने अपने तथा अपने पिताजी के आँसुओं को पोंछते हुए कहा - 'आप चिन्ता न करें, आपने जो कुछ भी किया मेरे भले के लिये ही किया। अब यदि मेरे भाग्य में .' वो सब 'न हो तो इसमें आपका क्या दोष?'
'बेटी , यह क्या कह रही हो? मुझसे सुना नहीं जाता। एक गरीब की बेटी ,पढ़ी - लिखी सर्वगुण सम्पन्न होने पर भी योग्यपात्र से सम्बद्ध नहीं हो पाती' यह ईश्वरीय नियम नहीं , समाज के धन लोलुपों का विधान है। दुष्ट पूँजीपति की दुष्प्रवृत्ति एवं उसके विश्वासघात का परिणाम है၊
'पिताजी ! आप मेरे लिये कोई फिक्र न करें क्योंकि आपने मुझे इतना पढ़ा-लिखा दिया है कि मैं अपने सहारे जीवन यापन कर सकती हूँ।'
पूर्णिमा ने पिता को ढाँढ़स बँधाना चाहा , पर उसकी अपनी अश्रु धारा रुकती ही न थी।
एक गरीब पिता धनाभाव के कारण अपनी नव यौवना बेटी की शादी करने में स्वयं को असमर्थ पाता है तो , वह नहीं तो कौन बिकल होगा? कौन अश्रुपात करेगा?
उन्होंने पूर्णिमा पर एक बार नज़र डाली और उनके मन में अनेक भाव एक साथ जाग्रत हुये। काश! यह बात मुझे पहले ज्ञात होती तो मैं इसे जन्मते ही ठिकाने लगा देता। इस कुत्ते की मौत मरने. से तो अच्छा यही होता कि मैं निः सन्तान ही रहा होता। लोग बहुत करते ताना मारते। मगर सुख से मर तो पाता। यही सब सोचकर उनका दिल बैठा जा रहा था । लेकिन तभी ख्याल आया कि भाग्य नाम की कोई चीज नहीं है। पूँजीवादी समाज के ठेकेदारों की स्वार्थ -परता का परिणाम है जो हमें इतना विकल , इतना पंगु , इतना जलील बना दिया है। सारा गुस्सा शान्त हो गया Iबेटी के प्रति , सन्तान के प्रति ममता जगी। उन्होंने पूर्णिमा को और निकट खींच कर , उसके माथे को चूमते हुये कहा-'मेरी पूर्णिमा , मेरी प्यारी बेटी पूर्णिमा ! मैं तुमसे कुछ कह नहीं पा रहा हूँ, पर इतना अवश्य कहूँगा तुम जब भी मौका पाना ऐसे समाज से टक्कर अवश्य लेना। तुम जो कहानियाँ लिखना उसमें साफ-साफ लिख देना कि इन पूँजीपतियों की बात का जमाने में कोई विश्वास ना करे''।
पिताजी आपकी हालत ठीक नहीं है , आप चुपचाप सो जाइये।'
'बेटी ! मैं इस समय बिलकुल ठीक हूँ। मैं तो महीनों पहले मर गया होता पर तुम्हारी चिन्ता मुझे जिलाये हुये है। तुमसे क्षमा माँगने के लिए तथा पूँजीपतियों के षडयन्त्र से बचने का सन्देश देने के लिए कुछ समय और जी रहा हूँ। बेटी! आज हिम्मत को लाख रुपयों की आवश्यकता है। दहेज चाहिये उसे ; बताओ मैं कहाँ पाऊँगा इतनी सम्पत्ति ? कैसे करूँगा तेरी शादी ? कैसे करूँगा ? अपना हाथ हिलाते हुये कह रहे थे।
' पिताजी' मैं कुछ नहीं सुनना चाहती , आप सो जाइये।'
'पूर्णिमा , पूर्णिमा , ओ पूनो -- ----- तू कहाँ चली गयी - - - - - | जा , तू भी चली गयी। काश! तू जन्मते ही चली गयी होती - - - - - - । इसी प्रकार कुछ देर तक बकते - झकते रहे , फिर रात्रि के सन्नाटे में चिन्ताग्नि की प्रबलतम
ज्वाला में जलने लगे। धक्का सँभाल सकना अब उनकी सामर्थ्य से बाहर था , परिणामत: वे उन्माद के शिकार हो गये। अब वे अक्सर बकते - झकते रहते थे। धोखेबाज साले ने मुझे धोखा दिया , मैं उसे मार डालूँगा। ऐसे विश्वासघाती को पृथ्वी तल पर नहीं रहने दूँगा। --- - - - -- दुष्ट बेईमान को ,मेरा जीना दुश्वार कर दिया।
एक दिन पूर्णिमा दवा लेने गयी हुई थी, आने में थोड़ा बिलम्ब हुआ और दीनानाथ ऐसी ही दशा में घर से निकल पड़े।
० O()O०
मानव जीवन में अनेक उतार-चढ़ाव आते हैं। कभी वह गम में आकण्ठ डूब जाता है; तो कभी खुशियों में रँगरेलियाँ मनाता है। गीता' , जो कुछ दिनों पूर्व खोयी-खोयी अनमनी-सी रहती थी , आजकल तितली बनी फिरती है। खुशी के मारे उसके पैर जमीं पर पड़ ही नहीं रहे थे၊ वह मिर्जापुर चलने की तैयारियों में व्यस्त है क्योंकि कल ही तो चलना है सुबह वाली ट्रेन से वह सारा सामान ठीक-ठाक करके सो जाती है। अभी रात्रि के डेढ़ ही बजे थे कि वह जग गयी और पुकारने लगी अपनी मम्मी को - 'मम्मी उठो सबेरा हो गया '
' -- -- -- - -- -- - -- - -- -'
'उठो न, कहीं गाड़ी छूट गयी तो -- --- - ?'
'अरी', बिटिया अभी बहुत रात है सो जा। मैं ठीक समय पर जगा दूँगी।''
वह लेट तो गयी पर बहुत देर तक नींद न आयी । तब बार-बार घड़ी देखती , अलार्म लगाती - - - ---.- - - - । कुछ देर में नींद आ गई चार बजते-बजते फिर नींद खुल गयी' । उसने नहा- धोकर माँ को जगाया। सभी लोग शीघ्र तैयार हो स्टेशन पहुँचे। गाड़ी आने में समय था। जब तक उसके पिता टिकट लेने गये, तब तक उसने सारा प्लेटफार्म , वेटिंग रूम छान मारा पर प्रकाश के कहीं दर्शन न हुये। गाड़ी आयी Iलोग बैठे। उसके चलने का भी समय आ गया , पर प्रकाश न आया। गाड़ी सीटी दे चुकी थी। गीता की माँ ने कहा- . 'बेटी तुम्हारा दोस्त अभी तक आया नहीं।''
आ तो जाना चाहिये था उसे। 'गीता ने मन्द स्वर में उत्तर दिया। उसकी आँखें प्रकाश के लिए विकल थीं। उसका न आना उसे शूल की तरह चुभ रहा था। बार-बार माँ के कहने पर कि तुम्हारा मित्र नहीं आया उसे काफी ठेस पहुँचती
ट्रेन रवाना हुईIपर यह जानते हुये भी कि प्रकाश प्लेटफार्म पर नहीं है , गीता खिड़की से देखती रही, जब तक कि वह स्टेशन आँखों से ओझल न हो गया। गाड़ी की रफ्तार के साथ-साथ गीता के दिल की धड़कन भी बढ़ती गयी। गीता को प्रकाश पर बहुत क्रोध आ रहा था। यदि नहीं आना था तो पहले ही कह दिया होता कितना कह सुनकर तो मनाया था माँ को। पहले तो वे तैयार ही न होती थीं पर किसी तरह तैयार हुईं तो जनाब गायब। क्या सोचेंगी? खैर, यात्रा पूरी हुई , पर गीता को इस पूरी यात्रा में कोई आनन्द न आया। जो झरना, बाँध, जगमगाते हुये बल्ब कभी उसके हृदय-कमल को खिला देते थे , वहीं आज उसे जला रहे थे। जौनपुर वापस आने पर उसे प्रकाश का पत्र मिला था, पर मारे क्रोध के उसने कई दिनों तक उसका उत्तर न दिया। जब क्रोध कुछ शान्त हुआ तो उसने उसे पत्र लिखा-
ओ निष्ठुरता की मूर्ति, बेवफा प्रकाश !
मुझसे मिर्जापुर चलने का वादा करके तुम घर चले गये। कितना कह-सुनकर मैंने माँ को राजी किया था, साथ चलने के लिये। तुम्हारा इन्तजार करते , मेरी आँखें दुःखने लगीं। अम्मा जी बार - बार पूछती थीं - 'बेटी तुम्हारा दोस्त कैसा है ? जो वायदा करके नहीं आया?' सोचो 'मेरे बारे में उनकी क्या धारणा बनी होगी? मेरी पूरी यात्रा नीरस हो गयी' । कहीं दिल नहीं लगता। ओ निर्मोही ! यदि तुम्हें जाना ही था तो कम से कम कह तो देते कि हम जा नहीं सकेंगे - - -- - -- तुम्हारे जैसे लोग पूरे पुरुष वर्ग को बदनाम करने के लिए जिम्मेदार हैं---- - - I
प्रकाश ! काश! तुम नारी सुलभ कोमलता एवं स्नेह को जान पाते और क्या लिखूँ. - - --- - -- I
तुम्हारी --
.. गीता
गीता को पूर्ण आशा एवं विश्वास था कि उसे पत्रोत्तर अवश्य मिलेगा। लेकिन जब तीन सप्ताह बीत गये और पत्रोत्तर न मिला तो उसने दूसरा पत्र लिखा। तीसरा लिखा - - - - - Iकई पत्र लिखे उसने ; पर कोई उत्तर न मिलना था , न मिला।
जब पुरूष की कठोरता का शिकार कोई नारी होती है तो उसे आँसू बहाने के सिवा और कोई मार्ग नहीं रह जाता। गीता मुरझाये फूल की भाँति कुम्हला कर रह गयी। अब तो आँसू बहाने तक ही हाथ था।
धीरे-धीरे गर्मी की छुट्टियाँ बीत गयीं। कालेज खुले। गीता ने कालेज में प्रवेश लिया। उसे विश्वास था कि प्रकाश अवश्य आयेगा , लेकिन प्रकाश तो कब का विदेश जा चुका था। उसके मस्तिष्क से गीता की स्मृतियाँ निकल चुकी थीं। वह अब अंग्रेजी रंग में रँग गया था। उसे वहाँ के पार्क , थियेटर एवं कैफे हाउस पसन्द आने लगे थे।
प्रकाश जब महीनों तक न आया तो गीता को चिन्ता होने लगी। उसको देखकर मनचले युवक व्यंग करते-'क्यों जी ! आप अकेली ही जिन्दगी काट रही हैं प्रकाश कहाँ गये?' कभी कोई कहता - .' प्रकाश नहीं है तो क्या ? मैं तो हूँ न ? क्यों न - - - -- -- - ?'
एक तो चिन्ता , दूसरे व्यंग बाण , दोनों ने मिलकर उसकी हालत को और गम्भीरतर बना दिया। अब रात-दिन वह जाने क्या-क्या सोचती रहती है 'इसी चिन्ता ने उसे जर्जर बना दिया।. परिणामस्वरूप वह शीघ्र ही चारपायी पर पड़ गयी। सारा शरीर पीला पड़ गया। आँखें धँस - सी गयीं। न खाने की सुध ,न नहाने की चिन्ता । उसके पिता जी ने पर्याप्त दवा किया। पर हालत कोई खास सुधार न हुआ।
शहर के माने हुये डॉ०केदार सिंह ने राय दी कि इसे कहीं रिश्तेदारी आदि में ले जाइये जहाँ अनेक लोग मिलेंगे , विभिन्न प्रकार की बातचीत होगी ; दिल बहलेगा और सोचने वाली क्रिया कम हो जायगी तो बहुत संभव है , कुछ आराम मिले। या तो इसे लेकर कुछ दिनों के लिए. पर्वतीय क्षेत्र में चले जाइए तो भी काफी राहत मिल सकेगी।
अभी वे लोग दवा लेकर घर पहुँचे ही थे कि गीता की एक सहेली (क्लास फेलो ) उससे मिलने आयी ; उसका हाल देखकर तो वह बिलकुल सन्न रह गयी। उसने पहुँचते ही पूछा- ''अरी बहन , तुम्हारी ये हालत ?!'
'कुछ नहीं रमा! सब किस्मत का फेर है।'
'बहन चिन्ता न करो' , सब ठीक हो जायगा , मेरी एक बात मानोगी?'
'क्यों न मानूँगी,तुम्हारी नहीं तो किसकी मानूँगी?
'मेरे साथ मेरे घर चलो आगरा के बहुत बड़े डॉक्टर से मिलाऊँगी। बहन , डॉक्टर साहब ,मेरे जीजा जी, मेरे घर ही आये हुये हैं। वे छूते-छूते दूर कर देंगे ये रोग।'
'' - - - -- - - - ''गीता चुप थी
'बहन ,वे बड़े नेक, हँसमुख मिलनसार हैं।'
गीता फिर भी चुप रही। इसके बाद रमा ने गीता की माँ से कहा-'अम्माजी' हमारे यहाँ जीजा जी, जो आगरा के एक बड़े अस्पताल में डॉक्टर हैँ, आये हुये हैं। गीता बहन को यदि मेरे साथ जाने दें तो संभव है बहन ठीक हो जायँ। कहते-कहते
वह रुआँसी हो गयी।
'अरी बिटिया मैंने कम दवा नहीं की ; लेकिन क्या बताऊँ, कोई दवा जैसे काम ही नहीं करती?''
'आखिर मेरे यहाँ चलने में क्या हर्ज है? मैं भी तो आपकी बेटी हूँ।'
'सो तो ठीक कह रही हो पर अपने घर में गीता को कैसे रख सकोगी?'
'अम्मा जी आप तनिक भी चिन्ता न कीजिये मैं गीता बहन को कोई तकलीफ न होने दूँगी।'
उस की हमदर्दी और गीता की हालत देखकर वह कुछ न कह सकीं।' रमा गीता के पास आयी और बोली- 'बहन मेरे घर चलना है।.'
'अरी रमा ! तुम्हें हो क्या गया है ? एक तो मेरी हालत खराब है, दूसरे तुम्हारे घर ...........।'
'अरे ! उसी के इलाज हेतु तो आपको ले चल रही हूँ।'
'रमा तुझे नहीं मालूम कि मुझे क्या हुआ है ? मेरी बीमारी का कारण डॉक्टर लोग नहीं जान सकते ।'
'नहीं बहन! मेरे जीजा जी ऐसी बीमारियों को झट से दूर कर देते हैं। '
'अच्छा तो तेरे जीजा जी हैं डॉक्टर? गीता ने व्यंग करते हुए कहा - 'तुम्हारा तो इलाज कर दिये न ?'
रमा को गीता का व्यंग बहुत अच्छा एवं सुखद लगा और उसे पूर्ण विश्वास हो गया कि वह अपने प्रयास में सफल अवश्य होगी। '
'गीता को उस दिन की याद आ गयी जब प्रकाश को छोड़ने गयी सहेलियों में से किसी ने कहा था - 'अरी,जीजा जी तो बड़े पहलवान हैंI'
'तुम डर रही हो क्या?'गीता ने कहा था। '
'नहीं , मैं सोचती हूँ कि आपकी - - - - - - - l''
तभी गीता की माँ आ गयीं , बोलीं- 'तुम्हारे माता-पिता क्या कहेंगे? .
'अम्माजी , आप बिल्कुल फिक्र न करें, मैं उन्हें समझा दूँगी।''
'बेटी ,यदि जाने पर कुछ - - - - - - - ।'
'मैं जा रही हूँ अम्मा से पूछकर आऊँगी। बहन तुम तैयार रहना।' और वह चली गयी। अपनी माँ से सारा वृत्तान्त कह सुनाया। पहले तो उसकी माँ ने कुछ मीन मेष किया पर उसके हम्मीर हठ के आगे उनकी एक न चली.। अन्ततः उन्हें स्वीकृति देनी ही पड़ी।
. सायंकाल गीता को लिवाकर रमा अपने घर आयी। रमा और गीता दोनों ऊपर वाले कमरे में थीं। उसके बगल में ही डॉ० राजेश का कमरा था। वे बाहर कहीं घूमने गये हुये थे। रमा उनके कमरे में लिवा गयी। सामने मेज पर उनकी डायरी पड़ी थी ,डायरी में ही उनका फोटो था , उसे दिखाया। यह फोटो बहुत कुछ प्रकाश के चेहरे से मेल खाता था। गीता एक बार पुनः छटपटा उठी। ये दोनों राजेश के कमरे में अभी बात कर ही रही थीं कि तभी वो भी आ गये। रमा ने कहा- 'बड़ी उम्र हो आपकी। हम अभी आप ही के विषय में बातचीत कर रहे थे। बहन ! यही हैं हमारे जीजा जी ।'
'नमस्ते' हाथ जोड़कर गीता ने कहा। '
'नमस्ते'डॉ० ने रमा की ओर मुखातिब हो कर कहा-'आपका परिचय ?'
'जी हाँ , यह तो मैं भूल ही गयी थी.I आप हैं मेरी सहेली- 'गीता' । आजकल तबीयत खराब चल रही है। सोचा थोड़ा नये वातावरण में दिल बहल जायेगा' आँखें झपकाते हुये रमा ने कहा।
'' और, बहन गीता जी , आप हैं आगरे वाले जीजा जी, जो दिन भर अस्पताल में मरीजों का इलाज करते हैं। शाम को जीजी इनका इलाज कर देती हैं।
गीता को यह विनोद एकदम नीरस लग रहा था၊
उसे प्रकाश याद आ रहा था Iराजेश ने अपने कपड़े बदले। रमा गीता को वहीं छोड़ चाय-वाय
लाने के लिये नीचे चली गयी। गीता ने राजेश को , राजेश ने गीता को चोरी-चोरी देखा। तभी रमा आ धमकी और कटाक्ष करती हुई बोली- 'जीजा जी ! मेरी सहेली की तबीयत तो पहले से ही खराब है , ऊपर से आपकी ताक-झाँक , कहीं नजर लग गयी तो ? गीता शर्म से निगाहें नीची किये बैठी ही रही और रमा बोले जा रही थी - 'जीजा जी, आप स्वयं को डॉक्टर कहते हैं। यदि मेरी सहेली को सप्ताह अन्दर ठीक कर दीजिये तो आपको डॉक्टर जानूँ वर्नां- - - - - I'
राजेश भी कम मजाकिया नहीं था। फिर बीबी की छोटी बहन तथा उसकी सहेली के साथ मजाक करने में भी तो एक खास आनन्द की प्राप्ति होती है। वह तपाक से बोल उठा - "अजी तुम्हारे समेत तुम्हारी सहेली को ठीक कर दूँ तो मुझे डॉक्टर कहना।' वह थोड़ा मुस्कराकर आगे बोला- ''मैं वो डॉक्टर नहीं हूँ जो तुम जैसी छोकरियों से डर कर भागते हैं; मैं रात - दिन एक कर देता हूँ इलाज करने में। हाँ ,शर्त ये है कि कहीं मरीज डर कर मैदान न छोड़ दे I'
लोगों ने चाय-वाय पी और राजेश किसी से मिलने बाहर चले गये। गीता और रमा परस्पर बातों में इतनी लीन हुईं कि समय का ध्यान ही न रहा काफी रात बीते वे लोग नीचे आयीं |
रात्रि में लौटने पर राजेश ने रमा से गीता के बारे में बहुत कुछ पूछा। उसके. कालेज लाइफ के बारे में जानकारी प्राप्त कर घरेलू परिस्थिति और कब से ऐसी दशा है आदि-आदि बातें पूछ कर बहुत देर तक सोचते रहे और फिर रमाको बताया कि इन्हें कुछ दिनों के लिए पर्वतीय क्षेत्रों में ले जाया जाना चाहिये और मैं जो दवायें लिख रहा हूँ उन्हें लेती रहें। फिर मैं महीने दो महीने में देखकर बताऊँगा। गीता ने दवा की और धीरे-धीरे स्वास्थ्य लाभ भी कर चुकी । राजेश कोई डेढ हफ्ते यहाँ रहे उनसे मिलकर काफी राहत पायी , परिचय भी हो गया। जाते समय राजेश ने रमा से कहा-' देखो रमा, जब भी गीता को तनिक भी तकलीफ हो मुझे अवश्य सूचित करना ,वैसे यह दवा चलाती रहना। गीता की सुधरी दशा देखकर उसके माता-पिता बहुत खुश थे' इसी बीच गीता के पिता का ट्रान्सफर मंसूरी हो गया। 'अन्धा क्या चाहे, दो आँखें '। डॉक्टर की सलाह भी थी, इधर ट्रान्सफर भी हो गया। रमा बहुत खुश थी उसे विश्वास हो गया कि वहाँ जाकर गीता कि हालत अवश्य सुधर जायगी और वह पूर्ण स्वास्थ्य लाभकर सकेगी।'
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कहते हैं आने वाले समय की छाया पहले ही दिखाई पड़ने लगती है। प्रकाश को विदा करते हुए हिम्मत श्रीहत हो गये। उनकी आँखें आज पुनः इर्द-गिर्द उपस्थित इष्ट - मित्रों पर पड़ी। प्रीति भोज में आये लगभग सभी लोग उपस्थित थे सिवा दीनानाथ के। दीनानाथ का ख्याल आते ही हिम्मत की अन्तरात्मा ने उन्हें धिक्कारना प्रारम्भ किया।
'ऐ दुष्ट ! तूने एक वफादार मित्र को धोखा दिया , उसके साथ विश्वासघात किया है। यदि वह न होता तो शायद आज यह दिन देखने को न मिलता। जिस प्रकाश को तुम आज विदेश भेजने में गर्व का अनुभव कर रहे हो, उसका श्रेय तुम्हें नहीं हिम्मत , उस गरीब फरिश्ते दीनानाथ को है। यद्यपि दीनानाथ गरीब है पर इससे क्या हुआ? क्या गरीब आदमी आदमी ही नहीं होता ? बताओ कितने पूँजीपति हैं जिनमें मानवोचित सद्गुण विद्यमान हैं। ठीक है आज तो तुम रुपयों के पीछे पड़े हो ,धन -वैभव के गर्व में भूले हुये हो; पर संभव है किसी दिन तुझे इन रुपयों से भी मूल्यवान वस्तु की उपलब्धि उस गरीब की कुटिया से हो। हिम्मत यह मत भूल वह गरीब इन्सान तुझे अनमोल भेंट प्रदान कर चुका है। कहावत है - 'गुदड़ी में लाल छिपे रहते हैं। 'गरीब के रूप में दीनानाथ वस्तुतः फरिश्ता है। हिम्मत की आँखें नम थीं। लोगों ने समझा प्रकाश के बिछोह के कारण स्नेहवश इनकी आँखें सजल हैं, पर वास्तविकता कोई जान न सका। वे प्रकाश को दिल्ली जा रही ट्रेन पर बिठाकर वापस आये। प्रकाश कुछ दिन दिल्ली में रह कर विदेश चला गया।
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प्रकाश के जाते ही हिम्मत के घर में अँधेरे की अभिवृद्धि होने लगी। प्रकाश की माँ अत्यधिक दुःखी थीं। धीरे-धीरे उनकी हालत पुनः बिगड़ने लगी। डॉक्टरों को दिखाया गया। अच्छी से अच्छी दवा की गयी पर वे पूर्णतः स्वस्थ न हो सकी। दिनेश तथा पार्वती पढ़ने चले जाते। हिम्मत सिंह पार्वती की शादी के लिये वर की तलाश में दौड़ने लगे। पर कहीं कोई योग्य वर दिखायी ही न पड़ता। जो एकाध मिलते भी उनके लिये दहेज के रूप में भारी रकम की माँग की जाती थी। किसी प्रकार वे राय बहादुर वोरेन्द्र सिंह से बात तय किये ,पचास हजार तो तुरन्त दिये शेष कार नकद बारात' का खर्च आदि-आदि अलग।
संयोग की बात है , दौड़ धूप कर किसी तरह शादी तय किये पर जब विवाह की तैयारियों का समय आया ; उन पर कहर टूट पड़ा। उनके बड़े पुत्र राजेश की तबीयत खराब हुई उसे ब्लड प्रेशर एवं शुगर की शिकायत थी। यद्यपि अनेक डॉक्टरों ने उत्तमोत्तम इलाज किया पर वह स्वास्थ्य लाभ न कर सका। एक दिन पूरे परिवार को रोता - बिलखता छोड़कर इस संसार सै चला गया। हिम्मत सिंह हिम्मत हार गये पर प्रकाश के मामा उन्हें समझाने , बुझाने एवं ढाँढ़स बँधाने लगे। परिणाम यह हुआ कि धीरे धीरे वे राजेश के बिछुड़ने का गम भूलने लगे; पर प्रकाश की माँ ने तो खाना-पीना छोड़कर रोते-सिसकते चारपायी पर पड़ गयीं। जैसे -तैसे राजेश की अन्त्येष्टि. आदि किया करवाया। अभी क्रिया-कर्म बीते चार माह भी नहीं हुये थे कि प्रकाश की माँ भी चल बसीं। हिम्मत की दशा का वर्णन शब्दों में करना संभव नहीं। जिसका एक पुत्र विदेश गया हो , बड़ा पुत्र तथा पत्नी स्वर्ग सिधार जायँ , वह भी चार ही छः महीने में । उसकी दशा का क्या वर्णन किया जाय। अब हिम्मत बहुत उदास रहने लगे थे'। उनके इष्ट मित्र , जो उनसे मिलने आते , ढाँढ़स बँधाने की कोशिश करते पर हिम्मत बुजदिलों सा सिसक - सिसक कर रोते। उन पर क्या बीत रही थी, यह सहृदय हृदय संवेद्य ही है ।
विपत्ति कभी अकेले नहीं आती। हिम्मत के बुरे दिन थे। पुत्र व पत्नी का एक ही वर्ष के अन्दर स्वर्गवास; इसी वज्रपात के कारण वे पुत्री की शादी इस वर्ष कर सकने की स्थिति में न थे। उधर राय बहादुर वीरेन्द्र सिंह को अच्छा मौका मिला। वे मुकरना ही चाहते थे,पर हिम्मत की दशा देखकर वे और कुछ दिनों तक इन्तजार करने पर राजी हो गये। यद्यपि उनकी बातों से यह साफ जाहिर था कि वे किसी भी क्षण मुकर सकते हैं।
उनकी बातचीत ने हिम्मत को और भी मुश्किल में डाल दिया। वे इन सभी कठिनाइयों से जूझते रहे। प्रकाश के मामा ने बार-बार समझाया कि यदि आप ही जार -जार रोयेंगे तो दो बच्चे हैं वे क्या करेंगे? परिणामतः वे हिम्मत कर दिन्नू और पारो को बहुत समझाते और विद्यालय नियमित रूप से भेजते रहे। जब दोनों बच्चे पढ़ने चले जाते , तब हिम्मत फूट-फूट कर रोते। इसी प्रकार उनकी गृहस्थी चल रही थी। अब उन्हें रह -रहकर अपने मित्र दीनानाथ की याद आ जाती।' मुझे अपनी छोटी-सी बच्ची की शादी करने में इतनी कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है . पर जिसकी बेटी मेरे आश्वासन पर सयानी हो चुकी थी और तब मैंने इनकार कर दिया । उस पर क्या गुजर रही होगी? वे कई बार चाहकर भी दीनानाथ से न मिल सके। उन्हें यह मालूम न था कि दीनानाथ उनके विश्वासघात का शिकार हो उन्मादावस्था में घर से कहीं चले गये हैं, अपनी लाडली को अपने हाल पर छोड़ कर। परन्तु जो सिर पर पड़ती है उसे तो सहना ही पड़ता है၊वे हिम्मत करके आगे बढ़ने की कोशिश करते रहे၊ समय बीतता गया।
इतनी बिपत्तियाँ झेलने के बाद भी हिम्मत की अग्निपरीक्षा बाकी थी उनका गाँव बाढ़ की चपेट में आ गया । यद्यपि बाढ़ कुल मिलाकर एक सप्ताह ही रही ; पर उससे बहुत बड़ी क्षति हुई। बाढ़ का पानी उतरने के बाद चारों ओर गली-कूचों के गड्ढों में एकत्र कूड़ा और खेतों में खड़ी फसलों के सड़ने से भीषण हैजे का प्रकोप हुआ जिधर नजर उठती ,उधर ही लोग कै-दस्त करते नजर आते। कोई घर ऐसा न था , जिसमें इस प्रकोप के शिकार एक दो व्यक्ति न हुये हों। लोग मरने लगे। ऐसा लगता था मानो अब पूरा गाँव ही काल कवलित हो जायेगा। हिम्मत सिंह बार-बार विनय करते कि इतने झंझटों,बज्र- प्रहारों को सहनेवाला मैं ही हैजे का शिकार क्यों नहीं हो रहा हूँ ? मुझे और कितनी तकलीफ बदी है? लेकिन यह अपने वश की बात न थी उन की लाडली बेटी पारो भी हैजे में पकड़ी गयी। अब हिम्मत को एक बार फिर दीनानाथ की याद आने लगी। उनके मुँह से अचानक निकल पड़ा - 'ओह! काश! आज दीना दोस्त होता तो बहुत संभव है वह इस विपत्ति का भी कोई उपाय अवश्य बताता। फिर गुस्सा भी आया - 'उसके सन्तोष का ,पीड़ा और आहों का ही तो यह परिणाम हम भुगत रहे हैं। मैंने जो विश्वासघात किया उसका परिणाम ही तो यह सब है 'फिर अपने मन को समझाते-' ऐ दुष्ट ! तूने दीन-दुखियों को कष्ट दिया है, अत: भोग। राजा दशरथ ने श्रवण को मार दिया तो उन्हें भी पुत्र वियोग में मरना पड़ा। रुपयों के गर्व में तुम ने दीनों को तड़पा-तड़पा कर मारा है। किसी को बाल- बराबर भी नहीं समझा ; फिर क्यों दुःखी हो रहे हो? जिन्दगी भर बबूल का बिरवा लगाते रहे और आशा करते हो आम खाने की '। ऐसा कभी न हुआ है, न होगा ही।
सरकार की तरफ से हैजे की रोकथाम तथा सफाई आदि का पूर्ण प्रबन्ध था, फिर भी बहुत -से लोग मारे गये। उनकी बेटी पारो ही उस हैजे जैसी भीषण ज्वाला की अन्तिम आहुति बनी। हिम्मत ने अपने निष्ठुर हाथों से अपने प्राणों से प्रिय लाडली बेटी को माँ गंगा के हवाले कर दिया।
आज ही दिनेश का परीक्षाफल आने वाला था। वह परीक्षा फल देखने गया हुआ था। तभी उसकी बहन गुजर गयी थी । परिस्थितियों को देखते हुये उसे जो उम्मीद थी , वही हुआ। दिनेश इस बार उत्तीर्ण न हो सका। अतः दुःखी मन वह घर आया। घर आने पर अपने पिता और मामा को रोते हुए पाया और उसे रुदन का कारण , (उसकी बहन की मृत्यु ) का भी पता चल गया वह अविलम्ब . उल्टे पाँव वापस चल दिया' । लोग सोच रहे थे- 'कहीं गया होगा ., आयेगा ही। 'पर जब लड़कों ने बताया कि वह फेल है तब उसके मामा को उसे ढूँढने की चिन्ता हुई पर अपने जीजा जी को दयनीय दशा में छोड़कर उसे ढूँढ़ने न जा सके। जब कुछ हालत सुधरी तब उसकी तलाश प्रारंभ हुई।
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रविवार , जी हाँ आज रविवार है। आज ही के दिन पूर्णिमा के पिता-दीनानाथ घर से चले गये थे। उनके जाने से पूर्णिमा की परेशानी काफी बढ़ गयी थी। वह खाना- पीना छोड़ उनकी तलाश में दौड़ती रही। पुलिस स्टेशन में हुलिया करवाया ,अखबारों में गुमशुदगी का विज्ञापन छपवाया, आकाशवाणी से लापता होने की सूचना प्रसारित करवाया। आसपास के गाँवो' गली-मुहल्लों में तलाश किया, पर उनका कहीं पता न चल सका। अब वह घर से दूर स्टेशनों , प्लेटफार्मों , प्रतीक्षालयों में उनकी खोज करने लगी। पर सब व्यर्थ गया Iखोज - बीन करते धीरे-धीरे महीनों बीत गये। पर कहीं भी पता न चल सका। अन्त में निराश होकर वह अपनी कुटिया में चारपायी पर पड़ गयी। उसकी सेहत खराब हो चुकी थी। पास-पड़ोस की स्त्रियाँ अक्सर समझाने का प्रयास करतीं। अभी-अभी बीना की माहेश्वरी चाची आयी हैं। वे सर्वप्रथम पूर्णिमा का दुःखड़ा पूछने आयी हैं। उन्हें देखते ही पूर्णिमा बिफर पड़ती है। उसे समझाते हुये माहेश्वरी चाची कहती हैं - 'बिटिया! पूर्णिमा ! मत रोओ। मुझे देखो कितना - कितना कष्ट सह कर भीअभी वैसी ही हूँ - - - - - - - - ।''
'चाची, कैसे धैर्य धरूँ? माँ चली गयीं , सन्तोष हुआ । पिता के सहारे मैं जी रही थी , पर पिताजी- - - - - - - - - - I'जोर-जोर से रोने लगी। उसके आँसू पोंछते हुये - 'बिटिया! रोने से कुछ फायदा नहीं है उल्टे हानि ही होगी। यदि रोने से आ जाते तो मैं भी बैठी रोती - - - - - ।'
'पिताजी मुझे किसके सहारे छोड़ गये चाची ?'
'जिसके सहारे ये पूरी दुनिया है पगली, उसी मालिक के सहारे।'
'चाची पिताजी कहाँ होंगे? किस दशा में होंगे?
जिस दशा में वे घर से गये , क्या खाते होंगे? कौन दवा देता होगा? किसे बेटी कह कर बुलाते
होंगे - - - - - - ?'
'भगवान सबका मालिक है सहायक है बिटिया। उसके सिवा कौन किसकी सहायता करता है ? आदमी तो मात्र निमित्त बनता है।
'चाची' ढेर सारी दवायें दिखाती हुई पूर्णिमा बोली- .' ये दवायें मैं क्या करूँगी? मैं कुछ समय पहले आ गयी होती तो पिताजी शायद मिल जाते -------।'
'पूर्णिमा ऐसी बात सोचने से कष्ट नहीं कटने का है। उठो, हाथ - मुँह धो लो, ये दुर्गा माँ का प्रसाद
लायी हूँ , इसे ग्रहण करो। माँ का ध्यान करो , माँ ने चाहा तो उनसे शीघ्र भेंट होगी ।'
'सच , चाची ?!'
'सच , बेटी! माँ में अपार शक्ति है उस पर विश्वास रखो ।''
वह उठकर हाथ - मुँह धोकर प्रसाद ग्रहण करती है၊ तदुपरान्त पिताजी को कहाँ -कहाँ और कैसे-कैसे ढूँढ़ती रही यह सारी दुःख कथा एक सिरे से कह सुनायी।
' चाची, ढाँढ़स बँधाती रहीं और उन्होंने कुछ दिनों साथ रहकर उसे साहस भी दिया। वह धीरे-धीरे अपना दुःखड़ा भूलने लगी और दुनिया के गोरखधन्धा में लग गयी।
अब तक बँटायी का भी कुछ अनाज आ गया था। अब वह पुस्तकों के स्वाध्याय एवं कहानी लेखन में अपना समय बिताने लगी।
जब उसकी दशा कुछ सुधरी , माहेश्वरी चाची बीना चली गयीं। अब पूर्णिमा अपनी कुटिया में रह गयी अकेली। कुछ दिनों तो ऐसे गुजरे, पर जब यह बात कालेज के छात्रों को ज्ञात हुई कि दीनानाथ घर से भाग गये हैं और पूर्णिमा आजकल अकेली ही रह रही है। कालेज के उद्दण्ड मनचले छात्र बहुत खुश हुये। अब वे इधर से ही आते-जाते और ताक-झाँक करते। इन स्कूली बालकों की हरकतों से वह परेशान थी। कोई कंकड़ी फेंक देता , कोई फिल्मी तराने ही छेड़ देता --
शाम ढले जमुना किनारे ऽ, किनारे ऽऽ,
आजा राधा , आजा तुझे शाम पुकारे ऽऽ ।'
तो कोई मानो निर्णय लेने के उद्देश्य से पूछ बैठता - '
'मेरे मन की गंगा और तेरे मन की जमुना का,
बोल राधा बोल संगम होगा कि नहीं।'
पर पूर्णिमा इससे तनिक भी भयभीत या विचलित नहीं हुई। उसने संघर्ष करने के लिए ही तो जन्म लिया था। अभी वह दुःख - दर्दों से समझौता करने की ही सोच रही थी कि तभी एक दिन रात्रि के नीरव सन्नाटे में एक अजनबी नवयुवक उसकी कुटिया में प्रविष्ट हुआ। पूर्णिमा कहानी लिख रही थी। किसी के आगमन की आहट से वह कुछ भयभीत हुई। उसकी धड़कन बढ़ गयी। अभी वह साहस बटोर कर कुछ बोलने ही वाली थी , कि तभी उस नवयुवक के हाथ से 'रामपुरी 'चाकू के खुलने की आवाज आयी। पूर्णिमा की हालत और गम्भीर हो गई। परन्तु कष्ट एवं संघर्ष इन्सान को इतना पुष्ट एवं दिलेर बना देते हैं कि वह जानपर खेलना आसान काम समझने लगता है। पूर्णिमा के मस्तिष्क में यह बात आयी कि इस संसार में रह कर भी क्या करना है ? माँ-बाप जब चले गये तो अकेले कष्ट भुगतने से अच्छा है किसी इंसान के काम आ जाना । फिर क्या था ! निर्णय तो कर ही चुकी थी। उसके चाकू तथा अपने प्राण की तनिक भी परवाह न करते हुये बोली- 'कहिये भाई साहब! आप इतनी रात्रि को इधर कैसे आये ?'
' - - - - - - - - - - - 'बिना कुछ बोले वह एकटक पूर्णिमा को निहारने लगा।
'मैं आपसे ही पूछ रही हूँ भैया! आपके पहनावे से तो साफ जाहिर है कि आप एक शरीफ खानदान के नवयुवक हैं। आपके ऊपर आप के माँ-बाप कितने अरमान सँजोये होंगे?!. इस प्रकार गली - गली घूमने से क्या उन्हें दुःख नहीं होगा ?'
' - - - - - - - - - - - -- -' फिर भी कोई जवाब नहीं मिला। वह कहती ही जा रही थी - 'किसी गरीब लाचार की बेटी को चाकू -छुरा दिखा कर
उसकी इज्जत लूटना क्या कोई अच्छा काम है? क्या जिन बस्तियों में होकर आप गुजर रहे हैं , उनमें निवास करने वाली , भाग्य की मारी माँ- बहने, आपकी माँ-बहने नहीं हैं। सोचिये आपकी बहन के साथ कोई दुर्व्यवहार करे तो क्या आपको अच्छा लगेगा?' भाई साहब लोगों ने कहा है - ''जो अपने प्रतिकूल हो उसका दूसरों के प्रति व्यवहार नहीं करना चाहिये।''
वह अब भी किंकर्तव्यविमूढ़ - सा एकटक उसकी ओर निहार रहा था। उसके हाथ में क्रूर काल की जिह्वा सदृश नग्न चाकू अब भी विराजमान था पूर्णिमा उसका मौन भंग करने के लिये आगे बोलती जा रही थी - 'भाई साहब संसार में कोई ऐसा कार्य न कीजिये , जिसके लिए आपको कभी पश्चाताप करना पड़े।
वह नवयुवक मन्त्रमुग्ध - सा देखता ही जा रहा था। उस पर अजीब जादू चल गया था। पूर्णिमा उसकी चुप्पी तोड़ने में अब भी नाकाम थी। उसने पैंतरा बदला। बोली- 'अच्छा भैया! छोड़िये ये सब बातें; अब आप यह बताइए कि आप यहाँ आये किसलिये?"शायद यह आपकी अभागी बहन आपकी कुछ सेवा कर सके। आप विश्वास कीजिये आप चाहेंगे तो यह प्राण भी समर्पित कर देगी।"
पूर्णिमा के चेहरे से. एक प्रकार की ज्योति निकल रही थी ,उसके अन्दर अकूत साहस भर गया था और उसकी जिह्वा पर मानो सरस्वती विराजमान थीं। उसके उन्नत वक्षस्थल, बालचन्द्र- सी भौंहें , नुकीली नासिका चंचल हिरनी -से नेत्र सब के सब आद्वितीय थे। उसे ऐसा लगा मानो यह पूर्णिमा की कुटिया नहीं , माँ सरस्वती का मन्दिर है और उसमें माँ शारदा स्वयं विराजमान हैं। उसके मस्तक पर स्वेद - विन्दु छा गये। उससे कोई उत्तर न बन पड़ा। जब पूर्णिमा ने कहा-'आप अपना इरादा तो बताइये, शायद , आपकी यह अभागी बहन आपकी कुछ सेवा कर सके।' तो वह चौंक पडा़, मानो सोये से जग गया हो। उसने चाकू दूर फेंक दिया और थोड़ा झुक कर पूर्णिमा के पैर छूने के लिये आगे बढ़ा। पूर्णिमा थोड़ा पीछे हट गयी और बोली- 'भाई मेरा पैर क्यों छूते हो?'
'देवि , मैं गलत सोच रहा था। मैं कुछ नापाक इरादे से यहाँ आया .था ,मैं पापी हूँ , मुझे---- - -I'
'अरे भाई , यह संसार है। इसमें बहुत - से ऊँचे -नीचे रास्ते हैं। अगर तुम अपना मार्ग भटक गये तो क्या हुआ? फिर गलतियाँ करना तो मानव का स्वभाव ही है । आज का तो सारा समाज ही मार्गच्युत हो गया है। '
'नहीं , देवि ! मुझे आज तक यह ज्ञात नहीं था कि गरीब की कुटिया में साक्षात् सरस्वती का निवास होगा। मैंने लक्ष्मी के घमण्ड में गरीबों पर जुल्म ढाये हैं 'पैसे के बल और चाकू की नोंक पर गरीबों की इज्जत लूटी है -- - -- काश! मैं और पहले यहाँ आया होता तो - - - - - - - ।''
'देखो भैया! इस संसार में काम - वासना या भोगों में सुख नहीं। यदि सच्चा आनन्द चाहते हो तो किसी गरीब , दुःखिया बेसहारा को सहारा देकर उसे अपनी बहन बनाकर , भाई का प्यार देकर देखो ; किसी भूले - भटके राही को उसकी मंजिल पर पहुँचाकर देखो , कितना सुकून प्राप्त होता है।''
'बहन ,आपने मेरी आँखें खोल दी। मैं अब कभी ऐसी भूल नहीं करूँगा। अब मैं आपके सामने शपथ लेता हूँ कि आज से अपने अत्याचारों का प्रायश्चित करूँगा।'
''भैया ,मेरे लिये इससे बढ़कर खुशी की बात क्या होगी?' पूर्णिमा का शरीर रोमाञ्चित हो उठा। उसकी खुशी का कोई ठिकाना न था।
वह शीश झुकाकर पीछे हटा , मानो मंदिर से वापस लौट रहा हो।' बाहर अन्धेरे में कहाँ खो गया कुछ पता नहीं चला। रात्रि काफी बीत चुकी थी' । उसके जाने के बाद पूर्णिमा काफी देर तक सोचती रही। उसकी कहानी आगे तो न बढ़ सकी ; पर नया प्लॉट उसके सामने उभर आया। उसने लालटेन बुझाई और चार पायी पर लेटे- लेटे जाने क्या-क्या सोचती रही। उसे कब निद्रा ने आ दबोचा उसे , याद नहीं।
वह सुबह जगी तो सूरज निकल चुका था। वह जल्दी-जल्दी झाड़ने - बुहारने लग गयी। कागज -कलम अभी भी टूटी कुर्सी के निकट अस्त-व्यस्त पड़े थे। वह उन्हें झाड़ -पोंछ कर समेट ही रही थी कि दरवाजे के पास एक लिफाफा मिला। उसमें बड़े ही सुन्दर अक्षरों में लिखा था -
'मेरी पथ-प्रदर्शिका. देवी के चरणों में सादर'
वह उसे उठाकर कुर्सी पर रख कर सफाई करने लगी, ताकि शीघ्र उसे देख सके। तभी एक बूढ़ी पड़ोसन , जिसने रात उस नवयुवक को इसके घर की ओर आते देखा था , आ पहुँचीं और पहुँचते ही बोलीं- ''क्यों बिटिया पूनो! रात बहुत देर से सोयी थी क्या? जो इतना दिन चढ़े जग रही हो? ।'
'हाँ , अम्मा ! रात काफी देर तक जगती रही---I'
'क्या कोई आया था?'बूढ़ी पड़ोसन का प्रश्न था।
'आने वाला बचा ही कौन है? हाँ राह चलते जो भटक जाते हैं, वे कभी-कभार इधर से निकल जाते हैं - - - - - -- - ।'
'अच्छा तो कोई भूला राही था।''
'हाँ, एक राही भटक गया था। ''
'क्या उसे रास्ता बता दिया? 'उसकी आँखों से विस्मय छलक रहा था।
'हाँ, अपनी समझ में जो उचित मार्ग था ,बता दिया' पूर्णिमा के इस उत्तर से उसे कोई सन्तुष्टि न हुई। वह उसके अंग - प्रत्यंगो को घूर - घूर कर देखने का प्रयास कर रही थी !
पूर्णिमा ने उसके मनोभाव को भाँप लिया और बोली' - 'अम्माजी क्या आपको कोई सन्देह है क्या?' यह प्रश्न सुनकर बुढ़िया थोड़े सकते में पड़ गई। बोली- ' नहीं बेटी, मैं सन्देह क्या करूँगी? पर हाँ , जमाना बड़ा खराब है। आजकल कौन बहू बेटी चीन्हता है। जिस घर में अनेक लोग हैं वहाँ तो ये ऊधम मचाने वाले मन चले पहुँच ही जाते हैं फिर तुम तो अकेली हो?!'
'अम्माजी अकेला तो ईश्वर है , सो सर्व शक्तिमान माना जाता है। मैं यदि अकेली हूँ तो मेरा कोई क्या कर सकेगा?'
'कोई बात नहीं बेटी, 'मैंने सोचा-'पड़ोस की बात है , कहीं कुछ हो गया तो लोग क्या कहेंगे? खैर ठीक है। अच्छा चलो नहा- धोलो ।मैं भी चलूँ अभी बच्चे मेरी राह देखते होंगे।'
बुढ़िया तो चली गयी पर पूर्णिमा वहीं खड़ी- खड़ी सोच रही थी कभी अपने विषय में कभी बुढ़िया की शंकालु प्रवृत्ति एवं उसकी बातों के विषय में।
कुछ देर बाद वह कुटिया में वापस आयी तो पुन: दृष्टि लिफाफे पर पड़ी। वह चारपायी पर बैठकर पढ़ने लगी--
'मानवता की देवी !
मैं अभागा हूँ जो तुम्हारा दर्शन पाकर भी तुम्हारी चरण -रज माथे पर न लगा सका, इसका मुझे आजीवन दुःख रहेगा। पर देवि ! आज से मैं तुम्हारे द्वारा दिखाये गये मार्ग पर अग्रसर होने का प्रयास करूँगा Iयदि इसमें कुछ भी सफलता मिल सकी तो मैं स्वयं को धन्य समझूँगा। मेरे माता-पिता भले ही समझें कि मैं नालायक था , मर गया या कहीं भाग गया। पर मैं अपनी पुरानी प्रवृत्तियों को छोड़कर आज से मानवतावादी समाज के निर्माण का व्रत धारण कर रहा हूँ। अब देवि ! यही प्रार्थना है , यदि मैं गलत भी निर्णय कर लिये होऊँ तो भी आप उसकी सफलता हेतु आशीर्वाद दें। मैं भला बुरा जो कुछ भी हूँ आपके सामने हूँ। अब यही विनय है कि तनिक कृपादृष्टि बनाये रखें ताकि मैं अपने प्रायश्चित में सफल हो सकूँ।
देवि मेरी तो यही इच्छा होती है कि एक मन्दिर में तुझे बिठाकर रात - दिन तुम्हारी पूजा किया करूँ। पर शायद इतना पुण्य संचित नहीं था मेरे जीवन में Iअब अधिक विलम्ब करना बेई मानी होगी। यदि जीवन में कुछ भी पुण्य अर्जित कर सका तो तुम्हारी चरण धूलि माथे पर अवश्य लगाऊँगा। एक बार पुनः आपके दर्शन की अभिलाषा के साथ--
आपकी चरण रजकिंकर-
देवानन्द
इस समय उसके हृदय में अजीब उद्विग्नता छायी हुई थी। उसने उस लिफाफे को डायरी के हवाले कर, दुःस्वप्न की भाँति सब कुछ भुलाने की कोशिश करने लगी। पर मन जाने कैसे .- कैसे ताने-बाने बुनने लगा। जब उसका प्रयास निष्फल होने लगा तब उसने.' पिपत्ति के साथी' और 'आगे बढ़ो' नामक पुस्तकें उठा ली और नीमतले जा बैठी। शीतल मन्द पवन चल रही थी। वह उन्हीं पुस्तकों में खो गयी।
महीनों बाद - ----
एक दिन वह अपनी परिस्थिति एवं परिवेश के लोगों के विषय में सोचती हुई जा रही थी, कि उसने रात के अँधेरे में कुछ औरतों को दूसरी ओर बातचीत करते हुये सुना। वे उसी के विषय में वार्तालाप कर रही थीं। कोई उसके ऊपर तरस खा रही थी ,तो कोई कह रही थी - 'अरे मारो , उसका बाप ऐसा न होता तो उसे क्यों ऐसे दु:ख उठाने पड़ते ? मेम बना रहा था मेम। घर में नहीं दाने अम्मा चलीं भुनाने'। एक और परिचित आवाज थी - - -- ----'अरी बहू मैंने उस रोज उस छोकरे को घर में घुसते अपनी आँखों से देखा था ,सुबह पूछा तो वह जाने क्या क्या कह कर टाल गयी - राही था. राह भटक गया था। अरे उसका आचरण ठीक नहीं दिखायी पड़ता।
एक ने उसकी पुष्टि इन शब्दों में की - 'तभी तो उसके भावी श्वसुर ने शादी करने से इनकार कर दिया। वर्ना इतने दिनों की तय हुई बातचीत कैसे टाल दी जाती?'
पूर्णिमा और आगे की बातें सुनने का साहस न कर सकी ၊उसके पैरों तले की जमीन खिसक गयी। वह किसी तरह छिपते -छिपाते अपने घर पर आयी। उसे भली भाँति ज्ञात हो गया कि गाँव वालों की उसके बारे में क्या धारणा है।
उसकी हालत उस हिरनी -सी हो रही थी जिसे वन में चारों ओर से आग से घिर जाने पर यह निर्णय करना पड़ता है कि वह अपने अभागे प्राण और निर्बल शरीर को लेकर किस ओर जाय और क्या करे ? अन्त में लपटों के करीब आ जाने पर आँखें मूँद कर वह किसी ओर भाग खड़ी होती है अपनी रक्षा का भार परिस्थितियों के अविश्वसनीय हाथों में छोड़कर ।
वह परिचितों की सहानुभूति से दुःखी होगयी थी और चाहती थी किसी ऐसे भूभाग में जा छिपे जहाँ किसी परिचित की छाया उस पर न पड़े।
मनोवैज्ञानिकों ने परिचय को जीवन निर्वाह का प्रधान उपकरण माना है; परन्तु प्रत्येक जीवन में कुछ ऐसे भी क्षण आते हैं जबकि मानव की धारणा उक्त सिद्धान्त का आन्तरिक विरोध करती है Iसुख के दिनों में जिन परिचितों से सहानुभूति एवं सहयोग की आशा होती है विपत्ति के दिनों में उन्हीं की विषाक्त दृष्टि का प्रहार झेलना पड़ता है। उस प्रहार से बचने के लिए परायेपन एवं अपरिचय की ओट अपेक्षित होती है। इसी ओट को रक्षा का अन्तिम उपाय समझ कर , पूर्णिमा आज ज्ञात से अज्ञात की ओर , निश्चित से अनिश्चित की ओर , अपनेपन की सीमा से दूर , बहुत दूर जाने के लिये व्याकुल हो उठी। आखिर रात्रि के निविड़ अन्धकार में परिचितों की छाया छोड़कर
वह भाग निकली। आज सिवा उसके भाग्य के कोई नहीं था उसका , उसके साथ।
X० X०० X० X।
काह करूँ कित जाऊँ? वाली स्थिति थी अब दिनेश की। वह घर की दुर्दशा देखकर काँप उठा था और भाग कर घर से काफी दूर एक अजनबी जगह पहुँच गया था। धन्य है समय का फेर ! वही दिनेश जो सैकड़ों रुपये प्रति माह नाश्ते पर व्यय कर देता था; आज दो दिनों से भूखा है। कभी मखमली गद्दों पर जिसे नींद न आती थी वही आज रेलवे प्लेटफार्म पर सोने के लिए तरस रहा है। हाथ - मुँह धोकर अभी वह बैठा कुछ सोच रहा था। आखिर अब तो घर से काफी दूर चला आया; क्या करूँ? खाने पीने का क्या प्रबन्ध हो? उसके पेट में चूहे कूदने लगे थे। चेहरा म्लान हो गया था, भूख ने थोड़ी और रंगत बढ़ा दी थी उस उतरे चेहरे की। अमीर खानदान का, सुख-सुविधाओं में पला दिनेश होनहार नवयुवक था। उसे देखने से हर कोई यह समझ लेता था कि यह किसी विपत्ति में पड़ गया है। उधर से एक भारी भरकम पर सुडौल डील डौल वाला व्यक्ति फल खरीद कर लौट रहा था। उसने झट दिनेश की हालत भाँप लिया और उसके निकट जाकर बोला- 'बेटे! तुम भूखे हो न?' मालूम होता है कई रोज से परेशान हो। आह, उल्टे साँस खींचते हुये - 'च् - च् -च्.- - - 'कितना मासूम चेहरा है। ईश्वर की कुपित दृष्टि का शिकार हो गया है। लो ये फल खा लो'' केले तथा सेब उसकी ओर बढ़ा दिये। दिनेश. उसकी आत्मीयता को देखकर गद्गद हो गया और उसकी आँखों से अनायास आँसू बहने लगे। भूख तो लगी ही थी Iअतः उसने केलों को हाथ में थाम एक क्षण रुक कर 'घन्यवाद' दिया और फिर केले खाने लगा। उस के इस व्यवहार से उक्त भद्रपुरुष अति प्रभावित हुये। वे तो इसे जाल में फँसा रहे थे। वे आगे बोले- 'बेटे इस संसार में अब ऐसे कम लोग मिलेंगे जो दीन-हीन एवं विपत्ति के मारों की सहायता करने के लिए तैयार हों। आजकल कितने अत्याचार पूँजीपतियों द्वारा निरीह धन हीनों पर किये जाते हैं ,कौन सुनता है उनके आर्तनाद को ?'यदि हम लोग कुछ साहस दिखाते हैं तो लोग हमें बदमाश की संज्ञा से विभूषित करते हैं और हम लोगों का उन्मूलन करने पर तुल जाते हैं। खैर, कोई बात नहीं; हवन करते हाथ जलते ही हैं; हमारा जो काम है वह हम करेंगे ही - - - - - - - -।''
'दिनेश अभी भी चुप था। उस भद्रपुरुष ने उसकी चुप्पी तोड़ने के उद्देश्य से उससे पूछा- - 'बेटा.! तुम्हारा नाम क्या है?
'दिनेश कुमार 'फल खाते हुये ही उसने उत्तर दिया।
'कहाँ के रहने वाले हो ?'
'यहीं का। '
' क्या मतलब?'
'इसी देश का '
' इतना तो मैं भी समझ रहा हूँ।'
'फिर आप क्या जानना चाहते हैं मेरी माँ कौन थी,पिता कौन हैं? भाई बहनजाति यही सब न ?
यह सब ढकोसला है। हजारों भाग्य के मारे आज सड़क फुटपाथों पर कीड़ों सा जीवन व्यतीत कर कुत्तों की मौत मर रहे हैं। क्या आपने उनसे भी कभी यह प्रश्न पूछने का कष्ट किया है ? कि वे किसकी सन्तान हैं? क्या करते हैं? कितने भाई-बहन है उनके ?'
'बेटा! नाराज मत हो ओ। अभी तुमने दुनिया नहीं देखी है၊ उसने ममत्व ऊँड़ेलते हुये कहा- 'इतना तो बताओ घर से क्यों चले आये ?'मुझे बेगाना न समझो ,यदि कोई सहायता चाहे तो निःसंकोच कहना' वह इतना कहकर आगे बढ़ गया। दिनेश को बड़ी ग्लानि हुई। आखिर उसको झिड़क क्यों दिया? एक वह है कि अपना फल मुझे दिया भूख मिटाने के लिये. और एक मैं हूँ ,जो जी में आया कह दिया। मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिये था। खैर , वह और आगे बढ़ा। कई जगह (काम - धन्धे)नौकरी की तलाश की पर जहाँ ग्रेजुएट पोस्ट ग्रेजुएट तक बेकार बैठे हों' , वहाँ हाईस्कूल फेल को नौकरी कैसे मिलती? संध्या हुई। वह चारों ओर से निराश स्टेशन आया Iकुछ समय तो प्लेटफार्म पर टहलता रहा पर जब निद्रा सताने लगी तब प्रतीक्षालय की शरण लिया। अब उसे चिन्ता थी कि अगले दिन खाने की क्या व्यवस्था होगी। आज तो किसी तरह चल गया। नौकरी की यह हालत है। क्या करें ? घर लौट जायँ ? लोग क्या कहेंगे? कुछ भी कहें यहाँ भूखों मरने से तो अच्छा ही है। उसने निश्चय किया कि वह सुबह घर वापस चला जायगा। यही सब सोचते- सोचते नींद आ गयी। सुबह उठा ।सुहावने वातावरण में वह प्लेटफार्म व पटरियों पर होता हुआ बहुत दूर तक चला गया। ठंडी - ठंडी हवा चल रही थी, चारों ओर चिडियाँ चहक रही रही थीं। उसे आज का दिन बड़ा सुहावना लगा। वह अभी टहल कर वापस चलने ही वाला था कि उधर से वही भद्रपुरुष आते हुये दिखायी पड़े.। उसकी अन्तरात्मा ने कहा-'क्यों न इन्हीं से कुछ सहायता माँगूँ?' पर इसपर ध्यान न देते हुये उसने दूर जाने के लिए डग भरा तो उन्होंने आवाज दी - 'ओ दिनेश कुमार जरा सुन लो बेटे? '
उसने सुनकर भी अनसुनी कर दी और अपने मार्ग पर आगे बढ़ता रहा मानो उसने सुना ही नहीं। वे कई आवाज दिये और लम्बे-लम्बे डग भरते हुये उसके करीब आ गये। बोले- 'बेटा ! तू कल कहाँ चला गया था? मैंने तुम्हें स्टेशन व उसके आसपास ढूँढ़ा पर तुम मिले ही नहीं।'
'जी नौकरी की तलाश में चला गया था। '
' मिली कहीं ?'
' न' मिली होगी तो देर सबेर मिलेगी ही '
'तुम नौकरी करोगे?'
'क्यों नहीं ,यदि मिल गयी तो कर लूँगा।'
' न मिली तो ?'
' न मिली तो हजारों बेसहारा लोगों में मैं भी सम्मिलित हो जाऊँगा।'
'मेरे यहाँ काम करोगे?'
'क्यों नहीं ? पर हाँ करना क्या होगा?''
'जो हम लोग करेंगे , वही।'
'आप लोग क्या करते हैं?'
'वह तो साथ रहने पर ज्ञात हो ही जायगा।'
'फिर भी?'
'यही गरीबों की सेवा , पूँजीपतियों का विरोध ।'
'पहले तो जी में आया कि झिड़क दे उसे , पर भूखों मरने से खाकर मरना ज्यादा अच्छा लगा।' उसकी बातचीत से लगा कि वह नेक इन्सान है और वह कभी गलत रास्तों पर नहीं ले जायगा। वह उसके साथ चला गया। वहाँ उसका बड़ा आदर - सत्कार हुआ। तरह-तरह के पकवान - मिष्ठान्न फल सेवा में लाये गये। वह भाँप भी न पाया कि ये लोग कितने 'बड़े' हैं। यद्यपि उसके घर भी अच्छे-अच्छे भोजन बनते थे , पर इसका स्वाद कुछ और ही था। कई दिनों का भूखा होने के कारण थोड़ा और सुस्वादु हो गया था। उसे उन महाशय की 'फेमेली' में रहना बहुत अच्छा लगा। उन्होंने उसे अपना नाम 'दीपक कुमार 'बताने की सलाह दी। अब कल का दिनेश कुमार आज दीपक कुमार बन गया। धीरे-धीरे समय बीतता गया। जब महीनों' बीत गये , तब उस ने कहा-'चाचा जी , कोई काम - धन्धा बताइए मैं भी कुछ करूँ। इस तरह बिठाकर कब तक खिलाइएगा ?'
'बेटे ,तुमसे बहुत बड़े-बड़े काम लेने हैं। अभी तुम्हारा परिचय सबसे कराऊँगा ,तब काम करना होगा। दीपक की समझ में यह बात नहीं आ रही थी। पर धीरे-धीरे जब लोग उस से मिलने -जुलने आने लगे तब उसे सारी बातें ज्ञात होने लगीं। अब तक अधिकांश चेहरों से वह परिचित भी हो गया था। उसे यह भी ज्ञात हो गया था कि उसका आश्रय दाता कोई और नहीं , डाकुओं का सरदार है। उसकी बात का उल्लंघन करना मौत को आमन्त्रण देना था। उसके गिरोह एवं परिवार के लोग थर-थर काँपते थे। संयोग की बात एक डकैती में उसके गिरोह का एक व्यक्ति सख्त घायल हो गया। उसे उठाकर सरदार के पास लाया गया। सरदार दीपक के साथ एक विचित्र गुफा में प्रविष्ट हुआ। भीतर बड़ा भव्य कमरा था। उसी में दीपक को बैठने का आदेश दे वह और भीतरी कक्ष में प्रविष्ट हुआ। कुछ स्विच आन आफ कर डायल पर कोई नम्बर मिलाने लगा I. दीपक वह वार्तालाप तो नहीं सुन सका। पर सरदार ने आगे कहा-' जी हाँ, अभी भेज रहा हूँ। साथ में नन्हा दीपक जा रहा है , शीघ्र वापस भेजियेगा। ओ.के.। वह तुरत दीपक के पास आया और बाहर निकलने का उपक्रम करने लगा। दीपक का माथा चकराया। आखिर कहाँ भेज रहा है , पर कुछ कह न सका। उसके पीछे - पीछे बाहर निकला। देखता क्या है आलीशान कार में घायल व्यक्ति रखा हुआ है। ड्राईवर पुलिस ड्रेस में चालक की सीट पर बैठा हुआ है।
सरदार ने कहा-'बेटा दीपक ! इसी कार से हास्पिटल चले जाओ। इन्हें जहाँ रखा जाय वह वार्ड और बेड नम्बर.ज्ञात कर चले आना।
.' क्यों? क्या फोन पर यह सब ज्ञात नहीं किये जा सकते?' दीपक (दिनेश) ने सहज भाव से प्रश्न किया।
'फोन पर ही सब काम नहीं होता। मैं जो कह रहा हूँ सुनो , विलम्ब मत करो।'
उसके आग्नेय नेत्रों को देखकर दीपक कुछ न कह सका। चुपचाप कार में बैठ गया। तभी सरदार ने एक छोटा सील बन्द लिफाफा , जिस पर सर्जन साहब का नाम लिखा हुआ था, दिया और बताया - ''मैं फोन पर बातचीत कर लेता हूँ'डॉ॰ साहब गेट पर ही मिलेंगे। उनसे 'टोकेन' माँगना। वे इसी से मिलता -जुलता दूसरा लिफाफा देंगे। उसे लेकर यह लिफाफा दे देना''
यदि वे ऐसा लिफाफा न दें तो तुम इसे मत देना। उस लिफाफे में वार्ड एवं बेड नं० की स्लिप होगी। उसे संभाल कर रख लेना और शीघ्र वापस आ जाना। बस विलम्ब मत करो। 'टाइगर'
जल्द जाओ। इसका इतना कहना था कि कार अस्सी -नब्बे की रफ्तार से भागने लगी। चन्द क्षणों बाद वे हास्पिटल गेट पर थे। डॉक्टर साहब को सरदार ने फोन पर कार का नम्बर एवं हुलिया बता दिया था। अतः कार रुकते ही वे पास आये और बोले- '' बेटा , दीपक ! आओ इधर बैठ जाओ' । एक खाली कुर्सी की ओर संकेत किया। इधर इन लोगों की बातचीत हो ही रही थी कि तब तक दो नर्सों. ने उसे उचित स्थान पर पहुँचाया और वार्ड एवं बेड नं ० की स्लिप लाकर डॉ० साहब को दी। स्लिप देखकर दीपक को सदार की बात याद आयी। उसने झट
'टोकेन' माँगा, तो पॉकेट से ही एक लिफाफा निकालकर उसमें स्लिप रखकर डॉक्टर ने उसकी ओर बढ़ा दिया। दीपक के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। वह लिफाफा हूबहू वैसा ही था। उसने बिना सोचे-विचारे लिफाफा डॉक्टर साहब को दे दिया और झटपट आ कार में बैठ गया। उसके बैठते ही टाईगर चल पड़ा। शीघ्र सरदार के पास जा सारा हाल सुनाया। शाम को वह पुनः हास्पिटल पहुँचाया गया। रात उसे वहीं रहने का आदेश मिला। उस व्यक्ति को ठीक होने में लगभग दो हफ्ते लग गये। यद्यपि इस अरसे में अनेक लोग मिलने आते रहे ; पर स्थायी रूप से दीपक ही वहाँ रहा। इस बीच उसे सरदार या दल के किसी व्यक्ति पर तनिक भी सन्देह न हुआ। पर एक घटना ऐसी घटी ,जिसने उसे वहाँ से हट जाने पर बाध्य किया।
घटना यूँ थी। एक और व्यक्ति घायलावस्था में इसी अस्पताल में लाया गया। दवा होने पर जल्द उसकी दशा में सुधार होने लगा। यद्यपि वह सरदार का प्रिय पात्र था ,परन्तु इधर कुछ दिनों से उसका सरदार से मन मुटाव चल रहा था। आज तीसरा दिन था उसे एडमिट हुये। दीपक उसे देखने के लिए उक्त वार्ड की तरफ आ रहा था। नर्स फोन पर किसी से बात कर रही थी। वह पीछे जाकर खड़ा हो गया। नर्स कह रही थी - 'काम बहुत बड़ा है दो हजार में नहीं होगा। पाँच नहीं तो चार तो मिलने ही चाहिये।
''- - - - - - - - - - - ''
'गुड बाई ओ.के. I' और रिसीवर रख दिया।
'पीछे से दीपक ने कहा-'सिस्टर! आजकल बहुत बड़े-बड़े काम करने लगी हो। अच्छा प्राफिट होगा। सहज स्वभाव से मुस्कराते हुये दीपक ने पूछा। यद्यपि वह कोई खास बात नहीं सुन पाया था, पर नर्स को लगा जैसे दीपक ने सारा राज जान लिया है और वह चोरी करते रँगे हाथ पकड़ी गयी है। वह दीपक की सत्यनिष्ठा , निर्भीकता एवं उसके सरल स्वभाव से अति प्रभावित थी। उसके सामने चाहकर भी झूठ न बोल सकी। अभी वह कुछ कहती इससे पूर्व दीपक ने अगला प्रश्न किया - 'सिस्टर किस का
फोन था?
'दीपक भैया!' घबड़ायी हुई - सी नर्स ने कहा
'इस समय मत पूछो, शाम को मैं सब कुछ बता दूँगी 'और भागती हुई एक खाली बेड पर जाकर गिर पड़ी। उसकी धड़कन बढ़ गयी । शरीर तवे सा तप्त हो गया , होंठ सूखने लगे। वह बार-बार जीभ होठों पर फेर कर उन्हें गीला करने का प्रयास कर रही थी। वह कुछ सोच नहीं पा रही थी, कि क्या करे? तभी पीछे-पीछे दीपक भी पहुँच गया। उसकी दशा देखकर कुछ घबड़ाये स्वर में पूछा- 'सिस्टर! आखिर तुम्हें हो क्या गया है ? मेरे पूछने से यह दशा हुई है या फोन पर कोई अशुभ------- '
' उसकी चुप्पी बरकरार देख दीपक ने कहा-- 'ठीक है , मैं अभी डॉक्टर साहब को बुला लाता हूँ।' वह जाने लगता है तो वह और असमंजस में पड़ जाती है। दीपक से हाथ जोड़कर बोली- 'भैया.! ईश्वर के लिए , इस समय मुझे छोड़ दो , मैं शाम को तुझे सब कुछ बता दूँगी। मैं कसम खाकर कह रही हूँ। इस समय मुझे अकेली छोड़ दीजिये। 'और हाथ जोड़कर सिर झुकाली। वह उसे छोड़कर चला गया। उसकी जिज्ञासा चरमोत्कर्ष पर थी। वह सायंकाल पुनः उससे मिलने चला। चारों ओर देखा, वह कहीं दिखायी नहीं पड़ रही थी। सोचा , आती ही होगी। अतः पार्क में चला गया। तब तक किसी ने आकर उसका हाथ पकड़ लिया। दीपक तो चौंक पड़ा। बोला- ' हैं , कौन?'
'तुम्हारी बहन' बड़ा साहस कर नर्स ने कहा और उसे एक रूम में लिवा गई। वह समझ नहीं पा रहा था कि इसके वहाँ लाने का क्या उद्देश्य है? वह चुपचाप उसके साथ चला गया। एक कुर्सी पर उसे बिठाया और एक कुर्सी पर स्वयं बैठती हुई नर्स ने कहना प्रारम्भ किया - 'पहले वादा कीजिये कि आप मुझे बुरा नहीं समझेंगे और न नाराज ही होंगे ?' तथा यह राज किसी अन्य से कभी नहीं कहेंगे। .'
'मैं वादा करता हूँ।'
और फिर नर्स ने सारा कच्चा चिट्ठा बयान कर दिया और यह भी बता दिया कि वह व्यक्ति समाप्त भी हो चुका है। दीपक सरदार की कुचाल सुनकर सिहर उठा। उसका दिमाग भन्ना ने लगा वह नर्स से बोला- 'अच्छा सिस्टर मुझे मारने का क्या लोगी सरदार से?' अभी उसका वाक्य पूरा भी न हो पाया था कि नर्स ने उसके मुँह पर हाथ रखते हुये कहा- 'छि: ऐसी अशुभ बात मुँह पर न लाओ, भैया दीपक और उसकी आँखें डबडबा आयीं। मेरी खिल्ली न उड़ाओ भैया! यह मेरा पेशा नहीं है। मैंने जो कुछ किया है उसके पीछे मेरी मजबूरी है।'
' तो क्या मेरे लिए तुम्हारी मजबूरी - - - --- ?''
'चुप रहो। तुम्हें मैंने भाई माना है। भाई की मौत से पहले बहन का बलिदान होगा'lविश्वास करो ऐसा दिनआने से पूर्व मैं दूसरे लोक में रहूँगी।
दीपक बहुत देर तक सोचता रहा। उसे बार-बार सरदार की कुचाल पर क्रोध आ रहा था, साथ ही भय से उसके होठ पीले पड़ गये। वह सोच रहा था - 'आज इसका काम तमाम किया कल मेरा भी नम्बर आ सकता है। वह ऊहापोह में पड़ गया। तभी उसे एक युक्ति सूझी। उसने नर्स से कहा- .' सिस्टर मैं आपका बहुत आभारी रहूँगा, यदि आप मेरा एक काम कर दें।'
'कहो भैया! मैं यथाशक्ति सहयोग करूँगी।'
'यदि वायदा करो तो कहूँ।''
'मैं वायदा करती हूँ प्राण देकर भी तुम्हारी सहायता करूँगी।''
'मेरी जान जोखिम में है।'
'मैं क्या सहयोग कर सकती हूँ?'
'मैं एक क्षण भी उस नर-पिशाच की छाया में नहीं रहना चाहता' , मुझे उसके चंगुल से निकालने में सहयोग करें।'
'कैसे? '
' मैं रात्रि में यहाँ से चला जाऊँगा। आप कह दीजियेगा गलती से कोई दवा पी लिये और --- 'I
'यदि सरदार को रहस्य का पता चला तो - - - ? '
' नहीं सिस्टर में ऊब चुका हूँ, इस वातावरण से।
मेरे लिए आपको इतना तो करना ही होगा। '
' सरदार बड़ा खूँखार है , कहीं पता चला तो मेरी शामत ही आ जायेगी।.'
'सिस्टर , मैं रात्रि में यहाँ से चला जाऊँगा और सकुशल कानपुर पहुँचकर तुम्हें फोन कर दूँगा और उसके बाद - - -- - - -- '
'डरती - डरती नर्स ने 'हाँ'' किया और पाँच सौ रुपये जो उस समय उसके पास थे' , देकर के विदा किया। '
रात्रि के सन्नाटे में दीपक उस स्वतन्त्र कारागार की घुटन से दूर जाने के लिये स्टेशन आकर आगरा जा रही ट्रेन पर सवार हो गया। पहले तो उसके जी में आया कि सीधे आगरा ही चला जाय पर नर्स को फोन कैसे होगा? उसे फोन करना आवश्यक था,अतः वह कानपुर में ही उतर गया। रात्रि के अँधेरे में स्टेशन से ही फोन किया। फोन कर चुकने के बाद चैन की साँस लिया।
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को ई जान न पहचान , ठौर न ठिकाना। घर से सैकड़ों मील दूर ,अनजाने शहर में, आ गयी थी वह । इससे पूर्व कभी शहर में रहने का चांस नहीं मिला था, इसलिये वह कुछ चिन्तित भी थी। तभी उसे याद आया कि अभी पिछली तीन कहानियों की स्वीकृति जिस पत्रिका से मिली है वह इसी शहर से प्रकाशित होती है। फिर क्या था ! वह एक रिक्शे पर सवार होकर रसवंती पत्रिका के कार्यालय पहुँची। पत्रिका के सम्पादक बड़े नेक और मिलनसार थे। उसका परिचय पा कर वे बहुत खुश हुये। जब उन्हें मालूम हुआ कि अभी रहने की कोई व्यवस्था नहीं है , उन्होंने उसे रहने के लिये एक कमरा दिया और पत्रिका की सह-सम्पादिका नियुक्त किया। पूर्णिमा को उनसे इतनी उम्मीद न थी, अतः वह बहुत प्रसन्न हुई। धीरे-धीरे वह वहाँ के परिवेश से भलीभाँति परिचित हो गयी थी। उसका बकाया पारिश्रमिक मिल गया। उससे उसने एक टाईप स्कूल में नाम लिखा लिया। खाने-पहनने भर का तो पत्रिका कार्यालय से मिल ही जाता था | धीरे-धीरे वह ढंग से गुजर - बसर करने लगी। इधर उसे पर्याप्त समय मिल जाता था , पढ़ने -लिखने के लिये। उसका उपयोग उसने कहानियाँ लिखने में किया। यहाँ काफी समय पत्रिका सम्पादन करते बीता। उसकी और अनेक कहानियाँ उसी पत्रिका में प्रकाशित हुईं। पाठकों की संख्या दोगुने से भी अधिक हो गयी। नित्य पाठकों के सैकड़ों पत्र आने लगे। कुछ में प्रशंसा होती थी उस पत्रिका के विषय में ; कुछ में कहानियों की मर्मस्पर्शिता एवं सफलता पर प्रसन्नता व्यक्त की गयी होती और कुछ में लेखक - लेखिकाओं को बधाई दी गयी होती। पाठकों की दृष्टि में वही कहानी सर्वश्रेष्ठ एवं मर्मस्पर्शी होती थी जो पूर्णिमा की होती थी၊ एक बार पूर्णिमा ने अपनी एक कहानी छद्मनाम से प्रकाशित की। इस पर पूरा पाठक वर्ग उत्तेजित हो गया। पाठकों के पूछताछ के शिकायती पत्र धड़ाधड़ आने लगे। प्राय: हरेक पत्र का यही आशय था - 'बासी सपने 'कहानी में लेखिका का नाम 'कु० पन्ना.' क्यों छपा है ? क्या भूल से ऐसा हो गया? अथवा हमारी धारणा ही गलत है? वैसे कहानी पढ़ने से स्पष्ट है कि उक्त कहानी पूर्णिमा जी की है। वास्तविकता से अवगत कराने की कृपा करें।'
इस पर पूर्णिमा ने क्षमा याचना करते हुये एक टिप्पणी मुद्रित की - -
'पूज्य पाठक वर्ग!
आप लोगों के सैकड़ों पत्र प्राप्त हुये हैं और प्राप्त हो रहे हैं। यह जानकर कि हमारा पाठक वर्ग इतना प्रबुद्ध एवं सक्रिय है; मुझे अत्यधिक प्रसन्नता हुई। मैंने बिना पूर्व सूचना के ऐसा किया एतदर्थ क्षमा चाहती हूँ। वास्तव में कहानी मेरी ही थी, बिल्कुल अपनी, मेरी प्रारंभिक रचनायें उक्त नाम से ही प्रकाशित होती रही है। मैंने सोचा-'क्यों न एकाध और कहानी उक्त नाम से सहृदय पाठकों को भेंट करूँ। आप लोगों ने जो कृपा की उसके लिए आभारी हूँ त्रुटियों के लिए क्षमा प्रार्थिनी भी ।
आपकी वही -
सह. सम्पादिका
पर हत भाग्या ! पाठकों की वह प्यारी सम्पादिका वहाँ अधिक दिनों तक न रह सकी क्योंकि प्रकृति उसे अभी कुछ और बनाना चाहती थी।
प्रधान सम्पादक तीन महीनों के लिए विदेश गये हुये थे। उनके स्थान पर पत्रिका का सम्पादन कार्य उनके सुपुत्र कर रहे थे। . उन्होंने पूर्णिमा की ख्याति देखकर उससे शादी करने का विचार किया । पूर्णिमा को उनके विवाहित होने की बात ज्ञात थी। अतः उसने उनके प्रस्ताव को ठुकरा दिया। परिणाम वही हुआ', जिसकी उम्मीद थी। नये सम्पादक ने उसे पत्रिका से निकाल दिया। यद्यपि इस समाचार से पाठक वर्ग रुष्ट हुआ पर जो होना था, हो चुका था। तीर कमान से छूट चुका था। वह फिर निराश्रिता हो चुकी थी पैर रखने की जो जगह मिली थी , वह भी छूट गयी' पर वह कब घबराने वाली थी एक सप्ताह तक एक होटल में रही और नौकरी के चक्कर में पड़ गयी। सप्ताह बाद उसे एक आफिस में टाइपिस्ट की नौकरी मिल गयी। आफिस से कोई चार किलोमीटर दूर एक कमरा लेकर रहने लगी। इस नये वातावरण में पहले तॊ
कुछ दिनों तक उसे अच्छा लगा। पर धीरे-धीरे सबसे परिचय हुआ, और जब पूरे परिवेश की जानकारी मिली तो उसका जी भर आया। पर करती भी तो क्या ? मजबूरी जो थी। वह नित्य कार्यालय के कार्यकर्ताओं का अध्ययन करने की कोशिश करती। उसके सामने के कमरे में एक लेडी टाइपिस्ट थी जो देखने में सुसभ्य कुलोत्पन्ना जान पड़ती थी, पर परिस्थितियों ने असभ्य व बेशर्म बना दिया था। वह मैनेजर को हर प्रकार से खुश रखना चाहती थी। एक दिन पूर्णिमा ने पूछ ही तो लिया - 'बहन' क्या मैं आपका परिचय जान सकती हूँ?''
'क्यों नहीं ,आखिर हो तो एक औरत ही न ?'
'क्या कोई पुरुष आपका परिचय नहीं जा सकता?"
'अजी, बहन पुरुष कब परिचय पूछता है? वह जो कुछ जानना चाहता है वह किसी स्वार्थ की सिद्धि के लिए होता है।'
'ऐसा न कहो बहन! आज भी कई ऐसे पुरुष हैं जो परायी माँ -बहनों की इज्जत बचाने में प्राणोत्सर्ग तक करने को तत्पर मिलते हैं।'
' होंगे ।'बड़े उपेक्षा भाव से उसने कहा--' पर मुझे तो दिखायी नहीं पड़ते। '
.' होंगे नहीं , हैं , ऐसा कहो बहन।" i
'अच्छा छोड़ो ये सब तू-तू , मैं-मैं "सुनो मेरी राम कहानी | एक दीर्घ निःश्वास छोड़ते हुये उसने कहना प्रारम्भ किया - 'मैं एक सभ्य कुल में उत्पन्न हुई । मेरी माँ मेरे शैशव में ही स्वर्ग सिधार गयी मेरा पालन पोषण पिताजी ने ही किया , पर नियति को वह भी मंजूर न था। जब मैं मात्र दस वर्ष की थी पिताजी की छत्रछाया भी
सिर से , उठ गयी। बची मैं और मेरा छोटा भाई दीपू । हमारी देखरेख गाँव के ही एक चाचा जी करते रहे। तीन- चार वर्षों तक उनके पास रही '।
इन दिनों मैं एक स्कूल पढ़ने जाया करती थी। प्रायः दीपू भी साथ ही जाया करता था। एक दिन वह पढ़ने नहीं गया था। उस दिन चाचा जी दो-तीन आदमियों से मेरे बारे में कुछ बातचीत कर रहे थे। उनकी नीयत डगमगा गयी। वे मुझे पचास हजार रुपयों में बेचना चाहते थे। दीपू ए सारी बातें सुनता रहा और मेरे आने पर मुझसे बोला- 'दीदी , चाचा जी बेचने के लिए आदमी बुलाये थे । वे लोग पचास हजार देंगे चाचा जी को ......। लेकिन दीदी , तुम मत जाना .. ....।
'तुम चली जाओगी तो मुझे कौन नहलायेगा - - -
मैं किसके पास सोऊँगा - - --- - - - - - - और वह
दोनों हाथों से भी गर्दन पकड़कर रोने लगा।"
मैंने उसे समझाया - 'मत रो भैया, मैं तुझे छो़ड़कर कहीं नहीं जाऊँगी, मैं तुम्हें हमेशा नहलाऊँगी और अपने पास सुलाऊँगी। मेरे प्यारे भैया तुम मत रो ओ၊ मेरे अच्छे भैया ,मेरे राजा भैया , हँस दो; एक बार हँस दो ना ।''
सारा राज जानकर मैंने एक योजना बनाई, सुनसान रात्रि थी। गहन अँधेरे में जबकि चारों ओर घोर सन्नाटा छाया हुआ था , मैं भाई के साथ चल पड़ी। रास्ते में एक और विपत्ति आ धमकी। कुछ बदमाशों का एक गिरोह जंगली मार्ग पर मिला एक ने मेरे फूल से कोमल गालों पर अपने घिनौने ओठ लगा दिये। मैं बेबस थी। मेरा भाई सब देखता रहा। उसने मेरे साथ बलात्कार करना चाहा। मैं बिलख पड़ी। मुझे पूर्ण विश्वास हो गया कि अब जिन्दा नहीं बचूँगी ,
पर दीपू का क्या होगा? उसका ख्याल आते ही मैं चीख पड़ी। भगवान का लाख - लाख शुक्र , तभी उधर से दो मोटरसायकिल सवार आ पहुंचे
परिणाम यह हुआ कि वे दुष्ट आततायी भाग गये।
उन लोगों ने चीखने का कारण पूछा। सब जानकर वे हमें अपने साथ लाये। उन्हीं लोगों ने टाइप सिखाया। मैंने सोचा था कि ये लोग बड़े नेक दिल होंगे जो इतना त्याग कर रहे हैं '၊ उन लोगों को अपने बाप से बढ़कर समझा। पर क्या बतायें बहन , यहाँ भी धोखा हुआ। एक दिन उनका चेहरा भी बेनकाब हो गया। वे आकर मुझसे भद्दी - भद्दी बातें करने लगे और अपनी हबस का शिकार बनाना चाहे। इस पर मुझे घृणा हो आयी। मैंने कहा- 'मैं मर जाना अच्छा समझती हूँ पर ऐसे लोगों के साथ रहना नहीं ------। जो ऊपर से तो शरीफ दीखते हैं पर भीतर जिनके काला है - - - - - - I' और दीपू को लेकर चली आयी। तब से यहीं रह रही हूँ। दीपू पढ़ रहा है। ''
'यहाँ के लोग कैसे हैं?'
'कह तो दिया न बहन , पुरुष स्त्री को तभी प्रेम से देखता है जब उसका कोई स्वार्थ हो।' खैर छोड़ो इन सब बातों को। चलो चाय पियें।' और वह हाथ पकड़े चल पड़ी कैण्टीन की ओर। पूर्णिमा 'ना' न कर सकी। चाय पीने के बाद वे पुनः अपने अपने कामों में जुट गयीं। धीरे-धीरे
काफी समय बीत गया। पूर्णिमा अब कार्यालय के प्रायः सभी लोगों से परिचित हो चुकी थी। लोगों के चाल -चलन, रहन-सहन , का उसे अच्छा ज्ञान हो चुका था।
एक दिन मैनेजर ने उसे बुलावाया। वह सहमते ,सकुचते उनके पास पहुँची। अभी वह
'गुडमार्निंग सर' कहकर रुकी ही थी कि मैनेजर ने कहना प्रारम्भ किया --'मिस पूर्णिमा ! इतने पैसों में काम चल जाता है ?! '
'यस सर'
बड़ी परेशानी होती होगी इस महँगाई के यु'ग में?'
'वह खामोश रही।' उसे उस लेडी टाइपिस्ट की बात याद आयी।
'अच्छा कल शाम को एक अप्लीकेशन टाइप करके लाना, मैं तुम्हारे वेतन में कुछ वृद्धि कर दूँगा।'
'थैंक यू सर' उसका दिल तेजी से धड़क रहा था। मैनेजर की गृद्ध दृष्टि उसके अंग -प्रत्यंगों पर जमी हुई थी। पूर्णिमा शर्म से गड़ी जा रही थी। सिर झुकाये , धीरे से बोली- 'जा सकती हूँ सर'
'यस, यस' , खुशी से। 'उसके जाने पर मैनेजर ने सोचा-' चारा फेंक दिया है,देर-सबेर चिड़िया जाल में फँसेगी ही। इधर पूर्णिमा एक नये संघर्ष से निबटने की तैयारी कर रही थी। उस दिन जब वह न गयी तो मैनेजर बहुत रुष्ट हुआ। दूसरे दिन सुबह सभी लोग अपने-अपने टाइपराइटर सँभाले कार्यों में व्यस्त थे। सबेरे ही सबेरे उसने पूर्णिमा को बुलवाया। वह स्वयं को सँभालते हुये पहुँची।
'गुड मार्निंग सर'
'मार्निंग कहो पूर्णिमा ! कल क्यों नहीं आयी ?'
'जी, मौका नहीं मिला।'
'मैनेजर के मुँह में पानी आ गया। पूर्णिमा का उत्तर अभी पूर्ण भी नहीं हुआ था कि वह उठकर
उसके निकट चला आया और पूर्णिमा का हाथ पकड़ते हुये बोला- 'यहाँ शर्मा ने से काम नहीं चलेगा मिस पूर्णिमा।" पूर्णिमा अपना हाथ छुड़ाना चाहती थी कि मैनेजर ने .'किश' करना चाहा तभी पूर्णिमा ने पूरी ताकत से कस कर उसके गाल पर एक थप्पड़ मारा और मैनेजर के रक्त वर्ण नेत्रों पर एक बार दृष्टिपात कर वह केबिन से बाहर चली आयी। सभी ने एक जोरदार 'तड़ाक्' की आवाज सुनी।
पूर्णिमा के हृदय में अजीब-सी हलचल मच रही थी' । उसका दिल बार-बार उसे धिक्कारने लगा।' आखिर ऐसा किया क्यों?' यदि मैनेजर रंज होकर निकाल दे तो ? उसका शरीर सिहर उठा; धड़कन बढ़ गयी। तभी अन्तरात्मा की आवाज आयी - 'कोई बात नहीं , जो होना था , हुआ; जो होना होगा , होगा। 'असमत' बेचकर पेट भरने से तो अच्छा मरजाना ही है।
उसने अपना त्यागपत्र टाइप किया और सीधे मैनेजर के पास पहुँची। मैनेजर ने सोचा- 'शायद, क्षमा माँगने आ रही है,अतः स्वार्थ सिद्ध होते देख मन ही मन प्रसन्न थे, पर ऊपर से ऐसा स्वाँग बनाये मानो कच्चा ही खा जायेंगे। उसका त्यागपत्र पढ़ते -पढ़ते उनके चेहरे के भाव बदल गये। उन्होंने समझाना प्रारंभ किया - ' देखो पूर्णिमा! तुमने जो कुछ किया वह दरअसल अक्षम्य है पर तुम्हारी दशा देखकर मुझे तरस आ रहा है; तुम नौकरी छोडकर अपना गुजर कैसे करोगी ?'
उसके जी में आया ;अब भी कुछ बिगड़ा नहीं है, क्यों न क्षमा माँग लूँ। तभी मैनेजर के घृणित चरित का स्मरण हो आया , उसने तुरन्त उत्तर दिया - 'मैनेजर साहब! मुझे अपनी इज्जत बेचकर ही पेट भरना होगा तो कहीं जाकर कोठे की शोभा बढ़ाऊँगी पर - - - - - - - '
'देखो पूर्णिमा' मैनेजर बीच ही में बोल पड़े-' क्रोधावेश व जल्दबाजी में कोई ऐसा निर्णय न कर लो वर्ना-- - --- - - - - - - '
'कुछ नहीं' मैंने जो निर्णय किया है , खूब सोच समझकर । अब कल से नहीं आऊँगी।' वह चली गयी। दूसरे दिन न आयी। मैनेजर ने सोचा-'कल आयेगी।' पर धीरे-धीरे सप्ताह बीत गया । वह न आयी तो न आयी। अब सबको पूर्ण विश्वास हो गया कि वह नहीं आयेगी।
मैनेजर भी अपने किये पर पछता रहा था। पूर्णिमा दसवें दिन आयी पर एक टाईपिस्ट के रूप में नहीं बल्कि एक अध्यापिका के रूप में।
अन्य सभी साथियों से मिली , सिवा मैनेजर के। आज वह बहुत प्रसन्न थी। लोगों के पूछने पर उसने बताया अपनी प्रसन्नता का कारण - 'यहाँ चार - पाँच सौ रुपये मिलते थे तिस पर पशुओं सा जीवन बिताना पड़ता था बन्दी बनकर रहना पड़ता था। मैनेजर तथा उसके पालतू कुत्तों की हवस का शिकार बनना पड़ता था - - - - - - - I'
वहाँ उससे ज्यादा वेतन भी मिलता है; साथ ही मुझे सम्मान भी मिलता है। मैं वहाँ एक अध्यापिका ही नहीं हूँ; अपितु दो-तीन सौ बच्चों की माँ हूँ ,उतनी ही प्रजाओं की शासिका भी। फिर क्यों न खुश होऊँ?' यह सब पर्दे की ओट से मैनेजर सुन रहे थे,उन्होंने उसे बुलवाया पर उसने वहाँ जाने से इनकार कर दिया और कहलवा दिया। यदि उन्हें मुझसे मिलना ही हो तो वे आकर यहीं मिल लें।'
मैनेजर ने कहलवाया - 'क्या बकाया वेतन नहीं लेना है?'
इस पर उसने कहलवा दिया- 'यदि आप निरे बु्द्धू नहीं हैं तो आपको यह सोच लेना चाहिये कि जो नौकरी छोड़ सकती है वह चार - पाँच सौ रुपये नहीं छोड़ सकती?' रख लीजिये , उससे अपने लिए कफन मँगवा लीजियेगा।...... और जाने क्या-क्या कहती वह अपने विद्यालय वापस आयी। तीसरे दिन उसका बकाया वेतन एक टाईपिस्ट के हाथों भिजवा दिया।
अब वह नये सिरे से जीवन यापन करने लगी। अध्यापन के साथ-साथ वह लेखन कार्य भी करती रही। एक बार फिर वह पत्र-पत्रिकाओं में चमक उठी। अनेक पत्र-पत्रिकाओं से रचनाओं की माँग आने लगी। काफी समय वहाँ भी बीता।
एक दिन की बात है। एक लड़के की विद्यालय में ही तबीयत खराब हो गयी। उसने एक कागज पर कोई दवा लिखकर उसे दिया और कहा-'पास के सरकारी अस्पताल से जाकर ले लो '। उसने अपने कालेज हास्पिटल का आउटडोर समझा था, पर वहाँ वह बात नहीं थी।
वह बालक गया तो , पर डॉक्टर ने कहा-'दवा है ही नहीं।'
बालक ने कहा-'डॉक्टर साहब मेरी तबीयत बहुत खराब है। सिस्टरजी ने भेजा है।' कोई दवा दे दीजिये, जिससे मैं ठीक हो जाँऊ वर्ना मेरी माँ बहुत रोयेगी।'
'कह न दिया बेटे , दवा नहीं है।' डॉक्टर ने टके सा जवाब दे दिया। बालक अपना -सा मुँह लेकर वापस आया और अध्यापिका से सारा वृत्तान्त रो - रो कर सुनाया।
'बेटे ! चलो मेरे साथ।' पूर्णिमा उसे साथ लेकर अस्पताल गयी और डॉक्टर ने दवा दी दो-तीन दिन में वह ठीक हो गया। पूर्णिमा ने सोचा-'यदि मैं यहाँ पढ़ाती रहूँगी तो कितनी अभागन माताओं की कोंख सूनी हो जायगी।
फिर पढ़ने के लिये अमीर लोगों के बच्चे ही अधिक आते हैं। मुझ जैसे विपत्ति के मारे तो.- - - - - - - 'उसकी आँखें भर आयीं।
'हे प्रभु! अभी और क्या दिखाना चाहता है तू ।' उसने उसी क्षण निर्णय लिया कि अब वह अध्यापन कार्य का परित्याग कर अस्पताल में गरीबों की सेवा करेगी।
परीक्षा हुई। ग्रीष्मावकाश में वह कानपुर चली आयी और वह हैलट (लाला लाजपत राय) हास्पिटल में नर्स बन गयी। यद्यपि डॉक्टरों ने पहले उसे रखने में बड़ी मीन मेष की पर उसकी शैक्षिक योग्यता एवं अनुभव आदि की जानकारी हुई तब उसे रख लिया गया। वहाँ उसने अपना नाम 'पन्ना' बताया। उस समय अस्पताल की दशा बड़ी दयनीय थी। एक भी कमरा साफ- सुथरा नहीं था। हर कोने में फलों के छिलके, कागज के टुकड़े , अधजली बीड़ी. सिगरेट आदि यत्र-तत्र सर्वत्र बिखरे पड़े थे। एक ही कमरे में विभिन्न रोगों के रोगी रखे गये थे। उनके बेड आदि की सफाई का कोई ध्यान नहीं दिया जाता था। सामने पार्क में घास आदि जंगल का रूप धारण किये हुये थी। क्यारियों में गुलाब जंगली हो चुके थे। नालियाँ मिट्टी व गन्दगी से पट गयी थीं। गन्दा पानी चारों ओर फैल कर सड़ाँध पैदा कर रहा था। पन्ना को अपना स्थान बनाने का सुअवसर प्राप्त हुआ। उसने इन कमियों को दूर करने का भरसक प्रयास किया। अनेक नर्सें व डॉक्टर उसके इस सराहनीय कार्य में हाथ बँटाना अपना कर्तव्य समझने लगे। उसने हर कमरे साफ करवाये। रोगियों को सीमित संख्या में अलग-अलग रखवाये। उनके बेड व वस्त्रों की सफाई आदि का उचित प्रबन्ध करवाया। नालियों की सफाई करायी गयी। घासों की उचित रूप से कटाई और सिंचाई की गई। गुलाब आदि फूलों की कटाई एवं रोपाई की गई। इस प्रयास से रोगियों का आधा रोग स्वयं दूर हो गया। पन्ना की लगन एवं परिश्रम देखकर सबको 'फ्लोरेन्स नाइटिंगेल 'अनायास याद आ जातीं ,वह रोगियों की जी जान से सेवा करती। अनाथ एवं गरीब बच्चों को , जिनके दुःख को देखकर उसे यहाँ आना पड़ा था , भला वह कैसे भूल सकती थी। ज्यों ही उसे वेतन प्राप्त हुआ, उसने उनके लिए दवायें खरीद ली। अपने रहने के कमरे में उन दवाओं को रख कर बाँटना प्रारंभ कर दिया। पहले कुछ दिनों तक तो वह अस्पताल से छूट कर उन मुहल्लों एवं गाँवों में पहुँचती, जहाँ दीन ,हीन,गरीब लोग रहते थे। वहाँ जिनको आवश्यकता होती , मुफ्त दवा देती और भविष्य में किसी प्रकार की तकलीफ होने पर अपने पास से दवा लेने का आमन्त्रण भी देती जाती थी। धीरे- धीरे एक समय ऐसा आया जब वह गरीब लोगों में इतनी प्रसिद्ध हुई कि लोग उसे 'देवी' मानने लगे। जब भीड़ अधिक होने लगी और इसे फुर्सत की कमी महसूस हुई तब इसने एक बालक को उस कार्य के लिए रखने का निश्चय किया। स्थानीय पत्र 'दैनिक जागरण' में एक विज्ञापन दिया और उपयुक्त पात्र का इन्तजार करने लगी जो उसका दवाखाना सँभाल सके क्या डॉक्टर , क्या रोगी ,सभी की जिह्वा पर एक ही नाम था - ' पन्ना' । जब से वह यहाँ आयी है डाक्टरों का कार्य बहुत ही हल्का हो गया।
X O X O X |
न ये वातावरण में गीता का मन रमने लगा I उसने पहुँचते ही पत्र लिखने का विचार किया। उसे याद आ रहा था कि आते समय रमा ने , स्टेशन पर कहा था - 'दीदी , मंसूरी पहुँचते ही पत्र अवश्य दीजिएगा।'
'अवश्य दूँगी बहन'गीता ने उत्तर दिया था। अब तो पत्र का ही सहारा रहेगा।
'दीदी , कहीं मंसूरी की रमणीयता देखकर मुझे भूल न जाइएगा।' रमाने थोड़ा व्यंग किया था।
'गीता की आँखों में आँसू आ गये थे उस समय । उसने कहा था - ' रमा! तुमने मेरे लिए जितना कष्ट झेला है , मेरी जितनी सहायता की है। यदि मैं कई जन्म जन्मूँ और तुम्हारा ऋण चुकाने का प्रयास करूँ, तो भी उससे उऋण नहीं हो सकूँगी
'नहीं दीदी , यह तो आपकी महानता है ,जो ऐसा सोचती हैं ၊ मैं तुच्छ किस काम की?'
'बहन, मेरा शरीर भले ही वहाँ रहेगा पर मन तो तुम्हारे ही पास रहेगा।'
'अच्छा ठीक है आपका यह वादा रहा। '
वह कुछ कह न सकी थी। ट्रेन पर वे लोग सवार हुये रमा और गीता के कई अन्य शुभाकांक्षी उन्हें छो़ड़कर वापस हो रहे थे। जब तक स्टेशन आँखों से ओझल नहीं हो गया , वह खिड़की से सिर निकाले रमाको निहारती रही। उसे रमा से बिलग होने का उतना ही कष्ट था, जितना प्रकाश के न आने पर , मिर्जापुर जाते समय हुआ था। वह अनेक प्रकार के विचारों में डूबती.- उतराती, सोते-जागते मंसूरी पहुँची थी
आज तीसरा दिन है। वह तीन दिनों से पत्र लिखना चाहकर भी अब तक न लिख पायी। ' 'लो क्या रमाके साथ किया गया वायदा तोड़ दूँ?'
'नहीं, ऐसा करना न्यायसंगत नहीं होगा। उसकी अन्तरात्मा की आवाज थी। फिर क्या था ? वह पत्र लिखने बैठ गयी - -
प्रिय रमा!
शुभ स्नेह।
मैं तुमसे बिलग होकर यहाँ आ गयी। रास्ते में कोई विशेष कष्ट नहीं हुआ। यही तुम्हारी याद बराबर आती है। मंसूरी जैसी हम सुनते रहे वैसी ही दिखायी भी पड़ी। यहाँ का माल रोड बहुत प्रसिद्ध है। लोग अक्सर यहाँ टहलने आते हैं। ऊँची -नीची घाटियाँ , पेड़-पौधों की कतारें , उनमें विचरण करते हुये जंगली पशु , पेड़ों पर चहकते हुये पक्षियों का कलरव , हिमाच्छादित उच्च शिखर जी चाहता है इन्हें अपलक निहारा ही करूँ। यद्यपि गर्मी का मौसम है फिर भी काफी सर्दी पड़ रही है। यहाँ का एक दृश्य जो उतरते ही देखा , वह मैंने अपने हाथों से अंकित किया है और पत्र के साथ भेज रही हूँ। शायद तुम्हें भी पसन्द आये। तुम अपने तथा सहेलियों के समाचारों से अवगत कराने का कष्ट करना। चित्र के नीचे लिखा था - 'ये देव हैं, जिन्हें देखने मात्र से आनन्द आ जाता है। काश! इनका दर्शन हमेशा मिलता - - - - - - - - - - - ।'
तुम्हारी दीदी
गीता
वहाँ का वातावरण गीता को भा गया। धीरे -धीरे
स्वास्थ्य सुधरने लगा। उसने एक कालेज में नाम लिखा कर पुनः पढ़ना प्रारंभ किया। उसके मानस-पटल से प्रकाश की स्मृतियाँ एकदम विलुप्त हो चुकी थीं। कालेज में उसका मन फिर से लग गया। छुट्टियों में वह बड़े सबेरे दूर किसी पहाड़ी पर चली जाती ।वहाँ का कोई दृश्य कूँची
के सहारे 'कैनवास' पर उतारती ;कभी कभी सारा दिन वहीं बीत जाता। इस अभिरुचि ने उसकी जीवन-दिशा ही परिवर्तित कर दी। उसके माता पिता उसकी दशा से प्रसन्न थे। उन्हें विश्वास था कि गीता अब ठीक हो जायगी और शीघ्र ही इसकी कहीं शादी कर दी जायगी। समय चक्र अपनी गति से आगे बढ़ रहा था। गीता की परीक्षा लगभग समाप्ति पर थी। उसकी तबीयत कुछ खराब हुई। लोग समझे परीक्षा में अधिक परिश्रम करने के कारण ऐसा हुआ होगा। इसी बीच वह एकदिन माल रोड पर कुछ सोचते हुये जा रही थी; वहाँ उसे एक अजीब पहाड़ी लड़की के दर्शन हुये। वह पहाड़ी फूलों का गजरा लिये दौड़ी चली आ रही थी। उसके पास आकर ठहर गयी और हँसने लगी- ''अहा! - -- -हा! - - -
अहा! ------. हा! .- ----- हा! क्यों? खड़े हो गये न ? मैंने कह दिया था न, कि मुझसे बाँह छुड़ा कर न जा सकोगे? मैंने आखिर पा लिया न तुमको।'
'चलो ---- -. चलो मेरे साथ----- I'
गीता कुछ समझ न पा रही थी।" आखिर बात क्या है ?" उसने पूछा- "तुम कौन हो बहन ?"मुझे पहचान नहीं रही हो? तुम्हें किसकी तलाश है?''
'मुझे--- - - - - मुझे इसी धोखेबाज की तलाश थी - - - - जिसने मुझे प्रेम जाल में फँसाया और अब मेरे सामने खड़ा होकर - - - - हा! हा! - हा!
----- और फिर रोने लगी।
गीता को उसकी दशा का बोध हो गया। उसमें उसे अपना प्रतिरूप देखने को मिला। बहुत दिनों के प्रयास के उपरान्त जिस प्रकाश को भूली थी , आज उसी याद ने उसे पुनः बेकल कर दिया।
उसकी छुट्टी हो चुकी थी। उसके पिताजी को कुछ दिनों के लिए बाहर जाना था। अतः उन्होंने अन्य लोगों को गाड़ी पर बिठा दिया वे लोग गीता के ननिहाल (आगरा) आये। गीता ने आने से पूर्व एक पत्र रमाको भेज दिया था। जिसमें अपने ननिहाल (आगरा) जाने का जिक्र किया .था , साथ ही अपनी तबीयत खराब होने का भी उल्लेख किया था। उसे वह पर्वतीय युवती तथा उसकी बातें रह - रहकर चौंका देतीं। उसे बार-बार प्रकाश की स्मृति सताने लगी। धीरे-धीरे उसकी हालत गम्भीर होती गयी। पहले तो लोगों ने स्थान एवं पानी परिवर्तन को इसका कारण समझा पर जब धीरे-धीरे उसकी हालत गम्भीर होने लगी , तब लोगों को चिन्ता हुई। लोगों ने किसी डॉक्टर को दिखानेे का विचार किया। तभी रमा का पत्र मिला। उसने गीता की दशापर चिन्ता व्यक्त की थी और यह भी आग्रह किया था कि जीजाजी (डॉ० राजेश) से अवश्य मुलाकात करें। वे वहीं के एक अस्पताल में हैं। उनका पता भी लिखा था। लोगों ने सोचा - 'ठीक है डॉ० राजेश का ही पता किया जायगा। पर अपना सोचा ही तो सदा होता नहीं। अभी लोग पता करने की सोच ही रहे थे कि तभी गीता को बेहोशी का दौरा पड़ा। गीता के मामा और गीता की माँ उसे पास के एक हास्पिटल ले गये। एक नये डॉक्टर आये हुये थे। संयोग की बात , जब ये लोग पहुँचे , वे अस्पताल में ही थे।
जब गीता अस्पताल लायी गयी, वह सूखकर कंकाल मात्र रह गयी थी।
डॉ० प्रकाश स्वप्न में भी नहीं सोच सकते थे कि यह उनकी क्लास फेलो गीता ही होगी। गीता के मामा उसे भर्ती कराकर वापस चले गये क्योंकि उन्हें ड्यूटी जाना था। वहाँ गीता के साथ रह गयीं उसकी माँ। डॉ० प्रकाश ने इलाज किया
जब गीता को होश आया , उसने प्रकाश को पहचान लिया, पर कुछ कह न सकी।
उसने अपनी माँ से कहा-'माँ, यह तो शायद प्रकाश हैं।'
'कौन प्रकाश बेटी ?' उनकी याद धुँधली हो चली थी၊
'वही, मेरे क्लास फेलो , माँ , जिनकी प्रतीक्षा हम लोग मिर्जापुर जाते समय करते रहे थे और वे न आ सके थे। '
'तुम अच्छी तरह पहचान रही हो?'
'माँ, पहचान तो रही हूँ पर ठीक- ठीक नहीं कह सकती।'
'अच्छा बेटी ,आज मैं पूछूँगी?' ऐसा कहकर वे बाहर जा ही रही थीं कि सामने ."लान" में प्रकाश टहलता हुआ दिखाई पड़ा। उन्होंने अच्छा मौका पाया और करीब जाकर सहमती -सहमती पूछने लगीं- 'डॉक्टर बेटा, मैं एक बात पूछना चाह रही हूँ - - - - . -- यदि बुरा न मानो तो.-- - - - - - ।'
'एक नहीं दो पूछिये , इसमें बुरा मानने की क्या बात है?'
'मैं जानना चाहता हूँ कि रहने वाले कहाँ के हो?'
'जी मैं काशी का रहने वाला हूँ।'डॉ० प्रकाश ने सीधा -सा जवाब दिया।
'काशी के रहने वाले हो या गाजीपुर के?'
'गाजीपुर का नाम सुनकर प्रकाश को लगा , यह कोई परिचित हैं' उसने अपने अतीत में झाँकना प्रारम्भ किया , पर पहचान न सका। '
वह अभी चुपचाप कुछ सोच ही रहा था कि गीता की माँ ने आगे कहा-'बेटा' , जब तुम न आ सके थे, गीता बहुत रोयी थी। हम लोग मिर्जापुर गये लेकिन तुम्हारे बिना गीता को कुछ भी अच्छा नहीं लगता था। तभी से - - - - - -उनकी आँखों में आँसू भर आये। वे आगे कुछ न कह सकीं पर उनके आँसुओं ने सब कुछ कह दिया।
उसका भी हृदय व्यथित हो गया। उसे लगा जैसे वह भी अभी रोयेगा। उसे अपना कालेज जीवन याद आ गया। वह बिना कुछ कहे वहाँ से चला गया। उसने एक नर्स से कहा-'गीता और उसकी माँ को मेरे बँगले पर पहुँचाओ । 'चाभियों का गुच्छा नर्स की ओर उछालते हुये उसने आगे कहा-' और हाँ उनके नहाने - धोने की व्यवस्था कर देना, खाना मँगा कर खिला देना और किसी प्रकार की परेशानी न होने पावे।' नर्स तुरंत उन्हें लिवाकर बँगले पर पहुँची। डॉ० भी एक चक्कर लगाकर बँगले पर पहुँचे। उसे देखते ही नर्स अस्पताल' की ओर चल पड़ी। गीता की माँ स्नान करने गयी हुई थीं। वह सीधे गीता के पास गया और उसका हाथ थामकर बोला- 'गीता तुम मुझसे नाराज हो. न?'
गीता के दिल में गुदगुदी हो रही थी। उसने सिर झुकाये, दूसरी ओर मुँह किये हुये शाइराना अन्दाज में कहा -
'रंज अपनों से लोग होते हैं ,
जो अपने ही न रहे,
उनसे फिर गिला कैसा ?'
'गीता! काश! तुम मेरी तत्कालीन परिस्थिति से परिचित होती.!'
वह बिना कुछ कहे सिसक - सिसक कर रोने लगी। प्रकाश ने उसके सिर पर अपना बायाँ हाथ रखा और दायें हाथ से उसके आँसू पोंछते हुये बोला- ''चिन्ता न करो , अब सब ठीक हो जायगा।' वह चुपचाप सब सुनती रही।
'मैं अस्पताल जा रहा हूँ। कुछ फल आदि भिजवा दूँगा , तुम भी खा लेना और अम्मा जी को भी दे देना।' कहकर बाहर आया और सीधे बाजार चला गया। सभी आवश्यक सामान खरीद कर घर भिजवाया I जब नर्स फल आदि लेकर पहुँची तो गीता और उसकी माँ बैठी कुछ बातचीत कर रही थीं। नर्स फल रख कर चली गयी। गीता ने अपनी माँ को फल खाने को दिया
ससंकोच उन्होंने कुछ फल खाये और बाकी रख दिये। जब प्रकाश लौटा ,तब फलों को देखकर बोला- 'क्यों गीता , तूने अम्माजी को फल नहीं दिया?'खाया क्यों नहीं ?'
गीता की माँ ने भीतर आते हुये कहा-'बेटा! इतना फल क्यों लाये?हम लोग कितना खायेंगे? लो तुम भी खाओ। गीता और प्रकाश फल खाने लगे। आज वे लोग बहुत खुश थे। गीता मन ही मन सोचने लगी , 'काश! प्रकाश मिर्जापुर गया होता , तो अपार आनन्द प्राप्त होता और शायद यह दुर्गति न झेलनी पड़ती------------ I'
अब वे सब एक परिवार की भाँति रहने लगे। गीता की माँ खाना बनाती थीं। उनके हाथ का बना खाना खाकर प्रकाश को अपनी माँ एवं उनके द्वारा बनाये गये खाने की याद आ गयी। जब गीता का स्वास्थ्य सुधरा । वह स्वयं खाना बनाने लगी। एक दिन बातचीत के दौरान गीता की माँ ने पूछ लिया - 'बेटा ! अकेले रहते हो , अपनी पत्नी को क्यों नहीं बुला लेते ?''
प्रकाश ने कहा-"अम्माजी ! अभी शादी हुई ही कहाँ?"
'क्यों बेटे क्या कुँवारे ही रहोगे ?"
''अम्माजी ! मैं पढ़ने चला गया था , उसके बाद बड़े भाई, माँ एवं बहन स्वर्ग सिधार गये।
छोटा भाई , इसे सहन न कर सकने के कारण ,
घर से भाग गया। पिताजी उसे ढूँढ़ने कहीं गये हैं कहते - कहते उसकी आँखें भर आयीं। मैं भी बम्बई से यहाँ उनकी खोज में ही आया था।जब
भी फुर्सत मिलती है उनकी तलाश में निकल जाता हूँ। जब से गीता आयी है जी कुछ बहल गया है।
उसकी आँखों से टप - टप आँसू बहने लगे। गीता की माँ ने उसे बहुत समझाया -बुझाया। उन्हें उम्मीद हो चली कि प्रकाश गीता के साथ शादी कर लेगा। उन्होंने गीता से पूछा भी- 'क्या प्रकाश तुमसे शादी करने के लिए तैयार हो जायेगा? '
'वह क्या उत्तर देती' !'
गीता की माँ, गीता और प्रकाश को दाम्पत्य सूत्र में बाँधने की अभिलाषिणी थीं। जब गीता और प्रकाश परस्पर बात कर रहे होते तो वह जान बूझ कर दूर चली जातीं या कोई कार्य करने में व्यस्त हो जातीं। धीरे-धीरे महीनों बीत गये पर गीता प्रकाश से कुछ पूछ न सकी। गीता की माँ को वापसी की चिन्ता होने लगी। प्रकाश अस्पताल गया हुआ था। गीता की माँ ने पूछा- 'बेटी! उसने कुछ कहा क्या?'
'नहीं माँ, मैं पूछ न सकी। '
'तो मैं कब तक उस पर बोझ बनी पड़ी रहूँगी?'
'हाँ ',यह भी तो ठीक है पर - - - - - - ।'
'अच्छा मैं आज खुद उससे कुछ बात करूँगी और यदि वह कुछ कहेगा तो तुम्हें कुछ समय के लिए यहीं छोड़ दूँगी। इस अरसे में वह शादी के लिए तैयार हो जायगा तो ठीक , नहीं तो तुम घर चली आना।'हाँ यह तो बताओ लोग पूछेंगे तो क्या कहूँगी ?'
'कह देना अब हालत सुधर रही है एकाध महीने में घर आ जायेगी।'
'ठीक है , मैं आज पूछ कर कल घर चली जाऊँगी, वर्ना उधर भी परेशानी ही होगी। '
' अच्छा मैं अस्पताल जा रही हूँ , उनके साथ ही आऊँगी ।' वह चली गयी।
शाम को वे लौटे। रात्रि में खाना खाते समय गीता की माँ ने कहा-'बेटा प्रकाश! अब मैं यहाँ रहकर क्या करूँगी? अच्छा तो यही हो कि मुझे जाने दो'
'प्रकाश के मस्तक की रेखायें सिकुड़ गयीं; आँखें खुली रह गयीं। वह दबे कण्ठ से बोला- 'अम्माजी क्या यहाँ कोई तकलीफ है ?''
' तकलीफ नहीं है बेटा.! पर कब तक - - - - I'
'यही गीता जब से आयी थी , अपना दुःख थोड़ा भूल रहा था पर ----------- I'
'बेटा! मेरे लिए जैसी गीता है वैसे ही तुम भी हो। गीता को चाहो तो एकाध महीने रोक लो , पर मुझे तो जाने ही दो -- - ------ - - - । '
प्रकाश गीता की सहमति पाने के उद्देश्य से उसकी ओर देखने लगा। गीता ने धीरे से मुस्करा कर स्वीकृति में सिर हिला दिया। '
प्रकाश बहुत खुश हुआ । बाजार से सुबह सभी आवश्यक सामान लाया और गीता की माँ को खुशी-खुशी विदा किया।
अब रह गये गीता और प्रकाश । गीता अक्सर खाना खाकर उसके साथ ही अस्पताल चली जाया करती थी। दोनों साथ- साथ ही बाजार भी आते -जाते थे। जो भी देखता उन्हें पति-पत्नी ही समझता। एक बार दोनों बाजार से लौट रहे थे। प्रकाश को विनोद सूझा। वह धीरे -धीरे चलने लगा। गीता भी साथ थी। वह एक भिखारी के निकट से गुजरा और एक सिक्का उसकी ओर उछाल दिया। भिखारी गद्गद हो बोला- 'बाबू, ईश्वर आपकी जोड़ी सदा बनाये रखे। आप दोनों हमेशा ------- - ।'
प्रकाश भिखारी की बात पर हँस पड़ा। गीता ने उसके मनोभाव को समझ लिया और तुनक कर बोली- 'ए मुये! बिना सोचे -समझे जो जी में आता है , कह देते हैं। '
'क्या बुरा कहा?'
'अच्छा चलिये, बढ़-बढ़कर बातें मत करिये।' और वे आगे बढ़ गये।
इसी प्रकार आमोद- प्रमोद में दिन गुजरने
लगे। गीता की माँ को गये तीन हफ्ते हो गये पर
गीता अभी तक कोई बात तय न कर पायी।
आज प्रकाश एक पत्र गीता की माँ के पास लिखने वाला था। आज वैसे भी कोई सीरियस केस नहीं था। मगर अपना सोचा हुआ भी कभी-कभी नहीं हो पाता। वह हास्पिटल पहुँचा ही था कि लखनऊ से डॉक्टर ओ० पी ० मल्होत्रा का ट्रंकाल आया। उन्होंने एक सीरियस केस में सलाह लेने के लिए इन्हें शीघ्र बुलाया था।
फिर क्या था वे आवश्यक सामान गीता के पास भिजवाकर स्वयं लखनऊ के लिये प्रस्थान किये।
XOX O XOX।
'
रक्षा जिसकी हरि करे, तेहि सब होत सहाय।'' दीनानाथ घर से उन्मादावस्था में ही चल दिये। स्टेशन पर कुछ दयालु यात्रियों ने इन्हें खाने को फल आदि दिये। कुछ ही देर में ट्रेन आयी। लोगों को ट्रेन पर चढ़ता देखकर वे भी चढ़ गये, पर उतरने का नाम ही न लिये। वे न जाने किन-किन स्मृतियों में खो गये। कभी-कभी उनकी आँखों से आँसू निकलने लगते। कभी गाली ,अभिशाप निकालकर वे किसी के प्रति अपना आक्रोश व्यक्त करते। जब भूख और प्यास ने विकल किया तथा कुछ - कुछ होश में आये तो स्टेशन पर उतर पड़े। संयोग से यह स्टेशन 'चार बाग' था। खाने को तो कुछ न मिल सका , पर पीने को चाय मिल गयी| वे चाय पी ही रहे थे कि उनकी गाने की इच्छा हुई। वे चाय पीना छोड़ गाना गाने लगे।
एक अच्छी खासी भीड़ एकत्र हो गई उनके इर्द -गिर्द , उनका गाना सुनने के लिए। उनके गाने पर लोग इतने मुग्ध हो गये कि खाने- पीने को भी दिये और साथ में ट्रेन पर भी चढ़ा लिए। कुछ देर तो वे गाना गाते रहे , फिर गाली देना प्रारम्भ कर दिये। गाड़ी रुकी तो कुछ लोगों ने उन्हें पकड़कर नीचे उतार दिया। वे गाली देते हुये इधर-उधर घूमने लगे। यहाँ काफी समय रह गये। यदि कोई दयालु दया कर देता तो कुछ क्षुधा शान्त कर लेते वर्ना यूँ ही समय काट देते।
वे गाना बहुत अच्छा गाते थे। उनके गाने पर प्रसन्न हो लोग प्रायः उन्हें खाने -पीने की चीजें दे देते थे। कानपुर में रहते - रहते वहाँ के दुकानदार , बस एवं ट्रक चालक उन से काफी परिचित हो गये थे। वे प्रायः आती - जाती बसों ,ट्रकों के सामने खड़े हो जाते , जब बस या ट्रक धीमी हो जाती तो ड्राईवर के पास आकर कहते
-.'दो कुछ खाने-पीने को ?' और शुरू कर देते कोई गाना। कई ड्राईवर तो दो चार रुपये या खाने -पीने की चीज देकर पिण्ड छुड़ा लेते। कोई. - कोई बगल से निकल जाते।
एक दिन की बात है। कलक्टरगंज का एक व्यापारी ट्रक से आगरा जा रहा था। अभी ट्रक सीसामऊ पुलिस स्टेशन के पास ही पहुँचा था कि उसे गाने की बड़ी सुरीली ध्वनि सुनाई पड़ी-....
दसवा पे अपने हँसीं हम या कि रोईं
अँसुवन से भाग कै लिखल कइसे धोईं
. बनले कै सारौ बनल चाहै सब कोई
. बिगरे कै नाहीं कोउ बनाला बहनोई
भइया ,बनले कै सारा सारा संसार ॥
उसने ट्रक ड्राईवर से कहा-'यार गाना तो बहुत अच्छा गा रहा है। '
ड्राईवर ने कहा-' सेठ जी यह पागल है करीब डेढ़-दो वर्षों से हम देख रहे हैं। कभी परेड में मिलता है तो कभी कलक्टरगंज में Iकभी जनरल गंज में तो कभी जूही में | शास्त्रीनगर', नवाबगंज ,गुमटी तो जैसे उसके निवास स्थल ही है। सेठ दयालु और गाने का शौकीन था। उसने कहा-'भाई बिठा लो इसे , सफर कट जायेगा। '
'ठीक है" सिर बाहर निकालकर ड्राईवर ने उन्हें गाड़ी में चढ़ने का इशारा किया। साथ के लोगों को उन्हें बिठा लेने को कहा। वे ट्रक पर सवार हो गये। लोग गाना सुनते-सुनते आगरा पहुँच गये।
चूँकि उन्हें यहाँ से माल उठाना था। अतः देर तक ट्रक रुका। वे नीचे उतरे। पागल आदमी कब क्या सोच जाय? कहा नहीं जा सकता। लोगों ने उन्हें चाय पीने के लिये बुलाया और स्वयं भी वे लोग चाय पीने लगे पर वे ट्रक से कुछ दूरी पर जाकर खड़े हो गये। लोगों ने सोचा टट्टी पेशाब करने जाना चाह रहे होंगे, अतः लोगों ने नाले की ओर का, जिधर झाड़ और पानी दोनों उपलब्ध थे ,मार्ग बता दिया। वे उस पर कुछ दूर जाने के बाद एक गली में मुड़ गये, गली आगे जाकर मेन रोड से मिलती है। वे अभी मेन रोड पर आये ही थे कि कुछ लोग एक व्यक्ति को उठाये हास्पिटल की ओर जा रहे थे। वे भी पीछे हो लिये। हास्पिटल गेट तक तो गये, पर भीतर न
जा सके। यात्रा से थके - माँदे तो थे ही, गेट पर ही बैठ गये। ड्यूटी चेंज हुई। बड़े सर्जन बाहर निकले। उन्हें देखते ही ये खाना माँगने लगे। चूँकि हास्पिटल पागलों का ही था। अतः डॉ० ने सोचा-'कोई पागल भीतर से बाहर चला आया है। उन्होंने नर्सों को बुलाकर कहा-'इसे भीतर ले जाओ।' आदेश का पालन हुआ। कुछ खाना . पीना भी दिया तथा अन्य डाक्टरों ने जब यह सुना कि बड़े डॉक्टर ने भिजवाया है, अच्छे से अच्छा उपचार किया। धीरे-धीरे उन्हें यहाँ आये महीनों बीत गये। दवा चलती रही। उनकी हालत सुधर तो गयी पर याददास्त (स्मृति) जाती रही। डॉ० को इसकी बड़ी चिन्ता थी। वे बार-बार पूछते-'आपका नाम क्या है?'
'मैं क्या जानूँ डॉक्टर मेरा नाम क्या है?'
'आप कहाँ के रहने वाले हैं?''
'मालूम नहीं मैं कहाँ रहता था?
'अच्छा आपके कोई रिश्तेदार वगैरह हैं?'
'मुझे कुछ भी याद नहीं डॉ० कुछ भी याद नहीं।'
'अच्छा रात में सोचे रहियेगा, मैं फिर सुबह मिलूँगा।'
ऐसा कहकर वे आगे बढ़ जाते पर उनकी बातों से बड़े पेशोपेश में पड़ जाते।'डॉक्टर को पूर्ण विश्वास था कि किसी न किसी दिन ए पूर्व परिचित स्थानों पर जब पहुँचेंगे तब इन्हें स्मृति की पुनर्प्राप्ति अवश्य होगी। जब काफी प्रयास करने पर भी वे उक्त कार्य में सफल न हुये तब यही निश्चय किया कि इन्हें 'डिस्चार्ज' कर दिया जाय , वे कहीं काम - धन्धा करके अपना जीवन-निर्वाह करेंगे। वे सुबह अस्पताल से बाहर आये, तब उन्हें भोजन की व्यवस्था सुलझाने की फिक्र हुई। पास ही के एक मोटर गैरेज में उन्हें खाने एवं कपड़े पर काम मिल गया। यहाँ उन्हें मोटरों की सफाई करना था। रात्रि में अन्य दो कर्मचारियों के साथ बना खाकर वहीं सो भी जाते थे। धीरे-धीरे काफी समय बीत गया।
अब गैरेज मालिक उन्हें कुछ वेतन भी देने लगा। अपनी पूर्व स्मृतियों को खोये हुये दीनानाथ को यहीं 'मोटर ड्राइविंग' सीखने का भी अवसर प्राप्त हुआ। इन्हें ड्राइविंग सीखने में बड़ा मजा आता था। वे अधिक से अधिक समय देते थे इस पर Iकोई पाँच - छ: महीनों में वे कुशल ड्राईवर एवं मोटर मेकेनिक बन गये। उनकी कार्य कुशलता एवं लगन से खुश होकर गैरेज मालिक ने इन्हें अच्छा वेतन देना प्रारम्भ कर दिया था। आर्थिक दशा के सुधरने के साथ ही उन्होंने एक होटल में खाने की व्यवस्था तथा वहीं एक कमरा लेकर रहने की व्यवस्था की। चूँकि यह होटल गैरेज के समीप ही था अतः होटल मालिक इन्हें भली भाँति जान गया था। इनकी ईमानदारी एवं कठिन परिश्रम की कहानी वह कई बार गैरेज मालिक से सुन चुका था।
एक दिन खाना खाते समय होटल मालिक ने पूछा- 'क्यों दादा जी , हमने सुना है आप ड्राईवरी सीख रहे हैं?'
'हाँ भैया ,सीख तो लिया है पर इससे क्या लाभ?'
'क्यों?' आश्चर्य व जिज्ञासा भरा प्रश्न था होटल मालिक का।
'अरे भैया! गरीबों के सुख -स्वप्न बहुत कम पूरे होते हैं। '
' मतलब समझ में नहीं आ रहा है दादा. साफ-साफ कहो न ?'.
'मतलब - - ---- मतलब तो बिलकुल खुला है. न नौ मन तेल होगा, न - - - - - - - - । सीख लिया तो कौन -सी बाजी मार ली?'
'आप टैक्सी चलायेंगे दादा ?'
'कैसे कहूँ भैया? पूँजीपतियों के आगे गरीब पैदल चल ले, यही काफी है'।'
' नहीं दादा , यदि आप चलाना चाहें तो मेरी टैक्सी ले जाइये।'
' हैं?! आश्चर्य से भरा प्रश्न था दादा का - "भैया , तुम अपनी टैक्सी मुझे दोगे ?'
'क्यों? आपको क्या परेशानी है?'
'भैया , कहीं मेरी नीयत खराब हो गयी तो ?''
'दादा , मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप ऐसा हरगिज नहीं करेंगे। '
' भैया आज की दुनिया विश्वास योग्य नहीं है।'
'मानता हूँ, पर आप इसके अपवाद हैं।'
'भैया बड़े उदार हो , पर बिना नाम. , ग्राम के व्यक्ति को इतनी बड़ी सम्पदा सौंप रहे हो। यह उचित नहीं है।'
'अच्छा, सुबह से आप आ रहे हैं न ?'
' नहीं भी कैसे कह सकता हूँ. ?''
इसके बाद वे अपने क्वार्टर गये। सुबह जब वे होटल पहुँचे; उनका स्वागत एक ग्राहक की तरह नहीं अपितु एक पार्टनर की भाँति किया गया। वे अभी खाना खा ही रहे थे कि होटल मालिक ने बैरे से गाड़ी की चाभी और कागज मँगवा कर काउण्टर पर रख लिया। वे जब खाना खाकर उठे तो चाभी और कागज उनकी ओर बढ़ाते हुये बोला- 'लीजिये , सँभालिये आज से आपका खाना और वस्त्र मेरे जिम्मे रहेगा और कमाई में हम दोनों का आधा - आधा । '
' धन्यवाद।' वे सिर झुकाकर चाभी लिये और कार में बैठकर चल पड़े। जो देखता वही आश्चर्यचकित हो जाता - 'हैं?! यह बुड्ढा अभी कल तक मोटर की सफाई किया करता था , आज टैक्सी पर घूम रहा है। '
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' वे बड़ी ईमानदारी से आगरा और आस-पास
उस कार को चलाने लगे। मालिक बहुत खुश था उनसे , क्योंकि वे इस अवस्था में भी अन्य ड्राईवरों के मुकाबले ज्यादा कमा लेते थे। साथ ही इनके शिष्ट व्यवहार से लोग बहुत प्रभावित थे। इनके साथ ही होटल मालिक की भी ख्याति बढ़ने लगी। उनका खर्च तो बिल्कुल सीमित हो गया था। जो पैसा मिलता वह सब होटल मालिक के पास ही जमा कर देते। होटल मालिक भी इनकी ईमानदारी से प्रभावित था। वह बड़ा धर्मभीरु था। अतः उनकी गाढ़ी कमाई का एक पैसा भी गलत तरीके से अपनाना अपने विनाश को आमन्त्रण देना समझता था। वर्ष बीतते- बीतते उनकी कमाई उसकी कार की कीमत से पार होने लगी।
होटल मालिक ने माला-फूल मँगवाया। जब तक दादा नहा- धो रहे थे, तब तक कार भिजवाकर धुलवाई करवा लिया और फूलों तथा तरह-तरह के स्टीकर आदि से सजवा दिया। जब दादा जी तैयार होकर वापस आये। उन्हें खाना खिलाया। इसके बाद उन्हें माला पहनाया'मिठाई का डिब्बा' वस्त्र आदि देकर बोला- 'दादा जी , मैं अपनी कार की कीमत पा चुका हूँ। आज से यह कार आपकी है। आज से आप अपनी कमाई अपने पास रखिये और हाँ, खाना मेरे यहाँ खाते रहियेगा, यह मेरी तरफ से आपको तोहफा होगा।
'दादा जी सारी कमाई पूर्ववत होटल में ही दे देते थे। होटल मालिक ने उनका एक खाता खुलवाकर उसमें जमा करवाता गया।
उसने कहा-'दादा जी' , मैं आपके साथ बेईमानी नहीं कर सकता।''
'धन्य हो भैया! एक गरीब को सहारा देकर तुमने वह पथ प्रशस्त किया है जिस पर देर-सबेर सभी पूँजीपतियों को चलना होगा। '
'यह सब आपकी कर्मठता का परिणाम है आपके धैर्य , साहस एवम् भुजबल ने आपको इस योग्य बनाया है। मैं धन्यवाद करता हूँ उस परिस्थिति का , जिसने मुझे आपकी विशाल कार्य योजना में अनायास यश प्रदान किया। मुझ बाटने वाले को. भी मेंहदी का रंग लग गया।
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समय गुजरता गया। दो तीन माह बाद दादा ने होटल के पास ही एक पान की दुकान खोल ली। दिन में दो चार चक्कर लगाकर वे लौट आते थे सुबह शाम पान की दुकान पर बैठते थे। जब वे कोई गाना गुनगुनाते , तो लोग बरबस उधर आकृष्ट हो जाते थे। वृद्धावस्था के बावजूद भी उनके स्वर में कोई परिवर्तन नहीं आया था। जब वे खुलकर गाते थे तब तो अच्छी -खासी भीड़ एकत्र हो जाती थी। इसी प्रकार सुख पूर्वक जीवन व्यतीत हो रहा था उनका।
XOX XOX
कि से, कब' और किन परिस्थितियों में डाल देगी प्रकृति 'कहा नहीं जा सकता। कलतक निश्चिन्त रहने वाले दिनेश को रोजी रोटी की फिक्र हुई। वह नौकरी की तलाश में इधर. -उधर भटकने लगा। अनेक मिल-कारखानों एवं आफिसों का दरवाजा खटखटाया पर निराशा ही हाथ लगी। वह प्रतीक्षालय में पड़ा सुबह का इन्तजार कर रहा था। सुबह हुई। वह नित्य कर्म से निवृत्त होकर नित्य की भाँति टी स्टाल पर पहुँचा पर उसके चेहरे पर निराशा छायी हुई थी। वह बैठकर अखबार पढ़ने लगा। बैरा चाय रख गया था। वह चाय अभी मुँह से लगाया भी न था कि उसके सामने एक महावृद्ध पुरुष आकर उसकी ओर देखकर कहने लगा - 'बाबू! चाय मुझे भी पिलाइये , भगवान आपका भला करेगा। दिनेश ने अपनी चाय वृद्ध पुरुष की ओर बढ़ा दी। बृद्ध पुरुष ने चाय पी और जाते-जाते कह गया - 'बेटा! भगवान भला करेंगे। जाओ, आज से हर ओर तुम्हारी उन्नति होगी ,काम बनेंगे।" और वह तेजी से एक ओर चला गया। अभी वह कुछ सोच भी न पाया था कि होटल मालिक ने दो जगह नमकीन मीठा और दो कुल्हड़ चाय लेकर स्वयं दिनेश के सामने आ बैठा और बोला-लो भैया चाय पियो I दिनेश ने कुछ संकोच व्यक्त किया Iउसके मनोभाव को भाँप कर दुकानदार ने कहा-" भैया तुम बड़े खुशकिस्मत हो जो बूढ़े फकीर ने चाय माँग कर पी है तुमसे। हम लोग बुलाते-बुलाते थक जाते हैं पर वे कभी इधर आते तक नहीं। वे जिसकी दुकान पर आ जायें उसकी किस्मत खुल जाती है। मुझे बड़ी खुशी है. - ----- - - - - - - कि आप हमारे ग्राहक हैं। भैया मेरी दुकान पर अवश्य आते रहियेगा।
दिनेश कुछ समझ नहीं पा रहा था। आखिर यह क्या चमत्कार है?'जब चाय वाय पीने के बाद पैसे देने लगा तो होटल मालिक ने हाथ जोड़ लिये- 'नहीं भैया आप जरूर बडे़ पीर के गुरुभाई होंगे - - - - - - न बाबा - - - मुझे नरक में मत ठेलो। आपके लिये दुकान फ्री है। जो चाहें आप खायें पियें..........''
वह लाख आग्रह करता रहा। पैसा देने की लाख कोशिश की पर वह भी धुन का पक्का था। वह कब सुनने वाला था? आखिर दिनेश को बिना पैसा दिये ही जाना पड़ा। यहीं अखबार में उसने एक वाण्ट देखी थी। अतः वह चल पड़ा उनसे मिलने का निश्चय कर। रास्ते में सोचता रहा, यह बूढ़े पीर का प्रभाव है या कोई और चमत्कार ! कुछ भी हो कम से कम चाय वाले पर तो उसका प्रभाव पड़ा ही। अब आगे देखिये क्या होता है ?'चल तो दिया, पर मिलेगा किससे?
अभी सुबह के आठ ही बज रहे हैं। मिलने का समय दिया है - 'पाँच से आठ बजे सायं ।'' कोई बात नहीं , चलूँ स्थान देख लूँ। शाम को ही मिल लूँगा। यही सोचकर वह उक्त पते पर गया, पर वहाँ ताला लटक रहा था। दिन भर इधर-उधर भटकता रहा। शाम को पाँच बजते-बजते वह उधर चल पड़ा। साढ़े पाँच बजते -बजते वह वहाँ पहुँंच गया। हिम्मत नहीं पड़ रही थी दरवाजा खटखटाने की पर बूढ़े पीर की बात ने उसके हाथों में अजीब सी ताकत भर दी। वह एक ही क्षण में दरवाजे तक पहुँचकर दो -तीन खट् .खट् की आवाज कर पीछे हटकर खड़ा हो गया। उसने कल्पना की थी कोई बूढ़ी डॉक्टरनी या नर्स होगी- पन्ना।
पर जब दरवाजा खुला और सामने एक सूबसूरत नवयुवती को देखा तो वह असमंजस में पड़ गया और झिझकते हुये बोला. - ' क्षमा कीजिएगा मैंने आपको व्यर्थ कष्ट दिया'उसके मस्तिष्क में यह बात आयी कि कहीं गलत स्थान पर तो नहीं आ गया?' लेकिन मकान नम्बर तो सही था। तुरन्त उसने वाक्य पूरा करते हुये कहा--' दरअसल मैं पन्ना जी से मिलना चाहता था - - - - - - - '
'क्या कोई काम है?''
' जी हाँ , कहाँ होंगी वो ?'
'मेरा ही नाम पन्ना है , कहिये क्या काम है आपको?'
दबे स्वर में नजरें नीची किये दिनेश ने कहा-'एक आवश्यकता प्रकाशित हुई है ?'
'अच्छा - अच्छा भीतर चले आइये।' एक कुर्सी उसकी ओर सरकाकर पन्ना ने स्टोव से चाय उतारा। दिनेश दबे पाँव सकुचाते हुये भीतर जाकर कुर्सी पर बैठा ही था कि पन्ना ने उसकी ओर चाय बढ़ाया और स्वयं भी चाय पीने लगी।
दोनों ही चुस्कियाँ लेते रहे। इसी बीच पन्ना ने पूछा- 'आप आना चाहते हैं?'
यदि मुझसे कुछ सेवा हो सकी तो मैं स्वयं को कृतार्थ समझूँगा।'
'आपका परिचय ?' उसका अगला प्रश्न था।
'परिचय ?'एक दीर्घ निःश्वास छोड़ते हुये दिनेश ने कहा-'मुझे दिनेश कुमार कहते हैं। अब मेरा कौन है इस दुनिया में? बड़ा भाई , छोटी बहन और माँ तीनों एक ही दो वर्ष में काल के गाल में समा गये। एक और भाई था, वह इस वज्रपात से पूर्व ही विदेश चला गया। ऐसी परिस्थिति में मैंने हाईस्कूल की परीक्षा दी थी परिणाम वही हुआ जो परिस्थितियों को देखते हुये संभव था। घर की उस विपन्नावस्था को मैं देख न सका। ऐसी दशा में घर का परित्याग किया। बूढ़े पिताजी जाने किस किनारे लगे होंगे इतना कहते-कहते उसकी आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गयी। वह बिलख पड़ा। आगे बोला- 'अब तो जहाँ रात कट जाय वही घर तथा जो दु:खड़ा सुनले ,वही माँ-बाप है।
पन्ना को लगा जैसे परिचय पूछ कर बड़ी भूल की क्योंकि उसके सभी घाव हरे हो गये जिनको भुलाने में एक अरसा लगा रहा होगा Iउसने अनुभव किया कि यह भी मेरी तरह ही विपत्ति का मारा है । अतः इसे सहारा देना मेरा परम कर्तव्य है। उसने उसे काफी समझाया बुझाया अपनी योजना तथा उसके कार्य के विषय में जानकारी देने के बाद अन्त में पूछा- 'भाई यह बताओ वेतन क्या लोगे ?'
'खाने-पहनने की व्यवस्था हो जाय यही पर्याप्त होगा।"
'ठीक है, मैं खाने- कपड़े की व्यवस्था कर दूँगी , आप सँभालिये अपना काम।
'आपकी इस कृपा के लिए आभारी रहूँगा।''
'अच्छा भाई आ कब से रहे हो?'
'आया तो अभी हूँ पर यदि कोई परेशानी हो तो एकाध रोज और कहीं नील गगन के नीचे , हजारों दीन-हीनों के बीच गुजार लूँगा।' भावुक स्वर था दिनेश का।
पन्ना ने कहा-' भैया ऐसी बात है तो यहीं रहो, अब कहीं जाने की आवश्यकता नहीं।"
दिनेश को लगा जैसे उसका सारा दुःख बीत गया। पन्ना ने खाना पकाया , खाना खिलाकर बराण्डे में बिस्तर लगा दिया और बोली- 'आप यहीं सोइये मैं अस्पताल जाऊँगी।'
दिनेश के मन में यह प्रश्न कौंध गया - 'आखिर इसने मुझ अनजाने पर विश्वास क्योंकर लिया? क्या यह जमाना विश्वास योग्य है ?' फिर दूसरे ही क्षण उसके मन में आया - ' हो , न हो वह कहीं छिप कर मेरी परीक्षा ले रही हो? इसी प्रकार के विचारों में खोया - खोया वह जाने कब सो गया। सुबह उसकी नींद खुली तो पन्ना चाय बना रही थी। वह शीघ्र नित्य कर्म से निवृत्त हुआ दोनों ने एक साथ चाय पी । आज पन्ना ने छुट्टी ले रखी थी। चाय पीने के बाद ही वे दोनों घूमने निकले। अनेक गरीब मुहल्लों एवं ग्रामीण क्षेत्रों में घूम-घूम कर उसने दीन-हीनों में दवा बाँटी और दिनेश का परिचय कराया। उन लोगों से कह दिया कि आज से 'काका देव' में यही दिनेश भाई ही रहेंगे आप लोग निःसंकोच दवा लेने हेतु आइयेगा।
दिनेश ने कार्य सँभाला। वह दिन भर पर्चे के मुताबिक दवा वितरित करता। पूर्णिमा. शीघ्र ही 'मतइयन पुरवा' में एक बुढ़िया के मकान में रहने लगी। खाना यहीं बनता। दिनेश भी नौ बजे के बाद आकर खाना खा जाया करता था। बुढ़िया अकेली थी। पन्ना ने उसकी दवा - दारू सेवा. टहल में कोई कसर उठा न रखी। इससे खुश होकर इसे रहने के लिये मकान दे दिया था। पन्ना अक्सर दिनेश के लिये खाना रखकर अस्पताल चली जाती थी। दिनेश जाता , खाना खाता और फिर ड्यूटी पर लग जाता ,उन लोगों की यहीं दिनचर्या थी। जब वह अस्पताल से छुट्टी पाती , दिनेश के साथ गरीब बस्तियों में चली जाती थी। उसे इन बस्तियों में अजीब आनन्द प्राप्त होता था। लोग उन्हें भाई-बहन समझते थे। बुढ़िया अधिक दिनों तक जीवित न रही। उसने अपनी सारी सम्पत्ति पन्ना के इस अस्पताल ( जन सेवाश्रम) को दे दी थी। पन्ना खाने कपड़े के अतिरिक्त चालीस रुपये प्रति माह दिनेश को देती थी। पहले कुछ महीने तो दिनेश ने ए रुपये अपने लिए आरामदेह वस्तुओं पर खर्च किये। पर बाद में वह फिल्मी पत्रिकायें जासूसी एवं अपराध साहित्य लाने लगा । पन्ना को जब यह ज्ञात हुआ तो उसने एक दिन उसे समझाया - 'भैया तुम्हें जो पैसे देती हूँ, वह तुम्हारी मेहनत का है । यद्यपि उसके बारे में मुझे कुछ भी कहने का अधिकार नहीं है , फिर भी , एक साथी की हैसियत से मुझे कुछ कहना पड़ रहा है। आप इन फिल्मी पत्रिकाओं पर जितना खर्च करते हैं , उतना पैसा यदि किसी साहित्यिक या मेडिकल पुस्तक परखर्च करते तो , बहुत संभव है ,आपका ज्ञान बढ़ता आप जीवन-संग्राम में विजयी होते Iआप उन पैसों से परीक्षा की पुस्तकें खरीद सकते हो। तैयारी करो , परीक्षा दो ၊ परीक्षा न भी दो तो भी जानकारी तो होगी ही । कोई ऐसी टेक्निकल पुस्तक पढ़ो , ऐसा ठोस ज्ञान अर्जित करो , जो जीवन की समस्याओं को हल करने में सहायक हो। क्या मिलता है इन फिल्मी पात्रिकाओं में ? भैया और क्या कह सकती हूँ ? जो कुछ कहा है ,यदि भला लगे तो मान लेना , बुरा लगे तो मैं इसके लिए बाध्य भी नहीं कर सकती।''
दिनेश को यह बात जँच गयी। वह मेडिकल पुस्तकों पर पैसा खर्च करने लगा। शीघ्र ही उसके ज्ञान की काफी अभिवृद्धि हुई। अब वह और अधिक सक्रिय हो गया अपने कार्य में। इधर एक डिप्लोमा कोर्स भी कर रहा है। खाली समय में , जब जी ऊब जाता , तब वह पन्ना द्वारा लिखी कहानियाँ पढ़ा करता जिसे पन्ना ने उसकी रुचि देखकर उसके पास रख दिया था। इन कहानियों में उसे अपनी ही व्यथा के दर्शन होते।
ज्यों-ज्यों समय गुजरता गया , दिनेश की ख्याति बढ़ती गयी। कई गरीबों को , जिनका इलाज करने से डॉक्टरों ने या तो इनकार कर दिया था या भारी भरकम फीस एवं दवा का दाम देने में असमर्थ होने के कारण निराश हो चुके थे अपने जीवन से। दिनेश ने दवा दी और वे रोग मुक्त हो गये। जब यह बात पन्ना को ज्ञात हुई , वह बहुत खुश हुई। उसे अब जन सेवाश्रम की चिन्ता न थी।
संयोगवश वे एक बार हफ्तों तक एक दूसरे से न मिल सके। दिनेश ने एक पत्र लिख कर रसोईघर में रख दिया। पन्ना जब वापस आयी तो उसे वह पत्र मिला ; लिखा था --
सिस्टर पन्ना जी' ,
नमस्ते|
आप से कुछ खास बातें करनी है। आजकल गर्मी से गरीब बच्चे त्रस्त हैं। स्टाक में दवा भी कम है। कुछ लोग दवा का कृत्रिम अभाव पैदा करने के लिए मुझ पर दबाव डाल रहे हैं। ऐसे अवसर पर बिना आपसे पूछे मैं कुछ नहीं कर सकता। आतो मैं ही जाता पर ए गरीब बच्चे , जो परिस्थितियों के मारे हुये हैं , कहाँ जायेंगे? - - . -
शेष मिलने पर।
आपका ही -
दिनेश
पन्ना ने पत्र पढ़ा। आज अस्पताल में कोई सीरियस केस भी नहीं था। अतः वह अस्पताल जाकर एक घण्टे की छुट्टी ले' काका देव' पहुँची।
सारा हाल जानकर बहुत क्षुब्ध हुई , पर. घबड़ाई तनिक भी नहीं। बोली- ' दिनेश भैया यूँही डटे रहो, मैं परसों वेतन मिलने पर सारी दवायें भिजवा दूँगी। या फुर्सत रहे तो आप खुद आ जाना। ये आलीशान बँगलों में रहने वाले ,फियेट और अम्पाला पर चलने वाले , झोपड़िर्यों में रहने वाले गरीबों का दुःख-दर्द क्या जाने?
दिनेश उसका मुखड़ा देखता रह गया। खुद थोड़े से कपड़ों पर गुजर करती है। रूखा -सूखा खाकर रह जाती है पर अनाथ बच्चों का , दीन-दुःखियों का इतना ख्याल रखती है। उसकी अन्तरात्मा की आवाज आयी - 'तो मैं भी क्यों न कुछ त्याग करूँ ?' अगली बार जो पैसा वेतन के रूप में पन्ना से उसे मिला , उसे पुनः पन्ना को सौंपते हुये बोला- 'सिस्टर जैसी विपत्ति की मारी आप हैं ,वैसा ही मैं भी हूँ। फिर आप अकेले ही कैसे पुण्य लेंगी? मैं भी आप के साथ रहूँगा। पन्ना की आँखें आर्द्र हो उठीं। वह उज्र न कर सकी। वे दीनों की सेवा में जुटे रहे। जब दवा की कमी हो जाती , दिनेश अस्पताल जाकर मिल लेता၊ पन्ना दवायें मँगाये होती तो दे देती या पैसे दे देती वह बाजार से खरीद लेता। 'काका देव' के झोपडे़ उजाड़े जा रहे थे। उनकी जगह सेठ लोगों के बँगले बनने वाले थे। गरीबों को अब अन्यत्र शरण लेनी पड़ी। अब वह गाँव. खेड़ा न रहकर शहर बनने जा रहा था वहाँ के रहने वाले सीधे-सादे ग्रामीणों को डरा-धमकाकर या बहला फुसलाकर लोग निकाल रहे थे। उन गरीब ग्रामीणों को दुःख था , उनसे बिछुड़ने का। पर करते भी तो क्या ? वे दूर - दूर रहकर भी यदा-कदा जन-सेवाश्रम अवश्य पधारते। समय गुजरता जा रहा था।
XOX XX XOX
सान्त्वना देने वाला भी कोई नहीं मिलता , जब मनुष्य के दुर्दिन आते हैं। गैर तो गैर , अपने सगे भाई-बन्धु भी पराङ्मुख हो जाते हैं। जिस दिन से हिम्मत सिंह पर असमय आयी है, उनके प्रगाढ़ मित्र भी दरवाजे नहीं फटकते। एक लम्बा समयान्तर गुजर गया। इस लम्बे एकाकी जीवन में 'मुँह बोलारव' 'मित्र ,भाई, अपना या ,और कुछ कह लीजिये ,यदि कोई था , तो वह थे उनके साले-बलबीर सिंह।
जब उनकी हालत ठीक रहती तो वे दिनेश की तलाश में निकल जाते। महीने -पन्द्रह दिन बाद खाँसी, सर्दी , जुकाम लिये घर आते। आते ही चारपायी पर पड़ जाते। फिर ठीक होने में भी प्रायः उतना ही समय लग जाता। प्रकाश के मामा खेती गृहस्थी एवं पशुओं की देखरेख करते थे, साथ ही उनकी दवा - दारू भी करते ।
जब हिम्मत सिंह हताश , निराश होते तो उनके मुँह से अनायास विषाद बाहर आता - 'हे प्रभु! मैं कितना अधम हूँ , सब चले गये पर मुझे मौत नहीं। जल्द ले चलो मुझे भी नाथ!''
' - - - -- - - - - - - - - - - I'
'जीजा जी ऐसे घबड़ाने और रोने-धोने से भला कभी विपत्ति टलती है? आप थोड़ा और समय बिताइये, प्रभु ने चाहा तो प्रकाश और दिन्नू दोनों ही शीघ्र आयेंगे।'
'कब आयेंगे? जब मैं मर जाऊँगा ?'
' नहीं, जीजा जी ! वे आयेंगे और आपके जीते जी आयेंगे।'
'क्या जवाब दूँगा उन्हें कि उनकी माँ ,भाई ,बहन कहाँ हैं?'
'उसमें किसी का अख्तियार नहीं, फिर उसके विषय में क्यों चिन्ता करें? वे लोग रहते तो क्या जाने वालों को रोक लेते?'
हिम्मत सिंह को लगता था, महज ढाँढ़स बँधाने के लिए ही उनके साले साहब ये सब बातें कहते हैं၊ उनको उनकी बातों पर विश्वास कम ही पड़ता था ।
एक दिन वे बैठे हुये कुछ सोच रहे थे तभी डाकिया एक पत्र उन की ओर बढ़ाकर आगे बढ़ गया। वे अपने साले साहब को पुकारने लगे - 'बलबीर सिंह !ओ बलबीर ! जरा देखो ये किस का पत्र है?'
वे बार-बार अपना चश्मा तलाश करने लगे। पर कहीं न मिल सका। तब तक बलबीर सिंह आ गये और पूरा पत्र पढ़कर सुना दिये। पत्र दिनेश का था। उसने अपना कुशल लिखा था, पर यह नहीं लिखा था कि वह कहाँ पर है? और क्या कर रहा है?
आज हिम्मत की निराशा पुनः आशा की ओर उन्मुख हुई , उन्हें बलबीर का कथन अब सच्चा लगने लगा। वे लोग चश्मा लगाकर देखने लगे पोस्ट आफिस की एक मुहर लगी अवश्य थी पर बिल्कुल अस्पष्ट | काफी जोर देकर देखने पर कानपुर पढ़ा जा सकता था। 'फिर क्या था !
चौधरी साहब अबकी बार पूरी तैयारी के साथ कानपुर चले। बलबीर सिह ने वह पत्र ; लापता होने का विज्ञापन वाला अखबार. ट्रवेलर चेक आदि सभी कुछ उनके बैग में यथा स्थान रख दिया और वे शाम वाली ट्रेन से कानपुर पहुँचे। वहाँ वे सियाराम होटल रूम नं० 'सात' में ठहरे' सुबह चाय - नाश्ता के बाद वे निकल पड़ते , सारा दिन इधर-उधर घूमते रहते। क्या अस्पताल ,क्या पार्क, मार्किट सभी ढूँढ़ते। उन्होंने कानपुर की चप्पा - चप्पा धरती ढूँढ़ डाली , पर इस महानगर में उनका यह प्रयास , किसी व्यक्ति को बिना पता के ढूँढ़ना , असंभव नहीं तो दुष्कर अवश्य था। उन्हें लगभग एक माह गुजर गये; अब वे निराश हो चले थे। शाम को जब होटल लौटे तो उन्हें याद आया कि उनके मामा के साले अरमापुर स्टेट में रहते हैं। एक दिन गुमटी में मिले थे। बहुत आग्रह किया था उन्होंने. अपने निवास पर आने के लिये। आश्वासन भी दिया था - दिनेश की तलाश करने का। शायद उन्हें कुछ पता चला हो?
घर चलने से पूर्व उनसे भी मिल लूँ।' यही सोच कर वे सोये। सुबह काफी देर से उठे I नहाने - धोने में काफी समय लग गया। वे अरमा पुर पहुँचे तो पता चला कि अभी वे ड्यूटी गये हैं। घरवालों के आग्रह पर वे शाम तक वहीं रुके। जब वे ड्यूटी से आये, तब कुछ देर हाल-चाल पूछकर वे लौट पड़े। आज उनके दिल में बड़ी अजीब हलचल मच रही थी , साथ ही वामांग भी फड़कने लगा। वे अनायास किसी भावी अनिष्ट की कल्पना से सिहर उठे। अभी वे कुछ सोचते हुये जा ही रहे थे कि अगले चौराहे पर एकत्र भीड़-को देखकर वे भीड़ का कारण पूछे पर कोई कुछ न बताया। कुछ और लोग भीड़ की ओर भागे जा रहे थे। वे भी भीड़ की ओर अग्रसर हुये। करीब पहुँचने पर पता चला - 'कार और ट्रक में भिड़न्त ' हो गयी है।
कोई कह रहा था - 'ए साले चलते हैं तो देखकर नहीं चलते। कुछ विद्वान लोग राय दे रहे थे- 'इन्हें अस्पताल ले चलना चाहिये।'कुछ और लोग उनका अनुमोदन भी कर रहे थे। एक व्यक्ति ने बढ़कर दुर्घटना ग्रस्त व्यक्ति की पर्स से डायरी निकाली , जिससे पता चला कि वे आगरा के किसी अस्पताल के सर्जन हैं। इनका नाम प्रकाश है। अभी वे लोग डायरी से पता पढ़ ही रहे थे कि तभी भीड़ को चीरते हुये एक वृद्ध पुरुष को भीतर प्रविष्ट होते हुये लोगों ने देखा। वे पहुँच कर घायल व्यक्ति को देखते ही_'' प्रकाश! मेरे लाल !'' कहकर स्वयं मूर्छित हो गये। लोगों ने हवा किया , जल के छींटे मारे। थोड़ी देर में वे होश में आये। तभी उधर से एक टैक्सी आयी। लोगों ने रुकवाया। पता चला कि वे हैलट जा रहे हैं , कोई सवारी लेने। फिर क्या था, लोगों ने घायल व्यक्ति को चढ़ाया और चल पड़े हास्पिटल की ओर। चन्द लमहों बाद वे लोग पहुँच गये हैलट हास्पिटल । भर्ती होते-होते लगभग साढ़े ग्यारह बज गये। बड़े सर्जन ने देखने के बाद मुँह बिचकाकर कहा-'काफी खून निकल चुका है 'केस सीरियस है। यदि जल्द से जल्द खून नहीं दिया जाता तो प्राण रक्षा संभव नहीं।'
'हिम्मत सिंह प्रकाश के निस्तेज चेहरे को देख रहे थे। वह क्षण प्रतिक्षण स्याह पड़ता जा रहा था। उन्होंने कहा-'' डॉ० साहब इस अनजाने शहर में , इस रात्रि में कौन देगा मुझे रक्त ? आप ही कहीं से व्यवस्था कीजिये। मैं जो कहिये पैसे दे दूँगा।"
डॉ० साहब ने ब्लड .बैंक फोन किया तो पता चला कि उस ग्रुप का 'ब्लड' उपलब्ध नहीं है। उन्होंने विचित्र -सा मुँह बनाकर कहा-' वहाँ भी रक्त नहीं है।'
हिम्मत सिंह की हालत और खराब हुई। वे बड़े ही दीन भाव से गिड़गिड़ा कर बोले- 'डॉ० साहब , कोई लाख पचास हजार रुपये ले ले , पर मेरे लाल की प्राण रक्षा करें'' वे अधीर हो चुके थे।
'चौधरी साहब ! प्राणों का मोह किसे नहीं है? कौन लाख - पचास हजार के लिए इतना बड़ा जोखिम उठायेगा?'
'नहीं डॉक्टर बाबू! मेरा लाल आपके हाथों में है , आप ही बचा सकते हैं। मैं वायदा करता हूँ लाख - पचास हजार रुपये अदा करने का.।"
''जितना आसान रुपये हैं उतना आसान ये रक्तदान नहीं।''
यह उत्तर सुनकर चौधरी साहब की हिम्मत पस्त हो गयी , वे हाथों में सिर पकड़ - कर बैठ गये।
पास खड़ी नर्स पन्ना ने प्रकाश एवं उनके पिता की दशा देखी , उसकी करुणा जाग उठी। उसका फर्ज पुकार उठा। उसने सोचा-'जब हमने दुःखियों की सेवा का व्रत ले ही लिया है , तो फिर क्यों न इन बूढ़े चौधरी की दुवा लूँ?' तथा इनसे प्राप्त धन से दुःखियों की और अच्छी तरह सेवा करूँ ?''
'फिर क्या था ! उसने अपनी मक्खन के लौंदे -सी कोमल बाँहें डॉक्टर की ओर बढ़ा दी - 'डॉक्टर साहब, क्या मेरा रक्त काम आ सकेगा?'
''पन्ना! तुम रक्त दोगी?!"
'' डॉक्टर साहब ,अब देर न कीजिये। देखिये न मरणासन्न रोगी की दशा को और इन पिता जी की दशा को ၊''
'' पन्ना , क्यों नाहक जिद करती हो? इतना रक्त देकर तुम स्वस्थ रह भी सकोगी?''
'' डॉक्टर साहब ,आप मेरी चिन्ता मत कीजिये, रोगी की चिन्ता कीजिये। ''
डॉक्टर आश्चर्य सहित मौन उसका मुख देखते रहे।
''डॉक्टर साहब प्लीज जल्दी कीजिये न ?!" उसके हम्मीर हठ एवं उपस्थित परिस्थिति को देखते हुये डॉक्टर भी मजबूर थे, उसका रक्त प्रकाश को चढ़ाने के लिए।'
रक्त चढ़ाने के बाद वे थोड़ी चैन की साँस लिये।
पन्ना भी रक्त निकल जाने के कारण क्षीण प्राण पास ही बैठी थी।
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यूँ तो जब से प्रकाश गया है , तभी से गीता का चित्त अनमना था, किन्तु आज उसकी उद्विग्नता बहुत बढ़ गयी थी। उसका जी कहीं नहीं लग रहा था। जब बँगले में न रहा गया तो पास की मास्टरनी जी के पास गयी , पर वहाँ भी देर तक न रह सकी। शीघ्र ही वापस आयी। तब तक अखबार आ गया था। अखबार वाले को जाता देखकर वह बँगले की ओर चल पड़ी । दरवाजा खोला ,भीतर अखबार पड़ा था। उठाकर जल्दी-जल्दी पलटने लगी। तभी उसकी दृष्टि एक ऐसी 'हेडिंग' पर पड़ी जिसे पढ़कर उसकी धड़कन बढ़ गयी। वह एक ही साँस में पढ़ गयी - - -
'टैक्सी - ट्रक टक्कर : डॉक्टर घायल
कानपुर (नि.सं.)कल यहाँ एक टैक्सी (कार)ट्रक से टकरा गयी। कार में सवार डॉ०. प्रकाश बुरी तरह घायल हो गये। उन्हें स्थानीय लाला लाजपत राय (हैलट) अस्पताल में भर्ती कराया गया है। बताया जाता है कि वे आगरा के एक अस्पताल में सेवारत हैं। अभी भी वे बेहोश हैं। यद्यपि डॉक्टरों का कहना है कि उनकी हालत में सुधार हो रहा है। ''
उसकी आँखों से सावन-भादों बरस पड़ा। वह अभी कोई निर्णय कर भी न पायी थी कि उसे टैक्सी का हार्न सुनायी पड़ा। वह अखबार और पर्स लिये हुए दरवाजा बंद कर झट बाहर आयी।
उधर से आगरा के ' हर दिल अजीज' जाने माने टैक्सी ड्राइवर दादा जी अपनी सुरीली तान छेड़ते हुये आ रहे थे- - -
'मत रो वो बहिनी , कि मत रो वो भइया हो।
कोई भी ना दीनों का , जग में सहइया हो।'.
गीता को लगा'दादा'उसकी मनोव्यथा को जान एवं रुदन को देखकर उसे ही चुप करा रहे हैं। उसने स्वयं को संयत कर हाथ उठा टैक्सी रुकवायी। दादा उसके उतरे हुये चेहरे को देखते ही समझ गये कि यह किसी विपत्ति में पड़ी है। उन्होंने पूछा- '' बोलो बिटियारानी, कहाँ चलना है?
'घबराये हुये स्वर में गीता बोली- 'दादा मुझे कानपुर तक चलना है। वहीं के एक अस्पताल में एक डॉक्टर से मिलना है।'
' दादा जी यह नहीं समझ पा रहे थे कि यह एक मरीज की हैसियत से मिलने जा रही है या डॉक्टर की हैसियत से ?!' वे कुछ देर मौन चारों ओर देखते रहे। है तो वे डॉक्टर के बँगले के सामने ही और उन्होंने उसे बँगले का दरवाजा बन्द करते हुये देखा भी था तभी उनके जी में आया - ' हो न हो इसका पति कानपुर में रहता हो, यह वहीं मिलने जा रही हो।' उसकी परेशानी देख उन्होंने सोचा-'कोई बात नहीं डॉक्टर की बीवी है, अच्छा भाड़ा देगी ; फिर कानपुर भी देख लूँगा। बहुत दिनों से उसकी प्रशंसा सुनता आ रहा हूँ। यही सोचकर धीरे से पिछला दरवाजा खोल स्वयं स्टियरिंग पकड़कर बैठ गये। फिर क्या था !दादा जी की टैक्सी हवा से बातें करने लगी। देखते ही देखते फिरोजाबाद मैनपुरी पार कर लिये। यहाँ से आठ-दस किलोमीटर आगे बढ़े ही थे कि एक पहिया की हवा छनने लगी वे तेजी से किसी ऐसी दुकान पर पहुँचना चाहते थे , जहाँ इसे सुधरवा सकें। संयोग से जल्द दुकान मिल गयी। जब तक पहिया ठीक हुई उन लोगों ने चाय पी Iवहीं पता चला कि आगे पुलिया क्षतिग्रस्त है नीचे से मार्ग बन रहा है उसमें छः सात घण्टों का समय लग जायगा। करीब पच्चीस तीस वाहन सड़क पर कानपुर जाने के लिए रुके थे। दादा अपनी सीट पर लेट कर आराम करने लगे। गीता भी पीछे की सीट पर बैठे - बैठे आराम करने लगी। उसे यहाँ रुकना तनिक भी अच्छा नहीं लग रहा था, पर मजबूरन रुकना ही पड़ा। सुबह के पाँच बज चुके थे၊ लोग तैयार होकर चाय पी रहे थे तभी पुलिया की तरफ से कुछ वाहन आये। उन लोगों ने बताया कि अब मार्ग खुल गया है। फिर क्या था। सारी गाडि़याँ धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगीं। गीता उड़कर पहुँचना चाहती थी प्रकाश तक। वे लोग कुछ ही घंटों में कानपुर की सीमा में प्रविष्ट हुये। थोड़ी देर में शहर आ गया। शहर में प्रविष्ट होते ही दादा ने पूछा- 'बेटी! कौन से अस्पताल चलना है?'
'' (लाला लाजपत राय) हैलट हास्पिटल'
'हैलट?'
'हाँ दादा हैलट'' उसे ही लाला लाजपतराय हास्पिटल भी कहते हैं। '
'किसी से पूछना पड़ेगा बिटिया ,मैं भी तो यहाँ कभी नहीं आया हूँ।'
कार तेजी से चली जा रही थी। गीता चारों ओर आँखें फाड़ - फाड़कर देखती जा रही थी।
उधर दिनेश को दवा वितरित करने में काफी विलम्ब हो गया था। वह लम्बे -लम्बे डग भरता चला जा रहा था। मन ही मन सोचता जा रहा था कि कोई सवारी आ जाती तो वह उससे चला जाता ; तभी उधर से टैक्सी आती नजर आयी । दिनेश ने हाथ देकर रोका तो अवश्य , पर जब टैक्सी करीब आयी वह कुछ कह न सका। दादा ने उसके हाथ देने पर टैक्सी उसके करीब. ले जाकर रोक दिया। वह भौंचक -सा कोई निर्णय अभी कर भी न पाया था कि दादा ने - 'कहिये मास्टर! कहाँ चलना है? हैलट हम किधर से जायँ ?"दोनों प्रश्न एक साथ ही पूछा।
'चलना तो मुझे भी वहीं है पर --------।'
'कोई बात नहीं ,आ जाइये टेक्सी में और रास्ता बताते चलिये।''
'धन्यवाद' वह दादा की बगल में बैठ गया और गाड़ी आगे चल पड़ी। गीता ने उसे ध्यान से देखा। वह अत्यधिक आश्चर्य में पड़ गयी ; एकदम प्रकाश की प्रतिमूर्ति था वह । . आवाज भी एकदम मिल रही थी। तभी उसे याद आया कि प्रकाश ने अपने भाई के लापता होने की चर्चा की थी। हो न हो, यह वही हो!' उसने साहस करके पूछ ही तो लिया - 'आपका शुभ नाम दिनेश कुमार तो नहीं है?'
दिनेश ने पीछे की ओर सिर घुमा कर देखा - 'कमल-कली-सी खूबसूरत नवयुवती थी वह , पर ऐसा लगता था मानो विपत्ति - तुषार से झुलसकर कान्ति विहीन हो गयी है।
'जी मुझे दिनेश कुमार ही कहते हैं , पर आप को कैसे मालूम हुआ?' उसने उत्तर देते हुये जिज्ञासा भरा प्रश्न सामने रखा।'
तभी दादा ने पूछा- 'किधर से चलना होगा?''
'जी'बायें से 'उसके कहने के साथ ही टैक्सी उक्त दिशा में मुड़ गयी।
उसके प्रश्न का उत्तर दिये बिना , उसे और आश्चर्य में डालती हुई गीता ने अगला प्रश्न किया - 'क्या मैं कह सकती हूँ कि आप प्रकाश के भाई हैं ?'
दिनेश के पल्ले अब भी कुछ न पड़ा। वह अब भी समझ नहीं पा रहा था कि आखिर यह है कौन ? एक बार तो उसे बड़ी शंका हुई कि कहीं ये सरदार की जासूस तो नहीं है? !' पर अगले प्रश्न ने उसकी आशंका को निर्मूल कर दिया।
उसने थोड़ा अनजानेपन का अभिनय करते हुये कहा-'प्रकाश? कौन प्रकाश?'
'डॉ० प्रकाश : जिनका इलाज आजकल हैलट में हो रहा है ''ऐसा कहकर उसने अखबार का वह पृष्ठ सामने कर दिया। दिनेश ने एक ही साँस में पूरा समाचार पढ़ लिया और गीता के मुखमण्डल की ओर देखते हुये बोला' - 'मेरे भाई का नाम प्रकाश अवश्य है पर वह तो विदेश गये हुये हैं।''
' नहीं , उन्हें वापस आये काफी समय हो गया , आपकी तलाश में वे काफी परेशान थे। '
दिनेश को विश्वास ही नहीं हो पा रहा था। उसके मनोभाव को भाँपते हुये गीता ने आगे कहा-'दिन्नू बाबू! मैं कोई अजनबी नहीं हूँ। हमने भी जौनपुर गाजीपुर में काफी समय बिताये हैं।'
अपने पुकारू (घर के) नाम को उस युवती के मुँह से सुनकर वह और आश्चर्य में पड़ गया। एकाएक उसके मुँह से निकल पड़ा - 'आपका परिचय यदि जानसकूँ तो बड़ी मेहरबानी होगी''
गीता कुछ क्षणों के लिये सारे दुःख-दर्द भूल चुकी थी। उसे आज अपने सहपाठी , जीवनदाता डॉक्टर का बिछुड़ा भाई मिल गया था। उसे खुशी थी कि जब वह प्रकाश से उनके भाई का मिलन करायेगी , जिसे ढूँढ़ने में उन्हें अरसा लगा और सफलता न मिल सकी तो वे बेहद खुश होंगे। उसने दिनेश के प्रश्न के उत्तर में धीरे से मुस्करा कर इतना ही कहा- .' मैं तो मर चुकी थी दिन्नू बाबू, मुझे प्राणदान देने वाले प्रकाश जी ही हैं। मैं उनकी चिर ऋणी हूँ।'
दिनेश मौन था। अभी वह सोच ही रहा था (कि कहीं भैया ने शादी तो नहीं कर ली? यद्यपि उसकी सूनी सड़क - सी माँग इस विश्वास को दृढ़ होने ही नहीं दे रही थी।) कि तभी गीता अगला प्रश्न पूछ बैठी - 'आज कल आप क्या कर रहे हैं?'
'जी, जिनसे मिलने जा रहा हूँ उन्हीं सिस्टर पन्ना जी के द्वारा स्थापित 'जनसेवाश्रम 'है। वहीं दीन दुःखियों की सेवा कर रहा हूँ। तथा एक मेडिकल डिप्लोमा कोर्स कर रहा हूँ। सब उन्हीं की कृपा है। '
दादा अगले चौराहे पर आ गये थे , उन्होंने पूछा- 'बेटे! आगे किधर से लें?"
'जी सामने वाले मार्ग से जिस पर ताँगा खड़ा है
चलिये आगे हास्पिटल है ही।'' इसके बाद सभी मौन हो गये। गेट के पास मिलने -जुलने वालों की एकत्र भीड़ में वे लोग भी सम्मिलित हो गये।
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उ सकी दशा में अप्रत्याशित सुधार हो रहा था; यह देखकर पन्ना अति प्रसन्न थी। उसकी आशा फलवती होती जा रही थी। अभी लगभग चार ही बजे थे कि प्रकाश ने आँखें खोल दी और शून्य दृष्टि से चारों ओर देखा। पास ही आराम कुर्सी पर बैठी पन्ना , रक्त निकल जाने से क्षीण प्राण किन्तु रोगी को जीवन लाभ करते हुये देख कर अति उत्साहित थी।
मैं कहाँ हूँ?" प्रकाश ने क्षीण कण्ठ से पूछा।
'हैलट हास्पिटल के स्पेशल वार्ड में।" पन्ना ने धीरे से उन्हें लेटे रहने का संकेत करते हुये कहा।
'मैं यहाँ क्यों हूँ ?' प्रकाश ने फिर पूछा और मानो अतीत की कोई घटना याद करने की चेष्टा कर रहा हो।
'आप हल्की चोट लग जाने के कारण बेहोश हो गये थे और उसी हालत में यहाँ लाये गये थे। ''
पन्ना ने सान्त्वना देते हुये कहा और साथ ही दवा की प्याली उसके होठों से लगा दी , जो इसी समय के लिये तैयार रखी थी। इसके बाद वह अन्य रोगियों को दवा देने चली गयी। दवा देकर लौटी तो प्रकाश पुनः सो गया था। वह वहीं आराम कुर्सी पर बैठ गयी।
उसकी बड़ी लम्बी कल्पना बँध गयी। लाख -पचास हजार रुपये मिलेंगे उससे दिनेश के लिए एक अच्छा कमरा बनवायेगी। बढ़िया दवाखाना बनेगा। ढेर सारी दवायें खरीद कर रखेगी ताकि दीन-हीनों की और अच्छी तरह सेवा कर सके. -
- ----- ---- आखिर उसे जीवन में और करना ही क्या है? इसी प्रकार के विचारों में वह इस तरह खो गयी कि उसे समय का ध्यान ही न रहा। अभी वह बैठी हुई ही थी कि बड़े डॉक्टर साहब रोगियों के निरीक्षण हेतु भीतर प्रविष्ट हुये ,साथ में चौधरी हिम्मत सिंह भी थे। चूँकि मिलने -जुल ने वालों को इससे पूर्व ही बाहर निकाल दिया गया था अतः वे लोग गेट के आस-पास ही एकत्र थे।
डॉक्टर ने विजयोल्लास पूर्ण दृष्टि से रोगी की ओर देखा। फिर पास बैठी नर्स की ओर प्रशंसा सूचक दृष्टि से देखते हुये पूछा- 'तुम कैसी हो मिस पन्ना?"
"ठीक हूँ डॉक्टर सा 'ब !" मुझे कुछ भी तकलीफ नहीं है। रोगी की दशा अब कैसी है?''
'नितान्त आशाजनक ! अब वह खतरे से बाहर हो गया है। आपरेशन सफल हुआ ,बधाई है चौधरी साहब' "
" ईश्वर को बहुत-बहुत धन्यवाद" पन्ना ने सन्तोष की गहरी साँस लेते हुये कहा।
''ईश्वर को नहीं मिस पन्ना तुमको। ईश्वर तो मेरे प्रकाश को छीन चुका था तुम्हीं ने उसे फिर से जीवनदान दिया है उसे ही नहीं मुझे भी। इस अपरिचित स्थान में तुमने मेरी जो सहायता की है उससे हम दोनों आजीवन उऋण नहीं हो सकते। यह तुच्छ भेंट तुम्हारी सेवा में अर्पित है।'
ऐसा कह कर एक लाख रुपयों की चेक उन्होंने पन्ना के हाथ पर रख दिया। इस बीच प्रकाश ने आँख खोल दी थी और अपनी जीवनदात्री नर्स की ओर एकटक देख रहा था उसके नैन-नख्श चाल-ढाल बात विचार सभी अनुपम थे। उसे लगा जैसे वह कोई स्वर्ग की अप्सरा है।.
पन्ना ने एक बार चेक को ध्यान से देखा उस पर चौधरी हिम्मत सिंह के हस्ताक्षर देखकर वह आश्चर्य में पड़ गयी इससे पूर्व उसने न तो प्रकाश को देखा था ,न चौधरी साहब को ही। पर माता पिता की बातचीत के दौरान उसे यह ज्ञात हुआ था कि उसका विवाह किन्हीं चौधरी हिम्मत सिंह के सुपुत्र प्रकाश के साथ होना तय हुआ है। (चौधरी साहब के पत्र यदा-कदा उसके पिता - दीनानाथ , के पास आया करते थे अतः उनके हस्ताक्षर पहचानती थी ,हस्ताक्षर देखकर उसे पूर्ण विश्वास हो गया कि ये हिम्मत सिंह व उनके पुत्र प्रकाश हैं जिनके साथ मेरी शादी होने वाली थी)आज उन्हें देखकर उसका अतीत उसके समक्ष उभर आया। उसने एक बार चौधरी साहब की ओर दृष्टि भरकर देखा और दूसरे क्षण प्रकाश के मुखपर कुछ पढ़ने का उद्योग किया। उसे ऐसा ज्ञात हुआ जैसे प्रकाश की आँखों में मूक अभ्यर्थना है पिता द्वारा दी जाने वाली इस तुच्छ भेंट की आदरपूर्वक स्वीकृति के लिए।
उसने मुस्करा कर चेक माथे से लगा लिया और तत्काल उठकर खड़ी हो गयी ; फिर चौधरी साहब के चरणों पर चेक को रखती हुई हाथ जोड़कर बोली- 'मेरे पिता परिणय की बेदी पर हर हिन्दू कन्या का बलिदान केवल एक बार होता है, जन्म-जन्मान्तर के लिए। यह एक सच्ची सामाजिक आवश्यकता है ,जो प्रत्येक के द्वार पर एक बार आती है , जब वह सर्वात्मा से आत्मीय के निकट सहायता का प्रार्थी होता है। मेरे पिता के द्वार पर भी वह आवश्यकता एक बार आयी थी और वह आपके निकट सहायता के लिए प्रार्थी हुये थे; किन्तु उनकी अभ्यर्थना ठुकरा दी गयी और मैं पढ़ी-लिखी होने पर भी समाज की दृष्टि से प्रकाश जी के साथ सम्बद्ध न हो सकी। उस समय आपको रुपयों की आवश्यकता थी, इन्हें विदेश भेजने के लिए। आज इतने रुपये देखकर मुझे दुःख हो रहा है। काश! ये रुपये उस समय मेरे पास होते , तो क्यों मेरे पिता को पागल होकर' 'अन्मुख' जाना पड़ता ? क्यों मेरे जीवन में अभाव का यह हाहाकार भर जाता ?
समय की बात है - आज मेरी कुछ घण्टों की सेवा का मूल्य, आज मेरे शरीर के अल्पांश रक्त का मूल्य इतना हो सकता है। किन्तु उस दिन मेरे सम्पूर्ण शरीर का, मेरी आ जन्म सेवाओं का मूल्य कुछ भी न था? !'
आज आवश्यकता आपके द्वार पर आयी थी और मुझे दर्प है कि मैं उसे पूरा कर सकी ;मुझे उसका मूल्य भी कम नहीं मिला। दो हृदयों का मिलन ही विवाह सम्बन्ध की चरमपूर्ति है। आज पुरोहित के मन्त्रों द्वारा न सही , सर्जन के यन्त्रों द्वारा मेरे हृदय का प्रत्यक्ष. मेल प्रकाश के हृदय के साथ हो गया जो न केवल कल्पना के लिए वरन् विज्ञान के सत्य साक्षिक रूप से भी हम दोनों के ह्रदय एक हो गये हैं और इस प्रकार कि परस्पर मिलकर बहते हुये रक्तकणों को पृथक कर सकने की सामर्थ्य न आप में है न स्वयं विधाता में। फिर इससे अधिक किस मूल्य की आशा करूँ?'
ये रुपये इन्हें विदेश भेजने में तो प्रयुक्त नहीं हो सकते; हाँ इनके लिये जो बँगला बनेगा उसमें इसे भी सम्मिलित कर लीजिएगा। मैं अपनी ओर से इन्हें भेंट में दे रही हूँ। ये सुख- पूर्वक रहें यही मेरे सन्तोष का कारण होगा।
किन्तु कृपा करके आप यह सदैव याद रखियेगा कि आपके किसी निर्धन बाल्य - सखा की एक अभागी कन्या थी, जिसका नाम था - पूर्णिमा । उसने दहेज की रकम अपने हृदय के रक्त को बेंच-बेचकर चुकाया था क्योंकि उसे ऐसा सुयोग प्राप्त हो सका था।" ऐसा कहकर सबको आश्चर्य में डालती हुई वह उन्मत्त - सी बाहर निकल पड़ी। सभी लोग अवाक खड़े - खड़े एक दूसरे का मुँह देखते रहे।
XOX XOX XOX
मतवाले भौंरे काँटों की परवाह किये बगैर गुन -गुन, भन-भन करते हुये गुलाब के फूलों का रसास्वादन कर रहे थे। रंग-बिरंगी तितलियाँ इधर-उधर थिरक रही थीं। हास्पिटल के दोनों ओर लगे रंग -बिरंगे फूलों की भीनी- भीनी सुगन्ध से पूरा वातावरण सुरभिमय हो उठा था। दादाजी (दीनानाथ ) एकाग्रचित्त तितलियों का नृत्य देख रहे थे, तभी उनका ध्यान भीतर हो रहे वार्तालाप ने आकृष्ट किया। वास्तव में जहाँ वे लोग खड़े थे ठीक उसी के सामने ही स्पेशल वार्ड था। खिड़की के पास ही प्रकाश का बेड था। यद्यपि खिड़की में लगी जाली के कारण
भीतर स्थित लोगों का चेहरा तो नहीं दिखायी पड़ रहा था पर आवाज स्पष्ट सुनाई पड़ रही थी। बाहर स्थित लोगों का ध्यान भीतर हो रही वार्ता पर ही केन्द्रित था। लोगों ने देखा - बाहर खड़े बूढ़े ड्राइवर ''दादा" भीतर की बातचीत सुनकर रो रहे थे, पर किसी को उनके रोने का मर्म ज्ञात न हो सका।
उद्विग्नावस्था में पूर्णिमा अभी बाहर निकली ही थी कि उसे एक चिर परिचित आवाज सुनाई पड़ी- '' बेटी पूर्णिमा ! मुझे भी माफ करती जाना , मेरे ही कारण तुझे इतना कष्ट झेलना पड़ा। 'यह स्वर था बूढ़े ड्राइवर दादा का ; जो कोई और नहीं; पूर्णिमा के पिता दीनानाथ ही थे। भीतर हुई सारी बातचीत सुनकर उनकी खोयी स्मृति वापस आ गयी थी।
''कौन? पिताजी?!'' पूर्णिमा विस्मित -सी , आँसू पोंछते हुये एक क्षण के लिये ठिठकी। अभी वह कुछ निर्णय कर भी न पायी थी कि उसके पिता ने आगे कहा-"हाँ बेटी, मैं ही हूँ तुम्हारा अभागा पितादीनानाथ। मैं तुम्हारे लिये कुछ कर न सका; कुछ दे न सका , सिवा दुःख और जिल्लत के। अब माफ कर दो बेटी'' इतना सुनना था कि पूर्णिमा दौड़ कर छोटी बच्ची की तरह दीनानाथ के गले लग गयी। दोनों की आँखों से अविरल अश्रु -धारा प्रवाहित हो रही थी।
अन्य सभी लोग अपने-अपने स्थान पर खड़े इस अप्रत्याशित मिलन को देख रहे थे कि सबसे पीछे खड़े एक नवयुवक ने तीव्र स्वर में कहा - ''हिम्मत सिंह! अभी तक आप खामोश क्यों खड़े हैं? जमाना कहाँ से कहाँ चला गया और आप अभी तक संकीर्णता की चहारदीवारी में कैद हैं? आपको अपने कर्मों का फल भी कुछ कम नहीं मिला? लेकिन अभी भी आपकी आँख खुली नहीं। रात कब की बीत चुकी है। सूर्य आकाश में ऊँचा उठ चुका है। चिड़ियों के कलरव से दिशायें गुंजायमान हैं और अभी आप सोये पड़े हैं? आलस्य निद्रा त्याग कर उठिये। बाहर निकलिये। देखिये जिसे आपने सदैव ठुकराया , कष्ट दिया; वे आपके हित चिन्तन में सतत संलग्न हैं।
अभी भी समय है ,चेत जाइये। इनसे क्षमा माँग लीजिये। अपनी भूलों का प्रायश्चित कर डालिये। अब तक जो कुछ हुआ , वह भूल जाइये। बीते हुये की चिन्ता करना मूर्खता है। आगे जो करना है उसकी सोचिये; इसी में बुद्धिमानी है।"
'यह किसकी आवाज है? यह तो जानी- पहचानी ज्ञात होती है। जैसे देवानन्द बोल रहा है।" ऐसा सोचते हुये हिम्मत सिंह बाहर आ गये। देवानन्द को देख बोले- 'देवानन्द मेरे मुख में तो कालिख लगी है , मैं किस मुख से क्षमा माँगने का साहस करूँ?"
"कोई बात नहीं ये देवता हैं, परम कृपालु हैं; अवश्य क्षमा कर देंगे , पहले आइये तो ।' देवानन्द की ऐसी बात सुनकर सभी लोग उसकी ओर मुखातिब हो गये। दीनानाथ भी उसी की ओर देखने लगे। पूर्णिमा अपने पिता के पास थोड़ा हटकर खड़ी हो गयी।
कोई पच्चीस कदम की दूरी पर खड़ा - खड़ा दिनेश यह सब देख रहा था। उसकी आँखें भी अश्रुयुक्त थी।
इधर हिम्मत सिंह बाहर आये। उधर गीता प्रकाश के बेड के पास पहुँची। प्रकाश की दशा देखकर वह काफी देर तक सिसकती रही। उसे भी ज्ञात हो गया था कि पूर्णिमा की 'मँगनी' प्रकाश के साथ हुई थी और पूर्णिमा ने बहुत बड़ा त्याग भी किया था। प्रकाश बड़े असमंजस में पड़ गया। वह मन ही मन पूर्णिमा को कुढ़ रहा था। इस ने रक्त दिया ही क्यों?' क्यों न मुझे मर जाने दिया?"
हिम्मत सिंह हिम्मत कर हाथ जोड़े धीरे . धीरे दीनानाथ की ओर बढ़ रहे थे- "भैया दीनानाथ! मेरे कालिमा युक्त मुख पर थूको; जो चाहे दण्ड दो; मैं तुम्हारे सामने हूँ। मैंने बड़ी भूल की। तुमने हमें हर विपत्ति से बचाया , पर मैं इतना स्वार्थी निकला कि मित्र को दिया वचन भी निभा न सका। ''
''भूल तुझसे नहीं , हिम्मत! मुझ से हुई। काश! पूनों की माँ का कहा मान गया होता और इसकी कहीं शादी कर दी होती , तो मेरी प्यार में पली ,फूल -सी बेटी ! आज अपने शरीर का रक्त बेचने पर मजबूर न होती।''
'' भैया क्षमा कर दो, मैंने जो भूल की उसका प्रतिफल पा चुका हूँ। मेरी भँवर में फँसी डावाँडोल नैया को पार कर सकने की क्षमता मात्र तुझ में है।'
''क्यों नहीं ? अपने मुये स्वर्ग दिखायी पड़ता है , हिम्मत । क्या तुमने कभी सोचा-.' उसका क्या होगा , जिसने तुम्हारे विश्वास पर, तुम्हारे आश्वासन के भरोसे अपना घर. द्वार बेचकर बेटी की शिक्षा - दीक्षा की व्यवस्था की और जब 'सर्वस्व 'स्वाहा कर पढ़ाई पूर्ण की तब - - - - -| '
थोड़ा रुक कर रुँधे क्या से - - 'काश! यह दिन देखने से पूर्व मैं मर गया होता - --- ।''
अब तक हिम्मत सिंह दीनानाथ के करीब पहुँच चुके थे। दीनानाथ की बात सुनकर हिम्मत सिंह ने अपनी 'पगड़ी ' उनके पैरों पर डाल दी और बोले - '' बस भैया अब कुछ न कहो वर्ना मुझे नरक में भी ठिकाना नहीं मिल सकेगा।"
"दीनानाथ दो कदम पीछे हटकर पगड़ी उठा लिये और हिम्मत सिंह के गले लग कर रोने लगे। दोनों का सभी कालुष्य अश्रु -गंगा में धुल गया।
'हिम्मत और दीनानाथ की बातचीत सुनकर गीता भी बाहर आ गयी ,उसके बाहर आने पर प्रकाश बहुत चकराया। प्रकाश को चोट थी, फिर भी जैसे -तैसे बाहर आया। अभी वह आ ही रहा था कि गीता ने कहा-'दादा! पूर्णिमा बहन की शादी तब न हो सकी तो कोई बात नहीं, अब हो जायगी।"
.''गीता" प्रकाश ने उसे रोकने के उद्देश्य से पुकारा, पर उस पर ध्यान न देकर गीता कहती जा रही थी - "दादा! भैया प्रकाश भी अभी तक एकाकी जीवन बिता रहे हैं। इससे अच्छा मुहूर्त फिर कब आयेगा?"
'प्रकाश को गीता का 'भैया ' कहना बहुत बुरा लगा। वह समझ नहीं पा रहा था कि गीता को आज हो क्या गया है ?''
पूर्णिमा ने गीता को बड़े ध्यान से देखा , सूनी सड़क - सी माँग , कृश शरीर उसकी बातचीत , हाव-भाव देखकर उसे निश्चय हो गया कि गीता भी अविवाहिता है तथा प्रकाश को चाहती है पर मेरे लिये अपने प्यार की बलि दे रही है। '
इधर काफी देर रोने के बाद हिम्मत सिंह व दीनानाथ दोनों ही गीता की बात सुनकर जब यह जान गये कि अभी प्रकाश और पूर्णिमा अविवाहित हैं' , बहुत खुश हुये।
. हिम्मत सिंह अपनी भूल स्वीकारते हुये बोले- 'भैया दीनानाथ मैंने बड़ी भूल की आज और अभी कर्मयोगी देवानन्द के सामने शपथ लेता हूँ कि इनके द्वारा चलाये जा रहे आन्दोलन का सक्रिय सदस्य बनकर अमीरी और गरीबी के अन्तर को समाप्त करने तथा दहेज प्रथा समाप्ति के लिये सतत प्रयासशील रहूँगा।" तालियों के स्वर के बीच उन्होंने आगे कहा-''हमारे इस महान आन्दोलन का श्री गणेश-" अखिल भारतीय सुधारक मण्डल'' के अध्यक्ष कर्मयोगी देवानन्द की अध्यक्षता में प्रकाश एवं पूर्णिमा की दहेज रहित सादा शादी से होगा। 'पुनः तालियों का स्वर गूँज उठा। परमात्मा सबको सद्बुद्धि दे" ऐसा कहकर दीनानाथ ने पूर्णिमा का हाथ प्रकाश के हाथों में सौंप दिया।
इसी बीच दिनेश आकर पूर्णिमा के चरण स्पर्श करते हुये बोला-"भाभी जी , मेरा मुँह तो मीठा कराइये साथ ही पिता भाई तथा अन्य सम्बन्धियों से यथा योग्य अभिवादन किया , मिला।
यद्यपि पूर्णिमा ने - 'अखिल भारतीय सुधारक मण्डल' के अध्यक्ष देवानन्द के मुनाफाखोरी, चोर बाजारी , भ्रष्टाचार , दहेज प्रथा जैसी कुरीतियों के विरुद्ध अखबारों में प्रकाशित अनेक लेख , प्रवचन तथा उनके द्वारा किये जा रहे कार्यों का विवरण पढ़ा था , उससे प्रभावित भी हुई थी पर उसे यह ज्ञात न था कि उसकी कुटिया में चाकू लेकर नापाक इरादे से आया हुआ नवयुवक देवानन्द ही यह कर्मयोगी देवानन्द बन गया है।
अपने सम्मुख उसे देख तथा हिम्मत सिंह की बातें सुनकर सारी बात उसकी समझ में आ गयी। अभी बीते दिनों की स्मृतियों में खोई ही थी कि देवानन्द. दौड़कर पूर्णिमा की चरण रज लेकर अपने माथे पर लगा लिया और बोला- ''बहन! मैं आज जो कुछ हूँ वह तुम्हारी ही बदौलत हूँ। पिताजी ने जो गुरुतर भार मेरे निर्बल कन्धों पर डाला है , उसे वहन करने की सामर्थ्य मुझ में नहीं है। यदि तुम्हारा आशीर्वाद मिले तो -- - - - - I''
'बीच ही में पूर्णिमा बोल पड़ी- ''भैया मैं सदैव तुम्हारे साथ हूँ, पर तुम्हें भी एक काम करना होगा , बहन की खुशी के लिये ।"
'बहन की खुशी ही मेरी खुशी होगी। ''
पूर्णिमा ने अपने पार्श्व में खड़ी गीता के आँसुओं को पोंछ कर स्नेह सिक्त दृष्टि से उसे देखा और उसका हाथ देवानन्द के हाथ में सौंप दिया।
यद्यपि सर्जन साहब ने अनेक हृदय विदारक आपरेशन किये थे किन्तु उनकी आँखें कभी नम नहीं हुईं; पर आज के इस विचित्र मिलन को देखकर उनका कठोरतम हृदय भी द्रवित हो उठा। लोगों ने देखा - 'उनकी आँखों से चन्द मोती निकल कर धरती पर बिखर गये।'
© डॉ० एस.आर. यादव 'कुसुमाकर'
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