प्रविष्टि क्र. - 28 कुर्सी डॉ. प्रदीप उपाध्याय वही आम के पेड़ हैं, वही कुर्सी है और वही चारों ओर बिछी हरीतिमा है। जसवन्ती के पौधों पर पुष्प प...
प्रविष्टि क्र. - 28
कुर्सी
डॉ. प्रदीप उपाध्याय
वही आम के पेड़ हैं, वही कुर्सी है और वही चारों ओर बिछी हरीतिमा है। जसवन्ती के पौधों पर पुष्प पल्लवित हो रहे हैं, गुलाब बहार पर हैं। वासन्ती बयार है और आम भी बहुत बौराये हैं, चिड़ियाएँ चहचहा रही हैं, रंग-बिरंगी चिड़िया और पंछी डेरा डाले हुए हैं और क्यों न डालें, उनके दाने-पानी की व्यवस्था बाबूजी ने एक बार प्रारम्भ की तब भला अब बन्द कैसे हो सकती थी! पानी के सकोरे भरकर रखने का अब नित्य कर्म हो गया था, पक्षियों के लिए दाना भी नियमित रूप से डाला जा रहा था। पास ही में सूखा कुआ भी है जिसमें आज पानी भले ही न हो, कबूतरों ने अपना ठिकाना जरूर बना लिया है और रोजाना दाना चुगने कुएँ के ऊपर बने जाल पर आ जाना उनकी आदत में शुमार हो गया था।
आज मैं भी आम्र वृक्ष की छांव में उसी कुर्सी पर बैठा हुआ हूँ और पंछियों के गीत सुन रहा हूँ। सूर्य किरणों की अठखेलियों को आम्र वृक्षों की टहनियों के बीच महसूस कर रहा हूँ। ठीक उसी तरह, जब बाबूजी एक वर्ष पूर्व इसी कुर्सी पर इन्हीं आम्र वृक्षों की छांव में बैठकर महसूस करते थे। उन्होंने फलदार वृक्षों के साथ आसपास अच्छा बगीचा विकसित करवाया था। इसी परिसर में बहुत बड़ा सा मकान बना हुआ है जो बहुत जीर्ण-शीर्ण अवस्था में हो गया था। किसी को देखरेख करने की फुर्सत ही नहीं थी। बाबूजी ने बहुत ही लगन से उसका निर्माण करवाया था। शायद इसीलिए उनका लगाव भी उससे ज्यादा था। इधर मैं स्वयं नौकरी के कारण उज्जैन, शाजापुर, इन्दौर और भोपाल इन बत्तीस वर्षों में भटकता रहा, मुझे तब भी नहीं मालुम था कि मेरी मंजिल कहाँ है, बस उस राही की तरह बेमकसद चलता चला जा रहा था जिसकी न तो कोई मंजिल थी और न कोई ठिकाना। मैं सोचता रहता था कि कहाँ तो मैं इतनी आशावादी सोच एवं उत्साह के साथ जीवन जीने वाला व्यक्ति, इतनी कुण्ठा और निराशा में कैसे चला गया! जबकि बाबूजी छयासी वर्ष की वय पूर्ण करने के बाद भी पूर्ण रूप से आशावादी रहे, उनका साहस और जोश बरकरार था तथा उत्साहपूर्ण जीवन जी रहे थे। वे रोजाना सुबह-शाम आकर परिसर के भवन की मरम्मत और अतिरिक्त निर्माण करवा रहे थे। हालांकि मेरे शासकीय सेवा से सेवानिवृत्त होने में तब दो वर्ष बाकी थे लेकिन बाबूजी इस मकान को पूर्ण रूप से व्यवस्थित कर देना चाह रहे थे। वैसे शहर के मध्य भी बड़ा सा मकान है जिसमें सभी परिजन मिल-जुलकर रह सकते थे लेकिन बाबूजी मेरे स्वभाव से परिचित थे। वे जानते थे कि मैं एकांतप्रिय व्यक्ति हूँ, अंतर्मुखी हूँ और प्रकृति के सान्निध्य में रहना पसंद करता हूँ। वे अपने मिलने-जुलने वालों से कहते भी थे कि मुन्ना रिटायर होने के बाद इसी मकान में रहेगा। हम लोग भी यहीं रहेंगे। हम सभी ने अपने-अपने कमरे भी निर्धारित कर लिये हैं। हाँ कुछ दिन यहाँ तो कुछ दिन शहर वाले मकान में राजू के साथ रह लेंगे।
वैसे भी प्रत्येक तीज-त्यौहार पर उनको हमारा इंतजार रहता था। अब चूँकि राज्य सरकार की सेवा में उच्च पद पर पदस्थ होने से छुट्टियों की दिक्कत रहती थी तथापि प्रयास तो यही रहता था कि हरेक तीज-त्यौहार देवास आकर ही मनाया जाए लेकिन जब आना नहीं हो पाता था तब बाबूजी बहुत ही उदास हो जाते थे। मुझे याद है कि मकर संक्रांति पर हम लोग तिल्ली भी सबसे पहले उन्हीं के हाथों से लेते थे। मान्यता है कि जिनके हाथों से तिल्ली लेते हैं अगला जन्म भी उन्हीं के यहाँ होता है। इसी तरह होली-रंगपंचमी पर गुलाल भी सबसे पहले वे ही बड़े उत्साह के साथ हम सभी को लगाते थे। अब जब सेवानिवृत्ति का समय नजदीक आता जा रहा था तब जब भी हम घर आते तो उनका प्रश्न यही होता था कि बेटा अब जल्दी आ जाओ। भानू का भी यहीं ट्रांसफर करवा लो या फिर बहू और उसकी नौकरी छुड़वाकर यहीं देवास में नर्सिंग होम खुलवा दो, अपने पास जगह की वैसे भी कोई कमी तो है नहीं।
उधर बेटे से जब मैं इस बारे में पूछता तो उसका इस बारे में मत भिन्न रहता। वह तथा बहू अपने कैरियर के प्रति ज्यादा चिन्तित दिखाई दिये। नये जमाने की शायद यही नई सोच है जहाँ भावनाओं से ज्यादा भौतिक पक्ष को अधिक तरजीह दी जाती है। उनकी सोच यह थी कि वह और रिंकु कुछ वर्षों तक शासकीय सेवा में ही रहेंगे, उसके बाद ही कुछ सोचेंगे। वैसे भी पति-पत्नी दोनों ही विशेषज्ञ डॉक्टर हैं और ऐसे में उन्हें देवास में कोई विशेष स्कोप दिखाई नहीं दे रहा था। वे चाह रहे थे कि हम लोग भोपाल में उनके साथ ही रहें क्योंकि उनकी दोनों की नौकरी भोपाल में ही थी। मेरी मजबूरी यह थी कि मैं माता-पिता की इच्छाओं का दमन भी नहीं करना चाहता था क्योंकि सरकारी नौकरी में रहते उनके साथ रहने का ज्यादा मौका भी नहीं मिल पाया। वैसे मैंने कोशिश की थी कि वे मेरे साथ ही रहें लेकिन वे हमेशा दो-चार दिन रहकर वापस देवास की राह पकड़ लेते। मैं भी जानता हूँ कि व्यक्ति की जहाँ जड़े रहती हैं वहाँ वह अभावों में भी चैन से रह लेता है।
अब जब इस बार देवास आया था तो देखा कि बाबूजी बहुत ही उदास हैं, उनका रूटीन वही था , सुबह और शाम इसी मकान पर आकर मकान के काम की प्रोग्रेस देखना। हमें भी साथ लेकर आते और हो रहे सभी कामों को दिखाते और यदि काम की हम लोग तारीफ कर देते तो बहुत ही खुश भी होते। मुझे स्मरण है कि मुझे तीन दिन हो गये थे और शाम को ही लौटना था। दिन में पोते का जन्मदिन शहर वाले घर पर ही मनाया । भोजन आदि से निवृत्त होकर लगभग चार बजे बाबूजी के साथ इस मकान पर पहुँचे, बाबूजी तब कुछ थके-थके से लग रहे थे। हमें लगा कि एक्जरशन अधिक होने की वजह से शायद ऐसा हो। तब उनकी निगाहें भी कुछ अलग ही अपनी बात बयां कर रही थीं लेकिन उन्हें मैं शायद पढ़ नहीं पाया। बेहतर होता कि वे लफ्जों से ही अपनी बात कह देते। अभी जब पिछली बार आया था तब मेरा जन्मदिन भी था, मैंने चरण छूकर आशीर्वाद लिया था तब उन्होंने अपनी उम्र भी लग जाने का आशीर्वाद दे दिया। मैंने टोका भी कि अब इतनी लम्बी आयु लेकर क्या करूंगा। तब उन्होंने यह भी पूछा था कि रहने के लिए कब आ रहे हो। मैंने कहा था कि अब जल्दी आने के लिए ही तो स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली है, शीघ्र ही पेंशन प्रकरण और दूसरे काम निपटा कर आ जायेंगे। यहीं आने के लिए ही तो मैंने भोपाल से इन्दौर ट्रांसफर करवाया था लेकिन भानू की इच्छा है कि रिटायरमेंट के बाद अब उसके साथ भोपाल ही रहें। इसपर बाबूजी ने भी कहा था कि वे भोपाल जाने में कौन सी रूकावट डाल रहे हैं। अपना आधा जरूरी सामान यहाँ भिजवा दो बाकी सामान भोपाल भिजवा दो। आठ-पन्द्रह दिन यहाँ रहो, आठ-पन्द्रह दिन वहाँ रहो। रिटायरमेंट की लाईफ एंजॉय करो, घूमो-फिरो। वैसे तुम यहाँ आ जाओगे तो मुझे भी हिम्मत रहेगी, हालांकि राजू तो है ही यहाँ पर और अच्छी सेवा भी कर रहा है लेकिन उसे उसके व्यवसाय से फुर्सत भी तो नहीं मिलती। प्रापर्टी के कितने झगड़े चल रहे हैं, तुम यहाँ रहोगे तो ही मुझे बहुत बल मिलेगा, तुम्हें कुछ करने की जरूरत भी नहीं है, बाकी सब तो मैं खुद ही निपट लूंगा। उनकी बात सुनकर मैं बाबूजी के हौसले का कायल हो गया था।
इस बार पता नहीं क्या बात थी कि वे पक्का वादा लेने पर आमादा थे कि कब तक सामान लेकर आओगे। मैंने भी तय कर लिया था और उसके अनुसार ही कह भी दिया था कि बस पन्द्रह तारीख को सामान ले आयेंगे, उसके पहले बचा हुआ काम पूरा करवा लेते हैं। एक तारीख तो हो ही गई है , अब चार तारीख को आयेंगे तो उज्जैन भी चले चलेंगे और नागदा चलकर ताऊजी की तबीयत का हाल-चाल भी जान लेंगे। इतनी बातों के बाद उनके चेहरे पर खुशी और संतोष का भाव आ गया था और तत्काल ही बोल उठे थे कि अब यहाँ आ जाओगे तो कहीं भी दो दिन से ज्यादा जाने नहीं दूंगा। मैंने भी कृत्रिम भाव प्रकट करते हुए कहा था कि नहीं, फिर तो यहाँ आना मुश्किल होगा क्योंकि मैं बंध जाऊंगा। खैर यह बात तो आई-गई हो गई लेकिन जब उन्हें वहीं छोड़कर इन्दौर जाने को उद्धृत हुए और अपने डॉग टफी को भी ले जाने लगे तो इसी कुर्सी पर बैठे-बैठे उन्होंने कहा था कि इसे क्यों ले जा रहे हो, अभी फिर वापस भी तो आना है। तब मैंने कहा था कि यह यहाँ परेशान करेगा, बाद में फिर लेकर आ जायेंगे लेकिन मुझे क्या पता था कि जिन्हें शाम को सात बजे चलते-फिरते छोड़कर जा रहे हैं, इन्दौर पहुँचकर पुनः फोन पर चर्चा करते हैं और देवास के शहर वाले घर पर मिलने आने वाले परिचितों और रिश्तेदारों से बातचीत और हँसी-मजाक करते रात्रि के ग्यारह बजे उनके अस्पताल में भर्ती होने और उनके पास तक हमारे देवास पहुँचने के पहले ही उनके दिल की धड़कन ने साथ छोड़ दिया और यह दुनिया छोड़ देने का मनहूस समाचार रास्ते में सुनने को मिलेगा। सहसा किसी को विश्वास भी नहीं हुआ था। आज इस कुर्सी पर बैठकर आम्र वृक्षों के नीचे बाबूजी के होने का अहसास अब भी है। लगता है कि वे अब भी यहीं कहीं आसपास मौजूद हैं और कह रहे हों कि तुम और भानू आ तो गये हो लेकिन कुछ समय पूर्व आ जाते तो कितना अच्छा होता।
लेखक परिचय
डॉ प्रदीप उपाध्याय
जन्म- 21 जनवरी, 1957
जन्म स्थान- झाबुआ, मध्य प्रदेश
शिक्षा-विधि स्नातक, स्नातकोत्तर-राजनीति विज्ञान, समाजशास्त्र, इतिहास, पीएचडी
लेखन-व्यंग्य, कविताएँ, कहानी, लघुकथा तथा विभिन्न सामाजिक , राजनीतिक विषयों पर आलेख।
वर्ष 1975 से सतत लेखन। विभिन्न राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन
पुस्तक-व्यंग्य संग्रह-मौसमी भावनाएँ वर्ष 2009 में प्रकाशित तथा सठियाने की दहलीज पर वर्ष 2018 में प्रकाशित
कला मन्दिर, भोपाल द्वारा वर्ष 2011-12 के गद्य लेखन हेतु पवैया सम्मान से सम्मानित।
स्थायी पता-16, अम्बिका भवन, बाबूजी की कोठी, उपाध्याय नगर, मेंढ़की रोड़,
देवास(म.प्र.)
ई-मेल-pradeepru21@gmail.com
सुन्दर रचना हेतु बधाई प्रदीप उपाध्याय जी,
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