क्षणिकाएं सूर्यनारायण गुप्त ‘सूर्य’ अभिप्त स्वतंत्रता स्वतंत्र भारत का संपूर्ण खाका कहीं मौज-मस्ती कहीं फाका भूख की परिभाषा वे भूख को कदापि ...
क्षणिकाएं
सूर्यनारायण गुप्त ‘सूर्य’
अभिप्त स्वतंत्रता
स्वतंत्र भारत का
संपूर्ण खाका
कहीं
मौज-मस्ती
कहीं
फाका
भूख की परिभाषा
वे
भूख को
कदापि नहीं परिभाषित कर पायेंगे
जिनके कुत्ते
मक्खन लगा स्लाइस खाएंगे।
संपर्क : ग्राम व पोस्ट- पथरहट (गौरीबाजार)
जिला- देवरिया (उ.प्र.)- 274202
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सतपाल ‘स्नेही’ की दो ग़ज़लें
आदमी जो एक अरसे तक गुनहगारों में था
कल वही शालीनता ओढ़े अहलकारों में था
आसमाँ को धमकियाँ जिसकी लगी थीं बाअसर
वो अंधेरा दरहकीकत भूख के मारों में था
फूल जिसने सिर्फ सच के नाम लिक्खीं खुशबुएँ
नाम अगले रोज उसका बाग के खारों में था
जो हकीकत का करीने से सफाया कर गया
इस नये माहौल में वो ही अदाकारों में था
तय नहीं मैं कर सका गिरती हुई छत देख कर
फर्श की थीं साजिशें या नुक्स दीवारों में था
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मुझको तनहाई सताती है चले भी आइये
आपकी ही याद आती है चले भी आइये
डर जमाने का नहीं कहता कि दूँ आवाज मैं
मेरी खामोशी बुलाती है चले भी आइये
जब गरज कर नीर बरसाये मुई बैरन घटा
आग-सी दिल में लगाती है चले भी आइये
सरसराती जिस हवा में थे मधुर नगमे कभी
आज बस बिरहे सुनाती है चले भी आइये
याद का था आसरा, सोचा कि जी लेंगे मगर
ये भी आती और जाती है चल भी आइये
सम्पर्कः 362,गली नं. 8, विवेकानन्द नगर, बहादुरगढ़-124507 (हरियाणा)
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अरविन्द अवस्थी की दो गजलें
एक
पास वो आए नहीं, हम कसमसाते रह गए.
पांव में थीं बेड़ियां, हम छटपटाते रह गए.
गैर गुतहम्मिल हुआ है आज का हर आदमी,
घर जलाते ही रहे वो, हम बनाते रह गए.
गुलज़मीं ये किस तरह से खूंज़मीं होती रही,
मौन हम बैठे यहां मातम मनाते रह गए.
रोशनी का एक क़तरा भी न मांगे से मिला,
चांद के संग वो हमारा मुंह चिढ़ाते रह गए.
चाहते थे कारवां के साथ हम आगे बढ़ें,
वो अदब से राहगीरों को गिराते रह गए.
दो
कहीं पत्थर तो कहीं शूल हैं निशानी में.
जख्म ही जख्म हैं भरपूर जिन्दगानी में.
अश्क बहता है जहां देख लो दरिया बनकर,
नज्र आता है लहू मेरे घर के पानी में.
दर्द की ढेलियां तुमने कहां देखी होंगी,
गम के परबत हैं मेरी बेजुबां कहानी में.
सबकी झुकती थी कमर कल तलक बुढ़ापे में,
आज तो झुक गई कैसे भरी जवानी में.
आस का दीप लिये मैं तो जिये जाता हूं,
कभी तो तेल निकल आए किसी घानी में.
सम्पर्कः श्रीधर पाण्डेय सदन, बेलखरिया का पुरा, मीरजापुर (उ.प्र.)
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ऋषिपाल धीमान ‘ऋषि’ की दो गजलें?
आस, उम्मीद, सोच, ख्वाब हूं मैं.
एक खामोश इन्किलाब हूं मैं.
इसलिए ही तो लाजवाब हूं मैं,
तेरी नजरों का इन्तिखाब हूं मैं.
पारसाई का दम नहीं भरता,
आप सच कहते हैं खराब हूं मैं.
झोंपड़ी का चराग हूं मैं तो,
कब कहा मैंने आफताब हूं मैं.
जिन्दगी भर पढ़ी, न खत्म हुई,
ख्वाहिशों की अजब किताब हूं मैं.
वक्त की डायरी के पन्नों में,
एक सूखा हुआ गुलाब हूं मैं.
दूर नजरों से हो गया तो क्या,
आपका अपना ही जनाब हूं मैं.
इस जनम भी न जो हुआ पूरा,
जन्मों-जन्मों का वो हिसाब हूं मैं.
2
मरने की आरजू न तमन्ना ही ठीक है.
कुछ और जिन्दगी का तमाशा ही ठीक है.
हो जाए जिनको जान के दुश्वार जिन्दगी,
ऐसी हकीकतों से तो सपना ही ठीक है.
सब राज काइनात के समझा नहीं कोई,
जितना समझ में आए बस उतना ही ठीक है.
पाकर जिन्हें अधूरी लगे और जिन्दगी,
उन मंजिलों को छोड़िए रस्ता ही ठीक है.
चाहे तुम्हारे हाथ हों दुनिया की ताकतें,
खुद को मगर हकीर समझना ही ठीक है.
औरों के गम में रोइए जी भर के दोस्तों,
खुद के गमों पे जोर से हंसना ही ठीक है.
क्यों तेरी बात का करूं विश्वास जब तेरी,
नीयत ही ठीक है न इरादा ही ठीक है.
खुद के कलाम को ‘ऋषी’ पढ़िए कभी-कभी,
औकात अपनी जांचते रहना ही ठीक है.
सम्पर्कः 66, श्रीनाथ बंग्लोज-प्ए
चांदखेड़ा, अहमदाबाद-382424
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अभिनव अरूण की दो ग़ज़लें
जिन्दगी की दौड़ में आगे निकलने के लिए.
आदमी मजबूर है खुद को बदलने के लिए.
सिर्फ कहने के लिए अँगरेज भारत से गए,
अब भी है अंग्रेजियत हमको मसलने के लिए।
हाथ में आका के देकर नोट की सौ गडि््डयां,
आ गये चौपाल में बन्दर उछलने के लिए।
गुम गयीं बापू तेरी मूल्यों की सारी टोपियाँ,
और लाठी रह गयी सच को कुचलने के लिए।
नित गिरावट के बनाए जा रहे हैं कीर्तिमान,
सभ्यता की छातियों पर मूंग दलने के लिए।
घर बुजुगरें के बिना कितने बियाँबां हो गए,
अब नसीहत किस से पाएं हम संभलने के लिए।
रात भर में फिक्र को उनकी न जाने क्या हुआ,
सुब्ह हमसे आ मिले पाला बदलने के लिए।
मुंगे मोती से भरे सागर में ऐसा क्या हुआ?
मछलियाँ तैयार हैं जारों में पलने के लिए।
आने वाली पीढ़ियों के नाम पौधे रोप दें,
शुद्ध शीतल वायु तो हो साँस चलने के लिए।
इश्क रूहानियत भी उल्फत भी।
इश्क है जीस्त की जरूरत भी।
इश्क अल्लाह का पता लाया,
इश्क अल्लाह की है निस्बत भी।
इश्क होवे कहाँ है चाहे से,
इश्क माने कहाँ रवायत भी।
कौन कहता है आग का दरिया,
इश्क है तजरबा- ए- जन्नत भी।
इश्क फनकार है बना देता,
इश्क बदला करे है किस्मत भी।
इश्क अक्सरहां इम्तहाँ है तो,
इश्क दौरे जहाँ में राहत भी।
इश्क हंगामे का है बाइस गर,
इश्क खामोशियों की चाहत भी।
मुख्तलिफ हर जबान है लेकिन,
इश्क की एक जबाँ है मिल्लत भी।
अब तो बाजार सज गये देखो,
इश्क में आ गयी नफासत भी।
इश्क माहानावार है अब तो,
ये मुहूरत है और तिजारत भी.
ढाई आखर की एक परिभाषा,
मुफलिसी भी है बादशाहत भी.
सम्पर्कः बी-12 , शीतल कुंज, लेन-10,
निराला नगर, महमूरगंज ,वाराणसी - 221010 (उ.प्र.)
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क्षणिकाएं
अविनाश ब्यौहार
बीन बचाना
अधिकारी हों
या भृत्य!
ये है कटु सत्य!!
कि भ्रष्टाचार में डूबे
लोगों को नैतिकता का
पाठ पढ़ाना!
यानि भैंस के आगे
बीन बजाना!!
शिगूफा
ये शिगूफा है
इस पर करें गौर!
कि थाना है,
म्याऊं का ठौर!!
वाह
वाह
वकील साहब वाह!
आपने ऐसी पैरवी की
कर दिया
सफेद को स्याह!!
फाग
राहत राशि मिलने से
उनका दिल
हो गया बाग-बाग!
और वे लंगोटी पर
खेलने लगे
फाग!!
सम्पर्कः 86, रॉयल एस्टेट कॉलोनी, माढ़ोताल, कटंगी रोड, जबलपुर-482002 (म.प्र.)
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क्षणिकाएं
केदारनाथ सविता
मेरा देश
आम का बाग है मेरा देश
लूट लो जितना लूट सको
तोड़ लो सारे फल
कच्चे हों या पके
तुम नेता हो इस देश के.
सुख
सुख है एक नर्तकी
जो आज
बूढ़ी हो चुकी.
जीवन
जीवन
एक पथिक है
भटका हुआ
वन-वन.
जिन्दगी
जिन्दगी उम्र भर के
रिश्तों के जोड़-घटाना
गुणा और भाग का
गणित है.
जनता
बाढ़, सूखा, महंगाई
गुण्डों की हाथापाई
और कुर्सी के झगड़े
सबकुछ सहती है जनता
चुपचाप साध्वी पत्नी की तरह.
सम्पर्कः नई कॉलोनी, सिंहगढ़ की गली (चिकाने टोला), पुलिस चौकी रोड, लाल डिग्गी, मीरजापुर-231001 (उ.प्र.)
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कृपाशंकर शर्मा ‘अचूक’ के दो गीत
एक
अच्छा आज बुरा कल सोचो, जीवन में खुशहाली है.
सींचोगे यदि मूल सर्वदा, हरी भरी हर डाली है.
कबतक सुख का शोध करोगे दुःख तो आएगा पहले,
जिसने उसको समझा जाना वह तो हंस हंसकर सह ले.
गीता वेद कुरान पढ़ लिए, भीतर से तो खाली है,
अच्छा आज, बुरा कल सोचो, जीवन में खुशहाली है.
लोक और परलोक अधूरे भेदी बिना भेद कैसा,
रूप अनूप अलख अलबेला वह तो वैसे का वैसा.
कारण कर्म मर्म से न्यारा, सबसे अति बलशाली है,
अच्छा आज, बुरा कल सोचो, जीवन में खुशहाली है.
यायावर जन जीवन सारा यह ‘अचूक’ आख्यान बना,
तिमिरांचल में घोर घटाएं कोई नहीं दिखे अपना.
पास नहीं उत्तर कोई भी अब तो सभी सवाली है,
अच्छा आज, बुरा कल सोचो, जीवन में खुशहाली है.
दो
रुकी-रुकी यह सारी दुनिया, समय चल रहा है.
खड़ा-खड़ा तट पर मछुआरा, हाथ मल रहा है.
कितनी है गहराई इसमें कितना नीर भरा,
गणना करते करते हारा डूबा कौन तरा.
असमंजस की बीच धार में, फंसा छल रहा है,
रुकी-रुकी यह सारी दुनिया, समय चल रहा है.
खून पसीना एक कर दिया पगले भोर भई,
मन की गांठ हुई कब हल्की और कठोर हुई.
देख तरंगों को सागर ही, याम ढल रहा है,
रुकी-रुकी यह सारी दुनिया, समय चल रहा है.
आंसू पीते उम्र बिता दी आंखों के आगे,
हफ्ते साल महीनों सारे सब पीछे भागे.
मूरत जैसा मौन दीखता, दिया जल रहा है,
रुकी-रुकी यह सारी दुनिया, समय चल रहा है.
बहुत मांगलिक गीत सुनाए बोली भी भाषा,
लुटा लुटा सा बैठा अब तो था अच्छा खासा.
बदले रोज ‘अचूक’ कलेंडर, बहुत खल रहा है,
रुकी-रुकी यह सारी दुनिया, समय चल रहा है.
सम्पर्कः 38-ए, विजय नगर, करतारपुरा, जयपुर-302006
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डॉ. सी.बी. भारती की दो कवितायें
आविष्कार
विश्व ने आविष्कार किये,
जीवनदायिनी औषधियां/चिकित्सा प्रणालियां,
बिजली, वायुयान, टेलीफोन,
रेल, मशीनें और अन्य वस्तुएं
जीवन के उपयोगी सुविधाजनक उपकरण
जिससे हो सके मानव जीवन खुशहाल,
जिससे हो सके मनुष्यता का कल्याण,
किन्तु तुमने तो आविष्कार किया-
वर्णव्यवस्था का, जातिव्यवस्था का-
लिंगभेद व विषमता का/भेदभाव, संकीर्णता का-
अलगाववाद और भय के मनोविज्ञान का-
अंधविश्वास, पाखंड और झूठ का-
गैरबराबरी और अश्पृश्यता का-
ऊंच नीच और जाति पांति का-
अपने लिये सारे सुख साधन/उनके लिये पीड़ा का संसार।
जिससे तुम करते रहो राज उन पर/बने रहो स्वामी उनके-
तुमने निर्मित कर दी मनुष्यों की ही प्रजाति।
तब्दील कर दिया तुमने एक बहुसंख्यक समूह को
सेवक वर्ग में, दास वर्ग में, अछूत वर्ग में।
जो करते रहें गुलामी तुम्हारी पीढ़ी दर पीढ़ी
बने रहें अधीन तुम्हारे/जीते रहें तुम्हारी दया पर।
तुम उन्हें पैरों तले कुचलते रहो
और वह तुम्हारे तलुवे चाटते रहें, उन्हें सहलाते रहें।
तुमने फैला दी वैचारिक प्रदूषण की ऐसी विषाक्त हवा
जिससे जन्म न ले सके एक बेहतर समाज
और तुम मुफ्त की रोटी तोड़ते रहो।
आगे बढ़ते रहो उनकी छाती पर पैर रखकर -
छीनते रहो हक हकूक उनके -
बनाये रखो उन्हें गूंगा बहरा/करते रहो षोशण उनका -
बेखटक बेरोकटोक चूसते रहो खून उनका जोंक बनकर।
उदरस्थ करते रहो सभी संसाधान सारी भू सम्पदा।
चेतना के स्वर
तुम देते रहे हमें यातना/और हम करते रहे याचना
किन्तु अब हमने अपने सीनों में/भर ली है बारूद
जिसमें धधक रहा है लावा
ज्वालामुखी बनकर/भट्ठियों की तरह
जिसमें हिलोरें ले रही हैं/आग की लपटें
प्रज्जवलित हो रहीं हैं जो बनकर चिनगारियां
तुमने जो दिया हैं हमें/वह सदियों का संताप
हमारे मन मस्तिष्क को चोटिल कर रहा है
प्रहार कर रहा है हमारे दिल दिमाग पर/हथौड़े की तरह
हमारी धमनियों में खून उबलने लगा है
तुम्हारी यातनाओं के विरुद्ध
तन गयी हैं हमारी भृकुटियां/तुम्हारी क्रूरताओं के विरुद्ध
तुम्हारे हर जोर जुल्म की टक्कर में
तन गयी हैं हमारी मुट्ठियां/तुम्हारी ज्यादतियों के विरुद्ध
तन गयी हैं हमारी बाहें/तुम्हारी यातनाओं की परछाइयां
अब हमें सोने नहीं देतीं
विक्षुब्ध हमारे नथुने क्रोध से फड़क रहे हैं
और अब हमने उठा ली है लेखनी
छिन्न भिन्न कर देने को/तुम्हारा मायावी मकड़जाल
हम मिटा देंगे तुम्हारे झूठ के किले को
ध्वस्त कर देंगे तुम्हारे षड्यन्त्रों के महल
जो फैलाते हैं फिजां में जहरीली हवा
जो छीनते हैं हमारे हक और छीनते हैं हमारी अस्मिता
जो बुनते हैं असमानता/हमारे दर्द के दस्तावेज
हमारी पीड़ाओं की फेहरिश्त/अभिव्यक्ति बनकर
फूट पड़ी है हमारे गूंगे कंठों से
हमारी चेतना के स्वरों की अनुगूंज/जोरदार दस्तक दे रही है
तुम्हारी व्यवस्था के गूंगे बहरे बन्द दरवाजों पर
हमने ठोंक दी है कील तुम्हारे यातनागृहों के ताबूतों पर
हम तोड़ देंगे तुम्हारी आस्थाओं के नकली पहाड़
खड़े किये हैं जो तुमने बड़े करीने से हमारी राहों में
अब हमारी भी जिद् है/कर दें तुम्हारे चेहरों को बेनकाब
तुम्हारे शीशों के महल/तोड़ने की कसम हमने खायी है।
सम्पर्कः एच.आई.जी.-5, कोशलपुरी कॉलोनी,
फेज-1, फैजाबाद-224001 (उ0प्र0)
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