आत्म सन्दर्भ धारावाहिक आत्मकथा (बारहवीं किस्त) अनचाहा सफर रतन वर्मा विमल मित्र की सीख ....क्रमशः फिर खुद ही हंसते हुए बोल पड़े थे अरुण कमल, ...
आत्म सन्दर्भ
धारावाहिक आत्मकथा (बारहवीं किस्त)
अनचाहा सफर
रतन वर्मा
विमल मित्र की सीख....क्रमशः
फिर खुद ही हंसते हुए बोल पड़े थे अरुण कमल, "अरे भाई, ‘मैं हूं यहां हूं’ कविता संग्रह में भारत जी ने आपके नाम के शीर्षक से दो कवितायें लिखी हैं- रतन वर्मा 1 तथा रतन वर्मा 2. अब जब कविता स्त्रीलिंग है तो आप स्त्रीलिंग हुए या नहीं?" इसके साथ ही वे जोरों से ठहाका लगा उठे थे. उनके ठहाके में मेरा और भारत यायावर दोनों के ठहाके भी शामिल हो गये थे.
अरुण कमल से यह पहली भेंट ही ऐसी थी, जैसे हम वर्षों के परिचित रहे हों. उस समय तक कविता के क्षेत्र में उन्होंने अच्छी ख्याति अर्जित कर रखी थी, पर बड़े कवि होने का कोई भी भाव न तो उनके चेहरे पर और न ही उनके व्यवहार में परिलक्षित था. उन्होंने भी मेरी एकाध कहानियां पढ़ रखी थीं और आश्वस्त थे कि आगे भी मैं कुछ बेहतर ही दे पाऊंगा. उन्होंने यह भी कहा था कि अब मैं अपना संग्रह प्रकाशित करवाने की योजना बनाऊं. साथ ही यह भी कि अपने पहले संग्रह में चाहे कहानियां कम ही क्यों न दूं, पर जो सर्वश्रेष्ठ रचनायें हों वहीं दूं. पर भारत यायावर ने मुझे अभी लिखते रहने की सलाह दी थी, कहा था संग्रह तो निकलते रहेंगे, अभी लिखते छपते रहें.
वह 1988 का संभवतः जनवरी का महीना था. हम दोनों वहां से दरभंगा आ गये थे. कामेश भैया भारत यायावर से मिलकर बहुत खुश हुए थे. चार-पांच दिनों तक हम वहां रहे थे. भैया के लिए वे चार-पांच दिन अत्यंत खुशनुमा बने रहे थे. वे भारत जी के साथ बैठकर साहित्यिक परिचर्चायें करते रहते, काव्य पाठ का आदान-प्रदान करते रहते, या फिर उन्हें लेकर अपने साहित्यिक मित्रों से मिलवाने निकल जाया करते. हालांकि उनका स्वास्थ्य उन्हें घूमने-फिरने की इजाजत नहीं ही देता था. निकलते भी थे, तो रिक्शा से ही.
मैं चाह रहा था कि ‘हंस’ में स्वीकृत कहानी ‘दस्तक’ भैया भी पढ़ें, पर संकोच में भी था कि उस कहानी में मैंने दरिद्र आदिवासी युवतियों के यौन शोषण को केंद्र में रखा था. फिर भी मैं भैया से उस कहानी पर उनकी राय जानने की अपनी उत्कंठा से खुद को मुक्त नहीं रख पा रहा था. मैंने भाभी को वह कहानी थमा दी थी कि वे ही भैया से पढ़वा लें.
लम्बी कहानी होने के बावजूद भैया रात में वह कहानी पढ़ गये थे. फिर सुबह मुझे एकांत में बुला कर, जब भारत यायावर स्नानादि क्रिया में संलग्न थे, कहानी पर अपनी राय जाहिर की थी. कहा था, "यह कहानी तुम्हें अच्छी प्रतिष्ठा देगी. जब कहानी छप जायेगी, तब मैं भी ‘हंस’ को अपनी विस्तृत राय लिखकर प्रेषित करूंगा. ऐसी कहानी तुम इसलिए लिख पाये, क्योंकि आदिवासी क्षेत्र का तुमने गहरायी से अध्ययन किया है."
भारत जी तो रेणु जी की मैथिली कहानी की खोज में मेरे साथ दरभंगा पहुंचे थे. भारत जी ने साथ चलने के लिए भैया से भी आग्रह किया था, पर उन्होंने मना कर दिया था. अमर जी मैथिली के कवि थे और हिन्दी से दूरी बनाकर ही रखते थे. भैया को इसकी जानकारी थी. शायद इसीलिए उन्होंने जाने से मना कर दिया था.
अमर जी के यहां भारत जी को बड़ा ही कड़वा अनुभव प्राप्त हुआ था. उन्होंने साफ मना कर दिया था कि रेणु की की कोई भी रचना उनके पास है. भारत जी और अमर जी के वार्तालाप को अमर जी के सुपुत्र भी सुन रहे थे. उसने हस्तक्षेप करते हुए कहा था, "बाबूजी, ‘मिथिला मिहिर’ के ऊ अंक त छई, जे में रेणु जी के कहानी छपल छई (बाबूजी, मिथिला मिहिर का वह अंक तो है, जिसमें रेणु जी की कहानी छपी है."
इस पर अपने पुत्र को दुत्कारते हुए बोले थे, अमर जी, "अहां चुप रहूं. झुट्ठे बकर-बकर कै रहल छी. अहां, भीतर जाऊं (आप चुप रहिये! झूठ-मूठ बकबक कर रहे हैं. आप भीतर जाइए.)"
हम समझ गये थे कि वे रेणु जी की वह रचना देना नहीं चाह रहे थे. बाद में जब भैया के साथ मेरी और भारत जी की मुलाकात शहर के वैसे रचनाकारों से हुई, जो हिन्दी और मैथिली, दोनों में लिखा करते थे, उन्होंने बताया था कि अमर जी भला हिन्दी में अनुवाद करने के लिए, मैथिली की रचना किसी को क्यों देने लगे? हिन्दी को वे मैथिली वालों के लिए उपेक्षित भाषा मानते हैं.
हम तीनों को अमर जी की सोच पर तरस आया था. यही वजह थी कि मैथिली में बेहतर से बेहतरीन रचना लिखने वाले कवि-लेखकों की व्यापक स्तर पर पहचान नहीं बन पायी थी. वे मैथिली को एक सीमित दायरे में ही सिमट कर रह गये थे. जहां तक रेणु, नागार्जुन, राजकमल चौधरी आदि कुछ रचनाकारों की बात है, उन्होंने मैथिली के छोटे से दायरे से बाहर निकालकर हिन्दी में भी अपनी पैठ बनायी, तभी वे विश्व स्तर के रचनाकार सिद्ध हो पाये.
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भारत यायावर के विभिन्न शहरों में अच्छे खासे साहित्यिक संपर्क तो थे ही. दरभंगे में एक प्रसिद्ध कथाकार रामधारी सिंह ‘दिवाकर’ भी रहा करते थे. वे मिथिला विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष थे. भारत यायावर ने कहा था, "चलिये रतन जी, आपकी भेंट मैं एक प्रसिद्ध कहानीकार से करवाता हूं. भैया के सामने ही उन्होंने दिवाकार जी का जिक्र किया था. भैया उन्हें भलीभांति जानते थे, पर उनसे परिचय नहीं था उनका. ऐसा क्यों कहा था, मुझे इसकी जानकारी नहीं थी. भारत जी ने भैया से भी चलने के लिए कहा था, पर उस दिन वे अपनी अस्वस्थता के कारण थोड़ा असहज महसूस कर रहे थे, इसलिए मना कर दिया था उन्होंने.
रामधारी सिंह ‘दिवाकर’ सी.एच. कॉलेज, आर्ट्स ब्लॉक कैम्पस के क्वार्टर में रहा करते थे, जो किलाघात में बागमती नदी के किनारे अवस्थित था. हम उनके यहां पहुंचे थे. वह रविवार का दिन था, इसलिए विश्वविद्यालय संबंधी दैनन्दिन कार्यक्रम से मुक्त दिवाकर जी निश्चिंत अपने घर ही मिल गये थे. उनका क्वार्टर आम के बाग के बीच अवस्थिति था.
भारत जी से वे बड़ी ही आत्मीयता से मिले थे. मेरा परिचय मिलने के साथ ही मेरे नाम से उन्होंने मुझे पहचान लिया था. मेरी दो कहानियां उन्होंने पढ़ रखी थी. भारत यायावर द्वारा संपादित ‘विपक्ष’ की कहानी ‘अमरितवा’ तथा शम्भु बादल द्वारा संपादित ‘प्रसंग’ की ‘मोहरा सांप’ दोनों ही कहानियां उन्हें खूब पसंद आयी थीं. पहली भेंट में ही उन्होंने मुझे अनुजवत स्नेह से सराबोर कर दिया था. किसी को भेजकर मछली मंगवायी थी उन्होंने और जिद करके हमें भोजन करवाकर ही विदा किया था. जाते-जाते मुझसे वचन भी ले लिया था कि मैं जब भी दरभंगा आऊं, उनसे जरूर भेंट करूं.
वे जितने बड़े कथाकार थे, उतना ही विशाल हृदयवाले भी थे. जबतक मैं उनके पास रहा था, व्यवहार से ऐसा जताते रहे थे जैसे मैं कोई नया कथाकार नहीं, बल्कि उनकी बराबरी का लेखक होऊं. बिल्कुल दोस्ताना व्यवहार!
उन्होंने मुझे एक सलाह दी थी कि मैं निरंतर लेखनरत रहूं ही, पर देशी-विदेशी रचनाकारों को पढ़ूं भी. इससे नये लेखक में वैचारिक परिपक्वता आती है. साथ ही कथाकार चंद्र किशोर जायसवाल की रचनाओं को जरूर पढ़ूं.
उनके साथ वह पहला परिचय, उनके स्नेह के साथ आज तक बना हुआ है मेरे लिए. वहां से लौटकर मैंने चंद्र किशोर जायसवाल की कहानियों में तलाश करनी शुरू कर दी थी. कुछ एक कहानियां, जैसे ‘नकबेसर कागा ले भागा’ जो ‘धर्मयुग’ में छपकर काफी चर्चित हुई थी, ‘ग्रहण’ ‘विदायी कांड’ आदि जैसी अनेक कहानियां पढ़ गया था मैं. फिर उनकी कहानियों पर अपनी लम्बी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उन्हें पत्र लिखा था कि अपनी और भी रचनायें वे मुझे उपलब्ध करायें. पत्र में
रामधारी सिंह ‘दिवाकर’ का जिक्र करना मैं नहीं भूला था.
कुछ ही दिनों बाद उनका आत्मीयता से ओत-प्रोत पत्र मिला था. कुछ दिनों बाद उनके दो कहानी संग्रह भी.
तबतक मेरी ज्ञात आठ कहानियां ही छपी थीं, लेकिन देश भर से निकलने वाली कई लघु पत्रिकाओं के संपादक मेरे कहानीकार होने का संज्ञान लेते हुए अपनी पत्रिकाओं की प्रति मुझे भेजने लग गये थे, अपने संक्षिप्त पत्रों के साथ कि उन्हें भी मैं अपनी रचनायें भेजूं.
भारत यायावर को व्याख्याता की नौकरी प्राप्त कर चास, बोकारो चले गये थे, पर जहीर गाजीपुरी के साथ मेरी अंतरंगता ने भारत जी के अभाव को काफी हद तक कम कर दिया था. वे लगभग रोजाना लंच के समय मेरे घर आ जाते. उनका कार्यालय मेरे निवास से कोई दो किलोमीटर की दूरी पर था. दोनों साथ ही चाय पीते और चाय पर देश, समाज, राजनीति और साहित्य की बातें किया करते.
1986 के सितम्बर (प्रथम) की मुक्ता पत्रिका में मेरी ‘कोयला भई न राख’ शीर्षक कहानी छपकर आ गयी थी. किसी व्यावसायिक पत्रिका में छपने वाली वह मेरी पहली कहानी थी. उस दिन बेसब्री से मैं जहीर गाजीपुरी की प्रतीक्षा करता रहा था. उस दिन लंच के समय वे भारत जी के साथ ही आये थे. भारत जी ने पृष्ठ उलट-उलट कर मेरी कहानी का मुआयना किया था. उसके बाद बड़ी उम्मीद के साथ मैंने जहीर साहब की ओर पत्रिका बढ़ा दी थी कि वे कहानी पढ़कर कुछ-कुछ उत्साह वर्धक प्रतिक्रिया देंगे. लेकिन कहानी के शीर्षक पृष्ठ को एक नजर देखा था उन्होंने, फिर पत्रिका को बंदकर मेरे सामने रखते हुए बोले थे, "दो चार कहानियों से क्या होगा रतन जी, जिस दिन आप सौ कहानियां लिख लेंगे, तब मैं आपकी कहानियां पढूंगा भी और लिखूंगा भी."
मुझे तो लगा था कि उन्होंने मेरी कहानी के उस पृष्ठ को नहीं देखा था, बल्कि एक करारा तमाचा जड़ दिया था मेरे गाल पर. अंदर ही अंदर बुरी तरह फुंकते हुए बोल पड़ा था मैं, "आप क्या समझते हैं, जहीर साहब, मैं सौ कहानियां नहीं लिख सकता. अब सौ कहानियां लिखकर तथा उन्हें छपवाने के बाद ही आपको दिखाऊंगा.....!"
मेरे तेवर पर भारत यायावर मंद-मंद मुस्कुराते रहे थे.
मेरे एहसास में जीवित कामेश भैया
‘हंस’ ने मेरी कहानी ‘दस्तक’ के सितम्बर अंक में प्रकाशन की घोषणा, जुलाई 1988 अंक में कर दी थी. मैं बेसब्री के साथ सितम्बर अंक का इंतजार करने लगा था. उत्सुकता तो थी ही, पर अधिक उमंग इस बात को लेकर थी कि अंक के आने के साथ ही मैं उसे लेकर कब दरभंगा अपने कामेश भैया के पास पहुंचूं. उन्होंने वादा जो कर रखा था कि छपने के बाद वे मेरी कहानी पर एक समीक्षात्मक पत्र ‘हंस’ को लिखेंगे. मेरे लिये उनका लिखा जाने वाला वह पत्र कितने महत्त्व का होता, यह मैं ही समझ रहा था.
अंततः सितम्बर अंक छपकर बुक स्टॉल पर आ गया था, लेकिन अंक को देखने के साथ ही एक झटका-सा लगा था मुझे- अंक में मेरी कहानी तो थी नहीं. सिर्फ फिर से अक्टूबर अंक में प्रकाशित किये जाने की घोषणा थी.
उन दिनों कथाकार सुनील सिंह लगभग रोज ही सुबह मेरे यहां आ जाया करते थे. वे जब भी आते थे, मुझे लिखते हुए पाते थे. उनके आगमन के साथ ही मैं लेखन स्थगित कर उनके साथ वार्तालाप करने लग जाता. एक दिन मैंने उन्हें टोंक भी दिया था, "क्या सुनील जी, आप दोपहर में नहीं सकते? आपको पता है कि इस वक्त मेरे लेखन का समय होता है."
उन्होंने संभवतः मजाक-मजाक में ही कहा था, "इसीलिए तो मैं आता हूं, ताकि आपको लिखने ही न दूं."
तत्काल तो मुझे उनकी बात मजाक ही लगी थी, लेकिन दूसरे दिन से भी लगातार वे आते रहे थे, तब मुझे सचमुच लगा था कि उनकी मंशा मेरे लेखन में बाधा पहुंचाने की थी.
यहां स्पष्ट कर दूं कि जिस कारखाने में मैं कार्यरत था, अकस्मात ही वह कारखाना बंद हो गया था. जैसा कि पता चला था मुझे कि कारखाने पर बैंक का कुछ अधिक ही कर्ज हो गया था, इसीलिए बैंक ने कारखाने को सील कर दिया था. और अब मैंने ‘भारद्वाज कान्स्ट्रक्शन’ में नौकरी पकड़ ली थी. मुझे साढ़े दस बजे से पांच बजे तक कार्यालय में रहना होता था तथा अब मुझे निरंतर यात्रा करते रहने की परेशानी से मुक्ति मिल गयी थी. वैसी परिस्थिति में मेरे लिए सुबह का लेखन ही सुविधा जनक था.
मैं लगभग सुबह के सात बजे लेखन प्रारंभ कर देता था और सुनील सिंह का आगमन आठ बजे के आसपास हो जाया करता था. एकाध महीने तक तो मैं शिष्टाचार निभाता रहा था, पर जब उनकी मंशा मुझ पर स्पष्ट हुई, तब अपने लेखन के समय में मैंने परिवर्तन कर लिया था. अब मैं सुबह साढ़े चार-पांच बजे ही जग जाता था, छः बजे तक दैनिक क्रिया से निवृत्त होकर लेखन के लिए बैठ जाता तथा सुनील सिंह के आगमन के पूर्व ही कागज-कलम समेट कर निश्चिंत हो जाता.
दिनचर्या परिवर्तन के दूसरे दिन जब अपने निर्धारित समय पर सुनील सिंह का आगमन हुआ और मुझे लिखता न देखकर आश्चर्य चकित होते हुए उन्होंने प्रश्न उछाल दिया, "तब कथाकार जी, आज लिख नहीं रहे?"
मैंने मुस्कुराते हुए जबाव दिया था, "आप लिखने देंगे, तब न! अब मैंने लेखन का समय बदल दिया है."
खैर, तो जब ‘हंस’ के सितंबर अंक में मेरी कहानी नहीं छप पायी थी, तब उस दिन फिर से अपने निर्धारित समय पर मेरे पास आकर व्यंग्य का पुट लिये अल्फाज में बोले थे वे, "हंस में तो आपकी कहानी छपी नहीं? लगता है हंस आपकी कहानी लेकर उड़ गया."
मैंने उनके व्यंग्य पर सिर्फ इतना कहा था, "नहीं, हंस अभी उड़ा नहीं है, संभवतः मोती चुनने से चूक गया है. लेकिन मोती भी भला कब तक खैर मनायेगी, उसकी दृष्टि से ओझल तो नहीं ही हुआ है."
"अरे रतन जी, आप तो बुरा मान गये. मैंने तो मजाक किया था."
मैं मुस्कुरा कर रह गया था.
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मेरे जीवन की तीन ऐसी बड़ी दुर्घटनायें, जिनकी याद जब भी मेरी चेतना पर सवार होती है, अंतस विलाप कर कर उठता है. पहली घटना 1984 की है, जब चास में रहते हुए भारत यायावर बुरी तरह कार से दुर्घटनाग्रस्त हो गये थे. जैसा कि पता चला था कार की ठोकर से उछलकर वे कई मीटर दूर जा गिरे थे. शरीर में तो जितनी चोटें आयी थीं, वह तो आयी ही थीं, लेकिन उनका पूरा जबड़ा छतिग्रस्त हो गया था. जब तक वे थोड़े स्वस्थ नहीं हो गये थे, मेरा लिखना-पढ़ना पूरी तरह स्थगित रहा था. वे मौत के मुंह से बचकर निकल आये थे, मेरे लिये या भारत यायावर के लिए ही वह ईश्वर के किसी वरदान के समान था. फिर 1987 में अचानक ही अखबार में पढ़ने को मिला कि भारत यायावर आंत फट जाने के कारण भीषण रक्तस्राव के शिकार हो गये थे. उस कारण उन्हें गहन चिकित्सा के दौर से गुजरना पड़ा था. संदेह तो यह भी व्यक्त किया जा रहा था कि पता नहीं, उन्हें आगे का जीवन नसीब होगा या नहीं. लेकिन लम्बी चिकित्सा के उपरांत वे स्वस्थ हो गये थे. बल्कि यों कहें कि कठिन संघर्ष से मृत्यु को पराजित कर दिया था उन्होंने. हालांकि बच तो वे जरूर गये थे, लेकिन तब से आज तक वे पूर्णरूपेण स्वस्थ कभी नहीं रह पाये. बावजूद उन तमाम संकटों के, उनकी साहित्य साधना बीच-बीच में अल्पविराम के साथ निरंतर चलती रही थी.
और तीसरी घटना जो मेरे लिए एक बड़े झटके के समान था, जिससे उबर पाना मेरे लिए कभी संभव नहीं हो पाया-
अगस्त 1988 से ही भैया का स्वास्थ्य बिगड़ता गया था. जब भी दरभंगा से कामेश भैया के बिगड़ते स्वास्थ्य के बारे में मैं पत्र पाता, मैं तुरन्त वहां जाकर तत्परता से उनका इलाज कराकर वापस लौट आता. अक्टूबर 1988 के मध्य में पुनः उनका स्वास्थ्य काफी हद तक बेहतर हो गया था और मैं भी उनकी ओर से निश्चिंत बना पुनः लेखन कार्य में जुट गया था. यह जानते हुए भी कि शरीर से वे काफी कमजोर हो गये थे, सो लिख तो नहीं ही पायेंगे वे, हंस के अक्टूबर अंक में छपी अपनी ‘दस्तक’ कहानी की प्रति उन्हें थमा आया था. पर अकस्मात ही पी.टी.सी. के फोन पर 24 अक्टूबर 1988 को मेरे लिये सूचना आयी कि भैया का उसी दिन निधन हो गया. मेरे लिए उस सदमे को झेल पाना असंभव था. पर पत्नी मंजू के लगातार ढांढ़स बंधाने और आगे के मेरे दायित्व के प्रति बोध कराने के बाद मैं थोड़ा सामान्य हो पाया था. उस वक्त भाभी की उम्र तकरीबन छत्तीस-सैंतीस की थी. उनका पुत्र राजेश दीपक, जो पूरे इलाके में अत्यंत ही मेधावी छात्र के रूप में जाना जाता था, उसकी उम्र 19 वर्ष तथा उनकी सुपुत्री अंतरा दीपक मात्र 16 वर्ष की थी. भाभी पर तो जैसे वज्रपात ही हो गया था. उसी रात हम सभी दरभंगा के लिए रवाना हो गये थे. उनके श्राद्ध संस्कार तक मैं दरभंगा में ही रहा था, पर पूरे कार्यक्रम के दौरान मानसिक तौर पर मैं थोड़ा भी सहज नहीं रह पाया था. खास तौर पर भाभी का हृदय विदारक विलाप मुझे और भी असहज कर जाता. मैं उन्हें ढांढ़स क्या बंधा पाता, ढांढ़स बंधाने के क्रम में खुद भी रो पड़ता.
लगभग बीस दिनों तक हम वहीं रहे थे, उन बीस दिनों में एक दिन भी ऐसा नहीं बीता था, जब कथाकार रामधारी सिंह ‘दिवाकर’ से मेरी भेंट नहीं हुई थी. जब भी मिलते, मुझे जीवन और मृत्यु के यथार्थ से अवगत कराते रहते. मुझे समझाते, "भैया के प्रति आपकी सही श्रद्धांजलि यही होगी कि आप बेहतर से बेहतरीन रचनायें करते रहें. एक प्रकार से आप उनके छोड़े गये अधूरे कार्य को ही पूरा करेंगे."
उन्होंने दुष्यंत कुमार के एक शे’र-
‘एक बाजू उखड़ गया जबसे,
और दूना वजन उठाता हूं.’
का हवाला देते हुए समझाया था कि आपके भैया आपके लिए एक मजबूत बाजे तो थे ही, अब जबकि वे नहीं हैं, तो उनकी यादों को ही आप अपनी मजबूत बांह बनायें और उनके अधूरे कार्य को पूरा करें. उसे आप अपने लेखन के माध्यम से ही पूरा कर सकते हैं. लोग आपके कार्य से आपके भैया के स्मरण को जिन्दा रखेंगे.
श्राद्ध भोज में भी उन्होंने अपनी सहभागिता दर्ज करायी थी. साथ ही, उनके प्रस्ताव पर ही बारहवीं के दिन मैंने अपने दरवाजे पर एक शोक सभा का आयोजन किया था, जिसमें शहर भर के लगभग भैया के सारे साहित्यिक मित्रों को आमंत्रित किया था. सभी ने श्रद्धांजलि पुष्प उनकी तस्वीर पर अर्पित करते हुए उनके कृतित्व तथा व्यक्तित्व पर प्रकाश डाला था.
तेरहवीं के बाद एक दिन दिवाकर जी शहर में आयोजित एक कवि गोष्ठी में ले गये थे मुझे. सारे कवियों से मेरा कथाकार के रूप में परिचय कराते हुए यह भी बता दिया था कि मैं कवि कामेश दीपक का भाई हूं. ‘हंस’ की प्रति भी लोगों को दिखायी थी उन्होंने, जिसमें मेरी ‘दस्तक’ कहानी छपी थी.
वहां जितने भी कवि उपस्थित थे, उनमें से मात्र दो कवि को ही मैं जानता था, जो भैया से हमेशा मिलने आया करते थे या भैया के साथ कवि-गोष्ठियों में शिरकत करते थे.
उन्हीं में से एक कवि ने मुझे संबोधित करते हुए कहा था, "आप कामेश दीपक जी के भाई हैं, तो आप भी कविता जरूर लिखते होंगे. हम आपकी कविता भी सुनना चाहेंगे."
मैंने दिवाकर जी की ओर देखा था. उन्होंने भी उनका समर्थन करते हुए उनसे कहा था, "संकोच मत कीजिए रतन जी! दीपक जी का कुछ तो प्रभाव होगा ही आप पर. चलिए सुनाइए कुछ."
दिवाकर जी से प्रथम भेंट से ही मैंने उनमें अपने अग्रज का रूप स्वीकार कर लिया था. अब, जब अग्रज का आदेश हो गया था, तो भला पालन कैसे नहीं करता मैं. एक गजल सुना ही दी थी मैंने.
फिर तो कुछेक और भी रचनायें सुनाने का आग्रह किया जाने लगा था मुझसे.
मैंने कुछेक रचनायें और भी सुना डाली थीं. गोष्ठी के बाद दिवाकर जी साथ लौटते हुए मुझे टावर चौक के पास वाले गुलाब जामुन की दुकान में ले गये थे और गुलाब जामुन खिलाते हुए बोले थे, "आपमें तो गजब की प्रतिभा है रतन जी! कवितायें भी अच्छी कर लेते हैं."
दिवाकर जी के साथ जब भी मैं कहीं घूमने निकलता था तो उस गुलाब जामुन की दुकान पर मुझे जरूर ले जाते थे. खुद भी खाते थे और मुझे भी खिलाते थे. शायद गुलाब जामुन उन्हें बहुत पसंद था. लेकिन जब भी पैसे देने की पेशकश करता, मुझे डांट देते, "बड़ा भाई भी मानते हैं और....."
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दरभंगा से हजारीबाग वापसी के समय मैंने भाभी के पास यह प्रस्ताव रखा था कि भाभी और बच्चों को मैं अपने साथ ले जाना चाहता हूं. राजेश उर्फ राजे तथा अंतरा उर्फ डॉली दोनों का वहीं नामांकन करवा दूंगा.
इस पर मामी बुरी तरह बिफर पड़ी थीं, "क्या समझते हो, कामेश नहीं रहा, तो क्या तुम्हारे मामा-मामी भी नहीं रहे? जब तक हम लोग जिंदा हैं, तबतक दुलहिन और बच्चे कहीं नहीं जायेंगे. पहले भी हम इन लोगों का यही घर था और आगे भी रहेगा.
सचमुच मैंने प्रस्ताव ही गलत रख दिया था. मुझे आत्मग्लानि हुई थी कि वैसा प्रस्ताव रख कैसे दिया था. तुरंत मामी से क्षमा याचना मांगते हुए बोल पड़ा था, "नहीं मामी, यह मेरे मुंह से निकल गया. चलिये गल्ती हो गई."
दूसरे ही दिन मैं सपरिवार हजारीबाग वापस आ गया था.
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भैया का पुत्र जो प्रथम श्रेणी बी.काम. की परीक्षा पास कर गया था, उसके मन में कुछ अलग ही खिचड़ी पक रही थी. मैं चाहता था कि वह एम.काम. की पढ़ाई पूरी कर ले, पर उसने नौकरी करने की ठान ली थी. पहले वह हजारीबाग आ गया था. मुझसे कैसी भी नौकरी से लगवा देने की जिद कर बैठा था. मेरे प्रयास से एक जगह अंकेक्षक की नौकरी मिल भी गयी थी उसे, जहां महीने के दो हजार मिलने लगे थे, पर उतने से ही संतुष्ट नहीं था वह और अखबारों में रिक्तियां भी देखता रहता था. ‘सहारा इंडिया’ में असिस्टेंट मैनेजर के पद के लिए वैकेंसी देखकर उसने आवेदन कर दिया था. कुछ ही दिनों में लिखित परीक्षा, उसके बाद साक्षात्कार के लिए उसका बुलावा आ गया था और उसमें सफल होकर उसने नौकरी हासिल कर ली थी. नौकरी वह इतनी कर्मठता से करने लगा था कि बहुत तेजी से उसे तरक्की मिलती चली गयी थी और आज वह डिब्रगढ़, असम में एरिया मैनेजर होकर सुख चैन की जिन्दगी जी रहा है. भाभी भी उसके साथ रहती हैं. कलकत्ता में उसने अपना एक मकान भी खरीद लिया है. बहन की शादी भी उसने बैंक ऑफ इंडिया में मैनेजर पद पर कार्यरत एक अत्यंत ही सुशील युवक दिनेश प्रसाद से करवा दी है, जो चास, बोकारो शाखा में पदस्थापित है.
आज भैया इस संसार में नहीं हैं, लेकिन अगर उनकी आत्मा कहीं होगी तो यह देखकर सुकून का अनुभव कर रही होगी कि उनका परिवार हर तरह से सुखी-सम्पन्न है तथा मैं उनका छोटा भाई उनके द्वारा निर्मित राह पर निर्बाध अग्रसर हूं.
आज जबकि लोग मुझे कथाकार मानने लगे हैं, मुझे कभी-कभी लगता है कि कामेश भैया दिवंगत नहीं हुए हैं, बल्कि उनकी आत्मा स्थानांतरित होकर मुझमें समा गयी है.
क्रमशः......
सम्पर्कः क्वा. नं. के-10, सी.टी.एस. कॉलोनी,
पुलिस लाइन के पास, हजारीबाग-825301
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