रामबाबू नीरव जन्मतिथि : 23 अप्रैल 1958, पुपरी (बिहार) विशेष : मराठी के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘थैंक यू मि. ग्लाड’ का नाट्य रूपांतरण. सम्प्र...
रामबाबू नीरव
जन्मतिथि : 23 अप्रैल 1958, पुपरी (बिहार)
विशेष : मराठी के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘थैंक यू मि. ग्लाड’ का नाट्य रूपांतरण.
सम्प्रति : जिलाध्यक्ष- प्रगतिशील लेखक संघ, अध्यक्ष- हिन्दू-उर्दू एकता मंच, सचिव- अभियान सांस्कृति मंच।
पता : शारदा निकेतन, जैतपुर, पुपरी, पो.- जनकपुर रोड, जिला- सीतामढ़ी (बिहार), पिन-843320
ऑटो रिक्शा से उतरकर मैं हवेली की ओर मुड़ा. वहां का नजारा देखकर मेरा कलेजा धक्क से रह गया. वहां गांव के लोगों की अच्छी-खासी भीड़ लगी थी. अजीब तरह का कोलाहल था वहां. मेरे मन में तरह-तरह की आशंकाएं उभरने लगी- ‘कहीं मुन्ने को कुछ हो तो नहीं गया...हे भगवान! लम्बे अंतराल के बाद रमा दीदी मां बनी थी और यह क्या हो गया?’
मेरी आत्मा कांपने लगी. लड़खड़ाते कदमों से जब मैं भीड़ के करीब पहुंचा, तब मेरी सारी आशंकाएं निर्मूल साबित हुईं. वहां तो कुछ और ही तमाशा हो रहा था. वहां उपस्थित लोगों का गोलार्द्ध बना हुआ था और उस गोलार्द्ध के बीच में कुछ बेढंगी औरतें उछल-कूद रही थीं. एक मोटी और भद्दी-सी औरत ढोलक पर बेसुरा ताल दे रही थी, बाकी ताली बजाती और कूल्हे मटकाती हुई नाच रही थी. उनका नृत्य इतना भोंडा था कि मैं मन ही मन हंसने लगा. एक छरहरे बदन की औरत, जिसने हल्का सा घूंघट काढ़ रखा था और जिसकी सिर्फ नासिका और पतले-पतले रक्तिम ओठ ही नजर आ रहे थे, अपनी गोद में एक नवजात शिशु को, जो संभवतः मेरा भांजा ही था, लिये हुई बधाई गीत गा रही थी- ‘दशरथ के अँगनवा आज बाजे बधइया हो’ हालांकि उसकी आवाज फटे बांस की तरह थी, फिर भी गांव के सभी स्त्री, पुरुष और बच्चे हर्ष भरी किलकारियां मारते, ताली पीटते हुए ऐसे झूम रहे थे जैसे वे लोग किसी फिल्मी हीरोइन का नृत्य देख रहे हों. उनमें से जब कोई मनचला युवक अश्लील फब्ती कस देता, तब वे सभी औरतें मिलकर उसके साथ ऐसी-ऐसी अश्लील हरकतें करने लग जातीं कि बेचारा शर्म से पानी-पानी हो जाता. फिर भी मनचले युवक फब्तियां कसने से बाज नहीं आ रहे थे. घूंघट की ओट में ग्रामीण महिलाएं मजे ले-लेकर हंस रही थी.
धीरे-धीरे मेरी समझ में पूरी बात आ गयी. ये सभी किन्नर यानी हिजड़े थे, जो मुन्ने के जन्म की बख्शीश लेने आये थे. एक कोने में दुबककर मैं भी ग्रामीणों की तरह इस लोमहर्षक तमाशा को देखने लगा. मुझे इस बात का आभास हो गया कि इस समय हवेली में दीदी, उनकी सासु मां और ससुर जी के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं है. कुछ देर बाद हवेली के अंदर से नौकर के द्वारा पांच सौ रुपये और कुछ पुराने कपड़े भिजवा दिये गये. उन किन्नरों ने उस बख्शीश को लेने से साफ-साफ इंकार कर दिया. ढोलक पर ताल देने वाली किन्नर एकदम आपे से बाहर होती हुई चिल्ली पड़ी- ‘हाय...हाय..., इ हवेली के मालिक पगला गये हैं का. इत्ती बड़ी हवेली...जमींदार घराना और उपहार के नाम पर इ पांच सौ रुपिया आ पुरान-धुरान कपड़ा. छीः छीः नाम हँसा दिया बुढ़उ ने.’
‘सचमुच इ बुढउ तो बहुत काइयां है दीदी...बताओ तो, इ महँगाई में पाँच सौ रुपिया...हाय-हाय... इ बुढउ धन-दौलत लाद के ले जाएगा का?’ दूसरी किन्नर जो पहले वाली की बगल में खड़ी थी, उपेक्षा से अपना नाक-भौं सिकोड़ती हुई बोली. बेचारा नौकर रुपया और कपड़े लेकर वापस चला गया.
मुझे भी दीदी श्वसुर जी पर गुस्सा आ गया. जिस घर में वर्षों बाद एक बच्चे की किलकारी गूंजी हो, उस घर के मुखिया को तो जी खोल कर दान देना चाहिए. दौलत की भी तो कमी नहीं है. सभी किन्नर अधिक से अधिक पाने की चाह में अब दुगुने उत्साह के साथ गाने और ठुमके लगाने लगे. जिसकी गोद में मेरा भांजा था, वह मुन्ने को मोटी वाली किन्नर को थमाकर मस्ती से नाचने और गाने लगी- ‘राम जइसन रूप, कन्हइया जइसन सूरत, विष्णु जी लिये अवतार, सखी रे ठुमके लगाओ.’
हाँलाकि उसका नृत्य और गीत बेढंगा और बेसुरा था, फिर भी उसे देखने और सुनने के लिए धक्का-मुक्की होने लगी. किसी ने पीछे से मुझे भी धक्का दे दिया और मैं गिरते-संभलते गोलार्द्ध के बीच में आ गया.
‘अरे ई तो शेखर बाबू हैं...’ मुझे पहचानते ही एक युवक प्रसन्नता से उछलते हुए चिल्ला पड़ा.
‘अरे वाह...यह तो कमाल हो गया’- दूसरा युवक भी चिल्लाने लगा- ‘तुम लोग धनेश्वर बाबू का मोह छोड़ो, आ ई शेखर बाबू को पकड़ो. ये बबुआ के मामा जी हैं, इनसे खूब बख्शीश मिलेगी.’ उस युवक के इतना कहते ही, जैसे मुझ पर शामत टूट पड़ी. सभी किन्नरों ने मुझे घेर लिया. वह जो हल्का सा घूंघट काढ़े हुई थी, उछलती हुई मेरे सामने आ गयी और बड़ी बेशर्मी से मेरी कलाई पकड़ कर हंसती हुई बोली- ‘का हो साले बाबू, चुपचाप तमाशा देखत बा...लाव...भगिना होए के खुशी में का देत बा...हमत... तोहरा से अंगूठी लेब.’ मुझे लगा, वह ललचाई हुई नजरों से मेरी अंगूठी की ओर देख रही है. मैं भारी संकट में फंस चुका था, मेरी समझ नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूँ?’
‘हाय...हाय! तू तो बहुत चिकना है रे. मेरा मन तुझ पर ललच गया है... चल ना उस कोने में.’ घूंघटवाली के पीछे से निकलकर एक कमसिन किन्नर बड़े ही अभद्र ढंग से मेरा गाल उमेठती हुई अश्लीलता की सारी सीमाओं को पार कर गयी. मुझे ऐसा लगा जैसे मैं सरे आम नंगा कर दिया गया होऊँ. बुरी तरह परेशान, खीझकर मैंने उन दोनों को झटका दे दिया. वे दोनों लड़खड़ा गयीं और घूंघट वाली के माथे पर से आंचल सरक गया. अनयास ही मेरी नजर उसके चेहरे पर जाकर जम गयी. फिर तो मुझे ऐसा लगा जैसे हजारों बिच्छुओं ने एक साथ डंक मार दिया हो. कुछ पल बदहलवास की सी स्थिति में मैं उसे घूरता रहा, फिर एकदम मरियल सा स्वर मेरे मुंह से निकल पड़ा-
‘निर्मला...तुम और इस हाल में?’
मेरे मुंह से अपना नाम सुनकर उसका सर चकरा गया. वह अर्द्ध-विक्षिप्त की सी हालत में आ गयी और चक्कर खाकर गिरने ही वाली थी कि उस कमसीन किन्नर ने उसे थाम लिया. पलभर में ही पूरा माहौल ही बदल गया. हम दोनों असीम वेदना से तड़पने लगे. मगर वहां खड़ी भीड़ हमारी पीड़ा से बिल्कुल बेखकर थी. तभी एक युवक अभद्र मजाक करते हुए बोल पड़ा- ‘का हो साले बाबू पुरान जान-पहचान हौ का?’ उसके इस बेहूदे मजाक को सुनकर मेरे पूरे बदन में आग लग गयी. क्रोध से उफनते हुए मैं उसके सामने आ गया और लपक कर उसकी गर्दन दबोच ली. सच कहूँ तो उस समय मैं अपना होशो-हवास खो चुका था, एकदम हिंस्र पशु बन गया था मैं और बेरहमी से उस युवक का गर्दन दबाता चला गया. वह गूँ...गूँ... करने लगा. संभवतः उसकी साँसें रुकने लगी थी.
कई लोगों ने मुझे पकड़ लिया. बड़ी मुश्किल से वह मेरी गिरफ्त से मुक्त हो पाया. जीजाजी के एक पड़ोसी, राधेश्याम बाबू मुझ पर फट पड़े- ‘शेखर बाबू, क्या हो गया है आपको? इस बेचारे की जान लेने का इरादा है क्या?’ ‘
मैं कुछ बोल नहीं पाया. खुद के इस कृत्य पर आंतरिक क्षोभ से मेरी गर्दन झुक गयी. सारे ग्रामीण मुझे अजीब नजरों से घूरने लगे. पलभर में ही सज्जन युवक से मैं अपराधी बन गया. उधर किन्नरों की टोली में भी कुहराम मच गया. वे लोग भी समझ नहीं पाए कि अचानक यह क्या हो गया? अब एक पल भी वहां रुकना मेरे लिए असह्य था. आत्मग्लानि से गर्दन झुकाए हुए मैं हवेली के पीछे वाले बगीचे की ओर बढ़ गया. यह बगीचा जीजाजी के दादा जी ने बड़े शौक से लगवाया था. इसमें तरह-तरह के फलों और फूलों के पेड़ थे. जगह-जगह सीमेंट के बेंच बने हुए थे. यह स्थान इतना रमणीक था कि जो भी यहां आ जाता, सारी दुश्ंिचताओं से मुक्त हो जाता. निढाल सा मैं एक बेंच पर गिर पड़ा.
मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि निर्मला को इस रूप में देखूंगा. जिस निर्मला ने एक राजकुमारी की तरह अपने बचपन के दिन बिताए, जिसे थोड़ी-सी चोट लग जाती, तब पूरी कोठी में कुहराम मच जाता. अपने मम्मी-पापा की आंखों की पुतली निर्मला आज द्वारे-द्वारे घूमकर भीख मांग रही है. उफ्...कैसे सहती होगी निर्मला यह त्रासदी? मेरे धैर्य का बांध टूट गया और आंखों से आंसुओं की धारा फूट पड़ी.
पता नहीं उस एकांत में मैं कब तक निर्मला के दुर्भाग्य पर आंसू बहाता रहा? अचानक अपने कंधे पर किसी के कोमल हाथ का स्पर्श पाकर मैं चौंक पड़ा. पीछे पलटकर देखा....निर्मला ही थी. उसका चेहरा बिल्कुल शान्त था, ऐसा जैसा भयानक तूफान के गुजर जाने के बाद होता है. वह सूनी-सूनी आंखों से मुझे घूरती हुई बोली- ‘शेखर भइया आप रो रहे हैं?’
‘तुम्हें इस हाल में देखकर मैं रोऊं नहीं तो क्या हंसू’- मैं बेंच पर से उठते हुए सर्द आवाज में बोला- ‘राजकुमारी की तरह रहनेवाली निर्मला आज भिखारिन बनकर दर-दर भटक रही है?’ अब मैं फूट-फूट कर रो पड़ा.
‘आप तो बड़े बुजदिल निकले शेखर भइया’- वह अपने आंचल से मेरे आंसू पोंछने लगी- ‘आपने मुझे सौगंध दी थी- ‘निर्मला, जिन्दगी में चाहे जैसी भी दुःख की घड़ी आए आंसू मत बहाना...और आज खुद आप ही...’
‘तब मैंने नहीं सोचा था कि तुम्हारे साथ ऐसा अन्याय होगा.’
‘मेरे साथ तो भगवान ने ही अन्याय किया है भइया.’
‘भगवान को जो करना था किया, मगर हम इंसान भी तो तुम्हारे साथ न्याय नहीं कर पाए?’
‘जाने दीजिए न भइया, उन पुरानी बातों को याद करने से क्या फायदा?’ मैंने देखा अपनी आंखों में लरज रहे आंसुओं को बड़ी सख्ती से वह रोक रही है, सिर्फ मेरी सौगंध का मान रखने के लिए ही. अपनी आंतरिक पीड़ा को दबाने की गरज से वह आंचल का छोर अंगुली में लपेटने लगी.
‘निर्मला...’ कुछ पल मौन रहने के पश्चात् मैंने उसे टोका.
‘ऊँ...’ वह चिहुँक पड़ी.
‘रामदुलारी तुम्हें मानती है?’
‘हां, अपनों से कहीं ज्यादा!’ आह, कितनी कसक थी उसकी इन बातों में? मेरा दिल तड़प उठा. हम दोनों फिर खामोश हो गये. हमारे दिल में उमड़ने वाला तूफान बाहर आने को मचल रहा था. इस तल्ख खामोशी को तोड़ती हुई पुनः वही बोली- ‘शेखर भइया, यहां कौन सी दीदी की ससुराल है?’
‘रमा दीदी की, तुमने जिसे गोद में ले रखा था, वह मेरा भांजा है.’
‘ओह...यह मेरा परम सौभाग्य है कि अनजाने में ही मैं रमा दीदी के ससुराल पहुंच गयी, परंतु आप से एक विनती है मेरी...’
‘हां...हां कहो, चुप क्यों हो गयी?’
‘मेरे बारे में दीदी को कुछ मत बताइएगा?’
‘क्यों?’ मैं चकित भाव से उसे घूरने लगा.
‘क्योंकि मैं नहीं चाहती कि मेरे कारण रमा दीदी दुःखी हों.’
‘ओह!’ मेरे मुंह से एक सर्द निःश्वास निकल पड़ा. आज भी निर्मला के विचार कितने निर्मल हैं?
‘मम्मी-पापा कैसे हैं?’ अचानक वह पूछ बैठी.
‘ठीक हैं.’ संक्षिप्त सा उत्तर दिया मैंने.
‘बड़े भइया, मछले भइया और दोनों भाभियां...?’
‘सभी अच्छे हैं.’
‘राजू, वह तो काफी बड़ा हो गया होगा न भइया?’
‘हां, बड़ा हो गया है. अभी सैनिक स्कूल देहरादून में पढ़ रहा है.’
‘उस कोठी में एक राजू ही तो था, जिसे मुझसे निश्छल प्रेम था. बहुत ख्याल रखता था वह मेरा. जब भी उसकी याद आती है तो...तो...’ कहते-कहते उसकी आवाज भर्रा गयी. क्षण भर पहले जो मुझे सांत्वना दे रही थी, अब खुद अविरल आंसू बहाने लगी.
‘यह क्या निर्मला तुम...’
‘भइया, राजू मुझे बहुत याद आता है...बहुत... इस जिन्दगी में मैं उससे कभी नहीं मिल पाऊंगी.’ वह सुबकियां ले-लेकर रोने लगी. मैंने उसे चुप नहीं कराया. जी भर कर रोने दिया. रोने से दिल का दर्द कुछ कम हो जाता है. कुछ पल बाद वह स्वयं ही चुप हो गयी. आंसू पोंछकर उसी भाव से मेरी ओर देखती हुई पूछ बैठी-
‘क्या वंदना की शादी हो गयी?’
‘हां, हो गयी...लड़का डॉक्टर है, पी.एम.सी.एच. में पोस्टेड है.’
‘चलो अच्छा हुआ, मेरे माथे का कलंक मिट गया. घर के सभी, यहां तक कि मम्मी-पापा भी यही समझ रहे थे कि वंदना की शादी मेरे कारण ही नहीं हो रही है.’
‘नहीं निर्मला, ऐसा नहीं है.’ सच्चाई जानते हुए भी मैं सफेद झूठ बोल गया.
‘ऐसा ही है भइया, सच को झूठ साबित नहीं किया जा सकता’- वह फीकी हंसी हंसती हुई बोली- ‘खैर छोड़िए इन बातों को...क्या आपकी शादी हो गयी?’
‘नहीं...’ मैंने थोड़ा झिझकते हुए कहा.
‘क्यों?’ वह तुनक पड़ी.
‘अभी तक नौकरी ही नहीं मिली, तो शादी कैसे करूं?’
‘अरे वाह! नौकरी नहीं मिलेगी तो इंसान जीना छोड़ देगा? वैसे आप करते क्या हैं?’ वह थोड़ा क्रुद्ध नजरों से मेरी ओर देखने लगी.
‘कोचिंग चलाता हूं और उससे इतनी आमदनी हो जाती है कि मां के साथ मेरा गुजारा हो जाए.’
‘तो क्या जिंदगी भर कुंवारा ही रहने का इरादा है?’
‘नहीं...नहीं...ऐसा नहीं है...’ उसके सवालों ने मुझे इतना उद्वेलित कर दिया कि मैं खुद को उसके समक्ष पूर्णतः असहाय महसूस करने लगा. उससे आंखें मिलाने तक की हिम्मत न रही मुझमें.
‘तो मेरी विनती है, आप जल्दी शादी कर लीजिए.’ उसके इस अनुनय ने मुझे झकझोर डाला और मैं उसकी ओर देखते हुए बोल पड़ा- ‘अच्छा बाबा, कर लूंगा. तुमने सबके बारे में तो पूछा, मगर क्या आशुतोष के बारे में नहीं पूछोगी?’ मैंने देखा, आशुतोष का नाम सुनते ही उसके चेहरे का रंग उड़ गया है. मैं मन ही मन अपने आपको कोसने लगा- ‘व्यर्थ ही आशुतोष का नाम ले लिया.’
‘सच कहूं शेखर भइया, मुझे उनकी रत्ती भर भी याद नहीं आती. मैं उन्हें फूटी आंखों न सुहाया करती थी. वे तो यही समझा करते थे कि मैं उनके आला खानदान पर एक बदनुमा दाग हूं. ठीक कोढ़ की तरह हूं मैं. मैं जानती हूं, मेरे उस हवेली से निकल जाने के बाद उन्हें बेहद खुशी हुई होगी.’ उसकी आंखें पुनः सावन-भादों की बरसात करने लगी.
‘नहीं निर्मला, वह तुम्हें...’
‘क्या बात है शेखर...बहुत घुल-मिलकर बातें हो रही है.’ अचानक हम-दोनों के बीच एक तीसरा आ गया. यह तीसरा और कोई नहीं, रमा दीदी का देवर प्रकाश था. हम दोनों में मित्रवत् स्नेह है. उसे देखकर मेरे साथ-साथ निर्मला भी चौंक पड़ी. वह झट से मेरे चरणों में झुकती हुई बोली- ‘अच्छा भइया अब मैं चलती हूं.’ प्रकाश की ओर देखे बिना वह उस ओर चली गयी, जहां उसके साथी थे. प्रकाश अपलक उसकी ओर देखता रह गया.
‘आओ प्रकाश हम लोग बैठते हैं.’ मैं प्रकाश की कलाई पकड़कर उसके साथ खुद भी बेंच पर बैठ गया. प्रकाश अब भी निर्मला की ओर देखे जा रहा था.
‘कौन थी वह?’ हठात् उसके मुंह से निकल पड़ा.
‘निर्मला...’ मैंने उसकी तरफ देखते हुए शांत भाव से कहा.
‘मगर वह तो उन हिजड़ों...?’ वह बुरी तरह से चौंक पड़ा और चकित भाव से मेरी ओर देखने लगा.
‘वह भी वही है...’
‘क्या मतलब?’ प्रकाश की मनोदशा को भांपते हुए मैंने उसे निर्मला की पूरी कहानी सुना देना ही उचित समझा-
‘प्रकाश, क्या तुम उसकी पूरी कहानी सुनना चाहोगे?’
‘आ...हां...हां...’ प्रकाश की आंखों की पुतलियां मुझ पर स्थिर हो गयी और मैं अतीत में झांकते हुए निर्मला की कहानी सुनाने लगा- बहुत बड़ा परिवार था निर्मला का. आलीशान हवेली थी उसकी. उसके पिता श्री आर.के. सिन्हा डी.आई.जी थे. बड़े भइया बी.के. सिन्हा एक्जीक्यूटिव इंजीनियर, मझले भइया एस.के. सिन्हा डॉक्टर और सबसे छोटा मेरा मित्र आशुतोष मेरी ही तरह बेरोजगार था. आशुतोष मेरा बचपन का मित्र है, इस कारण मैं. निःसंकोच भाव से उसके घर आया-जाया करता था. सिर्फ आशुतोष की मां जानकी देवी ही नहीं बल्कि डीआईजी साहब भी मुझे बेटे की तरह मानते थे. मगर चाची जी का स्नेह मुझ पर कुछ अधिक ही था.
‘निर्मला बचपन से ही मुझे भइया-भइया कहकर पुकारा करती थी. बड़ी शोख, चंचल और हंसमुख थी वह. वह ऐसी-ऐसी शरारतें किया करती थी कि उसके परिजनों के साथ-साथ मैं भी हंसते-हंसते लोट-पोट हो जाया करता था. वह पढ़ने में भी मेधावी थी, हमेशा प्रथम आया करती थी. उसकी एक छोटी बहन भी थी वंदना. मगर उन दोनों के स्वभाव में जमीन-आसमान का अंतर था. वंदना थोड़ा ईर्ष्यालु और एकांत प्रिय थी, इस कारण मुझे निर्मला से ही अधिक स्नेह था. एक तरह से हम दोनों भावात्मक रूप से एक-दूसरे से जुड़ चुके थे. हंसते-खेलते निर्मला के दिन गुजरने लगे. उसके किशोरावस्था तक सबकुछ ठीक-ठाक रहा, मगर सेकेण्डरी की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करने के पश्चात् उसमें एक अजीब सा बदलाव आने लगा. अब वह मेरे समक्ष खुलकर नहीं आती. जब भी मैं उसे बुलाता तो वह सर पर दुपट्टा डालकर, क्षणभर के लिए मेरे समक्ष उपस्थित होती, फिर भागकर हवेली के किसी कमरे में कैद हो जाती. उसकी शोखी, उसकी चंचलता न जाने कहां लुप्त हो चुकी थी. मैंने समझा, शायद युवावस्था की दहलीज पर कदम रखने के कारण उसमें ऐसा बदलाव आया है. यही सोचकर मैंने इन सब बातों पर ध्यान नहीं दिया.
‘कुछ दिनों पश्चात् मुझे ऐसा आभास हुआ कि इस घर के लोग मुझसे कुछ छुपा रहे हैं. चाची जी को छोड़कर बाकी अन्य लोगों को शायद अब मेरा हवेली में आना-जाना पसंद न था. निर्मला की बड़ी भाभी यानी इंजीनियर साहब की पत्नी ने तो बड़ी निर्लज्जतापूर्वक एक दिन मुझसे कह ही दिया- ‘शेखर, यदि तुम्हें कोई काम-धाम नहीं है तो इसका यह मतलब थोड़े है कि हर समय हमारी हवेली में ही डेरा डाले रहो.’
ओफ्फ्! रत्तीभर भी मुझे उम्मीद न थी कि बड़ी भाभी मुझे इस तरह से अपमानित करेंगी. अपमान का वह कड़वा घूंट मैं पीकर कैसे रह गया, बयान नहीं कर सकता. घायल होकर मेरा दिल तड़पने लगा और मैंने कसम खा ली, इस जन्म में बड़े लोगों की संगत कभी न करूँगा.
हवेली से निकलकर मैं पागल की तरह दौड़ते हुए घर पहुंचा और बिछावन पर औधे मुंह गिर कर फूट-फूट कर रो पड़ा. यह संयोग ही था कि उस समय मेरी मां घर पर नहीं थी, यदि रही होती तो....
खाने को तो मैंने कसम खा ली, मगर निर्मला की याद को दिल से नहीं निकाल पाया. आखिर ऐसी क्या बात हो गयी निर्मला के साथ, जो मुझे उससे मिलने को रोक दिया गया. समय बड़े से बड़े जख्म को भर दिया करता है. जैसे-जैसे समय बीतता गया, मैं मात्र निर्मला को ही नहीं, बल्कि अपने अभिन्न मित्र आशुतोष को भी भूलने लगा. कई महीने बीत गये. अचानक एक दिन इंजीनियर साहब का बेटा राजू दौड़ते हुए आया और मेरे हाथ में एक लिफाफा थमा कर भाग गया. जैसे ही मेरी नजर लिफाफे पर पड़ी, मैं बुरी तरह से चौंक पड़ा. उस पर मेरा नाम लिखा था और हैण्डराइटिंग निर्मला की थी. पता नहीं निर्मला ने क्या लिखा है? मेरी उत्सुकता बढ़ गयी और कांपती अंगुलियों से मैंने लिफाफा खोला. काफी लम्बा पत्र था, उसकी पूरी दास्तान-
‘शेखर भइया,
सादर प्रणाम!
आप मुझे भूल गये, मगर इसमें आपका दोष ही क्या है? बड़ी भाभी ने कितना अपमानित किया था आपको? मम्मी के साथ किवाड़ की ओट में खड़ी मैं सारा तमाशा देख और सुन रही थी. मैं कैसे बताऊँ, उस दिन मुझ पर क्या बीती? सारा दिन और सारी रात मैं रोती रही. इतनी बड़ी हवेली में सिर्फ मम्मी और राजू को छोड़कर और किसी को भी मुझसे रत्ती भर भी हमदर्दी नहीं है. जिस सच को ये लोग दुनिया की नजरों में छुपाना चाह रहे हैं, क्या वह छुप जाएगा? भगवान के करिश्मा को कोई कैसे झुठला देगा? भइया, मैं औरत नहीं हूं तो इसमें मेरा क्या कसूर?’
इस पंक्ति को पढ़ते ही मेरे पूरे शरीर में बिजली का तरंग सा प्रवाहित होने लगा... मेरी चेतना लुप्त होने लगी...यह क्या लिख दिया निर्मला ने...वह औरत नहीं है, तो फिर क्या है वह? किन्नर यानी हिजड़ा... हे भगवान! कैसा अन्याय कर दिया तुमने उस मासूम के साथ? मेरी आंखों से अविरल आंसू बहने लगे. काफी कोशिश के बाद मैंने खुद को संभाला और अपने आंसू पोछकर पुनः पत्र पढ़ने लगा-
‘भगवान ने मेरे साथ ऐसा क्रूर मजाक किया और मेरे घर के लोग मुझ से सहानुभूति रखने के बजाय मुझ पर जुल्म ढा रहे हैं. सभी मुझसे घृणा करते हैं, ऐसी घृणा जिसे सह पाना मेरे लिए नामुमकिन हो गया है. जब मैं भूलकर भी बड़ी भाभी के सामने आ जाती हूं, तब वे नाक-भौं सिकोड़ती हुई ऐसे बिदक कर भाग खड़ी होती जैसे मैं निकृष्ट जानवर होऊँ. आप तो जानते हैं भइया-राजू मुझसे कितना प्यार करता है? एक वही तो है जो दुख की इस घड़ी में मेरे जीने का सहारा है. मगर बड़ी भाभी को यह भी पसंद नहीं. एक दिन राजू मेरे साथ खेल रहा था, इतने में बड़ी भाभी तमतमायी हुई आयी और राजू के गाल पर तड़ातड़ तमाचा मारकर चली गयी. मुझे ऐसा लगा जैसे कोई बड़ी बेदर्दी से मेरा कलेजा निकाल रहा हो. बेचारा राजू...उफ्फ! रोते-रोते उसकी बुरी हालत हो गयी. इस घर में मेरे साथ किसी घिनौने जानवर से भी बदतर व्यवहार किया जा रहा है, भइया. मेरे पापा जिन्होंने मुझे जन्म दिया...जानते हैं, मम्मी से एक दिन क्या कह रहे थे?...कह रहे थे- जानकी क्या इस कुलकलंक को मेरे ही घर में जन्म लेना था? इस अभागन की शादी तो नहीं ही होगी, इसकी वजह से वंदना और आशुतोष की भी शादी नहीं हो पाएगी? पापा की बातें सुनकर मुझ पर क्या बीती. मैं आपको कैसे बताऊँ? और आपके दोस्त आशुतोष भइया! कितने निष्ठुर हो गये हैं वे. एक दिन तो उन्होंने मुझे मार डालने की भी कोशिश की. जिस आशुतोष भइया की सफलता के लिए मैं रात-दिन ईश्वर से प्रार्थना किया करती हूं, वे ऐसे पत्थर-दिल हो गए? बड़े भइया और मझले भइया तो पलट कर भी मेरी ओर नहीं देखते. इन लोगों ने मुझे बचपन में ही क्यों नहीं मार डाला, कम से कम आज यह दिन तो न देखने को मिलता? उपेक्षा का यह दंश मुझ से नहीं सहा जाता, मैं मर जाना चाहती हूं, मगर मरने से पहले आपको एक बार, सिर्फ एक बार देखना चाहती हूं. मैं आपकी प्रतीक्षा कर रही हूं....आएंगे न आप?
आपकी अभागन
निर्मला’
निर्मला का पत्र पढ़ने के बाद रोते-रोते मेरी हिचकी बंध गयी. यह तो मेरा सौभाग्य था कि उस समय भी मां घर पर नहीं थी. निर्मला के साथ ऐसा अमानवीय व्यवहार. उफ्फ कितने जालिम हैं वे लोग? अपने झूठे मान-सम्मान के अहंकार में चूर होकर वे लोग मानवीय संवेदना को ही भूल गये. मेरे दिल में आक्रोश का सैलाब उमड़ने लगा. अब चाहे जो हो जाए मैं निर्मला के लिए लड़ूंगा. क्रोध से उफनते हुए मैं डीआईजी साहब की कोठी पर पहुंच गया. कोठी के बाहर ही मुझे चाची जी मिल गयीं. शायद वे मेरी ही प्रतीक्षा कर रही थीं. वे मेरी कलाई पकड़ कर एक तरह से मुझे घसीटती हुई अंदर ले गयीं. बॉलकनी के जीने पर बड़ी भाभी खड़ी थी. मुझे देखते ही उन्होंने बुरा सा मुंह बनाया और पलटकर तेजी से अपने कमरे में भाग गयी. उनके इस व्यवहार से मुझे स्पष्ट लगा कि निर्मला को लेकर इस घर में अंदर ही अंदर कुहराम मचा हुआ है. चाची मुझे जिस जगह लेकर आईं वह एक तंग कोठरी का दरवाजा था. संभवतः इस हवेली का उपेक्षित रहने वाला स्टोर रूम था वह. तो क्या निर्मला को रहने के लिए यह स्टोर-रूम दिया गया है? हे भगवान! अपनी ही संतान के प्रति ऐसा निष्ठुर व्यवहार? मेरा दिल हाहाकार कर उठा.
स्टोर रूम के बाहर निर्मला का पालतू कुत्ता टॉमी बैठा था. टॉमी से मुझे भी काफी स्नेह था. जैसे ही उसकी नजर मुझ पर पड़ी वह कूँ-कूँ करते हुए मेरा पाँव चाटने लगा. मैंने फौरन उसे अपनी गोद में ले लिया. मैंने गौर से देखा, उस अचेतन जानवर की आंखों से आंसू बह रहे थे. उसके आंसू देख मैं तड़प उठा, एक जानवर निर्मला की त्रासदी पर रो रहा है, मगर इस घर के इंसान...? चाची जी ने दरवाजा खोलते हुए कहा- ‘जाओ शेखर बेटा, निर्मला अन्दर है.’ मैंने धड़कते दिल से अंदर कदम रखा. कमरे में हल्का सा प्रकाश फैल रहा था. एक कोने में मैला-कुचैला बिछावन बिछा था, जिसे देखकर मेरा कलेजा मुंह को आ गया. मखमली बिछावन पर सोने वाली निर्मला आज अपने ही परिजनों द्वारा इतनी निष्कृष्ट बना दी गयी. अनयास ही मेरी नजर दूसरे कोने की ओर चली गयी, जहां वह अपने घुटनों के बीच मुंह छुपाए, शायद आंसू बहा रही थी.
‘निर्मला...’ मेरे मुंह से बर्फ से भी ठंडी आवाज निकली. आंसुओं से तर अपना चेहरा उठाकर वह मेरी ओर देखने लगी. उफ्फ्....! क्या यह निर्मला ही है? मेरे दिल को ऐसा झटका लगा कि मैं स्वयं को संभाल नहीं पाया. यदि दीवार का सहारा नहीं ले लिया होता, तो निश्चित रूप से मैं गिर गया होता. चंद महीनों में ही निर्मला कितनी विद्रूप हो गयी, एकदम नरकंकाल जैसी. कहां चली गयी इसकी वह शोखी, चंचलता और मृग्या जैसी वे आंखें, जिन्हें देखकर मैं मुग्ध हो जाया करता था? कुछ पल मुझे निहारते रहने के पश्चात् वह अपनी जगह से उठ गयी और मेरे पांव पर गिर कर बिलख-बिलख कर रोने लगी. उसके करुण-क्रंदन से मेरा हृदय छलनी हो गया. मैंने बहुत कोशिश की अपने आंसुओं को रोकने की, मगर रोक न पाया. रोते-रोते मेरी हिचकी बंध गयी. काफी देर तक हम दोनों रोते रहे.
‘चुप हो जा निर्मला’ खुद को संभालते हुए मैं उसे सांत्वना देने लगा- ‘अपने दुर्भाग्य पर कितना आंसू बहाएगी?’
‘भइया, मैं अपने दुर्भाग्य पर नहीं, बल्कि अपने परिजनों की निष्ठुरता पर आंसू बहा रही हूं. बहुत दुःख दे रहे हैं ये लोग मुझे...’
‘जो दुख सहते हैं, वे महान होते हैं.’
‘कितना...कितना दुख सहूं मैं? अब नहीं सहा जाता...मर जाना चाहती हूं मैं.’
‘चुप’- इतनी जोर डपटा मैंने उसे कि बेचारा टॉमी, जो मेरा पांव चाटने लगा था, सहम कर पीछे हट गया- ‘खबरदार, जो तुम ऐसे दुर्विचार अपने मन में लाई तो मैं तुम से बात नहीं करूंगा.’
‘नहीं भइया, नहीं...ऐसा मत कहिए, यदि आपने भी मेरा साथ छोड़ दिया तो मैं जीते जी मर जाऊंगी.’ वह पुनः फफक पड़ी.
‘ठीक है तो आज तुम्हें मुझसे एक वादा करना होगा’ वह मेरी ओर भींगी पलकों से देखने लगी- ‘आज के बाद से तुम आंसू नहीं बहाओगी.’
‘आपको भी मुझे एक वचन देना होगा.’
‘क्या?’ मैं उत्सुकतापूर्वक उसकी आंखों में झांकने लगा.
‘जबतक मैं जिन्दा हूं, आप मुझसे मिलते रहेंगे.’
‘ठीक है, प्रत्येक दिन तो नहीं, मगर सप्ताह में दो दिन मैं तुमसे अवश्य मिलूंगा. तुम अपने सारे दुःख-दर्द भूल जाओ. दुनिया काफी बदल चुकी है. तुम यह साबित कर दो कि जिनके साथ ईश्वर अन्याय करते हैं, वे अपनी तकदीर की रेखाएं खुद लिखा करते हैं.’ वह कुछ नहीं बोली, मगर उसकी आंखों के भाव से मुझे लगा कि वह मेरी बातों को आत्मसात् कर चुकी है. हम दोनों काफी देर तक मौन, एक-दूसरे की आंखों में झांकते हुए अपने-अपने झंझावातों से लड़ते रहे. कुछ देर बाद मैंने ही मौन तोड़ते हुए कहा- ‘निर्मला अब मैं जाऊँ....’
‘आ...हाँ...जाइए...मगर.’
‘तुम चिन्ता मत करो...मैं फिर आऊंगा.’ सस्नेह उसके माथे पर हाथ फेरकर मैं तेजी से बाहर निकल गया. दरवाजे पर चाची जी खड़ी बेशुमार आंसू बहाए जा रही थीं. निर्मला आखिर उनकी संतान थी. उसका दुख-दर्द देख, उनकी छाती कैसे न फटती?
‘मत रोइए चाची जी’- मैं उन्हें सांत्वना देने लगा- ‘ईश्वर की माया को हम इंसान बदल तो नहीं सकते न.’
‘बेटा, निर्मला तुम्हारा ही मुंह देखकर बाकी की जिन्दगी गुजार लेगी.’
‘आप चिन्ता मत कीजिए चाची जी, निर्मला से मिलने, उसे ढाढ़स बंधाने के लिए मैं अब आया करूंगा. इस घर के निष्ठुर इंसान चाहे...’
‘अब कोई कुछ नहीं बोलेगा’- एकाएक चाची जी का स्वर कठोर हो गया- ‘मैंने साफ शब्दों में सबों को कह दिया है कि यदि शेखर को यहां आने से रोका गया तो मैं निर्मला के साथ आत्महत्या कर लूंगी.’
‘चाचीजी आप...’ मैं बुरी तरह से घबरा कर उनकी ओर देखने लगा.
‘ये लोग बिना धमकी के नहीं मानने वाले हैं शेखर...’
उस दिन घर के किसी भी मर्द से मेरी भेंट न हुई. यदि हो जाती तो निश्चित रूप से मैं उनसे झगड़ बैठता.
प्रायः दो दिन, तीन दिन के अंतराल पर मैं निर्मला से मिलने लगा. अजीब सा तनावपूर्ण माहौल था, उस हवेली का. ऐसा लग रहा था जैसे सभी घुट-घुट कर जी रहे हों. मैंने बहुत कोशिशें की कि निर्मला की वह शोखी, वह चंचलता वापस आ जाए, मगर सफल न हो सका. गम का इतना बड़ा पहाड़ अपने सीने पर रख कर भला वह खुश कैसे रह सकती थी? एक-दो बार डीआईजी साहब और आशुतोष से मेरी मुलाकात हुई भी तो न जाने क्यूं उन लोगों से निर्मला के संबंध में बातें करते हुए मैं घबरा गया. मेरे सान्निध्य से इतना तो हुआ कि निर्मला और चाची जी ने अपने मन से आत्म-हत्या जैसे दुर्विचार को निकाल फेंका.
एक बार अपने कुछ निजी काम से मुझे दिल्ली जाना पड़ गया. लगभग पंद्रह दिनों तक मैं प्रवास में रहा. हालांकि निर्मला और चाची जी से मोबाइल पर बातें हाती रहीं, परंतु मन की जो बातें आमने-सामने रहकर हो सकती हैं, वे दूरभाष पर नहीं हो सकती न. खैर...जिस दिन मैं वापस अपने छोटे से शहर में आया, सीधा निर्मला से मिलने उसकी हवेली पर चला गया. अभी मैं मुख्य द्वार पर ही खड़ा था कि मुझे ऐसा आभास हुआ जैसे कोठी के अंदर कुछ गड़बड़ है. मेरा दिल तेजी से धड़कने लगा. बड़ी बेचैनी के साथ मैं अंदर घुसा. लॉन में अजीब सा माहौल देखकर मैं भौंचक रह गया. आज वे हिजड़े जो यहां उधम मचा रहे हैं, ये लोग उस दिन भी निर्मला की कोठी पर उधम मचाए हुए थे. इनकी सरदारिन है रामप्यारी. रामप्यारी की मांग थी कि निर्मला को इनके हवाले कर दिया जाए. वह इस परिवार, इस समाज में रहने लायक नहीं है. उस समय डीआईजी साहब, जानकी देवी, निर्मला की दोनों भाभियां तथा वंदना वहां मौजूद थीं. उसके तीनों भाई वहां न थे. चाचाजी बिल्कुल मौन निर्विकार भाव से आकाश की ओर देखते हुए शून्य में कुछ ढूंढ़ रहे थे. चाचीजी ओट में दुबकी हुई आंसू बहा रही थीं.
अचानक भीतर से बिफरती हुई निर्मला बाहर निकली और रामप्यारी के सामने आकर चिल्लाने लगी- ‘जा निकल जा यहां से, यह मेरा घर है और मैं अपना घर छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगी.’
‘बेटी, तुम गलत सोच रही हो’- रामप्यारी स्नेह से उसके माथे पर हाथ फेरती हुई बोली, ‘यह घर, यह परिवार तुम्हारा नहीं है. तुम तो धोखे से यहां आ गयी हो. तुम्हारा घर, तुम्हारा परिवार सबकुछ हम लोग हैं. हम जैसे लोगों की दुनिया ही अलग होती है बेटी.’
‘झूठ बोलती हो तुम’- निर्मला इतनी जोर चिल्लाई कि मैं अन्दर ही अन्दर बुरी तरह से कांप गया- ‘यह घर मेरा है, मेरा. वो देखो, वे मेरे पापा जी हैं, वो मेरी मां हैं, जिन्होंने मुझे जन्म दिया है. वे दोनों मेरी भाभियां हैं और वह मेरी छोटी बहन वंदना है. ये सभी मुझे इतना प्यार करती है कि मैं सहेज नहीं पाती.’ वह रामप्यारी के सामने से हटकर डीआईजी साहब के सामने आकर खड़ी हो गयी और फूट-फूटकर रोती हुई उनसे विनती करने लगी- ‘पापा, इन बेहूदे लोगों को आप भगाते क्यों नहीं आप तो पुलिस के आला अफसर हैं, इन लोगों को गिरफ्तार क्यूं नहीं करवा देते? ये लोग दिन-दहाड़े आपकी बेटी का अपहरण करने आए हैं और आप चुपचाप तमाशा देख रहे हैं?’
निर्मला के करुण-क्रंदन से मेरा कलेजा फटने लगा. मेरी आंखों से भी आंसुओं की धारा फूट पड़ी. वहां मेरी ही तरह एक और व्यक्ति रो रहा था, वह था लॉन का माली. निर्मला बिलख रही थी, परंतु डीआईजी साहब पर उसका कुछ भी असर न हुआ. उफ्फ्! इतने कठोर कैसे हो गये चाचा जी? वे निर्मला की ओर से नजरें फेरकर हवेली के अंदर चले गये. निर्मला पथराई हुई आंखों से उन्हें देखती की देखती रह गयी. अपने पापा की इस बेरुखी से उसके हृदय से मर्मांतक चीत्कार निकल पड़ी- ‘पापा...’ मगर चाचा जी ने मुड़कर उसे देखना भी मुनासिब नहीं समझा. कुछ पल निर्निमेष नेत्रों से अपने पापा की ओर देखते रहने के पश्चात् वह अपनी मम्मी के निकट आ गयी और निर्झर की तरह आंसू बहाती हुई कहने लगी. ‘पापा तो चले गये, आप ही इन्हें भगा दीजिए न मम्मी, मैं इन गंदे लोगों के साथ कैसे रहूंगी? आपने अपनी जिस बेटी को राजकुमारी की तरह पाला, क्या आज उसे भिखारिन बन जाने देंगी?’
जानकी देवी कुछ न बोलीं, अपने मुंह में आंचल ठूंस कर बेतहाशा आंसू बहाने लगीं. वहां का दृश्य ऐसा कारुणिक था कि पत्थर भी पिघल जाए, परंतु निर्मला की भाभियों और वंदना की आंखों से एक बूंद भी आंसू न टपका. न जाने कैसा कलेजा था उन तीनों का? निर्मला की हालत देख, मेरी स्वयं की हालत पस्त हो गयी. मैं अर्द्धमूर्च्छित की अवस्था में पहुंच गया. यह तो गनीमत थी कि श्रीधर काका ने मुझे थाम लिया. वे मुझे घसीटते हुए लॉन के एक कोने में ले आए और मुझे सांत्वना देते हुए बोले- ‘शेखर बाबू होश में आइए.’
‘काका, ये लोग निर्मला के साथ कैसा निष्ठुर व्यवहार कर रहे हैं?’ चैतन्य होकर मैं कंपित स्वर में बोल पड़ा.
‘शेखर बाबू, मैं एक सच्ची बात आपको हूं?’ उस बूढ़े माली की आंखों में एक अजीब सी चमक दिखाई दी मुझे.
‘निर्मला बीबीजी की भलाई, इन लोगों के साथ चले जाने में ही है.’
‘काका आप....?’ मैं तड़प उठा.
‘नहीं तो ये निष्ठुर लोग बीबी जी को मार डालेंगे शेखर बाबू. मैं आपसे विनती करता हूं, जाने दीजिए इन्हें.’ श्रीधर काका का अनुनय सुनकर मैं एकदम से मौन हो गया. शायद श्रीधर काका ठीक ही कह रहे हैं. अपने आंसू पोंछकर धीमी गति से चलते हुए मैं निर्मला के पीठ पीछे खड़ा हो गया और मृदुल स्वर में उसे पुकारा- ‘निर्मला.’ वह चिहुंकती हुई एकदम से मेरी ओर पलट गयी-
‘शेखर भइया आप...?’
‘हां निर्मला. बहुत देर से मैं तुम्हारा क्रंदन सुन रहा हूं. तुमने तो कसम खाई थी कि अब कभी आंसू नहीं बहाओगी, फिर ये आंसू?’ अपने दिल पर पत्थर रखते हुए मैं बोला.
‘भइया, मेरे पापा मुझे घर से निकाल रहे हैं.’
‘तुम गलत सोच रही हो निर्मला...पापा तुम्हें निकाल नहीं रहे हैं, बल्कि विदा कर रहे हैं. बेटियां हमेशा अपने मम्मी-पापा के घर तो नहीं रहा करती न.’
‘भइया, आप भी...’ वह हतप्रभ-सी मेरी ओर देखने लगी.
‘यही सच है निर्मला. जरा रामप्यारी की आंखों में झांक कर देखो, कितना प्यार है तुम्हारे लिए.’ मेरी बातें सुनकर वह एकदम से खामोश हो गयी.
कुछ पल बाद वह रामप्यारी की कलाई थामती हुई एकदम सपाट स्वर में बोली- ‘चल रामप्यारी जहां से चलना है ले चल मुझे. आज से मेरे पापा, मम्मी, भइया, भाभी सब तुम ही हो.’ उसकी इन बातों में जो वेदना छुपी हुई थी. उसे महसूस कर मेरे दिल के टुकड़े-टुकड़े हो गये. अपने आंसू पोंछकर पलभर में ही वह पत्थर से भी अधिक कठोर बन गयी और सारे रिश्ते-नाते भूलकर उन हिजड़ों के साथ जाने लगी.
तभी अचानक मेरे मुंह से निकल पड़ा- ‘ठहरो रामप्यारी, मैं जरा चाचा जी से मिलकर आता हूं, तब तुम लोग जाना.’ मेरी बात सुनकर वे सभी रुक गये और मैं तेजी से हवेली के अंदर चला गया. जब मैं डीआईजी साहब के कमरे में पहुंचा तब एकदम से भौंचक रह गया. उनके लिए मेरे मन में कितनी गलत धारणा थी? इस एकांत में बैठकर तो वे अपनी अभागिन बेटी के लिए बेतहाशा आंसू बहाए जा रहे थे. उनकी सिसकियों ने मेरे हृदय को मथ डाला.
‘चाचा जी...’ मैंने उन्हें धीमे स्वर में पुकारा. वे चौंक कर एकदम से उछल पड़े और मुझे ऐसे देखने लगे जैसे मैंने उनकी चोरी पकड़ ली हो.
‘ओह! शेखर बेटा आओ.’ स्वयं को संभाल कर वे व्यथित स्वर में बोले-
‘क्या करूंगा बेटा, मुझसे निर्मला का दुःख देखा नहीं गया. मेरा खून होते हुए भी वह न सिर्फ इस परिवार के लिए बल्कि इस पूरी सोसाइटी के लिए नासूर बन चुकी है. उसके दुःख-दर्द को तो सभी देख रहे हैं, लेकिन मैं अपने दिल का जख्म किसे दिखाऊँ? जानकी तो रो-रोकर अपने दिल की भड़ास निकाल भी लेती है, मगर मैं अपने पद की गरिमा के कारण किसी के सामने रो भी नहीं सकता?’ उफ्फ्! एक बाप की कैसी वेदना छुपी थी चाचा जी की इन बातों में?
‘चाचा जी, हिम्मत से काम लीजिए. आज इतने बड़े घर की लाडली बेटी सदा-सदा के लिए विदा हो रही है, क्या वह खाली हाथ ही जाएगी?’
‘ओह!’ मैं तो भूल ही गया. शेखर बेटा, तुम जाकर उन लोगों को रोको, मैं शीघ्र ही आ रहा हूं.’ उनका आदेश पाकर मैं तेजी से बाहर निकल गया. जब मैं उन लोगों के पास पहुंचा, तब वहां दूसरा ही तमाशा नजर आया. इंजीनियर साहब का बेटा राजू निर्मला से लिपटकर रोते हुए चिल्ला रहा था- ‘बुआ, बुआ मुझे छोड़कर मत जाओ, मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता.’
निर्मला ने असह्य वेदना को दबाने के लिए बड़ी सख्ती से उसने ओठ काट लिए. आंसू की जगह उसके ओठ से खून रिसने लगा. बड़ी निष्ठुरता से राजू की झिड़कती हुई वह बोल पड़ी- ‘छोड़ राजू, छोड़ मुझे...मैं तेरी कोई नहीं हूं. जा तू अपनी मम्मी के पास.’ इस निष्ठुरता का प्रदर्शन करते समय उसको कितनी तकलीफ हो रही थी, उसे महसूस कर मैं अपने आंसू नहीं रोक पाया. उधर राजू मानने को तैयार नहीं था. वह बिलख-बिलख कर रोते हुए बस एक ही रट लगाए जा रहा था- ‘तुम मेरी बुआ हो, मैं तुम्हें कहीं नहीं जाने दूंगा.’
अचानक राजू की मम्मी क्रोध से कांपती हुई उन दोनों के निकट आयी और क्रूरता की सारी सीमाओं को लांघती हुई राजू के गाल पर तमाचा पर तमाचा मारती चली गयी.
‘छोड़ शैतान, छोड़ इसे. कितनी बार कहा कि इस चुड़ैल से मेलजोल मत बढ़ा, मगर मेरी बात सुनता ही नहीं.’ बड़ी भाभी की ऐसी क्रूरता देख मैं हतप्रथ रह गया. निर्मला को तो ऐसा लगा जैसे चांटे राजू के गाल पर नहीं, बल्कि उसके दिल पर मारे गये हों. उसके मुंह से दर्द भरी चीत्कार निकल पड़ी- ‘भाभी, इस मासूम को....’
‘चुप चुड़ैल, जाना है तो जाती क्यों नहीं? कब तक ड्रामा करती रहेगी, पूरी सोसाइटी में तो इस खानदान का नाम डुबो दिया. कहीं निकलना मुश्किल हो गया है, जीना हराम कर दिया है तुमने. अब तो हमें चैन से जीने दे.’ उस कर्कश औरत के मुंह से ऐसी तीखी बातें सुनकर मेरा कलेजा छलनी हो गया.
राजू की मम्मी उसे घसीटती हुई अंदर ले गयी. निर्मला पत्थर की बुत बनी, अपनी भाभी की इस निष्ठुरता को देखती रह गयी. कुछ पल बाद चाचा जी अपने हाथ में एक मखमली डिब्बा लिये हुए आये और निर्मला के हाथ में थमाकर करुण स्वर में बोले- ‘बेटी, मैं इस संसार का ऐसा अभागा बाप हूं, जो तुम्हें सदा सुहागिन रहने का आशीर्वाद भी नहीं दे सकता. इसे रख लो, और हो सके तो अपने इस अभागे बाप को माफ कर देना.’
‘पापा...’ अपने पापा की वेदना को अनुभव कर निर्मला तड़प उठी. चाचाजी वहां रुके नहीं, तेजी से अंदर भाग गये. निर्मला कुछ पल अपलक उन्हें देखती रही फिर वंदना के सामने आकर डिब्बा उसे थमाती हुई बोली- ‘वंदना, मेरी प्यारी बहन! सारी दुनिया जानती है कि निर्मला इस जिन्दगी में कभी सुहागिन नहीं बन सकती, फिर सुहाग के ये जेवर मेरे किस काम के? मेरी ओर से उपहार समझकर स्वीकार कर लो.’
वंदना बड़ी शीघ्रता से अपने दुपट्टे में उसे छुपाकर ऐसे भाग खड़ी हुई कि कहीं निर्मला का मन बदल न जाए? निर्मला के ओठों पर एक फीकी मुस्कान उभर आयी. अब वह चाची जी के सामने खड़ी थी- ‘नहीं मम्मी, अब मत रोइए.’ उनके आंसू पोंछती हुई वह बोली. वे उससे लिपटकर और भी फूट पड़ीं.
‘मम्मी आप मेरे दुर्भाग्य पर कितना आंसू बहाएंगी, कुछ आंसू वंदना के लिए भी तो बचाकर रखिए.’ चाचीजी को धीरज बंधाकर वह मझली भाभी के करीब आयी- ‘भाभी...’
उसकी करुण पुकार सुनकर डॉक्टर साहब की पत्नी अपना चेहरा उठाकर उसकी ओर देखने लगी. निर्मला उसी करुण भाव से बोली-‘क्या आप भी बड़ी भाभी की तरह मुझसे नाराज हैं, यदि आपकी ननद से अनजाने में कुछ गलती हो गयी हो, तो माफ कर दीजिए.’
मुझे सुखद आश्चर्य हुआ कि मझली भाभी उससे लिपट कर फूट-फूट कर रो पड़ी- ‘ओह मेरी प्यारी निर्मला, मैंने प्रतीज्ञा की थी कि तुम्हारे दुःख-दर्द पर एक बूंद भी आंसू न बहाऊंगी, लेकिन आज जाते-जाते आखिर तुमने मुझे रुला ही दिया.’
‘नहीं भाभी नहीं.’ मझली भाभी के बंधन से मुक्त होकर वह फीकी हंसी-हंसती हुई बोली- ‘रोकर नहीं बल्कि हंसकर अपनी ननद को विदा कीजिए. भाभी स्माईल प्लीज.’ मगर मझली भाभी और भी जोर-जोर से विलाप करती हुई भीतर भाग गयी. श्रीधर काका की सिसकी सुनकर वह उनके सामने आ गयी-
‘काका....’
‘नहीं बिटिया रानी... रोना मत.’ गमछा से अपने आंसू पोंछने लगे श्रीधर काका.
‘काका, अब मैं जा रही हूं, हमेशा-हमेशा के लिए. मम्मी, पापा और राजू का ख्याल रखना. क्या अपनी इस बिटिया रानी को आशीर्वाद न दोगे काका?’
‘सदा खुश रहना बिटिया रानी...’ श्रीधर काका करोटन के झुरमुट में जाकर छुप गये.
अंतिम बार वह मेरे समक्ष खड़ी थी. लगातार बज कर खामोश हो चुके सितार के तार की तरह उसके दोनों ओंठ कांप रहे थे.
‘निर्मला तुम जाओ...’ मेरी आवाज भर्रा गयी. वह जान गयी कि मैं रो पड़ूंगा, इसलिए तेजी से पलटकर रामप्यारी की कलाई थाम ली. जाते-जाते वह अपने थरथराते ओठों से कोठी के दरवाजे को चूमती गयी और जैसे ही पलटकर मेरी ओर देखना चाहा कि बड़ी निर्ममता से मैंने अपनी नजरें फेर लीं.’
निर्मला की कहानी सुनकर मैं चुप हो गया और प्रकाश की ओर देखने लगा. वह आस्तीन से अपने आंसू पोंछते हुए बोला- ‘ओह...शेखर काफी दर्दनाक कहानी है निर्मला की.’ मेरी कलाई पकड़कर वह मुझे उठाने लगा- ‘चलो शेखर हम लोग उसके पास चलते हैं.’
‘नहीं प्रकाश...अब मुझमें इतनी हिम्मत नहीं है कि मैं दुबारा उसके सामने जा सकूं. तुम जाओ, हो सके तो उन लोगों को अच्छी तरह से खातिरदारी करना.’
प्रकाश चला गया. मैं कुछ देर वहां अनमना सा बैठा रहा. फिर उठकर हवेली से बाहर की ओर जाने लगा.
अनायास ही मेरी नजरें बरामदे की ओर चली गयीं. निर्मला एक पाए की ओट में छुपकर मुन्ने को पागलपन की हद तक चूमे जा रही थी. लग रहा था जैसे वह बचपन में रमा दीदी के प्यार को सूद समेट लौटा रही हो.
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