कहानी // आखिरी हंसी // निरंजन धुलेकर : प्राची – जनवरी 2018

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ख टिया पे पसरे सरपंच की नजर अचानक बिरजू की पीठ के एक निशान पे पड़ी, ‘काबे, जे का जला वुला लिए हो, का कहीं का निसान है जे?’ बिरजू,ने झाड़ू रोक ...

टिया पे पसरे सरपंच की नजर अचानक बिरजू की पीठ के एक निशान पे पड़ी, ‘काबे, जे का जला वुला लिए हो, का कहीं का निसान है जे?’

बिरजू,ने झाड़ू रोक कर कहा, ‘जे तो तुलसी पत्ता का निसान है, और जे कालो तिल है मालिक, तिल तुलसी है मालिक।’

सरपंच बोला, ‘जे कब से आ गओ’

तभी बीच में प्रधान जी बोले, ‘सरपंच जी जे तो जन्म से होत, बाप से बेटे को भी मिलत, काय तुमाए बाप को है जेई जगह?’

‘ हौ, दद्दा के भी हतो ऐसो ही, जेई जगह पे, हमाए भी है.’ बिरजू ने कहा.

सरपंच ने आंख मारते हुए प्रधान जी को कहा, ‘देख लो परधान जी, गाँव मे जोन जोन मोड़ा के गर्दन पे तिल है, सब तोहार नाम चढ़ा देब।’

प्रधान जी ने अपने गले के तिल पे उंगली रख के कहा, ‘का सरपंच जी, कोउ और मिलो नहीं का, सवेरे से हमाई मट्टी पलीद करने में लगे हो, जो है सो रहने दो ढको छिपो.’

...और एक निहायत वाहियात किस्म की हँसी वहां फैल गई।

बिरजू ने काम खत्म किया और झोंपड़ी में आ गया।

नई नई शादी हुई थी, कजरी इंतजार कर रही थी। आ के उसे सब बताया तो कजरी ने भी उसे वही बात बताई, ‘जे तो ठीक के रहे थे बो लोग, जेई होत है, दद्दा के हतो, तो तुमाए भी है.’

बिरजू ने कहा, ‘और हमाए मोड़ा को...?’

‘धत्त,’ करके कजरी ने घड़ा उठाया और खेत के कुएं से पानी लेने निकल गयी।

आज बिरजू खेत पे जल्दी चला गया था, पानी लगाने. कजरी ने नन्हे को अपने पैरों पे लिटाया और गुनगुने पानी से नहलाने लगी। प्यारा गुलगोथना नन्हे, किलकारियां मारता हाथ पैर हिला रहा था।

गोदमें में पड़े गमछे से नन्हे को लपेट के वो अंदर ले आयी और खटिया पे लिटा कर पर मालिश करने लगी... पीठ पर नन्हे के जन्मजात तिल और तुलसी के निशान को उसने देखा और प्यार से चूम लिया उसे।

इस तिल तुलसी ने ही तो उसको जिता दिया था, उस भयानक लड़ाई में!

...उसकी अस्मिता की लड़ाई, उसकी अपनी लड़ाई...बिरजू के पुरुषार्थ की लड़ाई, और नन्हे की पहचान की लड़ाई .... शिकस्त दी थी, उस क्रूर, बदमाश सरपंच के घिनौने ख्वाबों को! जीत दिलाई इस नन्हे ने!!

शादी हो कर जब से गाँव मे आयी, इस सरपंच की आंखें उसका पीछा करती रहती थीं।

दस साल हो गए थे सरपंच की शादी को, कोई औलाद नहीं हुई थी, दो दो शादियों के बाद भी। गाँव में हवा थी कि इसी में गड़बड़ है।

...आना जाना मुश्किल कर रखा था. सब बिरजू को बताया। वो बेचारा कुछ नहीं कर पा रहा था. पन्द्रह हजार लिए थे कर्जे के सरपंच से, शादी के लिए। बस यही कहता था, ‘तुम ध्यान मत दो उसकी तरफ. सब औरतों को परेशान करता रहता है, खेत अकेली मत जाना।’

तीन बीघा जमीन, चार बकरी और एक भैंस, क्या हो सकता था इसमें। जैसे तैसे दो जून की रोटी, कभी दिन में भूखे तो कभी रात में...

...रात, वो रात उसे भूलती नहीं! वो खेत गई थी, एक दो औरतें भी साथ... ये सरपंच पता नहीं कहाँ से सामने आ खड़ा हुआ और पिस्तौल से फायर कर दी. बाकी औरतें भाग गईं और... कजरी को उसने पकड़ लिया!

उस रात जो भी हुआ... घिन आने लगी थी उसे खुद से!

घर आ कर बिरजू को बताया तो वो चिल्लाते हुए ,सरपंच के घर की तरफ भागा, पर सरपंच और उसके गुंडों ने उसे बेदम होने तक मारा। गाँव में बात फैला दी कि कजरी पर वारदात कोई और अनजान अंधेरे में कर गया. सरपंच ने तो समय पे पहुंच कर पिस्तौल चला के उसे भगाया और कजरी को कत्ल होने से बचाया था।

पुलिस आयी, सरपंच के यहां दारू मुर्गा खा के चली गई, ऊपर से कजरी बिरजू को ही धमका गई कि झूठी खबर या रपट लिखवाने की हिम्मत की तो गाँव में रहना मुश्किल हो जाएगा।

दोनों बेचारे घर में ही दुबक गए। कुछ दिनों तक शांति रही। पर उसके बाद... कजरी की उल्टियों, उबकाइयों ने पूरे गाँव में सनसनी फैला दी थी। वो माँ बनने वाली थी!

फिर तो सरपंच के यहां से दूध, मिठाई, पिस्ता, बादाम, काजू के डिब्बे आने लगे, फलों से भरे टोकरे भी!

वो रोज आता और ये सब उसकी झोपड़ी के आगे रखता और चिल्ला के बोलता, ‘ओये बिरजू, घरवाली को खिलाते पिलाते रहियो, बच्चे को परेशानी नही होनी चाहिए पेट में, कुछ जरूरत हो तो मांग लेना, रात बेरात कोई आगे पीछे मत देखना, बच्चा तंदुरुस्त होना चाहिए , कछु करियो मत कोख को, वर्ना हेई गाड़ देब?’

...कजरी गुस्से में उबल पड़ती, सब भैंस को खिला देती या फेंक देती. उसका गुस्सा आसमान देखता था. हे भगवान, गरीबी किसी को न दे ।

...समय आ गया, बिरजू ने दाई बुलवा ली। आस पड़ोस की औरतें भी आ गई थीं। लड़का हुआ था।

पर कजरी को होश ही नहीं था, कमजोरी की वजह से वो बेहोश सी पड़ी थी।

खबर सरपंच को भी लग चुकी थी।

अगले दिन उसने पूरे गाँव को चूल्हे से न्योता दिया था। गाँव मे आतिशबाजी, ढोल नगाड़े बज रहे थे. उसके गुर्गे खूब दारू पी के हुड़दंग कर रहे थे।

आज तो झोंपड़े के आगे फलों, मेवों की टोकरियों का ढेर लगा था। कल माता पूजने जाने की बात बोल गया था वो।

काफी समय बाद कजरी ने नवजात नन्हे को पहली बार गोद में लिया तो उसके शरीर पर कांटे चुभने लगे, छि ये उस पापी का पाप! उसने पहली बार नन्हे को ठीक से देखा, अलट पलट कर!

...और उसकी निगाह नन्हे की पीठ पर पड़ी.

उसकी आंखें चमक उठीं, खुशी के मारे नन्हे को सीने से लगा लिया और चूमने लगी। पता नहीं कहाँ से उसमें ताकत आ गई और आंखों में विचित्र से भाव!

बिरजू तो सरपंच के घर पर ही लगा था काम में, घर कब आएगा पता नहीं. कजरी के पास बैठी औरतों ने, सरपंच क्या कर रहा था, सब बताया।

कजरी सिर्फ इतना बोली, ‘आने दो चाची, आज मेरा बिरजू और इस नन्हे का दिन है.’ चाची ने अजीब सी नजरों से उसे देखा ।

...बाजे गाजे के साथ सरपंच आ रहा था. कुटिल मुस्कान के साथ अंदर आ गया, साथ में बिरजू भी था और पीछे प्रधान जी और दस बारह आदमी। आस पास की औरतें, सब घूंघट निकाल के दूर खड़ी हो गयीं।

बैनामे के दस्तावेज बिरजू के हाथ में देते हुए सरपंच बोला, ‘वाह वाह, इसे कहते हैं सरपंची औलाद! का हो कजरी, तुम ठीक ठाक तो हो, 5 बीघा जमीन बिरजू के नाम करवा दी आज तहसील में. कोई छू नहीं सकता जमीन को, छुटवा का ख्याल रखियो, कौनो और जरूरत हो तो मैं हूँ, चिंता मत कर।’

कजरी खटिया से उठ के बैठी और ठीक सरपंच के सामने थूक दिया उसने।

नन्हे की पीठ सरपंच के सामने कर के जोर से बोली...‘देखो सरपंच ई तिल तुलसी देखो, जे हमाओ बिरजू को अपनो बच्चा है, तुम जाओ पूजो माता, मेहरारू को भी ले जा साथ, निकल जा बदजात.’

...सरपंच चौंक गया, झुक कर गौर से नन्हे की पीठ को देखा और... उसका चेहरा एकदम काला पड़ गया, पसीने से कनपटी गीली, आंखें लाल हो गईं, गर्दन झुक गई वो... ‘ई नई हो सकत, ई नई हो सकत...’ कहते हुए झोंपड़ी से बाहर निकल गया.

गालियां बकते हुए उसने ढोल नगाडा बन्द करवाया और फल मेवा की टोकरियों को पैरों से ठोकर मार के उड़ा दिया और तेजी से मोटरसाइकिल पे बैठ के चला गया। उसके साथ आयी बारात भी पीछे पीछे भागी।

औरतों को कुछ समझ नहीं आया था कि हुआ क्या था। वो सकपका कर कजरी, नन्हे और बिरजू को देख रही थीं।

बिरजू नन्हे को पहली बार देख रहा था, उसकी आँखों में अजीब सा तेज आ गया. उसने सब के सामने कजरी और नन्हे दोनों को बाहों में भर लिया।

तीनो रो रहे थे.

...‘अरे का हुआ, कहाँ खो गई, हम आ गए, अब बाप बेटा खेलेंगे और फिर रोटी भी खाएंगे.’ बिरजू आ गया था.

कजरी एकदम से चौंक के जागी, ‘दोनों खेलो, खाना अभहिं लात हैं.’

तीनों की हंसी से पूरी झोपड़ी गूंज उठी।

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संपर्क : 54, टोरिया नरसिंह राव,

झाँसी (उत्तर प्रदेश)

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रचनाकार: कहानी // आखिरी हंसी // निरंजन धुलेकर : प्राची – जनवरी 2018
कहानी // आखिरी हंसी // निरंजन धुलेकर : प्राची – जनवरी 2018
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