स ब लोग यह अच्छी तरह जानते और मानते हैं कि अनुभव से समृद्ध वृद्ध समाज के प्रति मान-सम्मान की मान्यताएं लुप्तप्राय अथवा समाप्तप्राय हो रही है...
सब लोग यह अच्छी तरह जानते और मानते हैं कि अनुभव से समृद्ध वृद्ध समाज के प्रति मान-सम्मान की मान्यताएं लुप्तप्राय अथवा समाप्तप्राय हो रही हैं. इसके बाद भी अंतराष्ट्रीय वृद्ध दिवस हम मनाते एवं यह जताते हैं कि मात्र एक दिन भी बरगदों के महत्त्व को हाई लाइट करना अपने आप में बहुत है. हम सांपों को साल भर मारते हैं लेकिन नागपंचमी को उनकी पूजा करते हैं, यह क्या कम है. हम हर रोज हिन्दी की चिंदी-चिंदी करते हैं, मगर हिंदी दिवस पर जमकर उसका गुणगान या बखान करते हैं. मुखौटा कल्चर का ध्यान रखते हैं.
मौसमी और सामयिक दृष्टि से औपचारिकता के बम्पर प्रदर्शन में हम सौ टंच रहते हैं. इसीलिए भले ही उन्हें हमेशा सताया जाता है पर वृद्ध दिवस के उपलक्ष में उनको धरती के साक्षात् देवी-देवता बताया जाता है. अतः वांटेड का अनवांटेड हो जाना आधुनिकता की मानसिकता का ही प्रतीक है. नक्कारा भी एक दिन नाकारा हो जाता है. खूबसूरत आम से बदसूरत गुठली होना सनातन नियति है. इस सोच से संतुष्टि की पुष्टि हो जाती है कि जो होता है वह अच्छे के लिए होता है. यदि माडर्न श्रवणकुमार अपने वृद्ध माता-पिता को रोज-रोज का बोझ मानकर उन्हें तंग करते हैं तो उनके लिए सहन शक्ति की इसे ट्रेनिंग कहना चाहिए. इसका आशय यह है कि वृद्ध महानुभावों को यह समझना ही चाहिए कि जो सहता है, वही रहता है.
वृद्धावस्था के अनुसार व्यवस्था जरूरी है, लेकिन मजबूरी भी तो कोई चीज है. बेटे-बहुओं का प्रत्येक चांस यह रिस्पांस पर्याप्त है कि वो टाइम. बीवी के रिमोट से चलने वाला बेचारा पति घर के वृद्ध प्राणियों की सेवा का दुस्साहस भला कैसे कर सकता है!
उम्र का तकाजा बजा देता है अच्छे-अच्छे का बाजा! चढ़ाव के बाद उतार के दिन आते हैं. झाड़ के सूखने पर परिंदे भी अपने डेरे और बसेरे छोड़कर अन्यत्र उड़ जाते हैं. अतः बुढ़ापे को जीवन का सबसे बड़ा सच मानकर तसल्ली के लिए गुड़ की जलेबियों का जायका लेना चाहिए. जवानी सार को नहीं केवल संसार को जीती है, जबकि वृद्धावस्था सार अर्थात आध्यात्म को जीती है. ज्यादा पकी जवानी पपीते से भी ज्यादा पके बुढ़ापे की बराबरी नहीं कर सकती है. यौवन आता है फिर चला जाता है, मगर बुढ़ापा परमानेंट रहता है. जब यह जाता है तब लेकर ही जाता है.
धन्य हैं वे वृद्ध लोग जो जीकर भी मरते रहते हैं और मर-मरकर जीते रहते हैं. वृद्धावस्था को जीवन की सबसे बड़ी दुर्घटना मानते हुए भी जिजीविषा से लैस दिखते हैं. उन्हें पता है कि इस संवेदनशून्य युग में रीते लोग गए बीते माने जाते हैं. घर के हेड हेडेक कहलाते हैं, डैडी डैड नजर आते हैं. कुत्ते के जन्मदिन की खुशी हर साल मनाई जाती है, लेकिन इनकी केवल तेरहवीं ही धूमधाम से मनाई जाती है. डाबरमैन पालतू है, फादरमैन फालतू है. एज के इस स्टेज में पूज्यवर वृद्धाश्रम जाने को विवश हैं. जिन्हें वे सकारथ समझते रहे, वे सपूत अकारथ निकल गए. श्रद्धेय जी भरे परिवार में भी बिल्कुल अकेले हैं, पहले केले थे अब करेले हैं. दशा ज्यों-ज्यों बंजर और जर्जर होती जाती है, मुसीबत त्यों-त्यों आंखें दिखाती है. फिर भी जिये जा रहे हैं, खून के आंसू पिये जा रहे हैं. धन्य ऐसे महानुभाव जो तन से लुंज होकर भी मन से तेजपुज हैं. वे डायरेक्ट स्वर्ग जाना चाहते हैं पर मरना नहीं चाहते हैं. इस ढलती और चलती वेला में भी वे ताल ठोंककर संसार के समर में अपनी कमर कसे हुए हैं. जिनसे अपेक्षाएं थीं उनसे अपेक्षाएं झेलना सावन में सूखा झेलना है. पूर्ण आराम की उम्र में सुख सुविधाओं पर विराम. कोई माने या न माने घायल की गति घायल जाने. आज लड़खड़ाने के दिनों में केवल बड़बड़ाने के अलावा और क्या है! अगर सम्पत्ति पास में नहीं तो संतति भी विपत्ति से कम नहीं है. अपने तो सपने हो गए. बूढ़े सास-ससुर अवांछित तत्व प्रतीत हो रहे हैं. ऐसी पुत्र-वधुओं की भरमार है. उनके निर्देश पर चलते पोते-पोतियों को दादा-दादी पसंद नहीं है और सहन भी नहीं है. संयुक्त परिवार के संस्कार स्वाहा हो रहे हैं. सद्गति के पहले दुर्गति के शिकार होने के बाद भी अपनी व्यथा की कथा दूसरों को न सुनाने वाले बुजुर्ग धन्य हैं.
"हम अपने माता-पिता के साथ रहते हैं." ऐसा कहने वाले बहुत कम हैं मगर "हमारे माता-पिता हमारे साथ रहते हैं." ऐसा कहने वाले अधिकतम हैं. सम्पन्न घर में विपन्न रहना कितना दुःखद है. अंदर देशी-विदेशी कुत्ते-कुतियों की गुंजाइश है पर डुकरा-डुकरिया की गुंजाइश नहीं है. जिस प्रकार रोड में गड्ढे अच्छे नहीं लगते उसी प्रकार घर में बुड्ढे अच्छे नहीं लगते हैं. अफसोस के साथ मन मसोहकर भरपूर कष्ट में जी रहे वे वृद्धजन धन्य हैं जो बुढ़ाई काल में खुशियों का अकाल भोगकर भी सुपुत्रों को आशीर्वाद देने को उत्सुक रहते हैं. बूढ़ी मां कहती है- "खूब फूलो फलो बेटा."
स्वार्थ और पैसे की दुनिया में सारे रिश्ते-नाते मतलब तक ही सीमित हैं. जिन्हें छाती से लगाया वे छाती के पीपल हो रहे हैं. बीमारी कमजोरी और लाचारी की मारी वृद्धावस्था में लोग रस निकले गन्ने, निचुड़े नीबूं, यूज्ड रिफ्यूज्ड डिस्पोजल, कलई छूटे बर्तन, आउट डेटेड एक्सपायरी वाली दवा और भार स्वरूप समझे जाते हैं फिर भी वे भगवान से यह संवेदनशील अपील करते रहते हैं कि हे प्रभु, हमारे बेटों को सद्बुद्धि प्रदान करो. क्या ये हमारी तरह कभी बूढ़े नहीं होंगे.
ऐसे आत्मसंतोषी बूढ़े सयाने प्राणी भी हैं जो चुप्पी साधे सब कुछ हंसकर सहते हैं और मन ही मन कहते हैं, "तेरे फूलों से भी प्यार, तेरे कांटों से भी प्यार." धन्य हैं ऐसे सहनशक्ति से सम्पन्न व्यक्ति जो लाचारी को जीवन मानकर झुके हैं पर चुके नहीं हैं. उम्रदराज के देर तक रुके रहने का यही रहस्य है- "जो है सो ठीक है, नीक है." वे तो वास्तव में महाधन्य हैं जिनके चिरंजीव प्रतिदिन प्रातः काल अपने मां-बाप के चरण स्पर्श करते हैं. सिर नवाते हैं. पैर दबाते हैं. रघुकुल रीति को अपनाते हैं. दलदल में फंसी गाय जैसे असहाय होकर भी जो यह मानकर चलते है।, "ऐसा तो होना ही था." ऐसे भाग्यवादी भी
धन्य हैं. इस टाइप के पुत्र लोग भी चाहने और सराहने योग्य हैं जो अपने बूढ़ों को बड़ी प्राब्लम मानकर भले ही हलाकान रहते हैं, लेकिन उनको डायरेक्ट "गेट आउट" नहीं कहते हैं.
एडजस्टमेंट ही सेंट-पर्सेंट हल है. जो समझौतावादी नहीं हैं वही आधि-व्याधि से लगातार नारकीय सजा भोगते हैं. इस तरह जो सोचते हैं वे अपने पुराने जमाने का राग कभी नहीं अलापते हैं. उनका मानना है कि जब हाथ पांव नहीं चलते हैं तब केवल मुंह का चलना फजीहत को और अधिक बढ़ाता है. रनिंग कमेंट्री की किसी भी सूरत में जरूरत नहीं है. अगर
मूलधन अर्थात बेटे दूर-दूर हैं तो ब्याज अर्थात अपने पोते-पोतियों से समीपता एवं आत्मीयता से जुड़ाव इस अंतिम पड़ाव में स्वीकार्य होना चाहिए. अपने उत्तराधिकारियों से ज्यादा उम्मीदें पालना स्वयं को धोखे में डालना है. नई पीढ़ी को पुरानी और सयानी पीढ़ी से एलर्जी है. समय की बयार के अनुसार स्वीट एवं शार्ट के स्मार्ट दौर में गुजरे हुए जमाने के आदर्श बघारना अपना पानी उतारना है. कृष्णा-कृष्णा भजने की उम्र में तृष्णा जतने की बहुत आवश्यकता है. शेष दिनों को विशेष बनाने में ही सार है, बाकी सब बेकार है. टेंशन में न रहकर स्वास्थ्य के प्रति अटेंशन ही चिंता से मुक्ति की युक्ति है. परोपकार से सरोकार ही आत्मशांति का आधार है. इस तरह की मानसिकता को प्राथमिकता देने वाले वृद्ध सज्जन प्रशंसनीय भी हैं, वंदनीय भी हैं.
जहां नहीं सामंजस्य वहां नैन, दिन-रैन चैन को तरसते रहते हैं. परिवार का प्यार सपना हो जाता है, कई त्रासद,
विरोधात्मक और हास्यास्पद प्रसंग देखने व सुनने को मिलते हैं. कलेजे के, दूध जैसे फटने की नौबत से यदि न बचा जाए तो बाद में पश्चाताप ही तो होता है. मीन-मेख निकालने और टोंकते रहने के परिणाम "जैसा बोया वैसा काट" की कहावत चरितार्थ करते हैं.
एक दिन मैंने अपने एक सुपरिचित से शिकायती लहजे में पूछा, "आपके पिताजी बहुत तड़पते रहते हैं. उन पर आप कभी भी ध्यान क्यों नहीं देते हैं? पुत्र-धर्म और सेवा-कर्म क्या बिल्कुल भूल बिसर गए? दया भी नहीं आती है?" उस सुपरिचित व्यक्ति ने बड़ा निर्मम उत्तर दिया- "उनकी बीमारी में जितने पैसे लगाने की गुंजाइश थी, लगा दिया. अब उनकी चाह व परवाह के लिए हमारे पास जरा भी फुरसत नहीं है. पिताजी की उम्र भगवान का भजन करने की है, इसलिए उन्हें भगवान भरोसे छोड़ दिया है."
वे वृद्ध महानुभाव धन्यवाद के पात्र हैं जो अपने जीते जी अपनों के बूंद भर प्यार तक के मोहताज रहे मगर मरणोपरान्त जान से भी प्यारे कहलाते हैं. खूब रोने के प्रदर्शन के बाद पिताजी का सिर गोद में रखकर फोटो खिंचवाते हैं. नारकीय कष्ट भोगकर भी स्वर्गीय माने जाते हैं. वे वृद्ध पिताश्री भी धन्य हैं जिनके चिरंजीव उनके पांव नहीं दबाते हैं तो गला भी तो नहीं दबाते हैं. एलोपैथी और होम्योपैथी से बढ़कर वह सम्पैथी क्या कम है.
बुढ़ापे में मति की गति मंद हो जाती है. मशीन कमजोर हो जाती है. बिना लाठी के सहारे पैर नहीं चलते हैं, हाथ मात्र हिलते हैं, पर मुंह तो चक्की की तरह चलता ही रहता है. इस प्रवृत्ति से निवृत्ति संभव नहीं है. वे धन्य हैं, जो ऐसी शक्ति से वार्म रहते हैं. ड्रीम एज के बाद मिली यह क्रीम एज है. इसी में पता चलता है कि कोई किसी का नहीं होता.
उन वृद्ध महानुभावों को धन्यवाद जो नाना प्रकार के क्लेश और ठेस सहकर भी मौन व्रत का पालन करते हैं.
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सम्पर्कः उमरियापान,
जिला- कटनी-483332 (म.प्र.)
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