खा नदान का चिराग और बुढ़ापे का सहारा इन दो जुमलों को गर्व से उछालने में भारतीय अभिभावक सिद्धहस्त हैं. किन्तु वर्तमान परिवेश में यही दो जुमले ...
खानदान का चिराग और बुढ़ापे का सहारा इन दो जुमलों को गर्व से उछालने में भारतीय अभिभावक सिद्धहस्त हैं. किन्तु वर्तमान परिवेश में यही दो जुमले उनके जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी बन चुके हैं. बमुश्किल प्रतिशत संतानें ऐसी हो सकती हैं जो उनके बुढ़ापे का सहारा बनें अथवा कुल का नाम रोशन करें. किन्तु इसी तृष्णा के चलते वे पुत्ररत्न की प्राप्ति के लिये न जाने कितने पापड़ बेलते हैं. पहली पत्नी से संतान न हुई अथवा कन्या जन्म हुआ तो मुंह सिकोड़ लेते हैं. ये सिलसिला जारी रहा तो बहू को प्रताड़ित कर घर से निकालने एवं पुत्र की दूसरी शादी करने में तनिक भी कोताही नहीं करते. संतान न होने की स्थिति में तो सारा दोष बहू के मत्थे मढ़ने का तो चलन ही बन गया है.
जबकि सभी जानते हैं कि संतान उत्पन्न करने में पति-पत्नी के शुक्राणुओं एवं अंडाणुओं के शक्तिशाली होने के साथ-साथ अनुकूल परिस्थितियाँ भी जिम्मेदार हैं. फिर भी बहू की कमी मानकर उसी का चेकअप कराते रहते हैं. पुत्र के चेक-अप की बात तो इने गिने अभिभावक ही सोचते हैं. बहू के खान-पान एवं स्वास्थ्य पर ध्यान न देने के बावजूद भी अपेक्षा की जाती है कि वह नियत समय पर परिवार की वृद्धि का सबब बने. मानों वह बहू न होकर संतान ढालने की मशीन हो? और असफलता का अर्थ है, साँचे का दोषपूर्ण होना. इस अभाव के लिये न केवल बहू को ताने सुनने पड़ते हैं, बल्कि उसके मायके वालों को भी जी भर कर कोसा जाता है.
इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि आज अधिकांश युवा भिन्न-भिन्न प्रकार के नशे का सेवन करने के आदी हो चुके हैं एवं किशोर भी अछूते नहीं हैं. इन हालातों में शुक्राणुओं की कमी अथवा शक्तिहीनता आम बात है. पर अपने अंधे पुत्र का नाम भी ‘नयनसुख दास’ रखने की मानसिकता वाले अभिभावक पुत्र पर लगने वाली तोहमत को बर्दाश्त नहीं कर पाते. और बलि का बकरा बनायी जाती हैं, नई-नवेली निर्दोष बहुयें.
यह इंसान की स्वार्थी और भेदभावपूर्ण मानसिकता का ज्वलंत उदाहरण है. इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि इसके मूल में वंश का नाम चलने और बुढ़ापे का सहारा मिलने की ललक ही विद्यमान है.
अब दृष्टि डालते हैं वरिष्ठ नागरिकों की वर्तमान दशा पर. खासकर उनपर जो वंश की बढ़ोत्तरी और बुढ़ापे की लाठी के लिये लालायित थे. आँकड़े बताते हैं कि इनमें से नब्बे प्रतिशत हताशा के समुद्र में गोते लगा रहे हैं. वृद्धाश्रमों की बढ़ती संख्या और उनमें बढ़ती भीड़ इस बात का प्रमाण है कि सहारा तो दूर उन्हें बड़े अरमान से बनाये गये आशियाने से भी महरूम किया जा रहा है. उनकी खून-पसीने की कमाई भी कुल के तारनहारों की भेंट चढ़ती जा रही है. अब तो पैसों एवं संपत्ति के लिये उन्हें दुनिया से रुखसती देने के मामले भी बढ़ने लगे हैं. धनाभाव से पीड़ित अभिभावकों को आये दिन ये जुमले सुनने ही पड़ते हैं कि खिला नहीं सकते थे तो पैदा ही क्यों किया? गोया पैदा करने वालों के लिये जरूरी है कि वे ताउम्र उनका भार उठाते रहें. भले ही मुफलिसी उनके प्राण ले ले.
माँ-बाप की सेवा और भरण-पोषण की सोच लगभग समाप्त हो रही है. पूत कमाऊ निकला भी तो अपने बीवी बच्चों की सभी इच्छायें पूर्ण करने के बाद माँ-बाप की वहीं इच्छा पूर्ण करता है जो उनके जीने के लिये जरूरी है. बाकी के लिये जुबान और इच्छाओं पर नियंत्रण की तकीद भी कुल के ये तारनहार बेझिझक कर देते हैं. बावजूद इसके पुत्र मोह में कमी दिखलायी नहीं पड़ती. शायद मरने के बाद पुत्र का काँधा मिलने से मुक्ति की मान्यता भी प्रभावी है. बात उठती है कुल का नाम रोशन करने की तो इस आधुनिक युग में गरीब से गरीब व्यक्ति के बेटे भी अमीर बाप के लाडलों की जीवन शैली एवं ऐयाशी से अछूते नहीं रह पाते. ये इच्छायें पूरी करने की सामर्थ उनके अभिभावकों में नहीं होती तो वे जरायम के क्षेत्र में उतर कर इसे पूरा करते हैं. बदनामी अथवा अन्य कारणों से विवाह में बाधायें आने पर व्यभिचार अथवा बलात्कार की राह पकड़ लेते हैं. इससे कुल का कितना नाम रोशन होता है इसे आसानी से समझा जा सकता है? बावजूद इसके ऐसे सपूत दैवयोग से गिरफ्तार कर लिये गये तो उनकी जमानत कराने में भी कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी जाती. भले ही इसके लिये कर्ज लेना पड़े अथवा जर-जमीन गिरवी रखनी पड़े. मां-बाप की उदारता उनका मनोबल बढ़ाने में संजीवनी का काम करती है और वे दुबारा उसी क्षेत्र में उतर जाते हैं. पिछले अनुभवों के चलते वे अधिक सतर्क रह कर पुलिस व प्रशासन की नाक में दम किये रहते हैं. न्याय प्रणाली व मुकदमों के लम्बी चलने की प्रथा उनके मनोबल में वृद्धि करती रहती है. वे निडर होकर हफ्ता वसूली, रंगदारी तथा ठेके पर हत्याओं के अभियान में जुट जाते हैं.
अर्थ की आमद के चलते बहुत से बेरोजगार युवक उनसे जुड़ जाते हैं. पुलिस प्रशासन भले ही इनके सफाये का दावा किया करता है किंतु कटु सत्य है कि इस प्रकार के गैंगों की संख्या निरंतर बढ़ रही है. इसे तब तक नहीं रोका जा सकता जब तक युवाओं में हाई-फाई जीवन शैली का मोह बना रहेगा और जमानत जैसा अभेध कवच उन्हें मिलता रहेगा. जमानत पहली बार मिले तो उसे मानवीय दृष्टिकोण कहा जा सकता है किंतु बार-बार मिलने वाली जमानतों ने कानून व्यवस्था की धज्जियां उड़ा रखी हैं. पुलिस प्रशासन परिवार पालने के लिये ऐसे खतरनाक अभियान से जुड़ते हैं और अपराधी मरने व मारने को जुआ समझ लेते हैं. ऐसा जुआ जिसमें हार की संभावनायें कम हैं एवं उपलब्धियां ज्यादा. हत्या करके जमानत पर छूटने का अर्थ है समाज में दबदबा. गवाहों को चेतावनी देने के लिये ये जुमला ही काफी है कि एक हत्या की सजा फाँसी है तो दूसरी की भी फाँसी हो सकती है पर एक आदमी को दो बार फांसी का कोई अर्थ ही नहीं. अतः गवाही दी तो तुम्हारी जान जाना तय है. मेरी फांसी तो उम्र कैद अर्थात 14 वर्ष की सजा में परिवर्तित हो सकती है. पर तुम्हारा जीवित रहना असंभव है. ऐसे में कोई बिरला ही गवाही देता है.
गैंग दर गैंग अस्तित्व में आ रहे हैं. भ्रष्ट नेताओं के चलते भी अपराधियों के मन से पुलिस का भय समाप्त होता जा रहा है. आये दिन पुलिस वालों पर दिन दहाड़े हमलों की घटनाओं ने इसे सिद्ध भी कर दिया है. कितना पीड़ादायी है कि अदालतों में साठ लाख मुकदमें अभी भी लंबित हैं. न्याय व्यवस्था का इससे बड़ा मखौल और क्या हो सकता है?
वर्तमान में आधी आबादी के दर्द को सभी महसूस करते हैं. भाषणों में नेतागण पूरी सहानुभूति भी दर्शाते हैं. किंतु न तो कानून का पालन ठीक से हो रहा है. ना ही महिलाओं के प्रति सम्मान की भावना ठोस धरातल पर नजर आ रही है. अन्यथा बलात्कारियों को फांसी की मांग पर इतनी हीलाहवाली नहीं की जाती. पश्चात्य संस्कृति में तो स्त्री को मुख्य रूप से भोग्या ही माना गया है और इसके प्रसार के साथ ही स्त्रियों के नग्न विज्ञापन और सेक्स स्कैंडल की बाढ़ सी आ गयी है. सम्मान और श्रद्धा की बात करें तो बात-बात पर माँ-बहन की गालियां आम बात हो गयी हैं. शब्दों से भावनाओं को बल मिलता है. अतः सार्थक प्रयास तो ये होगा कि सबसे पहले इस अभद्रता पर पूरी तरह रोग लगे तथा रंगेहाथ पकड़े गये कुकर्मियों को खुलेआम फांसी दे दी जाय. क्योंकि शील गंवा चुकी अबला हर पल मौत की जिंदगी जीती है. वह जिंदा लाश बनकर रह जाती है.
भला इससे बड़ा अपराध क्या हो सकता है? भारतीय संस्कृति में नारी को जनक, पालनहार, विद्यादायिनी, रक्षिका एवं संहारकारिणी माना गया है. नौरात्रि में नौदुर्गा के विभिन्न रूपों की पूजा इसी संस्कृति का प्रभाव है. किंतु पीड़ा इसी बात की है कि इसका प्रभाव मात्र नौ दिनी ही क्यों है? हम इस सत्य को स्वीकार कर लें तो हमारी जीवन धारा ही बदल जायेगी. अभी भी देश के इने गिने प्रांत इस भावना के उदाहरण हैं. वहां मातृसत्ता कायम है. वंश को माता के नाम से जाना जाता है. महिलाओं का शासन लागू रहने से अपराध दर नगण्य है.
ये सच है कि लंबे समय से चली आ रही मानसिकता में बदलाव आसान नहीं. किन्तु पुत्र मोह के चलते अभिभावकों की हो रही दुर्दशा, सुनने व भोगने के बावजूद भी पुत्रमोह क्यों कायम है? जबकि हालातों ने सिद्ध कर दिया है कि पुत्री मां-बाप के लिये निस्वार्थ भाव से समपित रहती है. ससुराल की होने के बावजूद माता-पिता की यथासंभव सहायता करती ही रहती है. दो-चार विपरीत उदाहरणों से इस सत्य को झुठलाया नहीं जा सकता. फिर शिक्षा के इस दौर में बालिकायें बालकों से निरंतर बढ़त बनाये हुए हैं.
नौकरी, व्यवसाय, भारी उद्यम, शासन व प्रशासन में भी अपनी धाक जमा रही हैं. देश की प्रधानमंत्री, रक्षामंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, मुख्यमंत्री, राज्यपाल, डी.एम. व एस.पी. बन रही हैं. फिर उनसे दुराव क्यूँ? दहेज हत्याओं से मुक्ति का एक फॉर्मूला पाठकों के विचारार्थ प्रस्तुत कर रहा हूं. क्या ये असंभव है कि लड़कियां लड़कों को ब्याहकर अपने घर ले जायें और वंश का नाम माता के नाम से चले? इतना जरूर है कि पुरुषत्व का अभिमान छोड़कर अगर हम मानवीय दृष्टि से विचार करें तो इस प्रकार के अनेक सामाजिक सुरक्षा और शांति का सबब बन सकते हैं. देश में चल रहे भिन्न-भिन्न महिला संगठन यदि इस सुझाव पर गहराई से चिंतन-मनन करके जोरदार प्रयास करें तो ऐसे कई मार्ग निकल आयेंगे जिससे न तो उन्हें प्रताड़ना का शिकार होना पड़ेगा और न ही बलात्कार का.
देशहित के तमाम चिंतकों को भी मातृसत्ता के फार्मूले पर गहन दृष्टि डालकर दिशा में कदम उठाने होंगे. इससे लैंगिक भेद-भाव समाप्त करने में काफी हद तक सफलता मिलेगी, इसमें संदेह नहीं.
संपर्क : 4/21 लालघाट,
वाराणी-221001 (उ.प्र.)
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