समीक्षा // सरल व पठनीय कहानियाँ // राजेन्द्र कुमार : प्राची – जनवरी 2018

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क थाकार बृज मोहन का ‘खिड़की’ के बाद एक वर्ष के भीतर दूसरा कहानी-संग्रह प्रकाशित हुआ है- ‘मोपेड वाली लड़की’, जिसमें 11 कहानियाँ हैं। इनके ठीक प...

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थाकार बृज मोहन का ‘खिड़की’ के बाद एक वर्ष के भीतर दूसरा कहानी-संग्रह प्रकाशित हुआ है- ‘मोपेड वाली लड़की’, जिसमें 11 कहानियाँ हैं। इनके ठीक पहले उपन्यास ‘नौ मुलाकातें’ आया था, जिसकी खबर तो यह है कि मराठी में अनूदित होकर बिक्री के लिए ऑनलाइन उपलब्ध है।

कथाकार की अन्य कहानियों की तरह ‘मोपेड वाली लड़की’ की कहानियाँ भी विषय की विविधिता लिए सरल व पठनीय हैं। मानवीय सम्बन्धों के साथ सामाजिक चेतना इन कहानियों में दृष्टिगोचर है। ‘मोपेड वाली लड़की’ की जूली हो, ‘सौगात’ की राजरानी, ‘नीची निगाह’ की तेजकुमारी या ‘संक्रमण’ की तन्वंगी, इन सभी नारी पात्रों के विजन स्पष्ट हैं, जो कि सामाजिक परिवर्तन के प्रतीक हैं।

अद्भुत आकर्षक व्यक्तित्व की जूली, राँची से एक छोटे शहर में सेण्ट्रल स्कूल की शिक्षिका होकर नई-नई आई है, जो नकचढ़ी रिटायर्ड पिंसिपल मार्था की पेइंगगेस्ट है। उसे लेकर पूरी क्रिश्चियन कॉलोनी के लोगों में अजीब सी जिज्ञासा है और चिन्ता भी कि मार्था के यहाँ तो कोई टिक नहीं पाता, इस बेचारी का क्या होगा! वह आवास व आने-जाने की समस्या से जूझ रही है। कुछ ऐसा घटता है कि वह एक मकान में खड़ी पुरानी मोपेड को देखकर लालच में पड़ जाती है और उस घर के लोग उसे देखकर ठगे से रह जाते हैं। नाटकीय ढंग से ऐसा कुछ घटता है कि सबकी लालसाएँ पूरी हो जाती हैं। ईसाई परिवेश की रोचक कहानी ‘मोपेड वाली लड़की’ है, जो बड़े कौछाल से प्रस्तुत की गई है।

‘सौगात’ की राजरानी परिवारिक सूनेपन को दूर करने को अपनी सौतन खुद ले आती है, जिससे समस्या का समाधान तो होता लगता है, लेकिन सौतिया डाह के बीच उनका पति गनपत पिसने लगता है और परेशान हो उठता है। आसन्न समस्या को सुलझाने का राजरानी रास्ता निकालती है और खुशियाँ लौटती हैं। ग्रामीण-कस्बाई माहौल की इस कहानी में पहली औरत के समपर्ण और प्रेम का अनूठा चित्रण है।

खेल-जगत के ग्रामीण परिवेशों के युवक-युवती टूर्नामेण्टों में आपस में मिलते हैं और अपने कुलनामों को देखकर प्रेम करने लगते हैं। इस बात से आश्वस्त रहते हैं कि जातिगत बाधा उनके विवाह में नहीं आएगी, पर बाधा आ जाती है। सूझ-सलाह से विवाह हो भी जाता है, लेकिन विदाई के समय युवक के पिता की ओर से ऐसी बात उठा दी जाती है कि रंग में भंग पड़ने की आशंका होने लगती है। लड़की का पिता ऐसा निर्णय सुनाता है कि दूल्हे के पिता अपने ही पुत्र से आँखें नहीं मिला पाता। परम्परागत विवाहों की समस्या पर सीख देने वाली कहानी है- ‘नीची निगाह’।

जब-जब चुनाव आते हैं, सरकारी और बैंक कर्मियों को जबरन चुनाव-ड्यूटि करनी पड़ती है। कर्मचारियों की कठिन समस्याओं पर व्यंग्य टोन में लिखी कहानी ‘कर्तव्य निर्वाह’ लम्बी जरूर है, परन्तु चुनाव-ड्यूटि की समस्याओं के अजीब-अजीब रोचक दृश्यों को खड़ा करती है कि पाठक ‘आँखों देखा हाल’ महसूस करता है।

‘चुड़ैल’ एक छोटी सी रहस्य-कथा सी है, जिसमें महरी की एक बात पर पूरा परिवार डर महसूस करने लगता है, जब रहस्य खुलता है तो सब एक-दूसरे का मुँह देखते रह जाते हैं। वहीं ‘पुजापे का सुअर’ यह कह पाने में सफल है कि ग्रामीण भी अब भोले-भाले नहीं रहे, वे भी आस्था और अनुष्ठान के नाम पर भय पैदा करके शहरियों को ठग सकते हैं।

‘मृत्युइच्छा’ दाम्पत्य प्रेम की मार्मिक कथा है। पेंशनयाफ्ता पारसनाथ ऐसी पीड़ादायक बीमारी से ग्रस्त हैं, जिसका इलाज तो है, पर बहुत खर्चीला है। एक समय तक पैसे के दम पर जीते रहे। उनके पास खुद का घर है, थोड़ा-बहुत धन बैंक में भी जमा है, किन्तु पत्नी के भविष्य निर्वाह की चिन्तावश खर्चीला इलाज नहीं करवाते, कष्ट सहते रहते हैं। मन-ही-मन मृत्यु का वरण करना चाहते हैं, पत्नी को भी बताना चाहते हैं, लेकिन साहस नहीं कर पाते और अपनी मृत्यु का इन्तजार करते रहते हैं।

‘एक लम्पट की मौत’ के दयालबाबू, परस्त्रीगमन और शराब के शौकीन हैं। अपने अन्तिम समय में खुद के जाल फँस जाते हैं और प्रायश्चितवश् नेत्रदान और देहदान की उनकी घोषणा से सभी को आश्चर्यचकित करते हैं। किन्तु उनकी अन्तिम इच्छाएँ पूरी नहीं हो पातीं और अज्ञात मृत्यु-संस्कार पाते हैं। कहानी ‘लिखा हुआ सच’ सन्त गुरुओं के जाल-बट्टे को उजागर करती है, जिसके शिकार पढ़े-लिखे और अन्धविश्वासी आसानी से होते हैं। जब लोग बेवकृफ बनने को तैयार हैं तो बनाने वालों की कोई कमी नहीं होती। कुत्ते के माध्यम से कही गई ‘एक कुत्ते के आत्मकथा’ पारिवारिक रोचक कहानी है।

कोई कितना भी अपने को परिष्कृत कर ले, किन्तु जाति को लेकर उसे कहीं न कहीं अपमान सहना पड़ता है, परोक्ष में या प्रत्यक्ष। जातिवाद की सामाजिक विडम्बना को लेकर महीन बुनी हुई दुखद कहानी ‘संक्रमण’ है, जिसमें कोई चीख नहीं, कोई प्रतिकार नहीं, कोई आरोप प्रत्यारोपण नहीं, लेकिन जाति को लेकर सार्वजनिक अपमान की ठण्डी गहरी चोट नायक को भीतर तक आहत कर जाती है। जातिवाद की विद्रूपता का शिकार नायक की सवर्ण पत्नी भी होती है और महसूस करती है कि स्त्री की कोई जाति नहीं होती, जिससे विवाह करती है, उसी जाति की हो जाती है। परिस्थितिवश उसे रोना आ जाता है, जबकि वह बहुराष्ट्रीय कम्पनी में उच्च पद पर कार्यरत है।

संग्रह की सभी कहानियों की भाषा सम्प्रेषणीय है, जो पठनीयता को बनाए रखती है।


समीक्षित कृति : मोपेड वाली लड़की (कहानी-संग्रह)

कथाकार : बृज मोहन

प्रकाशक : हर्ष पब्लिकेशन्स, 1/10753, द्वितीय तल, सुभाष पार्क, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032

मूल्य : 295/- पृष्ठ संख्या : 112

समीक्षक सम्पर्क : 282, राजीव नगर, महावीरन,

नगरा, झाँसी- 284003 (उ.प्र.)

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रचनाकार: समीक्षा // सरल व पठनीय कहानियाँ // राजेन्द्र कुमार : प्राची – जनवरी 2018
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