स माचार पत्र, पत्रिकायें एवं समाचार मीडिया किसी भी राष्ट्र एवं समाज की रीढ़ कहे जाते हैं. राष्ट्र, समाज, भाषा एवं संस्कृति के उन्नयन में इनकी...
समाचार पत्र, पत्रिकायें एवं समाचार मीडिया किसी भी राष्ट्र एवं समाज की रीढ़ कहे जाते हैं. राष्ट्र, समाज, भाषा एवं संस्कृति के उन्नयन में इनकी अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका होती है. शुद्ध भाषा की स्थापना एवं प्रचार प्रसार में भी इन्हीं का महान हाथ होता है. सरस्वती जैसी पत्रिका की भूमिका ही है कि आज हमारे देश में हिन्दी भाषा अपने सजे संवरे एवं विशुद्ध रूप में विराजमान है. देश के अनेक प्रदेशों की मातृभाषा एवं शिक्षा का माध्यम हिन्दी ही है. देश के अन्य सभी प्रदेशों में उसे सम्मान प्राप्त है एवं उसको समझने एवं बोलने वाले लोग हैं. उसके इस स्वरूप को देखकर ही हमारे देश के विद्वान मनीषियों एवं संविधान निर्माताओं ने भारतीय संविधान में उसे सम्मानित स्थान देते हुये राजभाषा के महानतम पद पर अधिष्ठित किया. पन्द्रह वर्षों तक अंग्रेजी भाषा को सहभाषा का स्थान देते हुए पन्द्रह वर्षों के उपरान्त पूरी तरह से हिन्दी भाषा में समस्त राजकार्य किये जाने का संकल्प लिया गया.
आश्चर्य एवं दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि संविधान निर्मित होने एवं प्रभावशील होने की तिथि से लेकर आज पर्यन्त वह संकल्प पूर्ण न हो सका. अंग्रेजी का वर्चस्व आज भी यथावत है. हिन्दी बेचारी कराह रही है. किंतु भारत की कुछ अति सशक्त साहित्यिक संस्थायें प्राण प्रण से हिन्दी के उन्नयन एवं प्रसार प्रचार में पूरी तरह समर्पित हैं. जिसमें हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग, इसके प्रधानमंत्री स्मृतिशेष माननीय श्रीधर शास्त्री, राष्ट्रभाषा स्वाभिमान न्यास, गाजियाबाद एवं इसके संस्थापक श्री उमाशंकर मिश्रा, दक्षिण भारत हिन्दी राष्ट्रभाषा प्रचार समिति कर्नाटक, बैंगलोर, राष्ट्र और राष्ट्रभाषा के महान आराधक, साहित्य मंडल श्री नाथ द्वारा के संस्थापक स्मृतिशेष श्री भगवती प्रसाद देवपुरा एवं राष्ट्र की अन्य समस्त साहित्य संस्थाओं एवं पत्रिकाओं की महती भूमिका है कि आज हिन्दी भाषा, विश्वभाषा बनने की कगार में है. आज विश्व के अनेक देश अपने विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में हिन्दी भाषा को स्थान देकर गौरव का अनुभव कर रहे हैं. संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी भाषा को स्थान दिलाये जाने के प्रयत्न किये जा रहे हैं. हिन्दी एवं हिन्दीतर अनेक विद्वान लेखकों द्वारा निरंतर नये-नये श्रेष्ठ ग्रन्थ लिखे जा रहे हैं. हिन्दी की प्रायः सभी साहित्यिक संस्थायें समय-समय पर अनेक श्रेष्ठ एवं आकर्षक कार्यक्रमों का आयोजन कर नैरन्तर्य एवं जीवन्तता बनाये हुये हैं. हिन्दी के उन्नयन एवं प्रचार प्रसार की भूमिका में इन सभी संस्थाओं की जितनी भी प्रशंसा की जाये, वह कम ही है.
भारत के सभी प्रदेशों से आज हजारों की संख्या में मासिक, द्वैमासिक एवं त्रैमासिक हिन्दी पत्रिकाओं का प्रकाशन एवं पाठकों की ओर संप्रेषण किया जा रहा है.
अत्यन्त प्रसन्नता के साथ यह बात कहनी पड़ रही है कि सभी पत्रिकाओं में चाहे वे जिस प्रदेश से प्रकाशित हो रही हों, उनमें विशुद्ध हिन्दी भाषा की ओर पूर्ण ध्यान रखा जाता है. यह अलग बात है कि उनके लिये हिन्दी शब्द न हों, तभी अंग्रेजी भाषा के शब्दों का प्रयोग किया जाता है. अतः इन पत्रिकाओं के सभी सम्पादकगण निश्चित ही कोटिशः धन्यवाद के पात्र हैं.
इधर मैं बात कर रहा था दैनिक समाचार पत्रों एवं उनकी भाषा हिन्दी की. ये समाचार पत्र देश के चाहे जिस कोने से भी प्रकाशित होते हों, इनको पढ़ते समय लज्जा से सिर झुक जाता है. इनको पढ़ते समय ऐसा आभास होने लगता है कि संभवतः ये हिन्दी के पाठकों के लिये प्रकाशित नहीं किये जाते. मैं यह भी नहीं कह पाता कि ये अंग्रेजी के पाठकों के लिये प्रकाशित किये जाते हैं, क्योंकि यदि ऐसा होता तो ये पूरी तरह विशुद्ध अंग्रेजी में ही प्रकाशित होते.
इनको पढ़कर यह समझ में ही नहीं आता है कि आखिर ये समाचार पत्र किस भाषा के पाठकों के लिये प्रकाशित किये जाते हैं. इनमें आधी अंग्रेजी और आधी हिन्दी के शब्दों को पढ़कर सिर में एकदम दर्द होने लगता है. अनेक हिन्दी के पाठकों की समझ में इनमें प्रयुक्त अंग्रेजी भाषा के शब्दों का अर्थ ही नहीं आता है. तब ऐसे समाचार पत्रों का एकदम बहिष्कार करने का मन होता है. यदि ये हिन्दी के पाठकों के लिये प्रकाशित किये जाते हैं तो उनमें विशुद्ध हिन्दी भाषा के शब्दों का ही प्रयोग किया जाना चाहिये. खिचड़ी भाषा का प्रयोग करके अनावश्यक रूप से हिन्दी भाषा के स्वरूप को विकृत करने का इन्हें कोई अधिकार नहीं है. यदि ये अंग्रेजी भाषा के पक्षपाती हैं तो अपने दैनिक पत्रों को अंग्रेजी भाषा में ही प्रकाशित करने का कष्ट करें. उन्हें इससे कोई मना नहीं करता. किन्तु हिन्दी के पत्रों को हिन्दी में ही रहने दें.
अनेक बार यह देखा जाता है कि जिन भावों को व्यक्त करने के लिये हिन्दी भाषा में पर्याप्त शब्द उपलब्ध हैं. किंतु उनके बदले में वहां पर अंग्रेजी के शब्द टपकाने में ही संभवतः ये अपना गौरव समझते हैं. यह शर्मनाक स्थिति है एवं हिन्दी भाषा के स्वरूप को विकृत करने की सोची समझती साजिश है.
हिन्दी भाषा की जननी संस्कृत भाषा है. हिन्दी का स्वरूप अत्यन्त विशुद्ध, प्रांजल एवं सरल है. हिन्दी के सभी पाठक एवं हिन्दी जानने वाले लोग सरलता से उसे समझ लेते हैं. किन्तु इन समाचार पत्रों की भाषा कितने लोग समझ पाते होंगे. मैं कुछ कह नहीं सकता. मैं स्वयं हिन्दी में स्नातक हूँ। बी.ए. तक अंग्रेजी पढ़ी है. किन्तु समाचार पत्रों को पढ़ते समय मैं अपना माथा ठोककर रह जाता हूं. आधे से अधिक समाचार एवं शीर्षक मेरी समझ में ही नहीं आ पाते.
मुझे आश्चर्य होता है कि आखिर ऐसा क्यों किया जा रहा है. जब कभी इन समाचार पत्रों को खरीदना बंद करने की इच्छा होती हैं.
मेरा इन दैनिक समाचार पत्रों के प्रबंधकों, स्वामियों एवं सम्पादकों से विनम्र अनुरोध है कि इस नीति का परित्याग किया जाये. हिन्दी भाषा के समाचार हिन्दी में ही बने रहें. हिन्दी भाषा हिन्दी ही बनी रहे. उसके विकास में यदि ये सहयोग नहीं कर सकते हैं, तब भी इनसे कोई शिकायत नहीं. किन्तु हिन्दी भाषा के स्वरूप को ये कदापि विकृत न करें. इससे अत्यन्त पीड़ा होती है. मैं इन सभी से क्षमा याचना करते हुये पुनः अनुकूल सहयोग का आग्रहपूर्ण निवेदन करता हूं.
संपर्क : पुराना कछपुरा स्कूल
गढ़ा, जबलपुर-482003 (म.प्र.)
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