भाष्यालोचन की अगली कड़ी - ‘अँधेरे में’ कविता के प्रथम खंड में मशालों की ज्योति बुझ जाने से कवि का चेतनाहीन होकर गिर पड़ना आलोचक के सामने ...
‘अँधेरे में’ कविता के प्रथम खंड में मशालों की ज्योति बुझ जाने से कवि का चेतनाहीन होकर गिर पड़ना आलोचक के सामने सवाल खड़े करता है, ऐसा क्यों? मशालों की ज्योति जबतक दिखती रही वह अच्छा भला रहा. पर ज्योति के बुझते ही वह अवसन्न पड़ गया. क्या कवि रुग्णावस्था में था, या उसके मस्तिष्क की कोई नाड़ी किसी व्यतिरेक में थी? मैंने जितनी ही आलोचनाएँ पढ़ीं, किसी में भी आलोचकों को इस बिंदु पर विचार करते नहीं पाया. मार्क्सवादी आलोचक रामविलास शर्मा भी इस बिंदु पर तो अपना विचार नहीं देते पर सामान्य तौर पर कवि की चेतना के किसी विशिष्ट स्थिति में होने का संकेत अवश्य देते हैं. वह संकेत कवि के विभाजित व्यक्तित्व और उसकी रुग्णावस्था की ओर है.
यदि कविता में एक काव्य-नायक की योजना की गई है, तो कवि को काव्य-नायक की चेतनागत स्थिति का कुछ संकेत देना चाहिए था. कवि कविता में मात्र इतना ही कहता है कि उसे लगातार किसी के चलने की आवाज सुनाई देती है. इस तरह की आवाज का सुनाई देना भी एक मनोवैज्ञानिक समस्या हो सकती है. मशाल की ज्योति को देख कर वह सामान्य ही रहता है. पर ज्योति के एकाएक बुझ जाने पर उसका यह सोचना कि ज्योति को बुझाकर व अँधेरा पैदा कर किसी ने उसे जैसे मौत की सजा दे दी हो, उलझन में डाल देता है, उसका संज्ञाहीन होकर गिर पड़ना खटकता है. यदि कवि का अर्थ आँखों के सामने अँधेरा छा जाने से होता (जैसा कि इस स्थिति में होता है) तो वह कुछ क्षण की ही स्थिति होती. ऐसे में वह लड़खड़ा सकता था, संज्ञाहीन होकर गिर नहीं पड़ता. इस समय काव्य-नायक कुछ काल तक संज्ञाहीन रहता है. चित्रण भी कुछ इस तरह का है जैसे काव्य-नायक बहुत कमजोर रहा हो, मानसिक आवेग को झेल पाने में समर्थ न हो. ऐसा काव्य-नायक किसी संघर्ष में कितनी दूर तक चल पाएगा?
कविता की वर्ण्य-स्थिति यह है कि कवि अपने जीवन के उसी कमरे में चेतनाहीन होकर गिरा, जिसमें उसे लग रहा था कि कोई अनायास चक्कर लगा रहा है, या कहें उसकी चेतना उसके जिस व्यक्तित्व-खंड में थी, वह खंड थोड़ी देर के लिए संज्ञाशून्य हो गया. कहीं वह ज्योति-तुल्य पूँजी (जो जीवन का आधार तत्व है) के मार्क्सवादी विलोम में तो फँस कर नहीं रह गया, जिसने कवि को तनावों से भर दिया और कवि उस तनावों को झेल नहीं सका!
सूनापन..................................................................................................................दुःसह
कविता के इस दूसरे खंड में कवि चेतना में आने लगा है. वह अनुभव करता है कि कुछ क्षणोंपरांत सूनापन सिहरा याने उसमें उसका जीवन सुगबुगाया, उसने करवटें लीं. उसे अहसास हुआ कि अँधेरे में ध्वनियों के बुलबुले उभर उठे, अर्थात झिंगुरादि जीवों की ध्वनियाँ सुनाई देने लगीं (संज्ञाहीनता समाप्त होने लगी). उसे लगा जैसे शून्य अर्थात जहाँ कुछ नहीं है उस सूनेपन के मुख पर स्वरलहरियों की सिकुड़नें पड़ने लगीं. उसके (कवि के) मुख से पीड़ा हरने वाली कुछ ऐसी ध्वनियाँ निकलने लगीं जो उसके हृदय में संवेदना जगाने लगी मानो उसके ही हृदय पर अपना सिर धँसा रही हों और उनके शब्दों की लहरें छटपटा रही हों (पीड़ा के आलोड़न में स्फुट ध्वनियाँ निकल रही हों) जो दुःसह होने पर भी उसे मीठी-सी लग रही थीं..
अरे हाँ.....................................................................................................बिजली के झटके
इस दुःसह, पर मीठे अहसास वाली पीड़ा के क्षण में उसे कुछ बजता सुनाई देता है. जब वह ध्यान टिकाता है तो वह दंग रह जाता है, अरे! यह तो उसके द्वार पर लगी साँकल है जो रह रह कर बज उठती है. साँकल के बजने की रीति से वह सोचता है कि वह कोई ऐसा व्यक्ति है जो उसी की बात बताने के लिए उसे बुला रहा है. कवि को, द्वार पर साँकल इसतरह रह रह कर बजती लगती है, जैसे किसी जटिल प्रसंग में कोई, किसी सच्ची बात को उनसे सीधे सीधे कहने को तड़प जाए और हृदय को सहलाकर सहसा होठों पर होठ (यहाँ ओठ की जगह होठ का प्रयोग है जो चलताऊ संगीत में चलता है) रख दे, और फिर वही बात सुनकर उसका (कवि का) जी धँस जाए अर्थात धक कर के रह जाए. कवि जिज्ञासु हो उठता है, इतने अँधेरे में, आधी रात को उससे कौन मिलने आया? कवि को लगता है कि कोहरे में घिरा हुआ, विना मन का, उससे मिलने को आतुर जो दरवाजे पर बाहर खड़ा है उसे वह पहचानता है. उसके मुख पर ज्योति चमक रही होगी. उसके चेहरे पर प्रेम का भाव होगा और वह देखने में भोला भाला होगा. कवि के अनुसार यह वही रहस्य-पुरुष है जो उसे तिलस्मी खोह में दिखा था. अवसर हो या बेअवसर वह उसकी (कवि की) सुविधाओं का बिना तनिक भी ख्याल किए प्रकट होता रहता है. जहाँ चाहे, जिस समय भी चाहे उपस्थित हो जाता है. वह किसी भी रूप में, किसी भी प्रतीक में उपस्थित होकर, जो कुछ बताना होता है, ईशारे से बताता, समझाता रहता है और हृदय को बिजली के झटके देता रहता है. बिजली के झटके से यह अर्थ लिया जा सकता है कि वह रहस्य-पुरुष कवि को कुछ ऐसे भी संकेत देता है जिसके लिए कवि उस समय तैयार नहीं होता, और उस संकेत को गुन कर वह तिलमिला उठता है.
अरे, उसके....................................................................................................डरता हूँ उससे
कवि बताता है कि उस रहस्य-पुरुष के चेहरे पर सुबहें खिलती हैं अर्थात उसमें संभावनाओं के पुट होते हैं और उसके गालों पर पठार की चट्टानी चमक होती है जिसे बवंडरी हवाओं ने तराशा हो. उसकी आँखों में किरणों से मंडित शांति की लहरें हिलोरें ले रही होती हैं. उसे देख कर कवि के हृदय में अनायास प्रेम उमड़ता है. कवि दरवाजा खोलकर उसे बाँहों में भर लेना चाहता है, अपने हृदय के संपुट में रख लेना चाहता है. कवि चाहता है उससे लिपट कर उससे घुल-मिल जाए. किंतु अपने परिवेश की ओर जब उसका ध्यान जाता है तब वह क्षुब्ध हो उठता है. वह अपने को एक भयानक खड्ड के अँधेरे में पड़ा हुआ पाता है. वह आहत है, क्षत-विक्षत है (संज्ञाशून्य होकर खड्ड में गिरने पड़ने से). एक क्षण के लिए कवि के मन में आता है कि कहीं यह उसकी कमजोरियों के प्रति लगाव का प्रतिफल तो नहीं! कवि बताता है कि इसी कारण वह अपने प्रिय को टालता रहता है, उससे कतराता रहता है और डरता भी है उससे.
वह बिठा........................................................................................................पीड़ाएँ समेटे
कवि का कहना है, उसका वह प्रिय (रहस्य-पुरुष) उसे खतरनाक उँची चोटी के खुरदरे तट के कगार पर बिठा देता है (किन्हीं जटिल प्रसंगों की अभिव्यक्ति के लिए कवि को स्वतंत्र छोड. देना, किसी उँची चोटी के खुरदरे तट पर बिठा देने जैसा है) और उसे शोचनीय स्थिति में (कवि को उसके मानसिक द्वंद्व मे छोड़ कर) कहता है.- पार करो पर्वत-संधियों के गह्वर, रस्सी के पुल पर चल कर और पहुँचो उस शिखर के कगार पर, स्वयं ही. (जटिल प्रसंगों में उपस्थित विपरीत परिस्थितियाँ पर्वतों जैसी हैं, उनके बीच का अंतर गह्वर (घाटी) जैसी हैं और उनके पार करने का साधन विचारों की रस्सियों जैसी हैं) पर कवि शिखरों की यात्रा करने से इंकार कर देता है (जीवन-प्रसंगों की जटिलता से दूर भागता है) क्योंकि उसे ऊँचाइयों (विचारों की उत्तुंगता) से डर लगता है. एक क्षण के लिए उसके मन में हठ होता है कि साँकल बजती है तो बजती रहने दो. अँधेरे में ध्वनियों के जो बुलबुले उठते हैं, उठने दो. मेरे उसमें उसके रुचि न लेने से वह जैसे आया था वैसे ही चला जाएगा. और वह (कवि) अँधेरे खड्ड में अपनी पीड़ाएँ समेटे पड़ा रहेगा.
क्या करूँ.........................................................................................................जो भले ही
कवि की दृढ़ता निहायत ही कमजोर है. उसकी क्षणस्थायी दृढ़ता चूर हो जाती है और वह असमंजस में पड़ जाता है कि वह क्या करे क्या न करे. उस रहस्य-पुरुष द्वारा जगत की की हुई समीक्षा (पूँजीवाद और साम्यवाद के चौखटे में रख कर अथवा लोकतंत्र के मूल्य पर रख कर)) इस अंधकार के शून्य में तैर रही है. पर वह उसे सह नहीं सकता अर्थात स्वीकार नहीं कर सकता. चारो तरफ फैले अंधकार में उसका विवेक से भरा महान विक्षोभ (कवि से न मिलने का?) वह सहन नहीं कर सकता. अँधेरे में उसको ज्योति की आकृति-सा अर्थात प्रकाशमान, उसका दिया हुआ नक्शा (जगत का नक्शा ?) मैं सहन नहीं कर सकता. फिर भी कवि उसे (रहस्य-पुरुष को) छोड़ने को तैयार नहीं चाहे उसे (कवि को) जो सहना पड़े.
कमजोर घुटनों.............................................................................................स्पर्श की गहरी
कवि उस साँकल बजाने वाले को कभी न छोड़ सकने का इरादा कर अपने कमजोर घुटनों को बल पाने के लिए बार-बार मसलता है और कुछ बल होने पर लड़खड़ाता हुआ दरवाजा खोलने उठता है. वह मशाल की बत्ती बुझ जाने पर संज्ञाहीन होकर गिर पड़ने से, दहशत से, रक्तहीन हुए अपने चेहरे पर पसरे गहरे पर विचित्र शून्य को (सुन्नपन को) अपने हाथों से पोंछता है (चेहरे को सहला कर उसपर कुछ संवेदना लाना चाहता है). फिर अँधेरे के ओर-छोर को टटोल-टटोल कर वह आगे बढ़ता है. वह धरती के फैलाव को अँधेरे में और हाथों से दुनिया को, मस्तिष्क से आकाश को महसूस करता है. उसके दिल में अँधेरे का अंदाज तड़पता है अर्थात अँधेरा कितना गहरा और भयावह है उसे अनुभव कर उसका हृदय बैठने लगता है. उसकी आँखें इन तथ्यों को सूँघती-सी लगती हैं याने ये सब देख नहीं पातीं किंतु उनका अहसास उसकी पपनियों में साफ दिखाई देता है. कवि आगे बढ़ने के लिए निरापद नहीं है पर एक शक्ति, स्पर्श की गहरी शक्ति है उसके पास, जो उसे सहारा दे रही है.
आत्मा में...................................................................................................झाँकता हूँ बाहर
इसी क्षण कवि की आत्मा में भीषण सत्-चित्-वेदना जल (उभर आई अथवा उद्बुद्ध) उठी और दहकने लगी अर्थात लपटें फेंकने लगीं या प्रभाव डालने लगी. मस्तिष्क में विचार उठे और कवि के विचरण के सहचर हो गए अर्थात वह विचार करता हुआ आगे बढ़ने लगा. वह धीरे धीरे सँभल सँभल कर द्वार को टटोलता हुआ आगे बढ़ता है और जंग खाई सिटकिनी को जबरन, जोर से हिला हिला कर, दरवाजा खोलता है और बाहर झाँकता है कि वह साँकल बजाने वाले से मिल ले.
कवि अपनी स्पर्श-शक्ति के सहारे साँकल बजाने वाले से मिलने को जब आगे बढ़ता है, उसी क्षण उसकी आत्मा में भीषण सत्-चित्-वेदना जल उठती है. भारतीय धारणा में आत्मा परमातमा का अंश है, और मनुष्य का चरम लक्ष्य सत्-चित्-आनंद को पाना है. अर्थात- चेतना की सम्पूर्णता में सत्य को पाकर आनंद से भर उठना. पर उक्त मुक्तबोधी सूत्र में मुक्तिबोध का आत्मा से और भीषण सत्-चित्-वेदना के जल उठने से क्या आशय है? साम्यवाद किसी आत्मा-परमात्मा को नहीं मानता तो मुक्तिबोध की यह आत्मा कैसी आत्मा है? मेरी समझ से यह आत्मा पश्चिमी संस्कृति का सेल्फ (self, सवयं की इयत्ता) है. और भीषण सत्-चित्-वेदना का अर्थ हो सकता है- भीषण चेतना की संपूर्णता में भीषण सत्य (?) को पाकर भीषण वेदना से भर जाना. तो क्या साम्यवाद को साध कर मुक्तिबोध का उद्देश्य था समाज को दुखों से भर देना, कि समाज भीषण सत्य को पा ले और भीषण चेतना (हिटलरी?) से भर जाए.
मुझे लगता है, नया करने की चाह में मुक्तिबोध इतने उत्साह से उत्कंठित हो उठते थे कि किसी तथ्य को समझने के लिए उसकी गहराई में डुबकी लगाना भूल जाते थे. शब्दों के प्रयोग में भी वह बहुत सावधान नहीं दिखते. सत्-चित्-वेदना के आगे भीषण विशेषण अनुपयुक्त लगता है. इसका
निर्णय मैं विद्वान आलोचकों पर छोड़ता हूँ.
सूनी है राह........................................................................................................नहीं बाहर
किंतु द्वार के बाहर कवि को कोई नहीं मिलता. वह देखता है, बाहर राहें सूनी पड़ी हैं, सर्द अँधेरा है अद्भुत फैलाव पसरा है सामने. आकाश के उदास तारे अपनी ढीली (टिमटिमाती मंद रोशनी वाली) आँखों से विश्व को देख रहे हैं. कवि, उस साँकल बजाने वाले के न मिलने के दर्द से भर गया. ऐसे में उसके (साँकल बजाने वाले के) बारे में कवि के प्रत्येक क्षण सोचने, अफसोस करने और फिक्र करने से उसका दर्द और बढ़ गया. ऐसे में उसे लगने लगा कि मानो वह साँकल बजाने वाला कुछ दूर वहाँ है, वहाँ दूर के अँधियारे में है. वह जाएगा कैसे, वह पीपल (एक पवित्र वृक्ष जिसके तले लोग अक्सर विश्राम करते हैं, कुछ वहाँ इस समय भी हो सकते हैं) वहाँ पहरा दे रहा है. इस अँधियारे में दूर दूर से कुत्तों की अलग अलग आवाजें आ रही हैं और ये आवाजें सियारों की आवाजों से टकरा रही हैं. इनकी आवाजों से दूरियाँ काँप रही हैं, फासले गूँज रहे हैं अर्थात दूर दूर तक इनके ही स्वर गूँज रहे हैं, साँकल बजाने वाले का कहीं कोई स्पंदन तक नहीं. कवि को विश्वास हो गया कि द्वार पर बाहर कोई नहीं है.
इतने में.................................................................................................................गुरु है
द्वार पर खड़ा कवि यों सोच ही रहा था, कि इतने में उसे उस सूने अँधेरे में कोई चीख सुनाई दी, शायद वह रात के पक्षी (उल्लू) की आवाज थी- “क्या इंतजार करते हो, वह तो चला गया. वह अब तेरे द्वार पर नहीं आएगा, नहीं आएगा तो नहीं ही आएगा. कवि! अब वह गाँव में या शहर में निकल गया है. अब तू उसे खोज, उसका शोध कर. वह तेरी पूर्णतम परम अभिव्यक्ति है और तू उसका एक भागा हुआ (पलायक) शिष्य है. वह तेरी गुरु है, गुरु.”
आलोचना :
इस कविता के खंड-1 का भाष्य लिखते समय मैंने जिक्र किया था कि इसे लिखते समय मुक्तिबोध के मन में एक सदमे का बोझ था- एम्प्रेस मिल की हड़ताल में गोली चलने से कर्मचारियों के घायल होने और कवि की इतिहास-पुस्तक पर प्रतिबंध के सदमे का. किंतु यह तथ्य कविता के इन दो खंडों का विषय नहीं है. इन दो खंडों में कवि अपने सामने बार बार प्रकट होने वाले किसी रहस्य-पुरुष की चर्चा और चित्रण करता है, जिसे वह अपनी अभिव्यक्ति बताता है. उस अभिव्यक्ति को वह अभी पा नहीं सका है. इससे तो यही संकेत मिलता है कि कदाचित कवि के मन में हर क्षण कुछ ऐसी बातें व विचार उमड़ रहे होते हैं जिसे वह प्रकट करना चाहता है पर उसके लिए उसे उपयुक्त शब्द नहीं मिल रहे. अभिव्यक्ति उपयुक्त शब्दों द्वारा ही होती है.
मुक्तिबोध के विचारों के अध्ययन से हमें लगता है, वह साम्यवाद से तो जुड़े ही हैं किंतु स्वतंत्र सृजन के लिए व्यक्ति के स्वातंत्र्य के भी पक्षधर हैं. लेकिन ये दोनों विचार उनके मन में जैसे ओवरलैप करते रहते हैं. किसी एक पर टिक रहना उनके लिए मुश्किल है. डॉ महेंद्र भटनागर (प्रगतिशील कवि) ने एक जगह लिखा है कि उन्होंने अपनी एक कविता रामविलास शर्मा को दिखाई. शर्मा ने उस कविता की प्रशंसा की. मुक्तिबोध के साथ एक मुलाकात में भटनागर ने उनसे इस वाकया का जिक्र किया तो वह उनसे बोले तक नहीं. दरअसल शर्मा ने मुक्तिबोध को गैरमार्क्सवादी कहकर उनकी आलोचना की ही थी, उनपर कई अरुचिकर टिप्पणी भी कर दी थी. उस चर्चा के क्षण उनपर मार्क्सवाद ओवरलैप कर रहा था, व्यक्ति-स्वातंत्र्य पर. उचित तो था व्यक्ति-स्वातंत्र्य का पक्षधर होने के नाते मुक्तिबोध सहज ही रहे होते.
इस कविता में कवि ने एक रहस्य-पुरुष की सृष्टि की है. यह रहस्य-पुरुष प्रथम खंड में कोहरे में लिपटा रक्तालोक-स्नात पुरुष के रूप में प्रकट होता है (ठीक ठीक अभिव्यक्ति मिलने के पूर्व कुछ इसी तरह की आभामय स्थिति होती है). किंतु मशालों के बुझने पर वह रहस्य-पुरुष लुप्त हो जाता है. इस द्वितीय खंड में वह कवि के कमरे की साँकल बजाता है. कवि ‘कौन?’ कह कर पहले अचंभित होता है, फिर कहता है कि साँकल बजाने वाला उसकी अभिव्यक्ति है. पहले वह उससे (रहस्य-पुरुष-अभिव्यक्ति) मिलने से कतराता है पर अगले ही क्षण मिलने को दौड़ पड़ता है. तबतक वह रहस्य-पुरुष जा चुका होता है.
ध्यान देने योग्य है-कवि अभिव्यक्ति के लिए व्यग्र नहीं है, अभिव्यक्ति कवि के निए व्यग्र है. यह बात कुछ उल्टी दिखती है. कविता के लिए अनुभूति और उसकी तीव्रता चाहिए. (वैसे नये कवियों ने कविता की अद्भुत परिकल्पनाएँ कर ली हैं जो उनके अनुकूल पडे). अभिव्यक्ति अंतस्तल में नहीं सतह पर उभरती है. अनुभूति गहरी व तीव्र हो तो वह छलकने लगती है, थोड़े से प्रयास से वह रूप ग्रहण करने लेती है. पर यहाँ सबकुछ सायास हो रहा है. ऐसा लगता है कि कवि कोई बात कहना चाहता है या कहें अभिव्यक्त करना चाहता है और अपने कहे को स्पष्टता देना चाहता है (अर्थात अभिव्यक्ति अपनी झलक साफ करना चाहती है) कि अभिव्यक्ति उनके द्वार पर दस्तक देकर कहीं खो जाती है (वह अपनी बात स्पष्ट करने से चूक जाते हैं). और मुक्तिबोध की दृष्टि अँधेरे के अंतराल में दूर दूर तक ढूँढ़ती है. पर वह कहीं नहीं दिखती. रात का पंछी भी कह देता है, रहस्य-पुरुष के रूप में आई वह अभिव्यक्ति तुझे अब नहीं मिलेगी, नहीं ही मिलेगी. इसका लक्ष्यार्थ यही हो सकता है कि अभिव्यक्ति ढूँढ़े नहीं मिलती. इसके लिए पहले समझ और अनुभूति को गहरी करनी पड़ती है. इसे ठहराव नहीं, फ्लो चाहिए.
आखिर यह अभिव्यक्ति है किस चीज की? किसी अनुभूति की, दुख की या विचार की? मुक्तिबोध इसे स्पष्ट नहीं करते. मेरी समझ से इसका उत्तर इन कविता खंडों में नहीं है. इसका उत्तर उनके जीवन विस्तार में है. वैचारिक रूप से उनका व्यक्तित्व बँटा हुआ है. उनके व्यक्तित्व का एक खेड मार्क्सवाद की गिरफ्त है तो दूसरा खंड लोकतंत्रवादी दिखना चाहता है.
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