प्रविष्टि क्र. 19 : संस्मरणात्मक कहानी हकत्याग माधव नागदा कई बार मुश्किल लगने वाला काम आसानी से निबट जाता है कि हैरानी होती है। परंतु कभी-...
प्रविष्टि क्र. 19 :
संस्मरणात्मक कहानी
हकत्याग
माधव नागदा
कई बार मुश्किल लगने वाला काम आसानी से निबट जाता है कि हैरानी होती है। परंतु कभी-कभी ऐसा भी होता है कि बिलकुल आसान सा लगने वाला काम आपकी नींद उड़ा दे।
जब से बड़े भैया का फोन आया है तब से मेरी रातों की नींद उड़ी हुई है।
करना कुछ नहीं है। भैया ने हकत्याग के जो स्टांप पेपर टाइप करवा रखे हैं उन पर संध्या दीदी के हस्ताक्षर लेने हैं। बड़े भैया का कहना है कि यह काम केवल तू ही कर सकता है। एक तू ही है जिस पर संध्या आँखें मूँदकर विश्वास करती है। माँ की ज़िम्मेदारी मेरी। कैसे भी करके; साम, दाम, दंड, भेद से माँ के साइन तो मैं करवा लूँगा। संध्या वाला काम हो गया तो समझ सब कुछ हो गया। फिर माँ को मनाने में भी ज़ोर नहीं आयेगा। दोनों छोटी तो संध्या के इशारे पर नाचती हैं। संध्या तैयार तो वे भी तैयार। करोड़ों की संपत्ति है। तीनों भाई आपस में बाँट लेंगे। आलीशान मकान बना लेना। बेटे भव्य को डॉक्टर बनाने का सपना पूरा कर लेना। बेटी भव्या का ठाठ-बाट से विवाह करना। ज़िंदगी भर हमने दुख ही देखे हैं। पिताजी तो कुंडली मार कर बैठे हुए थे। एक इंच जमीन इधर से उधर नहीं करने दी। करोड़पति होते हुए भी हम कंगालपति थे। उनके जाने के बाद अब अच्छे दिन आने वाले हैं तो तू भी सहयोग कर। तेरे सारे गुनाह धुल जाएंगे। हम फिर से एक हो जाएंगे।
मेरा गुनाह ? यही कि मैंने प्रेम विवाह किया। वह भी एक अब्राह्मण से। मैं उस कट्टर ब्राह्मण परिवार से था जहाँ बिरादरी बाहर के ब्राह्मणों में विवाह करना भी हेय दृष्टि से देखा जाता था। ब्राहमणेतर लड़की से विवाह तो एक तरह से नाकाबिले बर्दाश्त गुनाह था। पिताजी और बड़े भैया की नाराजगी का कोई पारावार नहीं रहा। पिताजी कहने लगे कि मैं पंचों का पंच। जाति के फैसले करने वाला मैं। मेरा थूका उलांघने की किसी में हिम्मत नहीं। ऐसे कई परिवारों को मैंने बिरादरी से बेदखल करवा दिया। और आज तू ने ही मेरी नाक कटवा दी ? हर छोटा-बड़ा मुझे आँखें दिखाने लगा। मैं क्यों गिड़गिड़ाऊँ सबके सामने। गलती तेरी है, तू भुगत। आज से तू मेरा बेटा नहीं। निकल जा घर से। संपत्ति में तेरा कोई अधिकार नहीं। सभी कान खोलकर सुन लो। जो भी छोटे को मुँह लगायेगा उसका मुझसे रिश्ता कट। यह बात उन्होंने अपनी तीनों बेटियों और दामाद को सुनाने के लिए कही, खासकर संध्या दीदी को। वे जानते थे कि बड़ी बेटी का अपने छोटे भाई पर विशेष स्नेह है। बड़े भैया ने तो यहाँ तक कह दिया था कि यह सब बड़की की कारस्तानी है। इसी ने उकसाया है। इसके भी ऐसे ही लक्षण रहे हैं।
निमीषा मेरे ग्रेजुएशन की सहपाठिन थी। हमारा संपर्क ज्यादा पुराना नहीं था। वह लड़कियों की स्कूल से पढ़ते हुए आयी थी। जब हम कॉलेज में पहली बार मिले तो उसका चेहरा जाना-पहचाना सा लगा। एक दिन मौका पाकर मैंने कह ही दिया,
“मैंने शायद तुम्हें पहले भी कहीं देखा है।”
“ये तो किसी गाने के बोल हैं।” वह मुस्करायी।
“मगर यह सच है।”
फिर उसने मेरी स्कूल का नाम पूछा। बोली, “वहाँ तो मैं हर साल राष्ट्रीय पर्व पर आयोजित कविता प्रतियोगिता में भाग लेने आती थी।”
“और मुझे हराकर चली जाती।” मेरी बात पर वह खिलखिलायी। मधुर सी रिंगटोन। मुझे वे दिन अच्छी तरह याद आ गए।
इस तरह हमारी घनिष्ठता बढ़ती गई। यहाँ भी हम कॉलेज की प्रत्येक सांस्कृतिक-साहित्यिक गतिविधियों में भाग लेते। कभी वह हारती तो कभी मैं। हमें हारने पर भी उतनी ही खुशी होती जितनी कि जीतने पर। एक दिन मैं मौज में आकर गाने लगा, “अजनबी सी हो मगर ग़ैर नहीं लगती हो।”
“झूठ। अब न तो मैं अजनबी हूँ और न ...|” वह एकाएक संभल गई। मैंने ही बात पूरी की, “और न ही ग़ैर हो। बल्कि मेरी अपनी हो।” उसकी हथेली न जाने कब मेरी हथेली में समा गई। पहली बार मैंने उसकी कोमलता, उसकी उष्णता को महसूस किया। सर्दी का मौसम था। बाहर गुनगुनी धूप थी और मेरे भीतर एक गुनगुनाहट। हमारी हथेलियाँ पसीने से आर्द्र हो गई थीं।
थर्ड यीअर तक आते-आते घनिष्ठता के अर्थ बादल गये। दोस्ती ऐसे मुकाम तक पहुँच गई जिसे प्रेम कहा जाता है। हम प्रेम में महकने लगे। धीरे-धीरे यह महक कॉलेज की चहारदीवारी को पार कर गई। शहर की फिजाँ पर तैरने लगी। संध्या दीदी की घ्राण शक्ति सबसे तेज थी। परिवार में सबसे पहले उसी ने सूंघा। एक कॉलेज छात्र की बड़ी बहन उसकी खास सहेली थी। ससुराल से दौड़ी-दौड़ी आई। छत पर बने एकमात्र कमरे में ले जाकर किंवाड़ भेड़ दिए और लगी मेरे दोनों कान उमेठने।
“पता है तू क्या कर रहा है ?”
“नहीं।” मैं कुछ नहीं समझा।
“नहीं ?” उसने और ज़ोर से उमेठे।
“आss। छोड़ो दीदी।” मैं कुरलाया।
“निमीषा की ज़िंदगी बर्बाद करने पर क्यों तुला है ?”
अब मैं समझ गया। दीदी को सब मालूम हो गया है। अनजान बनने से कोई फायदा नहीं। वैसे संध्या दीदी मेरी सबसे अच्छी दोस्त थी। मैं कई दिनों से चाह रहा था कि उसे अपने मन की बात बता दूँ। मगर डर और झिझक के कारण कुछ कहने का साहस नहीं हो रहा था।
“दीदी, मैं निमीषा से बेहद प्यार करता हूँ।”
“रहने दे, रहने दे। आजकल प्यार के नाम पर क्या-क्या खेल खेले जा रहे हैं सब पता है मुझे। यूज एंड थ्रो। भुगतना लड़कियों को पड़ता है।”
कोई और होता तो इस बात पर मैं उसके झापड़ चस्पा कर देता। मैं मौन रह कर अपने आपको जब्त करता रहा।
“बोल न चुप क्यों है ?”
“मैं उससे शादी करना चाहता हूँ।।”
“शादी करेगा ! डरपोक बिल्ली। पिताजी, भैया के सामने मुँह तो खुलता नहीं और शादी करूंगा। वे तुझे घर से बाहर निकाल देंगे, बहिष्कार करेंगे। मारेंगे-कूटेंगे।”
“मुझे किसी की परवाह नहीं। मैंने जो कह दिया है वह पत्थर की लकीर है।” मैंने दृढ़ता से कहा। दीदी शायद मुझमें इसी दृढ़ता के दर्शन करना चाहती थी। फिर भी उसने मुझे पक्का कर लेना चाहा, “खा मेरी सौं।”
सौगन्ध ! इसी से तो मुझे एलर्जी है। निमीषा ने मुझे कभी कोई सौगन्ध नहीं दिलाई। मैंने उससे कभी कोई वादा नहीं किया। कसमें, वादे, सौगन्ध-शपथ सब वहाँ होते हैं जहाँ मन में शंका हो। अगर शंका है तो वह प्यार अधूरा है। कोई छिद्र है जहाँ से सब कुछ रिस जाने की संभावना है। जहाँ अविश्वास है वहीं सौगन्ध है। विश्वासी मन में सौगन्ध का कोई खयाल ही नहीं उपजता।
“खाss।” अब तो मुझे कहना ही पड़ा, “तेरे गले की सौगन्ध दीदी।”
संध्या दीदी ने मुझे गले लगा लिया, “मैं तुम्हारा साथ दूँगी, चाहे कुछ भी हो जाय।”
मुझे पक्का विश्वास था कि संध्या दीदी जरूर मेरा साथ देगी। वह डरपोक लड़कियों में से नहीं थी। वह जो तय कर लेती उसे पूरा कर दिखाती। यह मैं इसलिए कह पा रहा हूँ क्योंकि उसने स्वयं ने एक प्रकार से प्रेम विवाह किया था। पिताजी ने बिरादरी का ही एक लड़का पसंद किया था। उन लोगों को घर पर बुलाया। नाश्ता-वाश्ता कराया। संध्या दीदी को चाय लेकर आने को कहा। माँ-बाप के साथ लड़का भी था। संध्या दीदी की शिष्टता व सलीके से वे लोग प्रभावित हो गए। बोले, “हमें लड़की पसंद है।” संध्या दीदी भौंचक्क देखती रह गई थी। उसे नहीं पता था कि उसकी शादी का इंतजाम हो रहा है। जब सब मेहमान चले गए तो उसने पनीली आँखों से माँ को कहा, “माँ, मैं यह शादी नहीं करूंगी।”
“क्या कह रही है ? शुभ-शुभ बोल। तेरे पापा सुन लेंगे तो टुकड़े-टुकड़े कर डालेंगे। उनका गुस्सा तो तू जानती ही है।” माँ धक से रह गई थी।
“मैं किसी और को पसंद करती हूँ माँ।” संध्या दीदी की आँखों से गंगा-जमाना बहने लगी। वह माँ की गोद में लुढ़क गई। माँ ने कमरे का दरवाजा उड़ीक दिया। मैं अंदर ही था किंकर्त्त्व्यविमूढ़ सा।
“बता कौन है वो ?”
“सोमेश। मेरे साथ ही पढ़ता है। ब्राह्मण ही है।” संध्या दीदी ने माँ को खुश करने के लिए ब्राह्मण पर ज़ोर दिया था। हालांकि , मैं जानता था कि वह जात-पांत पर विश्वास नहीं करती है।
“अच्छा, अच्छा ! रमेश जी का बेटा ?”
“हाँ, वही।”
“परंतु तेरे पापा इसे मंजूर नहीं करेंगे। वे पालीवाल हैं और हम श्रीमाली।”
पापा को ज्ञात हुआ तो उन्होंने विकराल रूप धारण कर लिया। डंडा लेकर मारने को दौड़े किन्तु माँ आड़ी फिर गई, “छोरी के हाथ लगाने की जरूरत नहीं है। जो भी कहना है, मुँह से कहो।”
“तेने ही माथे चढ़ाया है। मैं तो कॉलेज ही नहीं भेज रहा था। तेरी ज़िद के कारण भेजना पड़ा। ‘छोरी का जमारा है। कल किसने देखा। पढ़ेगी नहीं तो सासरे में धक्के खाने पड़ेंगे। पढ़ने से ही छोरियाँ होशियार होती हैं।’ हो गई होशियार ? देख ली इसकी होशियारी ? यही पढ़ाई करने भेजा था तू ने कॉलेज ? कोई जरूरत नहीं, आज से कॉलेज बंद। कैलाश, हाथ-पैर बांधकर डाल दे इसे स्टोर में और ताला लगाकर चाबी मुझे दे दे।” उन्होंने बड़े भैया को आवाज़ लगाई। वे पास ही खड़े गुस्से से थर-थर काँप रहे थे।
किसी सामान की तरह दीदी स्टोर में बंद हो गई। उसने खाना-पीना छोड़ दिया जैसे आमरण अनशन पर उतारू हो। दूसरे दिन पापा ने माँ से पूछा, “संध्या ने कुछ खाया ?” वे जानते थे एक चाबी माँ के पास है।
“कुछ नहीं खाया।” माँ उदास स्वर में बोली।
तीसरे दिन भी यही उत्तर। चौथे दिन पिताजी स्टोर खोलकर अंदर गए। दीदी लेटी थी। बैठने लगी तो चक्कर आ गए।
“बेटा ज़िद छोड़ दे। मेरी इज्जत का खयाल कर। मैं अपने समाज का अध्यक्ष हूँ। लोग क्या कहेंगे ?”
“पापा, मुझे आपकी इज्जत का पूरा खयाल है। नहीं होता तो मैं चुपचाप सोमेश के साथ चली जाती और कोर्ट मेरीज कर लेती। मैं आपकी इजाजत से ही सोमेश से शादी करूंगी नहीं तो मर जाऊँगी। वह भी तो ब्राह्मण ही है। फिर आप अपने ही समाज के अध्यक्ष नहीं, अखिल ब्राह्मण महासभा के महासचिव भी हैं।”
संध्या दीदी ने पापा की दुखती रग पर हाथ रख दिया था। पापा ब्राह्मण महासभा के सम्मेलनों में बड़े जोशोखरोश से बोलते थे। मैंने सुनी थी उनकी तक़रीरें , ‘ बारह बामन और तेरह अंगीठी हैं इसीलिए हमारी कोई नहीं सुनता। जिन विधायकों को हम वोट देते हैं काम के वक्त वे पीठ फेर लेते हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि बामण तो बिखरे-बिखरे हैं। इनकी कोई राजनीतिक ताकत नहीं है। अब समय आ गया है कि हम यह ताकत अर्जित करें। यह तभी होगा जब सभी ब्राह्मण संगठित होकर एक हो जाएँ। वो जमाने लद गये जब कहते थे कि ये फलां ब्राह्मण है, वो ढिका ब्राह्मण है। हम तो उसका छुआ नहीं खाते, उसके साथ हमारा रोटी-बेटी का व्यवहार नहीं है। हमें ये भेदभाव की दीवारें गिरानी होंगी। तभी हमारी आवाज़ सुनी जायेगी। एक अकेला जब पटरी पर बैठता है तो उसे अपराधी माना जाता है, जब पूरा समूह पटरी पर बैठता है तो उसे आंदोलनकारी का सम्मान दिया जाता है। सरकार खुद चलकर उससे बात करने आती है। हमारी एकता वो बात पैदा करेगी जिससे सरकार खुद चलकर आये। वरना हमारा शोषण होता रहेगा। सरकारी नौकरियों में, प्रमोशन में, बिजली कनेक्शन में, सरकारी योजनाओं में, हम सर्वत्र भेदभाव के शिकार होते रहेंगे। हमारे बच्चों के सामने दीवारें खड़ी की जाती रहेंगी।’ पिताजी चुपचाप उठकर उस कोठरीनुमा स्टोर से बाहर निकल गए। शायद ये तमाम बातें उनके दिल के मजबूत लौह द्वार पर दस्तक देने लगी थीं।
दीदी की हालत दिन पर दिन खराब होती गई। इधर पिताजी अंतर्मुखी हो गए जैसे किसी ऊहापोह में हों। गहरा अंतर्द्वंद्व था, इधर जाऊँ या उधर। छठे दिन दीदी बेहोश हो गई। उसे अस्पताल भर्ती कराना पड़ा। तब जाकर पिताजी की तंद्रा टूटी। जब दीदी ने आँखें खोलीं तो मरे मन से बोले, “जैसा तू चाहेगी वैसा ही होगा। तू जीती, मैं हारा।”
इसीलिए मेरा विश्वास था कि संध्या दीदी मेरा साथ जरूर देगी। यद्यपि मेरा मामला थोड़ा अलग था। निमीषा अब्राह्मण ही नहीं बल्कि दलित थी। संध्या दीदी के स्फुट विचारों से ज्ञात होता था कि वह जातिवाद विरोधी है। परंतु अपनी शादी में उसने जिस प्रकार ब्राह्मण कार्ड खेला उससे मुझे शंका हो गई थी। मैं तब जाकर आश्वस्त हुआ जब दीदी ने मेरे कान उमेठकर निमीषा से विवाह का वादा लिया और अपनी तरफ से पूर्ण सहयोग की बात कही।
“आ गए बाबू साहब ?” एक दिन जब मैं जरा देर से लौटा तो पिताजी घर के दरवाजे पर मेरा स्वागत करने तैनात थे। उनकी आँखें अंगारा हो रही थीं। होंठ फड़क रहे थे। उन्होंने आगे बढ़ते ही एक झन्नाटेदार थप्पड़ मेरे बाँये गाल पर जड़ दिया।
“आयंदा उस...से मिला तो पैर काटकर स्टोर में डाल दूंगा। समझ क्या रखा है तू ने ?” वे बिना किसी भूमिका के बोले। उनकी आवाज़ बेहद ऊंची और फटी-फटी थी।
मैं समझ गया कि संध्या दीदी की तरह अनशन से कोई लाभ होने वाला नहीं है। न कोई तर्क चलेगा। दीदी ने सुझाया कि कोर्ट मेरीज कर लो। मैं और तेरे जीजाजी आ जाएँगे। फिर घर चलकर सबका आशीर्वाद ले लेना।
आशीर्वाद तो क्या मिलना था। पिताजी ने लात मारकर मेरा अभिनंदन किया। गनीमत यही थी कि निमीषा की तरफ सिर्फ आग्नेय दृष्टि डालकर मुँह फेर लिया। भाई साहब कटकटियाँ भिड़ाकर बोले, “ठहर जा, अभी दोनों को काटकर फेंक देता हूँ।’ मैं निश्चिंत था कि काटने के लिए घर में तलवार तो क्या छुरी तक नहीं थी। लाठी भी मौका आने पर ढूंढनी पड़ती थी। फिर भी डर था कि भाई साहब कभी भी कुछ भी कर सकते हैं। दीदी हम दोनों को अपने घर ले गई। एक कमरा सौंप दिया और तब तक हमारा सारा इंतजाम देखती रही जब तक कि मुझे सरकारी नौकरी नहीं मिल गई।
घरवालों की तरफ से संध्या दीदी का और मेरा सम्पूर्ण बहिष्कार था। न तीज-त्योहार पर बुलाते थे और न ही पारिवारिक समारोह में। दोनों भतीजों के यज्ञोपवीत संस्कार के समय भी हमें नहीं बुलाया गया। यहाँ तक कि निमंत्रण पत्र में हमारा नाम तक नहीं छपवाया। उनकी निगाह में हम जैसे मर गए थे। यही नहीं, जब उषा दीदी ने एक कार्यक्रम में हम दोनों को बुला लिया तो बड़े भाई साहब ने उसे भी बहिष्कृत कर दिया।
इस बीच संध्या दीदी पर एक और मुसीबत आ पड़ी। जीजाजी एक एक्सीडेंट में जाते रहे। मेरी पोस्टिंग पास के शहर में थी। दौड़ा आया। उम्मीद थी कि इस दुख की वेला में सारे गिले-शिकवे भूलकर दोनों भैया दीदी का साथ देने जरूर आयेंगे। परंतु कोई नहीं आया। माँ आना चाहती थी, पिताजी ने साफ मना कर दिया, अगर तुम वहाँ चली गई तो मेरा मरा मुँह देखोगी। माँ क्या करती ! वह अपने वात्सल्य को कहीं गहरे दफन करके रह गई। हाँ, दोनों बहनें और जीजाजी जरूर आए थे। घर में अब बड़े भैया का शासन था। पिताजी को मेरी शादी का सदमा लगा था। वे शिथिल हो गए। उन्हें ब्राह्मण महासभा के महासचिव पद से त्याग पत्र देना पड़ा। हमारे समाज ने उन्हें अध्यक्ष पद से हटा दिया। वे दीर्घ सांस छोडकर कहते, ‘मुझे कहीं ऊंचा बोलने लायक नहीं छोड़ा उस नालायक ने।’ अब उनका दायरा घर से मंदिर तक सीमित रह गया था। मुझे सारी सूचनाएँ भतीजों से मिल जाती। वे फोन पर यदा-कदा मुझसे बतियाते रहते। दोनों मेरा पूरा सम्मान करते थे। कहते, “चाचु, यू आर ग्रेट।” खाक ग्रेट। पिताजी की यह दशा मेरी वज़ह से ही थी। माँ के मन की थाह पाना मुश्किल था। वह समुद्र की तरह थी। बाहर से शांत, भीतर तूफान दबाये हुए। मैं उसका सबसे लाड़ला बेटा था। क्यों किया मैंने ऐसा ? क्या प्रेम को विवाह में बदलना जरूरी है ? अगर मेरा और निमीषा का गठबंधन नहीं होता तो क्या प्रेम नहीं रहता ? प्रेम तो प्रेम है। चाहे हम विवाह बंधन मेँ बंधें या न बंधें, रहता ही है। क्या राधा और कृष्ण ने विवाह किया था ? फिर भी उनके अप्रतिम प्रेम के सम्मुख दुनिया नतमस्तक है। मैं कितना स्वार्थी हूँ। अपने सुख की खातिर माँ, पिताजी के दुःख का निमित्त बना हूँ ;सीधी-सादी स्नेहिल भाभियों का भी। अब कहाँ है वो प्रेमावेग ? बच्चे होने के पश्चात हम प्रेमी-प्रेमिका कहाँ रह पाये हैं ? विशुद्ध पति-पत्नी बन गए हैं। निमीषा सुबह से शाम तक गृहस्थी मेँ लगी रहती है , मैं कमाने मेँ। हमें बच्चों के भविष्य की चिंता लगी रहती है। अब हमारा सपना है भव्या को डॉक्टर बनाना और भव्य को इंजीनियर। अच्छा सा मकान तो बनाना ही है। इसके लिए हमारा सारा ध्यान तिनका-तिनका जमा करने में रह गया था। प्रेम कर्त्तव्य के बोझ तले घुट रहा था। अगर पिताजी के पसंद की कोई लड़की आती तो भी इसी नियति से गुज़रना पड़ता। तब परिवार तो एक रहता। पिताजी को शायद कुछ और उम्र मिल जाती।
बस एक हिचकोले के साथ रुक गई। मैं वर्तमान में आ गिरा। चित्तौड़ अब दस किलोमीटर दूर रह गया था। चित्तौड़, मेरा पैतृक शहर। पोस्टिंग उदयपुर के पास एक कस्बेनुमा गाँव में थी। संध्या दीदी का ससुराल चित्तौड़ से जरा दूर था किन्तु जीजाजी ने चित्तौड़ में मकान बना लिया था। जीजाजी के बाद भी बच्चों की पढ़ाई की खातिर दीदी यहीं रहती थी। मकान का एक हिस्सा किराये पर चढ़ा दिया था। पारिवारिक पेंशन भी चालू हो गई थी। दीदी के दोनों बच्चों की पढ़ाई ठीक से चल रही थी। कहीं कोई दिक्कत नहीं थी। मैं भी दीदी को लेकर निश्चिंत हो गया था। मेरा उसके घर जाना-आना बहुत कम रह गया था।
बस फिर से चल पड़ी। और मेरी विचार यात्रा भी। दीदी ने एकाएक यह कैसा क़दम उठा लिया ! हम सबको बँटवारे के नोटिस थमा दिए। नोटिस में यह भी लिखा था कि तीन माह में बँटवारे की कार्यवाही पूर्ण कर मुझे मेरी संपत्ति का कब्जा सौंप दिया जाय। कितना कठोर निर्णय। लेकिन क्यों ? परिवार में आपसी मनमुटाव तो होते रहते हैं। अगर सारी बहनें यों अपना हक मांगने लग गईं तो भाई-बहन के आपसी प्रेम का क्या होगा ? दरअसल यह कानून ही भारतीय संस्कृति के खिलाफ है। कई परिवारों में इससे विष घुल गया है। लगता है दीदी ने गुस्से में यह निर्णय लिया है। समझाना पड़ेगा। मुझे पूरा विश्वास है कि मेरा आग्रह वह नहीं टालेगी।
मुझे देखकर तीनों बहुत खुश हुए। संध्या दीदी, सोनू और सौभाग्य। दीदी ने मुझे गले लगा लिया। सोनू और सौभाग्य मामा,मामा कहते दौड़कर आए और चरण छू कर मुझसे लिपट गए। सोनू बड़ी हो गई थी। सेवन्थ क्लास में पहुँच गई थी। सौभाग्य फिफ्थ में पढ़ रहा था।
“मामा, आप तो हमें भूल ही गए। फोन भी नहीं करते।”
“अब तो तेरे मामा बड़े आदमी हो गए हैं, गजेटेड अफसर। हम जैसे इनकी नजरों में कहाँ ?” दीदी की आवाज़ में दर्द था। मेरा ध्यान बेग में रखे कागजात पर था। कैसे कहूँगा दीदी से। हक त्याग की बात कैसे करूंगा ? दीदी को सबने त्याग रखा है। ऐसे में उससे हक त्याग की उम्मीद रखना क्या गलत नहीं होगा ? लेकिन मुझे दीदी पर पूरा विश्वास था। अगर मैं तरीके से पेश आ सका तो वह मेरी बात नहीं टालेगी। मैं इसी ऊहापोह में बेग की चैन बार-बार खोलता और बंद करता रहा।
“क्या बात है, परेशान लग रहा है ?” दीदी ताड़ गई।
“दीदी, यह बँटवारे का क्या चक्कर है ?” मैं दीदी को धीरे-धीरे मूल बिन्दु पर लाना चाहता था। यदि एकदम ही हक त्याग के कागज़ों पर हस्ताक्षर के लिए कहूँगा तो वह उखड़ सकती थी। उसका गुस्सा मैं जनता था। स्टांप पेपर ही चिंदी-चिंदी कर दे, क्या पता।
“बँटवारा होगा तभी तो पता चलेगा न कि संपत्ति का कौनसा हिस्सा किसका है। सबको फायदा है इसमें।”
“दीदी, छोड़ो बँटवारे की बातें। भाई-बहन में इस तरह के कानूनी दांव-पेंच शोभा थोड़े न देते हैं। कितनी जग हँसाई होगी।” मेरी बात पर दीदी की आँखें क्षण भर के लिए विस्फारित हो गईं। उसे मेरे बदले हुए सुर पर जरूर अचंभा हुआ होगा।
“तू तो जानता है, हमारा कितना अपमान हुआ है उस घर में। फिर भी कहता है कि छोड़ दूँ ?”
“क्षमा बड़न को चाहिए। जो हुआ उसे भूल जाओ। बड़े भैया अब बहुत बदल गए हैं। पहले वाले नहीं रहे। खुद आने वाले थे परंतु प्रमोशन के बाद बहुत व्यस्त हो गए हैं। आज भी किसी मीटिंग में जाना है। ये कागज़ भेजे हैं। कहा है कि इन पर संध्या के साइन करवा देना। मना नहीं करेगी।” मुझे कुछ नहीं सूझा। कहीं दीदी मुझे बातों में फंसा न दे और कोरे कलेजे न जाना पड़े। इसलिए मैं एकाएक अपने मंतव्य पर आ गया। हालांकि इसके लिए झूठ का सहारा भी लेना पड़ा। बड़े भैया ने आने की मंशा कतई व्यक्त नहीं की थी। जब मैंने उनसे कहा कि दोनों साथ चलते हैं तो बोले, ‘मैं तो मर जाऊँ तो भी उसके यहाँ नहीं जाऊँ। दो-दो बार चोट की है उसने। तुझे भी उसी ने बरगलाया, वरना तू ऐसा न था।’ वे उदयपुर मेरे पास आ गए किन्तु दो क़दम चलकर चित्तौड़ में ही संध्या दीदी के यहाँ नहीं जा सके।
दीदी ज्यों-ज्यों स्टांप पेपर पढ़ती गई त्यों-त्यों पल-पल उसके चेहरे का रंग बदलता गया। कभी आश्चर्य, कभी दुख, कभी क्रोध। आँखें कई बार फैली और सिकुड़ीं, और अंत में सजल हो गईं। उसने कागज़ात बेग में रखकर चैन कट्ठी जड़ दी। फिर बोली, “घणा स्याणा है तू। जिन्होंने तेरा बहिष्कार किया उन्हीं का दूत बनकर आया है।”
“कहा न दीदी, वे लोग अब बदल गए हैं। परिवार की इज्जत के लिए कई बार समझौते करने पड़ते हैं।”
“यह बात तुझे शादी के वक्त नहीं सूझी ?” दीदी ने हथौड़ा पटका।
“अब गुस्सा थूको दीदी और साइन कर दो।” मैं जितना विनम्र हो सकता था, हुआ।
“अच्छा, एक बात बता। बेटी अगर बेटा होती तो हिस्सा लेती या नहीं ?”
“तब उसे घर परिवार की जिम्मेदारियाँ निभानी पड़ती। काज-क्रियावर, बहन-बेटियों के पहरानावी-मायरा, माँ-बाप की सेवा,सब करना पड़ता।”
“माँ-बाप की सेवा, हुंह। जानता है, पिताजी को मरे एक महीना भी नहीं हुआ कि दोनों भाईयों ने माँ के नाम का प्लॉट बेच दिया। यह तो पिताजी ने दिया था न माँ को। फिर क्यों हड़प गए सारा पैसा ? क्या यही सेवा है ? छोटे भैया तो त्रिकाल संध्या करते हैं। वे भी इसमें शामिल ! हद हो गई।”
मुझे इस घटना की जानकारी थी। कल जब बड़े भैया उदयपुर मेरे पास आए तो कहा था कि हक त्याग की कार्यवाही पूरी होने पर माँ के तीस लाख में से तेरा तीसरा हिस्सा तुझे दे देंगे। हमारे नहीं चाहिए।
“मैं तो कानून के अनुसार चल रही हूँ। कानून पिता की संपत्ति में बेटी को अधिकार देता है। मैं गलत कहाँ हूँ ?” दीदी कह रही थी।
“दीदी, कुछ कानून ऐसे होते हैं जो भावनाओं के साथ खिलवाड़ करते हैं। भारतीय संस्कृति का मखौल उड़ाते हैं। यह कानून भी वैसा ही है जो भाई-बहन के स्नेह के बीच दीवार की तरह खड़ा है। इसने बहनों को लालची बना दिया है। पहले जब बहन पीहर आती थी तो सब कितना खुश होते थे। अब तो डर लगता है कि कहीं हक न मांग ले।”
मैंने तीर चलाया। दीदी जैसे छलनी हो गई। लालची आरोप सुनकर उसका चेहरा सुर्ख हो गया, आँखें भर आईं। सोनू बिस्तर पर अधलेटी-सी हथेलियों पर ठुड्डी टिकाये हमारी बहस गौर से सुन रही थी। वह भी बेहद गंभीर हो गई।
मैं यहीं नहीं रुका, कहता गया, “दीदी, बुरा मत मानना। जनरल बात कह रहा हूँ। कई बहनें दोनों हाथों में लड्डू रखना चाहती हैं। पति की संपत्ति में तो हक लेंगी ही, पिता की संपत्ति में भी अधिकार मांगेगीं। यह कहाँ की नैतिकता है ? अगर थोड़ी सी भी ईमानदारी है तो एक जगह से तजो। पिता की संपत्ति चाहिए तो पति की संपत्ति, फेमिली पेंशन वगैरह छोड़कर दिखाओ।” परोक्षतः मैंने दीदी पर अनैतिक और बेईमान होने के आक्षेप लगा दिए। जब बोलने लगता हूँ तो मुझे ध्यान नहीं रहता कि क्या कह रहा हूँ। दीदी की आँखों से आँसू टपकने लगे। सोनू उठकर दूसरे कमरे में अपने भाई के पास चली गई। यह क्या कह दिया मैंने ! क्या संयम नहीं रख सकता था ? दीदी बाथरूम में मुँह धोकर वापस आई। बोली, “हम दोनों ही जिद्दी हैं। अगर बहस करते रहे तो दोपहर की शाम और शाम की सुबह हो जाएगी।”
“ठीक है, तो मैं चलता हूँ।” मैंने बेग हाथ में लिया।
“यों कैसे चलता है ? खाना खाकर चले जाना।”
“मुझे भूख नहीं है।”
“खाना तो खाना ही पड़ेगा। तुझे मेरी सौगंद है। जा बाथरूम में जाकर फ्रेश हो ले , दूर से आया है।”
सौगंद दीदी का ब्रह्मास्त्र है। मुझे परास्त होना पड़ा और मैं बेग रखकर सीधा बाथरूम में घुस गया। उमस ज्यादा थी। पसीने से बदन चिपचिपा रहा था। दिमाग में तनाव भी बहुत था। मैंने स्नान कर लेना ही ठीक समझा। मैं देर तक फव्वारे के नीचे बैठा दिमाग को ठंडा और मन को शांत करने की कोशिश करता रहा।
दीदी के घर से निकला उस समय आसमान में तीतरवर्णी घटाएँ घिर आई थीं। हवा ठहरी हुई थी जैसे अभी-अभी कोई तूफान गुज़र चुका हो। मुझे बेग मनों वज़नी लग रहा था। लगे भी क्यों नहीं, इसमें मैं दीदी के आँसू , सोनू का गुस्सा और उदासी जो भरकर ले जा रहा था। जब मैं सोनू को सौ रुपये देने लगा तो वह बोली थी, ‘रहने दो मामा, पापा की पेंशन आती है।’ छोटी बच्ची को भी जब मेरे शब्द गहरे बेध गए थे तो दीदी पर क्या गुज़री होगी। बेग की चैन थोड़ी खुली रह गई थी। मैंने झटके से पूरा बंद करके अपने भीतर उमड़ते दुःख पर लगाम लगाने की कोशिश की।
मोबाइल तीन बजा रहा था। भाई साहब ऑफिस ही होंगे। मैंने रिक्शा रुकवाया। मन भारी था। एक पछतावा तारी हो गया था मुझ पर। मैंने संध्या दीदी का दिल क्यों दुखाया ? उस पर लालची होने का लांछन लगाया जबकि लालची तो मैं हूँ। लोभ में फँसकर भाई साहब के चक्कर में आ गया। कहीं उन्होंने मुझे मोहरा तो नहीं बनाया ? अगर मन साफ था तो फिर जब वे मेरे पास उदयपुर आए तो मनीषा के हाथ से पानी क्यों नहीं पिया ? बिसलेरी की बोतल लेकर आए थे। चाय की मनुहार की तो कहने लगे आजकल पेट में जलन होती है। भोजन की मनुहार की तो बोले आज उपवास है। मन में इतना भेद है तो फिर कैसे एक हो पाएंगे ? मैं क्यों नहीं समझ पाया उस वक्त ? कैसे हो गया लालच में अंधा ? भाई साहब चाहे मुझे मार डालें, अब इस काम से किसी भी दीदी के पास नहीं जाऊंगा। नहीं चाहिए मुझे बहनों का हक। तीसरा न सही सातवाँ हिस्सा ही सही। यह भी कम नहीं है।
मुझे उदास देख भाई साहब समझ गए। फिर भी उन्होंने ललाट की सलवटें ऊपर नीचे कर प्रश्नवाचक इशारा किया। मैंने गरदन को दाँये-बाँये हिलाया और स्टाम्प पेपर निकालकर उनकी टेबल पर रख दिए। इस बीच चपरासी ट्रे में दो गिलास पानी लेकर आया। भाई साहब ने गटागट गिलास खाली किया और कागज़ात पलटने लगे। उनकी तर्जनी जीभ को छूकर आती और पेज पलट देती। हर पेज पर यही पुनरावृत्ति। अंतिम पृष्ठ भी आ गया। मैंने देखा कि भाई साहब की आँखें एकाएक खुशी के मारे विस्फारित हो गई हैं। होठों पर मुस्कान तैर गई। उन्हें मुस्कराते हुए देखना मेरे लिए दुर्लभ अनुभव था।
“काम हो गया है तो फिर मुँह क्यों लटका रखा है ?”
“कौन सा काम ?”
“क्या कौन सा काम। जैसे कुछ जानता ही नहीं। मेरे से ही मज़ाक ? यह देख।”
मैंने पेपर लगभग छीन लिए और उतावला सा अंतिम पृष्ठ पर जा कूदा। यह क्या ? कब हुआ ? कैसे हुआ ? प्रथम पक्षकार के नीचे दीदी के हस्ताक्षर थे-संध्या पालीवाल।
मुझे काटो तो खून नहीं।
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माधव नागदा
लालमादड़ी(नाथद्वारा)-313301(राज)
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