संस्मरण लेखन पुरस्कार आयोजन - प्रविष्टि क्र. 15 : घुंघरू वाली लड़की // लक्ष्मी यादव

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  प्रविष्टि क्र. 15 : संस्मरणात्मक कहानी घुंघरू वाली लड़की लक्ष्मी  यादव पद्मा ने ट्रेन में बैठते ही श्यामली को कॉल करके अपने पहुंचने का समय ...


 

प्रविष्टि क्र. 15 :

संस्मरणात्मक कहानी

घुंघरू वाली लड़की

लक्ष्मी  यादव


पद्मा ने ट्रेन में बैठते ही श्यामली को कॉल करके अपने पहुंचने का समय उसे बता दिया था ताकि वो निश्चिन्त हो जाए ..फ़ोन श्यामली की 5 साल की बेटी ऋतू ने उठाया था अपनी मासूम सी आवाज़ में जब ऋतू ने पद्मा को लगा जैसे हेल्लो आंटी कहा तो पद्मा को फिर से बच्चा बन जाने का कोई बहाना मिल गया हो। दोनों ने देर तक तोतली भाषा में बात की ..श्यामली की आवाज़ सुन पद्मा बचपन से लौटी और अपने आने का समय सुबह 8 बजे ..श्यामली को बताया,नन्ही ऋतू ने बहुत वक़्त बाद माँ के चेहरे पर ख़ुशी देखी आज माँ बेटी दोनों खुश थीं। श्यामली के मन पर पद्मा की धुन सवार थी जैसे उसके पैरों में आज फिर से कत्थक थिरक गया हो। माँ को इतना खुश देख ऋतू चहक गयी। श्यामली ने अपने नये घर का पता पद्मा को व्हाट्सअप कर दिया था जिसे पढ़कर पद्मा अपनी यादों में बसे बनारस के उस मुहल्ले को खोजने लगी थी जिसका ज़िक्र श्यामली ने दिए गये पते पर किया था ...

बहुत देर तक सोचने के बाद भी पद्मा उस मोहल्ले का अंदाज़ा नहीं लगा सकी लेकिन उसका मन बनारस के न जाने कितने मोहल्लों, बाज़ारों.. घाटों और टेढ़ी मेढ़ी संकरी गलियों की सैर कर आया यादों के जिस गलियारे में धूल सी जम गयी थी... वो धुंधलाती यादें साफ़ होती चली गयीं। पद्मा यादों की इन तस्वीरों में खोती चली गयी ...।

”पूरे दस साल बाद बनारस को देखना... कैसा होगा..? बनारस वही पुराना मेरी यादों सा होगा या बदल गया होगा सबकुछ... पता नहीं। ......पद्मा को बनारस याद आ रहा था, बचपन याद आ रहा था .. और सबसे ज्यादा याद आ रही थी श्यामली। श्यामली और पद्मा दोनों ने स्कूल से लेकर कॉलेज तक का सफ़र साथ पूरा किया था। पद्मा को बचपन से ही पत्र पत्रिकाओं में कहानियाँ कवितायेँ और सामाजिक मुद्दों पर लिखने का शौक था इसलिए वो मास कम्युनिकेशन में पोस्ट ग्रेजुएशन की पढाई के लिए बनारस छोड़ दिल्ली चली आई थी, पढाई के बाद फिल्मों में लिखने के मौकों ने उसे मुंबई पंहुचा दिया..इन सबमें कितना वक़्त बीत गया पता ही नहीं चला .. और श्यामली कत्थक केंद्र में डांस सिखाने लगी थी। ऐसा ही कुछ सुना था पद्मा ने माँ से। पापा के रिटायरमेंट के बाद भाई की नौकरी लखनऊ में हो जाने के कारण पद्मा के घरवाले भी लखनऊ शिफ्ट हो गये थे।

श्यामली शुरू शुरू में पद्मा को फ़ोन करके बात करती थी लेकिन बाद में धीरे धीरे सब बंद हो गया। पद्मा ने कई बार कोशिश की लेकिन श्यामली से संपर्क नहीं हो सका था। श्यामली ने कभी पद्मा को अपनी ओर से एक फ़ोन तक नहीं किया था,पद्मा ने कई पत्र भी लिखे थे श्यामली को जिनका एक दो पत्रों के जवाब आने के बाद आगे कोई जवाब नहीं आया था। ये बात पद्मा को बड़ी अजीब लगती थी उसे हमेशा लगता था जैसे श्यामली की जिंदगी में कुछ है जिसे वो पद्मा से नहीं बताना चाहती जैसे कोई वजह है जो पद्मा से बात करने से उसे रोकती है ...नई जिंदगी की उठापटक में श्यामली से पद्मा का संपर्क ही टूट गया था।

.श्यामली की शादी की खबर माँ से ही मिली थी पद्मा को,, बनारस वाली पड़ोसन श्रीवास्तव आंटी ने फ़ोन पर पद्मा की माँ को बताया था ... श्यामली जैसे गायब ही हो गयी थी पद्मा की जिंदगी से ..वो तो इन्टरनेट की सोशल नेटवर्किंग का भला हो जिसने जाने कितने बिछड़ों को मिला दिया वैसे ही श्यामली भी मिल गयी पद्मा को। पद्मा के बहुत पूछने पर भी श्यामली ने पद्मा से संपर्क न हो पाने की वजह अपनी शादीशुदा जीवन की व्यस्तताओं को ही बताया था खैर पद्मा के लिए सबसे ज़रूरी तो बस ये था की श्यामली अब उससे बात करती है दूर ही सही लेकिन उनका साथ अब भी है, उनकी दोस्ती अब भी है श्यामली की शादी भी बनारस में ही हुई थी यानि मायका ससुराल दोनों एक ही शहर में।

पद्मा को अपनी शूटिंग के लिए बनारस जाना था उसने सोचा अपनी दोस्त से मिलने का और पुरानी यादों से एक बार फिर रूबरू होने का इससे अच्छा क्या मौका होगा ? वो सोचकर ही रोमांचित हो रही थी सचमुच अपना शहर तो अपना शहर होता है.. ...पद्मा ने श्यामली को सबसे पहले ये खबर दी थी,श्यामली के मन की खनक को पद्मा ने फ़ोन पर उसकी आवाज़ में सुन लिया था और झट से श्यामली ने पद्मा से कह दिया था की “तू पहले मेरे पास मुझसे मिलने आएगी और फिर कही जाएगी” .... पद्मा ये सुन खुश हो गयी जैसे वो यही सुनना ही चाहती हो ..दो मिनट के लिए पद्मा खामोश खड़ी श्यामली की चहकती आवाज़ सुन, उसे महसूस कर रही थी। अहसास की गर्माहट से सब पुरानी सारी यादें ताज़ा हो गयी थी। ..

पद्मा को उसके याद शहर ले जाने वाली ट्रेन मुंबई से चल चुकी थी ....पद्मा श्यामली की बातों में खोती चली गयी और श्यामली के शब्द बिना किसी साहिल की परवाह किये अपनी ही धारा में बह रहे थे ... पद्मा बचपन की श्यामली को सोच रही थी ...कैसी थी श्यामली ...श्याम रंग की,गोल चेहरे, बड़ी-बड़ी आँखों वाली, थोड़ी अल्हड़ थोड़ी मासूम चुलबुली और सबसे बड़ी वाली घुंघरू प्रेमी......। ..बचपन में लड़कियों को गुड़िया को सीने से लगाकर सोते तो सबने देखा सुना होगा लेकिन ये ऐसी मोहतरमा थीं जिनको घुंघरू पहनकर सोने पर ही नींद आती थी ...कई बार तो बगल में सोया हुआ इंसान घुंघरू से घायल भी हो जाता था क्यूंकि नींद में कब त.. त.. थैया शुरू हो जाए इसका भी अंदाज़ा कोई नहीं लगा सकता था..जब माँ की डांट और मार का भी श्यामली पर कोई असर नहीं हुआ तो श्यामली का पलंग ही अलग हो गया अब वो अपने सपनों में बिना किसी की नींद हराम किये कत्थक कर सकती थी। “पढाई में औसत दर्जें की होशियार थी वो…. मैं उसका अंग्रेजी और गणित का होम वर्क थी वो मेरा कथक।

ट्रेन किसी स्टेशन पर बहुत देर से रुकी हुई थी, पद्मा के सामने वाली बर्थ पर एक लड़की आकर बैठ गयी थी जिसे छोड़ने एक लड़का आया था .. लड़का बार बार बहाने से उसके हाथ तो कभी बाल छू रहा था और तरह तरह से अपना प्यार जताने की कोशिश में लगा था जिसमें लड़की का समर्थन भी था दोनों की हरकतों से साफ़ झलक रहा था। थोड़ी ही देर में ट्रेन चल दी। लड़का लगभग चलती ट्रेन से कूदा था जिसे देख गार्ड ने चिल्लाया था। गार्ड की आवाज़ सुन लड़की के मुंह से निकले इस्स्स्सस ... ने फिर पद्मा का ध्यान अपनी ओर खींचा... लड़की को देख लगा जैसे वो लड़के की हरकत से पहले से न सिर्फ वाकिफ़ थी बल्कि ख़ासी परेशान भी थी ...ये देख पद्मा सोचने लगी कि आखिर नये जवान होते खून में ऐसा कौन सा हार्मोन होता है जो उनको ऐसे उलटे सीधे काम करने और अपनी जान जोख़िम में डालने की इच्छा से ग्रसित कर देता है ..। बाहर बहुत ठण्ड थी लड़की लड़की अभी भी कांप रही थी वो सिकुड़ी हुई कम्बल तान लेट गयी।

पद्मा की आँखों से अब नींद गायब थी..उसे फिर कुछ ..याद आने लगा वो मल्लू नाव वाला जो सुबह सवेरे हमेशा श्यामली पद्मा की स्कूली टोली के इंतजार में अपनी चार सवारियां छोड़ नदी किनारे .. बेसब्री से आँखें टिकाये रहता था..भोला भाला मल्लू दिल ही दिल में चाहता था श्यामली को। . हिंदी के अपनी चौथी पास वाले कच्चे पक्के शब्दों से कागज़ पर अपने मन की बात लिखी थी मल्लू ने और पद्मा को ही देकर कहा था अपने लिए श्यामली से सिफारिश करने को। पहली बार पद्मा के दिल में कुछ जल उठा था श्यामली को सोचकर। उस रोज़ फिर उठा था महीने का वही पेट दर्द श्यामली जिसके चलते श्यामली स्कूल नहीं आई थी। इन दिनों में उसे बहुत तेज़ पेट दर्द होता था कभी कभी तो वो खूब चिल्लाती थी। उसे डॉ. के पास ले जाकर इंजेक्शन तक देना पड़ता था। श्यामली का दर्द अहसास कर पद्मा के मन की जलन ठंडी हो गयी थी .। .श्यामली के दर्द में उस रोज़ वो मल्लू का खत देना भूल गयी कम से कम उसमें श्यामली से तो यही कहा था। अगले दिन स्कूल जाते हुए जब पद्मा ने मल्लू का लेटर श्यामली को दिया तो नतीजा ये हुआ श्यामली ने स्कूल जाने वाला घाट का रास्ता ही बादल लिया।

पद्मा को याद आ रहा था उपाध्याय आंटी के घर का आँगन वही नीम का पेड़ जिस पर पद्मा और श्यामली झूला बंधवाने के लिए सुनीता आंटी की लाख मिन्नतें करती थीं। जब सुनीता आंटी के बेटे विमल को झूले की परमीशन मिलती थी...तो वो भागा हुआ आकर कहता था कि “चलो झूला तैयार है..., बस शाम को कत्थक करके दिखाना होगा”.... बस यही छोटी सी शर्त रहती थी विमल की हमेशा की तरह ” कत्थक करने में क्या हर्ज़ है”... ये सोच कूदती हुई श्यामली और पद्मा चल देती थी झूला झूलने,श्यामली के साथ विमल भी कत्थक सीखता था। ये विमल कान्हा बना करता था श्यामली राधा और पद्मा मीरा। पद्मा गाना गाती थी और विमल और श्यामली एक पैर में घुंघरू बांधे कत्थक करते थे,विमल के पास घुंघरू नहीं थे श्यामली ही उसे अपने एक पैर के घुंघरू देती थी। विमल और श्यामली ने स्कूल कॉलेज के कई सारे प्रोग्राम में एक साथ परफॉर्म भी किया था।

जब विमल ने भी अपने मन में श्यामली के प्रति पल रहे प्रेम को श्यामली के सामने रख दिया तो श्यामली ने उस आंगन में जाना ही छोड़ दिया। उस रोज़ बहुत रोई थी श्यामली क्यूंकि उसके मना करने के बाद जब विमल ने अपने हाथ की नस काटने की कोशिश की तो घरवालों ने देख उसे बचा लिया लेकिन इस बात के लिए श्यामली को ही ज़िम्मेदार मान सुनीता आंटी ने बहुत कुछ सुना दिया था श्यामली और उसके घरवालों को। बिना किसी गलती के ....डी......नाल ......जादी ...कुलच्छिनी ..न जाने क्या क्या सुनना पड़ा था माँ से उसे और कत्थक सीखना भी बंद हो गया था .। .वो तो पद्मा के घरवालों के बहुत समझाने के बाद और श्यामली के भूख हड़ताल न तोड़ने पर आखिरकार श्यामली के घरवाले माने थे इस शर्त पर की कॉलेज खत्म होते ही तुरंत उसकी शादी हो जाएगी और वो कत्थक बस अपने शौक के लिए ही सीखेगी बाज़ार में नाचकर लड़के पटाने के लिए नहीं।

श्यामली तो इसी बात से खुश हो गयी थी की उससे उसके घुंघरू नहीं छीने जायेंगे। कत्थक में स्टार बनना चाहती थी श्यामली। स्कूल के बाद कॉलेज भी ख़त्म हुआ और जिंदगी के दो अलग अलग रास्तों पर चला पड़े पद्मा और श्यामली ....

सुबह के 7 बज गये थे दिसम्बर की सर्दी, कोहरे की चादर में लिपटा हुआ बनारस, पद्मा को ट्रेन की खिड़की के शीशे के उस पार से दिखाई दे रहा था। तभी मिट्टी के कुल्हड़ में चाय भरते हुए रेलवे के वेंडर ने आवाज़ लगायी “गरमा गरम बनारसी कुल्हड़ वाली चाय”.....पद्मा ने भी एक चाय ले ली और चाय से उठती गर्म भाप से बाहर के सर्द भाप को मापने लगी...आज चाय में स्वाद था मौसम में मिजाज़ था और दिल में थी अपनी सबसे प्यारी दोस्त से मिलने की आरजू। श्यामली स्टेशन आना चाहती थी पद्मा को लेने लेकिन पद्मा ने उसे मना कर दिया था ये कहकर कि वो अपने ही शहर तो आ रही है,आधी दुनिया घूमने के बाद उसे अब बनारस के किसी पते पर पहुँचने में भला क्या समस्या होगी और फिर ससुराल से स्टेशन श्यामली का इस तरह आना शायद श्यामली के ससुराल वालों को अच्छा न लगे ..... यही सब नम में सोच पद्मा ने श्यामली को स्टेशन आने से मना कर दिया था।

स्टेशन पर उतरकर पद्मा ने टैक्सी की और अपने स्मार्ट फ़ोन में जीपीएस मैप ओन करके लोकेशन देखने लगी। बनारस की गलियाँ बाज़ार मुहल्ले सबका रंग ढंग तो बदला हुआ लग रहा था पद्मा को लेकिन इन सब में बसी हुई बनारस की आत्मा आज भी वैसी ही थी ...मंदिरों में बजते घंटों की गूंज गंगा के पवित्र दर्शन का अहसास दुकानों से आती जलेबी, रबड़ी और बर्फी की सुगंध,रात को खिले रंग बिरंगी फूलों की खुशबू..घाट पर लगी हुई नाव की कतारें,पान के पत्तों भरी वो टोकरियाँ वो केवड़े की महक सबकुछ तो था ...बस रूपरंग में थोडा सा बदलाव ज़रूर था लेकिन सबकी आत्मा आज भी वैसी ही, किसी ने सच ही कहा है धरती पर एकमात्र बनारस ही ऐसा स्थान है जो कभी नहीं बदल सकता। 20 मिनट के सफ़र के बाद काले गेट पर टैक्सी रुकी ,पद्मा जैसे ही टैक्सी से उतरी श्यामली आरती की थाली हाथ में लिए गेट पर आ गयी ..नन्ही ऋतू समझ गयी की यही पद्मा आंटी है तो उसने भी माँ के कहे अनुसार अपने दोनों हाथ अभिवादन में जोड़ लिए, आरती की थाली रखते ही पद्मा को श्यामली ने गले लगा लिया। दोनों की आँखों का सूखा हरा हो गया और पलकों की बारिश की बूंदों से दोनों के तन की सूखी मिट्टी में ससोंधापन जाग उठा, श्यामली ने जाने किस बिखराव के डर से खुद को संभालते हुए पद्मा से अलग कर लिया दोनों के मन में कई सवाल थे लेकिन दोनों मौन। श्यामली जैसे किसी अनजाने सवाल से बचते हुए पद्मा से सफ़र हाल पूछती रही। बातों ही बातों में श्यामली चाय के दो कप के साथ पकौड़े भी ले आई। चाय खत्म हुई और बातों का सिलसिला शुरू हुआ। ऋतू पद्मा आंटी की लायी हुई चॉकलेट और खिलौने लेकर अपने दोस्तों के साथ खेलने चली गयी थी। घर में श्यामली के माता पिता की तस्वीर देखकर पद्मा ने पूछा “आंटी अंकल की तस्वीर यहाँ ...?श्यामली ने बताया कि उसके माँ पापा यहाँ इस घर में किराये पर रहते हैं पुराने घर में छोटा भाई अपनी पत्नी के साथ रहता है। जब भी ऋतू की छुट्टियां होती हैं श्यामली यहाँ आकर माता पिता के साथ रहती है। ये सुन पद्मा को कुछ झटका सा लगा क्यूंकि उसने बचपन से श्यामली के घरवालों को बेटे के बहुत करीब देखा था और आज उस बेटे ने अपने ही माँ बाप को इतना दूर और अकेला कर दिया ऐसा सोचा तक नहीं था पद्मा ने ...अभी तक जो बनारस पद्मा को कुछ ख़ास बदला हुआ नहीं लग रहा था उसमें कुछ पलों में ही बहुत कुछ बदला हुआ महसूस करने लगी थी पद्मा।

श्यामली के माता पिता बाज़ार गये थे उनको पद्मा के आने के बारे में मालूम था इसलिए वो जल्दी ही घर आ गये ..पूरा दिन सबने ख़ूब बातें की। रात को पद्मा ने जब श्यामली के हाथ का बना गाज़र का हलवा और श्यामली की माँ के हाथ के आलू गोभी के पराठे खाए थे पुराने स्वाद जुबां पर उतर आये। पद्मा के लिए अलग कमरा तैयार किया था। लेकिन पद्मा को तो बीती रात बस श्यामली के बारे में सोचकर ही नींद नहीं आई थी तो आज भला कैसे वो अकेले एक कमरे में चैन से सो सकती थी उसे तो अभी खूब बाते करनी थी श्यामली से ..रात को दांत मांजते हुए पद्मा को याद आया की अभी तक श्यामली ने अपने ससुराल के बारे में तो कुछ खास बताया ही नहीं। जब पद्मा, श्यामली के कमरे में ये सवाल लिए गयी तो देखा श्यामली हाथ में ब्रुश पर पेस्ट लगाये हुए सिकुड़ी हुई मासूम बच्चे की तरह आंखें मूंदे लेटी सो चुकी थी। पास वाले दूसरे बेड पर ऋतू अपनी नानी के साथ सोयी थी। पद्मा का मन हुआ कि श्यामली को जगाये उसे अलग कमरे में ले जाए और खूब बाते करे जोर जोर से हंसे, खूब शिकायतें करे जी भरकर रोये। श्यामली को देखकर लगता था जैसे कितनी ही रातों से सोयी नहीं हो जाने कब की थकान थी जो आज नींद के आग़ोश में जाकर दूर हो रही हो। गहरी नींद में थी श्यामली इसलिए पद्मा ने उसे नहीं जगाया बस उसके हाथ से चुपके से ब्रुश लेकर अलग रख दिया और श्यामली के बगल में जाकर लेट गयी उसे श्यामली के घुघरुओं की याद हो आई इसलिए उठकर उसके पैर देखने लगी,श्यामली के पैरों में घुंघरू नहीं थे। पद्मा ने सोचा शायद शादी के बाद श्यामली का पहला प्यार घुंघरू नहीं उसका पति हो गया है इसलिए घुंघरू के लिए श्यामली का प्यार कम हो गया है। ये बात सोचते हुए पद्मा के दिल में गुदगुदी सी होने लगी,और होठों पर हंसी का कतरा झलक आया। पद्मा श्यामली के पास ही सो गयी। सुबह जब पद्मा की आँख खुली तो उसने देखा ...घर के सभी अपने काम में लगे थे। अंकल सुबह का अखबार पढ़ रहे थे, आंटी जी किचन में थीं ऋतू टीवी देख रही थी और पद्मा पूजा कर रही थी। श्यामली जब पूजा करके उठी तब तक पद्मा भी नहा चुकी थी श्यामली ने पद्मा को प्रसाद देने के लिए हाथ आगे बढाया तभी पद्मा ने पूछ लिया “श्यामली तुम्हारे पति क्या करते हैं उनके बारे में तुमने कुछ नहीं बताया ...?”श्यामली के हाथों से पूजा की थाली फ़िसल गयी,उसके चेहरे का रंग बदल गया ...आंटी जी किचन छोड़ झट से बाहर आ गयी और थाली उठाने लगी। श्यामली को चाय बनाने को बोल खुद श्यामली के पति के बारे में यूँ बताने लगी जैसे पद्मा ने श्यामली से उसके पति नहीं उसकी माँ से दामाद के बारे में पूछा हो। “नवीन जी इंजीनियर हैं पूरे 50,000 रूपए तनख्वाह है उनकी अच्छा घर, गाड़ी सब कुछ है और अपनी ऋतू बनारस के अच्छे अंग्रेजी स्कूल में पढ़ती है,। बड़े बड़े लाइन में लगे थे नवीन के लिए लेकिन नवीन ने श्यामली को पसंद किया , श्यामली के मामा ने रिश्ता कराया था बड़ी मुश्किल से अपनी श्यामली वहाँ खूब मज़े में है” ....आंटी जी की बात और श्यामली के चेहरे के भाव में कोई मेल नहीं था। जब पद्मा ने श्यामली से पूछा की वो पति के साथ खुश है की नहीं तो श्यामली ने भी गोलमोल जवाब दिया।

दोपहर के खाने के बाद श्यामली और पद्मा बनारस घूमने निकले ...दिनभर घूमकर जब शाम को दोनों घर लौटे तब भी पद्मा का सवाल सुबह की तरह ही ठहरा था वो बीता नहीं था। लेकिन पद्मा जानती थी की जवाब मिलना इतना आसान नहीं इसलिए उसने श्यामली से दोबारा उस बारे में कुछ नहीं पूछा। श्यामली और पद्मा ने देर रात तक बाते की..बातें जिनमें शब्द तो थे लेकिन बातें नहीं थीं...बातें तो दिल की किसी कोठरी में कैद थीं ..पद्मा सो गयी ...अगले दिन पद्मा को शूटिंग लोकेशन पर पहुंचना था।

पद्मा अपने काम पर लौट आई थी लेकिन अपना मन और कुछ सवाल श्यामली के पास छोड़ आई थी। 10 दिन की शूटिंग की पूरी हुई टीम को मुंबई जाना था एक सप्ताह का ब्रेक था फिर अगला शेड्यूल लगना था। टीम मुंबई के लिए निकल गयी थी लेकिन पद्मा नहीं गयी वो बनारस में ही थी उसे श्यामली से मिलना था,उसके पास पद्मा का मन था और कुछ जवाब थे जिन्हें लिए बिना वो मुंबई वापस नहीं जाना चाहती थी। इसलिए उसने श्यामली को कॉल किया श्यामली का फ़ोन स्विच ऑफ बता रहा था। पद्मा ने तुरंत टैक्सी पकड़ी और श्यामली की माँ के घर पहुंच गयी। पद्मा ने थोड़े नाटकीय मन से श्यामली की माँ से कहा कि वो मुंबई जाने से पहले एकबार श्यामली से यूँ ही मिलना चाहती है कुछ उपहार हैं जिन्हें वो उसे देना चाहती है, इस तरह पद्मा को श्यामली के घर का पता मिल गया, पद्मा श्यामली से मिलने उसके घर पहुंच गयी यानी की उसके ससुराल ..श्यामली थोड़ी हैरान हुई फिर नाटकीयता की चुनर ओढ़ ली ....घर की रौनक देख उसे सचमुच ही लगा कि श्यामली को भरा पूरा सब मिला है। श्यामली सोफे पर ऋतू को गोद में लिए सुला रही थी। नौकरानी किचन में पद्मा के लिए चाय बना रही थी। नवीन भी अपने कमरे से आकर पद्मा के पास सामने के सोफे पर बैठ गया था ...और पद्मा से मुंबई ,जॉब और श्यामली की बाते करने लगा। रात को नवीन के कहने पर पद्मा रुक गयी उसे रुकना ही था क्यूंकि श्यामी से बात जो करनी थी लेकिन अब बातों क्या मतलब सब कुछ तो ठीक ही है। अगले दिन ऋतू स्कूल और नवीन ऑफिस चला गया सास पड़ोस की अपनी सहेली के घर , अब पद्मा और श्यामली दोनों अकेली थीं बात करने को समय भी था और मौका भी। लेकिन पद्मा को लगा कि सब सवालों के जवाब तो उसे मिल ही गये वो बेकार में ही परेशान थी श्यामली को लेकर। अगले दिन उसकी ट्रेन थी। पद्मा की जिद थी तो श्यामली और पद्मा साथ घूमने गये बचपन की सारी यादों सारी बातों को एक ही दिन में फिर से जी लेना चाहती थी.....श्यामली पद्मा की बातें हुई ..बीती जिंदगी की आने वाली जिंदगी की ..श्यामली के पूछने पर पद्मा ने उसे अपने शादी न करने की वजह बस इतनी बताई की पहले वो उस काम को करना चाहती है जिसमें उसे सबसे ज्यादा ख़ुशी मिलती है वो पहले खुद को वो बनाना चाहती है जो वो खुद बनना चाहती है ...जब तक वो खुद को नहीं समझ पायेगी कोई दूसरा उसे कैसे समझ पायेगा और प्यार ...कोई उम्र और समय कहाँ देखता उसे जब होना होता है हो ही जाता है .. और अब तक ऐसा हो जाने वाला प्यार जिसे करना न पड़े नहीं हुआ ...खुले और सुलझे मिजाज़ वाली पद्मा को श्यामली सुनती जा रही थी ....पद्मा बोलती जा रही थी ... पद्मा और श्यामली जब दिन-भर के बाद घर लौटे तो शाम हो चुकी थी । डिनर के बाद पद्मा ऋतू और श्यामली एक रूम में थे। सब कुछ ठीक था फिर भी जाने क्यूँ पद्मा को लग रहा था जैसे श्यामली कुछ छिपा रही है। यही सोचते सोचते और श्यामली की बाते सुनते हुए पद्मा सो गयी।

सोते हुए पद्मा को हिचकी आने लगी वो पानी पीने को उठी तो देखा श्यामली बिस्तर पर नहीं थी उसे किसी के फ़ोन पर बात करने की आवाज़ सुनाई दी। पद्मा ने देखा श्यामली फ़ोन पर बात कर रही थी कुछ देर उसकी बाते सुनकर उसे लगा जैसे दूसरी ओर कोई लड़का है एक घंटे के बाद फ़ोन शायद इसलिए कट हुआ क्यूंकि श्यामली के फ़ोन की बैटरी डिस्चार्ज हो गयी थी। पद्मा चुपचाप दबे क़दमों से बिस्तर पर आ गयी। आधे घंटे के बाद श्यामली फिर फ़ोन पर बात करने लगी। बात करते करते वो कमरे से बाहर चली गयी। जाने कब तक बात करती रही पद्मा को पता नहीं, उसकी आंख़ लगी। अगले दिन चाहकर भी पद्मा कुछ नहीं पूछ पाई श्यामली से पता नहीं क्यूँ एक पारदर्शी सी दीवार सी महसूस हुई पद्मा को अपने और श्यामली के बीच।

शाम को स्टेशन पर नवीन छोड़ गया था पद्मा को। रात हो गयी थी ट्रेन नहीं आई थी २ घंटे बाद पता च ठण्ड में धुंध के चलते ट्रेन अभी भी और 7 घंटे लेट थी,ये ये सात घंटे बढ़ भी सकते थे इतना टाइम स्टेशन पर बिताना पद्मा को ठीक नहीं लगा इसलिए उसने श्यामली और नवीन का फ़ोन ट्राई किया। फ़ोन किसी ने नहीं उठाया,। पद्मा फ़ोन मिलाते हुए ही टैक्सी पकड़ उनके घर पहुंची। बहुत देर बेल बजने के बाद श्यामली की सास ने गेट खोला। पद्मा ने उनको अपने लौटने की वजह बताई। नवीन की कार नहीं दिखी थी गेट के पास पद्मा के पूछने पर श्यामली की सास ने बताया, नवीन अपने दोस्त की शादी में गया है सुबह तक आ जायेगा। पद्मा श्यामली के कमरे की ओर गयी तो देखा श्यामली बेड पर नहीं ज़मीन पर बेसुध पड़ी थी ...उसके बदन पर ठीक से कपड़े भी नहीं थे। बोबेरोन का खाली इंजेक्शन टूटा हुआ बेड के नीचे पड़ा था। पद्मा कुछ डर गयी थी ये सब देखकर उसने झट से बेसुध पड़ी श्यामली की अस्त व्यस्त हालत ठीक की और उसे बेड पर लिटाया। उसे नींद से जगाकर पानी पिलाया ..श्यामली की आँखों से आंसू बह रहे थे काजल, बाल बिखरे थे ..श्यामली की नींद टूटी और जब उसने पद्मा को अपने पास पाया तो वो डर गयी और उठकर पद्मा से कुछ दूर खिसक गयी, पद्मा को वहां से चले जाने को कहने लगी,अब पद्मा सचमुच ही डर गयी थी और वो उससे उसके रोने की वजह पूछने लगी। पद्मा के कई बार पूछने पर भी श्यामली ने मुंह से कुछ नहीं कहा बस आँखों से आंसू बहते रहे थे वो सिसक रही थी। पद्मा भी कहाँ मानने वाली थी,पद्मा ने श्यामली को जोर का चांटा मारा और वो वो रोने लगी, पद्मा श्यामली से लिपट गयी और खुद भी जोर जोर से रोने लगी श्यामली से जब पद्मा का रोना नहीं देखा गया तब उसने अपनी चुप्पी तोड़ी ...श्यामली ने जो कहा उसे सपने में भी पद्मा नहीं सोच सकती थी ...श्यामली ने बताया कि जिन घुंघरुओं से वो जान से भी ज्यादा प्यार करती थी एक दिन वो घुंघरू ही उसकी तबाही का कारण होंगे ये नहीं सोचा था कभी उसने .. श्यामली का मन मुखर था ...”मुझमें ऐसा कुछ खास नहीं था, पेशे से इंजीनियर और अच्छे दिखने वाले अमीर नवीन से रिश्ते के लिए। फिर भी उसने मुझे पसंद किया बिना दहेज़ के शादी की सब कुछ बहुत अच्छा था,नवीन को मेरा नाचना पसंद था उसने मुझसे कहा था की वो चाहता है की मैं कथक में स्टार बनने का अपना सपना पूरा करूं .. सगाई से शादी के बीच का 1 साल मेरे लिए किसी सुंदर सपने सा था। मेरा परिवार खुश था मैं अपने घुंघरुओं के साथ खुश थीं और फिर शादी के बाद मैंने देखा नवीन का असली चेहरा भयानक बर्बर सड़ती हुई विकृत मानसिकता,एक बीमार शरीर...एक खूंखार ज़ेहन जो मेरे कोमल अहसासों को रौंदने वाला था मेरे सुंदर सपनों को ढाल बनाकर मुझे कुचलने वाला था। मेरे शरीर के साथ खिलौने की तरह खेलने वाला था, मेरी आत्मा की हत्या करने वाला था ..ये सबकुछ हुआ उस शादी की रात और उसके बाद कई रातों तक लगातार... जब मैंने नवीन की माँ से इस बारे में कहा तो उनके बिना बताये उनकी बहानेबाज़ बातों से मैं समझ गयी थी की वो सब जानती हैं फिर भी अपने बेटे के खिलाफ़ कुछ बोलना-समझना नहीं चाहती और मैं नवीन की जिंदगी में ये सब झेल रही पहली लड़की नहीं थी मुझसे पहले भी कोई या कई थीं लेकिन रस्मों-रिवाजों के बंधन में मैं ही बंधी थी या बांध दी गयी थी किसी जाल में ...दो रूप थे नवीन के एक जिसे दुनिया जाती थी और एक जिसे सिर्फ मैं या मुझ जैसी कुछ और औरतें जानती थी।

नवीन मेरे लिए एक राक्षस की तरह हो गया था जिसने मेरी दैहिकता ही नहीं नहीं बल्कि मेरे मन का शोषण किया था बार बार जाने कितनी बार, गुजरता हर दिन मुझे न जाने कैसी सीलन से भरता गया, जिंदगी को भरे पूरे मन से जीने वाली मैं जाने कैसी शून्यता में खोती चली गयी। प्यार नहीं था हमारे बीच बस रिश्ता था जिसे सबने पति पत्नी का नाम दिया था ...लेकिन नवीन में पति नहीं दिखा कभी मुझे...लाख कोशिशों के बाद भी नहीं ढूंढ पाई मैं नवीन में नवीन को .... मैंने अपनी आपबीती माँ को बताई.. मैंने कहा मेरा पति मानसिक रूप से बीमार है उसकी हरकतों को सहना मेरे सामर्थ्य के बाहर होता जा रहा है ... तो मैं हैरान थी माँ के रिएक्शन पर उनके चेहरे पर कोई उलझा हुआ भाव तक नहीं था न कोई शिकन,मेरे दर्द की चीखें सुनकर उनके मन में कोई दरार नहीं पड़ी। बड़ी सहजता से स्वीकार कर लिया माँ ने मेरे मन के उस भयंकर ज्वालामुखी को जो मेरे अस्तित्व को पल पल पिघला रहा था, मेरे भीतर की आग पर अपने मन का ठंडा पानी छिड़ककर बस माँ ने इतना कहा था कि “घबरा मत श्यामली बहुतों के साथ ये होता है, धीरे धीरे हालत ठीक हो जाते हैं, सब ठीक हो जायेगा और वैसे भी तेरे पति का घर ही अब तेरा घर है तुझे अपने ससुरालवालों के हिसाब से चलना होगा, कुछ तकलीफ़ें भी मिलें तो सहना होगा यही तेरा पत्नी धर्म है” घर से लौटते हुए पूरे रास्ते यही सोचती रही थी कि क्या पत्नी धर्म के नाम पर हर औरत को ऐसा कुछ झेलना पड़ता है ? अगर हाँ, तो क्यूँ? क्यूँ ये पुरुष स्त्री के मानसिक और शारीरिक वजूद को पल भर में कुचल देते हैं? कौन सी सत्ता और कौन से पुरुषत्व का प्रदर्शन होता है ये ?किसे हराना चाहते हैं और क्या जीतना चाहते है ? पागल होने लगी थी मैं पद्मा, मैंने सारे पुरुष समाज को नवीन कर दिया था हर पुरुष में नवीन दिखने लगा था यहाँ तक की पापा और भाई में भी, नफ़रत हो गयी थी मुझे सब पुरुषों से, और फिर एक दिन माँ के पास संगीत कला अकादमी से लैटर आया। अकादमी में वार्षिक कार्यक्रम होना था जिसके लिए कत्थक डांसर चाहिए थी। जिस बात को सुनकर मुझे ख़ुशी होनी चाहिए थी उसका कुछ खास असर नहीं हुआ था मुझपर क्यूंकि जो घुंघरू मुझे जान से ज्यादा प्यारे लगते थे अब जाने क्यूँ उनसे नफरत सी होने लगी थी। शादी की रात नवीन ने जब मुझे मेरी नग्नता में पैरों में घुंघुरू पहन नाचने को कहा तो सिर्फ मैं ही अपमानित नहीं हुई थी बल्कि मेरी आँखों में उतर आये अपमान के आंसुओं का रुन्दन घुंघरू की खनक में मुझे साफ़ सुनाई दे रहा था। उस दिन मैं रो रही थी मेरे घूँघरू रो रहे थे और सामने हाथ में शराब का गिलास लिए बैठा मेरा पति नवीन हंस रहा था। वो बेडरूम तवायफ़ के कोठे जैसा हो गया था, मैं तवायफ़ और नवीन .......।

नवीन को ऑफिस के काम से देश से बाहर जाना पड़ा था कुछ दिनों के लिए, मै माँ के पास थी तभी अकादमी से पुरानी सहेलियां मुझसे मिलने आई और उन्होंने मुझे अपनी मिन्नतों से अकादमी जाने को मना लिया,ये प्रेम भी अजीब होता है भले ही इससे दूर रहने के हम कई बहाने ख़ोज लें ये जब सामने होता है तो हमारा कोई भी बहाना काम नहीं आता है ऐसा ही हुआ मेरे साथ अकादमी का प्रोग्राम हाल देखकर और उसकी लाल रंग मखमली कारपेट पर पाँव रखकर मेरे पैरों को जो हुआ उसकी प्रतिक्रिया मेरी आँखों से बरस पड़ी और जब कुसुम ने मेरा फॉर्म भरते हुए पूछा “श्यामली तेरी हाँ है न ...? तो मेरे मुंह से कुछ नहीं निकला ...फॉर्म भर गया था...। अगले दिन से प्रैक्टिस थी, मेरी सहेलियों को मुझपर भरोसा था तभी उनकी सिफारिशों के बाद ही तो मेरे घर अकादमी का लैटर आया था। मैं डांस प्रैक्टिस के पहले ही दिन मिली थी उज्जवल से... वो सांवला सा घुघराले बालों वाला 6 फिट का लड़का उम्र में मुझसे 3 साल छोटा था, मथुरा से बनारस आया था कार्यक्रम में भाग लेने। उज्जवल और मेरा जोड़ा बनाया गया था डांस में, बाकी सभी कोरस में लडकियां, कृष्ण की लीलाओं पर कत्थक करना था। छोटी छोटी उन रास लीलाओं की कथाओं को कितनी सादगी से अभ्यास करता था उज्जवल मेरे साथ, उसके स्पर्स में पवित्रता थी उसकी बातों में सम्मोहन था जिसमें मैं खोती चली गयी। बिना कुछ कहे कहा जा रहा था कुछ ,सुना जा रहा था कुछ। उज्जवल नवीन जैसा नहीं था। उसने मेरे मन में पल रही पुरुष परिभाषा को बदल दिया था , वो मुझे सबसे अलग लगा था। उसका स्पर्श मुझे भाने लगा था उसे देखना और उसके बारे में सोचते रहना पता नहीं कब मेरी आदत बन गया मुझे पता ही नहीं चला। ये सब मुझे उसी की किसी क्रिया की प्रतिकिया सा लग रहा था। प्रोग्राम के एक रोज़ पहले जब प्रैक्टिस के बाद मैं अकेली घाट पर नाव का इंतज़ार कर रही थी तो उज्जवल मेरे पीछे आया था कुछ कहना था उसको शायद ..वो कुछ कहता उसके पहले ही नाव आ गयी थी घाट पर, मैं उसपर बैठ गयी थी। उज्जवल भी उसी नाव पर सवार हो गया था। मैं उज्जवल को देख नहीं रही थी बस उसकी औपचारिक बातों में हाँ या न कहकर मुस्कुरा दे रही थी। बहुत देर बाद इस बात पर मेरा ध्यान गया था की वो नाव वाला मल्लाह मल्लू था जिसकी नाव पर आज भी मेरे घुन्घुरुओं की पट्टी से टूटकर गिरे नन्हे घुन्घुरु का हाथ का बना छल्ला लटका था जिसे उसने ही तो बनाया था पतले पतले लोहे के तारों में पिरोकर मुझे और तुझे दिखाने लाया था.... पद्मा!... तुझे याद है न..? पद्मा! .....श्यामली बोलती जा रही थी, पद्मा श्यामली की हाँ में हाँ मिला रही थी। उस रोज़ मल्लू की कही एक बात ने किसी बात को बढ़ने न दिया। “श्यामली तुम्हारे पति कैसे हैं ठीक हैं न ...?तुम्हारी माँ ने बताया था की वो विदेश गये हैं”...मेरी एक उस “हाँ” ने मेरे कई जवाबों को “नहीं” में बदल दिया था जवाब जिनके सवाल पूछे नहीं गये थे। मैंने घर आकर बहुत सोचा.... मैंने मल्लू, विमल और जाने कितने कहे अनकहे प्रेम प्रस्तावों को ठुकराया था क्यूंकि मैं डरती थी कि कही प्रेम के सतरंगी सपने मुझसे मेरे घुंघरू न छीन लें लेकिन अंत क्या हुआ न प्रेम मेरा हुआ न घुंघुरू ही ....इस बार मैं प्रेम पाना चाहती थी क्यूंकि अब घुंघरू खो जाने का डर शेष नहीं था। मै अब किसी डर में कैद नहीं थी। मैं आज़ाद थी मुझमें प्रेम की प्यास थी और मेरे सीने में था एक घायल मन जो जाने कब से प्रेम की प्रतीक्षा कर रहा था जिसे मैंने कभी नहीं समझा। मैं खुद से प्रेम करना चाहती थी मैं उज्जवल से प्रेम करना चाहती थी।

प्रोग्राम बहुत अच्छा हुआ था, सभी बहुत खुश थे। प्रोग्राम के बाद मैंने उज्जवल से अगले दिन मिलने को कहा था। उज्जवल से मिलकर मैंने अपनी सारी बाते उससे कह दी मैंने शादी से पहले के जीवन और नवीन के साथ मेरी जिंदगी के सारे टूटे- समूचे पल रख दिए और ये भी कह दिया की मै भी उसे पसंद करती हूँ... उस दिन मैंने मन में कोई उम्मीद नहीं पाली थी, न मन में कोई डर था कि अगर उज्जवल ने मेरे प्यार को न अपनाया तो क्या होगा ? बस मेरी चाहत ये थी कि उसे बता दूँ कि मैं क्या चाहती हूँ...उस रोज़ अपनी सारी बातें कहकर मैं उसकी ख़ामोशी में अपने लिए जवाब खोजने के लिए ज्यादा देर उसके सामने नहीं ठहर पाई थी क्यूंकि कुसुम की एक आवाज़ ने मुझे कुछ सुनने न दिया और न ही उज्जवल को कुछ कहने ही दिया ...कुसुम और मैं रिक्शे पर बैठे थे कुसुम को शायद कुछ लेना था मार्किट से वो मुझे अपनी शोपिंग लिस्ट सुनाती जा रही थी, मै मेरे पीछे खड़े उज्जवल के क़दमों से अपनी नज़रों के दरम्यां जो खायी थी उसे प्यार की महक से भर देना चाहती थी मगर तभी नवीन का फ़ोन आया , मैं समझ गयी थी कि वो देश लौट चुका है और घर भी ...अब मैं चाहकर भी पीछे पलटकर नहीं देख पा रही रही थी ...कुछ देर पहले जिस खायी में प्यार की महक को मैं महसूस कर रही थी वहां अब काले सांप लोटते से महसूस हुए मुझे जिनका विष मेरी नसों में उतर आया था मेरी आँखों में आंसू भर आये थे, आंसू की एक बूँद कुसुम की नंगी बाह पर जा गिरी थी ..और मैंने आँख में तिनके का सहारा लेकर मन की एक बड़ी बात को कुसुम के सामने बहने से रोक लिया था।

अगले ही रोज़ मै नवीन के साथ उसके घर आ गयी वो घर जो शादी के 2 साल बाद भी मेरा नहीं था मेरी जिंदगी फिर वैसी ही चलने लगी थी जैसी इसे मैं इस घर में छोड़ गयी थी लेकिन इस बार कुछ बदल गया था भले ही बाहर सबकुछ पहले जैसा था लेकिन मेरे मन में एक नई दुनिया जन्म ले चुकी थी उज्जवल और मेरी दुनिया हमारी बातों की दुनिया हमारी यादों की दुनिया और शायद हमारे प्यार ...? हाँ अभी तक कुछ कहा नहीं था उज्जवल ने और अब शायद कभी उज्जवल से मेरी मुलाकात भी नहीं होने वाली थी ....महीने बीत गये थे और उज्जवल के जिंदगी में लौटने की आस भी ठंडी होती जा रही थी ...और फिर एक दिन एक फ़ोन आया मैंने जब फ़ोन कॉल रिसीव की तो हेलो सुनते ही समझ गयी कि दूसरी ओर उज्जवल ही था ..उसने मुझसे कहा कि वो मुझसे बहुत प्यार करता है। उस रोज़ वो मेरी बातों को सुन इस बात निर्णय नहीं ले पाया कि उसे क्या करना चाहिए ... उज्जवल की बातों से बस उसके मेरी जिंदगी में लौट आने के अहसास की चाशनी में ही डूबी रही मैं बहुत देर बाद उसके कई बार हेलो हेलो कहने पर अपने ख्यालों की दुनिया से बाहर निकली .. अब अक्सर ही नवीन के ऑफिस और सासू माँ के सत्संग में चले जाने के बाद मेरी आँखें नोकिया मोबाइल फ़ोन की 2 इंच की स्क्रीन पर जा टिकती बार बार ... कान तो जैसे मोबाइल रिंगटोन के अलावा कुछ सुनना ही नहीं चाहते और देखो तो उज्जवल भी तो जैसे समझ ही जाता मेरे दिल की आवाज़ झट से उसका फ़ोन आ जाता मै उसे बीते दिन का सारा हाल सुनाती। उससे बाते करते कब घंटों बीत जाते पता ही नहीं चलता...मेरी जिंदगी में घुंघरू की खनक लौट आई थी। आईने के सामने मैं घुंघरू पहनकर नाचती थी ...गीत गाती थी ...उससे अपने प्रेम की बाते करती थी .....। अब मुझे दिन छोटे रातें सदियों जैसी लगती थी मेरा बस चलता तो मैं समय के पहर से रातों के हिस्से ही गायब कर देती और दिन की मुंडेरों पर चहकती बुलबुल की तरह उज्जवल के प्यार भरे गीत गाती ...लेकिन ऐसा कहाँ संभव था ...

उज्जवल के सपनों में खोयी मैं ये भूल ही गयी थी कि मुझे पिछले दो माह से मासिक नहीं आया था। जब ये बात सास को मैंने बताई तो उन्होंने मुस्कुराते हुए बधाई देते हुए डॉ के पास जाने तक की सलाह दे डाली ...सास को जिस जंग में जीत की ख़ुशी हुई थी मैं उसी जंग में हार गयी थी...कैसे हुई मुझसे ये गलती इसे समझने में मुझे इतनी देर क्यूँ हुई ? मैं अपने साथ हुए उस हर रोज़ के 2 से 3 घंटे के मानसिक और शारीरिक बलात्कार से जन्मने वाले बच्चे को स्वीकार करने के लिए हरगिज तैयार नहीं थी मैंने सोच लिया था इसे दुनिया में आने नहीं दूंगी।

उस रोज़ डॉ के क्लीनिक से निकलकर अपने माँ बनने की बात को कन्फर्म कर लेने के बाद भी नहीं मान पा रही थी मैं। सुबह से 6 बार आ चुके उज्जवल के फ़ोन को भी पिक कर पाने का साहस नहीं जुटा रही थी। ...मन में कोई तूफ़ान सा उठने लगा था जिसने सोच समझ सब कुछ को तहस नहस कर दिया था। पता नहीं कैसे उस रोज़ किसी और के घर को अपना घर समझ कर उसके बेडरूम तक पहुंच गयी थी और जाने किस सुध में नवीन को रो-रोकर उसकी जीत और अपनी हार सुना रही थी वो तो बेचारे उस अजनबी के मेरी बाह पकड़ झिंझोड़ देने पर ही मैं खुद में लौटी और उस बेचारे से माफ़ी मांगी। डॉ० की रिपोर्ट के बिखरे टुकड़े और पर्स उठाकर उस गलत पते से यू टर्न लेकर तेज़ क़दमों से बढ़ चली अपने अनचाहे सही पते पर ..... सास ने नवीन को मेरे माँ बनने की बात बिना डॉ की रिपोर्ट के बारे में मुझसे जाने ही बता दी थी .. नवीन और उसकी माँ दोनों ही बहुत खुश थे मेरे माँ बनने की खबर से। न चाहते हुए भी मैं माँ बनी ....सात महीने बाद ऋतू मेरी गोद में थी,मैंने इस बीच कभी उज्जवल को एक फ़ोन तक नहीं किया था। एक मीठे सपने की तरह वो मेरे दिल में था लेकिन मेरी जिंदगी में अब अंश तक नहीं था उसका। ऋतू माँ के घर हुई थी कुछ महीने माँ के पास रहकर बहुत कुछ देखा वहां भी भाई ने अपनी पत्नी के साथ एक ही घर में अपनी अलग दुनिया बसा ली थी, क्लर्क की सरकारी नौकरी से पापा रिटायरमेंट के बाद माँ के और करीब आ गये थे। दिनभर माँ का घर के कामों में हाथ बटाना और ऋतू को गोद में खिलाना उनकी दिनचर्या का हिस्सा हो गया। इसी बीच मुझे पता चला के मेरे न रहने पर नवीन ने किसी औरत से रिश्ते बनाने की कोशिश की जिसने नवीन पर अटेम्प्ट टू रेप का केस कर देने की धमकी भी दी बाद में पैसे के लेन देन से मामला रफा दफ़ा हुआ।

मैं ऋतू का चेहरा देख कभी खूब गुस्सा होती तो कभी उस नन्ही सी जान पर हाथ उठाती उसे खूब कोसती कभी उसे बिलखता देख मेरी ममता घायल हो जाती तो मैं उसे सीने से लगा लेती ..। . ऋतू से प्यार करूं या नफरत लेकिन मैं जानती थी की इसमें ऋतू की कोई गलती नहीं थी। ऋतू कब मेरी जान बन गयी मुझे पता ही नहीं चला .. और नवीन और उसकी माँ भी ऋतू से प्यार करने लगे मैं खुश थी ये देख की कम से कम नवीन अपनी बेटी के लिए एक अच्छा पिता दिखाई दे रहा था। थोड़े वक़्त बाद फिर नवीन का मेरे साथ वही बिस्तर वाला क्रूर सुलूक शुरू हो गया और अब तो पहले से भी ज्यादा बदतर हालत हो गयी थी कई बार तो रात को मेरी नींद में ही नवीन मेरे साथ शुरू हो जाता दिनभर के काम से थकी मांदी मैं दर्द से कराह के उठ बैठने की कोशिश करती तो अपने ऊपर नवीन की हैवानियत को चढ़ा पाती, ऋतू ओपरेशन से हुई थी दवाइयों के असर से मेरे लिए उन दिनों यूरिन कंट्रोल करना मुश्किल होता था लेकिन ऐसे में मेरे लाख मिन्नतें करने पर भी नवीन मुझे बाथरूम तक नहीं जाने देता था कई बार उसके वहशीपन मैं कई बार बार बिस्तर गीला कर चुकी थी ... इस बात से भी नवीन को कोई फ़र्क तक नहीं पड़ता था ...बस वो अपनी इन हरकतों के बाद उठकर बरामदे में चला जाता और मैं दर्द से कराहती रहती जब दर्द सहा न जाता तो बोबेरोन का इंजेक्शन लेती जिसे मुझे बचपन में पेट पर्द होने पर डॉ० द्वारा दिया जाता था फिर से ये मेरी आदत में शुमार हो गया। मेरी एक किडनी ख़राब हो गयी और नवीन के थप्पड़ों के एक कान घायल पहले ही से था जो अब भी कभी कभी रह रह कर दर्द होने लगता है। मैं बहुत परेशान थी लेकिन ऋतू की हंसी देख मैंने अपनी हालत से समझौता कर लिया था उधर भाई से माँ पापा का झगड़ा हो गया था जिसके चलते दोनों अलग किराये कर घर में रहने लगे थे। अब मैं ऋतू की छुट्टी वाले दिन सन्डे को उनके साथ समय बिताने लगी थी। स्मार्ट फ़ोन का दौर आ गया था। पापा अपनी पेंशन के पैसों से नया स्मार्ट फ़ोन लाये जिसमें एक सेट के साथ एक फ्री था एक उन्होंने मुझे दिया था और एक उन्होंने खुद रखा था। ये फ़ोन मुझे नवीन भी दिला सकता था लेकिन उसके हिसाब से मुझे इसका कोई काम नहीं था या कोई डर भी हो शायद उसे, मैंने खुद भी कभी उससे किसी चीज़ की कोई मांग नहीं की। ...माँ का ये नया वाला घर कुसुम के घर के बिलकुल पास था तो जब कभी मैं माँ के घर जाती ऋतू से मिलने कुसुम आ जाती।

कुसुम ने ही मुझे फेसबुक और व्हाट्स अप चालना सिखाया। उसने ये भी बताया की उज्जवल अभी भी मुझे याद करता है अक्सर पूछता है कुसुम से मेरे बारे में .। ..कुसुम को उज्जवल ने मेरे और अपने रिश्ते के बारे में कुछ बताया तो नहीं था लेकिन बिना कुछ बताये ही कुसुम समझ गयी थी उसकी आँखों से तो कम से कम यही लगता था। मैंने फेसबुक पर उज्जवल को रिक्वेस्ट भेजी और तुमको भी पद्मा। ..तुम दोनों से मेरी बात होने लगी एक वो था जो सब जानकार भी मुझसे प्यार भरी दो बाते करने लगा था एक तू थी जिसने मुझमें मुझे फिर से जिंदा कर दिया था। अब मेरी जिंदगी में ऋतू उज्जवल और तू थी तुम तीनों की दुनिया में जीकर मै जी रही थी और जी रही हूँ। जब भी उज्जवल या तेरा फ़ोन आता तो ऋतू मेरे मुस्कुराते चेहरे को देख खुश हो जाती और जब मैं अपनी दर्द भरी जिंदगी में खोयी रहती तो ऋतू के चेहरे पर भी मेरे चेहरे की उदासी तैर जाती। आज भी तुमको स्टेशन छोड़कर आने के बाद मेरे साथ वही हुआ जो नवीन के साथ रहकर लगभग रोज़ ही होता है। बस तुमने देख दिया ये नया है। यहाँ रहकर मेरी आँखों वाली अंधी सास कुछ नहीं देखती समाज का अंधापन अपनी आँखों में लिए मेरी माँ, मेरे सब कुछ बताने के बाद भी नहीं देख पाई और उसने अपनी आँखों का अँधेरा मेरी आँखों में भी भर दिया इसलिए अब कभी कभी मैं भी खुद को नहीं देख पाती हूँ। पद्मा तुमसे झूठ नहीं कह पाती इसलिए तुमसे बात करना ही बंद कर दिया था मैंने। तुम्हारा सामना करने की हिम्मत नहीं थी इसलिए तुमसे मिलने पर भी खुद को तुमसे छिपाती रही। मुझे डर था कि कही तुम मेरी गर्दन के नीचे मेरी छाती के ऊपर उभरे हुए दांतों के निशान न देख लो जो गुजरते वक़्त में स्याह तो हो गये मगर अब भी मिटे नहीं हैं।

कहीं तुम मेरे घायल मन की चीखें न सुन लो जो अब भी हमदर्दी की गीली मिट्टी पाकर हरी हो उठती हैं... और अब देखो न वही हुआ जिसका मुझे डर था। तुम्हारे आंसुओं की आंच के सामने मैं अपने दिल के मोम को पिघलने से नहीं बचा पाई। ...पद्मा और श्यामली एक दूसरे से लिपटी बस जार जार रोये जा रही थीं। पद्मा अपनी सबसे प्यारी सहेली के लिए कोई शब्द नहीं जुटा पा रही थी। हर शब्द पर श्यामली का दर्द भारी और गहरा था। बस आंसू ही थे जो श्यामली की आहों को आराम दे रहे थे। गर्म अहसास की चादर में लिपटी श्यामली के मन की सीलन आराम पा रही थी तभी नवीन की गाड़ी का हॉर्न सुनाई दे गया। पद्मा ने श्यामली से अपने साथ मुंबई चलने को कहा जिसके जवाब में श्यामली के कंपकंपाते होठों पर आंसुओं की धार बह गयी और वो पद्मा के सीने से चिपक गयी, छोटे से मासूम बच्चे की तरह इस पल श्यामली को लगा की उज्जवल पद्मा का रूप लेकर उसके सामने आ गया और उससे अपने साथ चलने को कह रहा हो उसे लगा जैसे पद्मा के रूप में उसमें अपने नये माँ बाप खोज लिए हों जो स्कूल टीचर की डांट और मार से बचाने को अपनी बच्ची को नये स्कूल में एडमिशन दिलाने की बात कह रही हो। श्यामली कुछ कह पाती इससे पहले ही नवीन कमरे में आ गया और पद्मा को देख बोला “अरे आप यहाँ आपकी ट्रेन ..? पद्मा आंसुओं को अपनी झुकी पलकों में छिपाती हुई बोली “हाँ मेरी ट्रेन 7 घंटे लेट थी उस वक़्त। बस अब 1 घंटे बाद समय है ट्रेन का मैं चली जाउंगी...”इस वक़्त कोई टैक्सी नहीं मिलेगी मैडम ये बनारस है मुंबई नहीं चलो मैं छोड़ देता हूँ ..”नवीन की लड़खड़ाहट में नशे का स्वाद साफ़ दिखायी दे रहा था। पद्मा को श्यामली की झुकी आंखें और खामोश होंठ और गले मिलकर पीछे हट गये क़दमों ने सब समझा दिया था। पद्मा अपना सामान लिए नवीन की कार में बैठ गयी थी कार चल चुकी थी जिसे कमरे की खिड़की पर खड़ी श्यामली देख रही थी उसकी परछाई को कमरे की पीली रौशनी पर पड़ती उसकी सुडौल परछाई को पद्मा तब तक देखती रही थी जब तक देख पाने समर्थ थी..कार आगे बढ़ गयी श्यामली पीछे छूट गयी। कुछ घंटों पहले जिस नवीन के बारे में पद्मा सबकुछ ठीक ठीक सोच रही थी अब उसी नवीन में उसे कुछ भी ठीक नहीं लग रहा था ...पद्मा चाहकर भी श्यामली के लिए कुछ कर पाने में असमर्थ पा रही थी खुद को ..पता नहीं क्यूँ ..

नवीन जा चुका था ,पद्मा ट्रेन में थी... पद्मा सोच रही थी कि क्यूँ वो अपनी सहेली की मदद नहीं कर सकती ..उसे किसका डर है श्यामली की माँ का ..? नवीन का ...? या समाज का ...?जब ये तीनों ही श्यामली को कुछ नहीं दे पाए सिवाय दकियानूसी खयालों ,तिरस्कार और अत्याचार के तो श्यामली अपना पूरा जीवन क्यूँ उनके लिए समर्पित कर रो रोकर जी रही जिनको उसकी कोई परवाह ही नहीं है ... ट्रेन चलने वाली थी ...पद्मा ट्रेन के अंदर थी लेकिन फिर भी उसे जाने क्यूँ ऐसा लग रहा था जैसे उसकी ट्रेन छूट रही है ....

इधर श्यामली की सिसकियाँ बढ़ गयी थीं अपनी पूरी कहानी बताते हुए उसके सारे बीते हुए दिन जी उठे थे ...नवीन की गाड़ी की लाइट बेडरूम की खिड़की पर पड़ते ही श्यामली की सिसकियाँ सिहर उठीं ...नवीन समझ गया था कि श्यामली ने पद्मा को उसके बारे में सबकुछ बता दिया है ...उसके चेहरे पर गुस्से की लाली थी जिसके निशान वो फिर श्यामली के बदन पर देना चाहता था।

नवीन को देखते ही श्यामली समझ गयी की आज उसकी खैर नहीं। नवीन ने शराब पी और श्यामली को गलियां बकने लगा उसे उल्टा सीधा कहने लगा, नवीन ने अपने गुस्से की धमक ज़माने के लिए और अपने भीतर के हैवान की फिर से जागी भूख शांत करने के लिए श्यामली के बदन पर ज़ोरदार झपट्टा मारा और उसके तन पर बचे कपड़े भी उतार दिए। श्यामली पर नवीन की हैवानियत सवार हुई ही थी की बेडरूम का दरवाज़ा कोई खड़काने लगा,जब नवीन ने कुछ देर तक दरवाज़ा नहीं खोला तो बाहर से आती आवाज़ और तेज़ हो गयी। .. मजबूरन नवीन ने श्यामली पर चादर फ़ेक दरवाज़ा खोला.. ....सामने पद्मा थी ...जिसे देख नवीन हैरान था उसके मुंह से निकला “अब क्या हुआ ?… मेरा कुछ बहुत ज़रूरी सामान यहाँ छूट गया था .. वो लेने आई हूँ उसके बिना नहीं जा सकती” अपना बैग कंधे से उतार वो श्यामली के क़रीब गयी और उसे कहा “चलो..... ! बिस्तर पर नंगे बदन चादर में लिपटी श्यामली सुबकती हुई खड़ी हुई और श्यामली से लिपट गयी। कमरे का नज़ारा देख पद्मा समझ गयी थी कि अंदर क्या चल रहा था ... नवीन पद्मा के इरादे भाप गया था, नवीन ने पद्मा की पीठ पर ज़ोरदार लात मारनी चाही लेकिन श्यामली ने उसे बचाया। पद्मा ने पूरा दम लगाकर नवीन की जांघों के बीच अपनी लात दे मारी थी.... दर्द के मारे नवीन की चीख उसके भीतर ही गुम हो गयी कहीं ...श्यामली समझ गयी थी कि अब उसे क्या करना है इसलिए वो झट से बैग में अपने कपड़े भरने लगी और ऋतू को अपने साथ लिए पद्मा के पीछे हो ली ....श्यामली की सास जब तक अपने बेटे के कमरे में आकर कुछ भी समझ पाती तब तक श्यामली पद्मा और ऋतू नवीन के घर से दूर जा चुके थे।

पद्मा की ट्रेन छूट चुकी थी लेकिन पद्मा जिंदगी के सफ़र में पिछड़ गयी अपनी दोस्त श्यामली के साथ सही ट्रेन में बैठ चुकी थी। चालू टिकट पर दूसरी ट्रेन में बैठ गये थे श्यामली पद्मा और ऋतू....। स्लीपर डब्बे वाली ये ट्रेन लगभग ख़ाली जा रही थी जिसके ऊपरी बर्थ पर श्यामली अकेली खिड़की की ओर मुंह करके लेटी थी दूसरी ओर पद्मा और ऋतू ...। पद्मा सो चुकी थी ..टी०टी० की आवाज़ से पद्मा की आँख खुली .....उसने मजाक में कहा ”वो घुंघरू वाली लड़की आपके साथ है” ..? हाँ मेरे साथ है वो घुंघरू वाली लड़की ...इतना कहकर पद्मा ने दो टिकट बनवा लिए..। ...श्यामली के पैरों में घुंघरू थे जो ट्रेन के हिचकोलों के साथ छन...से बज उठते जिसे सुन श्यामली नींद में भी मुस्कुरा रही थी....पद्मा मन ही मन सोच रही थी... सबसे बड़ी वाली घुंघरू प्रेमी यही तो है “वो घुंघरू वाली लड़की” ....

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रचनाकार: संस्मरण लेखन पुरस्कार आयोजन - प्रविष्टि क्र. 15 : घुंघरू वाली लड़की // लक्ष्मी यादव
संस्मरण लेखन पुरस्कार आयोजन - प्रविष्टि क्र. 15 : घुंघरू वाली लड़की // लक्ष्मी यादव
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