संस्मरण लेखन पुरस्कार आयोजन - प्रविष्टि क्र. 25 : यात्रा संस्मरण : अरुणाचल प्रदेश एक अविस्मरणीय यात्रा // डॉ0 कामिनी कामायनी

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प्रविष्टि क्र. - 25 अरुणाचल प्रदेश एक अविस्मरणीय यात्रा डॉ0 कामिनी कामायनी अपने मानव जीवन के इस व्यतीत होते जून अर्थात सन दो हजार सतरह के...


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प्रविष्टि क्र. - 25

अरुणाचल प्रदेश एक अविस्मरणीय यात्रा

डॉ0 कामिनी कामायनी

अपने मानव जीवन के इस व्यतीत होते जून अर्थात सन दो हजार सतरह के आखिरी दिनों में जब हम यानी मैं और मेरे पतिदेव आसाम के तेजपुर से निकल कर अरुणाचल के नहरलागुन ट्रेन से पहुंचे तब, हैरी पॉटर फिल्म के किसी दृश्य की भांति, वहाँ के विशाल और खाली, पहाड़ी रेलवे स्टेशन जो अभी-अभी ही बना है, को गहराती रात में देख कर कुछ अजीब सी सिहरन से भर गए। नया है, एकदम तो नहीं मगर एक हद तक जनशून्य ही कहा जा सकता है। बंदूक धारी एक दो जवान इधर उधर आते जाते दिख पड़ते हैं। हम लोगों का ईनर लाईन परमिट देखा, जो अत्यंत ही आवश्यक है यहाँ आने के लिए। पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार हम रिटायरिंग रुम में ही ठहर गए थे,बहुत बड़ा कमरा, गद्दे, चादरें, सोफा, पर्दे, सब कुछ नया, साफ सुथरा, काफी देर तक नींद नहीं आई । बाहर टीन के शेड पर रात भर बारिशों की बौछारें युगलबंदी करती रही थी।

यहाँ प्लेटफार्म पर मात्र एक दुकान, जहां खाने पीने का कुछ मिल जाता है रात में हमने भी कुछ वहीं से ले लिया था। सुबह की प्रथम किरण ने धुंआधार बारिश के बीच भी यह दर्शाने में कोई कोताही नहीं छोड़ी, कि सुदूर भारत का यह पहाड़ी प्रदेश वाकई एक नायाब तोहफा है, कुदरत का एक अनमोल करिश्मा है। हाँ, पर मेघराज कुछ ज्यादा ही मेहरबान हैं। ज्यों-ज्यों इसके आगोश में आने के लिए करीब आते गए थे, एक अपरिचित अनकही दास्तां सी आँखों के सामने परत दर परत खुलने लगी थी और हठात स्मृति में दस्तक दे बैठी, “

अरुण यह मधुमय देश हमारा, यहाँ पहुँच अंजान पथिक को मिलता एक सहारा”। प्रसाद जी ने शायद ये पंक्तियां भारत भूमि के इसी सुदूर प्रांत के लिए लिखी होंगी।

लगता है बरसों की नहीं, शायद कई जन्मों की तमन्ना रही थी, अपने इस महती विशाल शस्य श्यामल और पुण्य देश की भूमि को लंबाई और चौड़ाई के आकार में साक्षात अपनी आँखों के लेंस से देखने की।देश विदेश की यात्रा करते हुए यायावर आखिर एक दिन यहाँ पहुँच ही गया था।‘ आप भी आइए हमारे साथ इस यात्रा में , सफर में साथियों के साथ बहुत आनंद आता है न’। यह कहने वाले मेरे पति के एक परिचित थे जो, इटानगर में मिलने वाले थे और हम जाईरो जा रहे थे। यहाँ पहाड़ी भूमि पर लाल लाल मिट्टी, इसके अति उर्वर होने का संकेत करती हुई, अपनी सारी की सारी ऊर्जा देखने वालों की आँखों में झोंक कर उसे आत्मविमोहित सी करने लगती है । प्रकृति के साथ लुकाछिपी खेलते हुए हम मन ही मन रोमांटिक गीत गुनगुनाते आधुनिक रफ्तार से चले बढ़े जा रहे थे। हमारा ड्राईवर काफी चतुर व्यक्ति है। उसे यह जान कर अति प्रसन्नता हुई कि हम मात्र घूमने के ही मकसद से और इस प्रांत को अच्छी तरह जानने के लिए यहाँ यात्रा पर आए हैं। वैसे यहाँ बहुत से पर्यटक आते रहते हैं। प्रफुल्लित होकर वह गाईड का भी काम कर रहा है। राष्ट्रीय राजमार्ग 229, पर रास्ते जगह-जगह खराब है, कहीं कोई पहाड़ भुरभुरा कर गिर पड़ा है, कहीं, ऊपर ढलानों से बड़ी तेज बहती हुई पानी, सड़क के दूसरे ओर के खड्ड में गिर रही है।

सतर्क ड्राईवर, सीधे पहाड़ी उठान वाली रास्ते पर उसकी निगाहें टिकी हुई है और मुंह से वह हमें यहाँ के बारे में गौरवान्वित होकर बताता जा रहा है, हिन्दी जरा टूटफूट जाती है, मगर बातें समझने में कोई परेशानी नहीं होती। जाईरों जाते समय एक जगह,स्थान का नाम याद नहीं, गाड़ी विश्राम, चाय पानी के लिए रोका गया था, जो छोटा मोटा पहाड़ी बाजार जैसा था।

अपने विशाल और मनोहर देश भारत के29 राज्यों और उत्तर पूर्व के सात राज्यों में सर्वप्रथम एक अरुणाचल अपनी सुंदरता और विशिष्टता के लिए विश्वप्रसिद्ध है।देश के आंतरिक और बाह्य सीमा के कारण, सामरिक दृष्टि से भी इसका अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। इसकी सीमा आसाम, और नागालैंड को छूती है, और अंतर्राष्ट्रीय सीमा पश्चिम में भूटान एवं पूरब में म्यांमार और उत्तर में चीन को। भारत और चीन दोनों देश के बीच अति विवादित सीमा मैकमोहन रेखा यहीं से गुजरती है।

इस पर चीन की गिद्ध दृष्टि सदियों से रही है, फलस्वरूप इसका एक बड़ा हिस्सा रिपब्लिक ऑफ चीन के अधीन है, जिसे उसने सन 1962 के भारत युद्ध में जीता था, जिसमें अधिकांश इलाका निर्जन और बंजर है, हालाकि इस लड़ाई में चीन ने अरुणाचल का अधिकांश हिस्सा जीत लिया था, मगर अपने आप वह भारतीय सीमा से हट गया। उसका कहना था की वह भारत को सबक सिखाना चाहता था। उत्तर पूर्व के सातों राज्यों में यह सबसे बड़ा,विस्तार लिए और उन्नत प्रांत है। यहाँ के निवासी मूलतः तिब्बत बर्मी मूल के हैं।

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गाड़ी चालक, जो चालाक भी है और वाचाल भी, की बातचीत से पता चलता है, वह स्थानीय राजनीति भूगोल और इतिहास का काफी जानकार व्यक्ति है, भारत के अन्य भागों में भी घूमा हुआ है। उसने कहा कि कहा कि प्राचीन हिन्दू धर्म ग्रंथ कालिका पुराण और महाभारत में इस क्षेत्र का उल्लेख हुआ है। प्राचीन कथा के अनुसार परशुराम ने यहाँ पर ब्रम्ह हत्या के अपने पाप धोए थे, जो परशुराम कुंड के नाम से विख्यात है। इसी पुण्य भूमि पर भारत के महान ऋषि व्यास ने घोर तप किया था, राजा भीष्मक ने अपना राज्य हासिल किया था, और श्रीक़ृष्ण ने रुकमिणी से विवाह किया था। इस प्रकार यहाँ सनातन धर्म का ही प्रभाव दिखता है।

कालांतर में यहाँ पर अहोम और चुटीया राजाओं ने भिन्न-भिन्न समय में राज्य किया था। उसने अपनी बातों से हमारे मन में इस राज्य और इसके भू भागों के संबंध में इतना आकर्षण पैदा कर दिया कि हम समझ नहीं पा रहे थे कहाँ जाएँ, कहाँ नहीं। तत्काल एक मन यह भी हुआ था कि पति अपनी छुट्टी और कुछ सप्ताह के लिए बढ़वा दें, ताकि इतमीनान से हम धीरे धीरे इसे निहारने और समझने का आनंद उठा सकें’। मगर फिलहाल यह संभव नहीं दिख रहा था, और हमने पहले से तय कार्यक्रम पर ही अमल करने का निश्चय किया, क्योंकि होटल, होम स्टे, टिकट, टैक्सी सब कुछ पूर्वनिर्धारित और बुक्ड था।

बताते-बताते उसने बताया था, भारतभूमि में सबसे ऊंचा, तकरीबन 400साल पुराना त्वांग मोनेस्त्री जो अत्यंत उत्तर पश्चिम में है,जाना जहां काज भी सुगम नहीं है , ऊंचेन ऊंचे पेड़ों से आच्छादित घने जंगलों, खड़ी पहाड़ी, दुर्गम रास्तों से जाना पड़ता है , बौद्ध जनजातियों का यह एक जीवंत दस्तावेज़ प्रस्तुत करता है। छठे दलाई लामा सांगयांग ग्योसों का जन्म त्वांग में ही हुआ था।मन मसोस कर, हमने इसे अगली बार देखने के लिए तय किया गया था। यह एक अत्यंत प्रसिद्ध पर्यटक स्थल है और इसे यूं छोड़ देना उचित नहीं था, मगर हम पिछले वर्ष ही भूटान से आए थे, वहाँ अनेक मोनेस्त्री देखने और टाईगर मोनेस्त्री की खड़ी चढ़ाईयों के नीचे से, अर्थात बेस कैंप से कुछ दूर आगे चलकर बिना ऊपर चढ़े बुरी तरह थक जाने के कारण वापस लौट आए थे, इसलिए इस बार हमने थकान से बचने के लिए सिर्फ और सिर्फ गाड़ियों से ही घूमने के खयाल से त्वांग को अपने देखने के स्थल से पहले ही निकाल दिया था।

इसी प्रकार इतिहास की पोटली खोलता हुआ, मैकमोहन रेखा के बारे में उसने बताना प्रारम्भ किया कि ब्रिटिश प्रतिनिधि सर हेनरी मैकमोहन एक वार्ता के तहत आनन फानन अपनी कुर्सी से उठा, कुछ लोग साथ में लिए और दुर्गम रास्ता पार करता हुआ ब्रिटिश भारत और सीमावर्ती बाहरी तिब्बत के बीच 550मील[890 किलोमीटर ] एक रेखा खींच दिया, जिसे चीन अपने स्वभावानुसार प्रारम्भ से ही अवैध मानता रहा। चीन का तिब्बत पर से नियंत्रण समाप्त होने के पश्चात यह सीमा कोई मायने नहीं रखता था। मगर यह पीड़ा दायक समस्या तब फिर से उत्पन्न हो गई, 1947 में भारत आजाद हुआ और 1949 में चीन पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना बना।

अरुणाचल का यह क्षेत्र पहले आसाम का ही भू भाग था। मगर इस दुर्गम इलाके को एक विशेष रूप से पहचान देने के लिए, सान 1954 में इसका नाम बदल कर नॉर्थ ईस्ट फ़्रोंटिएर अर्थात नेफा कर दिया गया। जब तक चीन भारत का संबंध ठीक रहा, यहाँ की स्थिति सामान्य रही थी।

नेफा का नाम परिवर्तन एक बार फिर हुआ जब श्री विभावसु दास शास्त्री डाइरेक्टर रिसर्च और के ए राजा, तत्कालीन चीफ कमिश्नर ने 20 जनवरी 1972 को, दक्षिण भारत के प्रसिद्ध तीर्थ स्थल अरुणाचलम के नाम पर इसका नाम अरुणाचल प्रदेश रखा और वह केंद्रप्रशासित क्षेत्र हो गया। कालांतर में इसे 20फरवरी 1987 में एक राज्य में परिवर्तित कर दिया गया। और, वर्तमान में इसकी अपनी चुनी हुई सरकार है।

चीन और भारत के बीच विवाद का एक कारण, सन 1959 में दलाईलामा को भारत में शरण देने के कारण चीन भारत से बुरी तरह चिढ़ गया था ॰

विगत कुछ बरसों से इसे नागा विद्रोहियों का भी सामना करना पड़ रहा है, जो इसके कुछ भू भाग को अपने में मिलाना चाहते हैं।

यहाँ तिब्बत की सीमा पर,चीन के भय से भारी संख्या में भारतीय सैनिक उपस्थित किए गए हैं। एक तरह से यह भारतीय सैनिकों की स्थायी और बड़ी छावनी सी दिखती हैं। यहाँ कई ऐसे दुर्गम क्षेत्र हैं, जहां तक जाने के लिए हेलिकॉप्टर के अलावा कोई और साधन नहीं है। यह साधन भी खतरनाक है। मौसम भी इतना खराब रहता है कि कड़कड़ाती ठंड की वजह से नीचे उतारने के बाद हेलिकॉप्टर के इंजन को अगर बंद किया गया तो फिर स्टार्ट नहीं हो पाता है, इसलिए उसे स्टार्ट ही रखना पड़ता है। यहाँ तैनात जवानों की जिंदगी बहुत कष्टकर रहती है। अभी वहीं सीमा के पास ही चीन अपना हेलीपैड बना रहा है।

इसके इसी सामरिक महत्ता के कारण यहाँ काफी कड़ी सुरक्षा व्यवस्था और कड़े कानून का प्रावधान है। अरुणाचल आने के लिए विशेष अनुमति जिसे इनर लाइन परमिट कहा जाता है, लेना अनिवार्य है। यह बाहर से भी लिया जा सकता है और यहाँ स्टेशन के पास भी इसकी व्यवस्था है। जगह जगह पुलिस द्वारा सभी वाहनों की चेकिंग भी होती रहती है।

अपनी भयंकर कूटनीति और साम्राज्यवादी प्रवृति के कारण चीन अरुणाचल प्रदेश के छह स्थानों पर कब्जा कर अपनी इच्छानुसार उसका नाम बदलता रहता है, और अभी वर्तमान में सन 2014 में इन स्थानों को अपने मानचित्र पर भी दिखाया है।

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यहाँ की पहाड़ें एकदम खड़ी और दुर्गम सी है, सम्पूर्ण प्रांत में बहती अनेक लंबी चौड़ी, पतली नदियां, झील झरने, इसे अद्भुत अभिराम रूप प्रदान कराते हैं, साथ ही भीषण अवरोधक भी बन जाते हैं।

वैसे यहाँ की प्रमुख नदियां ब्रम्हपुत्र और इसकी सहायक जैसे दिबांग, लोहित, सुबानसिरी, कामेंग, तिराप आदि है ।

विविध आबोहवा यहाँ के वनस्पति और जानवरों, पशु पक्षी पर भी झलकता है। कुछ अन्य प्रकार के पशु पक्षी भी देखने को मिले, जो मैदानी इलाकों में नहीं दिखाई पड़ते हैं। ईटानगर का विशाल चिड़ियाघर, अनेक दुर्लभ प्रजाति के जानवरों और पशु पक्षियों से परिपूर्ण है।

विकास से कोशों दूर रहने वाला, यहाँ की जनसंख्या के दो तिहाई आधिकारिक रूप से आदिवासी जनजाति घोषित है।

आदि यहाँ की सबसे बड़ी जनजाति है।

अरुणाचलप्रदेश के लोग पचास भाषाएँ और उपभाषाएँ बोलते हैं। सीनो तिब्बतन भाषा परिवार के हैं।

प्रत्येक जनजाति अपने अपने रीतिरिवाजों को अत्यंत कठोरता और अनुशासित होकर पालन करता है। बातों ही बातों में हमारा गंतव्य जाइरो आ गया था। ऊंचाई पर बारिश कुछ धीमी अवश्य पड़ गई थी, मगर एकदम से थमी नहीं थी। मिट्टी कादो से चारों ओर के रास्ते अच्छे नहीं दिख रहे थे। वहाँ भी सड़कों पर अच्छी संख्या में गाडियाँ हैं, एक जगह जो सैनिक कार्यालय था, सेना के सिपाही रेतीले बोरों के पीछे से चौकस, तैनात दिखाई पड़े।

जाईरो के रीति रिवाज, संस्कार, संस्कृति आदि को, भली भांति समझने के लिए हमने यहाँ के एक स्थानीय निवासी के घर ठहरना उचित समझा। वैसे यहाँ होम स्टे बहुत प्रचलन में है। जब हम जाईरो पहुंचे बारिश हो ही रही थी, इटानगर से लगातार बारिश का सामना करते हुए हम यहाँ तक पहुंचे। यहाँ बस स्टेंड की जगह सूमों स्टेशन है। बड़ा सा मैदान, जहां अभी कुछ कुछ निर्माण कार्य चल रहा था। एक छोटा सा शेड जिसके भीतर भिन्न भिन्न ट्रेवेल एजेंट अपनी दुकान खोल के बैठे थे। बारिश में हम परेशान होते इससे पहले वहाँ हमें हमारे मेजबान मिस्टर तिलिंग चढ़ा अपनी छोटी सी गाड़ी में लेने आए थे।

यह एक छोटा मोटा शहर जैसा है, कुछ सरकारी दफ्तर है, स्कूल है। खेतों, दुकानों, आबादियों को लांघते हुए हम उनके घर तक पहुंचे।

वे हमें अपनी पत्नी के हवाले कर अपने दफ्तर चले गए। एक अच्छी मेजबान की भांति श्रीमति चढ़ा ने आवभगत किया हमें, वो कमरा दिखाया जहां हम रहने वाले थे। मुख्य घर के आगे कमर तक की ऊंचाई वाले मचान पर बांस का एक बड़ा सा कमरा है, वही उनकी सभ्यता और संस्कृति का प्रतीक है, ऐसा मुझे आभास हुआ। उस बांस वाले कमरे में प्रवेश करने से पहले एक छोटा सा बरामदा है, जहां ऊपर रस्सी टांग कर कुछ गीले कपड़े सुखाने के लिए डाले गए थे। नीचे एक हाथ करघा रखा था, फुर्सत के समय मिसेज चढ़ा उसपर पहनने का ओढ़ने का कपड़ा बुनती रहती है,जिसे वह बाजार में बेचती भी हैं । प्रवेश द्वार पर आधा कटा हुआ दरवाजा, जिससे कमरे के भीतर से ही बाहर का नज़ारा समय पर देखा जा सके। भीतर कमरे के ठीक बीचोबीच एक विशाल आधुनिक चिमनी जैसा लटक रहा था, नीचे आग जल रही थी, कुछ चौकोर करके मिट्टी का चूल्हा सा बना था। यह फायर प्लेस ही नहीं, बहूद्देशीय स्थान है इस के पास प्लास्टिक की चटाईयां बिछा रखी है कुछ मोढ़े हैं, जिस पर लोक बैठ कर, चाय, कौफ़ी या उनका स्थानीय ड्रिंक पीते हैं। कमरे के एक किनारे डायनिंग टेबल, एक आलमीरा में क्राकरी, कैसेरोल, टेबल पर माईक्रोवेव फ्रिज, गरम पानी का हीटर, बेशीन, , डायनिंग टेबल के ठीक आगे दीवार सा घेर कर पीछे रसोई घर बनाया गया था।

कमरे की तीन दीवारों से लगे बेंच बना था ढेर सारे मोढ़े एक कोने में भी रखे थे, । फायर प्लेस के ऊपर लटकती चिमनी के नीचे वाला हिस्सा जाल का बना था जहां शिकार में मारे गए जानवरों के मांस को सुखाने के लिए रखा जाता , उसके ऊपर लोहे के मोटे मोटे छड़ लगे थे, जिस पर छोटी छोटी लकड़िया रखी थी, चिमनी के ऊपर समतल सा बना था जहां ये लोक अन्न, धान, सूखने के लिए रखते थे।

बाहर बारिश की वजह से ठंड हो रही थी, मेजबान की भांजी ने हमलोगों के लिए आग जलाई और नींबू वाली चाय लेकर आ गई थी। हमलोग वहाँ उस आराम दायक वातावरण में बैठ कर दुनिया जहान से बेफिक्र, जैसे वहीं के हो गए थे। ठंड से बचने के लिए वे लोग अपने घरों में कोई अल्कोहल जैसा कुछ अलग सा शराब बनाते है, जो हमने नहीं लिया था। वैसे वे और भी घरेलू उत्पादन, आचार, शहद, आदि बेच रही थी, हमने उनसे हाथ का बुना हुआ एक शॉल खरीदा।

यहाँ की महिलाएं बहुत मेहनती हैं। स्त्री और पुरुषों की संख्या करीब-करीब बराबर है। घर के काम के अलावा, खेतीबारी, पशुपालन, हस्तकरघा आदि में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेती हैं। ये अपने नवजात बच्चों को अपने पीठ के पीछे बांध कर, अपना सारा काम करती हैं। महिलाओं को अपने समाज में सम्मान प्राप्त है।

जाईरो की, संपन्नता, खूबसूरती और खुशहाली देखते ही बनती है। यहाँ की लड़कियां और महिलाएं बहुत सुंदर दिखती हैं, इनकी त्वचा इतनी मुलायम, चिकनी और लावण्यमयी दिखाई पड़ती है कि मन प्रफुल्लित हो उठता है।

यहाँ हाल के वर्षों में संगीत महोत्सव भी प्रारम्भ किया गया है जिसे देखने सुनने के लिए देश विदेश से भारी संख्या में लोग आते हैं, उस समय सारे रहने के ठिकाने भर जाते हैं।

वैसे यहाँ के समाज में माता पिता ही अपने बच्चों के रिश्ते तय करते हैं, मगर बदलते परिवेश में प्रेम विवाह भी अब खूब मान्य है। इनकी एक बुआ ने बरसों पहले केरल के एक आदमी से शादी कर ली थी, उनको याद कर के ये लोग अभी भी बहुत भावुक हो उठते हैं, क्योंकि उनसे सब नाता रिश्ता टूट गया, कैसी होंगी वह।

हमारे मेजबान के तीन बच्चे हैं एक बेटा, दो बेटियाँ,{एक बेटी पति के बहन की है, जिसे ये लोग पाल रहे हैं । तीनों बच्चे हिंदुस्तान के भिन्न-भिन्न हिस्सों में रह कर शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। घर से इस व्यवसाय को चलाने के लिए, मिसेज चढ़ा ने अपने भाई के सोलह वर्ष की लड़की को साथ रखा है, जो यहाँ के एक स्कूल में पढ़ती भी है। यहाँ पक्के का घर भीतर से लकड़ी का, और बाहर से छत एसबेसटस का है,{बहुत बारिश होती है, इससे बचने के लिए घर की संरचनाएं भी कुछ अलग होती हैं }, कीवी का बागान है, बस्ती में भी घर है जो कुछ दूर पर है वहाँ भी घर है, खेत है, ये लोग काफी सम्पन्न हैं। यहाँ पर छह कमरे का दुमंजिला मकान है जिसे होम स्टे के लिए लगाया है। इस घर में आधुनिक टाईल्स, गीजर, टीवी सब कुछ लगा हुआ है, डिश ऐटिना लगा हुआ है। यहाँ होम स्टे का एसोशियन है, और सरकार द्वारा लाईसेंस लेकर चलाया जाता है। ठहरने वाले अतिथियों की व्यक्तिगत जानकारी रखना अत्यंत आवश्यक है।

यहाँ ठहरने के लिए प्रतिव्यक्ति बारह सौ पचास रुपए, प्रतिदिन जिसमें चाय नाश्ता और रात्रि का भोजन शामिल है। अगर कोई दोपहर का भोजन भी करना चाहे तो, इसके लिए अलग से पैसे देने पड़ते हैं।

ओर्गेनिक फल सब्जिओं का इतना बेहतर स्वाद हो सकता है यह हमने उबले साग, करेले के भुजीया, आलू गाजर फ्राई, अरहर की दाल, पत्ता गोभी टमाटर गाजर के सलाद और चावल खाकर जाना। अगले सुबह जब हम सो कर उठे थे, मिसेज चढ़ा अपने किचन में दूध चढ़ाकर बोली, ” दूध हेल्थ के लिए बहुत अच्छा होता है। यहाँ कुछ आसामी लोग सुबह सुबह गाय का दूध बेचते हैं, लंबी लाईन लगी रहती है, मैं तो चार बजे उठ कर ही चली गई, {वैसे यहाँ सुबह बहुत जल्दी हो जाती है। } गाय इनके लिए जंगली पशु है। जो खुले जंगलों में भटकते रहते हैं और इनके फसलों को नुकसान करते हैं। सूअर पालते हैं मगर गाय नहीं। गाय का मांस खाना इनके लिए कोई कलंक नहीं है।

ये लोग अपने खेतों में किसी प्रकार का कोई रासायनिक खाद नहीं डालते हैं, बल्कि घरेलू खाद, पोलिट्री फॉर्म के बेकार चीजें ही व्यवहार में लाते हैं।

इनके घर में प्रवेश करने से पहले बड़े फाटक के पीछे बड़ा सा अहाता है, जहां एक किनारे शेड बनाकर इनका गाड़ी पार्क होता, ,सीढ़ी चढ़ कर ऊपर घर है, एक किनारे इनका खेत है, जहां भुट्टे, आलू, गोभी आदि लगे हुए हैं, दो कीवी का पौधा बांस के दीवार के सहारे लतर रहा है जिसमें छोटे छोटे कीवी लगे हुए हैं। घर के पूरब की ओर पहाड़ी पर खूबसूरत पाईन के पेड़ लगे हुए हैं, । जाइरो के पाईंन इस इलाके में सबसे सुंदर माने जाते हैं । सामने के पहाड़ और इन घरों के बीच कोई पतली सी धार बहती है, मेड़ों से घिरे धान के खेत हैं, सब कुछ बेहद रूमानी लगता है। यहाँ और भी कुछ कुछ घर बन रहे हैं।

यहाँ आपातानी जनजातियों की बहुलता है।अन्य जन जातियाँ जहां घुमक्कड़ी जाति के हैं, वहीं आपातानी एक स्थान पर स्थायी रूप से निवास कर भिंगी जमीन पर खेती करते हैं। इनका अपना अलग तौर तरीका है।लोग हिन्दी अच्छी बोलते हैं। स्कूलों में हिन्दी पढ़ाई जाती है डोन्बोस्को स्कूल है, अन्य स्कूल भी हैं। चूंकि सबकी अपनी अपनी भाषा है, इसलिए ये लोग आपस में एक दूसरे से हिन्दी में ही बात करते हैं।

यहाँ कीवी की फसल काफी होती है। मगर यहाँ यह कुछ छोटे होते हैं, बाहरी देशों की मदद से इन्हें हाईब्रिड करके, बाहर के देशों में बेचा जाता हैं जो इन के मुताबिक जहरीला होता है।

जाईरो काफी ऊंचाई पर है। यहाँ की जलवायु काफी अच्छी है एकदम शुद्ध हवा, पहाड़ों पर धुंधले बादल, टप टप करती घनीभूत बारिश की बूंदें, और नीचे के सीढ़ीदार खेतों में लगे धान की फसलों के साथ अन्य फसलें।

आदिवासी लोग सूर्य और चंद्रमा की उपासना करते हैं। हमारे मेज बान के घर से कुछ दूरी पर आठ दस किलोमीटर की दूरी पर, सुबंतरी जिले में ही, सिद्धेश्वर नाथ, प्राचीन,शिव पुराण में उल्लिखित शिव का एक विशाल शिवलिंग है, [कुछ अन्य लिंग भी है।] जो पचीस फीट ऊंचा और बाईस फीट चौड़ा है, जो अभी और विकसित किया जा रहा है। अभी इसके ऊपर छत बनाने की बात चल रही है। कुछ वर्ष पहले ही किसी चरवाहे ने इसकी खोज की थी। इसे और परसुराम कुंड के पुनरोद्धार की बात की जा रही है ।भविष्य में यह एक विशाल तीर्थ स्थल बनने वाला है, ऐसा मिस्टर चढ़ा ने बताया। वहाँ जाने के लिए इस टिप टिप मौसम में हम अपने मेजबान की टैक्सी के साथ निकल पड़े थे। एक दम निर्जन, कई स्थान पर रास्ते टूटे, पहाड़ गिरे हुए, अपने फोन पर, किसी मित्र से रास्ता पूछ पूछ कर वे आगे बढ़ रहे थे।

यहाँ मत्स्य की खेती होती है। मछली के बीजों से भरे तालाबों को भी हमने देखा।

यहाँ के जंगल में केला के पेड़, बड़ी इलायची, कीवी आदि के अलावा अन्य फलदार वृक्ष भी हैं, जिनका उत्पादन यहाँ की आर्थिक व्यवस्था को मजबूत बनाने का एक महत्व पूर्ण जरिया है । जंगली,पहाड़ी ढलानों पर उगे, लड़े फदे ये केले हाथियों के भोज्य पदार्थ हैं।

इस राज्य का राजकीय पशु मिथुन है जिसे लक्ष्मी का एक ईकाई माना जाता है। इसे स्वतंत्र विचरने के लिए छोड़ दिया जाता है। विशेष अवसरों पर इसकी बलि चढ़ाई जाती है, और सब लोग मिलकर इसको खाते हैं। यहाँ का नृत्य शेर और मयूर का नाच, पोनंग,रोप्पी, वांचो आदि है।

इन विविध जन जातियों का त्योहार भी, भिन्न भिन्न है, जैसे लोसार,सोलुंग, डोंगी, रेह, मोपिन आदि। यहाँ के प्रसिद्ध क्षेत्रों में तवांग, बोमड़ीला,दिरांग,होमपा आदि पर्यटन के लिए प्रसिद्ध है।

त्वंग भारत का सबसे ऊंचा मोनेस्त्री है।

अरुणाचल प्रदेश में सबसे ज्यादा क्षेत्रीय भाषाएँ बोली जाती हैं।

अन्य जन जातियों की भांति आपातानी जनजातियों में ईसाई धर्म की मान्यता बड़ी शीघ्रता से बढ़ती जा रही है। मिस्टर तिलिंग चढ़ा के मोतबिक [जो स्वयं एक ईसाई धर्म के मानने वाले हैं ] पहले यहाँ के लोग बहुत आक्रामक हुआ करते थे, लड़ाई झगड़ा होने पर किसी को भी दो भाग में काट कर दुर्गम घाटियों में फेंक देना मामूली सी बात थी। क्षमा करना ये जानते नहीं थे, पुरखों के झगड़ों को भी दिल पर ढोते हुए प्रतिशोध की तलाश में रहते थे।

ईसाई धर्म के अपनाने के बाद उनके व्यवहार में काफी परिवर्तन आया है, अब ये उतने हिंसक नहीं रहे। एक बातचीत में उन्होंने कहा कि महात्मा गांधी भी तो ईसाई धर्म से प्रभावित थे, वे भी यही सब कहते थे। इस पर मैंने जवाब दिया कि महात्मा गांधी ने ईसाई धर्म को बेहद करीब से देखा जरूर था, मगर उन्होंने अपना हिन्दू धर्म नहीं बदला था।

हालांकि यहाँ धर्मपरिवर्तन विरुद्ध कानून भी लगा हुआ है, और ईसाईयों द्वारा स्थानीय लोगों के धर्म परिवर्तन का विरोध भी किया जाता है। मगर चर्च के चमत्कार और उसकी मुफ्त की सुविधाएं उन्हें बहकाए में ले ही आती है।

यहाँ सामाजिक व्यवस्था बहुत मजबूत है, पंचायत की कानून मानी जाती है। किसान आपस में मिलजुल कर खूब मेहनत करते हैं।,जंगल पर भी उनका आधिपत्य है। सबके हिस्से का अपना अपना जंगल है, जिसे उनलोगों ने अपने-अपने तरीके से घेर वेर कर रखा है, बाकी जंगलों जोराम आदि सरकार का है।

आपातानी जंनजातियों के शादी ब्याह का एक अत्यंत अलग परंपरा है। शादी में लड़की का महत्व ज्यादा है। अगर लड़का किसी लड़की को पसंद करता है तो पहले वह पुजारी के पास जाता है पुजारी मुर्गी हाथ में लेकर मंत्र पढ़ता है, अपने देवताओं की पूजा करता है, फिर उसका कलेजा चीर कर देखता है कि यह विवाह दोनों के लिए शुभ है या नहीं। मंगलकारी होने की स्थिति में लड़का वाले लड़की वाले से उसकी बेटी मांगते हैं। शादी कि रस्म धूमधाम से होती है। बिरादरी को भोजन कराते हैं। वैसे पिता की संपत्ति पर बेटी का कोई अधिकार नहीं है, लेकिन आधुनिकता के प्रभाव स्वरूप अब लोग देने लगे हैं।

पहले समय में इनके पोशाक विचित्र होते थे, महिलाओं को जानबूझ कर चेहरे पर गोदना और गहना पहनाया जाता था, ताकि पहाडी रास्तों में भटक जाने पर,एक तो उनका पता चल सके वे कहाँ की और किस जनजाति की है, दूसरे देखने में कुरूप लगे ताकि उसके साथ कोई ज्यादती न हो। मेजबान की पत्नी ने बताया की चीन भारत की लड़ाई के समय उसकी दादी जो खेत में धान काट रही थी, एक सैनिक ने पीछे से पकड़ने की कोशिश किया तब पल भर में उसने अपने बाल बिखरा कर नाक के नथुने में लगे बड़े से कड़ी खोल उस पर ऐसे धावा बोला कि वह भूत भूत चिल्ला कर भागा। ऐसी बहुत सी कहानियाँ यहाँ कही सुनी जाती है।

मेजबान ने बताया कि इस क्षेत्र का पता सबसे पहले एक अंग्रेज़ ने लगाया था, जो आसाम के तेजपुर से पैदल चल कर यहाँ तक कीअत्यंत कष्ट पूर्ण यात्रा की थी और यहाँ के जन जातियों रीति रिवाजों के बारे में ब्रिटेन के एक अखबार में आलेख लिखा था, उसी के बाद संसार को इसके बारे में पता चला।

हमारे मेजबान ने बताया, देश आजाद होने के पश्चात सन 1952 में देश के प्रधान मंत्री पंडित नेहरू जाइरो आए, तो उनके साथ उनकी पुत्री इन्दिरा भी थी। आपातानी कबीले का मुखिया इन्दिरा जी को देख कर, पंडित नेहरू से कहा “आप अपने लोगों के प्रमुख, मैं अपने लोगों का प्रमुख, आप अपनी बेटी का हाथ मेरे हाथ दे दीजिए बदले में मैं आपको ढेर सारे मिथुन दूंगा”। तब नेहरू जी ने इसे मज़ाक में लेते हुए कहा कि वह तो पहले ही किसी और को अपनी बेटी दे चुके हैं।

अब तो ये लोग काफी सभ्य हो गए हैं, आधुनिक वस्त्र पहनते हैं, और सब प्रकार के बिजली के उपकरणों का उपभोग करते हैं।

जब हम आसाम के तेजपुर से यहाँ आ रहे थे, हमें लोगों ने यहाँ के निवासियों के काफी लोम हर्षक किस्से सुनाए थे, “ वहाँ कोई कानून नहीं चलता, लोग इतने खूंखार हैं कि पुलिस की भी नहीं सुनते। लूटपाट करते है”। लेकिन यहाँ आकर ऐसा कुछ इतने दिनों में महसूस नहीं हुआ। लोग काफी मिलनसार लगे। हाँ, यहाँ का सामाजिक जीवन बहुत मजबूत है, और इनका ज़्यादातर अपना कानून है, पंचायत को काफी अधिकार मिला हुआ है।

यहाँ सभी जजनजातियों के प्रायः अलग-अलग त्योहार हैं, मोपिन आलो जिला का मुख्य त्यो हार है जिसे अपने नव वर्ष पर जन जाति पूरे हर्षोल्लास के साथ एक सप्ताह तक मनाते हैं। यह उनका कृषि मौसम प्रारम्भ करने का द्योतक है। मोपिन देवी, जो हिन्दू धर्म की लक्ष्मी अथवा अन्नपूर्णा देवी के समान हैं, उनकी आशीर्वाद से और व्यक्ति की जी तोड़ कड़ी मेहनत से, सभी जीव जन्तु, फसल आदि की वृद्धि हो, सबकी प्रजाति बढ़े और सुखी रहे, ऐसी उनकी कामना होती है।

मोपिन देवी को कृषि की देवी माना जाता है। कहा जाता है कि मोपन एन्य ने सबसे पहले आबूतानी को बोने की कला सिखाई थी। उनके साथ उनकी दोनों बेटियों ने उन्हें कृषि से जुड़े एवं अन्य ढेर सारे काम सिखाए थे।

वैसे तो यहाँ के लोग रंग बिरंगे वस्त्र धारण करते हैं,लेकिन इस उत्सव के समय बच्चे से बुजुर्ग तक एकदम धवल वस्त्र पहनते हैं, उनका मानना है कि सफ़ेद रंग शुचिता और शक्ति का प्रतीक है, महिलाएं हरे रंग की बड़ी छोटी मोतियों की लंबी मालाएँ पहनती हैं तथा कमर में करधनी जैसा बांधती हैं। पुरुष सफ़ेद रंग का जैकेट और नीले रंग के मोतियों की माला पहनते हैं, बांस की बनी टोपी भी सिर पर लगा लेते हैं।

अरुणाचल की राजधानी ईटानगर में मोपिन ग्राउंड बना हुआ है,यहाँ हर वर्ष मोपिन का त्योहार अप्रैल महीने में मनाया जाता है, जिसे देखने के लिए हजारों लोग देश विदेश से इकट्ठे होते हैं। इस त्योहार के दौरान मिथुन की बलि चढ़ाई जाती है, बलि से पहले उसकी पूरी विधि विधान से पूजा की जाती हैं। सब लोग इसको खाते हैं। मिथुन के रक्त को अपने साथ किसी प्रकार ले जाकर घर में रखना बहुत पवित्र माना जाता है।

यहाँ का अधिकांश भाग हिमालय के पहाड़ों में ढँका छिपा हुआ है। लेकिन लोहित, चाग्लांग और तिरप पतकाई पहाड़ियों में अवस्थित हैं।

त्वांग का बूमला दर्रा सन 2006 में 44 वरसों के बाद पहली बार व्यापार के लिए खोला गया था और व्यापारियों को एक दूसरे के क्षेत्र में प्रवेश करने की अनुमति दी गई थी।

हमारे मेजबान और उनकी पत्नी हंसमुख हैं, अनुशासित हैं और बात चीत में खूब बढ़ चढ़ कर दिलचस्पी लेते हैं। लगता ही नहीं है की प्रथम बार मिल रहे हैं। समय तो बेहद कम था, बहुत सी बातों के लिए अगले बार आने की बात हुई।

बमडीला के सीमा पर चीन और भारत के सैनिकों के बीच हाथापाई, धक्कम धक्का के विवाद पर वे क्षुब्ध है। “वैसे तो ये लोग हमेशा प्रेम से रहते हैं। मुस्कुरा कर एक दूसरे का स्वागत करते हैं, हाथ मिलाते हैं, कभी-कभी अपना खाद्य सामाग्री भी एक दूसरे से बांटते हैं, मगर इधर कुछ महीनों से न जाने ऐसी तनातनी क्यों हो गई”।

वे संभावित युद्ध के खतरों से बुरी तरह खौफजदा भी हो जाते हैं। चीन अगर अपना मिसाईल छोड़ा तो पल मात्र में ये वादियाँ पूरी की पूरी तबाह हो जाएगी। वे भारतीय सैनिक पर विश्वास करते हैं, खुद को हृदय से हिंदुस्तानी मानते हैं, और किसी भी हालत में चीन के चंगुल में नहीं फंसना चाहते हैं।

यहाँ कुछ संख्या हिंदुओं की भी है जो पहाड़ों के नीचे रहते हैं, या आसाम के सीमावर्ती इलाकों में। तिब्बत के सीमा पर बौद्ध, म्यांमार के सीमा पर थेरावाद बुद्धिज़्म का बहुल प्रभाव है।

यहाँ बहुत कम शहर है, ईटानगर यहाँ का सबसे बड़ा शहर है। यहाँ की आधी से ज्यादा आबादी कृषि में लगी हुई है, लेकिन खेती लायक भूमि बहुत कम है। ईटानगर का भी अपना खूब सूरत इतिहास है।

बीसवीं सदी से इस क्षेत्र में कुछ कुछ विकास हुआ। झूम कल्टीवेशन का काफी प्रचलन है, जहां जंगली झाड झंखाड़ को जला कर खेती लायक भूमि बनाया जाता है।

इस भूमि की धान, मकई, मिलो आदि प्रमुख फसल है। तेलहन, आलू, अदरख, ईख तथा अन्य सभी सब्जियाँ भी उगाई जाती है।

अरुणाचल प्रदेश की 35% जनसंख्या आप्रवासियों की है जिनमें बंगाली, बोडो,हजोंग, बंगलादेशसे आए चकमा शरणाथियों और आसाम, नागालैंड, भारत के अन्य भागों से आए लोग हैं।

यहाँ की 20% जनता प्रकृति धर्मी है, जो जीववादी धर्म जैसे डोनयी पोलो और रङ्ग्फ़्राहका पालन करते हैं। मिरि और नोक्ते लोगों को मिलकर लगभग 19% आबादी ईसाई धर्म के हैं।

यह फलों के उत्पादन के लिए भी आदर्श है। यहाँ आरा मिल और प्लाई वुड को कानून द्वारा बंद कर दिया गया है।

जाइरो की अनुपम विशेषता के कारण इसे वर्ल्ड हेरिटेज में शामिल करने की बात हुई है। जाईरो के बाद हम यहाँ की राजधानी ईटानगर पहुंचे थे।

यहाँ भी बारीश ने पिंड नहीं छोड़ा था। दिन भर हम तेज बारिश से बचाने के लिए होटल में ही रुके रह गए। दूसरे दिन भी बरसात का वही कहर। मगर आज तो निकालना ही था। टैक्सी वाला इस बार कुछ चिड़चिड़ा सा आदमी मिला। इस वक्त हमें ज्यादा तर मौन ही रहना पड़ा था, कराते भी क्या वह कुछ बोलता ही नहीं था। जहां जाना चाहते, पता नहीं सच या झूठ, वहाँ का रास्ता बंद बता कर। कहीं और दिखा देता। तेज बारिश सकारे तंग सड़क की ट्रेफ़िक और कूड़े कचरे का ढेर हमें कुछ अच्छा नहीं लग रहा था। हम गंगा बाजार घंटाघर के पास एक होटल में ठहरे थे। शाम को पैदल सड़कों पर घूमते वक्त पानी का बिलकुल थम जाना बहुत आनंद दायक लगा। यहाँ अन्य प्रान्तों के लोग ज्यादा हैं। दक्षिण भारतीय होटल हैं। चीनी सामानों से वहाँ का बाजार भरा पड़ा है। रात में जब ठखार कर अपने होटल के कमरे में बैठे, अपनी डायरी को बताना शुरू किया कि यहाँ हमने क्या क्या देखा।

एक सुंदर, स्वर्णिम प्रदेश अरुणाचल की राजधानी इटानगर है। यहाँ अनेक आदिवादी, जनजातियाँ , आदि, आपातीनी गालो, मोनपा इत्यादि रहती हैं।

सबसे महत्वपूर्ण बात इसके नाम कारण में है।जैसा कि स्पष्ट है इसके नाम का मतलब है, ईट का किला। अहोम भाषा ईंट को ईटा कहते हैं।

यहाँ एक किला है जो चौदहवीं या पंद्रहवी सदी में बनाया गया लगता है। हालांकि इसके सम्बन्ध में इतिहास में कहीं कोई दस्तावेज़ उपलब्ध नहीं है। मात्र अनुमान और अनुसंधान का सहारा है। इतनी ऊंचाई पर नीचे से ईट ढोकर लाना,वह भी जब कहीं भी आस पास ऐसा कोई स्रोत नहीं मिलता है, अपने आप मे आश्चर्य की बात है। पूर्ण रूप से खंडहर हो चुका यह किला अभी भी अपनी भव्यता बिखेरने में सक्षम है। प्रवेश के चार द्वार हैं। संभवतया इतनी ऊंचाई पर बनाने के पीछे जबर्दस्त सुरक्षा, और ऊपर से आक्रमणकारियों पर निगरानी रखने जैसी आवश्यकता मूलभूत रही होगी। यहाँ इतिहास के विद्यार्थी और अन्वेषक देश विदेश से आते रहते हैं। इतनी ऊंचाई से नीचे देखना बहुत आनंद दायक लगता है। वैसे जब हम यहाँ आए, बारिश बहुत तेज थी, औ सब कुछ धुंधला धुंधला सा दिख रहा था।

इसके अतिरिक्त भी यहाँ अनेक दर्शनीय स्थल है, जिनमें कुछप्रसिद्ध हैं,

गोमपा मंदिर जिसकी नींव, दलाईलामा ने डाली थी, अत्यंत सुंदर, चित्र लिखित की भाँति उस सुंदर पहाड़ी प्रदेश पर अवस्थित है। वहाँ तक जाने के रास्ते भी बहुत आकर्षक, पहाड़ी घुमावदार हैं।

एक दर्शनीय स्थल है वहाँ से सात किलोमीटर दूर झील, जिसे गेकार सिन्यि लेक अथवा गंगा झील भी कहा जाता है। तकरीबन 347 मीटर की ऊंचाई पर अवस्थित यह प्राकृतिक झील 700मीटर लंबा और 100-52मीटर चौड़ा है। बड़े-बड़े विशालकाय वृक्षों से घिरा यह झील बहुत रमणीय है। इसके चारों तरफ घूमने के लिए रास्ते बनाए गए हैं, बोट भी चलती है, यह एक पिकनिक स्थल है।

यहाँ का बायोलोजिकल पार्क 140,30 वर्ग किलोमीटर में फैला है, जो घाटी और पहाड़ों में बिखर कर अत्यंत आकर्षण का केंद्र बन गया है। घूमने के लिए अतिरिक्त टिकट कटा कर वाहनों का भी सहारा लिया जा सकता है। यहाँ अनेक प्रकार के जानवर, जैसे एंटेलोप, लंगूर, पोरकोपईन, हिमालय ब्लेक बीयर,आदि हैं। अनेक प्रकार के वृक्षों के साथ-साथ करीब 400 प्रकार के पक्षियों की प्रजातियाँ हैं। पार्क का रख रखाव बहुत अच्छे तरीके से किया जा रहा है। यहाँ पक्षियों एवं जानवरों के प्रजनन के संस्थान और व्यवस्था है।

यहाँ यात्रा संचालित करने वालों की निजी वाहनें ही ज्यादा दिखाई देती है, सरकारी सेवा उतनी कारगर नहीं है। चीन के रंग बिरंगी सामानों से बाजार भरा पड़ा है। स्तरीय होटलों की अच्छी उपस्थिति है।

अरुणाचल आने का बेहतर मौसम वैसे तो फरवरी, मार्च, अप्रैल और अक्तूबर नवंबर और दिसंबर है। वैसे कभी भी आया जा सकता है, लेकिन सर्दी हाड़. कंपाने वाली होती है।

अरुणाचल प्रदेश, वास्तव में प्रकृति के अछूते सौन्दर्य का अनुपम दृश्य है। यहाँ बार बार आने के लिए मन लालायित रहेगा।

॥ डा0 कामिनी कामायनी ॥

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परिचय   

नाम– डॉ. कामिनी कामायनी [एम. ए., पीएचडी(राजनीति विज्ञान)]

लेखन में रुचि---कविता ,कहानी ,गजल ,आलेख ,यात्रा वृतांत

[हिन्दी, मैथिली] इंटर नेट पर सक्रिय

वृत्ति-  यायावरी 

आकाशवाणी दिल्ली से सामयिकी ,युववाणी ,आदि के लिए अनेक आलेख प्रसारित ,कुछ समय के लिए आकाशवाणी दिल्ली से संबद्ध भी रही ।

एनसायक्लोपीडिया ऑफ हिंदुईज्म में योगदान

अबतक प्रकाशित पुस्तकें-

1. भारतीय जीवन मूल्य {प्रभात प्रकाशन, दिल्ली }हिन्दी

2. प्रत्यंचा [पद्य ,अनुराधा प्रकाशन, दिल्ली] हिन्दी

3. उपालंभ मैथिली काव्य [अनुराधा प्रकाशन, दिल्ली] मैथिली

4. कबीर काने क [मैथिली कथा संग्रह, अनुराधा प्रकाशन, दिल्ली ]

5. लालकाकी [मैथिली कथा संग्रह, अनुराधा प्रकाशन, दिल्ली ]

6. लखिमा ठकुराईन [ऐतिहासिक पृष्ठ भूमि में लिखी गई उपन्यासिका ,मैथिली ]

7. देश परदेश [यात्रा वृतांत ,हिन्दी ,प्रेस में जाने के लिए तैयार]

प्रायः सम्पूर्ण भारत वर्ष की यात्रा के साथ ,सिंगापुर, दक्षिण कोरिया ,बाली ,कंबोडिया ,वियतनाम ,फ्रांस ,स्विट्जरलैंड ,आस्ट्रिया,जर्मनी ,इटली ,बेल्जियम आदि देशों की यात्राएं ।

सम्मान

· मैथिली साहित्य सभा दिल्ली द्वारा सम्मान

· मैथिली प्रवाहिका द्वारा मिथिला गौरव सम्मान

· हिन्दी काव्य क्षेत्र के लिए अनुराधा प्रकाशन द्वारा काव्य गौरव सम्मान [दिल्ली]

· अभिषेक प्रकाशन द्वारा राष्ट्रीय साहित्य सागर सम्मान विश्व पुस्तक मेला [दिल्ली]

· पूर्व सदस्य – मैथिली भोजपुरी अकादेमी, दिल्ली 


संपर्क - संचार विहार ,

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रचनाकार: संस्मरण लेखन पुरस्कार आयोजन - प्रविष्टि क्र. 25 : यात्रा संस्मरण : अरुणाचल प्रदेश एक अविस्मरणीय यात्रा // डॉ0 कामिनी कामायनी
संस्मरण लेखन पुरस्कार आयोजन - प्रविष्टि क्र. 25 : यात्रा संस्मरण : अरुणाचल प्रदेश एक अविस्मरणीय यात्रा // डॉ0 कामिनी कामायनी
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