बाबा राम अधार शुक्ल 'अधीर' अधीर कुटी, पूरे नन्दू मिश्र, जखौली फैजाबाद "नववर्ष मंगलमय हो।" ...
बाबा राम अधार शुक्ल 'अधीर'
अधीर कुटी, पूरे नन्दू मिश्र, जखौली फैजाबाद
"नववर्ष मंगलमय हो।"
(1)
नवल वर्ष के नव प्रभात आओ ले किरण सुनहरी,
जाग उठे जिसके प्रकाश से जनगणमन के प्रहरी।
अनय पंथ पर निर्भय मानव चलना सीख गया है,
और स्वार्थ वश मानवता को छलना सीख गया है।
करें आत्म चिंतन हर प्राणी निज कर्तव्य विचारे,
स्वंय उदीयमान आरत-भारत की दशा सुधारे।
खेत हरे, खलिहान भरे, गतिमान कर्मशालाएं ,
सभी सजग हो राष्ट्र देवता का सम्मान बढ़ाएं।।
(2)
नवल वर्ष स्वर्णिम किरण ले के आओ।
निराशा कुहासा गहनतम भागाओ।।
भटकता कहां जा रहा आज प्राणी।
नवल दृष्टि देकर नवल पथ दिखाओ।।
सुजस दे, सुमित दे, सुख सम्पति सतत् दे।
घृणा भीति विद्वेष कल्मष मिटाओ।।
भरे खेत खलिहान, कल कारखाने।
सुपथ पर सुगति दे , सृजन गीत गाओ।।
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दोहे रमेश के नववर्ष पर
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दो हजार सत्रह चला, छोड़ सभी का साथ !
हमें थमा कर हाथ में,. नये साल का हाथ !!
आने को मुस्तैद है ,.... ... नया नवेला वर्ष !
दिल में सबके प्यार का, दिखे उमड़ता हर्ष !!
दो हजार सत्रह चला, खेल कई नव खेल !
हुए बरी कुछ लोग तो, गए भ्रष्ट कुछ जेल !!
मेरी है प्रभु आपसे, यही एक अरदास !
नए वर्ष में देश में, घर-घर हो उल्लास ! !
जाते-जाते साल यह, करा गया अहसास !
बाबाओं पर कीजिये, . नहीं मित्र विश्वास !!
हो जाए अब तो विदा,... कलुषित भ्रष्टाचार !
यही सोचकर आ गया,जी अस टी इस बार !!
ज्यों पतझड़ के बाद ही,आता सदा बसंत !
खुशियां नूतन वर्ष में, सबको मिलें अनन्त !!
पूरा हमें यकीन है , . शासन से इस बार !
नया पिटारा हर्ष का, देगी कुछ सरकार !!
बदली है तारीख बस, बदले नहीं विचार !
नए साल का कर रहे ,नाहक ही सत्कार !!
जाते जाते हो गया , पिछला साल उदास !
बन जाऊंगा शीघ्र ही, बोला मैं इतिहास !!
मदिरा में डूबे रहे, …लोग समूची रात !
नये साल की दोस्तों, यह कैसी शुरुआत !!
नये साल का कीजिये, जोरों से आगाज !
दीवारों पर टांगिये, .नया कलैंडर आज !!
रमेश शर्मा
9820525940.rameshsharma_123@yahoo.com
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बृजेन्द्र श्रीवास्तव "उत्कर्ष"
नया सबेरा
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नए साल का,नया सबेरा,
जब, अम्बर से धरती पर उतरे,
तब, शान्ति, प्रेम की पंखुरियाँ,
धरती के कण-कण पर बिखरें,
चिडियों के कलरव गान के संग,
मानवता की शुरू कहानी हो,
फिर न किसी का लहू बहे,
न किसी आँख में पानी हो,
शबनम की सतरंगी बूँदें,
बरसे घर-घर द्वार,
मिटे गरीबी,भुखमरी,
नफरत की दीवार,
ठण्डी-ठण्डी पवन खोल दे,
समरसता के द्वार,
सत्य,अहिंसा,और प्रेम,
सीखे सारा संसार,
सूरज की ऊर्जामय किरणें,
अन्तरमन का तम हर ले,
नई सोंच के नव प्रभात से,
घर घर मंगल दीप जलें//
206, टाइप-2,
आई.आई.टी.,कानपुर-208016, भारत
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सुशील शर्मा
दोहा बन गए दीप -8
नव वर्ष
कैलेंडर से लटक कर ,गुजर गया यह साल।
कुछ मन की खुशियां मिली ,कुछ का रहा मलाल।
कष्ट कोहरा त्रासदी ,सहता रहा समाज।
जाओ सत्रह आज तुम मिल कर सबसे आज।
स्वागत संग शुभकामना नये वर्ष के नाम।
नये वर्ष में लग रही मीठी मीठी शाम।
नवल वर्ष में हम करें मिलकर ये संकल्प।
रक्षित सब अधिकार हों सुन्दर सुखद प्रकल्प।
वर्ष अठारह की हुई सदी हमारी आज।
यौवन की दहलीज पर आँखों में कुछ राज।
नए वर्ष में रंग भरें आशाओं के संग।
सबको लेकर हम चलें ज्यों पतंग सतरंग।
नये वर्ष से बांधती , हमें प्रेम की डोर।
खुशियां देने आ गयी ,नये वर्ष की भोर।
नये साल की ये किरण मचा रही है शोर।
सूरज प्रेम का उगा है मस्तानी सी भोर।
नूतन वर्ष में हे प्रभु ऐसा करना काम।
अमन चैन हो देश में ,विश्व शांति का धाम।
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क्या मैं जिंदा हूँ
आत्मा में खरोंचें हैं
पैरों में विबाईयाँ हैं
मेरी आँखों में जलते चरागों में
एक प्रश्न लहराता है
एक प्रेत की तरह
क्या मैं जिन्दा हूँ।
मैं अन्दर से तिलमिलाता हूँ
और बाहर से खिलखिलाता हूँ
अपनी शवयात्रा में न जाने
कितनी बार शामिल होकर
फिर सोचता हूँ क्या मैं जिन्दा हूँ।
मेरे अंदर का साहस कहता है ...
मैं मरने से नहीं डरता
मर चुका आदमी भला
मरने से डरेगा भी क्यों ?
मर चुकी सारी संवेदनाये
ढो रही हैं इस जीवित शरीर को।
मर चुके सारे प्रश्न
सुबूत हैं मेरी लाश के
क्योंकि प्रश्नों में जीवन छुपा है
प्रश्नों ने ही रची होगी
वाक्य,बोलियां और भाषाएं
स्वर ,व्यजंन ,अक्षर
सभ्यताएं और संस्कृतियां
और जब ये प्रश्न मर गए
तो क्या मैं जीवित बचा।
अबोधों की बस्तीयों पर
सिद्धों की नज़र गिद्ध सी है.
आदमी किश्तों में मर रहा है
फिर भी ज़िंदा घोषित है।
इसीलिए अब बाहर कोलाहल
अन्दर सन्नाटा है."
मैं खुद के लिए तो कभी का मर चुका हूँ
तुम्हारे लिए गर ज़िंदा हूँ तो तलाश लो।
अपने वीराने में मिलूंगा तुम्हें थोड़ा सा जिन्दा।
वर्ना मैं तो मर तो गया था बहुत पहले।
इस कदर मेरा बिखरना और क्या है?
श्मशानों का सहरना और क्या है ?
पर सुना है मैं सांस लेता हूँ अभी भी
रिश्तों का मन रखने को हंसता हूँ अभी भी।
मरने के बाद भी जिन्दा दिखता हूँ अभी भी।
सभ्यता के सवालों का जबाब कौन देगा ?
मेरे जिन्दा होने का सुबूत कौन देगा?
सपने जो खो गए हैं रात के अंधेरे में
उनकी शिनाख्त किस सुबह होगी।
हर कोई बुद्ध बना बैठा है यहाँ गिद्ध नजर लेके
हर शातिर खोल कर बैठा है
शांति की पाठशाला
हर हकीकत खड़ी है चौराहे पर
सत्य गुमनाम सा गटर में बहता है।
और झूठ मांगता है सत्य से प्रमाण
बताओ की तुम जिन्दा हो।
ख्वाब और .ख्वाहिशें हमशक्ल सी मेरी
बिखर जाती हैं शब्द की स्याहियों सी ?
खेतों में अब शहर बसने लगें हैं।
गुलशनों को अब वीराने डसने लगे हैं।
यह सड़कें अब गुजर रहीं है
रिश्तों के मकानों से।
दर्ज है एक दर्द सुबह के अखबार में
सुना है उसको मैंने लिखा है।
शब्दों को बहुत समेटा मैंने
पन्नों पर बिखरें है आंसू जैसे।
आत्मा की अर्थियाँ ढो रहे हैं लोग यहाँ पर।
जिंदा शरीर की ठठरियों पर।
जिन्दगी को नुमाइश बनाने वालों।
देह से होकर गुजरते रास्ते रिश्ते नहीं हो सकते।
आत्मा को जिंदा करना है तो
मौत का डर मन से निकालो पहले।
कितने प्रश्नचिन्ह मेरे जिंदा होने पर हैं।
उतने ही उत्तर मेरी मौत संभालें होगी।
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नदी तुम बहती रहो
अपने प्रेम के उद्वेग में
तीक्ष्ण वेदना-भरी अनुभूति के साथ
अप्रतिहत आह्वान करो।
नदी तुम बहती रहो
तन्मयता में सतत निमग्न
वेदना की टीसों में नग्न
निश्चल वातावरण नि:स्पंद!
विमुख-उन्मुख से परे
तत्त्वमय अचिर चिर-निर्वाण करो
नदी तुम बहती रहो।
प्रलयंकर वेग से बहकर
नया प्रकम्पन धरा पर
विधाता की भुजाओं के सदृश्य
पूर्वजों की स्मृतियां, बड़ी-बड़ी
उत्ताल तरंगित लहरें खड़ी।
अमरता का मान करो
नदी तुम बहती रहो।
नदी की स्मृतियां रह गईं पास
नयन मूँदे शून्य नभ से सजल तारे
वेदना अस्तित्व के अवसान धारे
नदी की जीवनान्त को पुकारे
हे नदी तुम मत मरो
नदी तुम बहती रहो।
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दोहा बन गए दीप-6
प्रकृति का संरक्षण
जो मानव करता नहीं ,प्रकृति का सम्मान।
रोग कष्ट संग जिए वो ,जल्द जाये श्मशान।
प्रकृति का न शोषण करो ,प्रकृति हमारी जान।
पशु पक्षी पौधे मनुज ,हैं धरती की शान।
जहाँ पेड़ कटते रहे ,जंतु हुये शिकार
रेगिस्तान वह धरा है ,बचा न कुछ आधार।
पर्यावरण की छति का ,मनुज है जिम्मेदार।
धन पैसे की लालसा , तनिक न करे विचार।
जब तक हरियाली रहे , है जीवन की आस।
बिना पानी कुछ न बचे ,जीवन है वनवास।
मानव बड़ा अजीब है ,कर प्रकृति का नाश।
संरक्षण करता फिरे ,मनुज महा बदमाश।
पर्यावरण से जुड़ा है ,मानव का अस्तित्व।
पर्यावरण की सुरक्षा ,उच्च करे व्यक्तित्व।
बंजर धरती कह रही ,सुन लो मेरे पुत्र।
गर तुम अब चेते नहीं ,मिट जाओगे मित्र।
बच्चों को समझाइये ,बना बना कर चित्र।
पर्यावरण रक्षित करें ,वृक्ष हमारे मित्र।
हरा भरा पर्यावरण ,धरती माँ का स्वर्ग।
नदियां कल कल जब बहें ,सुखी सभी संवर्ग।
सौर ऊर्जा का विकल्प ,जीवन का आधार।
संसाधन सब चुक गए ,किया न कभी विचार।
शास्वत नभ में उड़ गया ,सपना सुघड़ अमोल।
हरी भरी धरती रहे ,पर्यावरण सुडौल।
पुलकित पंखों से उडी ,गोरैया इस बार।
जाने कहाँ वो खो गई ,दिखी नहीं इस पार।
सूखी नदियां कर गईं,मुझसे कई सवाल।
रेत को हम क्यों बेचते ,जेब में भरें माल।
पेडों को पानी नहीं ,मानव भूखा सोय।
जंगल अब बचते नहीं,बादल सूखा रोय।
उजड़े उजड़े से लगें ,मेरे सारे गांव।
वीरानी बैठी हुई,उस बरगद की छांव।
कोयल गौरैया नही ,गाय नही घर आज।
कुत्ता गोदी में धरे ,जाता कहाँ समाज।
माँ की आँखे देखती ,एक टक रास्ता आज।
वो बेटा कब दिखेगा ,जिस पर उसको नाज।
सूरज ठंडा सा लगे ,चांद ढूंढता रूप।
पानी प्यासा सा फिरे,आग निहारे धूप।
जंगल पर आरी चले ,नदी तलाशे नीर।
जीवन सांसे ढूंढता,घाव निहारे पीर।
पर्यावरण की सुरक्षा ,है पावन संकल्प।
प्रकृति शरण में वास का ,बचता सिर्फ विकल्प।
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दोहे बन गए दीप-7
कंजूसी
कंजूसी धन की भली ,मन का खर्चा लाभ।
कंजूसी मन की करे,उसके फूटे भाग।
रिश्ते कंजूसी भरे ,ढले स्वार्थ के संग।
जीवन सस्ता हो गया, रिश्ते है बदरंग।
तन खर्चे सुख मिलत है ,मन खर्चे है प्रेम
कंजूसी इनमें करें ,उनकी कुशल न क्षेम।
सारा जीवन कमा के ,रखा तिजोड़ी बीच
प्राण पखेरू उड़ गये ,सुत ने दिया उलीच।
वाणी कंजूसी करे ,तौल तौल के बोल
ते नर आगे बढ़त है ,बोले जो अनमोल
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दामोदर लाल जांगिड
नए साल 2018 के स्वागत में
नए वर्ष की नयी भौर है आने वाली।
स्वागत हेतु पुष्प लिए हैं डाली डाली।।
पक्षीगण सम्वेत स्वर में मंगल गाते।।
सकल चराचर विचर रहे कैसे इठलाते।।
किरण किरण ही एक नया उल्लास लिए हैं।
और धरा ने भी सोलह शृंगार किए हैं।।
नए साल के स्वागत को आतुर हैं सारे।
अलसाये संकल्प सो रहे अभी हमारे।।
रह गए अधूरे सपने अब साकार करें।
हम नए वर्ष का हृदय से सत्कार करें।।
कैसे खिल कर फूल और कलियाँ मुस्काते।
नूतन वर्ष के स्वागत में नव गंध लुटाते।।
हर एक वल्लरी झूम झूम कर नाच रही हैं ।
पवन रही पगलाय चहूँ दिश भाग रही है।।
लो पुलकित सागर की लहरे हिल्लोरें मारे।
तो गले लगाने को लालायित बांह पसारे।।
रच गई लालिमा पौर पौर में नई सुबह के ।
जो हर्ष वेग में कदम पड़ रहे बहके बहके ।।
इस विगत वर्ष को विदा चलो साभार करें ।
हम नए वर्ष का हृदय से सत्कार करें।।
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*डॉ. अर्पण जैन 'अविचल'*
हिन्दी ग्राम, इंदौर
कैसे सम्मान होगा
अब तो समर में ही प्राणदान होगा,
अब तो क्रान्ति का ही आह्वान होगा,
या तो इस पार ही हमारा श्मशान होगा,
या हिन्दी का अखण्ड स्वाभिमान होगा|
भारतभूमि पर ही है हिन्दी को खतरा,
इससे ज्यादा और क्या तूफान होगा,
अब भी न जागा हिन्द का निवासी,
तो अब कैसे हिन्दुस्तान महान होगा ।
गुप्त, चतुर्वेदी महादेवी और निराला,
सब तो समर में ही लड़ गए
बचा न सके हम यदि अस्मिता माँ की,
तो शेष अब क्या व्यवधान होगा ।
राजनीति की कलुषित चालों ने,
भाषा के अस्तित्व को कुचल डाला,
संदल के जंगल में सर्पों का मेला,
इससे बड़ा तीर और क्या संधान होगा ।
राष्ट्रभाषा के सूर्य की तपन है जरुरी,
आन्तरिक विखण्डन की शीत छा रही,
सत्तामद में सारथी ही तो डूब रहे है,
भारत भूमि का शेष क्या अपमान होगा ।
समाज से संस्कार सिंचन गौण है,
परिवार से वृद्धों की मजबूरी मौन है,
माँ-बाप अंग्रेजियत की ओर भाग रहे,
विखण्डन का शेष क्या परिणाम होगा ।
संग्राम की आवश्यकता है अधिक,
समर के व्याकरण की जरुरत है,
सेवा के रणबांकुरों का ही महत्व है,
वर्ना माँ का शेष क्या अरमान होगा ।
राष्ट्र के सच्चे सचेतक मौन बैठे हैं,
माँ भारती की अश्रुधार के आगे,
हिन्दी के लिए तुम न जागे 'अर्पण' तो,
तो भूमंडल में शेष क्या सम्मान होगा ।
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मधुरिमा प्रसाद
1.....अंकुर
एक नन्हा बीज
कसमसाया
कुनमुनाया
धरती की छाती को
हौले हौले फोड़ता
वह देखो बाहर आया।
नन्हे नन्हे दो हाथों से
जग को प्रणाम करता सा
आल्हादित धरती माँ को करता सा
अपने दोनों कर ऊंचे कर
खिल खिल खिल हँसता सा।
सूरज ने दी शक्ति
पवन ने सहलाया
वर्षा ने आ समय समय पर नहलाया।
अंकुर बढ़ा
शीत ऋतु, वर्षा
ग्रीष्म और मधुमास
हर ऋतु ने आ उसे दुलारा
संग हास परिहास।
अंकुर बढ़ा ----
खाद पानी भी
कभी किसी ने डाल दिया
जो भी पाया
कुछ भी खाया
मन ही मन संतोष किया।
तब अंकुर ने लहरा कर
धीरे से मुस्का कर
आंधी तूफानों से भी
कभी कभी टकरा कर
खुशी मनायी बहुत
मस्त हुआ था
वृक्षों की टोली में
तब अपना नाम लिखा कर।
फिर जवान हो गया
सजीला युवक खड़ा ज्यों तन कर
नन्हे अंकुर को भी
लग गयी हवा तब जग की
ठुमक रहा था अंकुर
हँस हँस झूम रहा था
देखा सबने समझा सबने
उस पर भी मधुमास चढ़ा था।
अब अंकुर था पेड़
हुई थी उसकी उम्र अधेड़
गिरावट अपनी ही तब देख
मन लगा करने
प्रश्न अनेक
झंझा के चलते झोंके
आंधी पानी के झटके
संभाले सम्भल नहीं पाता था
अपना ही तन
अपना ही मन।
छाया दी अब तक
आते जाते रहने वालों को
चूल्हे जलवाये कितने ही
दे दे कर के निज अंगों को।
बढ़ी उम्र के संग
बढ़ीं इच्छायें अभिलाषायें
पास कोई आये मुस्काये
तन छू ले
पर पात नहीं हैं
शाख नहीं हैं
छाँह नहीं न रौनक है।
पास वहीँ
कुछ ही दूरी पर
अंकुर युवा हुआ था
हरियाली भरा हुआ था
मस्ती से झूम रहा था।
आज उसी के नीचे
आने जाने वालों का
मेला लगा हुआ था।
मधुरिमा प्रसाद
@@@@
बुद्धू कहीं की
बर्फ ने था ढंक लिया
पर्वतों की चोटियों को
लुढ़कती सी कड़कड़ाती
ठंड दौड़ी आ गयी थी
हम सभी तक।
सुरसुराती कंपकंपाती
झुंड में कुछ युवतियाँ
खिलखिलाती मचलती सी
साथ में चलती दिखीं।
वसन उनके कीमती
सुन्दर बहुत थे
आवश्यकता से अधिक
तन पर नहीं थे।
किसी की बाजू
किसी की पीठ ही थी लापता
दांत उनके बज रहे,
कम्पन सभी अंगों में था।
अंग और गहने दिखाने के लिए
वे सभी मन मगन
और मदमस्त थीं।
कंपकंपाती सुरसुराती
साथ चलती युवतियाँ।
यूँ लगा बेचारियों को
गर्म कपड़ों की कमी।
दिल नहीं माना
कहा---
"लो शॉल, बहना,
ओढ़ लो
मैं इसी स्वेटर में भी कुछ ठीक हूँ।"
तब लगा कि----
हाय ! मुझसे हो गयी
ग़लती ये क्या !
घूर कर और झिड़क कर उनने कहा ---
"बुद्धू कहीं की"!
हम बाराती जा रहे बनने
किसी बारात के।
(२४/२/ २०१४ )
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बदला हुआ चेहरा
लग रहा कहता सा कुछ है
देश का बदला हुआ चेहरा।
दर्द होता है बहुत कुछ देख कर
है हुआ बदलाव कितना सोच कर
गर्मियाँ, बरसात, जाड़ा क्या कहें
बदले बदले रेत के कण देख कर।
और आगे क्या करेगा क्या पता
देश का बदला हुआ चेहरा।
बदले हुए से मायने सम्मान के
हैं नहीं अब मूल्य स्वाभिमान के
अब नहीं रिश्तों में गरमाहट रही
लोग भी हैं मिल रहे अनजान से।
हौले-हौले कहता सा कुछ लग रहा
देश का बदला हुआ चेहरा।
माँ बहन भाई या बेटी बाप हो
कौन जाने कब कहाँ क्या पाप हो
राह में कोई बने कब बेवफा
किसका पूरे रास्ते का साथ हो।
आँसुओं से बने चित्रों में दिखा
देश का बदला हुआ चेहरा।
देश है आज़ाद अंग्रेज़ों से पर
गुलामी तक़दीर में है लिख गई
है सियासत का बड़ा वीभत्स रंग
देश के संग वफ़ादारी मिट गई।
बेवफाओं ने दिखाया फ़ख्र से
देश का बदला हुआ चेहरा।
नारियों का करेंगे सम्मान हम
हर जगह टिकटार्थी कहते मिले
तेल-साबुन बेचती थी जो कभी
उसका ही वे आसरा लेते दिखे।
सियासत की घृणित चालों में दिखा
देश का बदला हुआ चेहरा।
हाय भारत देश की हे नारियों
तुम्हारी अस्मत की कीमत है यही
तन पे फूलों की लपेटे पत्तियाँ
और तिरंगे की भी ना इज्ज्त बची।
नग्नता के ही प्रदर्शन में दिखा
देश का बदला हुआ चेहरा।
देश की रक्षा सुरक्षा की क़सम
खा के चढ़ बैठे जो ऊँचे ओहदों पर
अपने ही हाथों हुए वे नग्न हैं
क्या पड़ेगी दृष्टि उनकी लोक पर।
भझकों की भीड़ दिखती रक्षकों मे
देश का बदला हुआ चेहरा।
(२२/२/२०१४ )
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000000000000000000000000
रीझे यादव
टेंगनाबासा(छुरा)
रोज सबेरे
दो बेटियों को देखता हूं
अपने पिता के संग
पूरे स्वाभिमान के साथ
कंधा से कंधा मिलाकर
जी तोड मेहनत करते
घर से निकलकर
घर की जरूरतें पूरी करते
तब मुझे एहसास होता है
बेटियां बोझ नहीं होती
बेटियां मजबूत भुजा होती है
एक पिता के लिए
000000000000000
मुरसलीन साकी
लखीमपुर खीरी
मेरे हमसफर न खयाल कर
मै हूं गुम कहां न सवाल कर
तेरी चाहतों को समेट कर
जो रखी हैं दिल में सम्भाल कर
वही जिंदगी के अहसास हैं
मेरे चारहगर को ये है खबर
जो है मुजमहिल मुझे देख कर
जिसे फख़र था जर ए हुस्न पर
गये दिन से वो भी उदास है
उसे दर्द भी कोई खास है
मगर वक्त था वो गुज़र गया
इक खुमार था जो उतर गया
अब..............................
न वो हम रहे न वो तुम रहे
न वो मौसमों में बहार है
न उम्मीद है न ही आस है
अब हर एक लम्हा उदास है।
0000000000000000000
लक्ष्मीकांत मुकुल के हाइकु
आतुर बालें
निकली हैं खेतों में
ढका सिवान ।
बीत चुका है
समय धुंधलका
उगी है लाली ।
कोयल कूकी
नहीं टूटा सन्नाटा
मन माटी का ।
उगा पहाड़
खेतों के आंगन में
पाथर-टीला ।
नदी बीच में
पूरा गाँव-गिराँव
रेट किनारे ।
लौह भट्ठी में
जन्में हैं सदिर्यो से
फार- कुदाल ।
किसे ढूंढती
फुदकती चिडिया
बॉस-वनों में ।
फूली सरसों
गेहूँ खेत समीप
डांकी पुरवा ।
तुम जीते जी
कैसे आओगे राजा
लोक कथा में ।
फुदकते हैं
खरहे की तरह
मेरे सपने ।
शिरीष-फल
बजा रहे खंजडी
बीते युग की ।
दौड़ चले हैं
छोर से पंक्तिबद्ध
बकुल-झुंड ।
खिरनी वृत
उगे हैं योनियोँ से
कंदराओं की ।
घुसे हैं लोग
बचने बारिश से
बाघ मांद में ।
डाक पत्र में
नहीं अटा जीवन
मेरी व्यथा का ।
उड़े रूमाल
सहेजा जो सालों से
किनके नाम?
निकल चुका
वह तन्हा नभ से
नन्हा सूरज ।
बिदक गई
सब दुनिया सारी
पोत डूबते।
000000000000000000000
--पुखराज सोलंकी
॥॥ अड़ोसी ओर पड़ोसी ॥॥
अड़ोसी :-
ले पतंग ये तेरी छत से
मेरी छत आ जाते है
काँच तोड़ते खिड़कियों के
दिन भर धूम मचाते हैं
आग लगे इस क्रिकेट को
मैं अब तक सो नहीं पाया हू
रात की ड्यूटी करके आया
कितना थका थकाया हूँ
ये वानर से बच्चे तेरे
हाल मेरा नहीं जानें हैं
मुच्छड़ कह के मुझको चिढ़ाते
मेरी एक ना माने हैं
खिड़कियों के काँच फोड़ते
गली के कुत्तों को ना छोड़ते
बांध पटाखा पूँछ पे उनकी
जाने ये कैसी मिसाइल छोड़ते
घर कीं घंटी रोज बजा के
देखो ये भागे दौड़ते
झगड़ा इनसे करने चलूं तो
ले पत्थर ये सर भी फोड़ते
मैं क्या करूँ बतला दे बाबू
कैसे करूँ बच्चों को काबू
पड़ोसी :--
अरे नो झगङा नो लफङा बाबू
करले खुद के दिल को काबू
शाम सवेरे घर मैँ मेरे,
बच्चे खेले मेरे तेरे
इन बच्चों से सीख ले बालक
कैसे चलती गाङी चालक
सुबह को मिलते
शाम को झगङते
शाम को झगङते
रात को निपटते
फिर सुबह मिलते
साथ साथ चलते
कहते जाते,
चलते जाते
मेरी जान हिन्दुस्तान
मेरी जान हिन्दुस्तान..
अब तू भी मेरा कहना मान
मत कर औ बालक अभिमान
तेरा बच्चा मेरी जा
मेरा बच्चा तेरी जान
हम दोनो है एक समान
हम इन पर करते
हर खुशी कुर्बान
इसलिए..
नो झगड़ा नो लफड़ा बाबू
कर ले खुद के दिल को काबू
बच्चे तो यूँ ही खेलेंगे
0000000000000000000000
धर्मेन्द्र अरोड़ा"मुसाफ़िर"
ग़मे ज़िंदगी आज़माने से पहले!
बहुत रोये हम मुस्कुराने से पहले!!
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चरागे मुहब्बत जलाने से पहले!
ज़रा सोच लो दिल लगाने से पहले!!
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खुदा ने किया है इशारा सुहाना!
नसीमे सहर को चलाने से पहले!!
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निगाहों निगाहों में इज़हार करना!
जुबाँ रोकना कुछ बताने से पहले!!
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हमेशा सजाओ तसव्वुर निराला!
ग़ज़ल दिलनशीं गुनगुनाने से पहले!!
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दिख़ावा भुलाओ हमेशा मुसाफ़िर!
ख़ुशी का ख़ज़ाना लुटाने से पहले!!
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मुकद्दर जहाँ में उसी का हुआ है!
खुद पे ही जिसने भरोसा किया है!!
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जो भी चला है कांटों के पथ पर!
फ़ूलॊ का ही फ़िर बिछौना मिला है!!
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हर इक खुशी को जिसने है पाया!
गमों का उसी ने ही बोझा सहा है!!
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जीवन के विष को जिसने चखा हो!
आखिर उसी ने ही अमृत पिया है!!
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हर दर्द जिनकी दवा बन गया हो!
ज़ख्मों को अपने उसी ने सिया है!!
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अपना इरादा जो मज़बूत रखते!
बुलंदी को फिर तो उसी ने छुआ है!!
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जितेन्द्र कुमार
1-
प्रेम के आवेश में कुछ बहने लगा हूँ।
आजकल मैं भी गजल कहने लगा हूँ ॥
जबसे मेरे स्वप्न में आने लगी हो,
तबसे नींदों में ही बस रहने लगा हूँ।
थाम लीं पापा की जबसे उँगलियाँ,
मैं भी अपने पाँव पर चलने लगा हूँ।
सह नहीं सकता था माँ की डाँट भी,
अब तो गैरों के सितम सहने लगा हूँ।
हो गया हूँ हर किसी से अजनबी,
शहर के परिवेश में ढलने लगा हूँ।
बह रही है आँसुओं की इक नदी,
रेत की दीवार - सा ढहने लगा हूँ।
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2-
प्राण का मन में तनिक ना मोह लाना चाहिए।
इश्क का दरिया मिले तो डूब जाना चाहिए ॥
अपने सपनों को जमीं दो तब ऊँचाई पाओगे,
नींव भू पर हो महल ऐसा बनाना चाहिए।
प्यार मुझसे ना सही पर आशना तो मुझसे हो,
मेरी गलियों में भी तुमको आना-जाना चाहिए।
तीर नजरों के बहुत ही हैं मगर तुझ-से नहीं,
वेध दे क्षण में हृदय ऐसा निशाना चाहिए।
दो मुझे बदनामियाँ या दर्द, आँसू ही सही,
इश्क में कुछ तो हमारे हाथ आना चाहिए।
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3-
वक्त के साँचे में ढलना आ गया है।
ठोकरें खाकर सम्हलना आ गया है ॥
सीख ली है जबसे मैंने सभ्यता,
झूठ की राहों पे चलना आ गया है।
शर्म से आँखें झुकी, खामोश लब,
क्या उसे भी इश्क करना आ गया है?
भूख से मरता नहीं कोई यहाँ,
निर्धन को फाँसी पे चढ़ना आ गया है।
गिरगिटों में नाम इनका भी लिखो,
अब इन्हें भी रंग बदलना आ गया है।
मेरी भी तालीम पूरी हो गयी,
अब मुझे भी चेहरे पढ़ना आ गया है।
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नरेश गुज्जर
माँ सरस्वती वंदना
अंधकारमय इस को माँ तुमने दिया है उजियारा,
घोर अंधेरा छाया था, तुमने ज्ञान का दीप जलाया,
थे नर पशु सब एक समान, माँ तुमने दिया विद्या का दान,
असभ्य को सभ्य बनाया, दिया हृदय में करूणा को स्थान,
तुम्हारी महिमा निराली जग में, होता है तुम्हारा ही गुणगान,
विद्यालय है तुम्हारा मंदिर, रहती हो जहाँ तुम विद्यमान,
करता हूँ वंदना तुम्हारे चरणों की, माँ रखना कृपा मुझ पर सदा एक समान
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प्रफुल्ल मिश्र
नन्हीं सी एक परी थी वो जो छली गयी हत्यारों से…
उजली सी एक किरण थी वो जो छली गयी अंधियारों से…
मैं हैरां हूँ कि वो इंसान ही थे वहशत की हद को तोड़ दिया…
मन में हवस हाथ में चाकू दहशत की हद को तोड़ दिया…
ये वक़्त वो था ये पल वो था मैं अपने नर होने पर शर्मिंदा था…
मासूम सी धड़कन रोक कहीं अब भी वो कातिल ज़िंदा था…
जाने कैसा रूप था ये हिंदुस्तानी परिपाटी का…
दुनिया में क्या संदेश गया इस जगतगुरू की माटी का…
घिन्न आती थी जज़्बातों में घिन्न आती थी उन रातों में…
सिहर सिहर के कांप कांप के थाम कलेजा हाथों में…
सन्नाटे को चीर दर्द से भरा अंधेरा देखा था..
जो वापस न आ सकता था वो गया सवेरा देखा था…
उसे देख उस दिन जैसे खामोशी तक चिल्लाई थी…
तब सूख चुके आंसू ने फिर से दर्द वेदना गाई थी…
उसे देख सब इंसानी भावों ने सांसें तोड़ी थी…
कलियों से नाज़ुक जिस्म पे तब घावों ने सांसें तोड़ी थी…
उसे देख उस दिन जैसे खुद दर्द कराहा था यारों…
एक मर्द की ओछी हरकत पर खुद मर्द कराहा था यारों…
वो दर्द न तुम सह पाओगे वो किस्सा न सुन पाओगे…
खत्म हुई उस गाथा का वो हिस्सा न सुन पाओगे…
मैं लिखते लिखते रो बैठा मैं भारी मन से बोल रहा…
खुद में सुलझी खुद में उलझी मैं दिल की गांठें खोल रहा…
मर्यादा पुरूषोत्तम थे हम जब दुनिया में सिर ऊंचा था तब…
इस घटना पर अपमानित हो बैठे हैं सिर नीचा कर अब…
गर यही वासना यही हवस जो फैल गयी चौबारों में…
तो रोशन ज्वाला सूरज की निगली जाएगी अंधियारों में…
इसलिए सवाल है मेरा ये उस छप्पन इंची सीने से…
बहना को मेरी कब तक रोकूँ मैं बिना खौफ के जीने से…
आखिर कब न्याय मिलेगा आंसू में भीगी पतवारों को…
कब फांसी लटकाओगे तुम दुष्कर्मी हत्यारों को…
माना फांसी दे भी दी तो क्या ये कालिख धुल जाएगी…
जो चोट आत्मा तक पहुँची क्या फांसी से भर पाएगी…
कल फिर जब एक बच्ची की इज़्ज़त तार तार की जाएगी...
अपनी आँखों में आँसू ले वो दर्द की पीड़ा गायेगी...
गर गूंगे बहरे अंधे बनकर हम इसको सहते जाएंगे...
तो तय मानो उस बच्ची को हम न्याय नहीं दे पाएंगे...
मैं जब हैवानियत में डूबे ऐसे नज़ारे देखता हूँ तो…
मैं जब उस नाज़ुक सी बच्ची की बहती खून की धारें देखता हूँ तो…
मेरे कानों में पड़ती हैं उस नन्हीं बिलखती जान की चीखें…
जिन्हें पहचान न पाया जिन्हें मैं जान न पाया वही अनजान सी चीखें…
वो चीखें… वही चीखें जो मुझे इंसानियत पे शक करने को मजबूर करती हैं…
वो चीखें… वही चीखें जो मुझे खुद अपने आप से ही दूर करती हैं…
वो चीखें… वही चीखें जो मुझे हैवानियत की धारा में लाकर छोड़ देती हैं…
वो चीखें… वही चीखें जो मुझे अंदर से बिल्कुल तोड़ देती हैं…
उन्हीं चीखों के डर से मैं अक्सर सो नहीं पाता…
हैं जो नाकामियां मेरी मैं उनको खो नहीं पाता…
तू ये न समझ मैं भावों में आके यूँ ही बहता हूँ…
मुझे मालूम है वो सुन रहे हैं जिनसे कहता हूँ…
अभी उम्मीद है… उलझी हुई ये गांठ खुल जाएं…
अभी उम्मीद है… हैवानियत के दाग धुल जाएं…
अभी उम्मीद है… ज़हरीला ये मौसम बदल जाये…
अभी उम्मीद है… इंसानियत की लहर चल जाये…
अभी उम्मीद है… सारी हदें अब तक नहीं तोड़ी…
अभी उम्मीद है… उम्मीद जो अब तक नहीं छोड़ी…
ऐसा करने वालों की गरदन पर वार होंगे जब…
हर ओर रेप की घटना से खाली अखबार होंगे जब…
हर बच्ची का जब बेखौफ सड़क पर चलना ज़िंदाबाद हुआ…
मैं तब मानूँगा कि भारत आज़ाद हुआ आज़ाद हुआ…
मैं ढूंढ रहा हूँ घर घर में इंसानों में इंसानों को…
नारी को देवी मानें जो भारत के वीर जवानों को…
जिस दिन दुष्कर्मी आंखों की बारी रोने की होगी…
उसी रोज़ पीतल की चिड़िया फिर से सोने की होगी…
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भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान, इलाहाबाद
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..आर. एस. शर्मा
दुखी भेंस
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मैं दुखियारी भैंस हूँ,
सुन लो मेरी बात,
गाय के पूजें चरण सब,
मुझको मारे लात,
गाय गाय सुनकर पके,
भैंस के दोनों कान,
दूध तो मैंने भी दिया,
मेरा क्यों अपमान,
मेरा क्यों अपमान,
जगत में गौ है माता,
में अपमानित जगत में
गुण कोई ना गाता,
काली हूँ तो क्या हुआ,
दिया सफ़ेदी दूध,
लोग गाय को माँ कहें,
मुझे कहें यमदूत,
दुनिया बालो ठीक है,
गाय को कहना मात,
मेरा भी सम्मान हो,
भले में छोटी ज़ात,
भले में छोटी ज़ात,
भला में भी करती हूँ,
घास फुस वो भी चरती,
वो में भी तो चरती हूँ,
गाय का हो या भैंस का गोबर,
दोनों एक समान,
मात्र गाय के से बनें,
श्री गणेश भगवान,
मेरे सुत को भैंसा कहते,
यम की होय सवारी ,
गाय का सुत नंदी कहलाते,
बैठे भोले भंडारी,
धर्म भेद ने ही किया,
मेरा सत्यानाश,
गाय में देवी देवता,
मुझ में यम का वास,
मुझ में यम का वास,
कभी सम्मान ना पाई
गौ में चौंसठ बसे देवता,
गौ माता कहलाई,
भवदीय,
R.s.sharma | Ramssharma0404@gmail.com
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