गांधी निर्वाण दिवस 30 जनवरी पर विशेष आलेख आज हम विकास के उस पायदान पर खड़े हैं जहां भूमंडलीकरण की प्रक्रिया को पलटा नहीं जा सकता। ऐसे में यह ...
गांधी निर्वाण दिवस 30 जनवरी पर विशेष आलेख
आज हम विकास के उस पायदान पर खड़े हैं जहां भूमंडलीकरण की प्रक्रिया को पलटा नहीं जा सकता। ऐसे में यह ज़रूरी है कि हम भूमंडली करण का विश्लेषण कर उसके खतरों को पहचाने और उनसे बचने के उपायों की तलाश करें।
आज हम जिस भूमंडलीकरण की बात करते हैं वह वास्तव में एक प्रकार का बहुराष्ट्रीय उपनिवेशवाद है। इसके जरिये बहुराष्ट्रीय कम्पनियां अपना साम्राज्य विस्तार कर रही हैं। और हमारी संस्कृति और रहन सहन पर चोट कर रही हैं। विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा-कोष और विश्वव्यापार संगठन के शिकंजे हमपर कसते चले जा रहे हैं। हमें थोड़ा रुककर सोचना होगा, क्या हमारे पैर भूमंडलीकरण की इस आंधी में उखड तो नहीं रहे हैं?
महात्मा गांधी समझते थे कि अपनी संस्कृति व पहचान की लड़ाई लड़े बग़ैर उपनिवेशवाद के खिलाफ संघर्ष अधूरा ही रह जाएगा। इसलिए उन्होंने ब्रिटेन से लड़ते समय ख़ास तौर पर इस चीज़ का ध्यान रखा कि वह पूरी तरह से भारतीय रहें ही न, दिखें भी। वह सूट और टाई पहन सकते थे लेकिन उन्होंने धोती पहनने का चुनाव किया। वह अंग्रेज़ी ढंग के बंगले में रह सकते थे लेकिन उन्होंने आश्रमों का निर्माण किया। वह खूबसूरत अंग्रेज़ी बोल-लिख सकते थे लेकिन उन्होंने हिन्दी की वकालत की और अपनी आत्मकथा अपनी मातृभाषा, गुजराती में लिखी।
गांधी जी का विचार था की बेशक हमारे दिमाग की खिड़कियाँ खुली रहें लेकिन हमें ध्यान इसका भी रखना चाहिए कि हमारे दरवाज़े इतने भी न खुल जाएं कि बाहर के भीषण अंधड़-तूफ़ान हमारे परखचे उड़ा दें। गांधी जी के अनुसार हमें बाहर की खुली हवा चाहिए, बाहर की सड़ान्ध नहीं कि जिससे रोगाणु हम पर हमला कर बैठें।
भूमंडलीकरण के नाम पर मुक्त अर्थव्यवस्था और उदारीकरण को प्रश्रय देना बहुराष्ट्रीय कंपनियों को विकासशील देशों में मुनाफ़ा कमाने की खुली छूट देना है और वहां के नागरिकों को गैर-ज़िम्मेदार उपभोक्ता बनाकर उन्हें लूटना है।
आज स्थिति क्या है ? हमने अपनी खिड़कियाँ इतनी खोल दी हैं की हमसब कोका-कोला और पेप्सी पीने के आदी बन चुके हैं और लस्सी और तरह तरह के शरबत पीना भूल चुके हैं। हम कोलगेट और कई अन्य प्रकार के दन्त मंजन इस्तेमाल करते हैं लेकिन दातून करना भूल चुके हैं। ब्रांड देखकर हम बड़ी बड़ी कंपनियों के जूते अंधाधुंध मंहगे दामों पर खरीदने लगे हैं किन्तु स्थानीय जूते बनाने वालों के सस्ते और टिकाऊ जूतोंको हिकारत की नज़र से देखते हैं। ये छोटी छोटी बातें हैं लेकिन बड़े मायने रखती हैं, क्योंकि ये आपकी अपनी पहचान को धुंधला करती हैं। छोटे पैमानों पर काम करने वालों को बेरोजगार बनाती हैं।
सवाल सही और गलत का नहीं है। पर हम सबसे पहले यह ढूँढ़ने लग जाते हैं कि इसमें गलत क्या है ? सवाल तो हमारी मूल पहचान का है, हमारे देश और उसके भूगोल के हिसाब से खान-पान और रहन-सहन का है। हमारा रहन-सहन और संस्कृति बिलकुल भिन्न है। हर जगह की होती ही है। ऐसे में हम एक ऐसी सार्वभौमिक संस्कृति, जो दो या दो से अधिक संस्कृतियों में अंतर ही मिटा दे, के पीछे क्यों पड़ें ?
विडम्बना यह है कि भूमंडलीकरण बहुराष्ट्रीय कंपनियों के माल बेंचने के उद्देश्य से हमें तथाकथित रूप से ‘सभ्य’ बनाना चाहता है। दातून करना असभ्यता है – हमें टूथ पेस्ट के किसी ब्रांड को इस्तेमाल करना चाहिए। सीधे हाथ से खाना असभ्यता है –हमें छुरी और काँटों का इस्तेमाल करना चाहिए। धोती कुर्ता पहनना पिछड़ेपन की निशानी है –हमें किसी कम्पनी के ब्राण्डेड सिले सिलाए पेंट-शर्ट पहनने चाहिए, इत्यादि। स्वदेशी- होमस्पन- उत्पाद निकृष्ट कोटि के होते हैं। उनकी बजाय बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्कृष्ट उत्पादों का उपयोग करना चाहिए और आधुनिक फैशन के साथ चलना चाहिए।
इस बात पर हमारा ध्यान ही नहीं जाता कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियां अपने ब्रांडेड माल को हमारे बाज़ार में थोप कर हमारे स्थानीय कारीगरों को बेरोजगार कर रहीं हैं। उनके बीच जो उत्तम से उत्तम वस्तुओं को बनाने की स्पर्धा थी उसे समाप्त कर रहीं हैं। उदाहरण के लिए पहले हमारे स्थानीय कारीगर इस प्रकार की स्पर्धा के चलते बारीक से बारीक मलमल बनाना सीख गए थे। अब वह मलमल पूरी तरह से गायब हो गई है। अन्य क्षेत्रों में भी यही हाल हुआ है। बड़ी बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगमन से छोटे छोटे स्थानीय उत्पादक बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। दलील दी जाती है की बड़ी बड़ी कम्पनियां क्योंकि बड़े स्केल पर उत्पादन करती हैं अत: वे माल बहुत सस्ते में हमें प्रदान करने में सक्षम हैं। लेकिन यह मात्र भ्रम और धोखा है। सच तो यह है कि वे संगठित होकर वस्तुओं को सस्ता होने ही नहीं देतीं। उनके बीच स्पर्धा केवल दिखावटी है। उन्होंने अपने हित के लिए ऐसी ऐसी वैश्विक संस्थाएं बना ली हैं जो उनके द्वारा स्थानीय उत्पादकों के शोषण को बढ़ावा देती हैं और गैर-ज़िम्मेदार उपभोक्ताओं की संख्या बढाती हैं।
यह ठीक है कि आज वैज्ञानिक प्रगति और विकास के चलते पूरा का पूरा भूमंडल एक ‘वैश्विक गाँव’ सा बन गया है जिसमें आप एक देश से दूसरे देश में आराम से सैर कर सकते हैं। लेकिन कठिनाई यह है कि इस वैश्विक गाँव का फ़ायदा विपन्न और विकासशील देशों का शोषण कर सिर्फ संपन्न और विकसित देश ही उठा पा रहे हैं। भूमंडली-करण ने छोटे देशों को पूरी तरह असहाय बना कर रख दिया है। बहु-राष्ट्रीय कंपनियों के दबाव में छोटे छोटे उद्योगों का या तो इन कंपनियों में विलय हो जाता है अथवा वे उनके एजेंट के रूप में काम करती हैं और इस प्रकार उपभोक्ता का मनमाने रूप से शोषण किया जाता है।
भूमंडली-करण का विचार कोई नया नहीं है। भारत में तो “वसुधैव कुटुम्बकम” की भावना एक सनातन भावना रही है। किन्तु सच तो यह है कि भूमंडली-करण का विचार और वसुधैव कुटुम्बकम की भावना केवल ‘नाम’ मात्र में ही समान हैं। हम वसुधा कहें या भूमंडल बात एक ही है। दोनों के बीच की तुलना बस यहीं तक है। भूमंडलीकरण, यदि केवल नहीं तो, मुख्यत: उद्योगों द्वारा आर्थिक लाभ की दृष्टि से किया गया एक प्रयास, प्रक्रिया और प्रविधि है। वसुधैव कुटुम्बकम सारी वसुधा को एक कुतुम्ब की तरह समझने का प्रयत्न है; भूमंडली-करण आर्थिक लाभ के लिए रची गई एक तरकीब है, वसुधैव कुटुम्बकम हर भू-वासी के लिए भावात्मक लगाव या प्रेम का द्योतक एक संस्कार है।
वसुधैव कुटुम्बकम का साहित्य में उल्लेख सर्वप्रथम हमें एक छोटे से उपनिषद्, लेकिन जिसे उचित ही “महोपनिषद” कहा गया है, में मिलता है। इसके अलावा कई अन्य ग्रंथों में भी यह लिपिबद्ध है। यह सनातन वाक्य आज भारतीय संसद के प्रवेश कक्ष में भी अंकित है। महोपनिषद में जिस श्लोक का यह हिस्सा है, वह इस प्रकार है -
अयं बन्धुस्यं नेतिगणना लघुचेतसाम।
उदार चरित्रनातु वसुधैव कुटुम्बकम ।| (अध्याय ४ / श्लोक ७१)
अर्थात, यह बंधु है और यह बंधू नहीं है, इस तरह की गणना छोटे चित्त वाले करते हैं, उदार चरित्र वाला तो सारी वसुधा को ही अपना कुतुम्ब मानता है।
गांधी जी की दृष्टि सदैव ही ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के भारतीय आदर्श के अनुरूप रही। वह किसी भी प्रकार के शोषण के विरुद्ध थे। उनका स्वदेशी का सिद्धांत अच्छे पड़ोसी होने का, उसकी मदद करने का, सिद्धांत है। आपके आसपास जो दुखी व्यक्ति है और जो आपकी मदद का मोहताज है, वही आपका सही अर्थों में पड़ोसी है| गांधी जी ने हमें एक ‘टेलिस्मैन’ दिया और कहा “जब भी तुम्हें संदेह हो या तुम्हारा अहम तुम पर हावी होने लगे, तो यह कसौटी आज़माओ : जो सबसे गरीब और कमज़ोर आदमी तुमने देखा हो, उसकी शक्ल याद करो और अपने दिल से पूछो जो कदम उठाने का विचार तुम कर रहे हो, वह उस आदमी के लिए कितना उपयोगी होगा। क्या उससे उसे कुछ लाभ पहुंचेगा ? क्या उससे वह अपने ही जीवन और भाग्य पर काबू रख सकेगा? यानी क्या उससे उन करोड़ों लोगों को स्वराज्य मिल सकेगा जिनके पेट भूखे हैं और आत्मा अतृप्त है?
ज़ाहिर है, ऐसा आदर्श आचरण आज जिस भूमंडलीकरण की बात होती है उससे बिलकुल मेल नहीं खाता। यह भूमंडलीकरण तो गरीब देशों के भरपूर शोषण पर आधारित है। इतना ही नहीं आज इस शोषण और गरीब और अमीर की बढ़ती खाई के लिए गैर ज़िम्मेदार उपभोक्ता भी कम ज़िम्मेदार नहीं हैं। अपने को बुद्धिमान कहे जाने वाले लोगों की तरफ ज़रा मुखातिब होइए। आप देखेंगे कि वे किस तरह बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पादों को भारत में प्रोत्साहित कर यहाँ की आर्थिक कठिनाइयों में इजाफा कर रहे हैं।
गांधी जी ने विदेशी कपड़ों की होली जलाई थी ताकि हम स्थानीय कपड़ा बुनने वालों और कातने वालों को काम दे सकें और आत्म निर्भर बन सकें। आज हालात यह हैं कि हम “कोलगेट” से दांत मांजते हैं। “जीलेट” ब्लेड से शेव करते हैं। शेव करने के बाद “ओल्ड-स्पाइस” लगाते हैं। “पिअर्स” साबुन से नहाते हैं।“जोकी” के अंतर्वस्त्र पहनते हैं। “वेन-हुयसेन” की कमीजें और “लेविस” की पतलून पहनते हैं। “मैगी” खाते हैं और “नेस्केफ़”
पीते हैं। “रे-बां” पहनते हैं “केसिओ” में समय देखते हैं। आनेजाने के किए “होंडा” बाइक इस्तेमाल करते हैं। “एप्पल” कम्प्यूटर पर काम करते हैं। “मक्डोनल” में लंच लेते हैं और “डोमिनोस” से “पीज़ा” खरीदते हैं।
और तुर्रा यह है कि हमारे समझ में नहीं आता की डालर के मुकाबले भारतीय रूपए की कीमत क्यों गिरती जा रही है ? कि भारत में गरीब और अमीर के बीच खाई क्यों बढ़ती जा रही है ? और यह खाई भारत में शायद सर्वाधिक है। हमारे स्थानीय उद्योग समाप्त होते जा रहे हैं ? माना, भूमंडलीकरण से हम बच नहीं सकते। रफ़्तार बढ़गई है। दुनिया बहुत छोटी हो गई है। लेकिन मानवी मूल्यों को, जैसे गरीब का उत्थान, समता का आदर्श और स्वदेशी की भावना, सुरक्षित रखने के लिए गांधी आज भी प्रासंगिक बने हुए हैं। भूमंडलीकरण को हम किस तरह वसुधैव-कुटुम्बकम के आदर्श से समायोजित कर सकते हैं इस दिशा में हमें आगे बढ़ना ही होगा। सोचना होगा।
--डा. सुरेन्द्र वर्मा
१०, एच आई जी – १, सर्कुलर रोड
इलाहाबाद -२११००१
बिलकुल सही व सटीक चोट.. ! डा. सुरेन्द्र वर्मा बधाई .. ये सत्य सभी के लिए जानना व पहचानना बहुत ज़रूरी है.. !
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