(शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव) मुक्तिबोध अँधेरे में मुक्तिबोधः मुक्तिबोध की ‘एक अरूप शून्य के प्रति’ कविता के अध्ययन के उपरांत अब मैं उनकी ‘अँधे...
(शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव)
मुक्तिबोध अँधेरे में
मुक्तिबोधः
मुक्तिबोध की ‘एक अरूप शून्य के प्रति’ कविता के अध्ययन के उपरांत अब मैं उनकी ‘अँधेरे में’ कविता के परिशीलन में प्रवृत हो रहा हूँ. यह कविता उन्होंने सन् 1957 ई के आसपास ‘अँधेरे में : आशंका के द्वीप‘ शीर्षक से लिखनी शुरू की जो सन् 1962 में जाकर पूर्ण हुई. ‘कल्पना’ पत्रिका में यह इसी शीर्षक से छपी भी, लेकिन जब लश्रमीकांत वर्मा के संपादकत्व में ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ उनका पहला संकलन छपा तो उसमें यह कविता ‘अँधेरे में’ शीर्षक से छपी. भूमिका में वर्मा ने बताया कि मुक्तिबोध की इच्छा से ‘आशंका के द्वीप’ अंश मूल शीर्षक से हटा दिया गया. हालाँकि वर्मा के मत से यह अंश इस कविता के उद्देश्य की पूर्ति ही करता था.
‘अँधेरे में’ मुक्तिबोध की सबसे लंबी कविता है. यह आठ खंडों में बँटी हुई है. रूप इसका प्रबंधात्मक है और भाव राजनीतिक. इस राजनीतिक भाव या संवेदना में केवल द्वंद्व के स्वर ही भास्वर हैं. यह द्वंद्व मार्क्सवाद का प्रातिनिधिक तत्व है जो उसके द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की धुरी है. इस वाद में द्वंद्व ही विकास को गति देता है. द्वंद्व को यदि प्रतियोगिता तक ही सीमित रखें तो बात में दम हैं. पर मैं सोचता हूँ मार्क्सवाद में मनुष्य-समाज दो वर्गों में बँटा है- सर्वहारा वर्ग और पूँजीवादी वर्ग. मार्क्सवाद के अनुसार इन्हीं दोनों के द्वंद्व से समाज विकास को प्राप्त होगा. तो फिर सर्वहारा वर्ग पूँजीवादी वर्ग के प्रति हमेशा खड्ग-हस्त क्यों बना रहता है?
इसका कारण है. मुझे नहीं लगता कि मुक्तिबोध ने इसपर कभी विचार किया होगा. पूँजी जीवन का एक आधार है, एक शक्ति है. पर यह पैदा की जाती है. वर्तमान में सर्वहारा वर्ग के पास पूँजी पैदा करने की कोई युक्ति नहीं है. एक युक्ति थी सामूहिक खेती की, जो असफल हो चुकी है. किंतु पूँजीवादी वर्ग के पास पूँजी पैदा करने की युक्ति है. उनकी आज की युक्ति है, उद्योग. आदि मानव के पास यह पूँजी-उत्पादक युक्ति आखेट था, फिर पशुपालन हुआ, फिर कृषि हुई, फिर उसका रूप सामंती हुआ. आज का उद्योग उसी का विकसित रूप है. यह सर्वहारा वर्ग उस उद्योग का एक हिस्सा है, बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्सा जो मजदूर कहलाता है. मजदूरों के चहाँ पूँजी पैदा करने की केवल एक ही युक्ति है, किसी उद्योग का हिस्सा बनना फिर समान कार्य समान अवसर का सिद्धांत प्रस्तुत कर उनसे अपना हिस्सा माँगना. ’अँधेरे में’ में कवि द्वारा जिस जनक्रांति की बात की गई है वह वस्तुतः एम्प्रेस मिल के मजदूरों द्वारा वेतन में वृद्धि के लिए की गई हड़ताल थी.
यह कविता मुक्त छंद में लिखी गई है. यह छंद वर्णिक और मात्रिक छंदों की अग्रिम कड़ी में है, निराला द्वारा विकसित. इसका स्वरूप भारतीय संस्कृति और प्रणाली के अनुरूप था. उसमें लय थी, उसमें हर तरह की भाव-व्यंजना के लिए सामर्थ्य थी, भाव भले ही राजनीतिक हों, उस पीढ़ी के कवि और आलोचक उसकी व्यंजना में कभी भी तिक्तता नहीं आने देते थे. अब तो तिक्तता परोसना (वह भी विकृत रूप में) कवियों का स्थायी भाव हो गया है. मुक्तिबोध भी इससे अछूते नहीं हैं. इस कविता में पूँजीवादी तत्वों की भर्त्सना में वह बहुत तल्ख हो गए हैं.
मैं अभी भी यह समझ नहीं सका हूँ कि मुक्तिबोध यह क्यों नहीं समझ सके कि मार्क्स ने भले ही एक दर्शन विकसित किया हो, उनका उद्देश्य राजनीतिक था- सत्ता का विरोध कर सत्ता तक पहुँचना. इनका उद्देश्य मनुष्य तक पहुँचना नहीं था. पर मुक्तिबोध का क्षेत्र साहित्य था. साहित्य का परम उद्देश्य मनुष्य तक पहुँचना है. साहित्य का संबंध मनुष्यमात्र से ही है जहाँ सारा खेल संवेदना का है. राजनीति में तो संवेदना व्यक्त भर कर दी, काफी है. साहित्य में संवेदना का कार्य तब पूर्ण होता है जब व्यक्ति संवेदित हो जाए, द्रवित हो जाए. मुक्तिबोध की कविता में यह गुण नहीं है. इनकी कविताओं के भाव बुद्धि के जटा-जूट में भटककर रह जाते हैं. ये चित्त को बेचैन ही कर सकते हैं शांत नहीं. कभी कभी मुझे यह व्यंग्य-सा लगता है कि मुक्तिबोध द्वंद्वों से मुक्त होना चाहते थे.
साहित्य के क्षेत्र में अभी अभी मुक्तिबोध की अर्द्धशती मनाई गई है. उनकी ‘अँधेरे में’ कविता की अर्द्धशती भी मन चुकी है. इस अर्द्धशती में मुक्तिबोध और उनकी कविताओं से संबंधित अनेक लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ने को मिले. इनमें कई-एक अच्छे और कई सामान्य दर्जे के थे. लेकिन एकाधिक लेखों को पढ़ने पर महसूस हुआ कि वर्तमान मार्क्सवादी आलोचकों में रामविलास शर्मा के प्रति बहुत गुस्सा है (हालाँकि रामविलास शर्मा आज भी सर्वश्रेष्ठ मार्क्सवादी आलोचक के रूप में मान्य हैं). क्योंकि शर्माजी ने उनकी दृष्टि में मुक्तिबोध की छवि बिगाड़ दी है. उन्होंने मुक्तिबोध को खंडित व्यक्तित्व का कवि बता दिया है, जबकि ये आलोचक मुक्तिबोध को निराला की कोटि में रखना चाहते हैं, सभी कुछ में- आत्मसंघर्ष में, भाव-व्यंजना में, काव्य-प्रतीति में अथवा काव्य-वस्तु में. पर ये जोड़ बैठा नहीं पाते. इनके तर्क कमजोर पड़ जाते हैं.
इस अर्द्धशती में प्रकाशित लेखों में कुछेक लेख ऐसे भी देखने को मिले जिसमें मुक्तिबोध को ऊँची कोटि का कवि दिखाने के लिए आलोचक आलोचना की एक कुतर्की विधि अपनाते लगते हैं. मुक्तिबोध भविष्य के कवि हैं. उनकी कविता की गति भविष्य की ओर है. ‘आजकल’ में एक लेखिका लिखती है- उनकी (मुक्तिबोध की) भविष्यवाणी सन् 2014-15 में सही सिद्ध हो गई. कैसी भविष्यवाणी? देश में फासिस्ट शासन के आने की भविष्यवाणी. पाठक विचारें, सन् 2014-15 में लोकमत से चुनी हुई केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार सत्तारुढ़ हुई थी. हाँ, उस सन् में एक बात अवश्य हुई थी. जिन मार्क्सवादियों ने नेहरू की सहानुभूति पाकर कांग्रेस सत्ता में अपने लिए बरसों से जगहें बना ली थीं उनकी सुविधा पर आँच आ गई. बर्षों की सत्ता-सुविधा पाकर भी इन मार्क्सवादियों ने साहित्य के, राजनीति के, संस्कृति के, इतिहास के और अर्थ आदि के क्षेत्र में कौन सी नयी जमीन तोड़ी है, कम से कम मुझे तो यह नहीं मालूम. स्वयं मुक्तिबोध को ही देखें. इन्होंने इतिहास की एक पुस्तक लिखी जो मध्यप्रदेश के स्कूलों के कोर्स में लगी. कुछ संगठनों ने जिसमें कम्युनिस्ट भी शामिल थे पुस्तक में छपे इतिहास के कुछ अंशों पर आपत्ति की, विरोध किया, जुलूस निकाले. पुस्तक प्रतिबंधित हो गई. मुक्तिबोध बहुत व्यथित हुए, जैसे उन्हें सदमा लग गया. वस्तुस्थिति यह थी कि इन्होंने आर्यों के प्रशंसातिरेक वाले हिटलर और राष्ट्रीय सवयंसेवकसंघ प्रमुख गोलवलकर के लेखों को पढ़ा. वे आर्यों को दुनिया की सर्वश्रेष्ठ जाति मानते थे. वे दोनों इतिहासविद नहीं थे. वे जो चाहें लिखें, महत्व तो इतिहासविदों की सम्मति का होता है. पर मुक्तिबोध न तो इतिहासविद थे न इतिहासकर, न ही भारत के प्रसिद्ध इतिहासकारों का पक्ष लिया. इनका झुकाव मार्क्सवाद की ओर था. इन्होंने अपने इतिहास में जैसे नयी जमीन तोड़ी. हम सब जानते हैं आर्यों के बारे में अनेक मत है. मुक्तिबोध अपने मार्क्सवाद के अनुसार जो उपयुक्त लगा उसे स्वरचित इतिहास में डाल दिया. विरोध तो होना ही था.
आलोचक नंदकिशोर नवल की एक कृति है ‘चार लंबी कविताएँ’. इनमें कविताओं में दो, ‘ब्रह्मराक्षस’ और ‘अँधेरे में’ मुक्तिबोध की हैं और ‘सरोजस्मृति’ और ‘राम की शक्ति पूजा’ निराला की. ये चारो लेख बहुत अच्छे बन पड़े हैं. पर इनपर कुछ लिखने का कोई विचार मेरे मन में नहीं है. इन लेखों को पढ़ने के दौरान मैंने गौर किया कि आलोचक इन लेखों के माध्यम से किसी न किसी विधि मुक्तिबोध को निराला की कोटि तक पहुँचाना चाहते हैं. कई और मार्क्सवादी आलोचक भी यह लालसा लिए हुए हैं. पर यह क्योंकर. क्या मार्क्सवादी आलोचक रचना के स्तर पर थक हार चुके हैं?
थोड़ा सा निराला और मुक्तिबोध की कृतियों पर. निराला के काव्य में उनकी करुणा सबपर बरसी है- चाहे वह धनी वर्ग हो या अंत्य वर्ग कुल्लीभाट. धूप में पत्थर तोडती हुई श्रमसीकर से भींगी बाला हो अथवा पत्रांक में सोई जुही की कली. मुक्तिबोध की करुणा, यों तो किसी पर बरसी नहीं, पर उनकी संवेदना के छींटे उनके शब्दों पर अवश्य पड़ सके हैं. वह भी उन्हीं पर अधिक पड़े हैं जो सर्वहारा वर्ग के हैं. पूरे मनुष्य-समाज पर नहीं, उसके एक वर्ग पर.
मुक्तिबोध की काव्य-पंक्तियाँ ऊबड़ खाबड़ और लय विहीन हैं (जब समूची सृष्टि में लय है तो इनकी काव्य-पंक्तयों में क्यों नहीं). मुक्तिबोध ने जब पहली बार इस कविता का पाठ किया था तो सुनने वालों में अशोक वाजपेयी भी थे. वह बताते हैं कि जिस कमरे में वह कविता सुन रहे थे वह बीड़ियों के अधपीए टुकड़ों से भर गया था. मुक्तिबोध, कविता सुनाते सुनाते और श्रोता सुनते सुनते बेहाल हो गए थे. कहने का तात्पर्य यह कि न कविता में रस था न कविता सुनाने वाले में. सुधीश पचौरी उन्हें
बींड़ीवादी कवि (तिरछी नजर, दैनिक हिंदुस्तान) कहते हैं. बींड़ी में उन्हें बहुत रस मिलता था.
‘अँधेरे में’ का काव्यशिल्प फैंटेसी है. कविता में यह एक अमरीकी काव्य-शिल्प है. सन् 1960 ई के आस-पास अमरीकी साहित्य में इस काव्य-शिल्प की बड़ी गूँज थी. मुक्तिबोध ने इसे सीधे वहीं से ग्रहण कर लिया है, हालाँकि भारत के प्राचीन साहित्य में फैंटेसी शिल्प पर अनेक कहानियाँ मिलती हैं, किंतु हिंदी कविता के लिए यह शिल्प एकदम नया है. फैंटेसी का अर्थ होता है- स्वप्नचित्र अथवा कल्पना चित्र. इसमें यथार्थ में घटित घटनाओं को स्वप्न-चित्र बनाकर प्रस्तुत किया जाता है.:
The genre of fantasy is an opportunity to dream of reality as we might like it to be.
हिंदी में फैंटेसी शिल्प में कविता लिखने वाले मुक्तिबोध अकेले कवि हैं, अपनी धारा के एक मात्र गोत्रहीन कवि.
फैंटेसी शिल्प में उनको एक सुविधा भी हुई है. ‘अँधेरे में’ कविता में उन्होंने यथार्थ को फैंटेसी अर्थात स्वप्न में बदला है. यह कविता उनके लिए एक दुःस्वप्न है. हम जानते हैं, स्वप्न में दिख रहे दृश्यों में कोई तरतीब नहीं होती. दृश्य में कई अनुक्रम नहीं भी दिखते. तो रचना में यथार्थ स्वप्न जैसा दिखे इसके लिए मुक्तिबोध ने कुछेक तथ्य इस कविता में छोड़ दिए हैं. जैसे कविता की काव्य-वस्तु में उन्होंने शहर में मास्टर लॉ लगने का जिक्र तो किया है किंतु उस परिस्थिति का जिक्र नहीं किया जिस कारण मास्टर लॉ लगा. वह परिस्थति थी नागपुर एम्प्रेस कपड़ा मिल के मजदूरों की हड़ताल. इस हड़ताल में निश्चित ही तोड़ फोड़, मारपीट और आगजनी हुई होगी. ऐसी ही स्थिति में मार्शल लॉ लगता है. लोकतंत्र में भी शांतिस्थापन के लिए मार्शल लॉ की व्यवस्था है, कविता में इस हड़ताल को उन्होंने जनक्रांति कहा है, या कहें जनक्रांति की भावना की है.
मुक्तिबोध एक चिंतनशील कवि हैं. उनका चिंतन, आलोचना और कविता दोनों में उच्छल है. पर उनके इस चिंतन की उड़ान मार्क्सवाद और लोकतंत्र में उलझी हुई है. झुकाव मार्क्सवाद की ओर है किंतु पड़े लगते हैं वह लोकतंत्र के मोह में. ‘अँधेरे में’ कविता में उन्हें फासिज्म की जो आशंका है, वह अभिव्यक्ति की आजादी के खत्म हो जाने की है. इससे वह डरे हुए से लगते हैं. अभी कुछ दिन पहले इस ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ को लेकर देश में एक मुहिम छिड़ गया था. इसे छेड़ा था मार्क्सवादियों ने. पर ध्यान देने योग्य है कि ‘’अभिव्यक्ति की आजादी’’ लोकतंत्र का मूल्य है, मार्क्सवाद का नहीं. मार्क्सवाद का मूल्य है सर्वहारा का अधिनायकवाद. और इसमें अभिव्यक्ति को अधिनायक के अनुशासन में माना गया है. मार्क्सवाद कहें, साम्यवाद कहें या समाजवाद, इसमें समाज प्रमुख है और लोकतंत्र में व्यक्ति. मुक्तिबोध मार्क्सवाद और लोकतंत्रवाद दोनों को एक साथ साधना चाहते थे. पर साध नहीं पा रहे थे. उनकी यह साध (साधने की इच्छा) द्वंद्व बनकर उनके मस्तिष्क में अँटक गई थी. इसी द्वंद्व के साधने की चेष्टा में वह एक निराली अभिव्यक्ति की खोज में थे. इस अभिव्यक्ति की खोज में वह सन् 1957 से सन् 1962 तक बेचैन रहे, बड़ी मनोव्यथा में थे. जब वह परम अभिव्यक्ति नहीं मिली तो उन्होंने बड़ी ईमानदारी से इस तथ्य को अपनी अंतिम कविता ‘अँधेरे में’ में व्यक्त कर दिया.
मुक्तिबोध अपने जीवन के हर मोड़ पर द्वंद्व में दिखाई देते हैं. वह पूजा को ढोंग मानते थे और कुलदेवी की उपासना में भी शामिल होते थे. वह नास्तिक थे और नास्तिकता के पार जाते भी दिखाई देते हैं. उनके द्वंद्व का, एक शोध छात्रा प्रभा दीक्षित ने ‘आजकल’ के नवंबर 2017 के अंक में, “मानसिक द्वंद्वों के विकल कवि” शीर्षक अपने लेख में बड़ा ही रोमांचक वर्णन किया है.
कई जगह वह मुक्त होने की बात करते हैं. पर यह मुक्ति किससे? अपने द्वंद्वों से या समाज के द्वंद्वों से? एक दृष्टि है कि अपने द्वंद्वों से मुक्ति पा ली जाए तो समाज के द्वंद्वों से मुक्त हुआ जा सकता है. और एक दृष्टि है कि पहले समाज के द्वंद्वों से निपट लिया जाए, फिर अपन द्वंद्वों की ओर रुख किया जाए. मुक्तिबोध इसी मत के लगते हैं. व्यक्ति के द्वंद्व रह ही जाएँ तो समाज के द्वंद्व जा सकते हैं?
मेरे देखे वह अपने द्वंद्वों से मुक्त होना चाहते थे. कदाचित ‘अँधेरे में’ कविता में परम अभिव्यक्ति की खोज का प्रयत्न उनकी इसी चाह की ओर इंगिति है. लगता है उन्होंने निराली अभिव्यक्ति को ही द्वंद्वों से मुक्त होने का रास्ता मान लिया था जिससे द्वंद्वों में रहा भी जा सके और मुक्ति का अहसास भी बना रहे. यह उनके द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के प्रति आकर्षण का प्रभाव है.
पर द्वंद्व में रहकर क्या द्वंद्व से मुक्त हुआ जा सकता है? क्या द्वंद्वात्मक भौतिकवाद में मुक्ति पाने की कोई अवधारणा है? यह वाद मुक्ति की बात करता भी है तो शोषण से मुक्ति की बात करता है. शोषण से मुक्ति का अर्थ है, एक शोषण से मुक्त होकर दूसरे शोषण में फँसना. साम्यवादी रूस, लाल चीन और क्यूबा के समाज इसके उदाहरण हैं. ये पूँजीवाद के शोषण से मुक्त हुए तो अधिनायकवादी शोषण में फँस गए.
‘अँधेरे में’ कविता को पढ़ा तो मैंने कितनी बार पर यह पूरी तरह पल्ले नहीं पड़ी. अब इसकी अर्द्धशती (यह कविता सन् 1957-62 के बीच लिखी बताई जाती है) में मैं इसका अध्ययन या उसको समझने की चेष्टा कर रहा हूँ. इस समय एक सुविधा भी है. नयी कविता का हो-हल्ला, खंडन मंडन अब समाप्त हो चुका है. विचारों, स्थापनाओं और प्रयोगों ने लगभग स्थायित्व पा लिया है. हालाँकि अभी भी ऐसे स्वर सर उठा लेते हैं पर ये अंधभक्ति के विकल स्वर ही अधिक हैं. जैसे ‘मुक्तिबोध-शती में छपी ये बातें कि मुक्तिबोध भविष्य के कवि हैं”. कई आलोचकों ने इसी बात को शब्द बदल-बदल कहा है. मंगलेश डबराल उन्हें स्थानांतरगामी (स्थान बदलने वाले, लक्ष्यार्थ भविष्य में गति करने वाले) कवि कहते हैं. यह कथन अधिक से अधिक नास्त्रेदमन के भविष्य-कथन जैसा ही भाग्य रखते हैं. पेन्सिल्वेनिया विश्वविद्यालय के सहायक प्रोफेसर ग्रेग गुल्डीं को उनकी कहानी क्लॉड ईथर्ली के एक वक्तव्य में लगता है कि “मुक्तिबोध ने.....मेरा मानना है कि वे कुछ और आगे जाते हैं, वे यहाँ हमें भूमंडीकरण की प्रक्रिया दिखाते हैं” (साहित्य वार्षिकी—इंडिया टुडे सन् 2017)
मंगलेश डबराल ने आजकल, नवंबर सन् 2017” के अंक में. ‘अँधेरे में’ कविता के प्रभाव को यों व्यक्त करते हैं- “इस कविता ने...एक पूरी पीढ़ी (सन् 1964-74 की) को उस अकविता की दैहिक भूल भुलैया में भटकने से रोक दिया (जो)..उन दिनों...शब्दों में दैहिक कुंठा और अराजकता की नदियाँ बहा रही (थी). बड़ा अजीब वक्तव्य है यह.. ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ सन् 1964 में प्रकाशित हुआ. इसी में यह कविता (‘अँधेरे में’) छपी थी. लगभग इसी वर्ष जगदीश चतुर्वेदी, भगवान सिंह आदि ने अकविता आंदोलन को छेड़ा. ये ‘अँधेरे में’ कविता से प्रभावित होते तो अकविता आंदोलन को ये छेड़ते ही क्यों. वास्तव में वे पश्चिम की एंटी पोएट्री से प्रभावित थे. कदाचित ऐसे ही आलोचकों के कारण वस्तुतः मुक्तिबोध में जो मुक्तिबोध छिपा है वह प्रकट नहीं हो पाया है. वह अँधेरे में ही रह गया है.
शैलेन्द्र चौहान कहते हैं मुक्तिबोध एक प्रतिबद्ध कवि हैं. वह एक पक्षधर कवि हैं (आजकल, नवंबर, सन् 2017). संवेदना में कोई पक्षधरता या प्रतिबद्धता होती है, मुझे नहीं मालूम. मुझे यही ज्ञात है कि संवेदना कोई भी हो, उसकी अभिव्यक्ति यदि काव्यमय है तो ही दृदय की भूमि नम होती है, उसमें कुछ अंकुरित होने की संभावना जगती है. तभी पाठक के आपाद स्नायु मंडल में खनक जगती है, असीमित. प्रतिबद्धता और पक्षधरता के तो अपने अपने घेरे होते हैं. इन मूल्यों से बँध कर कोई खुले आकाश में उड़ान नहीं भर सकता. खैर यह जानने का मेरा हक है कि मुक्तिबोध किसके प्रति प्रतिबद्ध, किसका पक्षधर. यह राजनीति में ही हो सकता है या राजनीति जैसे वातावरण में. मुक्तिबोध कहते भी हैं, पार्टनर तुम्हारी पाँलिटिक्स क्या है. हाँ वह पक्षधर लगते हैं मार्क्सवादी राजनीति के. पर मुझे तो वह मार्क्सवाद और व्यक्तिवाद की डालियों पर झूलते दिखते हैं.
जब मैं ‘अँधेरे में’ कविता के अध्ययन में रत हुआ तो लगा मैंने ठीक ही महसूस किया था. मुक्तिबोध की कविताएँ समझने में आसान नहीं हैं. इन कविताओं की काव्य-वस्तु बहुत उलझी हुई है. कवि का कविताओं का पैटर्न एकदम नया है. लिखने का ढंग अलग है. शब्द-संयोजन नया है पर ऐसा कि काव्य-पंक्तियों का अन्वय करने पर भी अर्थ-संदर्भ और अर्थ जानने में बुद्धि की अच्छी खासी कसरत हो जाती है. भारतीय मन के लिए इसमें कुछ अजनबीपन भी है.
इनकी ‘ एक अऱूप शून्य के प्रति ’ कविता का जब मैं भाष्य करने चला था तो इसके शीर्षक ने ही मुझे उलझन में डाल दिया था. मुक्तिबोध का शून्य, रूपवाला भी है और बिना रूप का भी. हालाँकि यह शून्य गणित का नहीं साहित्य का है. कमाल की बात है कि यह अरूप शून्य भी वहाँ संख्या में कई हैं. यह भी एक उलझन है कि कवि लिखना चाहता है एक अरूप शून्य के प्रति, पर लिख डालता है एक विलक्षण कुरूप जीव (जिसे नवल जी ने ईश्वर-दैत्य कहा है) के प्र्रति.
यह कैसी काव्य-रीति है. तब अकस्मात मेरे दिमाग में आया कि हो न हो कवि यह ईश्वर पर व्यंग्य कर रहा है. क्योंकि उसका ईश्वर पर विश्वास ही नहीं. वह ईश्वरवादियों पर व्यंग्य ही कर सकते थे.
एक बात सबसे आश्चर्य की लगी कि अनुभव को महत्व देने वाले मुक्तिबोध ईश्वर के अनुभव के लिए बिना ध्यान में डूबे ही (यही वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी है) ईश्वर को व्यंग्य की वस्तु मान लिए. ईश्वर को उनके भक्तों ने ध्यान में डूब कर जाना है जबकि मुक्तिबोध ध्यान में कभी डूबे ही नहीं. यह हो नही सकता कि मुक्तिबोध को ध्यान का पता न हो. वस्तुतः वह चिंतन में स्वतंतीर नहीं, पश्चिमी चिंतकों के अनुकरण और अनुसरण में थे. उन्होंने ईश्वर को तर्क के सहारे जानना चाहा. हालाँकि बुद्धि नीत्से को कहाँ ले गई उन्होंने देखा ही.
इससे लगता है मुक्तिबोध के मन में बहुत उलझाव था. वह कुछ ठहर कर अपने इस उलझाव को समझने का प्रयत्न नहीं करते थे. उस क्षण उनके भीतर उमड़ता कोई आवेग उन्हें किसी एक ओर ठेल देता था. यह आवेग उनके पश्चिम के चिंतन की समानुभूति में होने का है. मुझे लगता है, मुक्तिबोध की कविताओं को समझने के लिए उनके मन के उलझाव की प्रकृति तथा अमेरिकी और पश्चिमी काव्यांदोलनों को जानना आवश्यक है.
उनकी कविताओं में हमारी मिट्टी की खुशबू नहीं है.
COMMENTS