व्यंग्य // मजदूर –एक अव्यावहारिक प्रलाप // यशवंत कोठारी

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आपने जीवन में और कुछ देखा हो या नहीं मगर कभी न कभी मजदूर अवश्य देखा होगा. हर आदमी अक्सर सस्ते और अच्छे मजदूर की तलाश में रहता है जो पैसा कम...


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आपने जीवन में और कुछ देखा हो या नहीं मगर कभी न कभी मजदूर अवश्य देखा होगा. हर आदमी अक्सर सस्ते और अच्छे मजदूर की तलाश में रहता है जो पैसा कम ले और काम ज्यादा करे हर शहर में मजदूरों के ठिये होते हैं जहाँ पर सुबह सवेरे मजदूर काम की तलाश में आकर बैठ जाते हैं, ये लोग गाँव से एक दो मोटी रोटियां कच्चा कांदा या फिर एक दो हरी मिर्च लेकर आते हैं, मजदूरी मिल गई तो ठीक नहीं तो शाम को बैरंग वापस गाँव चले जाते हैं ,कभी कभी किराया बचाने के चक्कर में ये लोग शहर के अंदर बसे रेन बसेरों में ही सो जाते हैं. इन गरीब गुरबों की और सरकार का ध्यान केवल चुनाव के दिनों में जाता है. वोट देने के अलावा ये लोग रेलियों में ,सभाओं में भीड़ जुटाने के काम आते हैं, मजदूरी के अलावा खाने के पैकेट भी मिल जाते हैं बोनस में कभी कभी पुलिस की लाठियां भी मिलती हैं, एक ही मजदूर कई दलों की रैलियों, सभाओं में चला जाता है. मजदूर के बाप का क्या जाता है. मजदूर वास्तव में सर्वहारा वर्ग का सच्चा किरदार है. कई बार मुझे लगता है पूरी दुनिया मजदूर के खिलाफ है तभी तो नारा बना-दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ . मजदूर को गाँव में मजदूरी नहीं मिलती तो शहर की तरफ भागता है, शहर में आधी पोनी मजदूरी पाता है या रिक्शा चलाकर अपना व् परिवार का पेट भरने का असफल प्रयास करता है.

लेकिन पूरी दुनिया मजदूरों के खिलाफ हो ऐसा नहीं है. गारा मिटटी ,चूना , ईटें, पत्थर ख़राब पानी सीमेंट, फावड़ा , तगारी , गेंती , कुदाल, सीढी, ऊँचे बलि फंटें आदि उसके मित्र साथी हमसफ़र होते हैं , मजदूर कई बार उंचाई से गिर जाता है मगर किसी को कोई खास अफ़सोस नहीं होता , कुछ मुआवजा देकर मामला निपटा दिया जाता है.

कल ऐसा ही हुआ एक गरीब बूढा,बीमार लाचार अपाहिज मोहताज़ अपने जवान बेटे की मौत का मुआवजा मांग रहा था और ठेकेदार उसे हड़का रहा था . बूढा थोड़े पैसे में ही मान गया, यही मजदूर की नियति है. नहीं मानता तो क्या करता . ठेकेदार बोला -

तुम साले गरीब गुरबे तो पैदा ही मरने के लिए होते हो,गिर कर नहीं मरते तो किसी रईस की कार के नीचे आकर मरते. गरीबी और मौत का तो चोली दमन का साथ है. मजदूर सबकी गा ली खाता है सबकी सुनता है मगर सरकार , प्रशासन, पुलिस , व्यवस्था. पटवारी, तहसीलदार. डाक्टर कोई उसकी नहीं सुनता.

मजदूर याने सर पर कफन की तरह बांधे एक गमछा वाला आदमी नुमा गरीब या गरीब नुमा आदमी जो हर मजदूरी देने वाले को बाबूजी कहता है ,बाबूजी उसके पचास रूपये काट कर दो चाय पिला कर डेढा काम निकालने की फिराक में रहते हैं ठेकेदारों द्वारा किये जा रहे शोषण पर सैकड़ों शोध कार्य हो चुके हैं मगर मजदूर कि स्थिति में कोई फर्क नहीं पड़ा . समाज विज्ञानी बताते हैं कि मजदूर बिना शोषण के जिन्दा नहीं रह सकता , शोषण ही उसे जिन्दा रखता है. मजदूर का न वर्तमान होता है, न भूत व् भविष्य होता है.

मजदूर की चर्चा अधूरी है यदि बात मजदूरिनों की न की जाय. ये बेचारियाँ कम पैसे में काम करती हैं, आर्थिक,मानसिक व् शारीरिक शोषण की कोई शिकायत तक नहीं कर पाती. सरकार ने मनरेगा बनाया मगर मजदूरों को कोई फायदा नहीं हुआ ,सरपंच के खेत की मेड ही बार बार बनाई गयी. मजदूर गरीब ही पैदा होता है और गरीब ही मर जाता है. भारतीय मजदूर अफ्रीका से अमेरिका तक फैले हुए हैं सस्ते,सुंदर ,टिकाऊ और मज़बूत ,आजकल के सॉफ्टवेयर इंजीनियर भी कमोबेश मजदूर ही है जो बॉडी शोपिंग के सहारे विदेशों में काम करते हैं,और बड़ी कम्पनियां ठेकेदारी करती हैं. महात्मा गाँधी ने अफ्रीका के भारतीय मजदूरों की लड़ाई लड़ी और बाद में आज़ादी की लड़ाई लड़ी,गिरिराज किशोर ने इस विषय पर उपन्यास लिखा जो मजदूरों की हालात तो बयां करता है मगर मजदूर का कुछ नहीं हुआ. बिहार का मजदूर पंजाब हरियाणा में रोटी की खोज में आता है और ख़ुशी ख़ुशी अपना शोषण करवाता है.

हर मजदूर की गरीबी के अलावा कोई न कोई समस्या होती है,गरीब है इसलिए बीमारी उसका पीछा नहीं छोड़ती,अस्पतालों में उसे कोई घुसने नहीं देता,मेडिकल बीमा उसका होता नहीं. खैरात की दवा और घुड़कियाँ जरूर मिलती है ,सरकार उसे कार्ड देती है मगर फायदे सब नेताओं को मिलते है,आधार लाओ गार्ड उसे झिडकते हुए कहता है,तुम्हारे पास जो आधार है वो नकली है असली वाला गाँधी छाप आधार लाओ ,सब ठीक हो जायगा. पिछले दिनों एक गरीब मजदूर की बीबी मर गयी मजदूर लाश छोड़ कर कमाने गया धंधा नहीं मिला ,अख़बार वाले चिल्लाये तो कुछ हुआ. बेचारा गरीब मजदूर . मजदूर याने एक सतत उदासी,पिचका शरीर,खली हाथ,भूखा नंगा ,जबरन मरने को तैयार किसी बाबा की शरण में जाने का हमेशा तैयार.

एक तरफ सात सितारा जिन्दगी और दूसरी तरफ माइनस सात सितारा मौत. यहीं है असली प्रजातंत्र के इतने सालों की कमाई. एक नेता ने साफ कहा –इन सालों का भूखा रहना बहुत जरूरी है यदि इनका पेट भर गया तो हम लोग भूखे मर जायेंगे. इनकी जिन्दगी का बदतर होना ही हमारी सफलता है.

कभी पूरी मजूरी मिलने पर मजदूर खुश होकर एक थैली पीकर बीबी को मार पीटकर खुश हो जाता है. मजदूर को कोई भी ठोकर मार सकता है फुटपाथ पर सोने पर कार से रौंद सकता है गलती उसी की है वो फुटपाथ पर क्यों सोया. झोपड़पट्टी में भी जगहों पर दादा माफिया का कब्ज़ा. मजदूर मरेगा तो कौन बचेगा.

अमेरिका के शिकागो शहर में सबसे पहले एक मई को मजदूर दिवस का आयोजन हुआ बाद में मजदूर क्रांति पूरी दुनिया में फैली,साम्यवाद मजदूर आन्दोलन पर ही टिका था बाद में खुली अर्थ व्यवस्था के कारण सब चौपट हो गया. अब तो हालत ये है की सरकार मजदूर व् मशीन को एक साथ किराये पर लेती हैं,फिर ठेकेदार मजदूर व् मशीन दोनों का शोषण करते हैं. मानव व् मशीन का यह द्वन्द्व सैकड़ों सालों से चल रहा है,आगे भी चलता रहेगा. कृत्रिम बुद्धिमत्ता के इस ज़माने में मजदूर रोटी को तरस रहा है –ये रोटी मुझे दे दे ठाकुर.

हे दलित विमर्श करने वालों ,स्त्री विमर्श के पहरेदारों,क्या मेरी आवाज़ तुम तक पहुचती है ध्यान दो नहीं तो ये गरीब मेहनतकश मजदूर -मजदूरिनें तुम्हारे महलों को उजाड़ देंगे. सामने के मैदान में मजदूरों की चौकटी लगने लग गयी है ,मैं इस प्रलाप को बंद करने की इजाजत चाहता हूँ. किसी सस्ते मजदूर को ढूंढता हूँ सफाई करानी है.

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यशवंत कोठारी ८६,लक्ष्मी नगर ब्रह्मपुरी बाहर,जयपुर-३०२००२

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रचनाकार: व्यंग्य // मजदूर –एक अव्यावहारिक प्रलाप // यशवंत कोठारी
व्यंग्य // मजदूर –एक अव्यावहारिक प्रलाप // यशवंत कोठारी
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रचनाकार
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