[पुस्तक-समीक्षा , “महकी कस्तूरी” (दोहा संग्रह) / डा. ज्योत्स्ना शर्मा / अयन प्रकाशन,नई दिल्ली / २०१७ / मू. रु. १८०/- मात्र। पृष्ठ सं. ८५ ] ...
[पुस्तक-समीक्षा , “महकी कस्तूरी” (दोहा संग्रह) / डा. ज्योत्स्ना शर्मा / अयन प्रकाशन,नई दिल्ली / २०१७ / मू. रु. १८०/- मात्र। पृष्ठ सं. ८५ ]
डा. ज्योत्स्ना शर्मा एक समर्थ कवियित्री हैं। उनकी दिलचस्पी लम्बी-लम्बी उबाऊ कविताओं के लिखने में कभी नहीं रही। इसीलिए उन्होंने मुख्यत: जापान से आयातित हाइकु विधा को अपनी कविताओं का माध्यम बनाया। उनका एक हाइकु संग्रह “ओस नहाई भोर” प्रकाशित भी हो चुका है। हाइकु के अलावा वे हाइकु परिवार की अन्य विधाओं, जैसे – चोका आदि, भी खूब लिखती हैं। पंजाब में प्रचलित और खूब गाई जाने वाली काव्य विधा, “माहिया” को भी उन्होंने अपनाया है। उनका एक माहिया-संग्रह भी आ चुका है। इस बार वे अपना एक दोहा-संग्रह लेकर प्रस्तुत हुई हैं। इन सभी विधाओं की ख़ास पहचान यह है कि वे थोड़े शब्दों में बड़ी बात कहने का प्रयत्न करती हैं।
नई कविता की गद्यात्मकता से जब हिन्दी साहित्य ऊबने लगा था तब एक बार फिर तुकांत कविताओं की वापसी हुई। इस वापसी में कुण्डलियाँ, गज़लें और दोहे आदि, लिखे जाने लगे। दोहा विशेषकर खूब प्रचलित हुआ। अनेक नए और पुराने कवियों ने अपनी काव्याभिव्यक्ति का वाहन दोहों को बनाया। दोहाकारों की एक पूरी पंक्ति तैयार हो गई। ज्योत्सना जी भी इसमे सम्मिलित हो गई हैं।
दोहा दो पंक्तियों, जिनमें चार चरण होते हैं, का काव्य है। इसमें पहले और तीसरे चरण में १३-१३ मात्राएँ तथा दूसरे और चौथे चरण में ११-११ मात्राएँ होती हैं। दोहा हिन्दी का आदि-छंद माना गया है। यह अपने में सम्पूर्ण और मुक्त होता है। हर दोहा अपने में एक इकाई है। वह इधर उधर तांक-झाँक नहीं करता। वह पूरी तरह अपने में ही सिमटा, एक गवाक्षहीन ‘मोनेड’ है। उर्दू ग़ज़ल का हर शेर भी इसी तरह का होता है। प्राकृत और अपभ्रंश भाषा में दोहे को “दुहा” कहा गया है। तमिल भाषा में इसे ‘कुरल’ कहते हैं। तिरुवल्लुवर का “तिरुकुरल” तमिल भाषा का एक प्रतिनिध दोहा-काव्य है। दक्खिनी हिन्दी में आदिल शाह के “दोहरा” प्रसिद्ध हैं। बहरहाल दोहा कहें या कुरल, दुहा कहें या दोहरा काव्य जगत में सभी अपनी दो पंक्तियों से जाने जाते हैं।
विषय सामग्री के दृष्टिकोण से हिन्दी में दोहा मूलत: भक्ति, श्रृंगार और नीति काव्य है। किन्तु आधुनिक काल में समयानुसार इसका केनवस काफी विस्तृत हो गया है। युगानुसार इसमें सामाजिक राजनैतिक स्थितियों की अभिव्यक्ति और उनपर कटाक्ष भी सम्मिलित कर लिया गया है। डा. ज्योत्सना शर्मा ने हिन्दी दोहों के शरीरशास्त्र को (दो पंक्तियाँ, चार चरण और निश्चित मात्राएँ) भली भाँती समझा है और उसकी बनावट में वे भूल कर भी कोई गलती नहीं करतीं। लेकिन उन्होंने स्वयं को भक्ति, श्रंगार और नीति तक ही नहीं रखा है। आधुनिक समाज और राजनीति की विडंबनाएं उन्हें खासा सताती हैं और इसे भी उन्होंने अपने दोहों में वाणी प्रदान की है। उदाहरण के लिए वे अपने समाज में उन बेटियों की स्थिति के लिए विशेष चिंतित हैं जो वस्तुत: हमारे जीवन में सौन्दर्य और सुगंध लाती हैं। वे कहती हैं,
बिटिया आँगन की कली, उपवन का शृंगार
महकी कस्तूरी हुई, महकाए संसार (पृष्ठ ४५)
ध्यातव्य है कि इस दोहां-संग्रह का नाम, ‘महकी कस्तूरी’, इसी रचना से ग्रहण किया गया है। वह बेटी हो या माँ या कोई भी नारी क्यों न हो, सभी तो मनुष्य के लिए एक मधुर सुखी घर और उज्जवल संसार रचती है इसीलिए कवियित्री कहती है –
नारी बन नारायणी,उठ कर सोच-विचार
स्वयं शक्ति, तेजस्वनी रच उज्जवल संसार (४४)
माँ मन की पावन ऋचा सदा मधुर सुख धाम
डगमग पग संतान के, लेती ममता थाम (२४)
माँ ही नहीं इस सन्दर्भ में पिता की भूमिका भी उल्लेखनीय है –
मन तो शीतल छाँव सी, पिता मूल आधार
सुन्दर सुखी समाज का, संबल है परिवार (२४)
इतना सब होते हुए भी, माँ पिता और परिवार के होते हुए भी, हमारा सारा समाज आज दुखी है। बुद्ध का पहला आर्य सत्य दुःख ही तो था। उन्होंने सब जगह दुःख ही दुःख देखा और जाना था- सर्वं दुःखं। बहुत कुछ ऐसा ही दुःख हमें ज्योत्स्ना जी के दोहों में भी दिखाई देता है।
कल ही थामा था यहाँ,दुःख ने दिल का हाथ
आकर ऐसे बस गया, ज्यों जन्मों का साथ (२८)
आहट तक होती नहीं, सुख की इस संसार
हम भी दुःख की टोकरी, लेने को लाचार (२७)
सूरज चन्दा चांदनी, धरा तरु और गर्द
सबकी अपनी पीर है, सबके अपने दर्द (७१)
बुद्ध का दुःख बेशक बहुत कुछ आध्यात्मिक था। किन्तु डा. ज्योत्सना इसकी तह पाने के लिए समाज की विडंबनाओं का विश्लेषण करती हैं और इस दुःख के पीछे समाज ने जो मनुष्य और मनुष्य के बीच आर्थिक खाई बना दी है उसे, और स्वतंत्रता के हनन को, दुःख का कारण मानती हैं –
जगमग हुईं अटारियां, कुटिया है बेहाल
कभी सिसकते दीप में नेह ज़रा सा डाल (३९)
पिंजरे की मैना चकित, क्या भरती परवाज़
कदम कदम पर गिद्ध हैं, आँख गढ़ाए बाज़ (४५)
आज सामाजिक और पारिवारिक स्थितियां इतनी बिगड़ चुकी हैं कि बेटों की परस्पर अनबन में बेचारी माँ को भुगतना पड़ता है। निर्लज्ज लोग रात रात भर जाग कर नशा करते रहते हैं।
देख लकीरें रो दिया, कल आँगन का नीम
बच्चों की तरकार में, माँ रोती तकसीम (४९)
देखे रंग जहान के, भर नयनों में तीर
तड़प उठी धरती भला, किसे सुनाए पीर (५२)
रात रात सोई नहीं, रोई सारी रात
कहीं छलकते जाम थे, कहीं लाज पर घात (६०)
ऐसी स्थितियों को देखकर कवि और तो कुछ कर नहीं सकता, सिवा इसके की वह व्यंग्य और कटाक्ष का सहारा ले और समाज की मन:स्थिति को झकझोर दे। डा. ज्योत्सना शर्मा भी, जहां कहीं भी असंगतियाँ और विरोधाभास दिखाई देता है, तंज करने से चूकती नहीं। उनके दोहों में कटाक्ष के कुछ नमूने उल्लेखनीय हैं –
एक गली में हो गई, बच्चों में तकरार
समझदार कुछ आगए, ले हाथों तलवार (८०)
इसकी उसकी गलतियाँ, खूब रहे हैं आँक
कभी किसी दिन देखना, अपने भीतर झाँक (८४)
खूब अँधेरे देखकर, किया अनोखा काम
फूंक दिए घर आपने, उजियारे के नाम (७३)
मत कहिए आए नहीं, मेघ सजन इस बार
हमने ही छीना यहाँ, धरती का श्रृंगार (५२)
व्यंग्य और कटाक्ष तो खैर अपनी जगह हैं ही , किन्तु ज्योत्सना जी आशा का दामन छोड़ती नहीं। भले ही कभी कभी विचलित ही क्यों न हो जाएं। पर कुल मिलाकर वे एक सकारात्मक दृष्टि ही अपनाती हैं –
आशा आज पतंग सी, करती बहुत सवाल
खींचें या ढीली रखें, कैसे करें संभाल ( ७२)
आते जाते दे गई, ये प्यारी सौगात
दीप द्वार पर रख गई, गहरी काली रात (५७)
देख देख कर हो गए, डर, शंका निर्मूल
रंग बिरंगी तितलियाँ, उड़ें फूल से फूल (४६)
दर्प तमस का तोड़कर आया नया विहान
सूरज ने फिर बाँट दी, कलियों में मुस्कान (७७)
अत: विचलित होने की आवश्यकता नहीं है। आवश्यकता इस बात की है कि हम सब अपना अपना काम उसे कर्तव्य मान कर और प्रेम भाव से करते रहें। इस सन्दर्भ में ज्योत्सना जी ने अपने पूर्वज दोहाकारों की तरह अनेक नीतिपरक दोहे भी लिखे हैं –
सरस अंजुरी प्रेम की, करें आचमन आप
सुख सरिता सुख सार की, बहे वहां चुपचाप (२८)
ज्योतिर्मय जीवन मिला, मत कर इसको धूल
तज दे मन के द्वेष को, बीती बातें भूल (२९)
दुनिया के बाज़ार में रही प्रीत अनमोल
ले जाए जो दे सके, मन से मीठे बोल (२९)
छू लेना आकाश मन, रख मिट्टी का मान
तुम्हें धरा पर स्वर्ग का, करना है संधान (४९)
माटी महके बूंद से, मन महके मृदु बोल
खिड़की एक उजास की, खोल सके तो खोल (५५)
आज अंधेरों को चलो, दिखला दें ये रूप
एक हाथ में चांदनी, एक हाथ में धूप (४४)
इसी सन्दर्भ में डा. ज्योत्सना शर्मा सृजन धर्मियों का भी आह्वान करती हैं की वे अपनी कलम और कला के प्रति न केवल सजग रहें बल्कि ईमानदारी भी बरतें –
इस बेमकसद शोर में, कला रही जो मौन
तेरे मेरे दर्द को, कह पाएगा कौन ? (१९)
कभी कहे कर जोर कर, कभी करारा वार
रसवंती मृदु लेखनी, बने कभी तलवार (१८)
भारत में इतना प्राकृतिक सौंदर्य है कि कोई भी उसे अनदेखा नहीं कर सकता। कवि तो विशेषकर उसे उसे अपनी लेखनी से अभिव्यक्ति दे ही देता है। मौसम के बदलाव और उससे जुड़े विविध पर्वों के अलग अलग रंग सहज ही उसकी लेखनी के विषय बन जाते हैं।
सीधे सादे की हुई, आड़ी तिरछी चाल
होली तेरे रंग ने कैसा किया कमाल ( ३३)
होली में अब होम दें, कलुषित भाव विकार
मन से मन सबके मिलें, हो फिर मुखरित प्यार (३३)
मेहनत करते हाथ को, बाक़ी है उम्मीद
रोज़ रोज़ रोजा रहा, अब आएगी ईद ( ४१)
और जब प्रकृति के साथ प्रेम-भाव भी जुड़ जाता है तो सौन्दर्य देखते ही बनाता है –
बौराया मौसम हुआ, पवन करे हुडदंग
पागल मनवा मांगता, सदा तुम्हारा संग (३२)
गुन गुन मत कर बावरे, कोयल तू मत कूक
याद मुई बेबस करे, उठे जिया में हूक (३२)
धानी-पीली ओढ़नी, ओढ़ धरा मुसकाय
सातों रंग बिखेर कर, सूरज भागा जाय (३४)
फूल कली से कह गए, रखना इतना मान
बिन देखे होती रहे, खुश्बू से पहचान (४५)
पुरवा में पन्ने उड़े, पलटी याद किताब
कितना मन बहका गया, सूखा एक गुलाब (५६)
प्रेम भाव ही ऐसा है। इसके साथ एक पागलपन, एक बेबसी, एक बहक, एक विह्वलता जुडी रहती है। नायिका कहती है –
अधर मधुर सी रागनी, मन में बजते तार
तुमने देखा नैन भर, अधर हुई मैं आज (८२)
हाथ जोड़ करती रही, बस इतनी फ़रियाद
भूले हो मुझको अगर, क्यों आते हो याद ( ८३)
ज्योत्स्ना जी के दोहों में अभिव्यक्ति की सहजता के साथ साथ भावों की गहराई भी है। सम्प्रेषणीयता और मार्मिकता है। मुझे पूरा विश्वास है कि हिन्दी का साहित्यिक समाज “महकी कस्तूरी” का ह्रदय से स्वागत करेगा। अधिकतर दोहाकारों ने दोहों की सतसइयाँ लिखी हैं जिनमें ७०० दोहे संग्रहीत होते हैं – बिहारी सतसई, हरिओध सतसई, मतिराम सतसई, इत्यादि। मेरी कामना है और भरोसा भी है कि डा. ज्योत्सना शर्मा भी अपने दोहों की एक सतसई अवश्य बनाएंगीं।
--डा.सुरेन्द्र वर्मा (मो. ९६२१२२२७७८)
१०, एच आई जी / १, सर्कुलर रोड
इलाहाबाद -२११००१
जवाब देंहटाएंरचनाकार ई-पत्रिका के सभी पाठकों को नमस्कार ।
एकं से बढ़कर एक रचनाएं हैं । सभी का प्रयास सराहनीय है ।
जवाब देंहटाएंरचनाकार ई-पत्रिका के सभी पाठकों को नमस्कार ।
एकं से बढ़कर एक रचनाएं हैं । सभी का प्रयास सराहनीय है ।