दर्द की लपट // सिंधी कहानी // शौकत हुसैन शोरो // अनुवाद - डॉ. संध्या चंदर कुंदनानी

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फिल्म पूरी हो चुकी है। लोग एक दूसरे को धक्के देकर मकौड़ों की तरह सरकते जैसे कि बिलों से बाहर निकल रहे हैं। सिनेमा के अंदर एक और झुंड अंदर जान...

फिल्म पूरी हो चुकी है। लोग एक दूसरे को धक्के देकर मकौड़ों की तरह सरकते जैसे कि बिलों से बाहर निकल रहे हैं। सिनेमा के अंदर एक और झुंड अंदर जाने के लिए उतावला खड़ा है। जबरदस्त भीड़ है चारों ओर, लेकिन इस पूरे मेले में मैं बिल्कुल अकेला हूं। अकेलेपन के इस एहसास के कारण फिल्म में भी कोई खास मजा नहीं आया। फिल्म तो केवल वक्त काटने के लिए देखी। वक्त का भी अपना मिजाज (स्वभाव) है, अपनी चाल है। कभी तो हवाई जहाज की तरह उड़ता है, कभी कछुए की तरह सरकता रहता है। हवाई जहाज की तरह उड़ उड़कर कछुए की तरह सरकने लगता है, फिर अचानक कछुए की तरह सरक सरककर हवाई जहाज की तरह उड़ने लगता है। परंतु इस दौरान पता नहीं कैसे कैसे परिवर्तन ला देता है। वक्त ने मुझमें और रूबी में भी कितना परिवर्तन ला दिया है न? रूबी के साथ बिताये गये पलों को जेट जहाज की तरह उड़ा ले गया और पीछे धुएं की लकीर भी नहीं रही है। मेरी जिंदगी जिस तेजी के साथ आगे बढ़ी, उतनी ही सुस्त रफ्तार से अब सरक रही है। वक्त काटने से भी नहीं कट रहा। बेकार वक्त गुजारना भी एक समस्या है मेरे लिए। फिल्म देखने का शौक मुझे नहीं था, लेकिन केवल वक्त काटने के लिए देखी थी। मुझे ऐसा लग रहा था जैसे हॉल में इतने लोग होते हुए भी मैं अकेला हूं। चारों ओर अजनबी और अनजान चेहरे, अंधेरे में घिरे हुए, जिनमें किसी भी तरह का अपनापन नहीं होता है। मुझे अपनों में ही अपनापन नजर नहीं आया तो परायों में अपनापन कहां से आया - लेकिन मैं यह सब क्यों सोच रहा हूं... सोच तो आग की लपट है, जलाकर राख कर देती है। ओह! यह कौन गुजर गई मेरे बाजू से... वह तो नहीं थी, रूबी! नहीं वह रूबी नहीं थी। शाम को 7 बजे मुझे उसके घर जाना है। लेकिन मैं उससे मिलने नहीं जा रहा हूं। मुझे उसकी माँ से मिलना है। या इस बहाने उसे देखना चाहता हूं। हम आपस में रिश्तेदार हैं। लेकिन रिश्तेदार होते हुए भी अब मेरा रूबी से क्या संबंध! हम एक दूसरे के लिए अजनबी बन चुके हैं - लेकिन कभी किसी वक्त, जो अब नहीं रहा है, वह मेरे इतने करीब थी कि उसके दिल की धड़कन सुन सकता था। उसकी तेज तेज गर्म सांसें अपने चेहरे पर महसूस करता था। वह मुझ में से सांस लेती थी और मैं उसमें से सांस लेता था। लेकिन आज... उसकी सांसों की सुगंध में और मेरे हवासों में वक्त ने एक बड़ा खाल पैदा कर दिया है। मुझे यह खाल कबूल है, इसलिए कि वक्त जो कुछ देता है, वह न चाहते हुए भी कबूल करना ही पड़ता है। हम दोनों ने यह निर्णय कबूल कर लिया है - खुशी से न सही लेकिन कबूल करना ही पड़ा है। अब हम दोनों के बीच एक बड़ी खाई है जो पार नहीं की जा सकती। भला वक्त के खाल को किसी ने पार किया है?

सिनेमा से निकली भीड़ बाजार की अनंत भीड़ में घुल गई। मैं तो जैसे एक जंगल में आ गया हूं। चारों ओर शोर है। जंगल के जानवर चीखकर शोर कर रहे हैं। मेरी सांस अटक रही है। चारों ओर घुटन है। ये लोग जंगल के जानवर नहीं हैं, सर्कस के सीखे हुए जानवर हैं। इस प्रकार उछलकर और नाचकर करतब दिखा रहे हैं कि मैं ही जंगली जानवर लग रहा हूं जो इन सीखे हुए जानवरों के बीच में आकर फंसा हूं। ‘‘हा हा हा...हू हू हू...ही ही ही...पकड़ो, पकड़ो...मत छोड़ना...नहीं छोड़ना...हू हू हू...’’ मैं भागना चाहता हूं, लेकिन भागने से डरता हूं। सब मेरे पीछे भागेंगे... लेकिन मैं तो बेकार ही डर रहा हूं! मुझे क्या हो गया है! यह मैं क्या सोच रहा था? अपने आप पर हंसना चाहिए... कभी कभी लोगों के मन में कैसे अजीब विचार आते हैं न। दिल चाहता है कि अपने इस विचार पर ठहाका लगाऊं, लेकिन बीच बाजार में अकेले खड़े होकर ठहाका लगाना पागलों का काम है। मैं तो अकेला हूं, इसलिए ठहाका नहीं लगा सकता। यह अकेलेपन का एहसास तो मुझे मार डालेगा। अकेलापन इन्सान का नसीब है, लेकिन किसी का साथ मिलने से अकेलेपन का एहसास दब जाता है। जब किसी का साथ नहीं होता तब अकेलापन एक जोरदार हमला कर देता है और एहसास पक्का बन जाता है। मैं उसके साथ के बिना जैसे इतने बड़े घने जंगल में अकेला ही अकेला भटकता रहा हूं। रूबी का साथ था, कुछ एक पल थे जो आंख झपकने जैसे गुजर गये।

एक दिन एक पुस्तक देते हुए रूबी ने कहा, ‘‘यह कहानी तो पढ़के देख।’’

उस कहानी में एक आदमी अपनी मेहबूबा से एक साथ जीने मरने का वायदा करके पता नहीं कहां चला जाता है हमेशा के लिए। मैंने कहानी पढ़ी, उसकी ओर देखा। मुझे महसूस हुआ कि उसकी आँखों में एक प्रश्न है। वह कुछ पूछने के लिए व्यग्र है। मैंने उठकर उसका मुंह चूम लिया। उसकी आंखें भर आईं। आंखें भर आती हैं तो उछल पड़ती हैं। मेरे दिल ने चाहा कि उसके आंसुओं को पी जाऊं। उसके आंसू अमृत हैं, मैं अमर हो जाऊंगा... हमारा प्रेम अमर हो जाएगा। इस दुनिया में कोई भी चीज अमर नहीं, मरना, आखिर, मौत अपनी जगह पर अटल हकीकत है - लेकिन कभी कभी व्यक्ति इन सच्चाइयों से भागकर तुच्छ विचारों का सहारा लेकर उनकी शरण में चले जाते हैं। खुद को धोखा देकर खुश होते हैं। उसके बाद जब मानसिक धोखे गुब्बारे के समान फट जाते हैं तब बच्चों की तरह रोने लगते हैं। शायद हम भी उन्हीं लोगों में से थे।

रूबी ने मुझे कहा था, ‘‘यह बात मेरी समझ में नहीं आती है कि जिन लोगों का आपस में इतना प्रेम होता है वे एक दूसरे के लिए अनजान कैसे बन जाते हैं!’’

‘‘काश यह बात कभी समझ भी न पाओ...’’ मैंने केवल इतना ही कहा था। आज यह उत्तर मुझे हंसी जैसा लग रहा है। कितनी ही बातें आगे चलकर अपना महत्व खोकर हंसी जैसी लगती हैं। कल की सच्चाई, कल का सच आज झूठ लग रहा है। किसी भी चीज की कोई भी सच्चाई नहीं है, कोई अर्थ नहीं है। सब धोखा है, फरेब है, बेकार और बेमतलब है।

अचानक एक व्यक्ति ने मुझे धक्का देकर दूर कर दिया है; और मेरे बाजू से एक कार शरड़ाट करते निकल गई है।

‘‘संभलकर चल भाई, जिंदगी से तंग आ गये हो क्या?’’ वह व्यक्ति कह रहा है। मैं केवल उसकी ओर देखता हूं। उसका शुक्रिया अदा नहीं करता। आगे बढ़ जाता हूं। क्या हो जाता? वह कार मुझे मार देती, वैसे ही जैसे जूते के नीचे मकौड़ा रौंद जाता है। मौत आदमी के कितना करीब है, हर चीज से दूर मौत के आगे आदमी भी मकौड़े जैसा ही है। कभी हंसते खिलखिलाते, कभी रोते सुबकते चेहरे पल भर में पत्थर बन जाते हैं। बस इतना महत्व है व्यक्ति का! व्यक्ति जो महान है, वह भी मौत के आगे कितना तुच्छ और हीन है। व्यक्ति मशीन की तरह इधर उधर दौड़ रहे हैं, अचानक कोई पुर्जा टूटा तो मशीन बेकार। आदमी अपनी बनी हुई चीज की गारंटी दे सकता है, लेकिन खुद आदमी को बनाने वाले ने कोई गारंटी नहीं दी है।

वायदे झूठी गारंटी की तरह हैं, और वायदों का भला महत्व ही क्या है! कभी रूबी और मैंने कितने वायदे किए थे, लेकिन आज उसका संबंध केवल भूतकाल से है। हमारा प्यार जो कल तक सच था, आज उसका कोई अर्थ नहीं है। कल कुछ था, आज कुछ नहीं। लेकिन फिर भी दिल तो कोरा कागज है, कोई लकीर पड़ गई तो मिटेगी नहीं। मिट भी जाए लेकिन कागज का कँवारापन तो खत्म हो गया।

आज आओ तो इन यादों के जहर के घूंट साथ मिलकर पीएं, मिलकर चुस्कियां लें। शायद अजनबीपन की खड़ी की गई दीवार को हटा सकें, चाहे कुछ पलों के लिए ही सही। लेकिन अब हो भी क्या सकता है! परायेपन की दीवार कितनी मजबूत है और उसे गिराना न मेरे बस में है और न रूबी के बस में।

‘‘वक्त बड़ा ही बेरहम है, रूबी! हमारे आगे वक्त जैसे तेज तूफान का बहाव है। इस तूफान का सामना करने के लिए अभी हम दोनों में हिम्मत ही पैदा नहीं हुई है। कहीं इस बहाव में बहते, हालातों के धक्के खाते एक दूसरे से अलग होकर, गायब न हो जाएं। हम दोनों लाचार हैं, रूबी! अनजाने ही वक्त के जुल्म का शिकार बन गए। रिश्तेदारों की पुरानी दुश्मनियों और नफरतों के इतने बड़े ढेर में हमारे प्यार को कहां जगह मिलेगी? अगर वक्त की रेत से हमारे पैरों के निशान मिट गए तो पूरी उम्र भटकते रह जाएंगे। सुकून के लिए तरसेंगे...’’

उसके होठों पर केवल मुस्कान फैल गई और उसका चेहरा मेरे मुंह पर झुक गया।

मैंने कहा था, ‘‘मुझे अपने सीने में छुपा दो, मैं डर रहा हूं, रूबी, मैं डर रहा हूं।’’

उसने अपने बाल खोलकर मेरे चेहरे पर फैला दिये। उसके बालों की छांव तले अभी केवल एक पल ही गुजरा होगा कि वक्त ने एक तेज झपटा मारकर मुझे रूबी से अलग करके अकेलेपन की खाई में धकेल दिया... कौन जाने अगले पल क्या होगा! वक्त की अपनी चाल है। हर पल एक नई घटना है, नई सच्चाई है। खानदानी नफरतें पेड़ की शाखों की तरह हमारे प्यार को घेर ले गई और हम...

वक्त तेरे बिना भी गुजर रहा है, लेकिन जिंदगी एक बोझा बन गई है। फिर भी मुझे ढोना है। मैं यह भार अकेले ढो रहा हूं। अगर तुम साथ होतीं तो आज ऐसा न होता। पता नहीं तुम कैसी होतीं - लेकिन मैं ऐसा न होता!!

पता नहीं कहां आ पहुंचा हूं। मन की उदास और वीरान राह के अलावा मुझे और कोई राह नहीं सूझ रही है। मैं तो ऐसे ही चला जा रहा हूं, भटकता भटकता... भटकना मेरा भाग्य है, मेरा नसीब है, वक्त की रेत से पैरों के निशान मिट गये हैं। मैं तुम्हें तो प्राप्त न कर सका लेकिन खुद को ही खो बैठा।

यह गली रूबी के घर की ओर जा रही है। मैं कई वर्षों के बाद इस गली में आया हूं। पता नहीं क्यों, मेरे दिल पर कोई भारी चीज गिर गई है, किसी अनजान डर की वजह से दिल दब गई है। मुझे वापस चले जाना चाहिए। यहां हर चीज में वीरानी और परायेपन का अहसास हो रहा है। आज रूबी के अपनेपन का अहसान नहीं जुड़ रहा है, फिर आसपास की चीजें अजनबी बन गई हैं तो क्या हुआ? लेकिन मैं यहां आया क्यों हूं! इतने वर्षों के बाद केवल यह देखने के लिए कि रूबी कैसी है! कल रूबी की माँ मिली थी और उसने मुझे उनके घर आने के लिए कहा। उसने शायद व्यवहारिक तौर पर कहा था और मैंने सोचा कि मैं एक बार होकर आऊं। इतने दिनों के बाद मैं देखना चाहता था कि रूबी कैसी दिख रही है। मैंने ऐसा क्यों चाहा वह समझ में नहीं आ रहा। शायद राख में अभी चिंगारियां दबी हुई हैं।

मैं रूबी के सामने जाऊंगा तो क्या बात करूंंगा! वह क्या सोचेगी कि मैं उसके घर क्यों आया हूं! उसने खुद कहा था कि आगे से हमारा एक दूसरे से कोई संबंध नहीं रहेगा और मैं उसके घर न आऊं। यह उसके पिता की मर्जी थी और पिता की मर्जी के खिलाफ वह सांस भी नहीं लेना चाहती थी।

मैं दरवाजे पर खड़ा हूं, पता नहीं कितनी देर से, लेकिन साहस नहीं हो रहा है कि घंटी का बटन दबाऊं। मन किसी अनजान कारण से सिकुड़ रहा है।

किसी ने आकर दरवाजा खोला है। ओह रूबी! वह सामने खड़ी है। एक पल के लिए उसके चेहरे पर आश्चर्य के भाव उभरते हैं। उसे पता होगा कि मैं आ रहा हूं, फिर भी! शायद उसने सोचा होगा कि मैं नहीं आऊंगा।

वह मुस्कराती है। मुझे यह जबरन बिखेरी हुई मुस्कान लग रही है। उत्तर में मुझे भी जबरन मुस्कराना चाहिए, लेकिन मेरे बस की बात नहीं है।

‘‘आइए... अंदर आइए...’’ वह हटकर अंदर आने के लिए रास्ता देती है।

‘‘माँ को एक पड़ोस की औरत बाहर लेकर गई है। जा नहीं रही थी, लेकिन उस औरत का जरूरी काम था। आपके लिए कहकर गई है कि आए तो बिठाकर जूस पिलाना।’’

मेरा मन ज्यादा उलझता जा रहा है। रूबी सामने खड़ी है। हम दोनों चुप हैं। मेरे गले में जैसे कांटे अटक गए थे। वह कुछ कह रही है।

‘‘आप खड़े क्यों हैं? बैठते डरते हैं क्या? मैं आपको खा नहीं जाऊंगी।’’

मैं चुप।

‘‘आप बहुत कमजोर दिख रहे हैं। बीमार थे क्या?’’

मैं चुप।

‘‘आपने शायद न बोलने की कसम खा रखी है।’’ वह हंसती है, फीकी और निर्जीव हंसी।

आखिर मैं बोलता हूं, ‘‘आप तो माशा अल्लाह बहुत स्वस्थ दिख रही हैं, जैसे कि कभी बीमार ही न पड़ी हों।’’ मुझे अपने लहजे में कड़वाहट महसूस हुई।

वह हंसती है। मेरे होंठों पर केवल मुस्कान आती है। वह मुस्कान कितनी खराब होगी!

‘‘यह होंठों ही होठों में क्या कह रहे हैं? होंठों में कहने की आपकी आदत अभी तक नहीं गई है।’’

‘‘आपके कहने के अनुसार जिसे बोलना नहीं आता वह केवल होंठ हिलाता है, और मुझे बात करना अभी भी नहीं आता है।’’

‘‘सोचना तो आता है!’’ वह मुझे घूरकर देखती है, जैसे कि कह रही हो कि तुम जरा भी नहीं बदले।

‘‘हां, मेरे सुधरने की कोई भी उम्मीद नहीं है।’’ मेरे मुंह से निकल जाता है।

‘‘जी?’’ वह हैरानी से कहती है।

मैं कोई उत्तर नहीं देता। अब मैं यहां एक पल के लिए भी नहीं बैठ सकता। मुझे माहौल ऊपरी और पराया लग रहा है! सब कुछ व्यवहारिक है। हम दोनों का बातें करना, दोनों का मुस्कराना... सब व्यवहारिक है। यहां मेरा दम घुट रहा है। मैं बाहर जाना चाहता हूं। अचानक मैं उठ खड़ा होता हूं। बहाना बनाकर बाहर निकल आया हूं। लेकिन बाहर भी हवा नहीं है। घुटन है। शाम का अंधकार फैला हुआ है। माहौल धुंधला है - मेरे मन की तरह।

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रचनाकार: दर्द की लपट // सिंधी कहानी // शौकत हुसैन शोरो // अनुवाद - डॉ. संध्या चंदर कुंदनानी
दर्द की लपट // सिंधी कहानी // शौकत हुसैन शोरो // अनुवाद - डॉ. संध्या चंदर कुंदनानी
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