इतिहास का गढ़ पहले पहल बगीचे में जाते हुए पहली ही बार हमें दिखा था मूंजों से ढंका रेड़ों से जाने कब का लदा खेतबारी के पास यूँ ही खड़ा पड़...
इतिहास का गढ़
पहले पहल बगीचे में जाते हुए
पहली ही बार हमें दिखा था
मूंजों से ढंका
रेड़ों से जाने कब का लदा
खेतबारी के पास यूँ ही खड़ा पड़ा
हमें मिला था पहली ही बार
मैरवां का गढ़
मगर ये गढ़ है क्या
ऊँचे टीले की आकृति लिए
सबका ध्यान क्यों खींचता है अपनी ओर
आखिर क्यों आधी रात गए
गढ़ में हुए धमाके से
हिलने लगता है सारा गाँव
बंसवार से निकलते हैं शब्द
पेड़ों से निकलती है कहानियाँ
कहानियों से बनती हैं पहेलियाँ
जिन पहेलियों को बुझाते हैं लोग
कि कब बना होगा यह गढ़
पगडंडियों से गुजरता आदमी
पहुंचता है जब नदी के पास
तो उसे बबूल की
कांटेदार झाड़ियों के बीच से ही
कांपता दीखता है गढ़
तुम्हें सच नहीं लगता
कि बस्ती के लोग
जब दोपहरी में करते हैं आराम
तो पछुआ बयार से तवंका हुआ
सूखे झंखाड़ – सा भयावह दिखता है यह गढ़
कितने लगे होंगे मिटटी के लौंदे
पत्थर कितने लगे होंगे
उस गढ़ को बनाने में कितने लगे होंगे हाथ
तुम भी देखोगे उसे एक बार
शायद कहीं दिख जाए उनकी परछाइयाँ
कितने अचरज की खान है गढ़
इस बस्ती के लिए सबसे बड़ा अचरज
कि हर के होश संभालने के पूर्व से ही
हर किसी के अन्दर
कछुए – सा दुबका पैठा है यह गढ़ .
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नया साल
पेड़ों में आते हैं नन्हें टूसे
खलिहान से आती है नवान्न की गंध
तुम आती हो ख्यालों में लीची की
मधुर आभास लिए
मसूर के नीले फूलों - सी साड़ी लहराती
जैसे जीवन में
पहली बार आया हो नया साल का सवेरा.
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सिक्के
हमारे जन्म से बहुत पहले ही
केंचुल की तरह छुट गयीं मुद्रायें
चित्ती – कौड़ी – दाम – छदाम
अंगूठा , ढेंगुचा , सवैया , अढईया के पहाड़े
कोकडऊर बुकवा , माठ , गाजा , कसार
सरीखी देसी मिठाइयाँ
अमेरिका ने नहीं , शहरी बन चुके लोगों ने
घोल दिए हैं हमारी इच्छाओं के कुएं में नमक
छुटपन के साथी थे पांच – दस पैसे के सिक्के
जिससे खरीदते थे मेले में गुड की रस भरी जिलेबियां
हमारे गुल्लक भर जाते थे चवन्नी – अठन्नी से
पंद्रह के पोस्टकार्ड पर दूर से आते थे सन्देश
जिसकी आहट से भर जाती थी खुशियों की झोली
प्रेमचंद्र का कथानायक हामिद तो तीन पैसे में ही
खरीद लाया था दादी के लिए चिमटा
किसने छीने सिक्के , वे गुब्बारे , वे गुल्लक ......
तुम्हें दिखा नहीं हज़ार पंसौवा बदलने वालों को
चीटियों से लगी थीं कतारें
देखना कभी एक – दो सिक्के भी
हो जायेंगे चलन से बाहर
सूखे रेत पर पड़े केकड़े की तरह
असहाय , उपेक्षित , बेबस .
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गीत
आओ चलें परियों के गाँव में ,
नदिया पर पेड़ों की छाँव में.
सूखी ही पनघट की आस है
मन में दहकता पलास है
बेड़ी भी कांपती औ’ ज़िन्दगी
सिमटी लग रही आज पांव में .
अनबोले जंगल बबूल के
अरहर के खेतों में भूल के
खोजें हम चित्रा की पुरवाई
बरखा को ढूँढते अलाव में .
बगिया में कोयल का कूकना
आँगन में रचती है अल्पना
झुटपुटे में डूबता सीवान वो
रिश्ते अब जलते अब आंव में .
डोल रही बांसों की पत्तियां
आँखों में उड़ती हैं तीलियाँ
लोग बाग़ गूंगे हो गए आज
टूटते रहे हैं बिखराव में .
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छोटी लाइन की छुक-छुक गाड़ी
बचपन में एक्का पर जाते हुए ननिहाल
मन ही मन दुहराते थे की अब आया मामा का गाँव
रास्ते में दिखती थीं छोटी लाइन की पटरियां
बताती थीं माँ – ‘तेरे मामा इसी छुक – छुक गाडी में आते थे पटना से’
अब नहीं चलती वह छुक – छुक गाड़ी
बस घुमती है माँ की यादों में लगातार
नहीं आये मामा बरसों से पटना से, न आयीं उनकी चिट्ठियां......!
आरा – सासाराम मीटर गेज की लाईट रेलवे
चलती हुई किन्हीं सपनों से कम नहीं थीं उन दिनों
कोयला खाती, पानी पीती ,धुंआ उगलती
खेतों के पास से गुजरती भोंपू बजती हुई
उसकी रफ्तार भी इतनी मोहक
की चलती हालत में कूदकर कोई यात्री
बेर तोड़कर खता हुआ फिर चढ़ सकता था उस पर
देहाती लोगों के लिए छकडा गाड़ी थी वह
एक इंजन कुछ डब्बे साथ लिए
दौड़ा करती थी जैसे धौरी - मैनी - सोकनी गायें
जा रही हो घास चरने के लिए पार्टी पराठ में
मुसाफिर ठुसकर, लटककर ,इंजन के ऊपर भी बैठ-पसर
टिकट-बेटिकट पूरा करते थे सफ़र ,पहुँचते ठिकाना
अपाहिजों,गिरते यात्रियों को थाम लेने को उठते थे कई हाथ
सामने वालों के दुखों को बाँट लेने की ललक होती थी उनमे
दिखता था जलकुम्भी के खिले फूलों की तरह सबके चहरे
नोखा के पिछवाड़े में उन दिनों मुझे दिखा था मार्टिन रेलवे का डिब्बा
गंदे पोखर में नहाये नंगे – धडंग बच्चे जिसमें
खेला करते थे छुपा – छुप्पी , चिक्का – बीत्ति के खेल
नैहर जाती हुई नयी दुल्हनों के मन में थिरकती थी छुक – छुक गाड़ी
बूढों के लिए सहारे की लाठी
तो नौजवानों का खास याराना था उससे
यात्री लोककवि को बेवफा महबूबा की तरह लगी थी छुक-छुक गाड़ी
बाँधा था कविता के तंतुओं में जिसने –
‘आरा से अररा के चललू , उदवंतनगर उतरानी
कसाप में आके कसमस कईलु , गडहनी में पियलू पानी
हो छोटी लाइन चल चलेलु मस्तानी .’
बुलेट ट्रेन के चर्चा के ज़माने में
अब कही नहीं नज़र आतीं उसकी पटरियां
पुराने डिब्बे ,गार्ड की झंडियाँ
राह चलते बुजुर्ग उँगलियों से बताते है
उसके गुजरने के मार्ग
जिसकी शादी में पूरी बारात गयी थी ट्रेन से
यादों को टटोलते है वे की रेल-यात्रा में
किस कदर अपना हो जाते थे अपरिचित चहरे
निश्छल ,निःस्वार्थ जिनसे बांध जाते थे लीग भावना की बवंर में
अँधेरे में उतरा अनचीन्हा ,अनजाना किओ यात्री
बन जाता था किसी भी दरवाजे का मेहमान
स्मृतियों को सहेजते लोग अचानक जुड़ जाते थे
घर – परिवार – गाँव के भूले बिसरे संबंधों के धागे में
गुड की पाग व कुँओं के मीठे जल सा तृप्त हो जाता यह सहयोगियों का साथ
मोथा की जड़ों की तरह गहरी हो जाती थी उसकी दोस्ती
भलुआही मोड़ की फुलेसरी देवी के मन में बसी है छोटी लाइन
वह बालविवाहिता दहेज़ दानवों से उत्पीड़ित खूंटा तोड़कर भागी थी घर से
इसी रेलगाड़ी पर किसी ने दी थी उसे पनाह
जोगी बन गए रमेसर के बेटे को खोजने में
दिन रात एक कर दिए थे छोटी लाइन के यात्री
जैसे हेरते है बच्चे भूसे की ढेर में खोयी हुई सुई
अब शायद ही याद करता है कोई छोटी लाइन के ज़माने को
स्मार्टफोन में उलझी कॉलेज की लड़कियों की
खिलखिलाहट में उड़ाते है छोटी लाइन के किस्से
गाँव के बच्चे खुले में शौच करने जाते है उसके रास्ते में
भैसों के चरवाहे बरखा – धूप में छिपाने आते थे
घोसियाँ कलां की छोटी लाइन की कोठरी में
संझौली टिकट – घर में चलता है अब थाना
कही वीरान में पड़ा एक शिवमंदिर
जिसे बनवाया था छोटी लाइन के अधेड़ स्टेशन मास्टर ने
लम्बी प्रतीक्षा के बाद
उसके आँगन में गूंजी थी नन्हा की किलकारी
टूट – फुटकर बिखर रहा है वो मजार
जिसके अन्दर सोया है वह साहसी आदमी
जो मारा गया था रेल लुटेरों से जूझते हुए
नयी बिछी बड़ी लाइन की पटरियों पर दौड़ रही है सुपरफास्ट ट्रेन
सडकों पर सरक रही है तेज चल की सवारियां
गावों से शहरों तक की भागम – भाग, अंधी थकन में भी
अचानक मिल जाता है बरसों का बिछड़ा कोई परिचित
भोला - भला , सीधा – साधा दुनियादारी के उलझनों से दूर
सहसा याद आता है छोटी लाइन की छुक – छुक गाडी वाले दिन
ममहर के रास्ते में फिर जाते हुए
धीमी रेलगाड़ी , धीमी चलती थी सबकी जीवनचर्या
तब मिलते थे लोग हाथ मिलाते हुए , बल्कि
गलबहियां करने को आतुर खास अंदाज में
छा जाती थी रिश्ते नाते के उपस्थिति की महक .
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बारहमासा
सावन भादों के रिमझिम फुहारों के बीच
कुदाल लेकर जाऊँगा खेत पर
तुम आओगी कलेवा के साथ
चमकती बिजली , गरजते बादलों के बीच
तुम गाओगी रोपनी के अविरल गीत
बिचड़े डालते मोर सरीखे थिरकेगा मन
खडरिच – सा फुदकेंगे कुआर – कार्तिक में
कास के उजले फूलों के बिच
सोता की धार - सी रिसती रहेगी तुम
गम्हार वृक्ष – सा जडें सींचता रहूँगा कगार पर
धान काटते , खलिहान में ओसाते
अगहन – पूस के दिनों में बहेगी ठंढी बयार
तुम सुलगाओगी अंगीठी भर आग
चाहत की तपन से खिल उठेगा मेरी देह का रोंवा
माघ – फागुन के झड़ते पत्तों के बीच
तुम दिखोगी तीसी के फूल जैसी
छाएगी आम के बौराए मंज़र की महक
तुमसे मिलने को छान मारूंगा
चना – मटर – अरहर से भरी बधार
चैत्र – बैसाख में चलेगी पूर्वी – पश्चिमी हवाएं
गेहूं काटने जायेंगे हम सीवान में
लहराओगी रंग – बिरंगी साड़ी का आँचल
बोझा उठाये उडता रहूँगा
सपनों की मादक उड़ान में
तेज़ चलती लू में बाज़ार से लौटते हुए
जेठ – आसाढ़ के समय
सुस्तायेंगे पीपल की घनी छाँव में
पुरखे तपन में ठंढक देते हैं वृक्षों का रूप धर
हम बांटेंगे यादें अपने बचपन की
तुम कहोगी हिरनी – बिरनी के साहसिक किस्से
खडखडाउंगा कष्टप्रद दिनों से जूझने की
शिरीषं फलियों की अपनी खंजड़ी .
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बिहारी
दुखों के पहाड़ लादे
चले जाते हैं ये बिहारी
सूरत , पंजाब , दिल्ली , कहाँ – कहाँ नहीं
हड्डियाँ तोडती कड़ी मेहनत के बीच
उनके दिलों के कोने में बसा होता है गाँव
बीबी , बच्चों की चहकती हंसी
महानगरों के सतरंगी भीड़ में भी
कड़ी धूप में भी बोझ ढोते हुए
आती है उनके पसीने से देहात की गंध
परदेश कमाने गए इन युवकों की
जड़ें पसर नहीं पाती वहां की धरती में
बबूल की पेड़ों पर छाये बरोह की तरह
गुजारते हैं वे अपना जीवन
मूल निवासियों की वक्रोक्ति से झुंझलाए
कम मजदूरी पर खटते हुए
लौटना चाहते है अपने गाँव
कि याद आ जाता है बारिश की बौछार से ढहता हुआ घर
पिता का मुरझाया चेहरा , पत्नी का सूना चौका
पेबंद से अंग ढंकते बच्चे
शहरी बने नौकरीपेशा , व्यापार की मकसद से
गाँव छोड़े लोगों की तरह नहीं हैं ये युवक
जो पुश्तैनी गांवों को समझते हैं अपना जैविक उपनिवेश
बिहार से बाहर कमाने गए
युवकों के अंतस में महकती है मट्टी की गंध
उनके पसीने की टपकन से
खिलखिलाता है गाँव का गुलाबी चेहरा .
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पंचायत चुनाव में गाँव
नदी में फेंकता है मछुआरा जाल
खदबदाने लगती हैं मछलियाँ
पंचायत चुनाव की घोषणा होते ही
चिरनिद्रा से जागते हैं नर्मेद्य
वोटों के सौदागर
अपने आप लोग फंसते जाते हैं उसके घेरे में
राजनीति की पेंच लड़ाने वाले
पारंगद पतंगबाजों की पताकायें दिख जाती हैं दूर से
घर – घर में हो रही सेंधमारियों से पुलकित हैं चेहरे
अश्पृश्यता का खात्मा जहाँ अब तक न कर सका संविधान
उसकी दीवाल टूट रही है हौले से
गोश्त भरी थाली और दारु कि बोतलों में
कई जिन्दा गोश्तें दौड़ती हैं मादकता बिखेरती
पंचायत के भीतर बाहर
चुनाव पूर्व ही योद्धाओं द्वारा
की जाती है मौखिक रूप से ही योजनायें आवंटित
जाति , धर्म , संबंधों के
मकडजाल के बीच मच्छर हाट की तरह ख़रीदा जाता है वोट
बिकने को आतुर दिखता है गाँव का चेहरा
क्रेता – बिक्रेता के प्यार से रंग जाता है चुनावी बाज़ार
जो बेचते नहीं अपना वोट सौदागरों को
नरमेद्यों की गिद्ध दृष्टि लगी रहती है उन पर
उनके खेत रखे जाते है बिन पटे
उनके बच्चे निकाल दिए जाते हैं स्कूलों से
घर से निकलने के रोके जाते हैं उनके रास्ते
उनकी औरतें रहतीं हैं हरदम असुरक्षित .
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पीडाओं के दीप
दीपावली के बाद मुंह अँधेरे में
हंसिया से सूप पिटते हुए लोग बोलते हैं बोल
‘इसर पईसे दलिदर भागे , घर में लछिमी बास करे’
और फेंक देते हैं उसे जलते ढेर में
हर साल भगाया जाता है दरिद्र को
चुपके से लौट आता है वह
हमारे सपनों , हमारी उम्मीदों को कुचलता हुआ
कद्दू के सूखे तुमड़ी में माँ
घी के दिए जलाकर छोड़ती है नदी में
जिसमें मैं बहा आता था कागज़ की नाव
झिलमिल धार में बहती हुई जाती थी किसी
दूसरे लोक में
कितनी दीपावलियाँ आई जीवन में
जलते रहे दीप फिर भी अंतस में पीडाओं के .
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सय्यद मियां की टांगी
कमरे की दीवाल पर
खूंटियों के सहारे टंगी
टांगी को बहुत गौर से निरखते हैं सय्यद मियां
जिसे उनके वंश के नवाब पुरखे
शिकार करने साथ ले जाते थे
सवार होकर अरबी घोड़े की पीठ पर
अपने सिपहसलारों के साथ
पुरखों की निशानी को बड़ी
जतन से संजोते हैं वे
पिटवा खालिस लोहे की बनी टांगी
जिसमे लगा है सखुवे का बेंट
जिसे देखकर याद करते हैं अपने बुजुर्गों की वीरता
कि अंग्रेजों से कैसे मुकाबिल होते थे वे लोग
कैसे करते थे लूटेरों का सामना
अन्याय से लड़ने का कैसे अपनाते थे हौसला
आँगन में उगे अमरूद की गांछों को
दरवाजों की फांक से दिखती टांगी से
कटने का अब कोई भय नहीं होता
पिंजड़े का मिट्ठू सुग्गा उड़कर
जाना चाहता है टांगी पास
छतों पर टिक – टिक कराती गिलहरियाँ
खिलवाड़ करना चाहती है टांगी से
टांगी वाले कमरे से कुछ दूर बैठी
सय्यदा मोहतरमा पका रही होती है रसोई में
अनोखे पकवान
चींटियों के लिए छिड़क रही होती है अंजुरी भर चीनी
घर के मुंडेर पर आयी चिड़ियों को
चुगा रही होती है नवान्न के दाने
बधना से जल ढरकाकर
बुझा रही होती है उन कौवों की प्यास
जो सुनाते रहते हैं संसार भर की अच्छी खबरें
जिसे सुनकर बजती है घर – घर में कांसे की थाली
गाये जाते हैं गीत बधावे के
दरवाजे से आता है मेहमान का आने का सगुन
आँगन में रोपे तुलसी पौधे के समक्ष
मांगती हैं बारहां मन्नतें
तिलावत पर करती हैं अनगिनत दुआयें
कि हंसते खिलखिलाते लौट आये सबके बच्चे
सबकी बेटियों की हाथों में सजे खुशियों की मेहंदी
सबके चहरे पर छा जाये सावन के घुमड़ते बादल
गाँव की पगडंडियों की तरह शांत रहे हर का अंतरम
दीवाल की जानिब देखकर सोचते हैं सय्यद मियां
कि अपने भोथरे धार से
कैसे काट पाएगी टांगी
दुनियां – जहान के दुख – दलिदर वाले दिनों को .
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अवकाश पाये शिक्षक
शाम ढ़लते ही लौट आते हैं हारिल पंछी
चोंच में तिनका डाले
बधार से लौट आते हैं पखेरू
लौटते हैं लोग खेतों से काम निपटाकर
अवकाश पाये शिक्षक
लौट आते हैं अपने घरों में
गहरी उदासीनता के साथ
उनकी उदासीनता में
शामिल होती हैं विनम्रता की लहरें
विनम्रता के साथ प्रार्थनाएँ
प्रार्थनाओं के साथ उमंगती आशाएँ
जिसमें छिपी होती हैं पुरानी यादें
सहकार्मियों के साथ बीते अनगिन दिन
छात्रों को दिये स्नेहिल स्पर्श
पूरे समय का काफिला होता है उनके साथ
अवकाश पाये शिक्षक करते हैं कामनाएँ
किय विशाल पोखरे जैसे उनके विद्यालय में
उगते रहें श्वेत कमल, नीलोत्पल, नील कुसुम
जिसमें ज्ञान के भौरें करते रहें गुंजार
पूरा इलाका हो उनके सुगंधों से आच्छादित
अवकाश पाये शिक्षक
लौटना चाहते हैं अपने शुरू के दिनों में
वे खेलना चाहते हैं बचपन के खेल
वे फिर से लिखना चाहते हैं खड़िया से बारहखड़ी
वे बच्चों की तरह परखना चाहते हैं
शिक्षा की गुणवत्ता का रहस्य
अवकाश पा चुके शिक्षक
उमंगो से कबरेज होकर
करना चाहते हैं बुकानन की तरह यात्राएँ
वे जाना चाहते हैं धरकंधा
देखना चाहते हैं एक मुस्लिम दर्जी दरियादास को
कि वह एकांत में कैसे लिखता है अपनी कविताएँ
उसके आध्यात्मिक रहस्य को वे छू लेना चाहते हैं
वे कर्नल टांड जैसा घूमना चाहते हैं
‘राजपुताना’ में। जहाँ एक भक्तिमय राज कन्या मीराबाई
परमेश्वर को ही पति मानकर करती है नृत्य
उसके गीतों के दोशाले को ओढ़ना चाहते हैं वे
अवकाश पाये शिक्षक को अभी करने हैं ढेर सारे काम
उन्हें फेंकनी हैं ‘टॉर्च’ की तरह ज्ञान की रोशनी, जो चीर दे समय के अंधेरे को!
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घने बरगद थे लोहिया
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झाड-झंखाड़ नहीं ,घने बरगद थे लोहिया
जिसकी शाखाओं में झूलती थी समाजवाद की पत्तियां
बाएं बाजू की डूलती टहनियों से
गूंजते थे निःशब्द स्वर
‘दाम बांधो ,काम दो,
सबने मिलकर बाँधी गाँठ,
पिछड़े पाँवें सौ में साठ’
दायें बाजू की थिरकती टहनियों से
गूंजती थी सधी आवाज़
‘हर हाथ को काम ,हर खेत को पानी’
बराबरी ,भाईचारा के उनके सन्देश
धुर देहात तक ले जाती थीं हवाएं दसों दिशाओं से
सामंतवाद , पूंजीवाद की तपती दुपहरी में
दलित, गरीब , मजदूर-किसान
ठंढक पाते थे उसकी सघन छाँव में
बुद्धीजीवियों के सच्चे गुरु
औरतों के सच्चे हमदर्द
भूमिहीनों के लिए फ़रिश्ता थे लोहिया
बरोह की तरह लटकती आकांक्षाओं में
सबकी पूरी होती थी उम्मीदें
अपराजेय योद्धा की तरह अडिग
लोहिया की आवाज़ गूंजती थी संसद में
असमानता के विरुद्ध
तेज़ कदम चलते थे प्रतिरोध में मशाल लिए
उनकी कलम से उभरती थी तीखी रोशनी
चश्मे के भीतर से झांकती
उनकी आँखें टटोल लेती थीं
देश के अन्धेरेपन का हरेक कोना !
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बबूल का फूल
चट्टानों पर तैरती
सुबह की पिली धूप
अब नहीं दिखती मेरे आस – पास
झड रहे हैं शिरीष के पत्ते
जैसे सिमटता जा रहा हो
मेरे उपर का आसमान
गौरैये की चोंच
कूंचा गई है इस बार भी
हवा में उछलते धूलकडों से
और पत्त्थरों की वर्षा से
कहर उठा है सारा गाँव
काकी भूल जाती
घर की बटुली
पिता खो आते
बाज़ार में
पूर्वजों की रखी हुई शान
अब क्या किया जाए
कहीं दिखता नहीं हमें
घर के पिछवाड़े में उगा
बबूल का एक भी फूल .
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नीलकंठ
कहते थे दादा जी – ‘दशहरा में
नीलकंठ का दर्शन होता है शुभकारी’
कहीं नहीं दिखता नीली गर्दन वाला वह पंछी
चिलबिल , बांस ,इमली , गुलर के पेड़ों पर
फुदकता हुआ , फुसफुसाती है हवा कानों में
‘दबोच ले गयी है उसे भी
विकास की आंधी ने’.
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परिचय
लक्ष्मीकांत मुकुल
जन्म – 08 जनवरी 1973
शिक्षा – विधि स्नातक
संप्रति - स्वतंत्र लेखन / सामाजिक कार्य
कवितायें एवं आलेख विभिन्न पत्र – पत्रिकाओं में प्रकाशित .
पुष्पांजलि प्रकाशन ,दिल्ली से कविता संकलन “लाल चोंच वाले पंछी’’ प्रकाशित.संपर्क :-
ग्राम – मैरा, पोस्ट – सैसड,
भाया – धनसोई ,
जिला – रोहतास
(बिहार) – 802117
ईमेल – kvimukul12111@gmail.com
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