जब तक उसका पिता जिंदा था, याकूब हैदराबाद में अठखेलियां करता रहा। जब से पढ़ने के लिए यूनिवर्सिटी में प्रवेश लेकर जाम शोरे में आकर रहा, तो हॉस्...
जब तक उसका पिता जिंदा था, याकूब हैदराबाद में अठखेलियां करता रहा। जब से पढ़ने के लिए यूनिवर्सिटी में प्रवेश लेकर जाम शोरे में आकर रहा, तो हॉस्टिल जैसे उसका घर बन गई। पढ़ने में उसकी ज्यादा दिलचस्पी नहीं थी, यह और बात थी कि फिर भी हर वर्ष वह पास होता आया। उसकी असल चाहना थी कि गाँव से दूर हैदराबाद में जाकर रहे। जिस दिन शाम को जाम शोरे से हैदराबाद नहीं जाता था, वह दिन उसके हिसाब से जैसे कि बेकार गया। उसने बहुत कोशिश की कि पूरी उम्र छात्र बनकर हॉस्टिल में ही रहे। पीछे की चिंता उसे नहीं थी। जमीन उसका पिता संभालता था। वैसे भी याकूब को गाँव में मज़ा नहीं आता था। माँ के गुजर जाने के बाद वह आकर्षण भी नहीं रहा।
यूनिवर्सिटी में शांति के हालात जब बहुत खराब हो गए, तो मार्शल ला हुकूमत ने वहां पुलिस चौकियां बनाईं। हॉस्टलों पर ज्यादा सख्ती की गई। पढ़ाई पूरी होने के बाद भी हॉस्टल में रहने की परंपराएं खत्म हो गईं। जब याकूब को यूनिवर्सिटी वालों ने जबरदस्ती डिग्री दी तो मजबूरी में उसे हॉस्टल से बोरिया बिस्तर बांधना पड़ा। कुछ वक्त हैदराबाद में अकेले मित्रों के पास ठिकाना किया, लेकिन आखिर किसी बिल्डिंग में खाली कमरा किराये से मिल गया। अब वह पक्का हैदराबादी था। पिताजी ने बहुत जोर दिया कि वह गाँव आकर रहे और जमीनें संभाले लेकिन याकूब गांव से कतरा रहा था। कौन खेती बारी में भटके और किसानों से माथापच्ची करे। इससे तो हैदराबाद के रास्तों पर घूमने में मजा था। आधी आधी रात तक होटलों में बैठकर दोस्तों से गपशप करने और रास्तों पर घूमने के बाद जाकर सोता था और दोपहर को उठता था। पिता का इकलौता लड़का था, इसलिए पिताजी उसे खर्चा पानी देता था।
याकूब के पिता जब सब तरकीबें चला चुका तो उसने आखिरी तरीका अपनाया। उसने याकूब की शादी करवा दी। लड़की थोड़ा बहुत पढ़ी लिखी थी और दहेज में कुछ जमीन भी लेकर आई थी। याकूब ने पहले तो ना नुकूर की, लेकिन जो पिता पूरी उम्र उसकी मर्जी पर चला था, उसकी बात उसे माननी ही पड़ी। उसके पिता की यह उम्मीद पूरी नहीं हुई कि वह शादी करने के बाद हैदराबाद छोड़कर गाँव आकर रहे। याकूब की क्रिया इस प्रकार थी, गाँव जाता था, कुछ दिन वहां रहता था, फिर से हैदराबाद का आकर्षण होता तो खुद को रोक नहीं पाता था। पिता तो कोशिश करके थक गया। उसके बाद पत्नी का नंबर आया। लेकिन वह भी याकूब को हैदराबाद जाने से रोक नहीं पाई।
‘‘सच बताओ, हैदराबाद में किसी के साथ संबंध तो नहीं?’’ पत्नी ने उससे पूछा।
‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं, कसम से।’’ उसने पत्नी को विश्वास दिलाने की कोशिश की।
‘‘फिर तुम्हें हैदराबाद का इतना आकर्षण क्यों है?’’ पत्नी ने अविश्वास से कहा।
‘‘तुम्हें सच बताऊं?’’ याकूब की आँखों में शरारत थी। उसकी पत्नी की पलकें तन गईं, ‘‘बताओ?’’
‘‘मेरा हैदराबाद से संबंध है...’’ उसने ठहाका लगाकर पत्नी को खींचकर गले लगाया।
बच्चे भी हुए। एक लड़का, एक लड़की। याकूब पत्नी और बच्चों को चाहता भी था, लेकिन गाँव में रहना उसके लिए कठिन था। उसका बस चलता तो जमीनें बेचकर हमेशा के लिए हैदराबाद में जाकर रहता। लेकिन पिता के सामने यह बात करने की उसकी हिम्मत नहीं होती थी।
पिता के गुजर जाने के बाद वह अकेला जमीनों का मालिक बन गया। पिता के चालीस दिन बीत गये तो उसने अपने मन की बात पत्नी के आगे जाहिर की।
‘‘अरे भाई, जमीनें संभालने का काम मुझसे नहीं होगा। मैं पूरी उम्र इस झमेले से दूर रहा हूं। मुझे तो कुछ मालूम नहीं। किसान मुझे लूटकर खा पीकर चट कर जायेंगे।’’
‘‘जमीनें नहीं संभालोगे तो फिर खाएंगे कहां से?’’ पत्नी ने आश्चर्य से कहा।
‘‘पूरी दुनिया का गुजारा केवल जमीनों पर है क्या? और भी कई व्यवसाय हैं। जिस काम में मन न लगे, उस काम में हाथ नहीं डालना चाहिए। खेती बारी मुझसे होगी नहीं, न ही मैं यहां रह पाऊंगा।’’
‘‘फिर तुम्हारी मर्जी क्या है?’’ पत्नी ने उससे पूछा।
‘‘मेरी मर्जी है कि जमीनें बेचकर हैदराबाद में घर लेकर रहें। बच्चों को भी वहीं पढ़ायें। गाँव में कौन-सी पढ़ाई है। तीन चार वर्षों के बाद तो वैसे भी बच्चों को शहर में पढ़वाना पड़ेगा।’’
‘‘खेत खलिहान बेचकर शहर में चलकर रहें! फिर गुजारा कैसे होगा?’’
‘‘वह तुम मुझ पर छोड़। शहर में बहुत स्त्रोत हैं। किसी न किसी व्यवसाय में लग जाऊंगा।’’
पत्नी ने देखा कि उसके मानने न मानने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा। बच्चों की शिक्षा की भी समस्या थी और हैदराबाद में रहने के लिए उसका भी मन कर रहा था।
याकूब ने खेत खलिहान बेचकर लतीफाबाद में बंगला लिया। बच्चों को अंग्रेजी, उर्दू मीडियम के प्राईवेट स्कूल में प्रवेश दिलाया। वह दोस्तों से पहले ही किसी मुनासिब व्यवसाय करने के संबंध में सलाह मशविरा करता रहा था। दोस्तों ने उसे कहा था कि आजकल सिंधी लोगों ने अपने गाँव छोड़कर हैदराबाद और कराची की ओर रुख किया है। एक तो डाकुओं ने सिंधी लोगों को बहुत तंग किया है। गाय बैलों और माल की चोरियां खत्म हो गईं। अब लोगों की चोरी जोर पर है क्योंकि यह सबसे आसान काम है। किसी मालदार आदमी के घर का कोई सदस्य का अपहरण करना चाहिए और फिर दो तीन लाख लेकर लौटना चाहिए। लोग गाय बैल बेचकर डाकुओं को पैसा दें, इससे अच्छा यह है कि ये पैसे लेकर हैदराबाद या कराची जाकर बस जाएं। ऐसे लोगों के अलावा याकूब जैसे लोग भी थे, जिनको शहरी जिंदगी ज्यादा पसंद थी। गाँवों से शहरों की ओर पलायन का रुख कुछ बढ़ गया है। सिंधी लोगों को हैदराबाद में घरों की आवश्यकता थी। दोस्तों ने याकूब को बताया कि इस व्यवसाय में जो ईस्टेट एजेंट हैं, उनमें सिंधी कम हैं। उन्होंने याकूब को सलाह दी कि वह यह व्यवसाय करे। एक अच्छी सजावटी एयरकंडीशन्ड ऑफिस बनाकर आराम से बैठा रहे। जिसे घर बेचना या किराये पर देना होगा वह खुद ही उसके पास आएगा और खरीद करने या किराये पर लेने वाले लोग वैसे ही खोज में होते हैं।
याकूब ने लतीफाबाद में एक दुकान किराये पर लिया। उसमें शीशे के पार्टिशन और एयरकंडीशन्ड लगाकर अच्छा फर्निचर डालकर बैठ गया। इतने वक्त तक हैदराबाद में रहने के कारण जो जान पहचान थी वह भी काम आई। उसका व्यवसाय अच्छा चल निकला।
देखते देखते देश की राजनीति जो मार्शल लॉ के वक्त में दबी हुई थी, उसने अजीब पलटा खाया। मुहाजिरों की एक फाशी तन्ज़ीम ने जन्म लिया, जिसने ‘मुहाजिर पॉवर, सुपर पॉवर’ का नारा लगाया। कराची और हैदराबाद के शांत माहौल में कोई जहरीली गैस भर गई। कराची में मुहाजिरों और पठानों के बीच झगड़ा हो गया। काफी खूनखराबा हुआ। यह झगड़ा बढ़कर हदराबाद तक पहुंचा। पठानों की जगहों और दुकानों को लूटकर आग लगा दी गई। रास्ते पर जाते जिसे, जिसका आदमी हाथ लगा वह मरा पड़ा था। सिंधी चुप तमाशबीन थे।
कराची और हैदराबाद में कर्फ्यू लग गया। याकूब आराम से घर बैठ गया। उसकी नौकरी तो थी नहीं जो चिंता करे। लेकिन उसे एक बात खटक रही थी। उसने पत्नी से ये बात छेड़ी।
‘‘पता नहीं क्यों मुझे ऐसा लग रहा है कि मुहाजिरों और पठानों के बीच जो झगड़ा हुआ है, वह एक प्रकार की रिहर्सल है। मुहाजिर केवल पठानों और पंजाबियों को अपना दुश्मन नहीं मानते। पंजाबियों और पठानों के तो खुद के सूबे (जमीनें) हैं, लेकिन मुहाजिरों का असली झगड़ा जमीनदारों से ही होगा।’’
पत्नी ने उठते ही उसकी इस बात को रद्द कर दिया।
‘‘पता नहीं तुम्हें यह विचार कहां से आया है। हमारे पड़ोस में सभी मुहाजिर हैं। सिंधियों को केवल अपना घर है। मेरा उनकी औरतों के साथ उठना बैठना है। मैं उनके घर जाती हूं, वे मेरे घर आती हैं। मुझे तो कभी ऐसा नहीं लगा है कि मुहाजिर सिंधियों के खिलाफ हैं।’’
‘‘पड़ोस की बात और है। मेरा हर प्रकार के लोगों से पाला पड़ता है। मुझे पता है कि मुहाजिरों का सर खराब है।’’
‘‘सर खराब है तो हमारा क्या? जाकर पंजाबियों पठानों से लड़ें। हम बीच में आएं ही क्यों?’’ पत्नी ने उसकी बात को ज्यादा तवज्जो नहीं दी।
कर्फ्यू उतर गया तो जिंदगी का व्यवसाय फिर से शुरू हो गया। याकूब को खटकने वाली बात नहीं उतरी। उसने अपने दोस्तों से इसका जिक्र किया। लेकिन दोस्तों ने उसकी इस बात को पत्नी की तरह कोई तवज्जो नहीं दी।
‘‘ये राजनैतिक पेच तुम्हारी समझ में नहीं आएंगे। पंजाबी साम्राज्य का मुकाबला करना अकेले सिंधियों के बस की बात नहीं है। सिंधी पंजाबी साम्राज्य से भी लड़ें और मुहाजिरों को भी खुद से अलग रखें तो फिर isolation का शिकार बन जाएंगे। एम क्यू एम सिंध में एक नया ताकतवर फैक्टर है। सिंधी देश प्रेमियों को उनका सहकार प्राप्त करना चाहिए। मुहाजिरों को सिंध में ही रहना और मरना है। अगर ये दोनों ताकतें आपस में मिल जाएंगी तो पंजाबी साम्राज्य पर भारी पड़ेंगे,’’ राजनैतिक जानकारी रखने वाले एक दोस्त ने याकूब को समझाते कहा।
याकूब को उसकी बात दिल से लगी। उसके मन में खटकने वाली बात को आश्वासन मिला। उसे लगा कि मुहाजिर उसके ज्यादा करीब थे। पड़ोस के लिहाज से भी और व्यवसाय के लिहाज से भी। जो पढ़े लिखे मुहाजिर उसकी ऑफिस में आते थे, उनके आगे वह एम क्यू एम की सराहना करता था। सिंधी और मुहाजिरों की एकता के पीछे अपने राजनैतिक दोस्तों से सुनी दलीलों को दोहराता था।
अगर कोई मुहाजिर सिंध यूनिवर्सिटी में मुहाजिर छात्रों से हुई ज्यादतियों का जिक्र करता था तो याकूब एकदम उस बात का समर्थन करता था।
मैं भी यूनिवर्सिटी में पढ़ा हूं। कभी कभी वहां मुहाजिर छात्रों पर ज्यादतियां होती रही हैं। लेकिन यह पंजाबियों की चाल थी। वे दोनों धुरियों (ग्रुपों) को इस्तेमाल करते रहे हैं। उनकी कोशिश थी कि मुहाजिर और सिंधी आपस में लड़ते रहें। सिंधी छात्र बहुत सीधे हैं। गाँवों से चलकर शहर में यूनिवर्सिटी जैसी बड़ी शैक्षिक संस्थान में आते हैं, तो उस वक्त उनमें इतनी समझ नहीं होती है। भेड़ों की तरह उनको जिस ओर चलाते हैं चल पड़ते हैं। इसलिए वे गलत हरकतें भी करते रहते हैं। लेकिन अब उनमें यह दिलचस्पी पैदा हुई है कि सिंध के असल दुश्मन कौन हैं। आजकल सिंधी छात्र मुहाजिर छात्रों को ज्यादा करीब महसूस करते हैं।’’
इतना बात करने के बाद याकूब को खुशी होती थी कि उसमें भी राजनैतिक काबिलियत आ गई है और राजनैतिक मामलों में अच्छा खासा बोल लेता है।
लेकिन याकूब को यह पता नहीं था कि फाशी तनजीमें कैसे जन्म लेती हैं और वे मजलूम होने की चीखें करके कैसे दहशतगर्दी करती हैं। हैदराबाद के एक मेयर के एक समाचार पत्र को दिये बयान के खिलाफ हलचल करने के लिए यूनिवर्सिटी के सिंधी छात्र बसों में चढ़कर म्युनिसिपल ऑफिस पहुंचे। अचानक बसों पर गोलियों की बारिश हो गई। वे जान बचाने के लिए हैदराबाद की जिस गली में भाग रहे थे वहां उनको घेर लिया गया। तुरंत पूरे शहर में मुहाजिर-सिंधी फसाद शुरू हो गये।
याकूब उस वक्त अपनी ऑफिस में नहीं था। वह किसी ग्राहक को जगह दिखाने के लिए गया था। लौटकर आया तो उसकी ऑफिस में कोई चीज सुरक्षित नहीं थी। शीशे वाला पार्टिशन टूट फूट गया था। एयकंडीशन्ड और सोफा गायब थे। इतनी भारी चीजें मिनटों में गायब हो गईं! आस पास की दुकानें भी बंद थीं। शहर में कर्फ्यू लग गया। याकूब घर में बंद होकर बैठ गया। उसके मन में खटकने वाली बात एक बार फिर से जाग गई। एम क्यू एम और सिंधी देश प्रेमी नेताओं के बीच बातें हुईं। गलतफहमियों को दूर करके एक दूसरे से सहकार और एकता पर बल दिया गया। लेकिन याकूब को खटकने वाली बात को अब आश्वासन नहीं मिला। एक चिनगारी जो बड़ी आग लगा सकती है, फिर भी उसने नए सिरे से ऑफिस को बनाया। ऑफिस को बनाने और फर्निचर लेने पर काफी खर्चा हो गया।
अभी थोड़ा बहुत व्यवसाय ही हुआ कि दूसरा शोला भड़का। पूरे शहर में आग की तरह बात फैल गई कि मेयर पर सिंधियों ने कातिलाना हमला किया है। बारिश के बाद जैसे मशरूम पैदा होते हैं, वैसे ही पता नहीं कहां से नकाबपोश निकल आए। उनके हाथों में कलाशंकोफ थे और जहां भी कोई सिंधी उनको नजर आया उनको मौत के घाट उतारा जा रहा था। फूट पड़ गई। दुकान बंद हो गए। याकूब ऑफिस बंद करके घर की ओर भागा। जब तक कर्फ्यू था सिंधियों का काफी जानी नुक्सान हो चुका था। याकूब की ऑफिस आग लगाकर जला दी गई। ‘अगर उस वक्त मैं वहां होता तो मुझे भी ऑफिस में जला देते...’ उसे विचार आया।
इतना वहशीपन और नफरत कहां से पैदा हुई! याकूब का नया पैदा हुआ राजनैतिक उत्साह इस बात का उत्तर नहीं दे पाया। अड़ोस पड़ोस के व्यवहार में कोई खास फर्क नहीं आया था। लेकिन दिलों में शक उत्पनक् हो चुका था। कुछ खोट रह गई थी। चालीस वर्षों से साथ रहने वाले मुहाजिर और सिंधी एक दूसरे को शक की निगाहों से देखने लगे थे। कुछ मोहल्लों में जहां सिंधी अल्प संख्या में थे, उनके घरों पर हमला हुआ था। कुछ लोग गाँव चले गए थे तो उनके घरों के ताले तोड़कर सामान लूटा गया था। लतीफाबाद में जिस मोहल्ले में सिंधियों के केवल एक दो घर थे उन्होंने डर की वजह से बहुत सस्ते में घर बेच दिए। जैसे कि चालीस वर्षों के बाद फिर से बंटवारा हुआ था। सिंधी हिन्दुओं ने अपने घर छोड़ दिए थे और अब मुसलमानों की बारी थी।
घर बेचने वाले व्यवसाय से संबंध होने के कारण, याकूब को पता था जिस घर की कीमत पांच लाख थी तो उसके अब केवल दो लाख मिल रहे थे। खुद याकूब ने अपना घर बेचने की कोशिश की। लेकिन पहली बात तो कोई ग्राहक नहीं मिल रहा था, लेकिन अगर कोई मिल रहा था तो आधी कीमत से भी कम पैसे दे रहा था।
याकूब का व्यवसाय लतीफाबाद में बिल्कुल खत्म हो चुका था। सिंधी लोग हैदराबाद से दूर कासिमाबाद, स्टीज़न कॉलोनी और भिटाई नगर जा बसे थे। उस तरफ याकूब को व्यवसाय का चांस था, लेकिन यहां लतीफाबाद में सांस सूली पर टंगी हुई थी। घर छोड़कर जाए तो उस पर कब्जा होने का डर था। उसे कोई राह नहीं सूझ रही थी।
एक दोस्त ने याकूब से पूछा, ‘‘घर में कोई हथियार भी है या नहीं?’’
‘‘हथियार! नहीं यार, हथियार तो कोई भी नहीं,’’ याकूब ने कहा।
‘‘पड़ोस में केवल तुम्हारा ही सिंधी घर है और कल को खुदा न खास्ता अगर तुम्हारे घर पर हमला हो तो तुम्हारे पास कोई हथियार भी नहीं, जो अपने बच्चों की रक्षा कर सके।’’
‘‘बस यार, अंदाजे पर बैठे हैं। मैंने अपनी पूरी उम्र में कभी कोई हथियार हाथ में नहीं लिया। मुझे तो चलाना भी नहीं आता है।’’
याकूब ने अपनी पत्नी को दोस्त वाली बात बताई। उसकी पत्नी का भी विचार था कि शरीफ और शांतिपसंद लोगों का हथियार से क्या संबंध। दूसरी बात, उनका पड़ोस भी अच्छा था।
‘‘हथियार तो घर में पड़ा रहेगा और कल अगर कोई राह चलते मार दे तो घर पर पड़ा हथियार क्या करेगा,’’ याकूब ने कहा।
‘‘अल्लाह खैर करे। बाकी पड़ोस में तो कोई डर नहीं। अपनी तो किसी से शत्रुता नहीं। फिर बेवजह हमारा नाम क्यों लेंगे...’’ उसकी पत्नी ने कहा।
एक दिन सुबह याकूब ने घर का दरवाजा खोला तो उसने देखा दरवाजे पर कलम से क्रास का निशान लगा हुआ था। यह बात इशारा करती थी कि उसका घर हमले के घेरे में था। याकूब ने पड़ोस के लोगों को बुलाकर वह निशान दिखाया।
कुछ महीनों के बाद 30 सितंबर 1988 ई. में हैदराबाद के इतिहास का सबसे बड़ा कत्ले-आम हुआ। मोटर कारों में बैठे लोग हैदराबाद के मुहाजिर इलाकों में अंधाधुंध फायरिंग करते शहर से निकलकर भाग गए थे। इस कत्ले-आम का हिसाब हैदराबाद में खाली हाथ रहने वाले सिंधी लोगों को भरना पड़ा। दस रात कराची और हैदराबाद में नकाबपोशों ने सिंधी घरों में घुसकर कई परिवारों को मौत के घाट उतार दिया। जो परिवार अपने घरों में मारे गए थे उनके नाम समाचार पत्रों में आए। उनमें एक खानदान याकूब का था। समाचार के मुताबिक दोनों पति पत्नी और उसका बड़ा लड़का मारे गये थे और तीन बच्चे ज़ख्मी हुए थे, जिनको अस्पताल में भर्ती किया गया।
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